गुरुवार, 7 नवंबर 2024

✓मानस चर्चा ।।दुंदुभी ऋष्यमूक और मतंग का शाप ।।

मानस चर्चा ।।दुंदुभी ऋष्यमूक और मतंग का शाप ।।
आधार मानस किष्किन्धाकाण्ड  की पक्तियां _
इहाँ शाप वश आवत नाहीं।
तदपि सभीत रहौं मन माहीं ॥
सुन सेवक दुःख दीन दयाला। 
फरकि उठे दोउ भुजा विशाला ॥ 
ऋष्यमूक पर्वत पर शाप के कारण बालि नहीं आता है,फिर भी सुग्रीव भयभीत रहते हैं। सुग्रीव की इस दुःख भरी बातों को सुनकर प्रभु शाप की बात सुग्रीव से पूछते हैं और सुग्रीवजी सभी घटना सुनाते हैं।आइए हम भी इस प्रासंगिक कथा का आनंद ले।
सुनत वचन बोले प्रभु, कहहु शापकी बात ॥
दुन्दुभि दैत्य को कवन विधि, बालि हत्यो तेहि तात ॥

समदर्शी शीतल सदा, मुनिवर परम प्रवीन ॥
मोहि बुझाय कहहु सब, शाप कौन हित दीन ॥ 

इमि बूझत भये कृपानिकेता।
बालिहि शाप भयो केहि हेता। 

बोले तब कपीस मन लाई।
दुन्दुमि दैत्य महाबलदाई।
मल्लयुद्धकी गति सब जाने।
और बली नहिं कोउ मन माने।
एकवार जलनिधितट आयो।
जायके जलनिधि माँझ अथायो ॥
मथत सिंधु व्याकुल सब गाता।
जीव जंतु सब भये निपाता ॥
तब अकुलाय सिंधु चलि आवा।
वचन विचारिहि ताहि सुनावा ॥
तुम बल सरवर और न कोऊ ।
वचन विचारि कहौं मैं सोऊ ॥
हिमगिरि बल वरणो नहिं जाई।
तेहि जीतन कर करहु उपाई ॥

वचन सुनत ताहीं चलि आयो।
देखि हिमाचल अतिमन भायो ॥
ताल ठोक हिम लीन्ह उठाई ।
तब हिमगिरिबहु विनय सुनाई ॥ 
तुम्हरे बल सरवर मैं नाहीं ।
ताते करौं न मान तुम्हाहीं ॥ 
पंपापुर तुमही चलि जाहू ।
बालि महाबलनिधि अवगाहू ॥

सुनत वचन तहँही चलि आवा।
बालि बालि कहकै गुहरावा ॥ 
वेष किये सो महिष कर, गर्व बहुत मन माहिं ॥
आयो निकट सो गर्ज कर, मनहु तनक भय नाहिं ॥ 
मही मर्दि तरु करै निपाता।
गर्जे घोर गिरा जनु घाता ॥
ठोकेउ ताल वज्र जनु परहीं ।
तेहि कर मर्म जानि सब डरहीं ॥
पंपापुर व्याकुल सब काहू ।
चंद्र ग्रसन जनु आयो राहू ॥
सुनत बालि धावा तत्काला।
देखि असुर भुजदंड कराला ॥

भिरे युगल करिवर की नाई।
मल्लयुद्ध कछु बरणि न जाई ॥
चारि याम सब कौतुक भयऊ।
मुष्टि प्रहार तासु कपि दयऊ ॥

गिरा अवनि तब शैल समाना।
जीव जन्तु तरु टूटेउ नाना ॥
पुनि तेहि बालि युगल करि डारा।
उत्तर दक्षिण कीन्ह प्रहारा ॥
तब वह राक्षस पृथ्वीपर पर्वतके समान गिरा तब जीवजन्तु उसके नीचे दबे अनेक वृक्ष टूट गये ॥ ७ ॥ फिर बालिने उसे दो टुकड़े कर उत्तर दक्षिणकी ओर फेंक दिया ॥ ८ ॥
तेहि गिरिपर मुनि कुटी सुहाई।
रुधिर प्रवाह गयो तहँ धाई ॥
ऋषि मतंग कर तहाँ निवासा।
गयो सो ऋषि मज्जन सुखरासा ॥
उस पर्वतके ऊपर मुनिकी सुन्दर कुटी थी तहां रुधिरके छींटे जाकर गिरे ॥ तहां मतंगऋषिका आश्रम था और वे सुखसागर ऋषि स्नानको गये ॥ 
मज्जन करि मतंग ऋषि आये।
देख कुटी अति क्रोध बढ़ाये ॥ 
तबहि विचार कीन्ह मन माहीं।
यक्ष एक चलि आवा ताहीं ॥

तिन तब सकल कही इतिहासा।
सुनि मतंग भय क्रोध निवासा ॥ 
दीन्ह शाप तब क्रोध करि, नहिं मन कीन्ह विचार।
बालि नाश गिरि देखत, होइ जाय तनु छार ॥ 

ताहि भय यहाँ बालि नहिं आवत।
ऋषिके वचन मानि भय पावत् ॥
तेहि भरोस इहि गिरिपर रहऊँ।
बालि त्रास नहिं विचरत कहउँ ॥ 

एहि दुखते प्रभु दिन औ राती।
चिंता बहुत जरति अति छाती ।।
जानहु मर्म सकल रघुनाथा
इहां रहौं हनुमत ले साथा ॥

सो वृत्तान्त बालि सब जाना।
यहाँ न आवत कृपा निधाना ॥
सुनि सुग्रीव वचन भगवाना।
बोले हरि हँसि धरि धनु बाना ॥
यह सुग्रीवके वचन सुनकर भगवान् हँसकर धनुष धारणकर बोले ॥ 
सुनु सुग्रीव मैं मारिहौं, बाली एकहि बाण ॥
ब्रह्म रुद्र शरणागत, गये न उबरहिं प्राण ॥ 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

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