बंदौं प्रथम महीसुर चरना। मोहजनित संसय सब हरना ॥
मानस की इस पंक्ति का बड़ा ही सरल अर्थ है पर भाव गम्भीर। इस पंक्ति पर चर्चा करने से पहले हम जानते हैं कि ब्रह्मण 'महीसुर' क्यों कहलाते हैं। इसकी कथा स्कन्दपुराण प्रभासखण्ड में यह है कि एक समय देवताओं के हितार्थ समुद्रने ब्राह्मणोंके साथ छल किया जिसको जानकर ब्राह्मणोंने उसको अस्पृश्य होने का शाप दे दिया। शाप की ग्लानिसे समुद्र सूखने लगा तब ब्रह्माजी ने आकर ब्राह्मणों को समझाया। ब्राह्मणों ने उनकी बात मान ली। तब ब्रह्मा जी का वचन रखने और समुद्र की रक्षा करने के लिये यह निश्चय किया कि पर्वकाल,नदीसङ्गम, सेतुबन्ध आदि में समुद्र के स्पर्श, स्नान आदिसे बहुत पुण्य होगा और अन्य समयों में समुद्र अस्पृश्य ही रहेगा और ब्राह्मणों को वरदान मिला कि ब्राह्मण आजसे पृथ्वी पर 'भूदेव' के नाम से प्रसिद्ध होंगे।
ब्राह्मण के पर्याय भी तो हैं:
अग्रजन्मा द्विजाति विप्र, द्विज महिसुर महिदेव।
ब्राह्मण भूसुर भूमिसुर,भूमिदेव भूदेव।।
ब्राह्मणों को देवता मानने वाले शास्त्रीय मतों को भी देखते हैं:
पृथिव्यां यानी तीर्थानि तानी तीर्थानि सागरे ।
सागरे सर्वतीर्थानि पादे विप्रस्य दक्षिणे ।।
यही नहीं इन पंक्तियों पर हमें जरूर ध्यान देना चाहिए:
देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता:।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता।
मानस में ही कहा गया है:
पूजिय विप्र सकल गुनहीना।
शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीणा।।
भगवान राम ने तो स्वयं ही कहा हैं :
कवच अभेद्य विप्र गुरु पूजा।
एहि सम विजय उपाय न दूजा।।
यहाँ 'महीसुर' कहकर यह दिखाया कि 'मह्यां सुष्ठु राजन्ते' अर्थात् जो पृथ्वीपर अच्छी प्रकारसे "दीप्त"
(प्रकाशित) हों उनको महीसुर कहते हैं। जैसे स्वर्गमें इन्द्रादि प्रकाशित हैं वैसे ही पृथ्वीपर ब्राह्मण ।
अब अर्थ देख लेते हैं : मैं प्रथमतः ब्राह्मणों की वन्दना करता हूँ (जो) मोह से उत्पन्न हुए सब सन्देहों को हरनेवाले हैं ।
पर प्रथम वंदना कैसे? इसके पूर्व
श्रीवाणी-विनायक, श्रीभवानीशङ्कर, श्रीवाल्मीकिजी,
श्रीहनुमानजी, श्रीसीतारामजी, पञ्चदेव, श्रीगुरु, श्रीगुरुपद, श्रीगुरुपदरज, श्रीगुरुपदनखप्रकाशकी वन्दना तो हुई ही है।पूर्व में उक्त सबकी वन्दना कर आये
तब यहाँ ' बंदौ प्रथम' कैसे कहा? यह प्रश्न उठता ही है उसका समाधान महानुभावों ने इस प्रकारसे किया
प्रथम देववंदना प्रकरण है दूसरा श्रीगुरुदेववन्दनाप्रकरण तीसरा श्रीसन्तसमाजवन्दनाप्रकरण है तो यह जो प्रथम' शब्द है वह श्रीसन्तसमाजवन्दनाप्रकरण के साथ है।अब तो यह स्पष्ट है कि इस चौपाई से तीसरा प्रकरण प्रारम्भ किया गया है। उसमें विप्रपद की वन्दना गोस्वामीजी प्रथमत: करते हैं क्योंकि ब्राह्मण चारों वर्णोंमें प्रथम वर्ण हैं।यहाँ ब्राह्मणके लिये 'महीसुर' पद देकर उनको पृथ्वीके जीवोंमें सर्वश्रेष्ठ और प्रथम वन्दना योग्य जनाया। पर एक प्रश्न और उठता है की सदा प्रथम पूजनीय तो श्रीगणेशजी हैं? ठीक है। पर वे भी तो ब्राह्मणों द्वारा ही पूजनीय हैं। जब जन्म होता है तब प्रथम ब्राह्मण ही नामकरण करते हैं, नक्षत्रका विचारकर गणेशजीका पूजन होता है। इस प्रकार ब्राह्मण सर्व कार्य में सर्वस्थानों में सबसे मुख्य हैं। सर्वकर्मों में प्रथम इन्हीं का अधिकार है। अतः ब्राह्मण को प्रथम पूजनीय कहा । अब अगली पंक्ति है 'मोह जनित संसय सब हरना' । पहले तो 'महीसुर' कहकर वन्दना की और अब विशेषण हैं कि जिनकी वन्दना करते हैं वे देवता तुल्य हैं अर्थात् वे दिव्य हैं, उनका ज्ञान दिव्य है, वे श्रोत्रिय एवं अनुभवी ब्रह्मनिष्ठ हैं तभी तो 'सब' संशयोंके हरनेवाले हैं। यह विशेषण देकर गोस्वामीजी प्रार्थना करते हैं कि मैं यह कथासन्देह, मोह, भ्रम हरणार्थ लिखता हूँ, आप कृपा करें कि जो कोई इसे पढ़े या सुने उसके भी संशय दूर हो जायँ । पुनः, यह विशेषण इस लिए दिया कि ब्रह्मज्ञान, वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि सबके ज्ञाता ब्राह्मण ही होते आये हैं। पुनः, कथा भी ब्राह्मणों से ही सुनी जाती है; अतः जो संशय कथा में होते हैं उनका समाधान भी प्रायः उन्हीं के द्वारा होता है। इस विशेषण से ब्राह्मणोंके लक्षण और कर्तव्य बताये गये जैसा कि महाभारत, भागवत,पद्मपुराणादि में कहे गये हैं। पहले के ब्राह्मण ऐसे ही होते थे इससे आजकल के सभी ब्राह्मणों को उपदेश लेना चाहिये । आइए हम शास्त्र के इस कथन से अपनी चर्चा को आज विराम देते हैं;
ॐ नमो ब्रम्हण्यदेवाय,
गोब्राम्हणहिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय,
गोविन्दाय नमोनमः।।
।। जय श्री राम।।
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