भोजपुरी में कुछ यूं कहा जाता है कि - ए अरियार त का बरियार, श्री राम चंद्र जी से कहिए नू कि लइका के माई खर जीयूतिया भूखल बाड़ी।
सवाल यही है कि आखिर ये बरियार है कौन? तो बरियार एक ऐसा पौधा है जिसे भगवान राम का दूत माना जाता है।कहा जाता है कि यह छोटा सा बरियार (बलवान पेड़) भगवान राम तक हमारी बात दूत बनकर पहुंचाता है। अर्थात मां को अपनी संतान के जीवन के लिए कहे हुए वचनों को भगवान राम से जाकर सुनाता है और इस तरह श्री राम चंद्र तक उसके दिल की इच्छा पहुंच जाती है। संतान और घर परिवार का कल्याण हो जाता है।
मान्यता है कि इस व्रत को करने से संतान दीर्घायु होती है। निरोगी काया का आशीर्वाद प्राप्त होता है और भगवान संतान की सदैव रक्षा करते हैं। व्रत की शुरुआत नहाय खाय संग होती है और समापन पारण संग होता है।यह तो स्पष्ट है कि जितिया पर्व संतान की सुख-समृद्धि के लिए रखा जाने वाला व्रत है। इस व्रत में पूरे दिन निर्जला यानी कि (बिना जल ग्रहण किए ) व्रत रखा जाता है। यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल के मिथिला और थरुहट तथा अन्य राज्यो में आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस अर्थात् तीन दिनों तक मनाया जाता है।जितिया व्रत के पहले दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर स्नान करके पूजा करती हैं और फिर एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद दूसरे दिन सुबह-सवेरे स्नान के बाद महिलाएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं। सूर्य को अर्घ्य देने के बाद ही महिलाएं अन्न ग्रहण करती हैं। मुख्य रूप से पर्व के तीसरे दिन झोल भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है। अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है।
इस दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के साथ जियुतिया से सम्बन्धित इन कथायों को सुनने की भी परम्परा है।
इस पावन व्रत की तीन कहानियां हैं, पहली चिल्हो और सियारो की, दूसरी राजा जीमूतवाहन की और तीसरी भगवान श्री कृष्ण की है। आइए हम इन तीनों कहानियों का आनंद पूर्वक श्रवण करते हैं।
(१) चिल्हो और सियारो की कथा।।
जीवित पुत्रिका व्रत की सबसे प्रसिद्ध चिल्हो और सियारो की कथा इस प्रकार से है-एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी। पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी, दोनों में खूब पटती थी। चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती।इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे। एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ।
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी।सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा, बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करते हुवे व्रत में रखीं मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी।जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया।चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है।सियारिन ने कह दिया- बहन भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है और दांत कड़कड़ा रहे हैं यह उन्हीं की आवाज है, मगर चिल्हो को सत्य पता चल गया।उसने सियारिन को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था।सियारीन लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था।चिल्हो रात भर भूखे प्यासे रहकर ब्रत पूरा की।
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं। सियारिन बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई। चिल्हो छोटी बहन हुई उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई।
बाद में दोनों राजा और मंत्री बने।सियारिन रानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते। इससे उसे जलन होती थी।
उसने लड़को का सर कटवाकर डब्बे में बंद करवा दिया करती पर वह शीश मिठाई बन जाते और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई। आखिरकार दैव योग से उसे भूल का आभास हुआ। उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित पुत्रिका व्रत विधि विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे।
(२)गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन को एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंप देगें। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे। जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंच का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य मैं तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। तभी से जीवित पुत्रिका के दिन इस कथा को सुनने की परम्परा है
(३)भगवान श्री कृष्ण कथा
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं. महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक था, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया।गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना।तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं।
(४)चील और सियारिन से जुड़ी जितिया व्रत की अन्य कथा भी काफी प्रसिद्ध है-
धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उस पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी। दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूतवाहन के पूजा करने का प्रण लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी का निधन हो गया और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। मृत्यु देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और भक्ति-भाव व नियमपूर्वक व्रत करने के बाद अगले दिन व्रत पारण किया।
अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील बड़ी बहन बनी और सियारिन छोटी बहन के रूप में जन्मीं थी। चील का नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का नाम कपुरावती रखा गया और उसका विवाह उस नगर के राजा मलायकेतु के साथ हुआ।
भगवान जीमूतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देखकर जलन की भावना आ गई, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए।
उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिए और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिए। यह देखकर भगवान जीमूतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया और उनमें जान आ गई।
सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए, जो कटे सिर रानी ने भेजे थे वह फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर तक सूचना नहीं आई तो कपुरावती खुद बड़ी बहन के घर गई। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गई, जब उसे होश आया तो उसने सारी बात अपनी बहन को बताई। कपुरावती को अपने किए पर पछतावा हुआ, भगवान जीमूतवाहन की कृपा से शीलवती को पिछले जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को उसी पाकड़ के पेड़ के पास ले गई और उसे पूर्व जन्म की सारी बात बताई फिर कपूरवती से शिलवती ने कहा कि ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवित्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े-बड़े राजा हुए।हरि अनंत हरि कथा अनंता के अनुसार ये कथाएं विभिन्न रूपों में भी प्राप्त होती है।सभी का सारांश यही है कि जो स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हैं वे विधिपूर्वक इस व्रत को करती हैं और अपने अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की कृपा प्राप्त करती हैं।
।।जय जीयुतपुत्रिका।।