रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा ।।श्रीअनसूया।।


मानस चर्चा ।।श्रीअनसूया।।
अनुसुइया के पद गहि सीता।मिली बहोरि सुसील बिनीता। 
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ  निकट बैठाई ॥ सुशील और विनम्र श्रीसीताजी अनसूयाजीके चरण पकड़कर अत्यन्त शील और नम्रतापूर्वक
उनसे मिलीं। ऋषिपत्नी श्रीअनसूयाजीके मनमें बहुत सुख हुआ । उन्होंने श्रीसीताजीको आशीर्वाद देकर अपने
पास बिठा लिया ॥ २ ॥
श्री अनसूया जी कौन हैं - ये अत्रि जी की परम सती धर्मपत्नी हैं। अत्रि जी ने रामचन्द्रजी से इनका परिचय यों दिया है-
दस वर्षों तक लगातार वृष्टि न होने से संसार दग्ध होने लगा था तब इन्होंने अपने तपो बल से फल- मूल उत्पन्न किये, गंगाको यहाँ लायीं और अपने व्रतोंके प्रभावसे ही इन्होंने ऋषियोंके विघ्न दूर किये। देवकार्यनिमित्त इन्होंने दस रात्रिकी एक रात्रि बना दी थी। इन्होंने दस हजार वर्षतक बड़ा उग्र तप किया था।' इनके सतीत्वके प्रतापकी बहुत-सी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेशने इनके सतीत्वकी परीक्षा ली। उसका फल पाया। तीनोंको इनका पुत्र आकर बनना पड़ा। 'कतक' टीकाकार नागेशने रामाभिरामीटीका (वाल्मीकीयरामायण) में अनसूयाजीके सम्बन्धमें यह कथा उद्धृत की है कि अनसूयाजीकी कोई एक सखी थी; उसको किसी अपराधसे मार्कण्डेय ऋषिने शाप दे दिया था कि तू सूर्योदय होते ही विधवा हो जायगी। वह रोती हुई अनसूयाजीके पास आयी । इन्होंने उसपर दया करके अपने तपोबलसे सूर्यका उदय होना ही बंद कर दिया। जिससे दस रात्रिकी एक रात्रि हो गयी। तब ब्रह्मादि देवताओंने आकर उस सखीके पतिके मरने का शाप स्थगित कर दिया, वह विधवा न होने पायी। ऐसा होनेपर सूर्योदय हुआ । इनके तपस्याऔर प्रभाव की विस्तृत कथाएँ महाभारत, मार्कण्डेयपुराण और चित्रकूट - माहात्म्यमें दी हुई हैं। शिवपु० चतुर्थकोटि रुद्रसंहिता  में अनसूयाजीके मन्दाकिनी गंगाको लानेकी कथा मिलती है। चित्रकूटमें कामदवनमें अनसूयाजीसहित श्रीअत्रिजी अपने आश्रममें तपस्या करते थे। एक समय वहाँ सौ वर्षकी अनावृष्टिसे अकाल पड़ गया, सर्वत्र हाहाकार मच गया। सबको दुःखी देख न सकनेके कारण अत्रिजीने समाधि लगा ली। तब उनके शिष्यादि उनको छोड़कर चल दिये। परंतु अनसूयाजी सब कष्ट सहकर उनकी सेवामें वहीं उपस्थित रहीं। वे नित्य मानसी पार्थिव पूजा करके शिवजीको संतुष्ट करती थीं। उनका तेज अग्निसे इतना बढ़ गया था कि देवता, दैत्य आदि भी उनके सामने न हो सकते थे। महर्षि और उनकी पत्नीका तप देखकर देवता, महर्षि तथा गंगा आदि उनकी बड़ी सराहना करने लगे कि ऐसा कठिन तप देखनेमें नहीं आया। वे सब इनके दर्शनको आये और चले गये, पर गंगाजी और शिवजी वहीं रह गये। गंगाजीने सोचा कि ऐसी महान् सतीका कुछ-न-कुछ उपकार मैं कर सकूँ तो अति उत्तम है। इस प्रकार अकालके चौवन वर्ष बीत गये। अनसूयाजीका भी यही संकल्प था कि जबतक स्वामी
समाधिस्थ हैं तबतक मैं भी अन्न-जल न ग्रहण करूँगी । ५४ वर्ष बीतनेपर महर्षिने समाधिविसर्जन किया और
अनसूयाजीसे जल माँगा। वे कमण्डल लेकर आश्रमसे बाहर निकलीं और चिन्ता करने लगीं कि कहाँ जल
मिले जिससे मैं स्वामीको संतुष्ट कर सकूँ। उसी समय मूर्तिमान् गंगाने उनको दर्शन देकर पूछा कि देवि! तुम
कौन हो, कहाँ जाती हो, क्या चाहती हो, सो कहो मैं उसे पूरा करूँ। आश्चर्यान्वित हो श्रीअनसूयाजीने पूछा
कि यहाँ वनमें तो कोई रहता नहीं, न आता है, आप कौन हैं यह कृपा करके बतलायें। उन्होंने अपना परिचय
देकर कहा कि तुम्हारी तपस्या, स्वामी और शिवजीकी सेवा तथा धर्मपालन देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम
जो माँगो मैं दूँ। तब श्रीअनसूयाजीने हर्षपूर्वक प्रणाम करके कहा कि आप प्रसन्न हैं तो जल दीजिये । उन्होंने
कहा, 'अच्छा एक गड्ढा बनाओ।' इन्होंने तुरंत एक गड्ढा खोद दिया। गंगाजी उसमें उतरकर जलरूप हो गयीं ।
इन्होंने जल लिया और प्रार्थना की कि जबतक मेरे स्वामी यहाँ न आ जायँ तबतक आप यहाँ उपस्थित रहें ।
प्रार्थना करके जल ले जाकर इन्होंने स्वामीको दिया। उन्होंने आचमन आदि करके जल पिया और संतुष्ट होकर
पूछा कि जल कहाँसे लायी हो ? ऐसा स्वादिष्ट जल तो इसके पूर्व कभी नहीं मिला था। उन्होंने उत्तर दिया
कि आपके पुण्यके प्रभाव और शिवजीके प्रतापसे गंगाजी यहाँ आयी हैं, उन्हींका यह जल है। आश्चर्यमें होकरवे बोले कि प्रत्यक्ष देखे बिना हमें विश्वास नहीं होता। अनसूयाजी उनको साथ लेकर वहाँ आयीं। महर्षिजीने कुण्डको जलसे भरा देखा और गंगाजीका दर्शन भी पाया । फिर दोनोंने दण्डवत् प्रणाम- स्तुति करके उसमें स्नानकर नित्य-कर्म किया। तब गंगाजीने कहा कि अब मैं जाती हूँ । श्रीअनसूयाजी तथा महर्षि दोनोंने प्रार्थना की कि आप प्रसन्न होकर जब यहाँ आ गयी हैं तो अब इस वनको छोड़कर न जायें। उन्होंने कहा कि यदि तुम लोकका कल्याण चाहती हो तो तुमने जो शिवजी और स्वामीकी सेवा की है उसमेंसे एक वर्षकी सेवाका फल हमें दे दो तो मैं यहाँ रह जाऊँ । 'शंकरार्चनसम्भूतं फलं वर्षस्य यच्छसि । स्वामिनश्च तदास्थास्ये देवानामुपकारणात् ॥  तस्माच्च यदि लोकस्य हिताय तत्प्रयच्छसि । तर्ह्यहं स्थिरतां यास्ये यदि कल्याणमिच्छसि ॥'उन्होंने अपने एक वर्षका तप दे दिया और उस दिनसे गंगाजी  वहाँ रह गयीं और उनका
नाम 'मन्दाकिनी' हुआ। अनुसुइया कौन ? इसके बारे में संस्कृत में यह श्लोक प्रसिद्ध है
—'न गुणान् गुणिनो हन्ति स्तौति चान्यगुणानपि । न हसेत् परदोषांश्च सानसूया प्रकीर्त्यते ।' अर्थात्
जो गुणी गुणोंमें दोष नहीं लगाता और दूसरेके गुणोंकी स्तुति करता है, दूसरेके दोषोंका उपहास नहीं करता,
उसे अनसूया कहते हैं । - अनसूया नाम सार्थ है। जिसमें असूया नहीं है वह अनसूया है। त्रिगुणातीत जीव ही अत्रि
है; तथापि जीवकी अर्धांगी बुद्धि जबतक असूयारहित न हो जाय तबतक कोई भी 'अत्रि' नहीं हो सकता और
अत्रि हुए बिना कोई भी परम विरागी नहीं हो सकता; यथा - 'कहिय तात सो परम बिरागी । त्रिन सम सिद्धि तीन गुन त्यागी।' और परम विरागी हुए बिना श्रीरामजी हृदयरूपी आश्रममें पधारते ही नहीं ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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