बुधवार, 5 दिसंबर 2012

वित्त-पुत्र

धन जीवन में क्या बन कर आया,समझ न पाया पर गाया!
हर तरफ मानो मानव ने अर्थ पर है चित्त लगाया!!
मैं घूमता हुवा संसार में,अमीर व गरीब को पाया!
वाह रे बनाने वाले, एक को धनवान एक को धनहीन बनाया!!
दोनो है मानव दोनो के पास हैं कमियॉ!
वे सोचते हैं कैसे मिटेगी ये खामियॉ!!
लाल की पूर्णता को भगवान ने दोनो को दिया!
लाल की कमी को भगवान ने दोनो को दिया!!
लाल ही तो है जो लाल को बना सकता है!
लाल लाल से नहीं,लाल लाल से है!!
लाल को हम ढूढते लाल को हम चाहते है!
लाल के लिए ही तो सब कुछ को त्यागते है!!
मनीषियों ने चरित्र व वित्त को चुना!
जिसमें वित्त को त्यागना गुना!!
अद्यतन समाज क्या कहता है!
इसको भी तो सुनना होता है!!
चरित्र को छो्ङो वित्त को चुनो!
चरित्र बेचकर भी वित्त को गुनो!!
चरित्र कुछ नहीं,वित्त सब कुछ तो है!
यह रिश्ता है नाता है, माता-पिता भी तो है!!
इसके बिना न चल सकता है कभी किसी का कार!
इसके बिना न कर सकता है कोई किसी को स्वीकार!!
माता भूल जाती पुत्र को, अगर न उसके पास वित्त होता!
भाई भूल जाता भाई को, अगर न उसके पास अर्थ होता!!
कोई किसी को याद करके ही क्या करता!
अर्थ के बिना किसी का कुछ नहीं चलता!!
अर्थ अब तो दिल को भी खरीदता है!
वह दिल जो न बिकता अब बिकता है!!
अर्थ बल पर रुप व गुन भी पा सकते है!
यही नहीं--अर्थ के द्वारा अब हम सब कुछ पा सकते है!!
इसलिए अब सब कोई कह सकता है!
दुनिया में अर्थ ही सब कुछ करता है!!
लेकिन सवाल है मेरा क्या दुनिया में और कुछ कुछ नहीं करता!
ऐसा नहीं है मानवों,कि अर्थ ही है जो सब कुछ करता!!
पर अर्थ के बिना किसी का कुछ नहीं चलता----
अर्थ देवो भव,अर्थ मातृ भव,अर्थ पितृ भव!
आतिथ्य अर्थो भव,अर्थ ही सर्वस्व भव!!
यही रुप अब मचलता---क्यो?
कि अर्थ के बिना किसी का कुछ नहीं चलता !!

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

।। बतायें हमारे ढंग ये पंचदस छंद।।

   ।। बताते हमारे ढंग,खास पन्द्रह छंद।।
अंगना की ज्योति फैल, अंगना स्वरुप देख!
जिस तरह रवि ज्योति देख, फैलती अरुण रेख !!१!!

बौरौ का जैसे भ्रमर ,करे सदा रस पान!
वैसे ही नर रुपों की,करता है मधु पान !!२!!

जटाकटाह युक्त देव,भागिरथी धारिणी!
बाल शशांक युक्त भाल,हौं मोहि उद्धारिणी !!३!!

सत्यासत्य प्रियाप्रिय हि,क्रूराक्रूर संग्रहि!
व्यय अव्यय गुनावगुनी ,वेश्या व नृपनीति हि !!४!!

कर दो कान्ति युक्त मुझे,हे देवाधि महान!
मिले शुभ कंचन कामिनि,होवे नित सम्मान !!५!!

अचेतन दिनमणि जैसे,नहि सहे सूर्यपाद!
तो तपस्वी नर कैसे,सह सकता परमाद !!६!!

विजयी होय पुण्यात्मा,रस व्यक्त कवीश्वर!
भय नहीं जिनके यश में,जरा जरा मृत्युकर !!७!!

अज्ञानी ज्ञानी प्रसन्न, आसानी से होय!
प्रसन्न न होय ब्रह्म से, जो नर अल्पज्ञ  गोय !!८!!

ब्रह्मकृत मौन आवरण, सदा मूर्खता गोय!
विद्वत समाज में सदा,मूर्खाभूूूषण होय !!९!!

कंचन बरन की बुलबुल, काहे को मनहीन!
मन में है यह सोचती,उल्लू से क्यो हीन !!१०!!

जॉत-पॉत की ऑच यह,करेगी कौन काम!
मानवता डुबोयेगी,तब होगी यह शान्त !!११!!

आचरण की दुहाइयॉ,उपदेशों तक लिप्त !
पुलिस पुतरिया पातकी,किसके है ये मित्त !!१२!!

जन जन की नीद हराम,यह किसका है काम!
कुर्सी तश्करी फेरी,नेता नमक हराम !!१३!!

शिक्षकों  की अध्यापकी,छात्रों की पढाई!
खुल जाती है कल्लई,जब परीक्षा आई !!१४!!

खुद को धिक्कारे शिक्षा,प्रतिभा खङी हताश !
राजनीति पंगु होगी,ढोते-ढोते लाश  !!१५!!
               ।।धन्यवाद।।





रविवार, 2 दिसंबर 2012

चौराहा





मैं निश्चिन्तता की खोज में----
कलुषित शोषित प्रताङित था विजय पथ पे,
मैं पहुचां एक चौराहे पे,
जहां मानवता दानवता का अद्भुत संगम था!
वह था कचहरी चौराहे पे
रोजी रोटी मात्र के लिए बहुत थे अस्थि मात्र,
पर वही थे ये छिननेवाले सुसंस्कृत ठेकेदार,
मैं यह सोचते चलता रहा---
चौराहा या चोर राहा
चू रहा है या चो रहा है
यह कचहरी है कच हरी है!
पर मैं तो यह समझा नहीं -क्या-कि
यह चौराहा ही था-
जो ईक्कीशवीं शदी का था,
गांधी-लोहिया का तो व्यक्तित्व था,
उनका विचार उन्हीं तक था.
लेकिन उनके शिष्य और उनकी शिष्य परम्परा ने,
उनको और उनके विचारों को
माया के दौर ने उनकी अस्मिता को चुनौती दे,
चौराहे पर ला दिया!
और स्वयं को विराट व महामाया का अंग बना लिया!
ऐसा है आज कागिरगिटो सा,समाज के पहरदारो की काया,
जो हर गली हर शहर के, चौराहो को ही है अब भाया!!

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

विश्वाश




सुनो सुन लिया है विश्वास की कहानी!
छोटे-बडे ज्ञानी-अज्ञानी जन-जन की जुबानी!!
विश्वासघातियो ने विश्वास का गला घोट दिया!
हमेशा अपनो ने ही है विश्वासघात किया!!
अपना या अपनाबन अपनत्व ला लिया!
फिर मौका मिलते ही उस अपने का गला दबा दिया!!
अपना हो या पराया इन्हे कोई नहीं है भाया!
केवल स्व पर ध्यान दे अवसर को है भुनाया!!
अपनो की लूट पर रहते है मस्त!
समय आने पर खुद बा खुद होते है पस्त!!
इन्हें ईमान मान ईश्वर से न होता है डर!
इनका एक ही वसूल बस कैसे काटे दूसरो का पर!!
ये गटकते पर मान धन गटागट!
भले ही समय आने पर हो जाये सफाचट!!
विश्वासघत हो जाती है इनकी लत!
खैर अंत मे बिगङ जाती है इसकी गत!!
ए जन मान यदि तू ईमान!
मत बन तु कभी बेइमान!!
जिसने रखो है आस!
तू पुर्ण कर उसका विश्वास!!

आरक्षण






आरक्षण की राजनीति ने प्रतिभा को मिट्टी में मिला दिया!
सबको बराबर लाने की भावना ने विषमता को बढा दिया!!
कालकूट बन प्रतिभा का कर रहा हनन!
योग्यता का हो रहा दिन-रात मरन!!
सपा हो याबसपा कांग्रेस हो य भाजपा!
कुर्सी खातिर सबने इसका है माला जपा!!
सक्षम नहि कोई कसने को इनकी नकेल!
क्योंकि स्वार्थ वास्ते कर देते ये कोर्ट व संविधान को फेल!!
शिक्षा में निम्नस्तरीय कैसे बढाये ज्ञान रे!
जब आरक्षण करे उच्चस्तरीय का अपमान रे!!
इसके सारे पैमाने लगे है योग्यता को दबाने!
योग्यता को दबाना है, अराजकता को लाना!!
बनाना है समान सबको,तो दे दो अन्य प्रकार से मदद उनको!
बनाओ योग्य हर जन को,नहीं तकलीफ है किसी को!!
लेकिन रख देश गौरव का ध्यान,
आरक्षण हटाओ ए नेता महान!
ताकि योग्यता हो योग्य पदो पर आसीन,
न हो इसकी कमी से देश की छबि मलीन!
वैसे भी हमने झेल लिया है बहुत तेरी कहानी रे,
अबतो तुम्हारे जाने की है बारी रे!!

सरस्वती के द्वादश नाम वंदना







पुष्पकारुणा कमलारुणा पद्मासिनी----
या सदा तुषार हार से भरा,
शुभ्रता की ज्योति तू मां हंसावाहिनी!!

मां सुनो मेरी आवाज ---------
मैं करु तेरी पुकार, मुझ पर करो तू हस्तवार,
कह सकूं जिससे मां तुझे वीणावादिनी!!

शारदा हो तू तू अरविन्दवासिनी हो --------
मां मेरे लिये तू बुद्धिदायिनी हो,
पुकारता हूं तुझे मां करो कृपा मतिदायिनी!!
वरदात्री हो तू वर दे भारत में अमृत नव भर दे-------
कर दो संसार में सुख्यात,
भारत को ये मां जगद्व्यापिनी!!
हम जङ है जङमूर्ख है, जङ्ता की प्रतिमूर्ति है ------
आये है तेरी शरण में मां ब्रह्मदायिनी,
तू तो सदा ही हो शशिवर्णिनी!!

मुक्तक

वाद की है झङी लगी, जात पात का मेल!
विकृतियां अब समाज की, हो रही वीष बेल!!१!!

तुलसी के सात काण्ड, अब तो काण्ड अनन्त!
कल्याण नही अब देश का, तेरे बिन भगवन्त!!२!!

नहीं पता हैं काण्ड का, चीनी बिजली फोन!
हर्षद मेहता जैन बन्धु, इनसे अछुता कौन!!३!!
 
अमानवीय मानवो का, करो शीघ्र कल्याण!
सद्भावना को भरो,दशरथ तनय महान!!४!!

हाय सफेदपोशों की, जिन्दगी लहर बनी!
प्रजातन्त्र में प्रजा की, जिन्दगी जहर बनी!!५!!

देखकर प्रजा का रुप,भारती विफर पङी!
स्वतन्त्रता का यह रुप,कि नीतियां यो सङी!!६!!

नगरों में अब सुकरी, देख गाय का भाल!
सोचती है मन में, कर लेगी दो लाल!!७!!

समय पर बदलते रंग, गिरगिट की है बात!
अब क्षण में बदलता रंग, इन्सान है दिन-रात!!८!!

बात कभी सत्य,भुख बदलता ईमान!
अब तो यह सत्य,सिक्के पे बदलता ईन्सान!!९!!

चरित्र से है सब गिरे,तो कौन बचा नेक!
यदि कही एक गिरता,तो हसते अनेक!!१०!!

चरित्र बेचकर आजकल,धन कमाया जाता!
चरित्र की रक्षा धर्म है,कैसे उन्हें भाता!!११!!