गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

सौम्य

नव सम्वत है सौम्य अभिधानी।
जेंटल मेंटल हर पल राखे पानी।
चंद्र सा शीतल हो सदा तन-मन।
नित नव सुख सज्जित हर जन।।
मेरी शुभकामना स्नेहसिक्त सतत।
हित-मित,जन-जन की चमके किस्मत।।

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

सुख-प्रभात आता ही बन हमदम

सुनो कहते हैं सारे काव्य खण्ड ,
जीवन है पारस मणि का अंग।
मुक्तक मुक्तामणि सा मुक्त कराता,
जीवन का सब सार सबे सुनाता।
सोने पे सुहागा खण्ड काव्य,
जगाये सोये हुवे हर भाग्य।
महा काव्य हैं पुरुष के पौरुष का बल,
जो गिरने-उठने आगे बढ़ने के सिम्बल।
दूर न हो हम अपने-अपनों से,अपनी माँ से,
हर कण है कराता हमारा परिचय जीवन से।
धरती का हर हर श्रृंगार,कैसे हो बेरा पार,
जहाँ नीम आम बेर बबूल कहते जीवन सार।
गुलाब सिखाता खिलखिलाना-मुस्कराना,
दुःख-सूल मूल मध्य महकना-महकाना।
कोयल-कागा से जुड़ी नानी की कहानी,
भर देती हर पल हर जीवन में रवानी।
घोर घाम तप-कर्म बताता,
जीवन का सब सत्य सिखाता।
दुःख-रजनी नहीं टिकती हरदम,
सुख-प्रभात आता ही बन हमदम।।
ले दे कर प्रकृति मध्य है जीवन अपना,
काव्य-कथा सिख से करें पूरा सपना।

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

स्वानुभूति(एक आत्मकथा)गतांक से आगे।।6।।an autobiography self experience part 6

     विश्व में यत्र-तत्र अनाम अनगिनत अकूत अप्रत्याशित-प्रत्याशित,अलौकिक-लौकिक आचार-विचार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भरे पड़े है पर हमें दिखायी नहीं देते हैं,पर दिखायी दे भी जाते हैं।मैं ऐसे ही ऐसी बात की चर्चा कर रहा हूँ।पर इसमें भी सुधि समाज शोध कर ही लेगा।घर-परिवार से दूर अचानक एकाएक होने पर homesick का मरीज अक्सर बच्चे हो ही जाते हैं, जिसका प्रभाव हम पर भी पड़ना स्वाभाविक ही रहा।श्री नरेंद्र दुबे दिल दिमाग से दुरुस्त पर इसके मरीज।कारण मुझे 26 जनवरी 1987 को मालूम हुआ। इस दिन स्व अनुभूति का प्रत्यक्षीकरण समझदार होने की स्थिति में पहली बार हुआ।पूर्व की बातें तो इक खिलवाड़ की तरह खेलते हुवे मैं चल रहा था।पर आज का अनुभव अपने से हटकर दूसरे को निकट से अनुभव करने का दिन रहा।तब तक मैं अपनी दुनिया से बाहर नहीं निकला था।आज दूसरो की अति स्नेहमयी-ममतामयी  दुनिया को निकट से देखने समझने परखने और अनुभव करने का शानदार अवसर मिला था।मानव मन अज्ञान या अनुभव की कमी से अपने आगे किसी को मानता ही नहीं।आज मेरी यह अज्ञानता कि मैं मेरा सबसे अच्छा है दूर हुआ।मुझे इसे दूर कराने वाला अनुभव मिला।वैसे हमारे साहित्य में सब कुछ पहले से ही लिखा गया है और हमारे अग्रज जीवट के परम धनी मेरे प्रेरणास्रोत भैया श्री कृष्ण शंकर तिवारी तो हमेशा कहते रहते और अब मैं भी कहता हूँ कि स्व अनुभव से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं।अब आप से यह अनुभव बाटना ही है।जनवरी 26 को हमारा गणतंत्र दिवस है।विश्व विद्यालय में नाम मात्र के ही कार्यक्रम हुवे।इधर-उधर घूमने के बाद दोपहरी कर शाम को श्री दुबे के साथ मैं घूम रहा था।वह बार-बार अपने परिवार के बारे में बात करता दूसरी बात करता ही नहीं।मैंने कहा चलो फिर आज तुम्हारे गाँव ही चलते हैं फिर क्या उसने न आव देखा न ताव झट तैयार।समय भागता जा रहा था लगभग 5 बज गया होगा,मुझे तो उसके गाँव के रास्ते आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं रही उसने ही इधर-उधर हिसाब लगाया कि यह रास्ता लम्बा है और यह रास्ता छोटा।छोटे रास्ते से यात्रा आरम्भ करने का निर्णय।बस्ती के लिए बस मिल गयी।हम सवार हो हए।गोरखपुर से बस्ती लगभग 75किमी है।हम जब बस्ती पहुँचे।दुबेजी की वांछित बस जा चुकी थी।अब 8 बजे बस थी।उसी का सहारा।सवार हुवे।बस 10 बजे के आस-पास कलवारी पहुँची।कलवारी से अब कोई साधन नहीं।ग्यारह नम्बर ही सहारा।उस रात गणेश चतुर्थी रही।अतः तब तक चाँदनी आसमान में अपनी छठा बिखेरना प्रारम्भ कर चुकी।कलवारी से सरयू तट टांडा तक की दूरी पक्की तो मुझे ध्यान नहीं पर दस किमी के आस-पास तो होगी ही पैदल तय करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं।दोनों नवयुवक जोश भरपूर यात्रा करनी ही थी।सरयू तट आते-आते आधी रात हो गयी।उस पार के लिए नाव आवश्यक।थोड़े समय पहले ही खेप उतारकर नाविक सोने जा रहा था जैसा की उसने हमें बताया।एक बार तो उसने मना ही कर दिया।पर दुबे ने जब अपने मामा का हवाला दिया तो नाविक ने हमे पार उतार दिया।किसी के नाम का प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव।जो व्यक्ति साफ मना कर दिया था। झट तैयार हो फट पार उतरा।नाम का प्रताप।मैं जब बाबा तुलसी को कभी-कभी पढ़ता हूँ तो सहज ही असहज सोच में पड़ जाता हूँ कि इस महामुनि ने इन सब बातों को इतनी सरलता से कैसे कह दिया जो सर्व काल सत्य हैं।राम ते अधिक राम के नामा।हम पार हुवे।पर दुबे का गाँव अभी भी दूर को कौड़ी ही रहा।सरयू तट से टांडा शहर की दूरी भी ग्यारह नम्बर से ही तय करनी थी की गयी।टांडा से दुबे का गाँव ओबरा जो सूरापुर ममरेजपुर,अकबरपुर रोड पर पड़ने वाले चौराहे पर उतर कर पैदल चलने के बाद आने वाला था की दूरी अभी तो बाकी ही थी।खैर टांडा पहुँचते ही कपड़ो से भरा एक जीप अकबरपुर की ओर जाने के लिए निकल ही रही थी कि हम दौड़ कर लटक लिए।लटक लिए क्या पकड़ लिए और जीप ड्राइवर और व्यापारी के लाख मना करने पर भी लटके ही रहे तथा दुबे ने बता दिया कि हम क्यों लटके हैं कब तक और कहाँ तक लटकेगे।उन्हें भी जल्दी थी और वो भी दो ही थे व्यापारी बुढ्ढा था मजबूरी या सहानुभूति जो भी हो हमें उस जीप ने सुरापुर ममरेजपुर चौराहे पर छोड़ दिया।अब दुबे के जी में जी आया और उसने चैन की सास लिया।यहाँ से ओबरा दो पग पर ही है।पहुँच गये दो बजे रात को ही घर।
       कूप मंडूक मैं अपने आप को और अपने माँ-बाप तथा परिवार को जो मान्यता दे रखा था वो आज हल्की न कहे तो भी हल्की और अधिकतम समानांतर दिखी।उस समय उस परिवार में हमारे माता-पिता या यो कहे पति-पत्नी ही मौजूद रहे।उनके अंदर वात्सल्य उछाले मार रहा था।पुत्र प्रेम पराकाष्ठा पर।चूँकि उस रात गणेश चतुर्थी का माताजी का व्रत था अतः पिताजी भी व्रत पर ही थे।भोजन पका ही नहीं था अतः थोडा बहुत बचने नहीं बचने का सवाल ही नहीं।हमने भी भोजन बावत मना कर दिया।लेकिन पिताजी ने तुरन्त उस समय के अनुरुप आवश्यकताओ की व्यवस्था किया कि माताजी ने चौथ का प्रसाद प्रस्तुत कर दिया। प्रसाद की व्याख्या बहुतो ने अपने-अपने ढंग से किया ही है जिसमे प्र से प्रभु सा से साक्षातऔर द से दर्शन की बात काफी कही और सुनी जाती है।अर्थात् प्रभु का साक्षात दर्शन ही प्रसाद होता ही है। वैसे माता-पिता ही प्रभु रुप हैGod can't reach everywhere so he creats parents.ईश्वर, माता-पिता को मान लेना आज के युग परिवेश में सहज सरल नहीं है।यह व्यक्तिशः मामला है क्योकिआज-कल तोभगवान पर भी सवाल उठाने वालो की जमात खड़ी हो गयी है।प्रसाद में गंजी जिसे शकरकंद भी कहते हैं, मिट्ठा अर्थात् गुड़ और तिल केलड्डू।प्रसाद पाया गया ही था कि तब तक गर्मागर्म भोजन भी सामने हाजिर।मैंने पिताजी से कहा कि आप ने इतना कष्ट क्यों किया तो जबाब तो सुने जरा अरे तिवारी अभी रात को पुलिस वाले आ जाय उनको खाना हर हाल में बना कर खिलाना ही पड़ेगा यहाँ तो मेरे बेटे आये हैं।पुलिस का भय बस स्वागत जब हम कर सकते हैं तो प्रेमाश्रय का प्रेम से क्यों नहीं।उस समय पिताजी की जुबान से पुलिस का आतंक सुन मैं बहुत दुःखी हुआ।मेरे मन में पुलिस,पुतरिया,पातकी के बारे
में पिताजी के अनुसार इनके निकृष्ट होने की धारणा बलवती हो गयी।पर समाज का बहुसंख्यक इनके बारे में क्या विचार,धारणा या भाव रखता हैं वही हम सबको मानना चाहिएऔर इनको भी समाज का सम्मान करते हुवे अपना व्यवहार ऐसा बनाना चाहिए कि समाज कही भी किसी रुप में इन पर अंगुली नहीं उठा सके वैसे समाज की अपनी सोच अपना पैमाना है अलग अलग वर्ग पर विचार व्यक्त करने का।मानव समाज का जातियों के साथ ही साथ धर्मो, सम्प्रदायों और इन सबसे ऊपर वर्गों के रुप में जो अप्रतिम वर्गीकरण हुआ है उसके बारे में कुछ भी कही भी स्पष्ट नहीं मिलता।हर जगह अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग ही दिखायी देता है।इन इन्सानों ने फिर नौकरी चाकरी वालों का वर्ग बनाया और अलग अलग वर्ग के बारे में अलग अलग विचार और धारणाओं को ऐसे थोप दिया जैसे ये सब ध्रुव सत्य हैं जबकि कोई भी धारणा या विचार कम से कम मानव के प्रति हमेशा के लिए कभी भी शत प्रतिशत सत नहीं हो सकता।खैर पिताजी का विचार अपनी जगह सत्य भी हो सकता है मैं उनके कथ्य को कहा जो सत्य असत्य कुछ भी हो सकता है साधु जन समाज की सुधी लेते हुवे इसमें सुधार करा ले तो अत्युत्तम।सारा आचार व्यवहार खुला अपनेपन से ओतप्रोत।झूठ-सत्य का विचित्र तर्क।दुबे ने मुझे रास्ते में कह दिया था कि हमारी स्थिति को पिताजी देखते ही पहचान जायेगे।हुआ ठीक वैसे ही।आप लोग कलवारी से सरयू तट तक पैदल चल के आ रहे है प्रश्न तिवारी से पर जबाब दुबे दे रहे है अरे नहीं बस पंचर हो गयी थी उसके बनने में बहुत समय लग गया।आगे बिना प्रश्न के सोने की व्यवस्था हुई और हम सो गये।
       हमारा यह प्रवास दो दिन का रहा।इस दौरान भोजपुरी से अवधी का मिलान हुआ।मैं जब यदा-कदा जाने-अनजाने माताजी के सामने भोजपुरी बोल देता तो उन्हें समस्या हो जाती।उनकी अवधी जो ठेठ होती हमारे लिए समस्या हो जाती।हिन्दी सर्व ग्राह्य रही।भाषा का महत्त्व अतुलनीय है।वहाँ के आवास में भी हल्का-फुल्का अन्तर दिखा।सरयू से नजदीक होने के कारण पानी पवित्र खेत उपजाऊ।बाग-बगीचे हरे-भरे।चारों ओर हरियाली चादर।पर दुबेजी के गाँव में अंध-बिश्वास जो देखने को मिला वह चिन्तनीय।बीमार बच्चे के लिए सोखा-ओझा, ताबीज,भोपा का कारनामा देखने-सुनने को मिला।माननीय प्रधान मन्त्री श्रीमान नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता का वहाँ उस समय मुझे कोई स्थान नहीं दिखा।खैर मैं वहाँ के आज से उनतीस साल पहले की स्थिति बया कर रहा हूँ।आज 4जनवरी2015 को मैंने दुबे से मोबाईल पर बात किया तो ज्ञात हुआ कि आज-कल उस सरयू तट पर पुल बन गया है और बसें आ-जा रही हैं तथा यात्रा सुगम हो गयी है।time is great helder।समय सब दुःखों की चिकित्सा है।अतः मैं उम्मीद करता हूँ की वहाँ सफाई भी अब सुधार पर होगी।खान-पान भारतीय तौर-तरीके से जमीन पर बैठ कर।भोजन सामग्री द्वारा भोजपुरी-अवधी में कोई दर्शनीय अन्तर नहीं दिखा।पर चावल का स्वाद बहुत मीठा।चावल प्रिय भोजन।बचपन से आज तक यह मेरा प्रिय बना हुआ है।साग-सब्जी की प्रचुरता।दुसरे दिन मैंने वापस विश्व विद्यालय लौटने की बात दुबेजी के पिताजी के सामने कही तो पिताजी ने कहा अरे क्या बिष विद्यालय की बात तिवारीजी आप भी कहते है।मैंने कहा पिताजी बिष नहीं,विश्व।पिताजी का मजाकिया और खुशमिजाज स्वभाव मुझे देखने को मिला।उन्होंने जोर देकर समझाया अरे नहीं वह बिष विद्यालय ही है।मैंने कहा कैसे तो बताये कि इतनी बड़ी संस्थाओं का परिवेश-वातावरण बाहर से आने वाले नवयुवकों के लिए एकदम नया और हर अच्छाई-बुराई के लिए खुला होता है,जहाँ बुराई बिष के समान है जो सुरसा मुँह बनाये खड़ी रहती है अत्यधिक नवागन्तुक इस बिष के प्रभाव से ग्रस्त हो जाते हैं।मेरा ऐसा आप दोनों के समक्ष कहने का एक मात्र आशय यही है कि आप लोग इसके दुष्प्रभाव से बच कर रहे।पिताजी की इस बात का प्रभाव हमारे जीवन पर जीवन पर्यन्त बना रहे और मैं क्या दूसरे भी समाज में यत्र-तत्र संस्था आदि स्थानों में फैली इस बिष-बुराई से बच कर रहे।इस यात्रा ने दुबेजी से पारिवारिक तादात्म्य ला दिया जो आज तक कायम है।वास्तव में मुझे यह बात शत प्रतिशत सत्य प्रतीत होती है कि you have only one or two friends who are nearest, dearest and closest.इस तरह हमारी इस यात्रा ने एक नया अनुभव एवं अजीज दोस्त दिया।हम वापस गोरखपुर आ कर अपने-अपने पठन-पाठन में लग गए।
              क्रमशः

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

ठोकर

जग रंगमंच पर उलझ खा जाता जन ठोकर।
जीवन ज्योति जले श्रम तेल लिप्त ही होकर।।
कर कल्याण करुणा कलित हृदय तू पाकर।
निज-पर से भी ज्ञान भरो वसुधा अपनाकर।1।
ठोकर गुरु से ले भान मान मन में महा मान।
ऐसे नहीं जिनसे दर्द छिपा दिल जला जान।।
संगम इनसे जीवन भर कदम तले ही हान।
अपना ही ठोकर देता है नित नव-नव ज्ञान।2।
कब कहाँ कैसे क्रोध-काम बस खाते ठोकर।
प्रेम-धर्म पथिक पाते पावन पान-मान सोकर।।
परम प्रीत मित हैं यह बड़े इन्हें गले लगाकर।
अद्भुत दे मानव को ये जग में खूब झेलाकर।3।
अप्रत्याशित होकर प्रत्याशित फल-फूल भरे।
अब-तब सब रूपों में इनकी नेह सम्मान झरे।।
हर ठोकर इक शिक्षा दे सद का ही मान करे।
आगे बढ़े बढ़ाये निज जीवन में सम्मान करे।4।

सोमवार, 14 दिसंबर 2015

रिश्ते

घर परिवार देश काल
हैं सम्बन्धों के महाजाल।
जन्म कर्म व्यवहार
से बना इंसा का संसार।।
पशु पंक्षी जीव जन्तु
भी रखते अपने महातन्तु।
अंडज स्वेदज पिंडज
में समाहित है यह जग।।
आइये देखे परखे
इन सब रिश्तों के लेखे ज़ोखे।
पारिवारिक व्यवहारिक
अगनित रिश्ते है सामाजिक।।
अविश्वास-विश्वास
से बधा हर रिश्ते का महारास।
तोड़ना-जोड़ना
स्वार्थ हित मुँह मोड़ना।।
पर सुधार अपेक्षा
निज कार्य-अकार्य है स्वेच्छा।
दोपहर के धूप
का अवसान होता ही है समीप।।
अरुणोदय सा उदय
विकास के उतुंग शिखर पहुँचे सहृदय।
दुःख-सुख धूप-छाँव
हर रंग को पाना ही है रिश्तों के ठाव।।
प्रेम-सेतु संयोजक
कदम कदम है आयोजक नियोजक।
ईर्ष्या-भीत बाधक
है निज-पर का बन सर्वकाल घालक।।
माँ-बाप
निज सुख शान्ति के त्याग स्वरूप।
नहीं हारे
पर से निज से है पग-पग पर हारे।।
भैया-बाबू
एक दूसरे पर निर्भर, नही बेकाबू।
नाना-नानी
मामा-मामी,काका-काकी की कहानी।
जब होनी
कद्र सबकी धर्म कर्म मर्म से जुबानी।।
धर्म-राह
इंसा-पशु को विलग दे हरदम साह।
विश्वास घात
जनक है यह इस जहा में महापात।।
रिश्ते हैं
अजर अमर पुण्य पुञ्ज समूह हैं।
बने रहे
मिल अवयव बहु जू रस अहे।।

रविवार, 13 दिसंबर 2015

दुःख-बदली बाद ही होता सुख-बरसात है।

चहु युग की व्यथा-कथा मिलती समान है।
जीव जन्तु जाति जमात जीता जू जहान है।।
रिश्तों की कलियां पुष्पित हो पाती मान है।
दुःख-बदली बाद ही होता सुख-बरसात है।।1
रिश्ता नैसर्गिक निष्कपट निश्छल निर्विकार।
अगनित अकूत अपेछित भावों का है सुमार।
पर हित पोषित लालसा-त्याग जहाँ भरमार।
सुख-शांति दिन-रात वहाँ करें स्वप्न साकार।।
जन्मजात रिश्ते परिवार-समाज के हैं आधार।
जननी-जन्मभूमि सत-असत सम्बन्ध सत्कार।
जगत सुत की कामना किंचित कहीं न दरार।
जग में आन-मान से भू-भाग भर भोगे भरमार।।
बनते-बिगड़ते इस जहां सम्बन्धअमिय-जहर।
प्रगाढ़ प्रेम विश्वास सूरज सा दे ज्योति लहर।
अनाम नाम अनगिनत सम्बन्ध हैं हर डगर पर।
जिनसे जीवन मंगल भागे भय सिहर सिहर।।
अब सोच समझ कर बनाये बने हिस्सेदार।
मैं हो शियार होते यहाँ रिश्ते में मैं हूँ सियार।
अपने वा अपना बन नहो गला घोटू रिश्तेदार।
अमर सम्बंध को नित नूतन बना हे धरा धार।।

रविवार, 15 नवंबर 2015

केवल इंसा बने पंचतत्त्व सिखा जा रहा है।

अजी इस जहां में आज गजब हो रहा है।
सम्बन्धों में नित नव दरार पड़ रहा है।।
कौरव-पांडव सा जग सर्वत्र लड़ रहा है।
रिश्तों का बन्धन तार-तार हो रहा है।।1।।
भीष्म भी भाग्य- बन्धन बधा जा रहा है।
कृष्ण भी कलि ग्रास अब बना जा रहा है।।
खुली आँखो कायनात धृतराष्ट्र बन रहा है।
शकुनी मामा नित नव भांजा फ़सा रहा है।।2।।
पुत्री-कुंती सरेआम चिर हरण हो रहा है।
शक्ति सुत दुर्योधन सुख मदी हो रहा है।।
शक्तिधारी माया-मोह से मोहित हो रहा है।
फेसबुक मित्रो का फेस ओपन कर रहा है।।3।।
आपस में फ्रेंड जाति-जहर से नहा रहा है।
नेट सद विचारों से हट फट भटक रहा है।।
कर्ण कामी दुःशासन का ब्रदर बन रहा है।
बेगाना अपना ही शहर हमें लग रहा है।4।
अजी एक हो देखों गर्व गला जा रहा है।
निराशा नाश नेह-रथ आशा-अर्क आ रहा है।।
केवल इंसा बने पंचतत्त्व सिखा जा रहा है।
पंचतत्त्व हमें सत्य ज्ञान दिया जा रहा है।5।