रविवार, 21 अप्रैल 2024

।।प्रतिवस्तूपमा अलंकार(Typical Comparison)।।

प्रतिवस्तूपमा अलंकार-(TypicalComparison)
    प्रतिवस्तूपमा का शाब्दिक अर्थ है-प्रतिवस्तु अर्थात् प्रत्येक वस्तु में उपमा (सादृश्य या समानता)का होना।इस अलंकार में दो वाक्य रहते हैं, एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य। इन दोनों वाक्यों में साधारण धर्म एक ही होता है, परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है । 
परिभाषा:-
जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाय, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।
जैसे:- 
(अ)सिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ? 
     क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?

       यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है।वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है।
एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है। अतः यहाँँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार है।

(आ)चटक न छाँड़त घटत हू, सज्जन नेह गँभीर ।

      फीको परे न बरु फटे, रंग्यो चोल रंग चीर ।

यहाँ ‘चटक न छाँडत’ तथा ‘फीको परै न ‘ में केवल शब्दों का ही अन्तर है, दोनों के अर्थ में समानता है । अत: यहाँ भी प्रतिवस्तूपमा है ।

    यह साधर्म्य, वैधर्म्यं और माला इन तीन रूपों में पाया जाता है।इन तीनों को हम उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं। 

1-साधर्म्य प्रतिवस्तूपमा अलंकार

 (एक धर्मता या समानधर्मता बताने वाला)

जैसे :-(अ)सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।

        पारस परस कुधातु सुहाई।।

(आ) अरुनोदय सकुचे कुमुद 

       उडगन ज्योति मलीन।

       तिमि तुम्हार आगमन सुनि

       भये नृपति बलहीन।।

2-वैधर्म्यं प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(असमानता भिन्नता - गुण, धर्म या कर्तव्य की भिन्नता वैपरीत्य, विपरीतता विषमता, अन्तर बताने वाला) जैसे:-

सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।

3-माला प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहने वाला क्रम)

सरुज सरीर बादि बहु भोगा।

बिनु हरि भगति जाइ जप जोगा।।

जाय जीव बिनु देह सुहाई।

बादि मोर बिनु सब रघुराई।।

काकु (वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो को काकु  कथन माना जाता है।)द्वारा एक धर्म-सम्बंध वर्णन के कारण चौथा भेद भी माना  गया है-

4-काकु प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(अ)प्रिय लागिहि अति सबहि मम

      भनिति राम जस संग।

     दारु बिचारु कि करइ कोउ

     बंदिअ मलय प्रसंग


(आ)तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा।

       चोरहिं चाँदनि रात न भावा।।

यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न' शब्दों से और उपमान वाक्य में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है।

इस अलंकार के अन्य उदाहरण भी देखें _

1. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.

  हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.

2. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना तजे कलंक.

3. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.

त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..

4. तेज चाल थी चोर की गति न पुलिस की तेज


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

।। विनोक्ति अलंकार।।

।।विनोक्ति अलंकार।।
परिभाषा:
जहाँ कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के बिना
शोभा प्राप्त न होते हुए दिखाई जाय वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

व्याख्या:

जहाँ पर उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को किसी
अन्य वस्तु के बिना हीन अर्थात् अशोभन
या रम्य अर्थात् शोभन कहा जाता है वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

दूसरे शब्दों में उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को
शोभनीय या अशोभनीय बताने के लिए
जहाँ काव्य में बिना,विना, बिन,बिनु,विनु
ऋते,रीते, रिते ,रहित आदि शब्दों का 
प्रयोग होता है वहाँ विनोक्ति अलंकार 
होता है।अनेक विद्वानों ने शोभनीय के 
आधार पर शोभन विनोक्ति और 
अशोभनीय  के आधार पर अशोभन 
विनोक्ति नाम के  दो भेद भी बताया हैं।
जो शब्दों पर ध्यान देने मात्र से ही
आसानी से पहचाने जाते  हैं।

उदाहरण:-

1.जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु 
  चंद बिनु    जिमि       जामिनी।
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन
  समुझि धौं जियँ         भामिनी।

2-राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा।
  हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
  बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ।
  श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥


3-जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
 तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥


4-लसत न पिय अनुराग बिन
    तिय के सरस सिंगार।

5-भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
  राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
  बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। 
  सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥


धन्यवाद

रविवार, 14 अप्रैल 2024

।।उदाहरण अलंकार ।।

।।उदाहरण अलंकार ।।
व्याख्या :
जहाँ दो वाक्यों का साधारण धर्म भिन्न
हो पर उसमें वाचक शब्द के द्वारा
समता बताया जाए वहाँ उदाहरण 
अलंकार होता है। 
विशेष ध्यान रखने योग्य बात है कि
 उदाहरण अलंकार में 
उपमेय वाक्य देने के बाद: जैसे,जैसी,तैसे,तैसी,जिमि,तिमि,
यथा,जथा,जस, तस आदि वाचक
 शब्दों का प्रयोग होता है और ये
 उदाहरण अलंकार की पहचान भी हैं।

परिभाषा:

जहाँ किसी बात के समर्थन में उदाहरण
किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाय,
वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।
उदाहरण:-

1-वे रहीम नर धन्य है, 
पर उपकारी अंग।
बाँटन वारे को लगे, 
ज्यों मेंहदी को रंग ।

2-जपत एक हरि-नाम के, 
पातक कोटि बिलाहिं।
ज्यों चिनगारी एक तें, 
घास-ढेर जरि जाहिं।।

3-जो पावै अति उच्च पद, 
ताको पतन निदान।
ज्यों तपि-तपि मध्याह्न लौं, 
असत होत है भान।।

4-एक दोष गुन-पुंज में,
 तौ बिलीन ह्वै जात।
  जैसे चन्द-मयूख में,
 अंक कलंक बिलात।।

5-हरित-भूमि तृन-संकुल, 
समुझि परहि नहिं पंथ।
जिमि पाखंड-बिबाद तें,
लुप्त होहिं सद्ग्रन्थ।।

6-नयना देय बताय सब,
 हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, 
भली बुरी कही देत।।

7-निकी पै फिकी लगै,
 बिनु अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में,
 रस सिंगार न सुहात।।

8-बसै बुराई जासु तन,
ताही को सन्मान।
भलौ-भलौ को छाङियौ,
खोटे ग्रह जप दान।।

9-मन मलीन, तन सुंदर कैसे।
 विष रस भरा कनक-घट जैसे।।

10-उदित कुमुदिनी नाथ
     हुए प्राची में ऐसे
     सुधा-कलश
    रत्नाकर से उठता हो जैसे।

11-बूंद आघात सहै गिरी कैसे ।
  खल के वचन संत सह जैसे ।।

 12- छुद्र नदी भरि चलि उतराई।
       जस थोरेहुँ धन खल बौराई।

13- ससि सम्पन्न सोह महि कैसी ।
     उपकारी कै संपति जैसी ।।

14-कामिहि नारि पियारी जिमि
   लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
   तिमि रघुनाथ निरन्तर 
   प्रिय लागहु मोहि राम।।

।।।। धन्यवाद। ।।।।   

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

।।स्रग्धरा छन्द हिन्दी एवं संस्कृत में।

।।स्रग्धरा छन्द।।
छन्द का नामकरण
स्रग्धरा का अर्थ माला को धारण करने वाली है। इस छन्द में कवि अपनी बात को 'स्रक्' अर्थात् 'माला' रुप में विस्तार के साथ कहता है। यह एक ऐसा विशिष्ट छन्द है, जिसके इक्कीस अक्षरों का विभाजन यति की दृष्टि से
सात-सात अक्षरों में बराबर किया गया है और इस तरह सात-सात अक्षरों की समानाकार वाली तीन मालाएँ बन जाती है।
छन्द का लक्षण— 
गंगादास छन्दोमंजरी में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि- 
'म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्' 
छन्द सूत्र में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि-
"स्रग्धरा म्-रौभ् -नौ यौ य् त्रिः सप्तकाः।" 
लक्षणों की व्याख्या-
जिस छंद के प्रत्येक  चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में वर्ण हो और "त्रिमुनियतियुता"मुनियों के क्रम से तीन बार यति हो उसे  स्रग्धरा छंद के नाम से जाना जाता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार सप्तर्षि की उत्पत्ति इस सृष्टि पर संतुलन बनाने के लिए हुई। उनका काम धर्म और मर्यादा की रक्षा करना और संसार के सभी कामों को सुचारू रूप से होने देना है। सप्तर्षि अपनी तपस्या से संसार में सुख और शांति कायम करते हैं।सप्त ऋषियों के नाम हैं- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।इन सात ऋषियों को सप्तर्षि कहा जाता है। इस प्रकार यह छंद एक बहुत ही मर्यादित छंद है जिसके द्वारा मर्यादापूर्ण बातों की अभिव्यक्ति की जाती है।त्रिः सप्तकाः का भी यही अर्थ है की सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति होता है।प्रत्येक चरणों में इक्कीस वर्णों वाला यह एकल छंद है।यह अति छंद परिवार का प्रकृति छंद है।सच बात तो यह है कि जो अर्थ मालिनी और स्रग्विणी का है, वही अर्थ स्रग्धरा का भी है। केवल प्रकृति और प्रत्यय का अन्तर है। स्रग्धरा में दो शब्द है 'स्रक' एवं 'धरा' जिसमें स्रक का अर्थ है 'माला' और धरा का अर्थ है 'धारण करने वाली' । स्रग्धरा छन्द में जब कवि को ढेर सारा अभिप्राय या बहुत लम्बे वृतांत का वर्णन करना होता है या प्रभुत अर्थ को परस्पर समेटना होता है तब वह प्रायः इस छन्द का प्रयोग होता है।दीर्घ छन्दों में ओजभाव को प्रकाशित करने वाला छन्द स्रग्धरा है। 
परिभाषा :- 
जिस छंद के प्रत्येक चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में अर्थात् S S S, S I S, S I I, I I I, I S S, I S S, I S S  के क्रम में वर्ण हो और सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति हो उसे स्रग्धरा छंद कहते है।
छन्द का उदाहरण-1-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहतिविधिहुतं या हविर्या च होत्री,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S   I S S  I S S
येद्वेकालंविधत्तः श्रुतिविषयगुणा यास्थिताव्याप्य विश्वम्।
S S S   S I S   S I I   I I I  I S S  I S S   I S S
यामाहुः सर्वबीज - प्रकृतिरितियया प्राणिनः प्राणवन्तः,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।
उदाहरण-2-
S S S S I S S I I I I I I S S I S S I S S
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् ।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥
उदाहरण-3-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्‌॥
हिन्दी:- 

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण, परिभाषा एवम् विवरण संस्कृत की तरह ही है।
उदाहरण :-
काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी।
दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।।
देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे।
देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।।
।।धन्यवाद।।


रविवार, 24 मार्च 2024

।।शार्दूलविक्रीडितम् छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

    ।।शार्दूलविक्रीडितम् छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

      यह उन्नीस वर्णों वाला समवृत्त वर्णिक छंद है। यह वृत्त/छंद अति छंद परिवार का अतिधृति छंद है।काव्य में शार्दूलविक्रीडित अत्यन्त प्रसिद्ध छन्द हैं। संस्कृत जगत में इस छन्द में अगणित श्लोक है।समवृत्त होने के कारण चारों चरण समान लक्षण युक्त हैं। इसके प्रत्येक चरण में 19 तथा चारों चरणों में कुल 76 वर्ण होते हैं। 
लक्षण - 
सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्।
 या
सूर्याश्वैर्मसजस्तता: सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् ।”
व्याख्या:
             शार्दूलविक्रीडित में शार्दूल का अर्थ बब्बर शेर
और विक्रीडित का अर्थ उसकी क्रीड़ा अर्थात् उछल कूद। शायद इस छंद में वर्णों की उछल कूद को देखकर ही
हमारे आचार्यों ने इसका नाम 'शार्दूलविक्रीडित' रखा है।
इस छन्द में जो इस प्रकार का भाव व्यक्त किया गया है वही बात उसके लक्षण में 'व्यक्त होता है - सूर्याश्वैर्यदि मः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्' अब प्रश्न उठता
कि इसका गायन करते समय आपकी साँस कहाँ-कहाँ विश्राम लेगी तो इसका उत्तर छन्द के लक्षण 'सूर्याश्वैर्यदि शब्द में प्राप्त होता है। जिसमें सूर्य और अश्व इन दो
शब्दों से जो सांकेतिक संख्या है उन संख्या वाले अक्षर पर साँस विराम लेगी। 
  अब सूर्य कहते है आदित्य को, हमारे पुराणों में जिनकी संख्या 12 बताई गयी है।धार्मिक और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी अदिति से उत्पन्न हुवे इसलिए आदित्य कहलाए जिनके नाम हैं : विवस्वान्, अर्यमान, पूषा, त्वष्टा, सविता, भाग,धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम अर्थात् भगवान वामन।इन्हीं के आधार पर
वर्ष के 12 मास नियत हैं ।इस प्रकार 'शार्दूलविक्रीडित छन्द में प्रथम विराम/यति प्रत्येक चरण के 12वें वर्णों पर होगी।
     अब दूसरा विश्राम 'अश्व' संख्या पर होगी।
 ऋग्वेद में कहा गया है- ‘सप्तयुज्जंति रथमेकचक्रमेको अश्वोवहति सप्तनामा’ यानी सूर्य एक ही चक्र वाले रथ पर सवार होते हैं, जिसे 7 नामों वाले घोड़े खींचते हैं. सूर्य के रथ में जुते हुए घोड़ों के नाम हैं- ‘गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति।ये 7 नाम 7 प्रकार के वैदिक छंदों के भी हैं।
इसलिए इस छन्द में द्वितीय विराम/ यति सातवें अक्षरअर्थात् प्रत्येक चरण के अंतिम वर्ण 12+7=19वें वर्णों पर होगी ।
परिभाषा:
     जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरणों में मगण, सगण, जगण, सगण, तगण , तगण और एक गुरु के क्रम में वर्ण हो और बारह एवं सात वर्णों पर यति हो उसमें। शार्दूलविक्रीडितम् छंद होता है।
उदाहरण:
  SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
1:याकुन्देन्दुतुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रवृता,
 SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
यावीणा वरदण्डमण्डितकरा याश्वेतपद्मासना।
 SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
याब्रह्माच्युतशंकरप्रभृति भिर्देवैः सदा वदिन्ता,
SSS IIS ISI IIS SSI SSI S
सामांपातुसरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥

2: खर्व स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम् , प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्ध मधुप व्यालोल गण्डस्थलंम् । दंताघात विदारि तारि रूधिरैः सिन्दूरशोभाकरम् ,
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ।।

3:यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके,
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा,
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्‌॥

4:ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमल प्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥

5: पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञान भक्तिप्रदं, 
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरशुभम् । 
श्रीमदामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये,
ते संसार पतङ्ग घोर किरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥

6:यास्यत्यद्य शंकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया, 
कण्ठः स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलषश्चिन्ताजडं दर्शनम् 
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः, 
पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः॥
    उक्त सभी श्लोकों में प्रथम श्लोक की भांति ही उनके सभी चरणों में क्रमशः मगण, सगण, जगण, पुन: सगण, उसके बाद दो तगण तथा अन्त में एक गुरू वर्ण हैं और 12वें एवं 7वें वर्णों के बाद यति हैं। अतः सभी 
शार्दूलाविक्रीडित छन्द के श्लोक हैं। 

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण=

माँ विद्या वर दायिनी भगवती, तू बुद्धि का दान दे |

माँ अज्ञान मिटा हरो तिमिर को, दो ज्ञान हे शारदे ||

हे माँ पुस्तक धारिणी जगत में, विज्ञान विस्तार दे |

वाग्देवी नव छंद हो रस पगा, ऐसी नयी ताल दे ||
।।धन्यवाद।।

शनिवार, 23 मार्च 2024

।।मन्दाक्रांता छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

मन्दाक्रांता छंद
            संस्कृत में मन्दाक्रांता का अर्थ है
"धीमे कदम रखना" या "धीरे-धीरे आगे बढ़ना"।
ऐसा माना जाता है कि इसका प्रयोग 
महाकविकालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ
मेघदूत में सर्वप्रथम किया था।मंदाक्रांता 
छंद अत्यष्टि वर्ग में आता है।
लक्षणः- 
मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ गयुग्यम्।।
व्याख्या :- 
       जिस वृत्त/छंद के प्रत्येक चरण में क्रमशः 
मगण भगण  नगण तगण तगण  और दो गुरु
के क्रम में  वर्ण हो और  लक्षण में प्रयुक्त
अंबुधिरसनगैः  के अनुसार अंबुधि: से  चार
महासागर  ऐतिहासिक रूप से नामित  हैं: 
अटलांटिक, प्रशांत, भारतीय और आर्कटिक।
(हालाँकि, अधिकांश देश - जिनमें संयुक्त
राज्य अमेरिका भी शामिल है - अब दक्षिणी 
अंटार्कटिक को पांचवें महासागर के रूप में
मान्यता देते हैं।)
    रस से छः दैनिक जीवन के रस नामित हैं :
मधुर (मीठा),अम्ल (खट्टा),लवण (नमकीन),
कटु (चरपरा) ,तिक्त (कड़वा या नीम जैसा) 
और कषाय (कसैला)। 
     नगैः से सात भारतीय  प्रसिद्ध पर्वत हैं: 
हिमालय ,अरावली, विन्ध्याचल, रैवतक ,
महेन्द्र, मलय और सहयाद्रि
       इस प्रकार अंबुधि, रस और नग के क्रम में 
प्रत्येक चरण में क्रमशः चार,छः और सात वर्णों 
पर यति होती है। यह समवृत्त  छंद है इसके 
प्रत्येक चरण में 17 वर्ण पूरे छंद में कुल 
68 वर्ण होते है। इस प्रकार इस छंद की 
परिभाषा बन रही है।
परिभाषा:
    जिस वृत्त/छंद के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण भगण नगण तगण तगण और दो गुरु के क्रम में
वर्ण हो और प्रत्येक चरण में चार छः और सात 
वर्णों पर यति हो उसे मंदाक्रांता छंद कहते हैं।
          अब हम उदाहरणों को व्याख्या सहित 
देखेगें लेकिन उससे पहले हमें हमेशा याद रखना
 है कि इस नियम/श्लोक के अनुसार अन्तिम वर्ण 
लघु होते हुवे भी छंद की आवश्यकता के अनुसार विकल्प से हमेशा गुरू माना जाता है।
वह नियम विधायक श्लोक है..

सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥

उदाहरण:
मगण भगण नगण तगण तगण दो गुरु
SSS  SII    I I I   SSI   SSI  S S
1.शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
   विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम् ।
   लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
   वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥

दूसरे उदाहरण के रुप में मेघदूतम का पहला श्लोक देखते है:

    S S S   S I I  I I I  S S I  S S I  S S
2.कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्त:,
शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ॥
 
   दोनों उदाहरणों में इनके प्रथम चरण के अनुसार 
ही क्रमशः मगण भगण नगण तगण तगण और 
दो गुरु के क्रम में वर्ण  हैं तथा प्रत्येक चरण में 
क्रमशः चार छः और सात वर्णों पर यति  भी है
 अतः मंदाक्रांता छंद  है।
      जरा दूसरे उदाहरण में ध्यान दे कि इसके
तीसरे और चौथे चरण का अंतिम वर्ण लघु हैं 
लेकिन "सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च  तथा पादान्तगोऽपि वा ॥"
के अनुसार वे गुरु माने जायेगें इस बात का
 हमेशा ध्यान रखना है।

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं परिभाषा 
संस्कृत की तरह ही हैं। आइए एक विद्वान की
हिंदी में  बताए  इस लक्षण को भी देख लेते हैं 
जिनका अर्थ पूर्व बताए गए व्याख्या और 
परिभाषा की तरह ही है।
हिन्दी में लक्षण:
“माभानाता,तगग” रच के, चार छै सात तोड़ें।
‘मंदाक्रान्ता’, चतुष पद की, छंद यूँ आप जोड़ें।।
उदाहरण:
1.लक्ष्मी माता, जगत जननी, शुभ्र रूपा शुभांगी।
विष्णो भार्या, कमल नयनी, आप हो कोमलांगी।।
देवी दिव्या, जलधि प्रगटी, द्रव्य ऐश्वर्य दाता।
देवों को भी, कनक धन की, दायिनी आप माता।।
 
 2.“तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम लाली।
पंछी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।”
।।धन्यवाद।।

रविवार, 10 मार्च 2024

।।शिखरिणी छंद हिन्दी एवं संस्कृत दोनों में।।

शिखरिणी 
       यह सत्रह अक्षरों/वर्णों  का  समवृत्त
 जाति का अत्यष्टि छंद है। 
लक्षण - 
रसैः रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी। 
व्याख्या:
        शिखरिणी छंद भारत के सौंदर्य,संस्कृति,
भूमि, गौरव और धीर-गम्भीर भावों को  को 
व्यक्त करने वाला विशेष छंद है। इसमें चार 
चरण होते हैं।प्रत्येक चरणों में यगण, मगण, 
नगण, सगण, भगण और लघु एवं गुरु के क्रम
में सत्रह-सत्रह अक्षर होते हैं। 
     अब प्रश्न उठता है श्वास का विराम/यति 
कहाँ करें ? तो इसके उत्तर में आचार्य ने कहा
है कि- रसै: रुद्रैश्छिन्ना अर्थात् रस एवं रुद्र की
संख्या पर श्वास का विराम अर्थात् यति होगा।
    प्रथम यति रसै: पर अर्थात् यहाँ पर रस का
प्रयोग पाकशाला में प्रयुक्त रसों तिक्त, कषाय, 
लवण, मधुर, अम्ल एवं कटु ये छः रस हैं।इस
 प्रकार छः वर्णों पर प्रथम यति होगा ।
     द्वितीय यति अर्थात् विराम 'रुद्र' अर्थात् रुद्र 
भगवान शंकर के  स्वरूप के  जो नाम है वे 11 
हैं जो शिवपुराण के अनुसार निम्नलिखित हैं..
कपाली,पिंगल,भीम,विरूपाक्ष,विलोहित,शास्ता,
अजपाद,अहिर्बुध्न्य,शम्भु,चण्ड और भव।
इस प्रकार द्वितीय यति प्रत्येक पाद/चरण के
अन्त में17वें अक्षर पर होगा।
     इसका तात्पर्य यह है कि शिखरिणी छन्द के 
प्रत्येक चरण के प्रथम छठें अक्षर के बाद
श्वास रुकती है और द्वितीय 11 अक्षर के बाद 
अर्थात् चरण के अन्त में श्वास रुकती है।
इस प्रकार कुल मिलाकर शिखरिणी छन्द के में 
कुल 17×4=68 वर्ण होते हैं।
परिभाषा=
जिस छन्द के प्रत्येक चरण में एक यगण 
(।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), 
एक सगण (।।ऽ), एक भगण (ऽ।।), एक
 लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ)  के क्रम में वर्ण
हो तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों पर यति हो
तो  शिखरिणी छंद कहते हैं।
उदाहरण -  
   । ऽ ऽ   ऽ ऽ ऽ  ।।।  । । ऽ     ऽ । ।     । ऽ
1."न मन्त्रं नो यन्त्रं, तदपि च न जाने स्तुतिमहो,
  न चाह्वानं ध्यानं, तदपि च न जाने स्तुतिकथा ।
  न जाने मुद्रास्ते, तदपि च न जाने विलपनं,
  परं जाने मात, स्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ।।”
     उक्त  श्लोक के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण
की ही तरह एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ),
एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण
(ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) के क्रम में
वर्ण हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों के बाद यति
 है इसलिए इसमें शिखरिणी छंद है।
हिन्दी:
     हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण एवं 
परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।
उदाहरण:
    यहाँ एक अति सुंदर भारत वंदन 
का उदाहरण है:
 । ऽ ऽ    ऽ ऽ ऽ   ।।।  । । ऽ  ऽ । ।  । ऽ
बड़ा ही प्यारा है, जगत भर में भारत मुझे।
सदा शोभा गाऊँ, पर हृदय की प्यास न बुझे।।
तुम्हारे गीतों को, मधुर सुर में गा मन भरूँ।
नवा माथा मेरा, चरण-रज माथे पर धरूँ।।1।।
यहाँ गंगा गर्जे, हिमगिरि उठा मस्तक रखे।
अयोध्या काशी सी, वरद धरणी का रस चखे।।
यहाँ के जैसे हैं, सरित झरने कानन कहाँ।
बिताएँ सारे ही, सुखमय सदा जीवन यहाँ।।2।।
   उक्त पद्य  के प्रत्येक चरण में प्रथम चरण
की ही तरह एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ),
एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण
(ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) के क्रम में
वर्ण हैं तथा छठे और ग्यारहवें वर्णों के बाद यति
 है इसलिए इसमें शिखरिणी छंद है।

।। धन्यवाद।।