मानस चर्चा शिव शोभा आधार
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बाल बिधु भाल ॥
अर्थात्-सिरपर जटाओंका मुकुट और गंगाजी सुशोभित हैं, नेत्र कमल - समान बड़े-बड़े हैं, कण्ठ नीला है, वे सौन्दर्य - निधान हैं, उनके ललाटपर द्वितीयाका चन्द्रमा शोभित है ॥
भगवान् शंकरकी शोभा वर्णन कर रहे हैं, इसीसे यहाँ सब शोभा ही कही है। 'कुंद इंदु दर गौर सरीरा' यह शरीरकी शोभा कही, 'भुज प्रलंब' से भुजाओंकी शोभा कही, 'परिधन मुनिचीरा' से कटिकी शोभा कही । जहाँ-जहाँ भयंकर रूप कहा गया है वहाँ-वहाँ नग्न कहा है। 'नगन जटिल भयंकरा' 'तरुन अरुन अंबुज सम चरना' यह चरणोंकी शोभा है, 'नख दुति भगत हृदय तम हरना' से नखकी शोभा कही, 'भुजग भूति भूषन' यह शरीरकी शोभा है; यथा- 'गौर सरीर भूति भल भ्राजा । ' 'आननु
सरद चंद छबिहारी' से मुखकी, 'जटा मुकुट से सिरकी, 'लोचन नलिन 'से नेत्रकी, 'नीलकंठ' से कण्ठकी
और 'बाल बिधु भाल' से ललाटकी शोभा कही गयी ।
'जटा मुकुट' । यही उदासीनताका वेष है। शिवजी उदासीन रहते हैं, सबमें उनका समान भाव है, कोई शत्रु - मित्र नहीं। पुनः भाव कि वक्ता भीतर-बाहरसे पहले स्वयं विरक्त स्वरूप धारण करे तब उपदेष्टा बनने योग्य हो; देवनदी गंगाको सिरपर धारण करनेका भाव कि किसीसे झूठ न बोले । शिवजी सदा सत्य बोलते हैं । वे साक्षी हैं। 'लोचन नलिन बिसाल' अर्थात् कमल-दल - समान लंबे । नेत्र कृपारसभरे हैं, जिसमें श्रोताको आह्लाद हो। 'नीलकंठ' का भाव कि त्रैलोक्यपर दया करके जो कालकूट आपने पी लिया था उस दयालुताका चिह्न आज भी आपके कण्ठमें विराजमान है; उसीसे कण्ठ नीला पड़ गया । यथा - 'जरत सकल सुरवृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।' 'पान कियो बिष भूषन भो ।' 'बिष भूति विभूषन ।' पुनः भाव कि यद्यपि विष जलाता है तब भी आप उसे त्यागते नहीं, अर्थात् जिसको एक बार अंगीकार कर लेते
हैं फिर उसका त्याग नहीं करते। इससे भक्तवात्सल्य सूचित किया । ‘सोह बाल बिधु भाल' । द्वितीयाका चन्द्रमा दीन, क्षीण तथा वक्र है; पर आपके आश्रित होनेसे आपने उसे भी जगद्वन्दनीय बना दिया । यथा 'यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।' पुनः भाव कि कैसा ही टेढ़ा क्यों न हो आप उसे उपदेश कर वन्दनीय बना देते हैं । द्विजचन्द्रदर्शन मांगलिक है, अतएव आपका दर्शन भी मंगलप्रद है ।वक्ता कैसा वैराग्यवान् आदि होना चाहिये यह यहाँ दिखाया है।
'लावन्यनिधि' । शोभाके समुद्र हैं। समुद्रमें रत्न हैं । समुद्रमन्थनसे चौदह परमोत्तम रत्ननिकले थे। इस प्रसंगमें भगवान् शंकरके स्वरूपमें कुछ रत्नोंका वर्णन किया है। 'नीलकंठ' से गरल (कालकूट), 'बिधुभाल' से चन्द्र, 'कुंद इंदु दर गौर' से शंख, प्रनत कलपतरु नाम'
से कल्पवृक्ष, 'करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥ ' से अमृत- और 'बाल बिधु भाल' से भी अमृत - रत्नका ग्रहण करते हैं। रामकथा सुधाको लेते हैं जो उनके मुखसे टपकती है, यथा- 'नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर' 'नखदुति' से मणि, यथा- 'श्रीगुर पद नख मनिगन जोती।' 'पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी। ' से लक्ष्मीका ग्रहण हुआ, यथा- 'या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता । रामकथा
सुरधेनु सम सेवत सब सुखदानि' से कामधेनु रत्न कहा ।
समुद्रसे चौदह रत्न निकले थे । यथा -
'लक्ष्मी: कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः, गाव:
कामदुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः । अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोऽमृतञ्चाम्बुधेः, रत्नानीति चतुर्दश
प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥'
परंतु इनमेंसे यह आठ रत्न शिवजीके योग्य जानकर ग्रन्थकारने इस प्रसंग में दिये हैं, छ: को अयोग्य जानकर छोड़ दिये।इस प्रसंगमें नाम, रूप, लीला और धाम चारों कहे गए हैं।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।
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