मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

,✓मानस चर्चा ।।निमी की पलको पर निवास की कथा।।

,✓मानस चर्चा ।।निमी  की पलको पर निवास की कथा।।
अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा । सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ॥ भये बिलोचन चारु अचंचल । मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥श्रीसीताजीके मुखचन्द्रपर ( श्रीरामजीके)नेत्र चकोर हो गये। अर्थात् उनके मुखचन्द्रको टकटकी लगाये देखते रह गये ॥ सुन्दर दोनों नेत्र स्थिरहो गये, मानो निमिमहाराजने संकोचवश हो पलकों परके निवासको छोड़ दिया ।'फिरि चितये तेहि ओरा' । 'फिरि चितये'अर्थात् फिरकर देखा – इस कथनसे पाया गया कि सखी पीछेसे आयी । श्रीरामजी लताकी ओटमें हैं, इसीसेश्रीसीताजीने श्रीरामजीको नहीं देखा और श्रीरामजीने सीताजीको देख लिया । चन्द्र चकोरको नहीं देखता, चकोर ही चन्द्रको देखता है।  'सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ' । 'भये चकोरा' अर्थात् चकोरकी तरह एकटक देखते रह गये । यथा - 'एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुखचंद्र चकोरा ॥ ' यही बात आगे कहते हैं- 'भये बिलोचन चारु अचंचल'। चकोर पूर्णचन्द्रपर लुब्ध रहता है, यथा- 'भये मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥' नेत्रोंको चकोर कहकर जनाया कि नेत्र शोभापर लुभा गये ।'सिय मुख' को पूर्णचन्द्र कहनेका भाव कि श्रीकिशोरीजीके नेत्र और मुखकी ज्योति पूर्ववत्
जैसी-की-तैसी ही बनी रही और श्रीरामजीमें सात्त्विक भाव हो आया। अतएव ये ही आसक्त हुए, जैसे
चकोर चन्द्रमापर आसक्त होता है, चन्द्रमा चकोरपर नहीं । 
श्रीरघुनाथजीके नेत्र  श्रीसीताजीकी छबिपर
अचंचल हो गये; इससे यहाँ कोई कारण विशेष जान पड़ता है। कारण क्या है?मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल' 
। निमि राजाका वास सबकी पलकोंपर है। श्रीसीताजी
निमि कुलकी कन्या हैं और श्रीरामजी उनके पति हैं। लड़का-लड़की (दामाद और कन्या) दोनों वाटिकामें एकत्र हुए, इसीसे मानो राजा निमि सकुचाकर पलकोंको छोड़कर चले गये कि अब यहाँ रहना उचित नहीं। पलक छोड़कर चले गये, इससे पलक खुले रह गये।  निमि यह सोचकर चले गये कि यहाँ हमारे रहनेसे इनको संकोच
होगा, जिससे इनके उपस्थित कार्यमें विघ्न होगा। अपनी संतानका शृंगार कुतूहल देखना मना है। पलकोंपर वास रहनेसे उनका खुलना और बंद होना अपने अधिकारमें था। जब वास हट गया तब तो वे खुले ही रह गये। आइए हम निमी महाराज के पलको पर वास करने की कथा का भी आनंद ले। कथा इस प्रकार है।
मनुजीके पुत्र इक्ष्वाकुजीके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड तीन पुत्र प्रधान हुए । इस तरह राजा निमि भी रघुवंशी थे । सत्योपाख्यानमें भी यही कहा है।महर्षि गौतमके आश्रमके समीप वैजयन्तनामका नगर बसाकर ये वहाँका राज्य करते थे । निमिने एक सहस्र वर्षमें समाप्त होनेवाले एक यज्ञका आरम्भ किया और उसमें वसिष्ठजीको होताअर्थात् ऋत्विज्के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञके लिये इन्द्रने मुझे पहले ही वरण कर लिया है। अतः इतने समय तुम ठहर जाओ । राजाने कुछ उत्तर नहीं दिया, इससे वसिष्ठजीने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है, इन्द्रका यज्ञ आरम्भ कर दिया, इधर राजा निमिने भी उसी समय महर्षि गौतमादि अन्य होताओं द्वारा यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही 'मुझे निमिका यज्ञ कराना है' इस विचारसे वसिष्ठजी तुरंत ही आ गये। राजा उस समय सो रहे थे । यज्ञमें अपने स्थानपर गौतमको होताका कर्म करते देख वसिष्ठजीने सोते
हुए राजाको शाप दिया कि 'इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्मका भार गौतमको सौंपा है, इसलिये
यह देहहीन हो जाय।श्रीमद्भागवतमें शापके वचन ये हैं— 'निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमण्ड है, इसलिये इसका शरीर पात हो जाय । 
वसिष्ठजीने शाप दिया है, यह जानकर राजा निमिने भी उनको शाप दिया कि इस दुष्ट गुरुने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुएको शाप दिया है, इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा। इस प्रकार शाप देकर राजाने अपना शरीर छोड़ दिया। श्रीमद्भागवतमें
शुकदेवजीने कहा है कि निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका शाप धर्मके प्रतिकूल था, इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि 'आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी पात हो जाय - अब  महर्षि गौतम आदिने निमिके शरीरको तेल आदिमें रखकर उसे यज्ञकी समाप्तितक सुरक्षित रखा । यज्ञकी समाप्तिपर जब देवता लोग अपना भाग ग्रहण करनेके लिये आये तब ऋत्विजोंने कहा कि यजमानको वर दीजिये । देवताओंके पूछनेपर
कि क्या वर चाहते हो, निमिने सूक्ष्म शरीरके द्वारा कहा कि देह धारण करनेपर उससे वियोग होनेमें बहुत दुःख होता है, इसलिये मैं देह नहीं चाहता। समस्त प्राणियोंके लोचनोंपर हमारा निवास हो । देवताओंने यही
वर दिया। तभी से लोगोंकी पलकें गिरने लगीं। 
देवताओंने आशीर्वाद दिया कि राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंपर अपनी इच्छाके अनुसार
निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके
अस्तित्वका पता चलता रहेगा ।  उसी समयसे पलकोंका नाम निमेष हुआ। इस कुल में उत्पन्न राजा इसी समयसे रघुकुल से पृथक हो गए और वैजयन्त का नाम मिथिला पड़ा।निमी महाराज की विस्तृत कथा आप हमारे मिथिलेश/मिथिलापति की कथा को देखकर/सुनकर
अवश्य जाने और समझे।आप सब पर सदा प्रभु कृपा बनी रहे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


✓मानस चर्चा।।सर्वस्व दान के बाद भी सर्वस्व अपना।।

मानस चर्चा।।सर्वस्व दान के  बाद भी सर्वस्व अपना।। 
सर्बस दान दीन्ह सब काहूँ । जेहिं पावा राखा नहिं ताहूँ ॥ 
- सबने सर्वस्वदान दिया, जिसने पाया उसने भी नहीं रखा। इस भाँति सम्पत्तिका हेर-फेर अवध में हो गया। किसी समय सोमवती अमावस्या लगी, सब मुनियोंकी इच्छा हुई कि गोदान करें। मुनि सौ थे और एक ही के पास गौ थी। जिसके पास गौ थी उसने किसीको दान दिया, उसने भी दान कर दिया । इस भाँति वह गौ दान होती
गयी । अन्तमें फिर वह उसी मुनिके पास पहुँच गयी जिसकी पहले थी और गोदानका फल सबको हो गया। लालच किसीको नहीं और देनेकी इच्छा सबको। ऐसी अवस्थामें सम्पत्ति घूम-फिरकर जहाँ-की-तहाँ आ जाती है
और सर्वस्व दान के  बाद भी सर्वस्व अपना ही रहता है।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

✓आज एकादशी है

आज एकादशी है
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भगवान राम सुग्रीवजी से कहते हैं  कि जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। अर्थात् सरल मन मनुष्य ही मुझे पाता है। इस संदर्भ में मुझे एक सच्चे भक्त की कहानी, श्री राजेश्वरानंदजी रामायणी के  द्वारा कही हुई याद आ रही है,इस कथा में  भगवान की बड़ी विलक्षण महिमा है,
असल में भगवान का मिलना उतना कठिन नहीं है, जितना व्यक्ति का निर्मल  होना,सरल होना ।सुंदर सरल स्वभाव सबसे कठिन है, इतना सरल की सरलता से विश्वास कर ले ।आइए हम आदरणीय गुरु श्रेष्ठ राजेश्वरानंदजी रामायणी  की इस कथा का आनंद लेते हैं और निर्मल मन जन सो मोहि पावा को , सरल के अर्थ एवं भाव दोनों के साथ  हृदयंगम  करते हैं।
एक व्यक्ति था खाता खूब था और काम कुछ ना करे, कैसे
करें इतना ज्यादा खा लेता कि जहां खाए वही लुढ़क जाए,घर वाले परेशान  हो गए । एक दिन घर वालों ने कहा जाओ घर से ,निकल जाओ खाते दो-तीन शेर हो और काम कुछ नहीं करते, तो वह भक्त निकल गया घर से ,बिचारा अब जाए कहां तो एक महात्मा दिखे मंदिर के बाहर, महात्मा बढ़िया मोटे ताजे तंदुरुस्त थे सोचा ए खूब खाते होंगे तभी तो बढ़िया हैं वह महात्मा जी के पास आया तब तक महात्मा जी के दो चार शिष्य और आ गए वह भी बढ़िया हट्टे कट्टे थे, अब तो यह सरल भक्त गदगद हो गया | महात्मा जी के चरणों में गिर गया कहा गुरु जी मुझे अपना चेला बना लीजिए महात्मा ने कहा ठीक है बन जाओ तुम भी, यही रहो भजन करो भक्त ने कहा गुरु जी भोजन महात्मा जी ने कहा हां भोजन वह तो बढ़िया दोनों टाइम पंगत में बैठकर पावो प्रेम से । भक्त ने कहा गुरु जी दो टाइम बस, महात्मा जी ने कहा अरे भाई चार टाइम पंगत  चलती है, तुम चारों में बैठ कर खाओ कोई दिक्कत नहीं है । भक्त ने कहा गुरु जी काम क्या करना पड़ेगा ? गुरुजी मुस्कुराए बोले बेटा केवल भगवान की आरती पूजा पाठ में शाम सुबह खड़े रहना है और कोई काम नहीं है ।
अब तो भक्त प्रसन्न हो गया कि काम कुछ करना नहीं और
खाना पेट भर,खाने  लगा ,रहने लगा अब उसे क्या पता कि मुसीबत यहां भी आ पड़ेगी ।
एक दिन मंदिर में सुबह से चूल्हे आदि कुछ नहीं सुलगे,
भंडारे में सब बर्तन ऐसे ही पड़े हुए हैं, वह सीधा भक्त,अब तो घबरा गया,  सीधे महात्माजी के पास पहुंचा कहा गुरु जी क्या बात है- आज भंडार में कुछ नहीं बन रहा ?
तो महात्मा जी ने कहा हां तुम्हें नहीं पता क्या ?आज
एकादशी है और इस दिन मंदिर में कुछ नहीं बनता सब
निर्जला व्रत रहते हैं, भक्त ने कहा गुरु जी मैं भी रहूं! महात्मा ने कहा वह तो सबको रहना पड़ेगा क्योंकि ना कुछ बनेगा और ना मिलेगा |
भक्त ने कहा गुरु जी अगर आज हमने एकादशी का व्रत कर लिया तो कल हम द्वादशी देख ही नहीं पाएंगे, आपके इतने चेले हैं उनसे कराओ एकादशी | महात्मा जी भी उदार व्यक्ति थे उन्हें दया आ गई, कहने लगे बेटा यहां मंदिर में तो कुछ बनेगा नहीं हां तुम कच्चा सीधा लेकर नदी के किनारे पेड़ के नीचे बना कर खा लो, बना लो
लोगे, आता है भोजन बनाना ।भक्त ने कहा मरता क्या न करता, बना लेगें । महात्मा जी ने कहा जाओ भंडार में से सामान ले लो उसने ढाई सेर आटा,नमक ,आलू सब बांधा और जाने लगा, गुरु जी ने कहा बेटा अब तुम वैष्णव हो गए हो, भगवान को बिना भोग लगाए मत खाना।वह वहां पहुंचकर नदी से जल भर लाया और जैसे ही भोजन बना उसे गुरु जी की बात याद आ गई ,बिना भगवान को भोग लगाए मत खाना, बिचारा सच्चा सरल भक्त ।बुलाने लगा प्रभु को --
राजा राम आइए प्रभु राम आइए, मेरे भोजन का भोग
लगाइए।
नहीं आए भगवान ! फिर भक्त कहने लगा--
आचमनी अरघा ना आरती यहां यही मेहमानी।
सूखी रोटी पावो प्रेम से पियो नदी का पानी । फिर वही धुन शुरू किया
राजा राम आइए, प्रभु राम आइए, मेरे भोजन का, भोग
लगाइए ।
लेकिन भगवान  फिर भी नहीं आए !  तब वह बोला-
पूरी और पकौड़ी भगवन सेवक ने नही बनाई।
और मिठाई तो है ही नहीं, फिर भी भोग लगाओ  भाई।
इतने पर भी जब प्रभु ना आए तो वह सच्चा सरल भक्त, एक ऐसी बात बोल दी कि ठाकुर जी प्रसन्न हो गए, उसने कहा-मैं समझ गया भगवान आप क्यों नहीं आ रहे हैं ।
आप सोच रहे होंगे कि यह रुखा सुखा भोजन और नदी का पानी कौन पिए, मंदिर में छप्पन भोग मिलेगा तो इस धोखे में मत रहना प्रभु, वहां से तो जान बचाकर हम ही आए हैं। ध्यान रखना - भूल करोगे यदि तज दोगे भोजन रूखे सूखे। एकादशी आज मंदिर में बैठे रहोगे भूखे ।
राजा राम आइए प्रभु राम आइए मेरे भोजन का भोग
लगाइए ।
इस सरलता से भगवान प्रकट हो गए और वह भी बड़े
कौतुकी अकेले नहीं आए ।
सीता समारोपित वाम भागम ।
सीता जी के साथ प्रकट हुए अब तो भक्त हैरान, दो भगवान को देखकर एक बार उनकी तरफ देखता तो दूसरी तरफ रोटियों की तरफ, भगवान श्रीराम मुस्कुराए बोले क्या हुआ ? भक्त ने कहा कुछ नहीं प्रभु आइए आप आसन ग्रहण कीजिए, आप आज हमारी थोड़ी बहुत तो एकादशी करा ही दोगे,प्रेम से प्रभु को प्रसाद खिलाया स्वयं पाया और बार-बार प्रभु को  प्रणाम करे और कहे भगवान आप लगते बड़े सुंदर हो लेकिन बुलाने पर जल्दी आ जाया करो देरी मत किया करो |
प्रभु ने कहा ठीक है ।अब प्रभु अंतर्ध्यान हो गए, यहां जब
दूसरी एकादशी आई भक्त ने कहा गुरु जी वहां तो दो
भगवान आते हैं, इतने सीधा में काम नहीं बनेगा और बढ़वा दो गुरुजी ने सोचा बिचारा भूखा रहा होगा उस बार और बढ़वा दिया आज तीन सेर आटा ,नमक, आलू  आदि लिया ,जंगल में प्रसाद बना, भक्त ने पुकारा ।
प्रभु राम आइए, सीता राम आइए, मेरे भोजन का भोग
लगाइए ।
जो भक्त ने पुकारा भगवान तुरंत प्रकट हो गए जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे लेकिन--
राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर ।
भगवान श्री राम सीता और लक्ष्मण प्रकट हुए, जो इसने
देखा तीनों को प्रणाम तो कर लिया, लेकिन फिर देखे रोटी
की तरफ फिर इनकी तरफ, फिर माथा में हाथ रखा ।
भगवान ने कहा क्या हुआ ? भक्त ने कहा कुछ नहीं कुछ नहीं, अब जो होगा सो होगा आप तो प्रसाद पावो, भगवान ने कहा बात क्या है- बोला कुछ नहीं पहले दिन हमने सोचा कि एक भगवान आएंगे, तो दो आ गए ,अब दो का इंतजाम किया तो आज तीन आ गए ।
एक बात पूछूं भगवान ,भगवान ने कहा पूंछो उसने कहा यह आपके साथ कौन हैं, भगवान ने कहा यह हमारे भाई हैं छोटे भाई हैं, भक्त ने कहा अच्छा भाई हैं, सगे भाई हैं या ऐसे लाए, जोरे के, भगवान ने कहा नहीं नहीं यह हमारे सगे भाई हैं । भक्त ने कहा अच्छा सगे भाई हैं ठीक है लेकिन नाराज ना होना प्रभु, एक बात कहूं हमने ठाकुर जी के भोग का ठेका लिया है कि ठाकुर जी के खानदान भर का ।
भगवान खिलखिला कर हंसे, सीता जी भी मुस्कुरायी,
लक्ष्मण जी सोचने लगे भगवान अच्छी जगह ले आए हैं।
आते ही क्या स्वागत हो रहा है।
भक्त ने कहा कोई बात नहीं आप हमें अच्छे बहुत लगते हैं। आप प्रसाद पायें, तीनों को पवाया जो बचा खुद पाया।
भगवान जब जाने लगे बोला एक बात बताओ, बोले क्या,
अगली एकादशी को कितने  आओगे अभी से बता दो ।
भगवान ने कहा आ जाएंगे और अंतर्ध्यान हो गए अब भक्त परेशान, आश्रम लौटा दिन गुजरे फिर एकादशी आई। महंत जी बोले जाओ उसने कहा जाना ही पड़ेगा यहां तो कुछ नहीं मिलेगा, वहां अलग परेशानी |
गुरुजी ने कहा वहां क्या परेशानी हो गई गुरु जी से बोला
आपने बोला था एक भगवान आएंगे वहां तो दिन प्रतिदिन
बढ़ते ही जाते हैं और आज पता नहीं कितने आएंगे कम से कम तेरह शेर आटा दो और उसी के हिसाब से गुड, आलू ,मिर्च ,मसाला, रामरस ,घी सब दो गुरुजी।
गुरु जी  सोचने लगे कि इतने आटे का क्या करेगा खा तो नहीं , पाएगा जरूर बेंचता होगा, हम पीछे से जाकर पता लगाएंगे। गुरुजी ने समान दिला दिया ,बोले जाओ वह गया पूरी गठरी सिर पर लादकर ले गया। रखा पेड़ के नीचे गठरी और समान। आज उसने चतुराई की भोजन बनाया ही नहीं, सोचने लगा,पहले बुला कर देख लूं कितने लोग आएंगे, अब भोजन बिना बनाए लगा पुकारने--
राजा राम आइए ,सीता राम आइए, लक्ष्मण राम आइए,
मेरे भोजन का भोग लगाइए ।
जो प्रार्थना की भक्त ने ,मानो भगवान प्रतीक्षा ही कर रहे थे ।
बैठ बिपिन में भक्त ने, जब कीन्हीं प्रेम पुकार।
तो कांछन में प्रगट भयो, दिव्य राम दरबार ।
राम जी का पूरा का पूरा  दरबार ही  प्रगट हुआ- श्री सीताराम जी,भरतजी,लक्ष्मणजी, शत्रुघ्नजी, हनुमानजी।
इतने जनों को देखा, चरणों में प्रणाम किया, कहा जय हो, जय हो आपकी, आज तो हद हो गई इतने, हर एकादशी को एक-एक बढ़ते थे आज इतने ।लेकिन मेरी भी एक प्रार्थना सुनो !
बोले क्या ? उसने बोला मैंने भोजन ही नहीं बनाया। वह रखा है समान,अपना बनाओ और पाओ, तो तुम क्यों नहीं बना रहे हो, तो बोला जब हमें मिलना ही नहीं, तो काहे को भोजन बनायें ।
मोते नहीं बनत बनावत भोजन-मोते नहीं बनत बनावत भोजन।आप बनाबहू अपने ,बहुत लोगन संग आयो। बनाओ और पावों।मोते नहीं बनत बनावत भोजन।
यह भोजन मुझसे नहीं बनता आप बनाओ-- और बोला_
प्रथम दिवस भोजन के हित आसन जब मैंने लगाई,
उदर ना मैं भर सक्यो सीय जब सन्मुख आई।
फिर बिनीत आए भाई पर भाई।
निराहार ही रहत आज मोहीं परत दिखाई |
अब तो भूखे ही रहना पड़ेगा-- और बोला_
तुम नहीं तजत सुबान आपनी, हम केते समझाएं ।
श्री हनुमान जी की ओर देखकर बोला--
नर नारिन की कौन कहे, एक बानरहूं संग लाए। मोतें
नहीं बनत बनाए भोजन , इसलिए आप बनाओ । भगवान ने कहा बनाओ भोजन, भक्त नाराज है तो क्या करोगे ।
श्री भरत जी भंडारी बनाने लगे।
चुन के लकड़ी लखनलाल लाने लगे,
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
पोंछते पूंछ से आञ्जनेय चौका को,
पीछे हाथों से चौका लगाने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
चौक, चूल्हे इधर-उधर, शत्रुघ्न साग भाजी ,अमनिया कराने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
भरत जी भंडारे बनाने लगे, लक्ष्मण जी लकडी लाने लगे,
अमनिया शत्रुघ्न जी करने लगे, हनुमान जी चौका साफ
सफाई करने लगे । भक्त पेड़ के नीचे आंख बंद करके बैठा हुआ है, भगवान ने कहा आंख बंद काहे को किए हो खोलो, तो बोला काहे को खोले जब हमें खाने को मिलेगा ही नहीं तो दूसरे को खाते हुए भी तो नहीं देख सकते ।
अब जिस रसोई में सीता मैया बैठी हों वहां बड़े-बड़े सिद्ध
संत प्रकट होने लगे, मैया हमको भी प्रसाद हमको भी प्रसाद मिले । सब प्रगट होने लगे उनकी आवाज सुनी आंख खोली जो देखा इधर भी महात्मा उधर भी सो माथा पीट कर बोला थोड़ा बहुत मिलता भी तो यह नहीं मिलने देंगे ।
पा के संकेत शक्ति ,जत्थे वहां अष्ट सिद्धि नव निधि
आने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
अब गुरुदेव आए कि कर क्या रहा है चेला, तो देखा कि चेला आंख बंद किए बैठा है और सामने सामग्री रखी है, आंसू आंख से बह रहे हैं ।
गुरु जी ने कहा बेटा भोजन नहीं बनाया वह चरणों में गिर
गया बोला आ गए गुरु जी देखो आपने कितने भगवान लगा दिए मेरे पीछे, मंदिर में तो नहीं हुई पर यहां एकादशी पूरी हो रही है। और गुरु जी को कोई दिखे नहीं तो भगवान से बोला_
हमारे गुरु जी को भी दिखो नहीं  तो यह सब हमें झूठा मानेंगे, भगवान बोले उन्हें नहीं दिखेंगे,बोला क्यों हमारे गुरुदेव तो हमसे अधिक योग्य हैं,भगवान बोले तुम्हारे गुरुदेव तुमसे भी योग्य हैं, लेकिन तुम्हारे जैसे सरल नहीं हैं। और हम सरल को मिलते हैं ।गुरुजी ने पूछा क्या कह रहे हैं ,भक्त ने कहा भगवान कहते हैं सरल को मिलते हैं आप सरल नहीं हो ! गुरुजी रोने लगे,गुरुजी सरल तो नहीं थे तरल हो गए, आंसू बरसने लगे और जब तरल होकर रोने लगे, तो भगवान प्रकट हो गए गुरु जी ने दर्शन किए।
गुरु जी ने एक ही बात कही कि हम सदा से एक ही बात
सुनते आए हैं,  वह यह कि गुरु के कारण शिष्य कों भगवान मिलते हैं और आज शिष्य के कारण गुरु को भगवान मिले हैं।
तो यह है सरलता, सरल शब्द की महिमा।वास्तव में अगर हम माने तो सरल शब्द के अक्षरों का अर्थ भी है,
स- माने सीता जी |
र-माने रामजी |
ल-माने लक्ष्मण जी ।
ये तीनों जिसके हृदय में बसे हैं वही सरल है ,वही निर्मल है और उसी को ही भगवान मिलते हैं ,इसी आशा से कि हमें भी भगवान मिलेंगे ही हम प्रार्थना करते हैं कि _
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥
जय श्री राम जय हनुमान 

बुधवार, 25 सितंबर 2024

✓19 ऊँट


एक गांव में एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता था।उसके पास 19 ऊँट थे, एक दिन उसकी मृत्यु हो गई मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गई जिसमें लिखा था कि मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को,उसका एक चौथाई मेरी बेटी को और उसका पांचवा हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएं।सब लोग चक्कर में पड़ गए कि यह बंटवारा कैसे हो 19 ऊँटों का आधा अर्थात एक ऊंट काटना पड़ेगा फिर तो ऊँट ही मर जाएगा ? चलो एक को काट दिया जाए या हटा दिया जाय तो बचे 18, उनका एक चौथाई साढे चार - साढे चार फिर भी वही मुश्किल।  फिर पांचवां  हिस्सा । सब बड़ी उलझन में थे ।फिर पड़ोस के गांव में से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़कर आया समस्या सुनी थोड़ा दिमाग लगाया फिर बोला इन
19 ऊँटो में मेरा भी ऊँट मिलाकर बांट दो ।सब ने पहले तो सोचा कि एक वह पागल था जो ऐसी वसीयत करके चला गया और एक यह पागल दूसरा आ गया जो बोलता है कि इसमे मेरा भी ऊँट मिलाकर बांट दो | फिर भी सबने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है। उसने अपना ऊंट मिलाया तो 19+1=20  हुए। 20 का आधा 10 बेटे को दिए गए।20 का चौथाई 5 बेटी को दिए गए।20 कापांचवा हिस्सा चार नौकर को दिए गए 10+5+4= उन्नीस हो गए, बच गया 1 ऊँट  जो बुद्धिमान व्यक्ति का था वह उसे लेकर अपने गांव लौट आया ।बटवारा संपन्न हुआ।इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हम सबके जीवन में पांच ज्ञानेंद्रियां ( आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा), पांच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग),पांच प्राण ( प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान) और चार अंतःकरण चतुष्टय( मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ये कुल 19 ऊँट होते हैं ।सारा जीवन मनुष्य इन्हीं के बंटवारे में अर्थात् उलझनों में उलझा रहता है और जब तक उसमें आत्मा रूपी ऊँट को नहीं मिलाया जाता यानी- कि आध्यात्मिक जीवन 
नहीं मिलाया जाता तब तक जीवन में सुख शांति संतोष  और आनंद की प्राप्ति नहीं होती हैं।

✓जीयुतपुत्रिका

भोजपुरी में कुछ यूं कहा  जाता है कि - ए अरियार त का बरियार, श्री राम चंद्र जी से कहिए नू कि लइका के माई खर जीयूतिया भूखल बाड़ी।
सवाल यही है कि आखिर ये बरियार है कौन? तो बरियार एक ऐसा पौधा है जिसे भगवान राम का दूत माना जाता है।कहा जाता है कि यह छोटा सा बरियार (बलवान पेड़) भगवान राम तक हमारी बात दूत बनकर पहुंचाता है। अर्थात मां को अपनी संतान के जीवन के लिए कहे हुए वचनों को भगवान राम से जाकर सुनाता है और इस तरह श्री राम चंद्र तक उसके दिल की इच्छा पहुंच जाती है। संतान और घर परिवार का कल्याण हो जाता है।
मान्यता है कि इस व्रत को करने से संतान दीर्घायु होती है। निरोगी काया का आशीर्वाद प्राप्त होता है और भगवान संतान की सदैव रक्षा करते हैं। व्रत की शुरुआत नहाय खाय संग होती है और समापन पारण संग होता है।यह तो स्पष्ट है कि ज‍ित‍िया पर्व संतान की सुख-समृद्ध‍ि के ल‍िए रखा जाने वाला व्रत है। इस व्रत में पूरे दिन न‍िर्जला यानी क‍ि (बिना जल ग्रहण क‍िए ) व्रत रखा जाता है। यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल के मिथिला और थरुहट तथा अन्य राज्यो में आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस अर्थात् तीन द‍िनों तक मनाया जाता है।जितिया व्रत के पहले दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर स्‍नान करके पूजा करती हैं और फिर एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद दूसरे दिन सुबह-सवेरे स्‍नान के बाद महिलाएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं। सूर्य को अर्घ्‍य देने के बाद ही महिलाएं अन्‍न ग्रहण करती हैं। मुख्‍य रूप से पर्व के तीसरे दिन झोल भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है। अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है।
इस दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के साथ जियुतिया से सम्बन्धित इन  कथायों को सुनने की भी परम्परा है।
इस पावन व्रत की तीन कहानियां हैं, पहली चिल्हो और  सियारो की, दूसरी  राजा जीमूतवाहन की और तीसरी भगवान श्री कृष्ण की  है। आइए हम इन तीनों कहानियों का आनंद पूर्वक श्रवण करते हैं।
(१) चिल्हो और  सियारो की कथा।।
जीवित पुत्रिका व्रत की सबसे प्रसिद्ध चिल्हो और  सियारो की  कथा  इस प्रकार से है-एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी। पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी, दोनों में खूब पटती थी। चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती।इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे। एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ।
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी।सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा, बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करते हुवे व्रत में रखीं मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी।जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया।चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है।सियारिन ने कह दिया- बहन भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है और दांत कड़कड़ा रहे हैं यह उन्हीं की आवाज है, मगर चिल्हो को सत्य पता चल गया।उसने सियारिन को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था।सियारीन लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था।चिल्हो रात भर भूखे प्यासे रहकर ब्रत पूरा की।
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं। सियारिन बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई। चिल्हो छोटी बहन हुई उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई।
बाद में दोनों राजा और मंत्री बने।सियारिन रानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते। इससे उसे जलन होती थी।
उसने लड़को का सर कटवाकर डब्बे में बंद करवा दिया करती पर वह शीश मिठाई बन जाते और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई। आखिरकार दैव योग से उसे भूल का आभास हुआ। उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित पुत्रिका व्रत विधि विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे।
(२)गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन को एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंप देगें। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे। जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंच का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं 
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य मैं तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। तभी से  जीवित पुत्रिका के दिन इस कथा को सुनने की परम्परा है 
(३)भगवान श्री कृष्ण कथा
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं. महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक था, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया।गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना।तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं।
(४)चील और सियारिन से जुड़ी जितिया व्रत की अन्य  कथा भी काफी प्रसिद्ध है-
धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उस पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी। दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूतवाहन के  पूजा करने का प्रण लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी का निधन हो गया और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। मृत्यु देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और भक्ति-भाव व नियमपूर्वक व्रत करने के बाद अगले दिन व्रत पारण किया।
अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील बड़ी बहन बनी और सियारिन छोटी बहन के रूप में जन्मीं थी। चील का नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का नाम  कपुरावती रखा गया और उसका विवाह उस नगर के राजा मलायकेतु के साथ हुआ।
भगवान जीमूतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देखकर जलन की भावना आ गई, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए।
उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिए और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिए। यह देखकर भगवान जीमूतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया और उनमें जान आ गई।
सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए, जो कटे सिर रानी ने भेजे थे वह फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर तक सूचना नहीं आई तो कपुरावती खुद बड़ी बहन के घर गई। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गई, जब उसे होश आया तो उसने सारी बात अपनी बहन को बताई। कपुरावती को अपने किए पर पछतावा हुआ, भगवान जीमूतवाहन की कृपा से शीलवती को पिछले जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को उसी पाकड़ के पेड़ के पास ले गई और उसे पूर्व जन्म की  सारी बात बताई फिर कपूरवती से  शिलवती ने कहा कि ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवित्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े-बड़े राजा हुए।हरि अनंत हरि कथा अनंता के अनुसार ये कथाएं विभिन्न रूपों में भी प्राप्त होती है।सभी का सारांश यही है कि जो स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हैं  वे  विधिपूर्वक इस व्रत को करती हैं और अपने अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की कृपा प्राप्त करती हैं।
।।जय जीयुतपुत्रिका।।



सोमवार, 23 सितंबर 2024

✓सहसबाहु सन परी लराई

श्री हनुमानजी रावण से कहते है कि तुम पूछते हो कि मैंने तुम्हारा नाम और यश सुना है कि नहीं, उसपर मेरा उत्तर यह है कि तुम्हारी प्रभुता सुननेकी तो बात ही क्या है, मैं तो उसे भलीभाँति जानता भी हूँ कि वह कैसी है। उस प्रभुताको जानकर मैंने यह सब किया है।  'सहसबाहु सन परी लराई' अर्थात् तुम लड़ने गये, पर कुछ लड़ाई न हुई; उसने तुमको दौड़कर पकड़ लिया। सहस्रबाहुसे हारना कहकर जनाया कि तू सहस्रार्जुनसे हारा, वह परशुरामसे हारा और परशुराम श्रीरामजीसे हारे । प्रमाण देखें 'एक बहोरि सहसभुज देखा । धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाड़छोड़ावा॥'  (इसमें अंगदजीने सहस्रार्जुनसे रावणका पराजय कहा है और) 'सहसबाहु भुज गहन अपारा।दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा । तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा। ( इसमें सहस्रार्जुन का परशुरामजी द्वारा पराजय भुजछेदन और वध कहकरपरशुरामजीका बिना युद्ध ही श्रीरामजीके सम्मुख गर्व चूर हो जाना कहा है। इस प्रकार जनाया कि तब तू किस बलपर घमण्डकर उन श्रीरामजीसे विरोध कर रहा है ? उनके आगे तू क्या चीज है जब कि  वे तो तेरे जीतनेवाले के जीतने वाले भी है। श्री परशुरामजी ने तो उनको देखते ही उनसे  हार मान गये। 'परी लराई' में भाव यह भी है कि लड़ाईका अवसर आया था, तुम लड़ने गये थे, परथोड़ी ही लड़ाई में तुम हार गये। इसमें ऊपरसे प्रशंसा यह है कि बीस ही भुज होनेपर भी हजार भुजवालेसे लड़ाई ठानी थी और व्यंगसे अपयश होना प्रकट किया है। आइए हम सहस्रबाहु और रावणकी कथा सुनते हैं।सहस्रार्जुन कृतवीर्यका पुत्र और माहिष्मतीका राजा था। भगवान् दत्तात्रेयके आशीर्वादसे इसे, जब यहचाहता, हजार भुजाएँ हो जाती थीं। एक बार जब यह नर्मदामें अपनी स्त्रियोंके साथ जलविहार कर रहाथा, संयोगसे उसी समय रावण भी उसी स्थानके निकट जो यहाँसे दो कोसपर था, वहां आया और नर्मदामेंस्नान करके शिवजीका पूजन करने लगा। उधर सहस्रबाहुने अपनी भुजाओंसे नदीका बहाव रोक दिया,जिससे नदीमें बाढ़ आ गयी और जल उलटा बहने लगा। शिवपूजनके लिये जो पुष्पोंका ढेर रावणकेअनुचरोंने तटपर लगा रखा, वह तथा सब पूजनसामग्री बह गयी। बाढ़ के कारणका पता लगाकर औरपूजनसामग्रीके बह जानेसे क्रुद्ध होकर रावण सहस्रार्जुनसे युद्ध करनेको गया । उसने कार्तवीर्यकी सारी सेनाकानाश किया। समाचार पाकर राजा सहस्रार्जुनने आकर राक्षसोंका संहार करना प्रारम्भ किया । प्रहस्तके गिरतेही निशाचर सेना भगी तब रावणसे गदायुद्ध होने लगा। यह युद्ध बड़ा ही रोमहर्षण अर्थात् रोंगटे खड़ाकर देनेवाला भयंकर युद्ध हुआ । अन्तमें सहस्रार्जुनने ऐसी जोरसे गदा चलायी कि उसके प्रहारसे वह धनुषभर पीछे हट गया और चोटसे अत्यन्त पीड़ित हो वह अपने चार हाथोंके सहारे बैठ गया  रावण की यह दशा देख इसीबीच मेंसहस्रार्जुन  ने उसे अपनी भुजाओंसे इस तरह पकड़ लिया जैसे गरुड़ सर्पको पकड़ लेता है और फिर उसे इस तरह बाँध लिया जैसे भगवान्ने बलिको बाँधा था। रावणके बँध जानेपर प्रहस्त आदि उसे छुड़ानेके लियेलड़े, पर कुछ कर न सके, भागते ही बना । तब सहस्रार्जुन रावणको पकड़े हुए अपने नगरमें आया । अन्तमेंश्रीपुलस्त्यमुनिने जाकर उसे छुड़ाया और मित्रता करा दी ।  ' एक बहोरि सहसभुज देखा।धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।  इस कथाके अनुसार यह भी व्यंगसे जनाते हैं कि तू वही तो है जिस, सहस्रबाहुके कारागारमें बँधे पड़े हुएकोतेरे पितामह पुलस्त्यजी दीन होकर भिक्षा माँग लाये थे । जय श्री राम जय हनुमान

रविवार, 22 सितंबर 2024

✓रावण की रक्षा (अशोकवाटिका में)

लाखों वर्ष पहले रावण ने अद्भुत विस्मयकारी रक्षा व्यवस्था कर रखा था। सिंहिका और लंकिनी तो रडार थे।  स्टार वाली रक्षा प्रणाली  तो अशोक वाटिका में दिखती है। जब श्री हनुमानजी अशोक वाटिका में फल खाने जाते हैं तो देखते हैं कि भट अर्थात दो स्टार वाले रखवाले वहां बहुत हैं 
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
तो इनके लिए हनुमानजी को गरजने की भी जरूरत नही थी बिना गरजे ,बिना वृक्ष लिए ही उनकी हालत पतली 
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥ कुछ मारे गए और कुछ रावण से पुकार करने जाते हैं 
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥ यह सुनते ही रावण ने 
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
नाना भट को भेजा , अब श्री हनुमानजी गर्जे और सबका ही संहार कर दिया ,कुछ अधमरे  ही रावण तक पुकार  करने  जा पाते हैं  तब रावण
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। 
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। 
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
अब तीसरी बार हनुमानजी वृक्ष लेकर तरजते है और इन तीन स्टार वालों  को मारकर महाधुनि करते हुवे गरजते हैं फिर
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। 
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। 
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
अब बारी है पांच स्टार और चार स्टार वालों का, पांच स्टार वाला मेघनाद सरदार है चार स्टार वालों का, देखें 
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। 
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। 
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। 
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। 
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
पांच स्टार वाले दारूनभट के लिए श्री हनुमानजी कटकटा कर गरजते हैं और एक विशाल पेड़ के वार से उसे विरथ कर जमीन पर ला देते हैं और चार स्टार वालों को
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। 
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। 
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
एकल  पांच स्टार वाला दारूनभट ही है जो भीड़ सका लेकिन वह भी मात्र एक ही मुष्टिका में मुरुक्षित हो गया। इस प्रकार श्री हनुमान जी ने रावण की इन सभी रक्षा प्रणाली  को नष्ट कर दिया। आगे की कथा क्रमशः 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।