रविवार, 23 जून 2024

मानस चर्चा "जागबलिक"

मानस चर्चा "जागबलिक"
जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥ 
कहिहौं सोइ संबाद बखानी।सुनहु सकल सज्जन सुखु मानी।। 
याज्ञवल्क्यजी ब्रह्माजीके अवतार हैं। इनकी कथा स्कन्दपुराणके हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्यके प्रसंगमें
इस प्रकार है- किसी समयकी बात है कि ब्रह्माजी राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र में एक यज्ञ कर रहे थे। ब्रह्माजीकी पत्नी सावित्रीजीको आने में देर हुई और शुभ मुहूर्त बीता जा रहा था। तब इन्द्रने एक गोपकन्या /ग्वालिन अर्थात् अहीरिन को लाकर कहा कि
इसका पाणिग्रहणकर यज्ञ आरम्भ कीजिये । पर ब्राह्मणी न होनेसे उसको ब्रह्माने गौके मुखमें प्रविष्टकर  है गौ की योनिद्वारा बाहर निकालकर ब्राह्मणी बना लिया; क्योंकि ब्राह्मण और गौका कुल शास्त्रमें एक माना गया है। फिर विधिवत् उसका पाणिग्रहणकर उन्होंने यज्ञारम्भ किया। यही गायत्री है। कुछ देरमें सावित्रीजी वहाँ पहुँचीं और ब्रह्माके साथ यज्ञमें दूसरी स्त्रीको बैठे देख उन्होंने ब्रह्माजीको शाप दिया कि तुम मनुष्यलोकमें जन्म लो और कामी हो जाओ । फिर सरस्वती अपना सम्बन्ध ब्रह्मासे तोड़कर वह तपस्या करने चली गयी । आप प्रमाण प्राप्त करना चाहते हो तो राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र का भ्रमण कर लेवें। मां सावित्री के श्राप के कारण कालान्तरमें ब्रह्माजीने चारणऋषिके यहाँ जन्म लिया ।वहाँ याज्ञवल्क्य नाम हुआ। तरुण होनेपर वे शापवशात् अत्यन्त कामी हुए जिससे पिताने उनको  घर से निकाल दिया।पागल-सरीखा भटकते हुए वे चमत्कारपुरमें शाकल्य ऋषिके यहाँ पहुँचे और वहाँ उन्होंने वेदाध्ययन किया। एक समय आनर्त्तदेशका राजा चातुर्मास्यव्रत करनेको वहाँ प्राप्त हुआ और उसने अपने पूजा- पाठके लिये शाकल्यको पुरोहित बनाया। शाकल्य नित्यप्रति अपने यहाँका एक विद्यार्थी राजा के यहां पूजा-पाठ करनेको भेज देते थे, जो
पूजा-पाठ करके राजाको आशीर्वाद देकर दक्षिणा लेकर आता था और गुरुको दे देता था। एक बार
याज्ञवल्क्यजीकी बारी आयी । यह पूजा आदि करके जब मन्त्राक्षत लेकर आशीर्वाद देने गये तब वह राजा विषयमें
आसक्त था, अतः उसने कहा कि यह लकड़ी जो पास ही पड़ी है इसपर अक्षत डाल दो। याज्ञवल्क्यजी अपमान
समझकर क्रोधमें आ आशीर्वादके मन्त्राक्षत काष्ठपर छोड़कर चले गये, दक्षिणा भी नहीं ली । मन्त्राक्षत पड़ते
ही काष्ठ में शाखापल्लव आदि हो आये। यह देख राजाको बहुत पश्चात्ताप हुआ कि यदि यह अक्षत मेरे सिरपर
पड़ते तो मैं अजर-अमर हो जाता। राजाने शाकल्यजीको कहला भेजा कि उसी शिष्यको भेजिये । परन्तु याज्ञवल्क्यजी कहा कि उसने हमारा अपमान किया इससे हम न जायँगे। तब शाकल्यने कुछ दिन और अन्य विद्यार्थियोंको भेजा ।राजा विद्यार्थियोंसे दूसरे काष्ठपर आशीर्वाद छुड़वा देता । परन्तु किसीके मन्त्राक्षतसे काष्ठ हरा-भरा न हुआ । यह देख राजाने स्वयं जाकर आग्रह किया कि याज्ञवल्क्यजीको भेजें, परन्तु इन्होंने साफ जवाब दे दिया । शाकल्यको इसपर क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि - 
'एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् । 
पृथिव्यां नास्ति तद्द्द्रव्यं यद्दत्वा चानृणी भवेत् ॥'  अर्थात् गुरु जो शिष्यको एक भी अक्षर देता है पृथ्वीमें कोई ऐसा द्रव्य नहीं है जो शिष्य देकर उससे उऋण हो जाय। उत्तरमें याज्ञवल्क्यजीने कहा-
'गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथे वर्तमानस्य परित्यागो विधीयते ॥' 
अर्थात् जो गुरु अभिमानी हो, कार्य-अकार्य क्या करना उचित है, क्या नहीं को नहीं जानता हो ऐसे दुराचारीका चाहे वह गुरु ही क्यों न हो परित्याग कर देना चाहिये ।
तुम हमारे गुरु नहीं, हम तुम्हें छोड़कर चल देते हैं। यह सुनकर शाकल्यने अपनी दी हुई विद्या लौटा देनेको
कहा और अभिमन्त्रित जल दिया कि इसे पीकर वमन कर दो। याज्ञवल्क्यजीने वैसा ही किया। अन्नके साथ
वह सब विद्या उगल दी। विद्या निकल जानेसे वे मूढबुद्धि हो गये । तब उन्होंने हाटकेश्वरमें जाकर सूर्यकी
बारह मूर्तियाँ स्थापित करके सूर्यकी उपासना की। बहुत काल बीतनेपर सूर्यदेव प्रकट हो गये और वर माँगनेको
कहा। याज्ञवल्क्यजीने प्रार्थना की कि मुझे चारों वेद सांगोपांग पढ़ा दीजिये। सूर्यने कृपा करके उन्हें मन्त्र बतलाया जिससे वे सूक्ष्म रूप धारण कर सकें और कहा कि तुम सूक्ष्म शरीरसे हमारे रथके घोड़ेके कानमें बैठ जाओ, हमारी कृपासे तुम्हें ताप न लगेगी। मैं वेद पढ़ाऊँगा, तुम बैठे सुनना । इस तरह चारों वेद सांगोपांग पढ़कर सूर्यदेवसे आज्ञा लेकर वे शाकल्यके पास आये और कहा कि हमने आपको दक्षिणा नहीं दी थी, जो माँगिये वह हम आपको दे देगें। उन्होंने सूर्यसे पढ़ी हुई विद्या माँगी। याज्ञवल्क्यजीने वह विद्या उनको दे दी। जिससे वे और अधिक देदीप्यमान  हो गए।इनकी दो स्त्रियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी । कात्यायनीके पुत्र कात्यायन हुए।  छन्दोग्य उपनिषद् में इनकी बड़ी महिमा लिखी है। इन्होंनेजनकमहाराजकी सभा में छः मासतक शास्त्रार्थ किया है। ये धर्मशास्त्रादिके प्रधान विद्वान् हैं । भगवान्के ध्यानमें समाधि लगाने में अद्वितीय योगी हैं, इसीलिये इन्हें 'योगियाज्ञवल्क्य' कहते हैं। भगवद्भक्तोंमें प्रधान होनेसे पहले याज्ञवल्क्यका नाम लिया। प्रयागमें ऋषिसभाके बीच प्रथम रामचरित्रके लिये भरद्वाजहीने प्रश्न किया, इसलिये प्रधान श्रोता भरद्वाजका प्रथम नामोच्चारण किया ।मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाज को सुनाई थी, वही राम कथा सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए सुनें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "अजामिल गज और गणिका की कथा"

मानस चर्चा "अजामिल गज और गणिका की कथा" 
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भये मुकुत हरि - नाम- प्रभाऊ ॥ 
अर्थात् - अजामिल, गजेन्द्र और गणिका – ऐसे पतित भी भगवान्‌के नामके प्रभावसे मुक्त हो गये ॥ 
उत्तम भक्तोंकी गिनती श्रीशिवजीसे प्रारम्भ की। यथा - ' महामंत्र जोई जपत महेसू ।' और शिवजीहीपर समाप्त की । यथा - 'सुमिरि पवनसुत पावन नामू ।' श्रीहनुमान्जी रुद्रावतार हैं, यथा-
'रुद्रदेह तजि नेह बस, बानर भे हनुमान ॥ 
जानि रामसेवा सरस समुझि करब अनुमान ।
पुरुषा ते सेवक भए, हर ते भे हनुमान ॥'अर्थात् 'महामंत्र जोई जपत महेसू' से 'सुमिरि पवनसुत' तक उच्च
कोटिके भक्तोंको गिनाया, अब पतितोंके नाम देते हैं जो नामसे बने ।
'अपत' की गिनती अजामिलसे प्रारम्भ करके अपनेमें समाप्ति की । गोस्वामीजीने अपनी गणना भक्तोंमें
नहीं की। यह उनका कार्पण्य है।
'अजामिल' की कथा श्रीमद्भागवत स्कन्ध ( ६ अ० १, २) में, भक्तिरसबोधिनी टीकामें विस्तारसे है। ये कन्नौज के एक श्रुतसम्पन्न ( शास्त्रज्ञ ) सुस्वभाव और सदाचारशील तथा क्षमा, दया आदि अनेक शुभगुणोंसे विभूषित ब्राह्मण थे। एक दिन यह पिता की  आज्ञा से जब वनमें फल, फूल, समिधा और कुशा लेने गए, वहाँसे इनको लेकर लौटते समय वनमें एक कामी शूद्रको एक वेश्यासे निर्लज्जतापूर्वक रमण करते देख ये कामके वश हो गए उसके पीछे इन्होने पिताकी सब सम्पदा नष्ट कर दी, अपनी सती स्त्री और परिवारको छोड़ उस कुलटाके साथ रहने और जुआ, चोरी इत्यादि कुकर्मोंसे जीवनका निर्वाह
और उस दासीके कुटुम्बका पालन करने लगे । इस दासीसे उनके दस पुत्र थे। अब वे अस्सी वर्षके हो
चुके थे।संयोग वश एक साधुमण्डली ग्राममें आयी, कुछ लोगोंने परिहाससे उन्हें बताया कि अजामिल बड़ा सन्तसेवी धर्मात्मा है। वे उसके घर गये तो दासीने उनका आदर-सत्कार किया । उनके दर्शनोंसे अजामिल की बुद्धि फिर सात्त्विकी हो गयी। सेवापर रीझकर साधुओं ने इनसे कहा कि जो बालक गर्भ में है उसका नाम 'नारायण' रखना। इस प्रकार सबसे छोटेका नाम 'नारायण' पड़ा। यह पुत्र उनको प्राणोंसे प्याराथा। अन्तकालमें भी उनका चित्त उसी बालकमें लग गया। उन्होंने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतोंको हाथोंमें पाश लिये हुए अपने पास आते देख विह्वल हो दूरपर खेलते हुए पुत्रको 'नारायण, नारायण' कहकर पुकारा ।  पुकारते ही तुरन्त नारायण- पार्षदोंने पहुँचकर यमदूतोंके पाशसे उन्हें छुड़ा दिया। भगवत् - पार्षदों और यमदूतोंमें वाद-विवाद हुआ। उसने पार्षदोंके मुखसे वेदत्रयीद्वारा प्रतिपादित सगुण धर्म सुना । भगवान्‌का माहात्म्य सुननेसे उसमें भक्ति उत्पन्न हुई। वह पश्चात्ताप करने लगा और भगवद्भजनमें आरूढ़ हो
भगवल्लोकको प्राप्त हुआ। श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि पुत्रके मिस भगवन्नाम उच्चारण होनेसे तो पापी
भगवद्धामको गया तो जो श्रद्धापूर्वक नामोच्चारण करेंगे उनके मुक्त होनेमें क्या सन्देह है ? - 
'नाम लियो पूत को पुनीत कियो पातकीस।'
'म्रियमाणो हरेर्नामगृणन्पुत्रोपचारितम् । अजामिलोप्यगाद्धाम किं पुनःश्रद्धया गृणन् ॥'  
अब हम गज की कथा सुनते हैं --
'- क्षीरसागरके मध्यमें त्रिकूटाचल है। वहाँ वरुणभगवान्‌का ऋतुमान् नामक बगीचा है और
एक सरोवर भी । एक दिन उस वनमें रहनेवाला एक गजेन्द्र हथिनियोंसहित उसमें क्रीड़ा कर रहा था । उसीमें
एक बली ग्राह भी रहता था । दैवेच्छासे उस ग्राहने रोषमें भरकर उसका चरण पकड़ लिया। अपनी शक्तिभर
गजेन्द्रने जोर लगाया। उसके साथके हाथी और हथिनियोंने भी उसके उद्धारके लिये बहुत उपाय किये पर उसमें समर्थ न हुए। एक हजार वर्षतक गजेन्द्र और ग्राहका परस्पर एक-दूसरेको जलके भीतर और बाहर खींचा- खींची करते बीत गये । अन्ततोगत्वा गजेन्द्रका उत्साह, बल और तेज घटने लगा और उसके प्राणोंके संकटका समय उपस्थित हो गया— उस समय अकस्मात् उसके चित्तमें सबके परम आश्रय हरिकी शरण लेनेकी सूझी और उसने प्रार्थना की - 
'यः कश्चनेशो बलिनो ऽन्तकोरगात्प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम्। भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भयान्मृत्युः प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥' अर्थात् जो कालसर्पसे भयभीत भागते हुए व्यक्तिकी रक्षा करता है, जिसके भयसे मृत्यु भी दौड़ता रहता है, उस शरणके देनेवाले, ईश्वरकी मैं शरण हूँ। यह सोचकर वह अपने पूर्वजन्ममें सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्रका जप करने लगा । यथा - 
' जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ।'
स्तुति सुनते ही सर्वदेवमय भगवान् हरि प्रकट हुए। उन्हें देखते ही बड़े कष्टसे अपनी सूँड़में एक कमलपुष्प ले उसे जलके ऊपर उठा भगवान्‌को 'नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ।' इस प्रकार " हे नारायण ! हे अखिल गुरो ! हे भगवन्! आपको नमस्कार है" कहकर प्रणाम किया। यह सुनते ही भगवान्, गरुड़ को भी मन्दगामी समझ उसपरसे कूद पड़े और तुरन्त ही उसे ग्राहसहित सरोवरसे बाहर निकाल सबके देखते-देखते उन्होंने चक्रसे ग्राहका मुख फाड़ गजेन्द्रको छुड़ा दिया। पूर्वजन्ममें यह ग्राह हूहू नामक गन्धर्वश्रेष्ठ था और गजेन्द्र द्रविड़ जातिका इन्द्रद्युम्न नामक पाण्ड्य देशका राजा था। वह मनस्वी राजा एक बार मलयपर्वतपर अपने आश्रम में मौनव्रत धारणकर श्रीहरिकी आराधना कर रहा था। उसी समय दैवयोगसे अगस्त्यजी शिष्योंसहित वहाँ पहुँचे। यह देखकर कि हमारा पूजा - सत्कार आदि कुछ न कर राजा एकान्तमें बैठा हुआ है, उन्होंने उसे शाप दिया कि - 'हाथीके समान
जडबुद्धि इस मूर्ख राजाने आज ब्राह्मणजातिका तिरस्कार किया है, अतः यह उसी घोर अज्ञानमयी योनिको
प्राप्त हो। इसीसे वह राजा गजयोनिको प्राप्त हुआ । भगवान्‌की आराधनाके प्रभावसे उस योनिमें भी उन्हें
आत्मस्वरूपकी स्मृति बनी रही। - अब भगवान्‌के स्पर्शसे वह अज्ञानबन्धनसे मुक्त हो भगवान्‌के सारूप्यको
प्राप्त कर भगवान्‌का पार्षद हो गया ।हूहू गन्धर्वने एक बार देवल ऋषिका जलमें पैर पकड़ा; उसीसे उन्होंने उसको शाप दिया कि तू ग्राहयोनिको प्राप्त हो । भगवान्‌के हाथसे मरकर वह अपने पूर्व रूपको प्राप्त हुआ और स्तुति करके अपने लोकको गया । गजेन्द्रके संगसे उसका भी नाम
चला । गजेन्द्रका 'गजेन्द्रमोक्ष' स्तोत्र प्रसिद्ध ही है। विनयमें भी कहा है- 'तरयो गयंद जाके एक नायँ ।'
अब गणिका की कथा को भी सुन ही लेते हैं।
पद्मपुराणमें गणिकाका प्रसंग श्रीरामनामके सम्बन्धमें आया है। सत्ययुगमें एक रघु नामक वैश्यकी जीवन्ती नामकी एक परम सुन्दरी कन्या थी । यह परशु नामक वैश्यकी नवयौवना स्त्री थी । युवावस्था में ही यह विधवा होकर व्यभिचारमें प्रवृत्त हो गयी। ससुराल और मायका दोनोंसे यह निकाल दी गयी। तब वह किसी दूसरे नगरमें जाकर वेश्या हो गयी। यह वह गणिका है। इसके कोई सन्तान न थी । इसने एक व्याधासे एक बार एक तोतेका बच्चा मोल ले लिया । और उसका पुत्रकी तरह पालन करने लगी। वह उसको 'राम राम' पढ़ाया करती थी। इस तरह नामोच्चारणसे दोनोंके पाप नष्ट हो गये । पद्म पुराण के अनुसार- 'रामेति सततं नाम पाठ्यते सुन्दराक्षरम् ॥ रामनाम परब्रह्म सर्वदेवाधिकं महत् । समस्तपातकध्वंसि स शुकस्तु सदा पठन् ॥
नामोच्चारणमात्रेण तयोश्च शुकवेश्ययोः । विनष्टमभवत्पापं सर्वमेव सुदारुणम् ॥  दोनों साथ-साथ इस प्रकार रामनाम लेते थे। फिर किसी समय वह वेश्या और वह शुक एक ही समय मृत्युको प्राप्त हुए । यमदूत उसको पाशसे बाँधकर ले चले, वैसे ही भगवान्‌के पार्षद पहुँच गये और उन्होंने यमदूतोंसे उसे छुड़ाया। छुड़ानेपर यमदूतोंने मारपीट की। दोनोंमें घोर युद्ध हुआ । यमदूतोंका सेनापति चण्ड जब युद्धमें गिरा तब सब यमदूत भगे। भगवत् पार्षदोंने तब जयघोष किया। उधर यमदूतोंने जाकर धर्मराजसे शिकायत की कि महापातकी भी रामनामके केवल रटनेसे भगवान्‌के लोकको चले गये तब आपका प्रभुत्व कहाँ रह गया ? इसपर धर्मराजने उनसे कहा - ' दूताः स्मरन्तौ तौ रामरामनामाक्षरद्वयम् । तदा न मे दण्डनीयौ तयोर्नारायणः प्रभुः ॥ संसारे नास्ति तत्पापं यद्रामस्मरणैरपि । न याति संक्षयं सद्योदृढं शृणुत किंकराः ॥ ' हे दूतो । वे 'राम,
राम' ये दो अक्षर रटते थे, इसलिये वे मुझसे दण्डनीय नहीं हैं। उनके प्रभु श्रीरामजी हैं। संसारमें ऐसा कोई
पाप नहीं है जो रामनामसे न विनष्ट हो, यह तुमलोग निश्चय जानो । — वे दोनों श्रीरामनामके प्रभावसे मुक्त
हो गये । यथा - 'रामनामप्रभावेण तौ गतौ धाम्नि सत्वरम् ॥' 
एक 'पिंगला' नामकी वेश्याका प्रसंग भी इस प्रकार है कि एक दिन वह किसी प्रेमीको अपने स्थानमें लानेकी इच्छासे खूब बन-ठनकर अपने घरके द्वारपर खड़ी रही। जो कोई पुरुष उस मार्ग से निकलता उसे ही समझती कि बड़ा धन देकर रमण करनेवाला कोई नागरिक आ रहा है, परन्तु जब वह आगे निकल जाता तो सोचती कि अच्छा अब कोई दूसरा बहुत धन देनेवाला आता होगा। इस प्रकार दुराशावश खड़े-खड़े उसे जागते-जागते अर्धरात्रि बीत गयी । धनकी दुराशासे उसका मुख सूख गया, चित्त व्याकुल हो
गया और चिन्ताके कारण होनेवाला परम सुखकारक वैराग्य उसको उत्पन्न हो गया । वह सोचने लगी कि -
ओह! इस विदेहनगरीमें मैं ही एक ऐसी मूर्खा निकली कि अपने समीप ही रमण करनेवाले और नित्य रति
और धनके देनेवाले प्रियतमको छोड़कर कामना पूर्तिमें असमर्थ तथा दुःख, शोक, भय, मोह आदि देनेवाले,
अस्थिमय टेढ़े-तिरछे बाँसों और थूनियोंसे बने हुए, त्वचा, रोम और नखोंसे आवृत, नाशवान् और मल-मूत्रसे
भरे हुए, नवद्वारवाले घररूप देहोंको कान्त समझकर सेवन करने लगी। अब मैं सबके सुहृद्, प्रियतम, स्वामी,
आत्मा, भवकूपमें पड़े हुए कालसर्पसे ग्रस्त जीवोंके रक्षकके ही हाथ बिककर लक्ष्मीजीके समान उन्हींके साथ
रमण करूँगी । यह सोचकर वह शान्तिपूर्वक जाकर सो रही और भजनकर संसार सागरसे पार हो गयी।
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भऐ मुकुत हरि नाम प्रभाऊ' ।।
जैसे अग्निको जानो या न जानो वह छूनेसे
अवश्य जलावेगी वैसे ही होठोंके स्पर्शमात्रसे नाम सर्व शुभाशुभकर्मोंको नष्टकर मुक्ति देगा ही । अजामिल
पतितोंकी सीमा था, इसीसे उसका नाम प्रथम दिया। ग्रन्थके अन्तमें भी कहा है कि ये सब नामसे तरे ।
यथा - 'गनिका अजामिल - व्याध-गीध-गजादि खल तारे घना । आभीर जमन किरात खस श्वपचादि अति अघरूप
जे ॥ कहि नाम बारक तेऽपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥'
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "नारद जानेउ नाम प्रतापू"

मानस चर्चा "नारद जानेउ नाम प्रतापू"
नारद जानेउ नाम प्रतापू।जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू। 
अर्थात् - श्रीनारदजीने नामका प्रताप जाना। जगन्मात्रको हरि प्रिय हैं, हरिको हर प्रिय हैं और हरि तथा
हर दोनोंको नारदजी प्रिय हैं ॥ 
'नारद जानेउ नाम प्रतापू' कैसे  ? इसी ग्रन्थमें इसका एक उत्तर मिलता है। नारदको दक्षका शाप था कि वे किसी एक स्थानपर थोड़ी देरसे अधिक न ठहर सकें। यथा- 'तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद् भ्रमतः पदम्।'  अर्थात् सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते हुए तेरे ठहरनेका कोई निश्चित स्थान न होगा। परन्तु हिमाचलकी एक परम पवित्र गुफा जहाँ गंगाजी बह रही थीं, देखकर ये वहाँ बैठकर भगवन्नामका स्मरण ज्यों ही करने लगे, त्यों ही शापकी गति रुक गयी, समाधि लग गयी । यथा -
'सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी । 
सहज बिमल मन लागि समाधी ॥' 
इन्द्रने डरकर इनकी समाधिमें विघ्न डालनेके लिये कामको भेजा। उसने जाकर अनेक प्रपंच किये, पर
'काम कला कछु मुनिहि न व्यापी ।'
नारदके मनमें न तो काम ही उत्पन्न हुआ और
न उसकी करतूतिपर उनको क्रोध हुआ। यह सब नाम स्मरणका प्रभाव था, जैसा कहा है-
'सीम कि चापि सकै कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू ॥ ' 
परन्तु उस समय दैवयोगसे वे भूल गये कि यह स्मरणका प्रभाव एवं प्रताप है। उनके चित्तमें अहंकार आ गया कि शंकरजीने तो कामहीको जीता था और मैंने तो काम और क्रोध दोनोंको जीता है। उसका फल जो हुआ
उसकी कथा विस्तारसे ग्रन्थकारने आगे दी ही है। भगवान्ने अपनी मायासे उनके लिये लीला रची जिसमें उनको काम, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार सभीने अपने वश कर लिया । माया हटा लेनेपर प्रभुके चरणोंपर त्राहि-त्राहि करते हुए गिरनेपर प्रभुकी कृपासे इनकी बुद्धि ठीक हुई और इन्होंने
जाना कि यह सब नामस्मरणका ही प्रताप था इसीसे अवतार होनेपर उन्होंने यह वर माँग लिया कि 'रामनाम सब नामोंसे श्रेष्ठ हो', श्रीरामनामके वे आचार्य और ऋषि हुए। गणेशजी, प्रह्लादजी, व्यासजी आदिको नामका प्रताप आपने ही तो बताया है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा" राम नाम के प्रसाद का फल"

मानस चर्चा" राम नाम के प्रसाद का फल"
नाम प्रसाद संभु अबिनासी । साजु अमंगल मंगलरासी ॥ १ ॥
सुक सनकादि सिद्ध * मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥ २ ॥
अर्थात् - नामके प्रसादसे शिवजी अविनाशी हैं और शरीरमें अमंगल सामग्रियाँ होनेपर भी मंगलकी राशि हैं ॥श्रीशुकदेवजी, श्रीसनकादिजी, सिद्ध, मुनि और योगीलोग नामहीके प्रसादसे ब्रह्मसुखके भोग करनेवाले हैं ॥ 
संभु - 'विष पीनेसे भी न मरे, इसलिये 'अबिनासी' होना सत्य हुआ । यद्यपि चिताकी भस्म, साँपका आभूषण, नरमुण्डके माल इत्यादि अशुभ वेष किये हैं, तथापि नामके बलसे महादेव मंगलकी राशि कहलाते हैं, शंकर- शिव इत्यादि नामसे पुकारे जाते हैं और बात-बातपर सेवकोंपर प्रसन्न हो अलभ्य वरदान देते हैं; जिनके पुत्र गणेशजी मंगलमूर्ति कहलाते हैं, वे वस्तुतः मंगलराशि हैं।
'नाम-हीकी कृपासे शिवजी अविनाशी हैं।' और यही ठीक है जैसा कि 'कालकूट फल दीन्ह अमी को '
से स्पष्ट है।श्रीरामनामके ही प्रतापसे अविनाशी भी हुए, इसके प्रमाण शिव पुराण में ये हैं- 
' यन्नाम सततं ध्यात्वाऽविनाशित्वं परं मुने ।
प्राप्तं नाम्नैव सत्यं तु सगोप्यं कथितं मया ॥'  रामनामप्रभावेण ह्यविनाशिपदं प्रिये ।
प्राप्तं मया विशेषेण सर्वेषां दुर्लभं परम् ॥' 
'साजु अमंगल मंगलरासी'  । श्रीरामनामकी ही कृपा और प्रभावसे अमंगल वेषमें भी मंगलराशि हैं, इसका प्रमाण पद्मपुराणमें है। कथा इस प्रकार है - श्रीपार्वतीजी पूछ रही हैं कि - 'जब कपाल, भस्म, चर्म, अस्थि आदिका धारण करना श्रुतिबाह्य है तब आप इन्हें क्यों धारण करते हैं।'
यथा—
'कपालभस्मचर्मास्थिधारणं श्रुतिगर्हितम् ।
तत्त्वया धार्यते देव गर्हितं केन हेतुना ॥ ' 
श्रीशिवजीने उत्तर देते हुए कहा है कि एक समयकी बात है कि नमुचि आदि दैत्य सर्वपापरहित भगवद्भक्तियुक्त
वेदोक्त आचरण करनेवाले होकर, इन्द्रादि देवताओंके लोक छीनकर राज्य करने लगे। तब इन्द्रादि भगवान्‌की
शरण गये पर भगवान्ने उनको भगवद्भक्त और सदाचारी होनेके कारण मारना उचित न समझा । भक्त
होकर भी भगवान्के बाँधे हुए लोक-मर्यादा और नियम भंग कर रहे हैं, अतः उनका नाश करना आवश्यक
है; इसलिये उनकी बुद्धिमें भेद डालकर सदाचारसे मन हटानेकी युक्ति सोचकर वे (भगवान्) हमारे पास
आये और हमें यह आज्ञा दी कि आप दैत्योंकी बुद्धिमें भेद डालकर उस सदाचारसे उनको भ्रष्ट करनेके
लिये स्वयं पाखण्डधर्मोका आचरण करें । यथा -
' त्वं हि रुद्र महाबाहो मोहनार्थे सुरद्विषाम् ।
पाखण्डाचरणं धर्मं कुरुष्व सुरसत्तम् ॥   पाखण्डाचरणधर्मका लक्षण पार्वतीजीसे उन्होंने पूर्व ही बताया है। वह इस प्रकार है- 
'कपालभस्मास्थिधरा ये ह्यवैदिकलिंगिनः ।
ऋते वनस्थाश्रमाच्च जटावल्कलधारिणः ॥ 
अवैदिक- क्रियोपेतास्ते वै पाखण्डिनस्तथा । 
'आपका परत्व सब जानते ही हैं। इसलिये आपके आचरण देखकर वे सब दैत्य उसीका अनुकरण करने लगेंगे और हमसे विमुख हो जायँगे और जब-जब हम अवतार लिया करेंगे तब-तब उनको दिखानेके लिये हम भी आपकी पूजा किया करेंगे जिससे उनका
इन आचरणों में विश्वास हो जायगा और उसीमें लग जानेसे वे नष्ट हो जायँगे।' यह सुनकर हमारा
मन उद्विग्न हो गया और मैंने उनको दण्डवत् कर प्रार्थना की कि मैं आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ, पर मुझे
बड़ा दुःख यह है कि इन आचरणोंसे मेरा भी नाश हो जायगा और यदि नहीं करता हूँ तो आज्ञा उल्लंघन
होती है, यह भी बड़ा दुःख है। मेरी दीनता देख भगवान्ने दया करके मुझे अपना सहस्रनाम और षडक्षर तारक- मन्त्र देकर कहा कि मेरा ध्यान करते हुए मेरे इस मन्त्रका जप करनेसे तुम्हारा सर्व पाखण्डाचरणका पाप नष्ट हो जायगा और तुम्हारा मंगल होगा । यथा पद्म पुराण में है-
' दत्तवान्कृपया मह्यमात्मनामसहस्त्रकम् ॥ 
हृदये मां समाधाय जपमन्त्रं ममाव्ययम्॥ 
षडक्षरं महामन्त्रं तारकब्रह्मसंज्ञितम् ॥ 
इमं मन्त्रं जपन्नित्यममलस्त्वं भविष्यसि । भस्मास्थिधरणाद्यत्तु सम्भूतं किल्बिषं त्वयि ॥ 
मंगलं तदभूत्सर्वं मन्मन्त्रोच्चारणाच्छुभात्।'
अतएव देवताओंके हितार्थ भगवान्की
आज्ञासे मैंने यह अमंगल साज धारण किया। 
"साजु अमंगल " इति । कपाल, भस्म, चर्म, मुण्डमाला आदि सब 'अमंगल साज' है। शास्त्रसदाचारके
प्रतिकूल और अवैदिक है, इसीसे कल्याणका नाश करनेवाला है जैसा कि उपर्युक्त कथासे स्पष्ट है। पर
श्रीरामनाम - महामन्त्र के प्रभावसे, उसके निरन्तर जपसे, वे मंगल कल्याणकी राशि हैं। अन्यत्र भी कहा है-
'अशिव वेष शिवधाम कृपाला ।' मिलान कीजिये - ' श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहरपिशाचाः सहचराश्चिताभस्मालेपः
स्त्रगपि नृकरोटीपरिकरः । अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ॥
(महिम्नस्तोत्र) अर्थात् हे कामारि ! श्मशान तो आपका क्रीडास्थल है, पिशाच आपके संगी-साथी हैं,
चिताभस्म आप रमाये रहते हैं, मुण्डमालधारी हैं, इस प्रकार वेषादि तो अमंगल ही हैं फिर भी जो आपका
स्मरण करते हैं उनके लिये आप मंगलरूप ही हैं।
'सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । श्रीशुकदेवजी भी श्रीरामनामके प्रसादहीसे ऐसे हुए कि परीक्षित् महाराजकी सभामें व्यासादि जितने भी महर्षि बैठे थे सबने उठकर उनका सम्मान किया । शुकसंहितामें उन्होंने स्वयं कहा है कि श्रीरामनामसे परे कोई अन्य पदार्थ श्रुतिसिद्धान्तमें नहीं है और हमने भी कहीं कुछ और न देखा है न सुना । श्रीशंकरजीके मुखारविन्दसे श्रीरामनामका प्रभाव
शुकशरीरमें सुनकर हम साक्षात् ईश्वरस्वरूप समस्त मुनीश्वरोंसे पूज्य हुए। यथा - ' यन्नामवैभवं श्रुत्वा
शंकराच्छुकजन्मना । साक्षादीश्वरतां प्राप्तः पूजितोऽहं मुनीश्वरैः ॥ नातः परतरं वस्तु श्रुतिसिद्धान्तगोचरम् । दृष्टं
श्रुतं मया क्वापि सत्यं सत्यं वचो मम ॥' 
अमर कथा
श्रीशुकदेवजीके श्रीरामनामपरत्व सुनकर अमर होनेकी कथा इस प्रकार है- एक समय श्रीपार्वतीजीने
श्रीशिवजीसे पूछा कि आप जिससे अमर हैं वह तत्त्व कृपा करके मुझे उपदेश कीजिये। यह सोचकर
कि यह तत्त्व परम गोप्य है, भगवान् शंकरने डमरू बजाकर पहले समस्त जीवोंको वहाँसे भगा दिया।
तब वह गुह्य तत्त्व कथन करने लगे। दैवयोगसे एक शुकपक्षीका अण्डा वहाँ रह गया जो कथाके समय
ही फूटा। वह शुकपोत अमरकथा सुनता रहा । बीचमें श्रीपार्वतीजीको झपकी आ गयी तब वह शुकपोत
उनके बदले हुँकारी देता रहा। पार्वतीजी जब जगीं तो उन्होंने प्रार्थना की कि नाथ! मुझे झपकी आ गयी
थी, अमुक स्थानसे फिरसे सुनानेकी कृपा कीजिये। उन्होंने पूछ कि हुँकारी कौन भरता था ? और यह
जानने पर कि वे हुँकारी नहीं भरती थीं, उन्होंने जो देखा तो एक शुक देख पड़ा। तुरन्त उन्होंने उसपर
त्रिशूल चलाया पर वह अमर कथाके प्रभावसे अमर हो गया था। त्रिशूलको देख वह उड़ता - उड़ता भगवान्
व्यासजीके यहाँ आया और व्यासपत्नी - ( जो उस समय जँभाई ले रही थीं ) के मुखद्वारा उनके उदरमें
प्रवेश कर गया। वही श्रीशुकदेवजी हुए। ये जन्मसे ही परमहंस और मायारहित रहे । इनकी कथाएँ
श्रीमद्भागवत, महाभारत आदिमें विलक्षण - विलक्षण हैं। (श्रीरूपकलाजीकृत भक्तमाल- टीकासे)
सु० द्विवेदीजी लिखते हैं कि 'शुक नाम माहात्म्यरूप भागवतके ही कारण महानुभाव हुए, पिता व्यास,
पितामह पराशरसे भी परीक्षित्‌की सभामें आदरको पाया।'
'ब्रह्मसुख भोगी' कहकर जनाया कि वे ब्रह्मरूप ही हो गये । यथा - 'योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे।' 
श्रीसनकादि भी नामप्रसादसे ही जीवन्मुक्त और ब्रह्मसुखमें लीन रहते हैं, यह इससे भी सिद्ध
होता है कि ये श्रीरामस्तवराजस्तोत्रके ऋषि (प्रकाशक) हैं। उस स्तवराजमें श्रीरामनामको ही 'परं जाप्यम्'
बताया गया है। यथा - ' श्रीरामेति परं जाप्यं तारकं ब्रह्मसंज्ञकम् ।' 
'ब्रह्मानंद सदा लयलीना ।
देखत बालक बहुकालीना ॥ , 'जीवनमुक्त ब्रह्मपर।' 
यह बात लिखी है कि ज्ञानियोंको यही ठीक है कि प्रत्येक क्षणमें परमेश्वरका नाम लेवें और कुछ नहीं । यथा – 'योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम्।' 'योगिनाम्' का अर्थ श्रीधरस्वामीने यह लिखा है- 'योगिनां ज्ञानिनां फलं चैतदेव निर्णीतं नात्र प्रमाणं वक्तव्यमित्यर्थः ।' अर्थात् यह
फल योगियों अर्थात् ज्ञानियोंका निर्णय किया हुआ है।
श्रीमद्भागवतके अन्तमें भी यह लिखा है कि परमेश्वरका नाम सारे पापको नाश करनेवाला है। यथा-
'नाम संकीर्त्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥'  इसी कारण गोसाईंजीने लिखा कि शुक-सनकादि भी नामके प्रभावसे सुखका अनुभव करते हैं। (मानसपत्रिका)
नोट - ६ श्रीशुकदेवजीको श्रीसनकादिके पहले यहाँ भी लिखा है। इसका कारण मिश्रजी यह लिखते
हैं कि 'शुकदेवजी अनर्थप्रद युवावस्थाके अधीन न हुए। सनकादिकोंने परमेश्वरसे वरदान माँगा कि हम
बालक ही बने रहें जिससे कामके वशीभूत न हों। इस कारण इनके नामका उल्लेख ग्रन्थकारने पीछे
किया।...' शुकदेवजी परमेश्वरके रूप ही कहे जाते हैं, यथा-' योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे ।
संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत् ॥' 
अर्थात् श्रीशुकदेवजी युवावस्थामें रहते
हुए सदा भगवान् के आश्रित रहे, तब 'सीम कि चाँपि सकै कोउ तासू । बड़ रखवार रमापति जासू ॥' 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा"दंडक बन"


मानस चर्चा"दंडक बन"
दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किय पावन ॥
अर्थात् प्रभु (श्रीरामजी) ने दण्डकवनको सुहावना ( हरा-भरा ) कर दिया। और,  प्रभु के नामने अमित (अनन्त) प्राणियोंके मनको पवित्र कर दिया। 'दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन'  । 'सुहावन' अर्थात्  हरा-भरा जो देखनेमें अच्छा लगे। भाव यह कि निशाचरोंके वहाँ रहनेसे और फल-फूल न होनेसे वह भयावन था, सो शोभायमान
हो गया । यथा - 'जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भये मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदी ताल छबि छाए ।
दिन दिन प्रति अति सुहाए ॥ ' पावन, पुनीत, पवित्र भी किया ; यथा - 'दंडक बन पुनीत प्रभु करहू ।'
'दंडक पुहुमि पायँ परसि पुनीत भई उकठे बिटप लागे फूलन फरन।' 
दण्डकवनको सुहावना कर देना, यह निःस्वार्थ जीवोंका पालन करना प्रभु का 'दया' गुण है ।
जैसा कि भगवद्गुणदर्पण में कहा गया है -
'दया दयावतां ज्ञेया स्वार्थस्तत्र न कारणम् ।' पुनश्च 'प्रतिकूलानुकूलोदासीन-सर्वचेतनाचेतनवस्तुविषयस्वरूपसत्तोपलम्भनरूपदालनानुगुणव्यापारविशेषो हि भगवतो दया' अर्थात् दयावानोंकी उस दयाको दया कहा जायगा जिसमें स्वार्थका लेश भी न हो। रूपमें जो यह दयालुता प्रकट हुई, उसी गुणको नामने लोकमें फैला दिया। उस दयाकी प्याससे अनेक लोग दयालु प्रभुका नाम-स्मरण करने लगे और पवित्र हो गये । इसीसे अमित जनोंके मनका नामद्वारा पावन होना कहा।
दण्डकवन एक है और जनमनरूपी वन 'अमित' यह विशेषता है।
दंडक वन की अनेक अद्भुत कथायें हैं आप उन्हें अवश्य सुनना चाहेंगे आइए सुनते हैं --
पहली कथा यह मिलती है कि राजा  इक्ष्वाकुपुत्र दण्ड शुक्राचार्यजीके शापसे दण्डकवन हो गया। अन्य वार्ता अनुसार श्रीइक्ष्वाकुमहाराजका कनिष्ठ पुत्र दण्ड था । इसका राज्य विन्ध्याचल और नीलगिरि के बीचमें था । यहाँके सब वृक्ष झुलस गये थे, प्रजा नष्ट हो गयी और निशिचर रहने लगे। इसके दो कारण कहे जाते हैं - ( १ ) एक तो गोस्वामीजीने अरण्यकाण्डमें 'मुनि वर साप' कहा है, यथा - 'उग्र साप मुनिवर कर हरहू ।' कथा यह है कि एक समय बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। ऋषियोंको अन्न-जलकी बड़ी
चिन्ता हुई। सब भयभीत होकर गौतमऋषिके आश्रमपर जाकर ठहरे। जब सुसमय हुआ तब उन्होंने अपने-
अपने आश्रमोंको जाना चाहा, पर गौतम महर्षिने जाने न दिया, वरंच वहीं निवास करनेको कहा। तब
उन सबने सम्मत करके एक मायाकी गऊ रचकर मुनिके खेतमें खड़ी कर दी। मुनिके आते ही बोले
कि गऊ खेत चरे जाती है। इन्होंने जैसे ही हाँकनेको हाथ उठाया वह मायाकी गऊ गिरकर मर गयी,
तब वे सब आपको गोहत्या लगा चलते हुए। मुनिने ध्यान करके देखा तो सब चरित जान गये और
यह शाप दिया कि तुम जहाँ जाना चाहते हो, वह देश नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा । 
(२) दूसरी कथा यह है - पूर्वकालके सत्ययुगमें वैवस्वत मनु हुए। वे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको राज्यपर
बिठाकर और उपदेश देकर कि 'तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना । दण्डका अकारण
प्रयोग न करना।', ब्रह्मलोकको पधारे। इक्ष्वाकुने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनमेंसे जो सबसे कनिष्ठ (छोटा)
था, वह गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ था। वह शूरवीर और विद्वान् था और प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष
गौरवका पात्र हो गया था । इक्ष्वाकुमहाराजने उसका नाम 'दण्ड' रखा और विन्ध्याचलके दो शिखरोंके बीचमें
उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया जिसका नाम मधुमत्त था। धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया । तदनन्तर एक समय जब चैत्रकी मनोरम छटा चारों ओर छहरा रही थी। राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया तो वहाँ एक परम सुन्दरी कन्याको देखकर वह कामपीड़ित हो गया। पूछनेसे ज्ञात हुआ कि वह भार्गववंशोद्भव श्रीशुक्राचार्यजीकी ज्येष्ठ कन्या 'अरजा' है। उसने कहा कि मेरे पिता आपके
गुरु हैं, इस कारण धर्मके नाते मैं आपकी बहन हूँ। इसलिये आपको मुझसे ऐसी बातें न करनी चाहिये। मेरे
पिता बड़े क्रोधी और भयंकर हैं, आपको शापसे भस्म कर सकते हैं। अतः आप उनके पास जायँ और धर्मानुकूल
बर्तावके द्वारा उनसे मेरे लिये याचना करें। नहीं तो इसके विपरीत आचरण करनेसे आपपर महान् घोर दुःख
पड़ेगा। राजाने उसकी एक न मानी और उसपर बलात्कार किया। यह अत्यन्त कठोरतापूर्ण महाभयानक अपराध
करके दण्ड तुरन्त अपने नगरको चला गया और अरजा दीन-भावसे रोती हुई पिताके पास आयी । श्रीशुक्राचार्यजी
स्नान करके आश्रमपर जब आये तब अपनी कन्याकी दयनीय दशा देख उनको बड़ा रोष हुआ। ब्रह्मवादी, तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्यजीने शिष्योंको सुनाते हुए यह शाप दिया- 'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयंकर विपत्ति आ रही है, तुम सब लोग देखना । वह खोटी बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन लम्बा-चौड़ा है उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर जंगम जितने भी प्राणी हैं, उन सबोंका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है वहाँतक उपवनों
और आश्रमोंमें अकस्मात् सात राततक जलती हुई रेतकी वर्षा होती रहेगी । ' - 'धक्ष्यते पांसुवर्षेण महता
पाकशासनः।'यह कहकर शिष्योंको आज्ञा दी कि तुम आश्रममें रहनेवाले सब लोगोंको राज्यकी सीमासे बाहर ले जाओ । आज्ञा पाते ही सब आश्रमवासी तुरन्त वहाँसे हट गये। तदनन्तर शुक्राचार्यजी अरजासे बोले कि - यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न सरोवर है। तू सात्त्विक जीवन व्यतीत करती हुई सौ वर्षतक यहीं रह । जो पशु-पक्षी तेरे साथ रहेंगे वे नष्ट न होंगे। - यह कहकर शुक्राचार्यजी दूसरे आश्रमको पधारे। उनके कथनानुसार एक सप्ताहके भीतर दण्डका सारा राज्य जलकर भस्मसात् हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य' कहलाता है। यह कथा पद्मपुराण सृष्टिखण्डमें महर्षि अगस्त्यजीने श्रीरामजीसे कही, जब वे शम्बूकका वध करके विप्र - बालकको जिलाकर उनके आश्रमपर गये थे।  इसके अनुसार चौपाईका भाव यह है कि प्रभुने एक दण्डकवनको, जो सौ योजन लम्बा था और दण्डके एक पापसे अपवित्र और भयावन हो गया था स्वयं जाकर हरा-भरा और पवित्र किया किन्तु श्रीनाममहाराजने तो असंख्यों जनोंके मनोंको, जिनके विस्तारका ठिकाना नहीं और जो असंख्यों जन्मोंके संस्कारवश महाभयावन और अपवित्र हैं, पावन कर दिया। 'पावन' में 'सुहावन' से विशेषता है। 'पावन' कहकर जनाया कि जनके मनके जन्म-जन्मान्तरके संचित अशुभ संस्कारोंका नाश करके उसको पवित्र कर देता है और दूसरोंको पवित्र करनेकी शक्ति भी दे देता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 9 जून 2024

मानस चर्चा नर नारायन सरिस सुभ्राता


मानस चर्चा नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥ 
राम के र  और म ,नर और नारायणके समान सुन्दर भाई हैं। यों तो वे  जगत्भरके पालनकर्ता हैं पर अपने जनके विशेष रक्षक हैं ॥ 
 'नर नारायणका भायप कैसा था' यह बात जैमिनीय भारतकी कथा में बहुत सुंदर ढंग से आयी है। जैमिनी
भारतमें कहते हैं कि एक हजार कवच वाले सहस्रकवची दैत्यने तपसे सूर्य भगवान्‌को प्रसन्न करके वर माँग लिया था कि मेरे शरीरमें हजार कवच हों, जब कोई हजार वर्ष युद्ध करे तब कहीं एक कवच टूट सके, पर कवच टूटते ही शत्रु मर जावे । उसको मारने के लिए  नर-नारायणावतार हुआ। एक भाई हजार वर्ष युद्ध करके मर जाता  तब दूसरा भाई मन्त्रसे उसे जिलाकर स्वयं हजार वर्ष युद्ध करके दूसरा कवच तोड़कर मरता, तब पहला इनको जिलाता और स्वयं युद्ध करता । इस तरहसे लड़ते-लड़ते जब एक ही कवच रह गया तब दैत्य भागकर सूर्यमें लीन हो गया और तब नर-नारायण बदरीनारायणमें जाकर तप करने लगे। वही असुर द्वापरमें कर्ण हुआ जो गर्भसे ही कवच धारण किये हुए निकला,तब बदरीनारायण में तप रत  नर-नारायणहीने ही अर्जुन और श्रीकृष्ण के रुप में अवतार लेकर उस सहस्रकवची दैत्य  कर्ण को मारा यह है नर नारायन सरिस सुभ्राता ।
एक दूसरी कथा भी लोक में प्रसिद्ध है ---
धर्मकी पत्नी दक्षकन्या मूर्तिके गर्भसे भगवान्ने शान्तात्मा ऋषिश्रेष्ठ नरऔर नारायणके रूपमें अवतार लिया। उन्होंने आत्मतत्त्वको लक्षित करनेवाला कर्मत्यागरूप कर्मका उपदेश किया। वे बदरिकाश्रममें आज भी विराजमान हैं। 
निर्गुणरूपसे जगत्का उपकार नहीं होता, जैसा कहा है कि 'ब्यापक एक ब्रह्म अबिनासी ।
सत चेतन घन आनँदरासी ॥' 
'अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी। 
सकल जीव जग दीन दुखारी ॥' 
इसीलिये सगुण रुप में अवतार लिया। सगुणरूपसे सबका और सब प्रकारसे उपकार होता है, इसलिये रामनामके
दोनों वर्णोंका नर-नारायणरूपसे जगत्का पालन करना कहा। भाईपना ऐसा है कि जिह्वासे दोनों प्रकट
होते हैं। इसलिये जीभ माता है, 'र', 'म' भाई हैं। जैसा कि स्पष्ट है- 
'जीह जसोमति हरि हलधर से । ' 
 'बिसेषि जन त्राता' ऐसा कहने का भाव है कि  जैसे नर-नारायणने वैसे तो संपूर्ण  जगत्भरका पालन करते है, पर भरतखण्डकी विशेष रक्षा करते हैं; वैसे ही ये दोनों वर्ण जगन्मात्रके रक्षक हैं, पर जापक जनके विशेष
रक्षक हैं। जगन्मात्रका पालन इसी लोकमें करते हैं और जापक जन अर्थात् जो इनके सेवक हैं, भक्त हैं उनके लोक-परलोक दोनोंकी रक्षा करते हैं।  ईश्वरत्वगुणसे सबका और वात्सल्यसे अपने जनका पालन करते हैं। जैसा की कहा गया है----
- 'सब मम प्रिय सब मम उपजाये।'
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
 और
'सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रान प्रिय'
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।
 पुनः, नर-नारायण भरतखण्डके विशेष रक्षक हैं और वहाँ नारदजी उनके पुजारी हैं, वैसे ही यहाँ 'रा', 'म' भरतजीकी रीतिवाले भक्तोंरूपी भरतखण्डके विशेष रक्षक हैं, नामसे प्रेम करने वाले, स्नेह करने वाले, नारदरूपी पुजारी हैं। पुनः, नर-नारायण सदा एकत्र रहते हैं वैसे ही 'रा', 'म' सदा एकत्र रहते हैं। वे विशेष रुप से हमारा पालन  करते हैं अर्थात् हमें मुक्तिसुख देते हैं । 'जन' का  सेवक ,भक्त, 'दर्शक' आदि  अर्थ  होता हैं। जो सेवक, भक्त, दर्शक  बदरिकाश्रममें जाकर नर  नारायण रूप के दर्शन करते हैं  उस भक्त के लोक परलोककी रक्षा  वे स्वयं करते हैं। कहा भी गया है--
 'जो जाय बदरी, सो फिर न आवै उदरी ।' 
।।जय श्री राम जय हनुमान।। 

शनिवार, 8 जून 2024

मानस चर्चानाम प्रभाउ जान सिव नीको।

मानस चर्चा
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ श्रीशिवजी श्री राम नामका प्रभाव भलीभाँति जानते हैं राम नाम के प्रभाव से ही हालाहल विषने उनको अमृतका फल दिया ॥ 
 'नाम प्रभाउ जान सिव नीको' । 'नीको' अर्थात् भलीभाँति शिवजी ही सबसे अधिक राम नाम के प्रभावको जानते हैं तभी तो विनयपत्रिका में गोस्वामीजी ने लिखा है कि
'सतकोटि चरित अपार दधिनिधि
मथि लियो काढ़ि बामदेव नाम - घृतु है',
मानस में भी यही भाव मिलता है
ब्रह्म राम ते नाम बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सतकोटि महँ लिय महेस जिय जानि । ' और अहर्निश 'सादर जपहिं अनंग आराती'। देखिये, सागर मथते समय सभी देवगण वहाँ उपस्थित थे और सभी नामके परत्व और महत्त्वसे भिज्ञ थे, तब औरोंने क्यों न पी लिया हलाहल कालकूट को? कारण स्पष्ट है कि वे सब श्रीरामनामके प्रतापको 'नीकी' भाँति नहीं जानते थे । जैमिनिपुराणमें भी इसका प्रमाण है; कि - 
'रामनाम परं ब्रह्म सर्वदेवप्रपूजितम् ।
महेश एव जानाति नान्यो जानाति वै मुने ॥ ' पद्मपुराणमें एक श्लोक ऐसा भी है, 
'रामनामप्रभावं यज्जानाति गिरिजापतिः।
 तदर्थं गिरिजा वेत्ति तदर्धमितरे जनाः ॥ ' 
 अर्थात् राम-नामका प्रभाव जो शिवजी जानते हैं, गिरिजाजी उसका आधा जानती हैं तो फिर अन्य लोग उस 'कालकूट फल दीन्ह अमी को' कैसे जान जाते। श्रीमद्भागवत में यह कथा दी है कि 
'छठे मन्वन्तरमें नारायणभगवान् अजितनामधारी हो अपने अंशसे प्रकट हुए देवासुर संग्राम में दैत्य देवताओंका विनाश कर रहे थे। दुर्वासा ऋषिको विष्णुभगवान्ने मालाप्रसाद दिया था। उन्होंने इन्द्रको ऐरावतपर सवार रणभूमिकी ओर जाते देख वह प्रसाद उनको दे दिया । इन्द्रने प्रसाद हाथीके मस्तक पर रख दिया जो उसने पैरोंके नीचे कुचल डाला । इसपर ऋषिने शाप दिया कि 'तू शीघ्र ही श्रीभ्रष्ट हो जायगा।' इसका फल तुरन्त उन्हें मिला । संग्राममें इन्द्रसहित तीनों लोक श्रीविहीन हुए । यज्ञादिक धर्मकर्म बन्द हो गये। जब कोई उपाय न समझ पड़ा, तब इन्द्रादि देवता शिवजीसहित ब्रह्माजीके पास सुमेरु
शिखरपर गये। इनका हाल देख-सुन ब्रह्माजी सबको लेकर क्षीरसागरपर गये और एकाग्रचित्त हो परमपुरुषकी
स्तुति करने लगे और यह भी प्रार्थना की कि 'हे भगवन्! हमको उस मनोहर मूर्त्तिका शीघ्र दर्शन दीजिये, जो हमको अपनी इन्द्रियोंसे प्राप्त हो सके।' भगवान् हरिने दर्शन दिया, तब ब्रह्माजीने प्रार्थना की कि
'हमलोगोंको अपने मंगलका कुछ भी ज्ञान नहीं है, आप ही उपाय रचें, जिससे सबका कल्याण हो ।' भगवान् बोले
कि‘हे ब्रह्मा ! हे शम्भुदेव ! हे देवगण ! वह उपाय सुनो, जिससे तुम्हारा हित होगा। अपने कार्यकी सिद्धिमें कठिनाई देखकर अपना काम निकालनेके लिये शत्रुसे मेल कर लेना उचित होता है। जबतक तुम्हारी वृद्धिका समय न आवे तबतकके लिये तुम दैत्योंसे मेल कर लो। दोनों मिलकर अमृत निकालनेका प्रयत्न करो । क्षीरसागरमें तृण, लता, ओषधि, वनस्पति डालकर सागर मथो । मन्दराचलको मथानी और वासुकिको रस्सी बनाओ। ऐसा करने से तुमको अमृत मिलेगा। सागरसे पहले कालकूट निकलेगा, उससे न डरना, फिर रत्नादिक निकलेंगे इनमें लोभ न करना....'''। यह उपाय बताकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास सन्धिके लिये गये।- समुद्र मथकर अमृत निकालनेकी इन्द्रकी सलाह दैत्य- दानव सभीको भली लगी। सहमत हो दानव, दैत्य और देवगण मिलकर मन्दराचलको उखाड़ ले चले। उनके थक जानेसे पर्वत गिर पड़ा। उनमेंसे बहुतेरे कुचल गये । इनका उत्साह भंग हुआ।यह देख भगवान् विष्णु गरुड़पर पहुँच गये......'और लीलापूर्वक एक हाथसे पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख उन्होंने उसे क्षीरसागरमें पहुँचा दिया। वासुकिको अमृतमें भाग देने को कह कर उनको रस्सी बननेको उत्साहित किया गया। मन्दराचलको जलपर स्थित रखनेके लिये भगवान्ने कच्छपरूप धारण किया। जब बहुत मथनेपर भी अमृत न निकला, तब अजितभगवान् स्वयं मथने लगे। पहले कालकूट निकला जो सब लोकोंको असह्य हो उठा, तब भगवान्‌का इशारा पा सब मृत्युंजय शिवजीकी शरण गये और जाकर उन्होंने उनकी स्तुति की। भगवान् शंकर करुणालय इनका दुःख देख सतीजी से बोले कि 'प्रजापति महान् संकटमें पड़े हैं, इनके प्राणोंकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। मैं इस विषको पी लूँगा जिसमें इनका कल्याण हो।' भवानीने इस इच्छाका अनुमोदन किया ।जैसा कि स्पष्ट है-' श्रीरामनामाखिलमन्त्रबीजं मम जीवनं च हृदये प्रविष्टम् | हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं वा विशतां कुतो भयम्॥'
 शिवजीने उस सर्वतोव्याप्त कालकूटको हथेलीपर रखकर पी लिया । नन्दीपुराणमें नन्दीश्वरके वचन हैं कि
 शृणुध्वं भो गणास्सर्वे रामनाम परं बलम् । यत्प्रसादान्महादेवो हालाहलमयीं पिबेत् ॥ 
''जानाति रामनाम्नस्तु परत्वं गिरिजापतिः ।
 ततोऽन्यो न विजानाति सत्यं सत्यं वचो मम ॥' 
 विद्वानों की मान्यता है कि 'रा' उच्चारणकर शिवजीने हालाहलविष कण्ठमें धर लिया और फिर 'म' कहकर मुख बन्द कर लिया। जिस के कारण जहर कंठ में ही रुक गया।यह है राम नाम का प्रभाव जिसे महादेव ही जानते ।
कालकूट फलु दीन्ह फल दीन्ह अमी । विषपानका फल मृत्यु है, पर आपको वह विष भी श्रीराम- नामके प्रतापसे अमृत हो गया; कहा भी गया है की - 
'खायो कालकूट भयो अजर अमर तन ।'
इस विषकी तीक्ष्णतासे महादेव का कण्ठ नीला पड़ गया जिससे आपका नाम 'नीलकण्ठ' पड़ा। आइए हम महादेव की जय कार करे ,हर हर महादेव जय शिव शंकर।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।