रविवार, 30 जून 2024

मानस चर्चा "दारु नारि"

 मानस चर्चा "दारु नारि"
प्रसंग
सारद दारु नारि सम स्वामी । 
राम सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी ।
कबि उर अजिर नचावहिं बानी ।।
 दारु नारि क्या है? यह है लकड़ीकी बनी हुई स्त्री-कठपुतली। पूरी दुनिया है दारु नारि।। आइए उक्त चौपाई के आधार पर इस विषय पर चर्चा करें उसके पहले जानते हैं की उक्त पक्तियांं क्या कहती हैं।
उक्त पक्तियों  के अनुसार सरस्वतीजी कठपुतलीके समान हैं । अन्तर्यामी स्वामी श्रीरामजी सूत्रधर हैं ॥ अपना जन जानकर जिस कविपर वे कृपा करते हैं उसके हृदयरूपी आँगनमें  वे वाणी को नचाते हैं ॥ 
"कठपुतलीका स्वामी होता है जो उसे सूत्र धरकर नचाता
है । यहाँ श्रीरामजी शारदाके स्वामी हैं, अन्तर्यामीरूपसे उसे नचाते हैं। तात्पर्य कि अन्तर्यामी श्रीरामजी शारदाके
स्वामी हैं, शारदाको प्रेरित करते हैं । दाशरथि श्रीरामजी एकपत्नीव्रत श्रीसीताजीके ही स्वामी हैं, इसीसे अन्तर्यामीरूप पृथक् कहा। वाणी जड़ है, अन्तर्यामी प्रेरणा करता है तब निकलती है, इसीसे वाणीको कठपुतलीके समान कहा; यथा-
 'बिषय करन सुर जीव समेता।
 सकल एक तें एक सचेता ।
 सबकर परम प्रकासक जोई।
 राम अनादि अवधपति सोई ॥''स्वामी' कहकर यह भी जनाया कि मेरे ही स्वामी सरस्वतीके नचानेवाले हैं, अतः मुझपर कृपा करके वे उसे अच्छी तरह नचावेंगे। 'अंतरजामी' का भाव कि कठपुतलीको नचानेवाला छिपकर बैठता है और सूत्रपर कठपुतलीको नचाता है तथा श्रीरामजी अन्तर्यामी रूपसे वाणीको नचाते हैं। ये भी छिपे बैठे हैं, अन्तर्यामी रूप देख नहीं पड़ता । आप शिवजी को सुने कि वे मां पार्वतीजी से कहते हैं --
 'उमा दारु जोषित की नाईं । सबहि नचावत राम गोसाईं।  इस चौपाईमें ग्रन्थकारने श्रीरामजीका अन्तर्यामी रूपसे सबको नचाना कहा ही है ।गीतामें भी कहा है 
 'ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
 भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ' 
 अर्थात् शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमाता हुआ सब प्राणियों के हृदयमें स्थित है। और  भी कहा है कि 
'ईशस्य हि वशे लोके योषा दारुमयी यथा' 
अर्थात् कठपुतली समान यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशीभूत है । यहाँ नचानेवाला, नाचनेवाला और नचानेका स्थान तीनों उत्कृष्ट हैं— श्रीरामजी ऐसे नचानेवाले, शारदा ऐसी कठपुतली और 'जन- उर' आँगन है।
 'राम सूत्रधर' हैं। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी' में श्रीरामजीको 'गिरापति' कह आये हैं,
उसी अर्थको यहाँ पुनः ज्ञापकहेतुद्वारा युक्तिसे समर्थन किया है अर्थात् वाणीके सूत्रधर हैं, उसे नचाते हैं, इससे
जान पड़ा कि वे उसके स्वामी हैं। 
 कठपुतली तार या घोड़ेके बालके सहारे नचायी जाती है, जिसे 'सूत्र' कहते हैं । कठपुतलीकोnनचानेवाला ‘सूत्रधर’ परदेमें छिपकर बैठता है। वैसे ही सूत्रधर राम गोसाईं देख नहीं पड़ते। साधारण पुरुष केवल सरस्वतीकी क्रिया देखते हैं।   'सारद दारु नारि' की व्याख्यामें एक भजन  बहुत भी   उत्तम कोटि का प्रस्तुत है- 
'धनि कारीगर करतारको पुतलीका खेल बनाया। 
बिना हुक्म नहि हाथ उठावे बैठी रहे नहिं पार बसावे ॥ हुक्म होइ तो नाच नचावै जब आप हिलावे तार को। 
 जिसने यह जगत रचाया ॥ १ ॥ 
जगदीश्वर तो कारीगर है पाँचों तत्त्वकी पुतली नर है।
नाचे कूदे नहि वजर है पुतलीघर संसारको । 
बिन ज्ञान नजर नहि आया ॥ 
उसके हाथमें सबकी डोरी कभी नचावे काली गोरी । किसीकी नहि चलती बरजोरी तज दे झूठ बिचारको ।
 नहिं पार किसीने पाया ॥ 
परलयमें हो बंद तमासा फेर दुबारा रच दे खासा । 'छज्जूराम' को हरिकी आसा है धन्यवाद हुशियारको । आपे में आप समाया ॥ 
'धनि कारीगर करतारको पुतलीका खेल बनाया। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"


मानस चर्चा "अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली"
तेहि के बचन मानि बिस्वासा।
तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा।।
निर्गुन निलज कुबेष कपाली।
अकुल अगेह दिगंबरु ब्याली ॥ 
अर्थात् नारदजी के वचनोंपर विश्वास मानकर तुम ऐसेको पति बनाना चाहती हो जो जन्मसे ही स्वाभाविक ही उदासीन है, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, प्रेतों और मनुष्योंकी खोपड़ियोंकी मालापहननेवाला मुण्डमालधारी, कुलहीन, घरबार रहित, नंगा और सर्पोको सारे शरीरमें लपेटे रहनेवाला है इस प्रकार कोई भक्त वो भी सप्तऋषि
महादेव के बारे में कैसे कह सकते है बहुत अचंभित करने वाली बात है सच में यह शिव निंदा कभी नहीं हो सकता वास्तव में यहां एक अलंकार का प्रयोग किया गया है जिसका नाम है ब्याज स्तुति अर्थात् जब हम निंदा के बहाने प्रशंसा करते हैं आगे इस बात को हम अवश्य जानेगें। उसके पहले कुछ बातों को पहले समझते हैं।
प्रथम  'तेहि के बचन '  कहकर वक्ता की जबरदस्त ऐसी की तैसी की गई ।भाव यह कि कपटी, अवगुणी, मोहमाया, दयारहित मनुष्य विश्वास करने योग्य नहीं होता, तुमने ऐसे मनुष्यका विश्वास कैसे कर लिया? यहाँ उपदेष्टा नारदजी की निन्दा की। बात नहीं  बनती है तो आगे वरकी निन्दा करते हैं। पार्वतीजीने पहले नारदजी के वचनको सत्य मानना कहा था तब शिवजीको पतिरूपमें वरण करनेकी बात कही थी; यथा 'नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहि उड़ना।देखहु मुनि अबिबेकु हमारा चाहिअ सदा सिवहि भरतारा ॥ '
अतः उसी क्रमसे ऋषियोंने प्रथम उपदेष्टाकी निन्दा की, यदि पार्वतीजी इसे सुनकर नारदवचनको असत्य
मान लेतीं तब तो आगे कहनेकी आवश्यकता ही न रह जाती, तब वरकी । वर  अर्थात् शिवाजी की बात आती है तो मानस के साथ ही साथ पार्वतीमंगलमें  भी गोस्वामीजीने शिव स्वरूप को वरवै छन्दमें यों लिखा है- 
'कहहु काह सुनि रीझेहु बर अकुलीनहिं । 
अगुनअमान अजात मातु-पितु-हीनहिं ॥
' - जिसके अनुसार 'अकुल' का अर्थ 'अकुलीन' या 'अजाति' होना पाया जाता है। 'सहज उदासा' और 'अगेह' कहकर जनाया कि उनको किसी का घर नहीं भाता, कहीं नदी तट पर श्मशान में पड़े रहते हैं जैसी उदासियों की रीति है; 
'कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी।
बसहिं ज्ञानरत मुनि संन्यासी ।' 
क्योंकि वहाँ सदा मृतक शरीरोंको देखते रहने से आत्म बुद्धि का विस्मरण नहीं होने पाता । 'निर्गुण' से
जनाया कि वर होने योग्य उनमें एक भी गुण नहीं है। भाँग, धतूरा आदि खाते हैं। तुम उत्तम शीलादि गुणोंसे
युक्त हो तब निर्गुणी तुम्हारे योग्य कैसे हो सकता है ? 'निलज' निर्लज्ज  हैं अर्थात् भूत, प्रेत, पिशाच,
पिशाचिनियों के साथ नंगे नाचते हैं, पिशाचियों को घूरते हैं; ऐसे के साथ तुम भी लज्जित होगी । 'कुवेष' से चिता की अपवित्र भस्म लगाये, पंचमुख, तीन नेत्र, जटाधारी, गज- व्याघ्रचर्मधारी  व्याघ्रचर्म पहने और गजचर्म ओढ़े 
इत्यादि सब कहे । 'कपाली' हैं अर्थात् मनुष्यों, प्रेतों और सतीके मरनेपर सतीके भी मुण्डोंकी माला धारण
करते हैं। 'अकुल' हैं अर्थात् उनके माँ-बापका ठिकाना नहीं, वे अकुलीन हैं तब कुलीन पुरुषोंके साथ वे बैठ नहीं सकते । अथवा, कुल नहीं है, तुम्हारे सास, श्वशुर, ननद, भौजाई इत्यादि कोई भी नहीं है, ऐसा घर किस कामका है? 'अगेह' हैं, घर नहीं है; अर्थात् वहाँ तुम्हारे रहनेका कहीं ठिकाना नहीं, तब फिर रहोगी कहाँ ? 'दिगम्बर' हैं, उनके
पास कपड़ा भी नहीं, तब तुम्हें ओढ़ने-पहननेको कहाँसे मिलेगा ? 'ब्याली' हैं? अर्थात् सर्पोंको सब अंगों में
लपेटे रहते हैं, नागराज वासुकिको यज्ञोपवीतरूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे पृथ्वीपर भ्रमण करते
रहते हैं। सबका आशय यह हुआ कि विवाह घर, वर और कुल देखकर किया जाता है, सो ये तीनों ही बातें
प्रतिकूल हैं। न घर अच्छा, न कुल और न वर ही अच्छा। 
यहाँ व्याजस्तुति अलंकार से स्तुतिपक्षमें ये सब विशेषण हैं गुण हैं । यहाँ तक कि देवर्षि नारद तथा योगीश्वर शिवजी के विषय में जो बातें कही गयी हैं, उनके स्तुतिपक्षके भाव यहाँ एकत्र दिये जाते हैं-शिवपुराणके इस श्लोक को देखें - ' लब्ध्वा तदुपदेशं हि त्वमपि प्राज्ञसम्मता ।
वृथैव मूर्खीभूता त्वं तपश्चरसिदुष्करम्॥ 
यदर्थमीदृशं बाले करोषि विपुलं तपः ।
सदोदासी निर्विकारो मदनारिर्न संशयः ॥
अमंगलवपुर्धारी निर्लज्जोऽसदनोऽकुली। 
कुवेषी भूतप्रेतादिसंगी नग्नो हि शूलभृत् ॥'  
अर्थात् तुम विदुषी होकर भी उनका उपदेश पाकर मूर्खा होकर व्यर्थ ही कठिन तप कर रही हो। जिसके लिये तुम कठिन तप कर रही हो वह कामारि सदा उदासी, निर्विकार, अमंगलवपुधारी, निर्लज्ज, अगेह, अकुली, कुवेषवाला, भूतप्रेतोंका साथ करनेवाला, नग्न और त्रिशूलधारी है। सदा उदासी, निर्लज्ज, कुवेषी, अकुली, अगेह और नग्न तो स्पष्ट ही मानसमें हैं। मानसके निर्गुण, कपाली और व्यालीके बदले शिवपुराणमें निर्विकार,
अमंगलवपुधारी, भूतप्रेतादिसंगी और शूलभृत् हैं ।
शिवजीके विशेषणोंके साधारण ऊपरी भाव कुछ ऊपर  दिये गये और कुछ अगली चौपाई में---
'कहहु कवन सुख अस बर पाए' में दिये जायँगे । स्तुतिपक्ष अर्थात् प्रशंसा के भाव कुछ पूर्व 'जोगी जटिल अकाम मन 
में दिये गये हैं और कुछ यहाँ पुनः दिये जाते हैं । — 'सहज उदासी' अर्थात् कोई शत्रु-मित्र नहीं, विषय-वासना छू
भी नहीं सकती, अतः परमभक्त हैं। 'कुवेष' अर्थात् पृथ्वीपर ऐसा वेष किसीका  भेष नहीं है। कु कहते है पृथ्वी को वेष   कहते है रूप रंग यानि स्वरूप  को अर्थात् उनके जैसा स्वरूप इस धरती पर किसी का नहीं है।'ब्याली' अर्थात् शेषजीको सदा भूषणसरीखा धारण किये रहते हैं, यथा 'भुजगराज भूषण', 'लसद् भाल बालेंदु कंठे भुजंगा - ऐसे सामर्थ्यवान् और भगवान्‌के कीर्तनरसिकके संगी। 'कपाली' अर्थात् जिनकी समाधि कपाल अर्थात् दशमद्वारमें रहती है। निर्गुण-गुणातीत। अकुल अर्थात् अजन्मा हैं। 'दिगम्बर' और 'अगेह' से परम विरक्त संत जनाया। 'निलज' से अमान अभिमानरहित जनाया, ये सारे लक्षण होते है अद्वितीय ,अप्रतिम ,परम संत के। इस प्रकार यहाँ व्याजस्तुति अलंकार है जिसके माध्यम से यहां शिव प्रशंसा अर्थात् महादेव की स्तुति ही की गई है।
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् ।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा " झखकेतू "

मानस चर्चा " झखकेतू "
एहि बिधि भलेहि' देवहित होई । 
मत अति नीक कहै सबु कोई ॥
अस्तुति' सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषम बान झखकेतू ॥ 
यहां झखकेतू कौन है? इनकी देवताओं ने स्तुति की और ये प्रगट हुवें। हम  आज इस झखकेतू के बारे में चर्चा करेगें। झख  कहते है मछली  को और केतू कहते हैं पताका अर्थात् ध्वजा को।  तो   झखकेतू वे हुवे - जिनकी ध्वजापर मछलीका चिह्न है कहा भी गया है 'कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू'।
झखकेतू से पहले हम  इस  चौपाई को समझतेहैं।
एहि बिधि भलेहि' देवहित होई । 
मत अति नीक कहै सबु कोई ॥
अर्थात् इस तरह भले ही देवताओंका हित होगा  अन्य उपाय नहीं है । यह सुनकर  सब कोई बोल उठे कि सलाह बहुत ही अच्छी है।
अस्तुति' सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ।
प्रगटेउ बिषम बान झखकेतू ॥ 
देवताओंने अत्यन्त अनुरागसे कामदेवकी भारी स्तुति की तब  पंचबाण धारी मकरध्वज कामदेव प्रकट हुवे।
एहि बिधि भलेहि देवहित होई ।  'भलेहि' भले ही अर्थात् भलीभाँति  भलाई ही होगी। 'सब कोई कहने लगे कि यह मत बहुत अच्छा है, इस प्रकार देवताओंका पूरा हित होगा।' 'देवहित होई'  । क्या हित होगा ? मुख्य हित तारक-वध है; कहा भी गया है— 'सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ । 'तारक- वधसे देवगण फिर स्ववश बसेंगे। यहां शिव समाधि भंग करने की विधि पर चर्चा हो रही है भाव यह है कि समाधि-भंगके अन्य उपाय भी हैं, पर उनके करनेसे समाधि-भंग होनेपर शिवजी कारणकी खोज करेंगे, देवताओंपर विपत्ति बिना आये न रहेगी। अतः उनसे भली प्रकार हित न होगा । और कामकी उत्पत्ति ही मनः क्षोभके लिये है, अतः उसके समाधि भंग करनेपर कारणकी खोज न होगी ।  'मत अति नीक कहै सब कोई'  । जो मत सबके मनको भाता है, उससे अवश्य कार्य सिद्ध होता है; जैसा कि कहा भी गया है-
'नीक मंत्र सबके मन भावा ।' तात्पर्य कि सब सहमत हुए।
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू ' कामदेवके आविर्भावके लिये अत्यन्त स्नेहसे भारी स्तुति की। हेतु  अर्थात - प्रेम से; जैसा  कि- 'हरषे हेतु हेरि हर ही को ।और भी देखें 'चले संग हिमवंत तब पहुँचावन अति हेतु ॥'  'प्रगटेउ' कहा क्योंकि काम तो सर्वत्र व्यापक है, मनमें ही उसका निवास रहता है, अतः स्तुति करनेपर वहीं प्रकट हो गये । देवगण आर्त थे, इसलिये उन्होंने प्रकर्षरूपसे स्तुति की, नहीं तो कामदेव बुलवा लिये जाते । जैसा कि - 'कामहि बोलि कीन्ह सनमाना ॥'  'बिषम बान'  क्या है? विषम- यहां पाँच  के लिए  आया है । मनमें विषमता अर्थात् विकार उत्पन्न करनेवाले । कठिन जिससे कोई उबर बच न सके कामदेवके बाणोंकी विषमता शिवजी भी न सह सके; यथा - 'छाँड़े बिषम बिसिख उर लागे । छूटि समाधि
संभु तब जागे ॥'  अतः बाणोंको 'विषम' विशेषण दिया।
कामदेव को पंचबाणधारी कहा जाता है। वे पंच बाण क्या हैं - रामवल्लभाशरणजी प्रमाणका एक श्लोक यह बताते थे जो अमरकोशकी टीकामें भी है –
'उन्मादस्तापनश्चैव शोषणस्तम्भनस्तथा । 
सम्मोहनश्च कामश्च बाणाः पञ्च प्रकीर्तिताः ॥ '
इसीको हिन्दी भाषामें यों लिखा गया हैं-
'वशीकरन मोहन कहत आकर्षण कवि लोग। 
उच्चाटन मारन समुझु पंच बाण ये योग ।' श्रीकरुणासिन्धुजी लिखते हैं कि 'आकर्षण, उच्चाटन, मारण और वशीकरण ये चारों कामदेवके धनुष हैं।
कम्पन पनच है और मोहन, स्तम्भन, शोषण, दहन तथा वन्दन - ये पाँच बाण हैं पर सुमनरूप हैं।'  ये पाँच
फूल कौन हैं ? पंजाबीजी बाबा, पं० श्रीरामवल्लभाशरणजी तथा अमरकोश - टीकाके अनुसार वे पाँच पुष्प ये हैं-
'अरविन्दमशोकञ्च चूतं च नव मल्लिका । 
नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ॥'  
आप हिन्दी में भी देख सकते हैं ---
'कमल केतिक केवड़ा कदम आमके बौर। 
ए पाँचो शर कामके केशवदास न और ॥'
पर किसी-किसीके मतानुसार शब्द,स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच विकार ही पंचबाण हैं। 
पंचबाण धारण करनेका भाव यह कहा जाता है कि 'यह शरीर पंचतत्त्वों- पृथ्वी, जल, पावक, वायु और आकाशसे ही बना है। इस कारण एक-एक तत्त्वको भेदन करनेके लिये एक-एक बाण धारण किया है। कामदेवके बाण प्राय: पुष्पोंके ही माने गये हैं और श्रीमद्गोस्वामीजीका भी यही मत है। यथा - 'सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे । '  धनुष और बाण दोनों फूलके हैं; यथा - 'काम कुसुम धनु सायक लीन्हें। सकल भुवन अपने बस कीन्हें ॥ ' 'अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई॥' 
विषम बाण और झखकेतु ये दोनों वशीकरण और विजयके आयुध साथ दिखाकर जनाया कि विजय
प्राप्त होगी। मीन वशीकरणका चिह्न माना जाता है। इस कारण से भी यहां झखकेतू ही कहा गया है। झखकेतू से ही संसार का  कल्याण  होगा ऐसा ही सभी का मत है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"

मानस चर्चा "गुर के बचन प्रतीति न जेही"
प्रसंग है,--
नारद बचन न मैं परिहरऊँ । बसौ भवन ऊजरौ नहिं डरऊँ 
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 
अर्थात् –इसी प्रकार मैं पार्वती नारदजीका उपदेश न छोडूंगी। घर बसे या उजड़े, मुझे इसका डर नहीं है।
जिसको गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं है, उसे स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि वा, सुखकी सिद्धि सुलभ नहीं
हो सकती ॥ 
सप्तर्षियोंने नारदजीको बुरा-भला कहा । यह पार्वतीजीको बहुत बुरा लगा। इसीसे प्रारम्भमें ही वे उनको बताये देती हैं कि देवर्षि नारद हमारे गुरु हैं, उनके वचन हमारे लिये पत्थरकी लकीरके समान हैं, टाले नहीं टल सकते। 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ' कहकर फिर उसका कारण बताती हैं कि 'गुर के बचन प्रतीति न जेही ।  'नारद' शब्द ही गुरुत्वका द्योतक है; क्योंकि
'गुशब्दस्त्वन्धकारस्तु रुशब्दस्तन्निरोधकः ।अन्धकारनिरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥'
के अनुसार हृदयके अन्धकारके नाश करने वाले को 'गुरु' कहते हैं । हृदयका अन्धकार अज्ञान है। अज्ञानका नाश आत्म-परमात्म-ज्ञानसे ही होता है और आत्म-परमात्म-ज्ञान जिनके द्वारा हो, वे ही 'गुरु'
हैं। अत: 'गुर बिनु होइ कि ज्ञान' के अनुसार ज्ञानदाता 'गुरु' कहे जाते हैं और 'नारं ज्ञानं ददातीति नारदः' अर्थात्
'नार' ज्ञान जो दे उसका नाम 'नारद' है। इस व्युत्पत्तिसे नारद और गुरु शब्द एकार्थवाची होनेसे नारदजीको
'गुरु' कहा और 'गुरोराज्ञा गरीयसी' तथा 'आज्ञा गुरूणां ह्यविचारणीया'  भी रघुवंश में कहा गया है, के
अनुसार 'नारद बचन न मैं परिहरऊँ। और  गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ कहा
श्रीगुरुवाक्यपर शिष्यका ऐसा ही दृढ़ विश्वास रहना चाहिये। विश्वासका धर्म दृढ़ता है, यथा 'बटु बिश्वास
अचल निज धर्मा।' वह अवश्य फलीभूत होगा इसमें सन्देह नहीं । शिष्यमें आचार्याभिमान होना परम गुण है,
इष्टप्राप्तिका सर्वोपरि उपाय है और परम लाभ है।  'सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ' । भाव कि मनुष्योंकी कौन कहे, देवताओंको भी स्वप्नमें भी सुख और सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। देवराज इन्द्र और चन्द्रमा - ये लोकपाल भी गुरुकी अवज्ञा करनेसे दुःखी ही हुए ।
शिवपुराणमें गुरुवचनपर चार श्लोक हैं। उनके अनुसार भी गुरु के वचनों पर  जिनको प्रतीति नहीं है उनको दुःख ही दुःख होता है और जिनको प्रतीति है उन्हें सुख
होता है। यथा-
'गुरूणां वचनं पथ्यमिति वेदविदो विदुः ।
गुरूणां वचनं सत्यमिति यद्धृदये न धीः ।
इहामुत्रापि तेषां हि दुःखं न च सुखं क्वचित् ॥
गुरूणां वचनं सत्यमिति येषां दृढा मतिः ।
तेषामिहामुत्र सुखं परमं नासुखं क्वचित् ॥
सर्वथा न परित्याज्यं गुरूणां वचनं द्विजाः । 
गृहं वसेद्वाशून्यं स्यान्मे हठस्सुखदस्सदा ॥' (
नारदजीसे पार्वतीजीने तप करनेका उपदेश होनेपर उनसे पंचाक्षरी - मन्त्र भी लेकर उनको गुरु किया
था। यथा—‘रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे । न सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्गुरुं विना । इति श्रुत्वा
वचस्तस्याः पार्वत्या मुनिसत्तमः । पंचाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशः । यह शिवपुराण  कहता है।
अर्थात् जब पार्वतीजीने कहा कि बिना सद्गुरुके सिद्धि नहीं होती; अतः आप मुझे शिवाराधनका मन्त्र दें, तब
नारदजीने उनको पंचाक्षरी मन्त्र दिया, उसका प्रभाव बताया, ध्यान बताया।इस तरह वे विधिपूर्वक गुरु हुए थे। और जो भी हमारा गुरू हैं उसके प्रति शिष्यों  के मन में सदा ही यह भाव होना ही चाहिए कि 
गुर के बचन प्रतीति न जेही । सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही ॥ 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 27 जून 2024

मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा "

मानस चर्चा "कनककसिपु की कथा " प्रसंग मानस की यह चौपाई 
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 
पूर्व की चर्चाओं में हमने चित्रकेतु आदि पर चर्चा की है आज अब हम चर्चा करते  हैं कनककसिपु अर्थात् हिरण्यकश्यपु ,हिरण्य यानि  सोना और कनक यानी सोना बड़ी रोचकता से गोस्वामीजी ने हिरण्य की जगह कनक  का प्रयोग किया है। यहां  ' हिरण्यकश्यपु की कथा' यह है कि- हिरण्यकश्यपु की पत्नी  कयाधु प्रह्लादजीकी माताको  नारदजी ने उपदेश दिया जिससे पिता-पुत्रमें विरोध हुआ ।पिता मारा गया । दैत्य बालकोंके पूछनेपर प्रह्लादजीने स्वयं यह वृत्तान्त यों कहा है।  अपने भाई हिरण्याक्षके मारे जानेपर जब मेरे पिता हिरण्यकशिपु मन्दराचलपर तप करनेके लिये गये तब अवसर पाकर देवताओंने दैत्योंपर चढ़ायी की। दैत्य समाचार पा जान बचाकर भागे, स्त्री- पुत्रादि सबको छोड़ गये। मेरे पिताका घर नष्ट कर डाला गया और मेरी माताको पकड़कर इन्द्र स्वर्गको चले । मार्गमें नारदमुनि विचरते हुए मिल गये और बोले कि 'इस निरपराधिनी स्त्रीको पकड़ ले जाना योग्य नहीं, इसे छोड़ दो।' इन्द्र ने कहा कि इसके गर्भमें दैत्यराजका वीर्य है । पुत्र होनेपर उसे मारकर इसे छोड़ दूँगा । तब नारदजी बोले कि यह गर्भ स्थित बालक परम भागवत है। तुम इसको नहीं मार सकते । इन्द्रने नारदवचनपर विश्वास करके मेरी माँकी परिक्रमा करकेउसे छोड़ दिया। नारदजी उसे अपने आश्रममें ले गये । वह गर्भके मंगलकी कामनासे नारदमुनिकी भक्तिपूर्वक सेवा करती रही । दयालु ऋषिने मेरे उद्देश्यसे मेरी माताको धर्मके तत्त्व और विज्ञानका उपदेश किया। ऋषि-अनुग्रहसे वह उपदेश मैं अबतक नहीं भूला ।आगे हिरण्यकश्यपु की कथा संसार जानता ही है कि किस प्रकार हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।' 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा" चित्रकेतु कथा"

मानस चर्चा" चित्रकेतु कथा" प्रसंग मानस की यह चौपाई 
दक्षसुतन्ह उपदेसिन्ह जाई ।
तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई ॥
चित्रकेतु कर घरु उन्ह घाला ।
कनककसिपु कर पुनि अस हाला ॥ 
अर्थात् उन्होंने नारदजीने जाकर दक्षके पुत्रोंको उपदेश दिया ( जिससे) उन्होंने दक्ष के पुत्रों ने फिर लौटकर ( घरका मुँह भी) न देखा ॥ चित्रकेतुका घर उन्होंने ही चौपट किया। फिर कनककसिपु (हिरण्यकशिपुकी) भी ऐसी ही दशा की ॥ आखिर यहां चित्रकेतु कौन है उनका घर नारद जी ने कैसे चौपट किया आइए इस पर आज हम चर्चा करते हैं। नारद जी के बारे में इस संदर्भ में इन श्लोकों को देखते हैं।श्लोक ये हैं – 
नारदस्तत्र वै ययौ ॥ 
कूटोपदेशमाश्राव्य तत्र तान्नारदो मुनिः।
तदाज्ञया सर्वे पितुर्न गृहमाययुः ॥ 
ददौ तदुपदेशं ते तेभ्यो भ्रातृपथं ययुः ।
आययुर्न पितुर्गेहं भिक्षुवृत्तिरताश्च
विद्याधरश्चित्रकेतुर्यो बभूव पुराकरोत्।
स्वोपदेशमयं दत्त्वा तस्मै शून्यं च तद्गृहम्॥ 
प्रह्लादाय स्वोपदेशान्हिरण्यकशिपोः परम् । 
दत्त्वा दुःखं ददौ चायं परबुद्धिप्रभेदकः ॥ ' 
अर्थात् दक्षके सुतोंको दो बार ऐसा कूट उपदेश दिया कि फिर वे घर न गये, भिक्षावृत्ति-मार्ग ग्रहण कर लिया। उनके पास स्वयं जाकर उपदेश दिया। विद्याधर चित्रकेतुको वैराग्यका उपदेश देकर उसका घर सूना कर दिया । प्रह्लादको उपदेश देकर हिरण्यकशिपुद्वारा उसे बहुत दुःख पहुँचवाया । अतः वे दूसरोंकी बुद्धिके भेदक हैं।इनकी इसी बल से  चित्रकेतु भी भगवान्‌को प्राप्त हुआ ।
चित्रकेतुका अज्ञान और देहाभिमान इन्होंने मिटाया, हिरण्यकश्यपु नृसिंह भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ हुआ।' 
अब हम जानते हैं चित्रकेतु की कथा
'चित्रकेतुकी कथा' यह है कि- शूरसेन देशमें चित्रकेतु सार्वभौम राजा था । इसके एक करोड़ रानियाँ थीं-
परंतु न तो कोई पुत्र ही था और न कन्या ही ।
एक दिन श्रीअंगिरा ऋषिजी विचरते हुए राजाके यहाँ आ पहुँचे । राजाने प्रत्युत्थान, पाद्य, अर्घ्यद्वारा पूजनकर
उनका आतिथ्य सत्कार किया । राजासे कुशल प्रश्न करते हुए ऋषिजीने कहा- 'राजन् ! तुम्हारा आत्मा कुछ
असंतुष्ट - सा देख पड़ता है। किसी इष्ट पदार्थकी अप्राप्तिसे दुःखित हो ? तुम चिन्तित - से जान पड़ते हो, क्याकारण है?' राजाने अपना दुखड़ा सुनाया कि 'बिना एक पुत्रके मैं पूर्वजोंसहित नरकमें पड़ रहा हूँ, कृपा करके
वह उपाय कीजिये जिससे पुत्र पाकर दुष्पार नरकसे उत्तीर्ण हो सकूँ।' मुनिने त्वाष्ट्र चरु तैयार कर उससे त्वष्टा
देवताका पूजन कराया और राजाकी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ पटरानी कृतद्युतिको उस यज्ञका अवशिष्ट अन्न देकर
कहा 'इसे खा लो' । फिर राजासे कहा कि इससे एक पुत्र होगा, परंतु उससे तुमको हर्ष और शोक दोनों होंगे।
ऋषि यह कहकर चले गये । पुत्र उत्पन्न होनेपर राजाने बहुत दान दिये । पुत्रवती होनेके कारण राजाकी प्रीति
इस - रानीसे बढ़ती गयी जिससे और रानियोंके हृदयमें डाह होने लगा । वे सोचतीं कि हम दासियोंसे भी गयीं
गुजरीं, हमसे अधिक मंदभागिनी कौन होगी। वे सवतका सौभाग्य न देख सकती थी - न सह सकती थीं।
एक बार पुत्र सो रहा था, माता किसी कार्यमें लगी थी। सवतोंने अवसर पाकर बच्चेके ओठोंपर विषका फाया फेर दिया, जिससे उसके नेत्रोंकी पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयीं और वह मर गया। इसकी माँको सवतोंके द्वेषका पता भी न था। बहुत देर होनेपर माताने धायसे राजकुमारको जगा लानेको आज्ञा दी, धायने जाकर देखा तो चीख मारकर मूर्छित हो गिर पड़ी। रानी यह देख दौड़ी, कोलाहल मच गया। रानी - राजा दोनोंका शोक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया,
महाशोकसे विलाप प्रलाप करते हुए वे मोहके कारण मूर्छित हो गये ।ठीक इसी अवसरपर श्रीअंगिराऋषि और नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महर्षि अंगिरा और नारदजी राजाको यों समझाने लगे कि - हे राजाओंमें श्रेष्ठ ! सोचो तो कि जिसके लिये तुम शोकातुर हो वह तुम्हारा कौन है
और पूर्वजन्ममें तुम इसके कौन थे और आगे इसके कौन होगे ? जैसे जलके प्रवाहके वेगसे बालू (रेत) बह-
बहकर दूर-दूर पहुँचकर कहाँ से कहाँ जा इकट्ठा हो जाती है, इसी प्रकार कालके प्रबल चक्रद्वारा देहधारियोंका
वियोग और संयोग हुआ करता है। जैसे बीजमें कभी बीजान्तर होता है और कभी नहीं, वैसे ही मायासे पुत्रादि
प्राणी पिता आदि प्राणियोंसे कभी संयोगको प्राप्त होते हैं और कभी वियोगको । अतएव पिता-पुत्र कल्पनामात्र
हैं। वृथा शोक क्यों करते हो? हम, तुम और जगन्मात्रके प्राणी जैसे जन्मके पूर्व न थे और मृत्युके पश्चात्
न रहेंगे, वैसे ही इस समय भी नहीं हैं  । राजाको ज्ञान हुआ, इस प्रकार कुछ सान्त्वना मिलनेपर राजाने हाथसे आँसू पोंछकर ऋषियोंसे कहा – 'आप दोनों अवधूत-वेश बनाये हुए कौन हैं? आप ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हैं जो हम सरीखे पागलोंको उपदेश देनेके लिये जगत् में विचरते रहते हैं। आप दोनों मेरी रक्षा करें। मैं घोर अन्धकारकूपमें डूबा पड़ा हूँ। मुझे ज्ञान - दीपकका प्रकाश दीजिये ।' अंगिरा ऋषिने दोनोंका परिचय दिया और कहा कि - 'तुम भगवान् के भक्त और ब्रह्मण्य हो, तुमको इस प्रकार शोकमें मग्न होना उचित नहीं । तुमपर अनुग्रह करनेहीको हम दोनों आये हैं। पूर्व जब मैं आया था तब तुमको अन्य विषयोंमें मग्न देख ज्ञानका उपदेश न दे पुत्र ही दिया, अब तुमने पुत्र पाकर स्वयं अनुभव कर लिया कि गृहस्थको कैसा संताप होता
है। स्त्री, घर, धन और सभी ऐश्वर्य सम्पत्तियाँ यों ही शोक, भय, सन्तापको देनेवाली नश्वर और मिथ्या हैं।
ये सब पदार्थ मनके विकारमात्र हैं, क्षणमें प्रकट और क्षणमें लुप्त होते हैं। इनमें सत्यताका विश्वास त्यागकर
शान्ति धारण करो ।' देवर्षि नारदजीने राजाको मन्त्रोपनिषद् - उपदेश किया और कहा कि इसके सात दिन धारण करनेसे संकर्षण- भगवान्‌के दर्शन होंगे। फिर सबके देखते नारद मुनि मरे हुए राजकुमारके जीवात्मासे बोले- 'हे जीवात्मा ! अपने पिता, माता, सुहृद्, बान्धवोंको देख । वे कैसे संतप्त हैं। अपने शरीरमें प्रवेशकर इनका
संताप दूर कर । पिताके दिये हुए भोगोंको भोगो और राज्यसिंहासनपर बैठो।' लड़का जी उठा और बोला कि -
'मैं अपने कर्मानुसार अनेक योनियोंमें भ्रमता रहा हूँ। किस जन्ममें ये मेरे पिता-माता हुए थे ? क्रमश: सभी
आपसमें एक-दूसरेके भाई, पिता, माता, शत्रु, मित्र, नाशक, रक्षक इत्यादि होते रहते हैं। ये लोग हमें पुत्र मानकर शोक करनेके बदले शत्रु समझकर प्रसन्न क्यों नहीं होते ? जैसे सोना, चाँदी आदिके व्यापारियोंके पास सोना- चाँदी आदि वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, वैसे ही जीव भी अनेक योनियोंमें भ्रमता रहता है। जितने दिन जिसके साथ जिसका सम्बन्ध रहता है उतने दिन उसपर उसकी ममता रहती है। आत्मा नित्य, अव्यय, सूक्ष्म, स्वयंप्रकाशित है। कोई उसका मित्र वा शत्रु नहीं।" 
वह जीव फिर बोला कि मैं पांचाल देशका राजा था, विरक्त होनेपर मैं एक ग्राममें गया। इस मेरी माताने भोजन
बनाने के लिये मुझे कण्डा / सुखी लकड़ी दिया, जिसमें अनेकों चीटियाँ थीं, ध्यान दिए बिना मैंने आग लगा दी। वे सब चीटियाँ मर गयीं। मैंने शालग्रामदेवका भोग
लगाकर प्रसाद पाया। वही चीटियाँ मेरी सौतेली माताएँ हुईं। प्रभुको अर्पण होनेसे एक ही जन्ममें सबने मुझसे
बदला ले लिया, नहीं तो अनेक जन्म लेने पड़ते- 
'प्रभु राखेउ श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस ।' 
अब इस देहसे मेरा सम्बन्ध नहीं।
यह सब माया कर परिवारा। 
प्रबल अमिति को बरनै पारा॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। 
केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥
इतना कह जीव शरीरसे निकल गया। राजाको ज्ञान
प्राप्त हुआ। उसने राज्य छोड़ दिया । नारदमुनिने संकर्षणभगवान्‌का मन्त्र दिया, स्तुतिमयी विद्या बतायी। सात दिन जप करनेपर शेषभगवान्‌का दर्शन हुआ। आपको एक विमान मिला, जिसपर चढ़कर आप आकाशमार्गपर घूमते थे। पार्वतीजीके शापसे आप वृत्रासुर हुए। वृत्रासुर के बारे में प्रसंगवश आगे चर्चा होगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

बुधवार, 26 जून 2024

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"

मानस चर्चा "मातु पिता गुर प्रभु कै बानी"
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी ॥ 
अर्थात् माता, पिता, गुरु और स्वामीकी बात बिना ही विचारे शुभ जानकर करनी  मान लेनी चाहिये ॥ 
'मातु पिता ' बचपनमें माताकी आज्ञा, कुछ बड़े होनेपर घरसे बाहर निकलनेपर पिताकी आज्ञा, पाँच वर्ष बाद गुरुसे पढ़नेपर गुरुकी आज्ञा और पढ़-लिखकर
लोक-परलोक दोनोंमें सुख के लिये जीवनपर्यन्त प्रभु अर्थात् अपने स्वामी  मालिक की आज्ञा माननेसे प्राणीका भला होता है । महाभारत शान्तिपर्वमें भीष्मपितामहजीने युधिष्ठिरजीसे कहा है कि दस श्रोत्रियोंसे बढ़कर आचार्य हैं। दस आचार्योंसे बड़ा उपाध्याय विद्यागुरु है। दस उपाध्यायोंसे अधिक महत्त्व रखता है पिता और दस पिताओंसे अधिक गौरव है माताका । परंतु मेरा विश्वास है कि गुरुका दर्जा माता- पितासे भी बढ़कर है। माता-पिता
तो केवल इस शरीरको जन्म देते हैं, किंतु आत्मतत्त्वका उपदेश देनेवाले आचार्यद्वारा जो जन्म होता है वह दिव्य है, अजर-अमर है। मनुष्य जिस कर्मसे पिताको प्रसन्न करता है, उसके द्वारा ब्रह्मा भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्तावसे वह माताको प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न होती है।  । गुरुओंकी पूजासे देवता, ऋषि और पितरों की भी प्रसन्नता होती है, इसलिये गुरु परम पूजनीय है।इसलिये गुरु माता - पितासे भी बढ़कर पूज्य है। माता, पिता और गुरु कभी भी अपमानके योग्य नहीं। उनके किसी भी कार्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।' पुनः माता, पिता और गुरु सदा अपने पुत्र या शिष्यका कल्याण ही चाहेंगे, वे कभी बुरा न चाहेंगे। अतः 'बिनहि बिचार करिअ सुभ जानी' कहा।
'बिनहि बिचार करिअ ' भाव यह है  कि विचारका खयाल मनमें आनेसे भारी पाप लगता है; जैसा कि 
'उचित कि अनुचित किये बिचारू ।
धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥ '  
'सुभ जानी' का भाव यह है कि अनुचित भी यदि हो तो भी आज्ञा पालन करनेवालेका मंगल ही होगा, उसे कोई
दोष नहीं देगा। अतः उसे मंगलकारक जानकर करना चाहिये। हमारे ग्रंथों में अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं आप ऋषि धौम्य और उनके शिष्य आरुणि,उपमन्यु, वेद आदि की   कथाओं को से हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। चलिए हम उपमन्यु की कथा सुना ही देते है।बाकी पुनः।
उपमन्यु महर्षि आयोद धौम्य के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।
एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"
उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े।
गुरूजी उसके साथ निर्दयता के कारण ऐसा बर्ताव नही करते थे वह तो उसे पक्का बनाना चाहते थे | कछुआ रहता तो जल में है किन्तु अन्डो को सेता रहता है इसी से अंडे वृधि को प्राप्त होते है | इसी प्रकार उपर से तो गुरूजी ऐसा बर्ताव करते थे भीतर से सदा उन्हें उपमन्यु की चिंता लगी रहती थी |
जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"
उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।
चूंकि हम रामचरितमानस  की ही चर्चा करते हैं इसलिए हम मानस से भी इसकी पुष्टि कर ले और  इनके महत्त्व को  भी  देख ले गोस्वामीजी ने लिखा है---
'गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें ।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥' 
और भी देखें 
'परसुराम पितु अग्या राखी' ।
मारी मातु लोक सब साखी॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
अनुचित उचित बिचारु तजि ते पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥
'तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।
अर्थात्
माता-पिता आदि सब आप ही हैं, आपने सब प्रकार हमारा हित किया और कर रहे हैं; जैसा  कि - 
'राममातु पिता सुतु बंधु औ संगी सखा गुरु स्वामि सनेही । रामकी सौहँ भरोसो है राम को राम-रंगी-रुचि राचौं
न केही । ' और तो और हम हमेशा गाते  ही है
'त्वमेव माता च पिता त्वमेव 
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥'—
आप ने सब भाँति हमारा परम हित किया है जैसे कि - भस्मासुरसे रक्षा की, कालकूटको अमृत कर दिया;
स्पष्ट कहा  गया है
'नाम प्रभाउ जान सिव नीको। 
कालकूट फल दीन्ह अमी को।'
इस चौपाई में पुत्र, शिष्य और सेवकके धर्म उपदेश किये गये हैं। बालकोंको श्रीशंकरजीकी शिक्षापर ध्यान देना चाहिये ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।