शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

✓राम के नाम की बड़ी महिमा है



✓राम के नाम की बड़ी महिमा है
समुद्र-मंथन से जब कालकूट विषाग्नि के रूप में हला-हल जहर निकला तब सभी जलचर छटपटाने लगे। समुद्र में खलबली मच गई। देवता घबड़ा गए, अरे ये क्या हुआ। प्रभु बोले मत घबड़ाओ शान्ति रखो। बिखरे हुए विष को एकत्र करके प्रभु भोलेनाथ शंकर की शरण में पहुँचे और निवेदन किया---
देवाधिदेव भोलेनाथ ! तीनों लोकों को जलाने वाले इस हलाहल विष से हमारी रक्षा करो। भोलेनाथ भवानी से मुसकुराते हुए बोले- हे देवी ! ये सब विष पीने के लिए हाथ-पैर जोड़ रहे हैं। बताइए मैं क्या करूँ? भवानी दुविधा में पड़ गई, फिर विचार करने के बाद बोलीं— भगवान ! आप वही कीजिए जिसमें सबका कल्याण हो। भोलेनाथ ने पूछा मतलब हम विष पी जाएँ। भवानी ने कहा— ये मैं नहीं कहती, कौन पतिव्रता नारी अपने पति से कहेगी कि तुम विष पियो। माँ पार्वती तो भगवान शंकर के प्रभाव को जानती ही थीं। इसीलिए उन्होंने परोक्ष रूप से अनुमोदन कर दिया।
प्रभावज्ञान्वमोदत। 
भोलेनाथ समझ गए बोले- लाओ कहाँ है? 
तत: करतलीकृत्यव्याप्य हालाहलं विषम । 
अभक्षयन् महादेव: कृपया भूत भावन: ॥
अंजलि बांधकर शंकर जी ने प्रभु का नाम लेकर तुरंत हलाहल विष पान किया। शिवजी जानते हैं कि यदि विष भीतर गया तो हमारे हृदय में श्रीराम का निवास है, उन्हें कष्ट पहुंचेगा और यदि वमन किया तो सम्पूर्ण श्रीष्टि जलकर नष्ट हो जाएगी। क्या करें। शंकर जी ने राम नाम का आश्रय लिया। रा कहने से मुंह खुल जाता है और म कहने से बंद हो जाता है। राम नाम के बीच में सारा विष गले में अटका लिया। न बाहर न भीतर। शिवजी ने स्वयं विष पी लिया और देवताओं को अमृत पान कराया, इसीलिए तो वे महादेव हैं। 
गोस्वामीजी कहते हैं ------
जरत सकाल सुर वृंद, विषम गरल जेहिं पान किय 
तेहि न भजसि मन मंद, को कृपाल संकर सरिस ॥ और
नाम प्रभाव जान शिव नीको।
कालकूट फल दीन्ह अमी को।
वास्तव में राम नाम महिमा अनन्त है। 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
एक बार कौशल्याजी, अंजनी माता और अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा साथ  साथ में बैठी थीं। कौशल्याजी ने अपने बेटे राम की बड़ाई करते हुए कहा बहन ! मेरा बेटा राम कितना महान है उसने इतने बड़े समुन्दर पर पुल बाँध दिया। यह सुनकर अंजनी माँ से नहीं रहा गया उन्होंने कहा बहन! अगर बुरा न मानो तो मैं भी कुछ कहूँ। मेरा बेटा हनुमान तो एक छलांग में ही समुद्र पार कर दिया था। अब तुम ही विचार करो वह कितना बड़ा पराक्रमी है। अब अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा से नहीं रहा गया। मेरे पतिदेव ने तो तीन आचमन में ही समुद्र को ही पी लिया था। यह सुनकर कौशल्या उदास हो गईं। मेरा बेटा राम तो तीसरे स्थान पर चला गया। माँ को उदास देखकर राम ने पूछा- क्या बात है माँ ?  माता कौशल्या ने सभी बातें दुखी होकर राम को सुनाया ,सब सुनने के बाद राम ने पूछा- अच्छा माँ ! ये तो बताओ, किसका नाम लेकर हनुमान ने समुद्र पार किया और अगस्त्य ऋषि ने  किसका नाम लेकर समुद्र का पान किया ?  मां वह है तेरे बेटे का नाम।
प्रभु राम ने माता श्री को यह भी बताया कि सेतुबंध के समय मैंने एक पत्थर उठाकर समुद्र में डाला वह पत्थर डूब गया। मैंने हनुमान से पूछा– क्या बात है हनुमान ! यह पत्थर क्यों डूब गया ? हनुमान जी ने बड़े ही सहजता से समझाया- प्रभु ! आप से बढ़कर आपका नाम है।फिर मेरा नाम राम लिखकर उसने पत्थर समुद्र में छोड़ा वह तैरने लगा। अब माता तू ही बता कौन बड़ा हैं। मां ने कहा  कि 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
राम से बढ़कर राम का नाम है।
नाम तुम्हारा तारनहारा............
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


✓रावण पुत्र अक्षय कुमार और हनुमानजी

✓रावण पुत्र अक्षय कुमार और हनुमानजी 

रावण ने जब अपने कानों से सुना, कि अमुक वानर बड़ा ही बलवान है, और अशोक वाटिका में उसने, वाटिका के साथ-साथ मेरे कितने ही रखवाले योद्धाओं का भी नाश कर दिया है। 
नाथ एक आवा कपि भारी। 
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥
तो पहले तो रावण को किसी की बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। उसे लगा कि पहली बात तो यह, कि मेरी सुरक्षा व्यवस्था इतनी चाक चौबन्द है, कि कोई भी लंका नगरी में प्रवेश करने की सोच भी नहीं सकता। लेकिन फिर भी अगर कोई घुसपैठिया, मेरी लंका नगरी में दाखिल हो ही गया है, तो उसे अभी पकड़ लेते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है, कि उसने मेरे कितने ही सैनिकों को कैसे मार डाला? कारण कि मनुष्य और वानर तो हम राक्षसों के स्वाभाविक ही आहार हैं। तो फिर अभी तक मेरे राक्षस रखवाले, उस दुष्ट वानर को पकड़ क्यों नहीं पाये? चलो कोई नहीं, मैं अभी कुछ और श्रेष्ठ योद्धाओं को भेजता हूँ। वे अभी उसका वध कर डालेंगे। लेकिन बेचारे रावण को क्या पता था, कि वह कीट पतंगों से कह रहा था, कि जाओ और गरुड़ को पकड़ कर लाओ। भला यह सत्य सिद्ध कहाँ से हो सकता था। कारण कि सुई की नोक से आप पर्वत का सीना छलनी नहीं कर सकते। लेकिन हाँ! अगर छिपकली को यह भ्रम हो ही गया हो, कि छत को उसने पकड़ कर संभाल रखा है। तो उसके भ्रम का कोई इलाज नहीं किया जा सकता है। रावण को लगा कि मेरे नये योद्धा अभी अशोक वाटिका जायेंगे और चंद पलों में ही मुझे सूचना देंगे, कि हमने उस वानर को मार गिराया। लेकिन रावण की इस परिकल्पना को तब बड़ा झटका लगा, जब उसने सुना, कि उस वानर ने तो अबकी बार के राक्षसों को भी मसल डाला। क्योंकि उन राक्षसों को देखते ही सबसे पहले तो श्रीहनुमान जी ने भयंकर गर्जना की। और देखते ही देखते उन राक्षसों को मार डाला। कुछ जो अधमरे बचे थे, वे चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए-
‘सुति रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।’
रावण ने जब यह देखा, कि अमुक वानर ने तो इन राक्षसों को भी मार डाला। तो उसे अब लगा, कि वानर वाकई में बड़ा भारी बलवान है। रावण भीतर से क्रोध से तिलमिला उठा। अबकी बार उसने अपने बेटे अक्षय कुमार को आदेश दिया कि जाओ वीर पुत्र। उस दुष्ट वानर को उसके अपराधों का दण्ड देकर पुनः मेरे पास लौट कर आओ। पिता रावण का आदेश मिलते ही, अक्षय कुमार बहुत से श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर वहाँ पहुँचा, जहाँ श्रीहनुमान जी अपने रुद्र रूप को धारण किए हुए थे। अक्षय कुमार को अपनी ओर आता देख, श्रीहनुमानजी ने एक विशाल पेड़ को उखाड़ा और भयंकर ध्वनि में अक्षय कुमार को ललकारते हैं। अक्षय कुमार को लगा कि अरे वाह! क्या सचमुच में यही वह वानर है, जिससे नाहक ही हमारे योद्धा भय खा रहे थे। भला जो वानर युद्ध ही पेड़ पौधों को आधार बना करके कर रहा हो। वह भला कहाँ का वीर योद्धा? यह तो जंगली है। और यह जंगली जीव, मुझे एक ही गुण में निपुण दिखाई प्रतीत हो रहा है। वह यह कि यह उछल कूद में तो हमसे आगे हो सकता है, लेकिन बल व सामर्थ में नहीं। उछल कूद में भी हमसे अग्रणी भला क्यों न हो, मूर्ख वानर जो ठहरा। देखो तो, मंदबुद्धि मुझे देख कर गर्जना कर रहा है। लेकिन इसे क्या पता, कि मैं भी अक्षय कुमार हूँ। भला मुझे यह चंचल बँदर क्या मारेगा। इसे तो मैं अभी पल भर में ही मसल देता हूँ। लेकिन तब भी, इसे मारने में, संसार में मेरा अपयश ही होगा। दुनिया कहेगी, कि देखो अक्षय कुमार ने एक वानर को मार डाला। इसके स्थान पर कोई देव, दानव अथवा कोई बलवान राक्षस ही होता, तो कुछ रस भी होता। अब इस अभद्र वानर को मारने में तो, मेरे नाम को ही बट्टा लगेगा। चलो कोई नहीं, पिता की आज्ञा है, तो हम यह कड़वा घूँट भी भर लेते हैं। अक्षय कुमार मन ही मन संतुष्ट था लेकिन उसे क्या पता था, कि जिन श्रीहनुमान जी को, वह एक साधारण-सा वानर समझ रहा था, वास्तव में वे उसके बाप के भी बाप हैं। बाप इसलिए, क्योंकि श्रीहनुमान जी तो भगवान शंकर जी के अवतार हैं। और भगवान शंकर जी रावण के गुरु ठहरे। गुरु का पद् आप जानते ही होंगे। गुरु को शास्त्र पिता की संज्ञा भी देते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार श्रीहनुमान जी रावण के पिता तुल्य हुए। या सीधी-सीधी भाषा में कहें, तो श्रीहनुमान जी ठहरे रावण के बाप। तो सिद्ध हो गया न, कि श्रीहनुमान जी अक्षय कुमार के बाप के भी बाप हैं। अब बाप से बड़ा कोई पुत्र थोड़ी न हो सकता है। भले ही वह सौ कल्प का भी क्यों न हो। लेकिन अक्षय कुमार को तो लगा, कि मैं अभी इस दुष्ट वानर का वध कर देता हूँ। लेकिन उसे क्या पता था, कि श्रीहनुमान जी ने अभी-अभी जो विशाल वृक्ष उखाड़ा था, वह बगिया उजाड़ने के लिए थोड़ी न था। बल्कि अक्षय कुमार के जीवन की ही बगिया उजाड़ने के लिए था। श्रीहनुमान जी ने अन्य राक्षसों को तो शायद सँभलने का भी अवसर दिया था। लेकिन अक्षय कुमार को तो श्रीहनुमान जी ने यह अवसर भी नहीं दिया। पल झपकने का तो फिर भी पता चलता है, लेकिन अक्षय कुमार को, श्रीहनुमान जी ने कब उस वृक्ष के प्रहार से चारों खाने चित कर डाला, किसी को कानों कान ख़बर तक न हुई। श्रीहनुमान जी ने अक्षय कुमार को मार कर ऐसी भयंकर गर्जना की, कि बाकी राक्षसों की तो मानों छातियां ही फट गईं-
‘पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।’
चारों और राक्षसों में भगदड़ मच गई। सभी राक्षस यहाँ वहाँ दौड़ने लगे। जिसे जिधर रास्ता दिखाई प्रतीत होता। वह उस दिशा में दौड़ पड़ता। लेकिन कोई भी दिशा ऐसी न मिलती, जिधर से उन्हें श्रीहनुमान जी न घेरते नज़र आते। उन राक्षसों में से, श्रीहनुमान जी ने कुछ राक्षसों को तो मार दिया। कुछ को मसल दिया। और कुछ को पकड़-पकड़ कर धूल में मिला दिया। जो एकाध राक्षस बड़े ऊँचे भाग्य वाले थे, वे बच बचाकर फिर रावण की सभा में पहुँचे, और पुकार की, कि हे प्रभु! आप कुछ करिए, बँदर तो बड़ा ही भारी बलवान है-
‘कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।’

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

मानस चर्चा प्रश्न के प्रकार

मानस चर्चा प्रश्न के प्रकार 
आधार शिव पार्वती संवाद
प्रश्न उमा के * सहज सुहाई । 
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई।
हर हिय रामचरित सब आए । 
प्रेम पुलक लोचन जल छाए।
इन पक्कातियोंं का  सरल अर्थ देखते हैं फिर आगे बढ़ते हैं- श्रीपार्वतीजीके छलरहित सहज ही सुन्दर प्रश्न सुनकर शिवजीके मनको भाये।  हर ( श्रीशिवजी)के हृदयमें सभी रामचरित आ गये। प्रेमसे शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें जल भर गया ।गोस्वामीजी सर्वत्र 'प्रश्न' शब्दको स्त्रीलिंग ही लिखते हैं। यथा 'प्रश्न उमा के सहज सुहाई'।और भी  'धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी । इत्यादि । 'सहज सुहाई' अर्थात् बनावटी नहीं; यथा - 'उमा प्रश्न तव सहज सुहाई ॥ ' छलरहित होनेसे 'सुहाई' कहा। अपना अज्ञान एवं जो बातें प्रथम सतीतनमें छिपाये रही थीं, यथा- 'मैं बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥' वह सब अब कह दीं; इसीसे 'छल बिहीन ' कहा । यथा- 'रामु कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥ईश्वरको छल नहीं भाता, यथा- 'निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥'ये प्रश्न 'छल बिहीन' हैं, अतः मनको भाये । प्रश्न 'सुहाये' और 'मन भाये' हैं यह आगे शिवजी स्वयं कहते हैं- 'उमा प्रस्न तव सहज सुहाई । सुखद संत संमत मोहि भाई ॥ ' अब हम प्रश्न की बात करें कि आखिर प्रश्न शब्द पर जोर क्यों,क्योंकि प्रश्न चार प्रकारके होते हैं - उत्तम, मध्यम, निकृष्ट और अधम । उत्तम प्रश्न छलरहित होते हैं, जैसे कि जिज्ञासु जिस बातको नहीं जानते उसकी जानकारीके लिये गुरुजनोंसे पूछते हैं, जिससे उनके मनकी भ्रान्ति दूर हो। फिर उन बातोंको समझकर वे उन्हें मनन करते हैं। जैसा कि मानस में कहा भी गया है- 'एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छल हीना ॥ 'मध्यम प्रश्न वह है जिनमें प्रश्नकर्ता वक्तापर अपनी विद्वत्ता को प्रकट करना चाहता है, जिससे वक्ता एवं और भी जो वहाँ बैठे हों वे भी जान जायँ कि प्रश्नकर्ता भी कुछ जानता है, विद्वान् है। निकृष्ट प्रश्न वह हैं जो वक्ताकी परीक्षाहेतु किये जाते हैं और अधम प्रश्न वे हैं जो सत्संग- वार्तामें उपाधि करने विघ्न डालनेके विचारसे किये जाते हैं। पार्वतीजीके प्रश्न उत्तम हैं, क्योंकि वे अपना संशय, भ्रम, अज्ञान मिटानेके उद्देश्यसे किये गये हैं। जैसा की पर्वतीजी कहती हैं-'जौ मोपर प्रसन्न सुखरासी । जानिय सत्य मोहि निज दासी ॥ तौ प्रभु हरहु मोर अज्ञाना । ॥' और भी आप देख सकते हैं  जैसे कि'जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू' 'अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवौं कर जोरें ॥ 'इत्यादि ।
'हर हिय रामचरित सब आए। यहाँयह कैसे कहा कि शिवजीके हृदयमें आये ? इस शंकाका समाधान यह है कि बात सब हृदयमें रहती है, पर स्मरण करानेसे उनकी स्मृति आ जाती है। मानसग्रन्थ हृदयमें रहा, पर पार्वतीजीके पूछनेसे वह सब स्मरण हो आया। यही भाव हृदयमें 'आए' का है । यथा - 'सुनि तव प्रश्न सप्रेम सुहाई । बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥' [भुशुण्डीजी सब जानते थे, पर गरुड़जीके प्रश्न करनेपर वे सब सामने उपस्थित - से हो गये,स्मरण हो आये। श्रीमद्भागवतमें इसी प्रकार जब वसुदेवजीने देवर्षि नारदजीसे अपने मोक्षके विषयमें उपदेश करनेकी प्रार्थना की; यथा - ' मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥' तब देवर्षि नारदजीने भी ऐसा ही कहा है, यथा—' त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः । स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥' अर्थात् आपने परमकल्याणस्वरूप भगवान् नारायणका मुझे स्मरण कराया जिनके गुणानुकीर्तन पवित्र हैं। वैसे ही यहाँ समझिये । पुनः जैसे पंसारीकी दूकानमें सब किराना रहता है, पर जब सौदा लेनेवाला आकर कोई एक, दो, चार वस्तु माँगता है तब उसके हृदयमें उस वस्तुका स्मरण हो आता है कि उसके पास वह वस्तु इतनी है और अमुक ठौर रखी है। इसी तरह जैसे-जैसे पार्वतीजीके प्रश्न होते गये वैसे ही - वैसे उनके उत्तरके अनुकूल श्रीरामचरित चित्तमें स्मरण हो आये ।] पुनः, हृदयमें 'आए' का भाव कि सब प्रश्नोंके उत्तर मुखाग्र कहने हैं, सब चरित शिवजीको कण्ठ हैं, उनके हृदयसे ही निकलेंगे, पोथीसे नहीं।  'सब' अर्थात् जोचरित पूछे हैं एवं जो नहीं पूछे हैं वे भी ।'प्रेम पुलक 'इति । चरित -स्मरण होनेसे प्रेम उत्पन्न हुआ; यथा—
'रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ।उससे शरीर पुलकित हुआ क्योंकि शिवजीका श्रीरामचरितमें अत्यन्त प्रेम है; यथा—' अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ॥
हर हिय रामचरित सब आए । यहां 'हर' शब्द देकर  यमक अलंकार के माध्यम से यह जनाया गया है  कि हर अर्थात् महादेव रामचरित कहकर उनका सब  दुःख हर अर्थात  हर लेगें । 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा कथाकार के लक्षण महादेव और राम कथा

मानस चर्चा कथाकार के लक्षण महादेव और राम कथा
आधार मानस की ये  चौपाई सुनते हैं 
बैठें सोह काम रिपु कैसें ।
धरे सरीरु सांत रसु जैसें ॥ 
पारबती भल अवसर जानी । 
गईं संभु पहिं मातु भवानी ॥ 
अर्थात् - कामदेवके शत्रु श्रीशिवजी बैठे हुए कैसे सुशोभित हो रहे हैं, जैसे  मानो शान्तरस ही शरीर धारण
किये। बैठा हो ॥  अच्छा अवसर मौका जानकर जगत् माता भवानी श्रीपार्वतीजी श्रीशिवजीके पास गयीं ॥ 
'बैठें सोह ' 'बैठे कहकर प्रसंग छोड़ा था, यथा- 'बैठे सहजहिं संभु कृपाला ।' बीचमें स्वरूपका वर्णन करने लगे थे, अब पुनः वहीं से उठाते हैं— 'बैठें सोह '।  'बैठें सोह कामरिपु’यहाँ 'कामरिपु' कहकर शान्तरसकी शोभा कही । तात्पर्य कि जबतक काम - विकारसे रहित न हो तबतक शान्तरस नहीं आ सकता, जब कामका नाश होता है तब शान्तरसकी शोभा है। जब मनुष्य शान्त होता है तभी बैठता है, बिना शान्तिके दौड़ता-फिरता रहता है।  'धरें सरीरु सांतरसु जैसें' इति । अर्थात् शिवजी शान्तरसके स्वरूप हैं। शान्तरस उज्ज्वल है और शिवजी भी गौरवर्ण हैं - कर्पूरगौरम्',  तथा उनका सब साज ही उज्ज्वल है। यथा -  'कुंद इंदु दर गौर सरीरा' (शरीर उज्ज्वल),  'नख दुति भगत हृदय तम हरना' (नखद्युति उज्ज्वल),  'भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी' (विभूति और शेष दोनों उज्ज्वल), ' आनन सरदचंद छबिहारी' (मुख चन्द्रसमान प्रकाशित), । 'शान्तका देवता परब्रह्म है, शिवजीके भी देवता परब्रह्म हैं, परमात्मा आलम्बन और आत्मतत्त्व उद्दीपन है।  निर्वेद (मनका वैराग्ययुक्त होना) स्थायी, रामतत्त्वका ज्ञान अनुभाव (शान्तरसको अनुभव करानेवाला), वट उद्दीपन और क्षमा विभाव है जो रसको प्रकट कर रहा है। करुणाकण जो तनमें विराजमान है वही संचारी है। इस रसके स्वामी ब्रह्म हैं । अतएव श्रीशिवजी अपने स्वामीकी अभंग कथा कहेंगे।  'कामरिपु' का भाव कि कामना अनेक दुःख उत्पन्न करती है, आप उनके निवारक हैं । अर्थात् श्रोताके हृदयसे कामनाओंको निर्मूल कर देनेको समर्थ हैं धरें सरीर सांतरस जैसें' - शान्त होकर बैठना भी उपदेशहेतु है । इससे जनाते हैं कि बिना शान्तचित्त हुए उपदेश लगता नहीं । अथवा, काम हरिकथाका बाधक है, यथा— 'क्रोधिहि सम कामिहिं हरिकथा। ऊसर बीज बए फल जथा ॥' तात्पर्य यह कि वक्ता और श्रोता दोनों निर्विकार हों।
कथाके प्रारम्भ-समय शिवजीका स्थान और स्वरूप वर्णन किया । इसीके द्वारा, इसीके व्याजसे ग्रन्थकारने कथाके स्थान और वक्ताओंके लक्षण कहे हैं । 'परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ शिव उमा निवासू ।। तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला।नित नूतन सुंदर सब काला ॥' से जनाया कि कथाका स्थान ऐसा होना चाहिये। अब उदाहरण सुनिये।  'भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन॥ तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । 'सब बिधि पुरी मनोहर जानी।सकल सिद्धिप्रद मंगलखानी 'गिरि सुमेरु उत्तर दिसि दूरी । नील सयल एक सुंदर भूरी । तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए ॥ तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला । बट पीपर पाकरी रसाला ॥ सैलोपरि सर सुंदर सोहा । मनि सोपान देखि मन मोहा।'  'मंगलरूप भयउ बन तब तें । कीन्ह निवास रमापति जब तें ॥ फटिकसिला अतिसुभ्र सुहाई । सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥ कहत अनुज सन कथा अनेका । भगति बिरति नृपनीति बिबेका ।'  इत्यादि ।
वक्ता कैसा होना चाहिये सो सुनिये ।– (१) 'निज कर डासि नागरिपु छाला'। ऐसा निरभिमान और कृपालु होना चाहिये । बैठें सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥' – ऐसा स्वरूप हो और निष्काम हो ।
वक्ताके सात लक्षण कहे गये हैं। यथा-
'विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् । दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिस्पृहः ॥ 
इन सातोंको श्रीशिवजीमें घटित दिखाते हैं । – (१) विरक्त, यथा- 'जोग ज्ञान वैराग्य निधि  । (२) वैष्णव, यथा- 'सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी।' (३) विप्र यथा— 'वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनम्'  (४) 'वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ' यथा— 'सकल कला गुन धाम। (५) दृष्टान्तकुशल, यथा- 'झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥'
'जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी' ।  'उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।' इत्यादि । (६) धीर, यथा- 'बैठें सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥' (७) निस्पृह, यथा - 'कामरिपु' अर्थात् निष्काम । शिवजी जहाँ बैठे हैं वहाँ 'संत बिटप सरिता गिरि धरनी' इन पंच परोपकारियोंका सम्मेलन हुआ है। यथा - 'शिव बिश्राम बिटप, ' 'परम रम्य गिरिबर कैलासू', 'सुंदर सिर गंगा'। और पृथ्वीपर तो बैठे ही हैं। शिवजी स्वयं संतशिरोमणि हैं ही। संतोंके लक्षण उनमें भरपूर हैं।
'पारबती भल अवसरु जानी ।"  अच्छा अवसर यह कि भगवान् शंकर सब कृत्यसे अवकाश पाकर एकान्तमें बैठे हैं। अपना मोह प्रकट करना है, इसलिये एकान्त चाहिये । श्रीभरद्वाजजीने भी अपना मोह श्रीयाज्ञवल्क्यजीसे एकान्तमें कहा था, जब सब मुनि चले गये थे, क्योंकि सबके सामने अपना मोह कहनेमें लज्जा लगती है; यथा - 'कहत सो मोहि लागत भय लाजा ।  जब शिवजी वट तले आये थे तब उनके साथ कोई न था, अपने हाथों उन्होंने बाघाम्बर बिछाया और जब पार्वतीजी आयीं तब भी वहाँ कोई और न आया था । स्त्री- पुरुषका एकान्त है यह समझकर आयीं ।  'भल अवसर' जानकर गयीं;
क्योंकि समयपर काम करना चाहिये, समयपर ही कार्य करनेकी प्रशंसा है, यथा- 'समयहि साधे काज सब समय
सराहहिं साधु' [ सब लोगोंने अवसर देखा है, वैसे ही पार्वतीजीने अवसर देखकर काम किया ।
उदाहरण, यथा- 'अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरि भवन पठाए । ' 'सो अवसरु बिरंचि
जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना । '  । 'सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं ॥'
'ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई । पुनि न बनिहि अस अवसरु आई।'  'अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहि नावा।' 'देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान ॥ ' 
 आप आम जीवन में भी पाते हैं की आम आदमी भी अवसर की ताक में रहता हैं नहीं तो अवसर चुके डोगरी नाचे ताल बे ताल और का वर्षा जब कृषि सुखाने।समय बीति पुनि का पछताने। अतः सीधी सी बात है कि
अवसरपर कार्य करनेसे कार्य सिद्ध होता है और संत तथा जगत् सराहता है। यथा - ' लाभ समयको पालिबो,
हानि समयकी चूक । सदा बिचारहिं चारुमति सुदिन कुदिन दिन टूक ॥'  'अवसर कौड़ी जो चुकै, बहुरि दिये का लाख । दुइज न चंदा देखिय, उदौ कहा भरि पाख ॥ ' ( 'समरथ कोउ न राम सों, तीय हरन अपराधु । समयहि साधे काज सब, समय सराहहिं साधु ।' इत्यादि ।  'पारबती' नामका भाव कि ये पर्वतराजकी कन्या हैं। पर्वत परोपकारी होते हैं, यथा- 'संत बिटप सरिता गिरि धरनी । परहित हेतु सबन्ह कै करनी ॥' अतः ये भी शिवजीके पास जगत्‌का उपकार करनेके विचारसे आयी हैं, यथा- 'कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ।।' [ नदी पर्वतसे निकलती है और समुद्रमें जा मिलती है।
वाल्मीकीयरामायणके सम्बन्धमें कहा गया ही है- 'वाल्मीकिगिरिसम्भूता रामसागरगामिनी।' वैसे ही श्रीरामचरितमानस कथारूपिणी नदी आप (पार्वतीजी) के द्वारा निकलकर श्रीरामराज्याभिषेक - प्रसंगरूपी समुद्रमें जा मिलेगी । - यह 'पार्वती' शब्दसे जनाया] 'गईं संभु पहिं मातु भवानी' इति । 'भवानी' (भवपत्नी) हैं, अतएव सबकी माता हैं। सबके कल्याणके लिये गयी हैं, इसीसे 'शंभु' पद दिया अर्थात् कल्याणकर्ताके पास गयीं। ( माता पुत्रोंका सदा कल्याण सोचती, चाहती और करती है। ये जगज्जननी हैं, अतएव ये जगत् मात्रका कल्याण सोचकर कल्याणके उत्पत्तिस्थान एवं कल्याणस्वरूप 'शंभु' के पास गयीं। 'शंभु' के पास गयी हैं, अतः अब इनका भी कल्याण होगा। शिवजी अब इनमें पत्नीभाव ग्रहणकर इनका वैसा ही आदर करेंगे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा राम कथा गंगा के समान पावन है

मानस चर्चा  राम कथा गंगा के समान पावन है
आधार महादेवजी का यह कथन
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा 
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हिहु प्रश्न जगत हित लागी 
अर्थात्- तुमने श्रीरघुनाथजीके कथाके प्रसंग  अर्थात् कथा और उसके प्रसंग पूछे हैं, जो समस्त लोकोंके लिये जगत्पावनी गंगाजी के समान है ।तुम श्रीरघुवीरजीके चरणोंकी अनुरागिणी हो। तुमने प्रश्न जगत्के कल्याणके लिये किये हैं।  पार्वतीजीने कहा था 'रघुपति कथा कहहु करि दाया', वही बात यहाँ शिवजी कह रहे हैं।  कथा प्रसंगा कथाके प्रसंग । पार्वतीजीने कथाके प्रसंग भी पूछे हैं,जैसे कि— 'प्रथम सो कारन कहहु बिचारी।', 'पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा','बालचरित पुनि कहहु उदारा' इत्यादि। 
ये सब कथाके प्रसंग ही हैं। इसीसे 'कथा प्रसंग' पूछना कहा। किसी-किसीका मत है कि 'यहाँ कथा और
प्रसंग दो बातें हैं। पार्वतीजीने प्रथम जो यह कहा था कि 'रघुपति कथा कहहु करि दाया' कौन सी कथा जो कथा'सकल लोक जग पावनि गंगा है ।'  अर्थात् सकल लोक और जगत्‌को पावन करनेवाली राम कथा ही हैं। जैसा कि बाल्मिकी  रामायण में भी कहा  गया है- 'वाल्मीकिगिरिसम्भूता रामसागरगामिनी ।
पुनातु भुवनं पुण्या रामायण महानदी॥'
श्रीभगीरथ महाराज केवल अपने पुरुखा सगरमहाराजके
पुत्रोंके उद्धारके लिये गंगाजीको पृथ्वीपर लाये । पर इस कार्यसे केवल उन्हींका उपकार नहीं हुआ वरन् तीनों
लोकोंका हुआ और आज भी हो रहा है क्योंकि गंगाजीकी एक धारा स्वर्गको और एक पातालको भी गयी
जहाँ वे मन्दाकिनी और भोगवती नामसे प्रसिद्ध हुईं। श्रीशिवजी कहते हैं कि इसी तरह तुम्हारे प्रश्नोंसे तीनों
लोकोंका हित होगा । यहाँ पार्वतीजीका प्रश्न भगीरथ है कथाको जो कहेंगे वह गंगा है। और यह वह गंगा है जो'सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा ॥'
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा रामकथा सुरधेनु सम

मानस चर्चा रामकथा सुरधेनु सम
रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुखदानि ।
सत समाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥
अर्थात् श्रीरामकथा कामधेनु - समान है, सेवा करनेसे सब सुखोंकी देनेवाली है। संतसमाज समस्त देवलोक
हैं, ऐसा जानकर उन्हें कौन नहीं सुनेगा ? 
'रामकथा सुरधेनु' सुरधेनु  अर्थात् कामधेनु  है। क्षीरसागर - मन्थनसे निकले हुए चौदह रत्नोंमेंसे यह भी एक
है । यह अर्थ, धर्म, कामकी देनेवाली है, जमदग्निजी और वसिष्ठजीके पास इसीकी संतान  सुरभि और नन्दिनी  थीं।
भक्त  तो सुर हैं और रामकथा सुरधेनु है तथा संतसमाज सुरलोक है। तात्पर्य कि कामधेनु सुरलोकमें है, रामकथा
संतसमाजमें है - 'बिनु सतसंग न हरिकथा'- इससे रामकथाके मिलनेका ठिकाना बताया। जैसे सुरधेनुका ठिकाना सुरलोक है वैसे ही कथाका ठिकाना संतसमाज है। 'सेवत सब सुखदानि' । सब सुखोंकी दात्री जानकर दैवी संपदावाले ही सुनते हैं अर्थात् सब सुनते हैं। 'सब सुखदानि' का भाव कि कामधेनु अर्थ, धर्म और काम तीन
ही पदार्थ देती है परंतु रामकथा चारों पदार्थ देती है' यदि ऐसा लिखते तो चार ही पदार्थोंका देना पाया जाता, परंतु
कथा चारों पदार्थ तो देती ही है और इनसे बढ़कर भी पदार्थ हैं ब्रह्मानन्द, प्रेमानन्द, ज्ञान, वैराग्य, नवधा भक्ति
प्रेमपराभक्ति इत्यादि अनेक सद्गुणोंको भी देनेवाली है, यही नहीं यह तो  श्रीरामचन्द्रजीको लाकर मिला देती
है। अतएव 'सब सुखदानि' कहा, पापहरणमें गंगासमान और सर्वसुखदातृत्वमें कामधेनु - समान कहा । 'सब
सुखदानि' अर्थात् सबको, जो भी सेवा करे उसे ही बिना किसी जाति धर्म सम्प्रदाय लिंग आदि को ध्यान रखे जो भी राम कथा में स्नेह विश्वास प्रेम रखता है उन सभी को सब सुखोंकी देनेवाली है राम कथा ।
सब सुख तो रामभक्तिसे मिलते ही  हैं, जैसा कि- 'सब सुखखानि भगति तैं माँगी। नहिं जग कोउ तोहि
सम बड़ भागी ।'मानसके उपसंहारमें शिवजीने ही कहा
है कि 'रामचरन रति जो चह अथवा पद निर्बान । भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥  'सुख कि होइ हरि भगति बिनु । 
बिनु सतसंग न हरिकथा तेहि बिनु मोह न भाग। 
मोह गए बिनु रामपद होइ न दृढ़ अनुराग ॥'
भाव यह कि सत्संगमें रामकथा श्रवण करनेसे वैराग्य, विमल ज्ञान और पराभक्ति लाभ क्रमशः होते ही हैं।
रामकथाश्रवण स्वयं रामभक्ति है। इसीसे सब सुख प्राप्त हो जाते हैं।  कहा भी है- 'जीवनमुकुति हेतु जनु कासी', 'सकल सिद्धि सुख संपति रासी'। '
'सुनहिं बिमुक्त बिरति अरु बिषई । लहहिं भगति गति संपति नई ॥' अर्थात् जीवन्मुक्त पुरुषोंको भक्ति तथा वैराग्यवानोंको मुक्तिका लाभ है और विषयी सम्पत्तिको पाते हैं ।विनय करते हुए जब मां पार्वतीजी कहती है कि 'जासु भवन सुरतरु तर होई। सह कि दरिद्रजनित दुख सोई ॥तब उत्तरमें शिवजी कहते हैं कि दरिद्रजनित दुःख सहनेका कोई कारण नहीं। रामकथारूपी सब सुखदानि
कामधेनुका सेवन करो। अज्ञानसे ही लोग दुःख सह रहे हैं, नहीं तो रामकथारूपी कामधेनुके रहते दुःखकी
कौन-सी बात है ?
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 4 जुलाई 2024

मानस चर्चा शिव शोभा

मानस चर्चा शिव शोभा आधार
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बाल बिधु भाल ॥ 
अर्थात्-सिरपर जटाओंका मुकुट और गंगाजी सुशोभित हैं, नेत्र कमल - समान बड़े-बड़े हैं, कण्ठ नीला है, वे सौन्दर्य - निधान हैं, उनके ललाटपर द्वितीयाका चन्द्रमा शोभित है ॥ 
भगवान् शंकरकी शोभा वर्णन कर रहे हैं, इसीसे यहाँ सब शोभा ही कही है। 'कुंद इंदु दर गौर सरीरा' यह शरीरकी शोभा कही, 'भुज प्रलंब' से भुजाओंकी शोभा कही, 'परिधन मुनिचीरा' से कटिकी शोभा कही । जहाँ-जहाँ भयंकर रूप कहा गया है वहाँ-वहाँ नग्न कहा है। 'नगन जटिल भयंकरा' 'तरुन अरुन अंबुज सम चरना' यह चरणोंकी शोभा है, 'नख दुति भगत हृदय तम हरना' से नखकी शोभा कही, 'भुजग भूति भूषन' यह शरीरकी शोभा है; यथा- 'गौर सरीर भूति भल भ्राजा । '  'आननु
सरद चंद छबिहारी' से मुखकी, 'जटा मुकुट से सिरकी, 'लोचन नलिन 'से नेत्रकी, 'नीलकंठ' से कण्ठकी
और 'बाल बिधु भाल' से ललाटकी शोभा कही गयी ।
'जटा मुकुट'  । यही उदासीनताका वेष है। शिवजी उदासीन रहते हैं, सबमें उनका समान भाव है, कोई शत्रु - मित्र नहीं।  पुनः भाव कि वक्ता भीतर-बाहरसे पहले स्वयं विरक्त स्वरूप धारण करे तब उपदेष्टा बनने योग्य हो; देवनदी गंगाको सिरपर धारण करनेका भाव कि किसीसे झूठ न बोले । शिवजी सदा सत्य बोलते हैं । वे साक्षी हैं।  'लोचन नलिन बिसाल' अर्थात् कमल-दल - समान लंबे ।  नेत्र कृपारसभरे हैं, जिसमें श्रोताको आह्लाद हो।  'नीलकंठ' का भाव कि त्रैलोक्यपर दया करके जो कालकूट आपने पी लिया था उस दयालुताका चिह्न आज भी आपके कण्ठमें विराजमान है; उसीसे कण्ठ नीला पड़ गया । यथा - 'जरत सकल सुरवृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।' 'पान कियो बिष भूषन भो ।'  'बिष भूति विभूषन ।'  पुनः भाव कि यद्यपि विष जलाता है तब भी आप उसे त्यागते नहीं, अर्थात् जिसको एक बार अंगीकार कर लेते
हैं फिर उसका त्याग नहीं करते।  इससे भक्तवात्सल्य सूचित किया । ‘सोह बाल बिधु भाल' । द्वितीयाका चन्द्रमा दीन, क्षीण तथा वक्र है; पर आपके आश्रित होनेसे आपने उसे भी जगद्वन्दनीय बना दिया । यथा 'यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।'  पुनः भाव कि कैसा ही टेढ़ा क्यों न हो आप उसे उपदेश कर वन्दनीय बना देते हैं ।  द्विजचन्द्रदर्शन मांगलिक है, अतएव आपका दर्शन भी मंगलप्रद है ।वक्ता कैसा वैराग्यवान् आदि होना चाहिये यह यहाँ दिखाया है। 
'लावन्यनिधि' । शोभाके समुद्र हैं। समुद्रमें रत्न हैं । समुद्रमन्थनसे चौदह परमोत्तम रत्ननिकले थे। इस प्रसंगमें भगवान् शंकरके स्वरूपमें कुछ रत्नोंका वर्णन किया है। 'नीलकंठ' से गरल (कालकूट),  'बिधुभाल' से चन्द्र,  'कुंद इंदु दर गौर' से शंख,  प्रनत कलपतरु नाम' 
से कल्पवृक्ष, 'करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥ ' से अमृत- और  'बाल बिधु भाल' से भी अमृत - रत्नका ग्रहण करते हैं। रामकथा सुधाको लेते हैं जो उनके मुखसे टपकती है, यथा- 'नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर'  'नखदुति' से मणि, यथा- 'श्रीगुर पद नख मनिगन जोती।' 'पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी। '  से लक्ष्मीका ग्रहण हुआ, यथा- 'या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता । रामकथा
सुरधेनु सम सेवत सब सुखदानि' से कामधेनु रत्न कहा ।
समुद्रसे चौदह रत्न निकले थे । यथा - 
'लक्ष्मी: कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः, गाव:
कामदुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः । अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोऽमृतञ्चाम्बुधेः, रत्नानीति चतुर्दश
प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥' 
परंतु इनमेंसे यह आठ रत्न शिवजीके योग्य जानकर ग्रन्थकारने इस प्रसंग में दिये हैं, छ: को अयोग्य जानकर छोड़ दिये।इस प्रसंगमें नाम, रूप, लीला और धाम चारों कहे गए हैं। 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।