रविवार, 17 नवंबर 2024

मानस चर्चा । जय और विजय।।

मानस चर्चा । जय और विजय।।
द्वारपाल हरिके प्रियदोऊ ।
जय अरु बिजय जान सब कोऊ ॥ 
बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत् बिदित सुरपति मद मोचन॥
कनककसिपु ( कनक = हिरण्य+कशिपु ) = हिरण्यकशिपु  हाटक लोचन
(हाटक- हिरण्य+लोचन - अक्ष) हिरण्याक्ष ।
हरि (विष्णुभगवान्) के दोनों ही प्रिय द्वारपालों जय और विजयको सब कोई जानता है ॥ उन दोनों भाइयोंने विप्र ( श्रीसनकादिक ऋषि) के शापसे तामसी असुर शरीर पाया ॥ ( जो )हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष (हो) इन्द्रके मद (गर्व) को छुड़ानेवाले जगत्में प्रसिद्ध हुए ॥ ' द्वारपाल हरिके प्रिय दोऊ । '  दोनों ही भगवान्‌के द्वारपाल हैं और दोनों ही प्रिय हैं। स्वामीका काम करनेमें निपुण तथा स्वामिभक्त होनेसे 'प्रिय' कहा। भक्तमालमें भी कहा है- 'लक्ष्मीपति प्रीनन प्रवीण महा भजनानंद भक्तनि सुहद।'
नाभास्वामी ने कहा है कि, 
'पार्षद मुख्य कहे षोडश स्वभाव सिद्ध सेवा ही की रिद्धि
हिय राखी बहु जोरि कै।
श्रीपति नारायण के प्रीनन प्रबीन महा ध्यान करै जन पालै भावद्गकोरिकै ।
सनकादि दियोशाप प्रेरिकै दिवायो आप प्रगट है कह्यो पियो सुधा जिमि घोरि कै।
गही प्रतिकूलताई जोपै यही मन भाई या तें रीति
हद गाई धरी रंग बोरि कै।' 
'जान सब कोऊ' अर्थात् सब जानते हैं, इसीसे
विस्तारसे नहीं कहते, पुराणोंमें इनकी कथा लिखी है और पुराण जगत् में प्रसिद्ध हैं। 'जय' बड़े हैं, इससे उनको
पहले कहा । [ ग्रन्थकारकी रीति है कि दो भाइयोंका नाम जब साथ देते हैं तो प्रथम बड़ेको तब छोटेको क्रमसे
कहते हैं। यथा- 'नाम राम लछिमन दोउ भाई । ', 'नाथ बालि अरु मैं द्वौ भाई ।' , 'नाथ नील नल कपि द्वौ भाई ।'  तथा यहाँ 'जय अरु बिजय', 'कनककसिपु अरु हाटक लोचन' में जयको और कनककशिपुको प्रथम रखकर जनाया कि जय बड़ा भाई है वही हिरण्यकशिपु हुआ । विजय और हिरण्याक्ष छोटे हैं। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष जुड़वाँ भाई (यमज) हैं। प्रथम हिरण्याक्ष निकला, पीछे हिरण्यकशिपु, पर वीर्यकी स्थिति अनुसार हिरण्यकशिपु बड़ा माना जाता है । 'बिप्र श्राप तें दूनौं भाई।'  । इस प्रकरणमें सनकादिको मुनि, ऋषि या ज्ञानी
विशेषण नहीं दिया किन्तु 'बिप्र' या 'द्विज' ही कहा है, क्योंकि इन्होंने वैकुण्ठमें भी जाकर मननशीलता न
कर क्रोध करके शाप दिया । [ 'बिप्र ' क्रोधमें भर जाते हैं और शाप दिया ही करते हैं। जैसे कि बिना सोचे-
समझे भानुप्रतापको । ऋषियों, ज्ञानियों को तो मननशील और संत-स्वभाव होना चाहिये, पर इन ब्रह्मज्ञानी महर्षियोंने शील, दया, शान्ति और क्षमा आदिको त्यागकर यहाँ कोप किया। अतएव उनको ऋषि आदि न कहकर 'बिप्र' कहा। इससे ग्रन्थकारकी सावधानता प्रकट हो रही है। श्रीमद्भागवतमें भी शाप देनेके पश्चात् जब भगवान्‌का
वहाँ आगमन हुआ तब उन्होंने भी मुनियोंसे ब्राह्मणोंकी महिमा गायी है और अन्तमें मुनियोंको 'बिप्र ' सम्बोधन
किया है। यथा- 'शापो मयैव निमितस्तदवैत विप्राः ।'  नारदजीने भी श्रीयुधिष्ठिरजीसे इनको विप्र-शाप होना कहा है। यथा-'मातृष्वसेयो वश्चैद्यो दन्तवक्त्रश्च पाण्डव। पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदाच्च्युतौ ।'
अर्थात् तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र भगवान् विष्णुके प्रमुख पार्षद थे। ये
विप्रशापके कारण ही अपने पदसे च्युत हो गये थे । त्रिपाठीजी लिखते हैं कि सनकादिककी उपमा चारों वेदों से दी गयी है, यथा- ' रूप धरे जनु चारिउ बेदा, इसलिये उन्हें विप्र कहा । विप्रशाप अन्यथा नहीं हो सकता; यथा—
'किये अन्यथा होइ नहिं बिप्रसाप अति घोर ।'  'विप्रशापसे' असुर हुए, इस कथनका भाव यह है कि इन्होंने असुर-शरीर पानेका कर्म नहीं किया था, ये शापसे असुर हुए। ब्राह्मणके शापसे असुर देह मिली, इसीसे
तमोगुणी शरीर हुआ।  'दूनौं भाई' से स्पष्ट किया कि जय और विजय भाई-भाई थे  । श्रीब्रह्माजीने इन्द्रादि देवताओंसे शापकी कथा यों कही है – 'हमारे मानस पुत्र सनकादिक सांसारिक विषय-भोगोंको त्यागकर यदृच्छापूर्वक लोकोंमें विचरते हुए अपनी योगमायाके बलसे एक बार बैकुण्ठधामको गये। इस अपूर्व धामको देखकर अतिशय आनन्दित और हरिके दर्शनके लिये एकान्त उत्सुक हुए। छः ड्योढ़ियाँ लाँघकर जब सातवीं कक्षामें पहुँचे तो वहाँ द्वारपर दो द्वारपाल देख पड़े। ऋषियोंने उनसे पूछनेकी कुछ भी आवश्यकता न समझी, क्योंकि उनकी दृष्टि सम है, वे सर्वत्र ब्रह्महीको देखते हैं। ज्यों ही मुनि सातवीं कक्षाके द्वारसे भीतर प्रवेश करने लगे दोनों द्वारपालोंने (इन्हें नग्न देख और बालक जान हँसते हुए) बेंत अड़ाकर इन्हें रोका। 'सुहृत्तम हरिके दर्शनमें इससे विघ्न हुआ' ऐसा जानकर वे मुनि सर्पके समान क्रोधान्ध हुए। और उन्होंने शाप दिया कि 'तुम दोनों रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित मधुसूदनभगवान्‌के चरणकमलोंके निकट वास करनेयोग्य नहीं हो। अपनी भेद-दृष्टिके कारण तुम इस परम पवित्र धामसे भ्रष्ट होकर जिस पापी योनिमें काम, क्रोध और लोभ- ये तीन शत्रु हैं
उसी योनिमें जाकर जन्म लो' 'ये ही दोनों द्वारपाल जय-विजय हैं। इस घोर शापको सुनकर उन दोनोंने मुनियोंके चरणोंपर गिर उनसे प्रार्थना की कि हम नीच-से-नीच योनिमें जन्म लें तथापि यह कृपा हो कि हमको उन योनियोंमें भी मोह न हो जिससे हरिका स्मरण भूल जाता है।' ठीक इसी समय भगवान् लक्ष्मीजीसहित वहीं पहुँच गये। मुनि दर्शन पाकर स्तुति करने लगे। फिर भगवान्ने बड़े गूढ़ वचन कहकर उनको आश्वस्त किया
कि ये दोनों हमारे पार्षद हैं, आप मेरे भक्त हो, आपने जो दण्ड इनको दिया, मैं उसे अंगीकार करता हूँ आप
ऐसी कृपा करें कि ये फिर शीघ्र मेरे निकट चले आवें । भगवान्‌का क्या तात्पर्य है यह ऋषिगण कुछ न
समझ सके और उनकी स्तुति करते हुए बोले कि 'यदि ये दोनों निरपराध हैं और हमने व्यर्थ शाप दिया हो
तो हमें दण्ड दीजिये. ' । भगवान्ने कहा कि आपने जो शाप दिया इसमें आपका कुछ दोष नहीं, यह मेरी इच्छासे
हुआ है। मुनियोंके चले जानेपर भगवान् अपने प्रिय पार्षदोंसे बोले कि तुम डरो मत। मैं ब्राह्मणके शापको मेट
सकता हूँ; पर मेरी यह इच्छा नहीं, क्योंकि यह शाप मेरी ही इच्छासे तुमको हुआ है । मुझमें वैरभावसे मन
लगाकर शापसे मुक्त होकर थोड़े ही कालमें तुम मेरे लोकमें आ जाओगे । 'जय-विजयको यह शाप क्यों हुआ ? इसका वृत्तान्त यह है कि एक बार भगवान्ने योगनिद्रामें तत्पर
होते समय इनको आज्ञा दी कि कोई भीतर न आने पावे। श्रीरमाजी आयीं तो उनको भी इन्होंने रोका, यह न सोचा कि भला इनके लिये भी मनाही हो सकती है श्रीलक्ष्मीजीने उस समय ही इनको शाप दिया था ।
यथा - 'एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा । पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते ॥ ' यह भगवान्ने स्वयं जय-
विजयको बताया है।
ये दोनों कश्यपकी स्त्री दितिके पुत्र हुए। बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु और छोटेका नाम हिरण्याक्ष हुआ ।
जन्ममें वे विश्रवामुनिके वीर्यद्वारा केशिनीके पुत्र, के रूप में  रावण और कुम्भकर्ण बने। फिर वे ही द्वापरमें शिशुपाल और दन्तवक्त्र हुए जो अर्जुनकी मौसीके पुत्र हैं । भगवान् कृष्णके चक्र-प्रहारसे निष्पाप हो शापसे मुक्त हुए। वराहावतार और हिरण्याक्षवधकी कथा इस प्रकार है कि
सृष्टिके आदिमें जब ब्रह्माजीसे मनु - शतरूपाजी उत्पन्न हुए तब उन्होंने ब्रह्माजीसे आज्ञा माँगी कि हम क्या करें।
ब्रह्माजीने प्रसन्न हो उन्हें सन्तान उत्पन्न करके धर्मसे पृथ्वीपालन करनेकी आज्ञा की। मनुजीने उनसे कहा कि
बहुत अच्छा पर हमारे और प्रजाके रहनेका स्थान हमें बतलाइये, क्योंकि पृथ्वी तो महाजलमें डूबी हुई है। ब्रह्माजी चिन्तित हो विचार करने लगे। इतनेमें उनकी नासिकासे सहसा अँगूठेभरका शूकर निकल पड़ा जो उनके देखते-देखते पलमात्र पर्वताकार होकर गर्जा । ब्रह्माजी और उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषि चकित हुए । अन्ततोगत्वा उन्होंने यह निश्चय किया कि यज्ञपुरुषने हमारी चिन्ता मिटानेके लिये अवतार लिया है और उनकी स्तुति की।
तब वाराहभगवान् प्रलयके महाजलमें प्रवेशकर डूबी हुई पृथ्वीको अपने दाँतपर उठाये हुए रसातलसे निकले ।
इतनेमें समाचार पा हिरण्याक्षने गदा उठाये हुए सामने आकर राह रोकी और परिहास करते हुए अनेक
कटुवचन  कहा (ओहो! जलचारी शूकर तो हमने आज ही देखा । पृथ्वी छोड़ दे )  । परंतु भगवान्ने उसके
वचनोंपर कान न दे उसके देखते-देखते पृथ्वीको जलपर स्थितकर उसमें अपनी आधारशक्ति दे दिया । तब दैत्यसे
व्यंग्य वचन कहते हुए उसका तिरस्कार किया । गदा - त्रिशूलादिसे दैत्यने घोर युद्ध किया। फिर अपने माया-
बलसे छिपकर लड़ता रहा । भगवान् भी गदा और गदा छूट जानेपर चक्रसुदर्शनसे प्रहार करते रहे । अन्तमें उन्होंने लीलापूर्वक उसे एक तमाचा ऐसा मारा कि उसका प्राणान्त हो गया । शेष सभी कथाएं बहुत ही प्रसिद्ध हैं आप सब जानते ही हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ