रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा।। चौथी का चंद।।

मानस चर्चा।। चौथी का चंद।।
जो आपन चाह कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥ 
सो पर नारि लिलारु गोसाईं । तजउ चौथि के चंद कि नाईं। 
जो व्यक्ति अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुमति, शुभ गति और अनेक प्रकारके सुख चाहे वह परस्त्रीके ललाटको चौथके चन्द्रमाकी तरह त्याग दे । अर्थात् परस्त्रीका मुख न देखे, उसके देखने से कलंक लगता है ॥ 
विभीषणजी औरोंपर ढारकर उनके बहाने रावणको उपदेश दे रहे हैं, जिसमें वह क्रोध न करे और न अनुचित ही माने ।पुनः वह बड़ा भाई है और राजा है, अतः सीधे न
कहकर अन्यके प्रति उद्देश्य करके कहते हैं, जिसमें वह समझकर अपनेको सुधार ले । रावणमें काम, क्रोध, लोभ परोक्ष कहे (सो पर नारि लिलारु गोसाईं,के 'नारिलिलार' से काम, भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई के'भूतद्रोह' से क्रोध औरअलप लोभ भल कहइ न कोऊ के 'अलपलोभ' से लोभ - इस प्रकार तीनों दोष कहे ) । पर रावण परोक्षकथनसे न समझेगा। ( क्योंकि अभिमानवश है); अतः दोहेमें अपरोक्ष कहते हैं; यथा— 'काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।' यहाँ प्रस्तुत प्रसंगमें श्रीसीताजीके देनेकी प्रार्थना करते हैं; इसीसे प्रथम कामके दोष दिखाते हैं कि उससे एक तो सुयशका नाश होता है, यथा- 'कामीपुनि कि रहहिं अकलंका' । दूसरे सुमतिका नाश होता है, यथा- 'मुनि अति बिकल मोह मतिनाठी'  । तीसरे शुभगतिका नाश होता है, यथा- 'सुभ गति पाव कि परत्रियगामी ।' चौथे नाना सुखोंका नाश होता है, यथा- 'अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुखखानि ।'  पाँचवें कल्याण अर्थात् भलाईका नाश होता है, यथा - 'तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।' कहनेका तात्पर्य यह कि इन पाँचोंको नष्ट करनेवाली 'परस्त्री' ही है।विभीषण संत हैं, इससे पाँचोंका उपदेश करते हैं। यहां 'कल्याण, सुयश, सुमति, शुभ गति और नाना सुख' पाँचोंका नाश 'परनारिलिलार' के दर्शनसे कहा है ।काव्य में स्त्रियोंके मुखके लिये चन्द्रमाकी उपमा दी
जाती है। इसीसे यहाँ भी चन्द्रमाकी उपमा दी गयी। और 'चौथि के चंद कि नाई' कहा गया; क्योंकि अन्य
तिथियोंके चन्द्रमा त्याज्य नहीं हैं। 'परनारि' कहा, क्योंकि जिस स्त्रीके साथ धर्मशास्त्रानुकूल पाणिग्रहण और
विवाह हुआ है, वह त्याज्य नहीं है। 'लिलार' शब्दसे 'मुख' का बोध कराया है, 'मुख' शब्दका प्रयोग नहीं करना भी साभिप्राय है। परस्त्रीका मुख चौथके चन्द्रमाके सामन कलंकका देनेवाला है, कलंकी है, अतएव त्याज्य है - यह उपदेश दूसरेको दे रहे हैं। जैसी आपकी कहनी है वैसी ही करनी भी है, दूसरेसे त्याग करने को कहते हैं और स्वयं उसे इस तरह त्यागे हुए हैं कि अपने मुँहसे 'मुख' शब्दका प्रयोग भी नहीं करते । 'मुख' शब्दतकका त्याग कर दिया है, केवल 'लिलार' से उसका संकेत कर दिया है। ऐसा अपूर्व त्याग विभीषणजीका है । यहां का भाव यह है कि आप राजा हैं, आपको चाहिये कि जो परस्त्रीको ग्रहण करे, उसे दण्ड दें और आपको तो परस्त्री कदापि न ग्रहण करनी चाहिये वरन् उसकी ओरसे इन्द्रियजित् होना चाहिये । राजा प्रजाके लिये आदर्श होता है।
लोकव्यवहारमें भाद्र शु० ४ के चन्द्रमाके दर्शनका निषेध देखा जाता है; परन्तु —— पंचाननगते भानौ पक्षयोरुभयोरपि । चतुर्थ्यामुदितश्चन्द्रो नेक्षितव्यः कदाचन। चतुर्थ्योर्भाद्रमासस्य चन्द्रचूडस्य भामिनी ॥
दिनद्वयं वर्षमध्ये पतिवक्त्रं न पश्यति ।  अर्थात् सिंहराशिपर सूर्यके होनेपर दोनों पक्षोंकी चतुर्थीमें उदय हुए चन्द्रमाका दर्शन कदापि न करना चाहिये । ग्रन्थकार कहते हैं कि भवानी इसी से चन्दशेखर  अर्थात् भगवान शंकर के मुखका दर्शन भ्राद्रमासकी चतुर्थियोंको अर्थात् वर्षमें दो दिन नहीं करतीं। क्योंकि पति के मुखके दर्शनसे ललाटस्थित चन्द्रमाका भी दर्शन हो जायेगा । - इस प्रमाणके अनुसार दोनों पक्षोंके चतुर्थी को चन्द्रदर्शनका
निषेध जान पड़ता है। इसीसे 'चौथि के चंद' कहा है, किसी पक्षका नाम न देनेसे दोनों मतोंका पोषण हो जाता है।
भाद्र शु० ४ गणेशचौथ है। उस दिनके चन्द्रदर्शनके निषेधकी कथा ब्रह्मचारी श्रीगंगाधरजीसे यह सुनी थी
कि एक बार श्रीगणेशजी अपने वाहन मूसापरसे फिसल पड़े थे, यह देख चन्द्रमा हँस पड़ा था, उसपर उन्होंने
शाप दे दिया कि तेरा दर्शन जो करेगा उसे कलंक लगेगा। शाप सुनकर देवताओंमें हाहाकार मच गया, क्योंकि
चन्द्रमाके बिना संसारका पोषण असम्भव हो जायगा । देवताओंकी प्रार्थनापर उन्होंने अनुग्रह कर यह कहा कि
अच्छा केवल हमारी चतुर्थीको चन्द्रदर्शनका निषेध रहेगा । तबसे भाद्रशुक्ल ४ को उसका दर्शन लोग नहीं करते ।
एक कथा यह भी है कि सत्ययुगके भाद्र शुक्ल ४ को बृहस्पतिने चन्द्रमाको तारा (बृहस्पति - पत्नी) के
साथ व्यभिचार करनेके कारण शाप दिया था कि आजकी रातको तेरा मुख पतित रहेगा अर्थात् तेरा मुख दर्शन-योग्य न रहेगा, जो कोई देखेगा उसे कलंक लगेगा। वेदान्तभूषणजी कहते हैं कि भाद्र कृ० ४ को अहल्याके
साथ व्यभिचार करनेमें चन्द्रमाने इन्द्रकी सहायता की थी, इससे उस तिथिका चन्द्रमा भी त्याज्य है । एक कथा यह भी है कि साधारण जीवोंकी कौन कहे, भगवान् कृष्णजीको चौथके चन्द्रमाके दर्शनसे स्यमंतकमणिकी
चोरीका मिथ्या कलंक लगा था। अतः चौपाईका भाव यह है कि चन्द्रमा कैसा सुन्दर, स्वच्छ और नेत्रोंको सुखद
होता है, पर परतियगामी होनेके कारण वह सुयश आदिसे ऐसा रहित हो गया कि उस दिन बुद्धिमान् अपने
सुयशादिके नाशके भयसे उसकी ओर भी नहीं देखते। वैसे परस्त्रीके मुखके देखनेका फल होता है । 
धोखेसे यदि चन्द्रदर्शन हो जाय तो उसका परिहार यह है कि भगवान् श्रीकृष्णको जो स्यमंतकमणिकी चोरी लगी थी उस कथाका श्रवण कर ले, ऐसा आज भी लोग करते हैं।  इस चन्द्रदर्शन-दोषका एक परिहार यह भी है कि  प्रतिमास शुक्लपक्षके द्वितीयाके चन्द्रका दर्शन करते रहे। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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