रविवार, 2 जून 2024

मानस-चर्चाकीरति भनिति भूति भलि सोई

मानस-चर्चा
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ * हित होई ॥
 - कीर्ति, कविता/विद्या और ऐश्वर्य वही अच्छे हैं जो गंगाजीकी तरह सब के लिए हितकर हों।
 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई' इति । राजा भगीरथने जन्मभर कष्ट उठाकर तपस्या की तब गंगाजीको पृथ्वीपर ला सके, जिससे उनके 'पुरुखा' सगरके ६०,००० पुत्र जो कपिलभगवान् के शापसे भस्म हो गये थे तरे और आजतक सारे जगत्‌का कल्याण उनके कारण हो रहा है। उनके परिश्रम से पृथ्वीका भी हित हुआ। "धन्य देस सो जहँ सुरसरी" । गंगाजी ऊँच-नीच, ज्ञानी- अज्ञानी, स्त्री-पुरुष आदि सबका बराबर हित करती हैं । 'सुरसरि सम' कहनेका भाव यह है कि कीर्ति भी ऐसी हो जिससे दूसरेका भला हो । यदि ऐसे किसी कामसे नाम प्रसिद्ध हुआ कि जिससे जगत्‌को कोई लाभ न हो तो वह नाम सराहनेयोग्य नहीं । जैसे---
खुशामद करते-करते रायसाहब इत्यादि कहलाये अथवा प्रजाका गला घोंटने वा काटनेके कारण कोई पदवी
मिल जाय। 
इसी तरह कविता/विद्या पवित्र हो अर्थात् रामयशयुक्त हो और सबके लिये उपयोगिनी हो, जैसे गंगाजल सभीके काम आता है। 'कविता' सरल हो, सबकी समझमें आने लायक हो, व्यर्थ किसीकी प्रशंसा के लिये न कही गयी हो, वरन्, "निज संदेह मोह भ्रम हरनी।करउँ कथा भव सरिता तरनी॥"' होते हुए 'सकल जनरंजनी हो ।'भव
सरिता तरनी' के समन हो, सदुपदेशोंसे परिपूर्ण हो । जो ऐश्वर्य मिले तो उससे दूसरोंका उपकार ही करे, धन हो
तो दान करें और अन्य धर्मोके कामोंमें लगावे । क्योंकि 'सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।' धनकी तीन गतियाँ कही
गयी हैं। दान, भोग और नाश ।सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।। 'कीर्ति, भनिति, भूति की समता गंगाजी से देनेका कारण यह है कि तीनों गंगाके समान हैं। कीर्तिका स्वरूप स्वर्गद्वार है और अकीर्तिका नरकद्वार । यथा—
'कीर्त्तिस्वर्गफलान्याहुरासंसारं विपश्चितः । 
अकीर्त्तिं तु निरालोकनरकोद्देशदूतिकाम् ॥
' अर्थात् कीर्ति स्वर्गदायक और अकीर्ति जहाँ सूर्यका प्रकाश नहीं है ऐसे नरककी देनेवाली है। अतएव सबकी चाह कीर्तिकी ओर रहती है। वाणी उसका नाम है जिसके कथनमात्रसे प्राणिमात्रका पाप दूर हो जाय ।
'तद्वाग्विस जनताघविप्लवः' भूति का अर्थ धन है । 'धनाद्धि धर्मः प्रभवति', 'नाधनस्य भवेद्धर्मः '
 । पुन:, 'सुरसरि सम...' का भाव कि वेदादिका अधिकार सब वर्णोंको नहीं, प्रयागादि क्षेत्र एकदेशमें स्थित हैं, सबको सुलभ नहीं, इत्यादि और गंगाजी, गंगोत्तरीसे लेकर गंगासागरतक कीट-पतंग, पशु-पक्षी, चींटीसे लेकर गजराजादितक, चाण्डाल, कोढ़ी, अन्त्यज, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, रंक - राजा, देव-यक्ष-राक्षस आदि सभीका
हित करती हैं। इसी तरह संस्कृत भाषा सब नहीं जानते, अतः इससे गिने चुने लोगों का ही हित है और भाषा सभी
जानते हैं उसमें जो श्रीरामयश गाया जाय तो उससे सबका हित होगा। यह अभिप्राय इसमें गर्भित है ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चाबंदौं मुनिपदकंज

मानस चर्चा
बंदौं मुनिपदकंज, रामायन जेहिं निरमयेउ ।
सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित ॥
इस सोरठे के माध्यम से गोस्वामीजी ने अपने ग्रंथ के साथ ही साथ महर्षि वाल्मीकिजीकी महत्ता को प्रतिपादित किया है। आइए हम इसी के बहाने रामायण और रामचरितमानस दोनों के महत्त्व और वाल्मीकिजी के ज्ञाताज्ञात जीवन पर चर्चा करें।
      सबसे पहले तो  यहाँ गोस्वामीजी वाल्मीकिजीकी 'स्वरूपाभिनिवेश वन्दना' करते हैं जिससे मुनिवाक्य श्रीमद्रामायणस्वरूप हृदयमें प्रवेश करे। नमस्कार करते समय स्वरूप, प्रताप, ऐश्वर्य, सेवा जब मनमें समा जाते हैं तो उस नमस्कारको 'स्वरूपाभिनिवेश वन्दना' कहते हैं।
यह सोरठा को शेखर कवि के इस श्लोकका अनुवाद है।
'नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा ।
सदूषणापि निर्दोषा सखरापिसुकोमला ॥'
  अर्थात् यह रामायण  कठोरतासहित है। क्योंकि इसमें अधर्मियोंको दण्ड देना पाया जाता है, कोमलतायुक्त है क्योंकि इसमें विप्र, सुर, संत, शरणागत आदिपर नेह, दया, करुणा करना पाया जाता है, मंजु है क्योंकि उसमें श्रीरामनामरूप लीलाधामका वर्णन है जिसके कथन, श्रवणसे हृदय निर्मल हो जाता है,दोषरहित है क्योंकि अन्य ग्रन्थका अशुद्ध पाठ करना दोष है और इसके पाठमें अशुद्धताका दोष नहीं लगता, दूषण भी इसमें हितकारी ही है, क्योंकि अर्थ न करते बनना दूषण है सो दूषण भी इसमें नहीं लगता, पाठ और अर्थ बने या न बने इससे कल्याण ही होता है, क्योंकि इसके एक-एक अक्षर के उच्चारणसे महापातक नाश होता है। प्रमाण भी है---
'चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥'
काव्यके दोष उसमें नहीं हैं। अथवा सखर है अर्थात् श्रीरामजीका सखारस इसमें वर्णित है। सुग्रीव, गुह और विभीषणसे सखाभाव वर्णित है। कोमल, मंजु और दोषरहित तीनों विशेषण सखाभावमें लगेंगे। कोमल सुग्रीवके सम्बन्धमें कहा, क्योंकि उनके दुःख सुनकर हृदय द्रवीभूत हो गया, अपना दुःख भूल गया। गुहकी मित्रताके सम्बन्ध 'मंजु' कहा क्योंकि उसको कुलसमेत मनोहर अर्थात् पावन कर दिया। दोषरहित दूषणसहित विभीषणके सम्बन्धसे कहा । शत्रुका भ्राता और राक्षसकुलमें जन्म दूषण हैं, उन्हें दोषरहित किया । 
मुनिकृत रामायण का तो यहां एक रूपक है वास्तव में गोस्वामीजी का रामचरित मानस सभी दोषोंसे सर्वथा मुक्त है। झूठ बोलना या लिखना दोष है और सत्य बोलना या लिखना दोष नहीं है, परन्तु अप्रिय सत्य दोष तो नहीं किंतु दूषण अवश्य है । इसीसे मनुने कहा है, 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्' और मानसमें भी कहा है, 'कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी ।'  गोस्वामीजी मुनिकी रामायणको 'मंजु' और अपनी भाषारामायणको 'अति मंजुलमातनोति' कहा है। आप देखें ----
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचि दन्यतोअपि
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषा निबंधमति मंजुल मातनोति।।
  'बंदौं मुनिपदकंज रामायन जेहि निरमयेउ' रामायण  बनाने वाले वाल्मीकिजी मुनि भी थे और आदिकवि भी । ये श्रीरामचन्द्रजीके समयमें भी थे और इन्होंने श्रीरामजीका उत्तरचरित पहलेहीसे रच रखा था । उसीके अनुसार श्रीरामजीने सब चरित किये। इन्होंने शतकोटिरामचरित छोड़ और कोई ग्रन्थ रचा ही नहीं। अब हमें यह जानना है कि ये मुनि हैं कौन ? कहीं इनको भृगुवंशमें उत्पन्न प्रचेताका वंशज कहा है।  स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड वैशाखमासमाहात्म्यमें श्रीरामायणके रचयिता वाल्मीकिकी कथा इस प्रकार है कि ये पूर्वजन्ममें व्याध थे। इनको महर्षि शंखने दया करके वैशाखमाहात्म्य बताकर उपदेश किया कि तुम श्रीरामनामका निरन्तर जप करो और आजीवन वैशाखमासके जो धर्म हैं उनका आचरण करो, इससे वल्मीक ऋषिके कुलमें तुम्हारा जन्म होगा और तुम वाल्मीकि नामसे प्रसिद्ध होगे । यथा -
' तस्माद् रामेति तन्नाम जप व्याध निरन्तरम् ।
धर्मानेतान् कुरु व्याध यावदामरणान्तिकम् ॥'
'ततस्ते भविता जन्म वल्मीकस्य ऋषेः कुले । वाल्मीकिरिति नाम्ना च भूमौ ख्यातिमवाप्स्यसि ॥' 
उपदेश पाकर व्याधने वैसा ही किया । एक बार कृणु नामके ऋषि बाह्यव्यापारवर्जित दुश्चर तपमें निरत हो गये। बहुत समय बीत जानेपर उनके शरीरपर दीमककी बाँबी जम गयी इससे उनका नाम वल्मीक पड़ गया। इन वल्मीक ऋषिके वीर्यद्वारा एक नटीके गर्भसे उस व्याधका पुनर्जन्म हुआ। इससे उसका नाम वाल्मीकि हुआ जिन्होंने रामचरित गान अपने रामायण ग्रंथ में किया।जिनका रामायण सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित है अतः हम इस मुनि श्रेष्ठ के चरण कमल की वंदना करते हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।




शनिवार, 1 जून 2024

✓।।मानस-चर्चा भावी।।


।।मानस-चर्चा भावी।।
मानस-चर्चा भावी🙏'श्रीरामचरितमानस' में गोस्वामी तुलसीदासजी ने विधि की बात बताते हुए घोषित किया है,,,,,,,,,,,,,,
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥
यहां हम केवल भावी जिसे प्रारब्ध भी कहा जाता है उस पर ही चर्चा करेगें।
 प्रारब्ध तीन प्रकार के बताए गए हैं-
1. मन्द प्रारब्ध 2. तीव्र प्रारब्ध 3.तरतीव्र प्रारब्ध।
मंद प्रारब्ध को हम अपने पुरुषार्थ से बदल सकते हैं,
तीव्र प्रारब्ध हमारे पुरुषार्थ एवं संतों-महापुरुषों की कृपा से टल सकता है लेकिन "तरतीव्र प्रारब्ध" में जो होता है वह होकर ही रहता है।इसे हम इस कथा के माध्यम से जानते हैं।
एक बार रावण कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे विधाता/ब्रह्माजी मिल गए। रावण ने उन्हें ठीक से पहचान लिया। उसने पूछाः
"हे विधाता ! आप कहाँ से पधार रहे हैं?"
''मैं कौशल देश गया था।"
"क्यों? 
कौशल देश में ऐसी क्या बात है?"
"कौशलनरेश के यहाँ बेटी का जन्म हुआ है।"
"अच्छा ! प्रभु उसके भाग्य में क्या है?" ब्रह्माजी ने बताया कि "कौशलनरेश की बेटी का भाग्य बहुत अच्छा है। उसकी शादी राजा दशरथ के साथ होगी। उसके घर स्वयं भगवान विष्णु श्रीराम के रूप में अवतरित होंगे और उन्हीं श्रीराम के साथ तुम्हारा युद्ध होगा। वे तुम्हें यमपुरी पहुँचायेंगे।" " रावण बोला ... विधाता ! तुम्हारा बुढ़ापा आ रहा है। लगता है तुम सठिया गये हो। अरे ! जो कौशल्या अभी-अभी पैदा हुई है और दशरथ.... नन्हा- मुन्ना लड़का ! वे बड़े होंगे, उनकी शादी होगी, उनको बच्चा होगा फिर वह बच्चा जब बड़ा होगा तब युद्ध करने आयेगा। मनुष्य का यह बालक मुझ जैसे महाप्रतापी रावण से युद्ध करेगा? 
रावण बाहर से तो डींग हाँकता हुआ चला गया परंतु भीतर चोट लग गयी भयभीत हो ही गया था।
समय बीतता गया। रावण इन बातों को ख्याल में रखकर कौशल्या और दशरथ के बारे में सब जाँच-पड़ताल करवाता रहता था। कौशल्या सगाई के योग्य हो गयी है तो सगाई हुई कि नहीं? फिर देखा कि समय आने पर कौशल्या की सगाई दशरथ जी के साथ हुई। उसको एक झटका सा लगा। परंतु वह अपने-आपको समझाने लगा कि सगाई हुई है तो इसमें क्या? अभी तो शादी हो... उनका बेटा हो... बेटा बड़ा हो तब की बात है।
 ..... और वह मुझे क्यों यमपुरी पहुँचायेगा? मन को शान्तवना देता रहा लेकिन एक बात और सोचता कि 
रोग और शत्रु को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए, उन के बारे में सूचना प्राप्त करते रहना चाहिए। रावण कौशल्या और दशरथ के बारे में पूरी जानकारी रखता था। रावण ने देखा कि 'कौशल्या की सगाई दशरथ के साथ हो गयी है। अब संकट शुरु हो गया है, अतः मुझे सावधान रहना चाहिए। जब शादी की तिथि तय हो जायेगी, उस समय देखेंगे।' शादी की तिथि तय हो गयी और शादी का दिन नजदीक आ गया। रावण परेशान उसने सोचा कि अब कुछ करना पड़ेगा।अतः उसने अपनी अदृश्य विद्या का प्रयोग करने का विचार किया। जिस दिन शादी थी उस दिन कौशल्या स्नान आदि करके बैठी थी और जब सहेलियों उन्हें हार- श्रृंगार आदि से सजा दिया था । उस वक्त अवसर पाकर रावण ने कौशल्या का हरण कर लिया और उसे लकड़ी के बक्से में बन्द करके वह बक्सा पानी में बहा दिया। इधर कौशल्या के साथ शादी कराने के लिए दूल्हा दशरथ जी को लेकर राजा अज ,गुरु वशिष्ठ तथा बारातियों के साथ कौशल देश की ओर निकल पड़े थे। एकाएक दशरथ और वशिष्ठजी के हाथी चिंघाड़कर भागने लगे। महावतों की लाख कोशिशों के बावजूद भी वे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। तब वशिष्ठजी ने कहाः
"हाथियों को छोड़ दो वे जहाँ जाना चाहते हों जाने दो। उनके प्रेरक भी तो परमात्मा हैं ध्यान रखो वे कहां जाते हैं।"हाथी दौड़ते-भागते वहीं पहुँच गये जहाँ पानी में बहकर आता हुआ लकड़ी का बक्सा किनारे आ गया था। बक्सा देखकर सब चकित हो गये। उसे खोलकर देखा तो अंदर से सोलह श्रृंगार से सजी एक कन्या निकली, जो बड़ी लज्जित हुई सिर नीचा करके खड़ी-खड़ी पैर के अंगूठे से धरती कुरेदने लगी। वशिष्ठजी ने कहाः "मैं वशिष्ठ, ब्राह्मण हूँ और अयोध्या का गुरु हूं। पुत्री ! पिता और गुरु के आगे संकोच छोड़कर अपना अभीष्ट और अपनी व्यथा बता देनी चाहिए। तू कौन है और तेरी ऐसी स्थिति कैसे हुई?"
तब कौशल्या ने जवाब दियाः "मैं कौशल देश के राजा की पुत्री कौशल्या हूँ।"वशिष्ठजी समझ गये। आज तो शादी की तिथि है और शादी का समय भी नजदीक आ रहा है।
कौशल्या ने बतायाः "कोई असुर मुझे उठाकर ले गया, फिर लकड़ी के बक्से में डालकर मुझे बहा दिया। अब मुझे कुछ पता नहीं चल रहा कि मैं कहाँ हूँ?"
वशिष्ठजी कहाः "बेटी ! फिक्र मत कर। तरतीव्र प्रारब्ध में जैसा लिखा होता है वैसा होकर ही रहता है। देखो, मैं वशिष्ठ हूँ।गुरु हूं ।ये दशरथ हैं और तू कौशल्या है। अभी शादी का मुहूर्त भी है। मैं अभी यहीं पर तुम्हारा विवाह करवा देता हूँ।"ऐसा कहकर महर्षि वशिष्ठजी ने वहीं दशरथ-कौशल्या की शादी करा दी।उधर कौशलनरेश कौशल्या को न देखकर चिंतित हो गये कि 'बारात आने का समय हो गया है, क्या करूँ? सबको क्या जवाब दूँगा? अगर यह बात फैल गयी कि कन्या का अपहरण हो गया है तो हमारे कुल को कलंक लग जायेगा कि सजी-धजी दुल्हन अचानक कहाँ और कैसे गायब हो गयी?'
अपनी इज्जत बचाने कि लिए राजा ने कौशल्या की चाकरी में रहनेवाली एक दासी को बुलाया। वह करीब कौशल्या की उम्र की थी और रूप-लावण्य भी ठीक था। उसे बुलाकर समझाया कि "कौशल्या की जगह पर तू तैयार होकर कौशल्या बन जा। हमारी भी इज्जत बच जायेगी और तेरी भी जिंदगी सुधर जायेगी।" कुछ दासियों ने मिलकर उसे सजा दिया। वह तो मन ही मन खुश हो रही थी कि 'अब मैं महारानी बनूँगी।'
इधर दशरथा-कौशल्या की शादी संपन्न हो जाने के बाद सब कौशल देश की ओर चल पड़े। बारात के कौशल देश पहुँचने पर सबको इस बात का पता चल गया कि कौशल्या की शादी दशरथ के साथ हो चुकी है। सब प्रसन्न हो उठे। जिस दासी को सजा-धजाकर बिठाया गया था वह ठनठनपाल ही रह गयी। उसको मिला बाबाजी का ठुल्लू। तबसे यह कहावत चल पड़ीः
"विधि का घाल्या न टले, टले रावण का खेल।
 रही बेचारी दूमड़ी, घाल पटा में तेल॥"
'बिधि' यानी प्रारब्ध। प्रारब्ध में उसको रानी बनना नहीं था,
इसलिए सज-धजकर, बालों में तेल डालकर, सज धजकर भी वह कुँआरी की कुँआरी ही रह गयी।
 आगे की कथा दुनिया जानती ही है की रावण का क्या हुवा।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

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।।सेवक स्वामि सखा सिय पी के।।

।।सेवक स्वामि सखा सिय पी के।।
मानस चर्चा में आज हम मानस मंत्र
सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ॥  इस पर  चर्चा करेगें।यहां सेवक स्वामि सखा  ये तीन बिंदु हैं ।इन्हें हम गोस्वामीजी के भावनाओं का सम्मान  करते हुवे "सनातन धर्म के चार धामों में एक प्रसिद्ध धाम "रामेश्वर"और समस्त मानवता के स्रोत "पति- पत्नी" पर भी केंद्रित करते हुवे समझेगें इसके पहले यहां गोस्वामीजी ने 'सेवक स्वामि सखा इन तीन शब्दों का प्रयोग किनके लिए किया है,इसे हमें जानना और समझना है।  आगे बढ़ने से पहले " सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ॥" का अर्थ समझने का प्रयास करतें हैं--अर्थ इस प्रकार निकल रहा है।
"जो श्रीसीतापति रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामि, सखा हैं,  वे सब तरहसे ( मुझ) तुलसीदासके अर्थात् भक्तोंके सदा निश्छल हितकारी हैं।"वे हैं कौन ? मानस मर्मज्ञों ने
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥इस पूर्व पक्तियों को मिलाते हुवे यह भाव बताया  है कि  शिवजी गुरु, पिता, माता, दाता और श्रीसीतापति श्री राम सेवक-स्वामी - सखा रूप से भक्तों के सदा ही हितकारी  हैं । हमें अपना ध्यान "सेवक स्वामि सखा सिय पी के" मंत्र पर केंद्रित करते हुवे चलना हैं। अतः हम प्रभु श्रीराम और महादेव  के परस्पर  सेवक, स्वामी और सखा होनेके भाव को ही सर्वप्रथम समझते हैं  जिनके प्रसंग श्रीरामचरितमानसमें बहुत जगह प्राप्त  हैं।
(1) महादेव स्वयं को राम का सेवक मानते हैं --
शिव पार्वती संवाद प्रसंग में इन्हें देखें _
(अ)'रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ, कहि सिव नाएउ माथ।' 
(ब)'सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी।।
श्री राम जी द्वारा शिवजी के विवाह अनुरोध के  प्रसंग में 
(अ)' नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥
(B)सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥ '
सती  मोह के  प्रसंग में 
(अ) सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा।'
(2) राम के महादेव  स्वामी  हैं ऐसे के प्रसंगों  को देखते हैं_
गंगा पार जाने के प्रसंग में देखें 
(अ)'तब मज्जन करि रघुकुलनाथा । पूजि पारथिव नायउ माथा ॥ '
रामेश्वर स्थापना के प्रसंग में देखें
(अ)लिंग थापि बिधिवत करि पूजा ।'सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥
(3) दोनों सखा  हैं ऐसे के प्रसंगों  को देखते हैं
रामेश्वर स्थापना के प्रसंग में देखें
(अ )'संकरप्रिय मम द्रोही सिवद्रोही मम दास ।
 ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महँ बास ॥' 
(ब)संकर बिमुख भगति चह मोरी ।
      सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥' 
आइए हम रामेश्वर स्थापना के बाद देवों की चर्चा पर नजर डालते हैं _
श्रीरामचन्द्रजीने जब सेतुबन्धनके समय शिवलिंगकी स्थापना की तब उनका नाम 'रामेश्वर' रखा।इस पदमें सेवक, स्वामी और सखा तीनोंका अभिप्राय आता है। ऐसा नाम रखनेसे भी तीनों भाव दर्शित होते हैं। इस सम्बन्धमें एक आख्यायिका है जो ऐसे है_
'रामस्तत्पुरुषं वक्ति बहुब्रीहिं महेश्वरः ।
ऊचुः प्रांजलयः सर्वे ब्रह्माद्याः कर्मधारयम् ॥'
इस श्लोकको लेकर  ऐसी बात कही जाती है कि जिस समय सेतुबन्ध हुआ था उस समय ब्रह्मा, शिव आदि देवता और बड़े-बड़े ऋषि उपस्थित थे। रामेश्वर की स्थापना होनेपर नामकरण होनेके पश्चात् परस्पर 'रामेश्वर' शब्दके अर्थपर विचार होने लगा। सबसे पहले श्रीरामचन्द्रजीने इसका अर्थ कहा कि इसमें तत्पुरुष समास है , इसका अर्थ 'रामस्य ईश्वरः 'है अर्थात यहां  राम स्वयं  को महादेव का  सेवक मान रहे हैं । उसपर शिवजी बोले कि भगवन् ! यहां बहुब्रीहि समास है। अर्थात् इसका अर्थ 'रामः ईश्वरो यस्यासौ रामेश्वर:' इस भाँति है,यहां  राम महादेव के स्वामी हो रहे हैं । तब ब्रह्मादिक देवता हाथ जोड़कर बोले कि 'महाराज ! इसमें कर्मधारय समास'है। अर्थात् 'रामश्चासौ ईश्वरश्च' वा 'यो रामः स ईश्वरः ' जो राम वही ईश्वर ऐसा अर्थ है। इस प्रकार यहां राम और महादेव परस्पर सखा हो रहे हैं। इस प्रकार इस आख्यायिकासे तीनों भाव स्पष्ट हैं। बहुब्रीहि समाससे शिवजीका सेवकभाव स्पष्ट है। तत्पुरुषसे शिवजी  का स्वामीभावऔर कर्मधारयसे शिवजी  का सख्यभाव पाया जाता है।
'शिवजी सदा सेवक रहते हैं; इसलिये 'सेवक' पद प्रथम दिया है।'पुनः 'भक्तिपक्षमें स्वामीसे सब नाते बन सकते हैं। इसीसे शिवजीको 'सेवक स्वामि सखा' कहा। अथवा, हनुमानुरूपसे सेवक हैं, रामेश्वररूपसे स्वामी और सुग्रीवरूपसे सखा हैं। 
वास्तव  में श्री शंकरजी, श्रीरघुनाथजी परात्पर भगवान्‌के सदा सेवक हैं, विष्णुके स्वामी हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश
तीनों समान हैं, इससे सखा भी हैं।इसका अर्थ सीधा है कि प्रभु श्री राम और महादेव परस्पर सेवक स्वामि सखा ही हैं। अब हम थोड़ा "सिय पी" के भाव को समझते हैं। सिय,
सीताजी और पी,पति श्री रामजी परस्पर सेवक स्वामि सखा भाव से ही रहते हैं, और सम्पूर्ण मानवता को संदेश देते है कि जहां हर पति को अपनी पत्नी का सेवक स्वामि सखा होना ही चाहिए वही हर पत्नी को भी अपने पति की सेविका स्वामिनी और सहेली के रूप में भी होना ही चाहिए और यदि वे इन भावों को बनाकर साथ साथ रहते है तो स्वयं के साथ ही साथ परिवार समाज एवं मानवता का कल्याण एवं विकास होगा ही होगा इसलिए हर पति पत्नी को इस मंत्र से प्रेरणा लेकर परस्पर सेवक स्वामि सखा भाव के साथ रहते हुवे परिवार समाज एवं मानवता के उत्थान में अपना अपना सहयोग देना ही चाहिए।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।


मंगलवार, 28 मई 2024

।।समास।।

।।समास।।
समास शब्द-रचना की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अर्थ की दृष्टि से परस्पर भिन्न तथा स्वतंत्र अर्थ रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द मिलकर किसी अन्य स्वतंत्र शब्द की रचना करते हैं।

समास विग्रह सामासिक शब्दों को विभक्ति सहित पृथक करके उनके संबंधों को स्पष्ट करने की प्रक्रिया है। यह समास रचना से पूर्ण रूप से विपरित प्रक्रिया है।

समास रचना में दो शब्द अथवा दो पद होते हैं पहले पद को पूर्व पद तथा दूसरे पद को उत्तर पद कहा जाता है।
इन दोनों पदों के समास से जो नया संक्षिप्त शब्द बनता है उसे समस्त पद या सामासिक पद कहते हैं।
जैसे: राष्ट्र (पूर्व पद) + पति (उत्तर पद) = राष्ट्रपति (समस्त पद)

समास की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—
समास में दो या दो से अधिक पदों का मेल होता है।
समास में शब्द पास-पास आकर नया शब्द बनाते हैं।
पदों के बीच विभक्ति चिह्नों का लोप हो जाता है।
समास से बने शब्द में कभी उत्तर पद प्रधान होता है तो कभी पूर्व पद और कभी-कभी अन्य पद। इसके अलावा कभी कभी दोनों पद प्रधान होते हैं।

परिभाषा:

‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘छोटा-रूप’। अतः जब दो या दो से अधिक शब्द(पद) अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो छोटा रूप बनाते हैं, उसे समास कहते हैं।
सामासिक

शब्द या समस्त पद कहते हैं। जैसे ‘रसोई के लिए घर’ शब्दों में से ‘के लिए’ विभक्ति का लोप करने पर नया शब्द बना ‘रसोई घर’, जो एक सामासिक शब्द है।
किसी समस्त पद या सामासिक शब्द को उसके विभिन्न पदोंएवं विभक्ति सहित पृथक् करनेकी क्रिया को समास का विग्रह कहते हैं जैसे विद्यालय विद्या के लिए आलय, माता-पिता=माताऔर पिता।
समास के कुल भेद

समास के निम्नलिखित छह भेद होते हैं—
1. अव्ययीभाव समास (Adverbial Compound)
2. तत्पुरुष समास (Determinative Compound)
3. कर्मधारय समास (Appositional Compound)
4. द्विगु समास (Numeral Compound)
5. द्वन्द समास (Copulative Compound)
6. बहुव्रीहि समास (Attributive Compound)

1.अव्ययीभाव समास:-

अव्ययीभाव समास में प्रायः(i)पहला पद प्रधान होता है।
(ii) पहला पद या पूरा पद अव्यय होता है।
(वे शब्द जो लिंग, वचन, कारक,काल के अनुसार नहीं बदलते, उन्हें अव्यय कहते हैं)
(iii)यदि एक शब्द की पुनरावृत्ति हो और दोनों शब्द मिलकर अव्यय की तरह प्रयुक्त हो, वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है।
(iv) संस्कृत के उपसर्ग युक्त पद भी अव्ययीभव समास होते हैं-
यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
यथाशीघ्र = जितना शीघ्र हो
यथाक्रम = क्रम के अनुसार
यथाविधि = विधि के अनुसार
यथावसर = अवसर के अनुसार
यथेच्छा = इच्छा के अनुसार
प्रतिदिन = प्रत्येक दिन। दिन-दिन। हर दिन
प्रत्येक = हर एक। एक-एक। प्रति एक
प्रत्यक्ष = अक्षि के आगे
घर-घर = प्रत्येक घर। हर घर। किसी भी घर को न छोड़कर
हाथों-हाथ = एक हाथ से दूसरे हाथ तक। हाथ ही हाथ में
रातों-रात = रात ही रात में
बीचों-बीच = ठीक बीच में
साफ-साफ = साफ के बाद साफ। बिल्कुल साफ
आमरण = मरने तक। मरणपर्यन्त
आसमुद्र = समुद्रपर्यन्त
भरपेट = पेट भरकर
अनुकूल = जैसा कूल है वैसा
यावज्जीवन = जीवनपर्यन्त
निर्विवाद = बिना विवाद के
दर असल = असल में
बाकायदा = कायदे के अनुसार
आजीवन - जीवन-भर
यथासामर्थ्य - सामर्थ्य के अनुसार
यथाशक्ति - शक्ति के अनुसार
यथाविधि- विधि के अनुसार
यथाक्रम - क्रम के अनुसार
भरपेट- पेट भरकर
हररोज़ - रोज़-रोज़
हाथोंहाथ - हाथ ही हाथ में
रातोंरात - रात ही रात में
प्रतिदिन - प्रत्येक दिन
बेशक - शक के बिना
निडर - डर के बिना
निस्संदेह - संदेह के बिना
प्रतिवर्ष - हर वर्ष
आमरण - मरण तक
खूबसूरत - अच्छी सूरत वाली
अव्ययीभाव समास की पहचान
अव्ययीभाव समास में तीन प्रकार के पद आते हैं:
1. उपसर्गों से बने पद:
आजीवन (आ + जीवन) = जीवन पर्यन्त
निर्दोष (निर् + दोष) = दोष रहित
प्रतिदिन (प्रति + दिन) = प्रत्येक दिन
बेघर (बे + घर) = बिना घर के
लावारिस (ला +‌ वारिस) = बिना वारिस के
यथाशक्ति (यथा‌ + शक्ति) = शक्ति के अनुसार
2. यदि एक ही शब्द की पुनरावृत्ति हो:
घर-घर = घर के बाद घर
नगर-नगर = नगर के बाद नगर
रोज-रोज = हर रोज
3. एक जैसे दो शब्दों के मध्य बिना संधि नियम के कोई मात्रा या व्यंजन आए:
हाथोंहाथ = हाथ ही हाथ में
दिनोदिन = दिन ही दिन में
बागोबाग = बाग ही बाग में

2- तत्पुरुष समास

इस समास में पूर्व पद गौण तथा उत्तर पद प्रधान होता है।
समस्त पद बनाते समय पदों के विभक्ति चिह्नों को लुप्त किया जाता है।
इस समास की दो प्रकार से रचना होती है:
(क) संज्ञा + संज्ञा/विशेषण
युद्ध का क्षेत्र = युद्धक्षेत्र
दान में वीर = दानवीर
(ख) संज्ञा + क्रिया
शरण में आगत = शरणागत
स्वर्ग को गमन = स्वर्गगमन
कारक की दृष्टि से तत्पुरुष समास के निम्नलिखित छह भेद होते हैं:
1. कर्म तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न: 'को')
सिद्धिप्राप्त = सिद्धि को प्राप्त
नगरगत = नगर को गत
2. करण तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न: 'से, के द्वारा')
हस्तलिखित = हाथों से लिखित
तुलसीरचित = तुलसी के द्वारा रचित
3. सम्प्रदान तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'के लिए')
रसोईघर = रसोई के लिए घर
जेबखर्च = जेब के लिए खर्च
4. अपादान तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'से' [अलग होने का भाव])
पथभ्रष्ट = पथ से भ्रष्ट
देशनिकाला = देश से निकाला
5. संबंध तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'का, के, की')
राजपुत्र = राजा का पुत्र
घुड़दौड़ = घोड़ों की दौड़
6. अधिकरण तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'में, पर')
आपबीती = आप पर बीती
विश्व प्रसिद्ध = विश्व में प्रसिद्ध
यद्यपि तत्पुरुष समास के अधिकांश विग्रहों में कोई विभक्ति चिह्न अवश्य आता है परंतु तत्पुरुष समास के कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं, जिनके विग्रहों में विभक्ति चिह्न का प्रयोग नहीं किया जाता; संस्कृत में इस भेद को

नञ तत्पुरुष कहा जाता है। जैसे:

असभ्य( न सभ्य) अनंत (न अंत)
अनादि( न आदि) असंभव (न संभव)
तत्पुरुष समास के भेद (Tatpurush samas
ke bhed)

अन्य भेद

समानाधिकरण तत्पुरुष समास (कर्मधारय समास)

(Samanadhikaran tatpurush samas)

जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद हों, अर्थात विशेष्य-विशेषण-भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के
हों और लिंग - वचन में समान हों, वहाँ 'कर्मधारय तत्पुरुषसमास' होता है।

व्यधिकरण तत्पुरुष समास (Vyadhikaran
tatpurush samas)

जिस तत्पुरुष समास में प्रथम पद तथा द्वतीय पद दोनों भिन्न-भिन्न विभक्तियों में हो, उसे व्यधिकरण तत्पुरुष समास कहते हैं।

उदाहरणतया - राज्ञः पुरुषः - राजपुरुष: में प्रथम पद राज्ञः षष्ठी विभक्ति में है तथा द्वतीय पद पुरुष: में प्रथमा विभक्ति है। इस प्रकार दोनों पदों में भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ होने से व्यधिकरण तत्पुरुष समास हुआ।
व्यधिकरण तत्पुरुष समास 6 प्रकार का होता है
1. कर्म तत्पुरुष समास
2. करण तत्पुरुष समास
3.सम्प्रदान तत्पुरुष समास
4-अपादान तत्पुरुष समास
5-सम्बंध तत्पुरुष समास
6-अधिकरण तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास के उपभेद (Tatpurush
samas ke upbhed)
1. नञ् तत्पुरुष समास
2. उपपद तत्पुरुष समास
3. लुप्तपद तत्पुरुष समास
उपपद तत्पुरुष समास
ऐसा समास जिनका उत्तरपद भाषा में स्वतंत्र रूप से
प्रयुक्त न होकर प्रत्यय के रूप में ही प्रयोग में लाया जाता है। जैसे- नभचर, कृतज्ञ, कृतघ्न, जलद, लकड़हारा इत्यादि ।
लुप्तपद तत्पुरुष समास
जब किसी समास में कोई कारक चिह्न अकेला लुप्त न होकर पूरे पद सहित लुप्त हो और तब उसका सामासिक पद बने तो वह लुप्तपद तत्पुरुष समास कहलाता है। जैसे-दहीबड़ा-दही में डूबा हुआ बड़ा
ऊँटगाड़ी - ऊँट से चलने वाली गाड़ी
पवनचक्की - पवन से चलने वाली चक्की आदि।
नञ तत्पुरुष समास (Nav samas in hindi)
इसमें पहला पद निषेधात्मक होता है उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं।
नञ तत्पुरुष समास के उदाहरण (Nav
tatpurush samas ke udaharn):
असभ्य =न सभ्य

3- कर्मधारय समास

इस समास में पूर्व पद तथा उत्तर पद के मध्य में विशेषण-विशेष्य का संबंध होता है।
पूर्व पद गौण तथा उत्तर पद प्रधान होता है।
चंद्रमुख (चंद्र जैसा मुख) कमलनयन (कमल के समान नयन)
देहलता (देह रूपी लता) महादेव ( महान देव/
नीलकमल (नीला कमल)पीतांबर (पीला अंबर (वस्त्र))
सज्जन( सत् (अच्छा) जन )नरसिंह( नरों में सिंह के समान)
कर्मधारय समास के भेद (Karmdharay
samas ke bhed)
1. विशेषणपूर्वपद कर्मधारय समास
2. विशेष्यपूर्वपद कर्मधारय समास
3. विशेषणोंभयपद कर्मधारय समास
4. विशेष्योभयपद कर्मधारय समास

4-द्विगु समास

यह कर्मधारय समास का उपभेद होता है। इस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण होता है तथा समस्त पद किसी समूह को बोध होता है।
समस्त पद = समास-विग्रह । समस्त पद= समास-विग्रह
नवग्रह नौ= ग्रहों का समूह। दोपहर= दो पहरों का समाहार
त्रिलोक =तीन लोकों का समाहार ।चौमासा= चार मासों का समूह
नवरात्र =नौ रात्रियों का समूह। शताब्दी=सौ अब्दो (वर्षों) का समूह
अठन्नी आठ= आनों का समूह। त्रयम्बकेश्वर= तीन लोकों का ईश्वर
द्विगु समास के भेद (Dvigu samas ke
bhed)
1. समाहारद्विगु समास
2. उत्तरपदप्रधानद्विगु समास
समाहारद्विगु समास (Samahar dvigu
samas)
समाहार का मतलब होता है समुदाय, इकट्ठा होना, समेटना उसे समाहारद्विगु समास कहते हैं। जैसे :
तीन लोकों का समाहार = त्रिलोक
पाँचों वटों का समाहार =पंचवटी
तीन भुवनों का समाहार = त्रिभुवन
उत्तरपदप्रधानद्विगु समास (Uttar-pad-
pradhan dvigu samas)
उत्तरपदप्रधानद्विगु समास दो प्रकार के होते हैं।
1. बेटा या फिर उत्पन्न के अर्थ में। जैसे :-
दो माँ का = दुमाता
दो सूतों के मेल का =दुसूती।
2. जहाँ पर सच में उत्तरपद पर जोर दिया जाता है। जैसे 
पांच प्रमाण = पंचप्रमाण
पांच हत्थड = पंचहत्थड

5-द्वन्द्व समास

इस समास के दोनों पद प्रधान होते हैं एवं एक दूसरे के विलोम होते हैं। तथा विग्रह करने पर योजक या समुच्चय बोधक शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे- माता-पिता, भाई-बहन, राजा-रानी, दु:ख-सुख, दिन-रात, राजा-प्रजा।
"और" का प्रयोग समान प्रकृति के पदों के मध्य तथा "या" का प्रयोग विपरीत प्रकृति के पदों के मध्य किया जाता है। उदाहरण: माता-पिता = माता और पिता (समान प्रकृति) गाय-भैंस = गाय और भैंस (समान प्रकृति) धर्माधर्म = धर्म या अधर्म (विपरीत प्रकृति) सुरासुर = सुर या असुर (विपरीत प्रकृति)
द्वन्द्व समास के तीन भेद होते हैं-(1) इतरेतर द्वन्द्व, (2)समाहार द्वन्द्व, (3)वैकल्पिक द्वन्द्व

6-बहुव्रीहि समास

जिस समास के दोनों पद अप्रधान हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त कोई सांकेतिक अर्थ प्रधान हो उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। जैसे:
समस्त पद   =समास-विग्रह
दशानन    = दश है आनन (मुख) जिसके अर्थात् रावण
नीलकंठ    = नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव
सुलोचना   = सुंदर है लोचन जिसके अर्थात् मेघनाद की पत्नी
पीतांबर =पीला है अम्बर (वस्त्र) जिसका अर्थात् श्रीकृष्ण
लंबोदर। = लंबा है उदर (पेट) जिसका अर्थात् गणेशजी
दुरात्मा = बुरी आत्मा वाला ( दुष्ट)
श्वेतांबर   =श्वेत है जिसके अंबर (वस्त्र) अर्थात् सरस्वती

प्रयोग की दृष्टि से समास के भेद-

1. संयोगमूलक समास
2. आश्रयमूलक समास
3. वर्णनमूलक समास

पदों की प्रधानता के आधार पर वर्गीकरण-

1. पूर्वपद प्रधान - अव्ययीभाव
2. उत्तरपद प्रधान - तत्पुरुष, कर्मधारय, द्विगु
3. दोनों पद प्रधान - द्वंद्व
4. दोनों पद अप्रधान - बहुव्रीहि (इसमें कोई तीसरा अर्थ
प्रधान होता है)

पूर्वपद और उत्तरपद - Pre and
Post Compound

समास रचना में दो पद होते हैं, पहले पद को 'पूर्वपद' कहा जाता है और दूसरे पद को'उत्तरपद'कहा जाता है। इन दोनों से जो नया शब्द बनता है वो समस्त पद कहलाता है। जैसे-
पूजाघर (समस्तपद) पूजा (पूर्वपद) + घर
(उत्तरपद)
पूजा के लिए घर (समास - विग्रह )
राजपुत्र (समस्तपद) - राजा (पूर्वपद) + पुत्र ( उत्तरपद) -
राजा का पुत्र (समास - विग्रह )

समास विग्रह - Compound
words in Hindi

सामासिक शब्दों के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट करने को समास विग्रह कहते हैं। विग्रह के बाद सामासिक शब्द गायब हो जाते हैं अथार्त जब समस्त पद के सभी पद अलग-अलग किय जाते हैं, उसे समास - विग्रह कहते हैं।
जैसे:-
माता-पिता= माता और पिता ।
राजपुत्र = राजा का पुत्र ।

'समसनम्' इति समास:। इस प्रकार 'समास' शब्द का अर्थ है— संक्षेपण।
अर्थात् दो या दो से अधिक पदों में प्रयुक्त विभक्तियों, समुच्चय 'बोधक 'च' आदि को हटाकर एक पद बनाना । यथा — गायने कुशला = गायनकुशला। इसी तरह राज्ञ: पुरुष: = राजपुरुष: पदों में विभक्ति-लोप,
सीता च रामश्च =सीतारामौ में
समुच्चय बोधक 'च' का लोप हुआ है। इसी प्रकार विद्या एव धनं यस्य स:=विद्याधन: पद में कुछ पदों का लोप कर संक्षेपण क्रिया द्वारा गायनकुशला,
राजपुरुष:, सीतारामौ तथा विद्याधन: पद बनाए गए हैं।
कहीं-कहीं पदों के बीच की विभक्ति का लोप नहीं भी होता है।यथा— खेचरः, युधिष्ठिर:, वनेचर: आदि। ऐसे समासों को अलुक् समास कहते हैं। पदों की प्रधानता के आधार पर समास के मुख्यत: चार भेद होते हैं—
(1) अव्ययीभाव (2) तत्पुरुष (3) द्वन्द्व तथा (4) बहुव्रीहि। तत्पुरुष के दो उपभेद भी हैं— कर्मधारय एवं द्विगु । इस प्रकार सामान्य रूप से समास के छ: भेद हैं।

एकशेष

जहाँ अन्य पदों का लोप होकर एक ही पद शेष बचे, वहाँ एकशेष होता है। यह समास से भिन्न वृत्ति है।
उदाहरण – बालकश्च बालकश्च बालकश्च = बालकाः ।
एकशेष में पुँल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग पदों में से पुंल्लिङ्ग पद ही शेष रहता है।
यथा-माता च पिता च = पितरौ
दुहिता च पुत्रश्च = पुत्रौ

कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर

कर्मधारय में समस्त-पद का एक पद दूसरे का विशेषण होता है। इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है।
जैसे: नीलकंठ = नीला कंठ।
बहुव्रीहि में समस्त पद के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का संबंध नहीं होता अपितु वह समस्त पद ही किसी अन्य संज्ञा का विशेषण होता है। इसके साथ ही शब्दार्थ गौण होता है और कोई भिन्नार्थ ही प्रधान हो जाता है।
जैसे: नीलकंठ = नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव।

बहुब्रीहि व द्विगु समास में अंतर

द्विगु समास में पहला पद संख्यावाचक होता है और समस्त पद समूह का बोध कराता है लेकिन बहुब्रीहि समास में पहला पद संख्यावाचक होने पर भी समस्त पद से समूह का बोध न होकर अन्य अर्थ का बोध कराता है। जैसे- चौराहा अर्थात चार राहों का समूह (द्विगु समास), चतुर्भुज- चार हैं भुजाएँ जिसके (विष्णु) अन्यार्थ (बहुब्रीहि समास)

संधि और समास में अंतर

संधि में वर्णों का मेल होता है। इसमें विभक्ति या शब्द का लोप नहीं होता है। जैसे: देव + आलय = देवालय।
समास में दो पदों का मेल होता है। समास होने पर विभक्ति या शब्दों का लोप भी हो जाता है।
जैसे: विद्यालय = विद्या के लिए आलय।
समास-व्यास से विषय का प्रतिपादन
यदि आपको लगता है कि सन्देश लम्बा हो गया है (जैसे, कोई एक पृष्ठ से अधिक), तो अच्छा होगा कि आप समास और व्यास दोनों में ही अपने विषय-वस्तु का प्रतिपादन करें अर्थात् जैसे किसी शोध लेख का प्रस्तुतीकरण आरम्भ में एक सारांश के साथ किया जाता है, वैसे ही आप भी कर सकते हैं। इसके बारे में कुछ प्राचीन उद्धरण भी दिए जा रहे हैं।
विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत्।
इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ॥ (महाभारत )
अर्थात् महर्षि ने इस महान ज्ञान (महाभारत) का संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकार से वर्णन किया है, क्योंकि इस लोक में विद्वज्जन किसी भी विषय पर समास (संक्षेप) और व्यास (विस्तार) दोनों ही रीतियाँ पसन्द करते हैं।
ते वै खल्वपि विधयः सुपरिगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपंचश्च।
केवलं लक्षणं केवलः प्रपंचो वा न तथा कारकं भवति॥ (व्याकरण-महाभाष्य )
अर्थात् वे विधियाँ सरलता से समझ में आती हैं जिनका लक्षण (संक्षेप से निर्देश) और प्रपंच (विस्तार) से विधान होता है। केवल लक्षण या केवल प्रपंच उतना प्रभावकारी नहीं होता।
संस्कृत में समासों का बहुत प्रयोग होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी समास उपयोग होता है। समास के बारे में संस्कृत में एक सूक्ति प्रसिद्ध है:

द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।
तत् पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥

 समास के बारे में विशेष  यहां से

द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥ [1]
इसमें छहों समासों का वर्णन है। क्रम निम्नवत है
द्वंद: दोनों पद प्रधान जैसे राधाकृष्ण , ऊंच नीच
द्विगु : पूर्व पद संख्यावाचक जैसे चतुर्युग , त्रिलोक
अव्ययीभावः पूर्व पद प्रधान एवं अव्यय उत्तर पद संज्ञा (या अनव्यय ) - परंतु समस्त पद अव्यय - जिसका रूप अपरिवर्तित होता है। पाणिनि ले अनुसार ये 16 प्रकार के होते हैं। [2] जैसे उपनगर , अध्यात्म , अनुरूप
तत्पुरुष:जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे - तुलसीदासकृत = तुलसी द्वारा कृत (रचित), गंगाजल । यह नञ समास सहित 7 प्रकार के होते हैं। [3]
कर्मधारय:जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद व उत्तरपद में विशेषण-विशेष्य अथवा उपमान-उपमेय का संबंध हो वह कर्मधारय समास कहलाता है। जैसे नीलकमल , चंद्रमुखी।
बहुव्रीहिः जिसके दोनों पद गौण हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त तीसरा सांकेतिक अर्थ प्रधान हो जाए जैसे - नीलकंठ (अर्थ - शंकर, लंबोदर अर्थ - गणेश )
द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥
का अर्थ इसका व्यंग्य अर्थ ऐसा है--‘मैं घर में द्वन्द्व (दो प्राणी, स्त्री-पुरुष) हूँ । द्विगु हूँ (दो बैल मेरे पास हैं ) । मेरे घर में नित्य अव्ययी-भाव रहता है (खरचा नहीं चलता ) । तत्पुरुष (इसलिए हे पुरुष महाशय) कर्मधारय (ऐसा काम करो) जिससे मैं बहुव्रीहि (अधिक अन्नवाला) हो जाऊँ ।’ 
विशेष यहां तक है।
।।धन्यवाद।।

















सोमवार, 27 मई 2024

।।ठाकुर श्री राम का अवतरण नवमी को ही क्यों।।

।।ठाकुर श्री राम का अवतरण नवमी को ही क्यों।।
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
ठाकुर श्री राम का अवतरण नवमी को ही क्यों जानते है इसके पीछे की अद्भुतरहस्यमयी कथा 
- एक बार साकेताधीश श्री विष्णुजी(श्रीरामजी)
करुणामयी माता लक्ष्मी के( श्रीसीताजीके) साथ विराजमान थे । उसी समय एक दीन-हीन देवी आ गयी। प्रभुने पूछा- तुम कौन हो ? उसने कहा- हे स्वामिन्! मैं
नवमी तिथिकी अधिष्ठातृ देवी हूँ। प्रभुने पूछा- कैसे आयी हो ? उसने कहा- हे सर्वान्तर्यामिन्! हे करुणासागर! हे अनाथनाथ ! मेरी बड़ी दुर्दशा है। लोग रिक्ता कहकर मेरा अपमान करते हैं। मैं यात्रा आदि प्रशस्त कार्योंमें हटा दी जाती हूँ। प्रभुने पूछा- क्या तुम वास्तवमें रिक्ता हो ? उसने कहा- हे दयामय ! सच कहनेसे डर लग रहा है,
कहीं आपके दरबारसे भी न निकाल दी जाऊँ; वास्तवमें मैं रिक्ता ही हूँ। मेरे पास कोई आता नहीं और मुझे कोई पूछता भी नहीं, निषेध- प्रतिषेध सभी करते हैं। प्रभु मन्द मन्द मुसकरा पड़े और उसे आश्वस्त करते हुए बोले - हे
नवमी देवि ! चिन्ता मत करो अब तुम ठीक जगह आ गयी हो, यहाँसे निकाले जानेका भय नहीं है। यहाँ जो निष्कपट भावसे दीन होकर आता है उसे निकाला नहीं जाता अपितु अपनाया जाता है। जिसके पास कोई नहीं जाता है, जिसके पास कोई जानेकी इच्छा भी नहीं करता है उसके पास मैं जाता हूँ। जिसे कोई नहीं पूछता है उसे
मैं पूछता हूँ। जिसे कोई नहीं अपनाता, जिसे सब भगा देते हैं, जिसका सब अपमान करते हैं, उसे मैं अपनाता हूँ—अपने हृदयसे लगा लेता हूँ। करुणामय श्रीरघुनाथजीने श्रीकिशोरीजीकी ओर अर्थपूर्ण दृष्टिसे निहारा । नित्यकिशोरी श्रीसीताजीने नेत्रोंकी भाषामें उत्तर दे दिया। दोनों ठाकुरने- प्रिया-प्रियतमने सम्मिलित घोषणा कर दी - हे नवमि ! जो रिक्ता है वही हम दोनोंको भाता है, जो समस्त आश्रयसे रिक्त है, कामनाओंसे रिक्त है, कपटसे रिक्त है और छल छिद्रसे रिक्त है, वही हम दोनोंको प्यारा है। हे रिक्ते ! हम रिक्तमें ही निवास करते हैं। जो आकण्ठ कपट-छलसे परिपूर्ण है उससे हम दूर रहते हैं । तुम रिक्ता हो अतः मेरा आविर्भाव तुम्हींमें होगा। मैं नवमी
तिथिमें ही जन्म लूँगा । श्रीकिशोरीजीने कहा- मेरे नाथ! जिसे आपने अपना लिया है उसी नवमीमें मैं भी जन्म लूँगी। दोनों ठाकुरका जन्म रिक्ता तिथिमें — नवमीमें ही होता है। श्रीरामनवमी और श्रीजानकीनवमी । नवमी निहाल हो गयी। अब कौन कहेगा मुझे रिक्ता ? कहते हैं तो कहें, मैं तो आज भर गयी हूँ- परिपूर्ण हो गयी हूँ। मैं तो पूर्णासे भी अपनेको सौभाग्यशालिनी मानती हूँ ।
श्रीराम-सीताने मुझे स्वीकार कर लिया है। मैं उनके नामसे जुड़ गयी हूँ । निहाल हो गयी नवमी । ठाकुरजी आ गये नवमी तिथि में । भगवान्‌का जन्म नक्षत्र 'पुनर्वसु ' है । भगवान्‌का एक नाम भी पुनर्वसु है ।
'अनघो विजयो जेता विश्वयोनिर्पुनवसुः '
पुनर्वसुका यह अर्थ है 'पुनः पुनः शरीरेषु वसतीति
पुनर्वसुः श्रीहरिः । पुनर्वसुका यह भी अर्थ है कि जो लोगोंको पुनः बसावे - उजड़े हुयेको बसावे, अनाथको सनाथ करे, मेरे श्रीरामजीमें यह सब गुण सहज ही विद्यमान हैं। इस प्रकार योग, वार, लग्न, तिथि, नक्षत्र
सब मङ्गलमय हो गये  तब ठाकुर का अवतार हुवा।
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥
।।जय राम नवमी जय जानकी नवमी।।

✓।।श्रीसीताजी द्वारा जयमाल पहनाने में देरी का कारण।।

।।श्री किशोरीसीताजी  द्वारा जयमाल पहनाने में देरी का कारण।।
श्रीसीताजीकी चतुर सखियोंने नेत्रोंकी भाषा में समझाकर कहा - हे किशोरीजू ! आप यह सुहावनी जयमाला अपने प्रियतमको पहना दो ।
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई ।
पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥
सखियोंकी बात सुनकर राजकिशोरी श्रीसीताने दोनों हाथोंसे माला उठायी; परन्तु
प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।
श्रीसीताजीने सोचा - माला पहनानेके पश्चात् सखियाँ कहेंगी कि अब चलो, तो इतने सन्निकटसे जो परम प्रियतमकी मङ्गलमयी छविका दर्शन हो रहा है वह समाप्त हो जायगा अतः
'प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।'
अथवा श्रीसीताजीने अपने जीवनधन श्रीरामजीसे मान कर लिया। मूक भाषामें - नेत्रोंकी भाषामें कहा - हे स्वामिन्! आपने धनुष तोड़नेके लिये अति विलम्ब किया, किसी प्रकार उठे भी तो बहुत धीरे-धीरे झूमते हुये चलकर धनुषके पास आये। उस समय धनुष तोड़नेके लिये उठना और चलना तो आपके आधीन था। आप स्वतन्त्र थे, उसमें आपने विलम्ब किया। अब जयमाला पहनाना मेरे हाथमें है, इसलिए अब आप भी किञ्चित् प्रतीक्षा करो। अतः
प्रेमबिबस पहिराइ न जाई। अथवा 
जिस भाँति मुझको ललचना पड़ा है आज
उसी भाँति अब आपको भी ललचाऊँगी।
जैसा था गुमान आपको कमान खींचनमें,
वैसी ही सुजान ! स्वाभिमानता दिखाऊँगी ॥
अधिक बिलम्ब से उठी थी जो विरह ज्वाल,
शीतल सनेह विन्दु से उसे बुझाऊँगी ।
नाथ तरसाया चाप तोड़नेमें आपने तो
मैं भी जयमाल छोड़ने में तरसाऊँगी ॥ इं
अथवा
किं वा - श्रीसीताजी छोटी हैं और श्रीरामजी लम्बे हैं । श्रीरामजीके झुके बिना माला कैसे पहनायी जाय ? इधर प्रभु कहते हैं कि मैं तो नहीं झुकूँगा। सखियोंके सामने बड़ी समस्या है। सखियोंने युक्ति निकाली - गीत गाना आरम्भ कर दिया। वह गीत भी रटा हुआ नहीं था अपितु परम सुन्दर श्रीरामजीकी छविको देखकर गीतकी रचना कर
रही थीं और उसी सद्यः रचित गीतको गा रही थीं । जैसा कि गोस्वामीजी ने लिखा ही है
'गावहिं छबि अवलोकि' 
एक-एक अङ्गका वर्णनकरती हैं- हे रघुनन्दन ! आप परम सुन्दर हैं। आपका वक्षःस्थल विशाल है, जानुपर्यन्त लम्बिनी आपकी भुजायें हैं, आपका समुन्नत ललाट है,
विद्रुमकी भाँति आपके लाल लाल ओष्ठ हैं, तोतेकी
तरह आपकी नासिका है, आपके नेत्र कमलकी तरह स्निग्ध और विशाल हैं और आपका श्रीविग्रह इतना लम्बा है कि हमारी किशोरी सरकारके हाथ जयमाला पहनानेके लिये नहीं पहुँच रहे हैं। अतः श्रीचरणोंमें प्रार्थनापूर्वक विनम्र निवेदन है कि आप थोड़ा-सा झुककर जयमाला धारण कर लो। यह  उपाय भी व्यर्थ हो गया, सरकार नहीं झुके । तब सखियोंने कहा—हे रघुनन्दन ! आप सुन्दर हैं,कामाभिराम हैं, लोकाभिराम हैं। आपने हमारे नगरके समग्र नर नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे मुग्ध कर लिया है, अपने वशमें कर लिया है; परन्तु हे सरकार ! अब अपने सौन्दर्यपर अधिक गर्व न करो। आपसे सुन्दर तो हमारी श्रीकिशोरीजी हैं। आप तनिक अपना रूप देखो तो सही । कहाँ देखूँ ? सखियोंने कहा- सरकार यह विदेहनगर है, यहाँका सब कुछ विलक्षण है। आप अपना
रूप हमारी किशोरी सरकारकी परछाहींमें देखिये ।
प्रभुने सोचा - परिछाहीमें कैसे रूप दीखता होगा ।
सखियोंने फिर कहा कि हे सरकार ! आप आश्चर्य न करें, तनिक परिछाहीपर दृष्टि डालें ।
गरब करहु रघुनंदन जनि मन माँह ।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाँह ॥
( श्रीबरवै रामायण १७ )
सखियोंने गीतके चक्कर में परब्रह्मको डाल दिया । प्रभुने अपना स्वरूप देखनेके लिये जब परछाहींमें ध्यान देने के लिये मस्तक झुकाया, उसी समय सिय जयमाल राम उर मेली ।
किं वा सखियों ने - गीत गाकर श्रीकिशोरीजीसे कहा- श्रीरामजीके गलेमें माला पहनाओ, सुनकर श्रीकिशोरीजीने रामजीके गलेमें माला डाल दी।
गावहिं छबि अवलोकि सहेली ।
सियँ जयमाल राम उर मेली ॥
भगवती भास्वती श्री मिथलेशनन्दिनीने विजयश्री संवलित जयमाला पहना दी। श्रीराघवेन्द्र सरकारके हृदयमें विराजमान जयमालाको देखकर देवता नन्दनकाननके पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। जनकनगर और आकाशमें दुन्दुभि ध्वनि होने लगी । देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीन्द्र जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं । अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। बार-बार पुष्पाञ्जलि हो रही है । यत्र-तत्र ब्राह्मणलोग वेदध्वनि कर रहे हैं । बन्दी यशका वर्णन कर रहे हैं।
रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन ।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥
।।जय श्री राम जय हनुमान।।