मंगलवार, 10 सितंबर 2024

✓श्री हनुमानजी के किन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रहा गया था अभिमानी रावण?

श्री हनुमानजी के किन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रहा गया था अभिमानी रावण?
श्रीहनुमान जी रावण को जो उपदेश दे रहे हैं, वे मात्र केवल रावण पर ही क्रियावन्त हेतु नहीं हैं। अपितु जिस-जिस का भी मन प्रभु से विमुख है, और जो अभिमान में सर्वदा चूर है, वे सब श्रीहनुमान जी के इस श्रेष्ठ व पावन संदेश के अधिकारी हैं। रावण की समस्या का मूल क्या है? एक अहंकार ही तो जो  उसे प्रभु मार्ग की ओर जाने से रोक रहा है ? अन्यथा रावण जैसे कुल, तपस्या अथवा संपत्ति इत्यादि की पूरे संसार में  कोई काट नहीं। श्रीहनुमान जी द्वारा दिए गए उदाहरण कितने प्रासंगिक हैं, यह देखते ही बनता है। श्रीहनुमान जी कहते हैं 
‘राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।’
श्रीहनुमान जी रावण पर ऐसे शब्दों के बाण चला रहे हैं, कि रावण पर इसका प्रभाव होना ही बनता था। रावण तो था ही कामी व स्त्री मोह से ग्रसित। और श्रीहनुमान जी ठहरे अखण्ड ब्रह्मचारी। उनके मुख से निश्चित ही ऐसा उदाहरण, आज प्रथम और अंतिम बार निकल रहा था। क्योंकि किसी नारी के बारे में श्रीहनुमान जी द्वारा, ऐसे निम्न से भासित होने वाले शब्दों का उच्चारण करना,
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।’
एक परिकल्पना-सी लगता है। श्रीहनुमान जी ने रावण से पूछा, कि क्या उसने किसी स्त्री को नग्न अवस्था में देखा है? अब रावण से यह प्रश्न पूछना कुछ ऐसे था, मानो किसी बिल्ली से पूछा जा रहा था, कि क्या उसने कभी किसी चूहे का शिकार किया है, अथवा कभी दूध के कटोरे को देख कर, जिह्वा से लार तो नहीं टपकी? इसका प्रति ऊत्तर क्या है, पाठक गण भलि भाँति जानते हैं। रावण ने देखा कि वाह! वानर तो बड़ा रसिक प्रवृति का है। लेकिन तनिक भोला-सा भी है। भला मुझसे ऐसा प्रश्न पूछने की नादानी क्यों की जा रही है। चलो कोई नहीं। पर इसे मेरी आँखों की चमक देख कर स्वयं ही समझ लेना चाहिए, कि मैंने किसी नग्न स्त्री का दर्शन किया है, अथवा नहीं। श्रीहनुमान जी ने रावण का उत्तर उसके ललचाये नेत्रों से पढ़ ही लिया था।
श्रीहनुमान जी ने अगला प्रश्न किया, कि हे रावण! क्या तुम्हें किसी भी स्त्री को श्रृँगार किए देखना प्रिय लगता है ? रावण ने कहा कि हाँ भई, श्रृँगार से सजी स्त्री भला किसे प्रिय नहीं होगी। और मुझे तो ऐसी स्त्री विशेष रूप से प्रिय है। लेकिन यह सब पूछने का तुम्हारा ध्येय समझ में नहीं आ रहा। यह सुन श्रीहनुमान जी ने कहा, कि बस---बस। एक अंतिम प्रश्न और। वह यह कि अगर वह श्रृँगार किसी नग्न स्त्री का  कर दिया जाय,गहनों से उसका पूरा तन सजा दिया जाय, तो क्या वे आभूषण उस नग्न स्त्री पर शोभायमान होंगे? तुम्हारी मुखाकृति स्पष्ट कह रही है, कि तुम भी ऐसे  श्रृँगार का समर्थन नहीं करते। यह निश्चित ही आकर्षण हीन होने के साथ-साथ, अमर्यादित भी होगा। हे रावण, ठीक इसी प्रकार, भले ही तुम्हारी लंका में पग-पग पर सोना मढ़ा हो। समस्त लोक पाल, दिकपाल तुम्हारे चाकर हों। तुमने काल को भी वश में कर लिया हो। लेकिन तब भी, अगर तुम्हें श्रीराम नाम की धुन नहीं लगी, व तुम्हारे रोम-रोम में मायापति नहीं हैं, अपितु माया है, तो यह दृढ़ भाव से मान कर चलना, कि तुम्हारा समस्त वैभव व कीर्ति भी उस नग्न स्त्री के श्रृँगार के ही मानिंद है।
रावण ने जब यह सुना, तो वह दंग रह गया। कि यह वानर तो बातों का जाल ही बिछा देता है। इसकी बातों में तो कोई भी उलझ कर रह जाये। लेकिन श्रीहनुमान जी को रावण की तो  सुननी ही नहीं थी, अपितु उसे सुनानी थी। श्रीहनुमान जी ने फिर कहा, कि हे रावण, माना कि तुम्हारे पास इस धरती की अथाह धन संपदा है। वह तो होगी ही, कारण कि तुमने तीनों लोकों पर विजय जो प्राप्त कर ली है। यह इतनी संपत्ति है, कि अगर तुम अपनी बीसों भुजाओं से भी, आठों पहर इसे लुटाते रहो, तो सौ कल्प तक भी यह संपत्ति समाप्त नहीं होगी। लेकिन यह भी सत्य मानना, कि अगर तुम ऐसे ही राम विमुख बने रहे, तो तुम्हारी प्रभुता और संपत्ति ऐसे चली जायेगी, जैसे मुठ्ठी में पकड़ी बालु की रेत फिसल कर निकल जाती है। समझ लो कि ऐसी संपत्ति का तुम्हारे पास होना, अथवा न होना, एक समान है। कारण कि जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं होते, अर्थात जिन्हें केवल बरसात का ही सहारा होता है, वे बरसात बीत जाने पर, फिर तुरन्त ही सूख जाती हैं-
‘राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं।।’
इसलिए हे रावण, मेरी कही पर विश्वास करो और श्रीराम जी का भजन करो। मुझे पता है, कि तुम्हारा अभिमान ही तुम्हारे कल्याण में बाधा है।ऐसा अभिमान किस काम का। जो महाप्रलयकारी मोह  के मूल से बधा हो। तो तुम  क्यों न इस अति पीड़ादायक तमरूप अभिमान का त्याग कर द रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्रीरामचन्द्र जी का भजन करते हो-
‘मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।’
श्रीहनुमान जी निःसंदेह भक्ति, ज्ञान व वैराग्य से भरपूर उपदेश दे रहे थे। जिन्हें सुन विषयी से विषयी व्यक्ति का भी हृदय द्रवित हो जाये।
जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
लेकिन रावण है कि पिघलता ही नहीं। और तो और रावण ने, श्रीहनुमान जी को अब तो यह  कह डाला, कि 
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
ऐसी स्थिति में श्रीहनुमान जी के स्थान पर, कोई अन्य भक्त होता, जो हनुमानजी जैसा शक्तिशाली होता तो निश्चित ही  वह रावण का वध कर डालता। लेकिन वाह  रे हनुमानजी आप रामकाज के लिए सब कुछ सहन कर रहे हैं।आपको शतशत नमन। नित्य का वंदन।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।




शनिवार, 7 सितंबर 2024

✓हनुमानजी ने रावण के समक्ष श्रीराम के शौर्य का बखान कैसे किया था?

✓हनुमानजी ने रावण के समक्ष श्रीराम के शौर्य का बखान कैसे किया था?मेघनाद ने श्रीहनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। जिसका सम्मान करते हुए, श्रीहनुमान जी ने स्वयं को इच्छा पूर्वक बाँधना स्वीकार कर लिया। अब पवनपुत्र श्रीहनुमान जी, रावण की सभा में कुछ यूँ खड़े हैं, जैसे सौ कुत्तों के झुण्ड में एक सिंह निर्भय खड़ा होता है। रावण श्रीहनुमान जी को देखता है, तो उसके मुख से स्वाभाविक ही दुर्वचन निकलने लगते हैं‘कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद।।’रावण श्रीहनुमान जी को अपमानित शब्द बोलता-बोलता, अचानक शोक में डूब जाता है। क्योंकि उसे अपने मृत पूत्र अक्षय कुमार के वध का स्मरण हो उठता है। मूर्ख रावण का दुर्भाग्य देखिए। तात्विक चिंतन से देखा जाये, तो उसके समक्ष मात्र श्रीहनुमान जी ही नहीं खड़े, अपितु उनके वेश में साक्षात भगवान शंकर जी ही उपस्थित हैं। कारण कि श्रीहनुमान जी, भगवान शंकर जी के ही वर्तमान काल में अवतार हैं।शंकर स्वयं केसरीनन्दन अब क्योंकि भगवान शंकर जी, रावण के गुरु हैं, तो इस परिपाटी के अनुसार श्रीहनुमान जी भी तो रावण के गुरु ही तो हुए। और रावण ने अपने संपूर्ण तप व हठ-जप से, बस इतना-सा ज्ञान अर्जित किया है, कि उसके अनुसार अपने बल व सामर्थ्य का इतना घमण्ड करो, कि अगर किसी क्षण आपके समक्ष आपके गुरु भी आन खड़े हों, तो आप उन्हें भी अपशब्द कह कर ही संबोधन करो। निश्चित रावण को श्रीसीता जी का अपमान तो शायद लेकर डूबे अथवा न डूबे, किन्तु अपने गुरु का अपमान उसे अवश्य ले डूबेगा। रावण की स्थिति किसी विक्षिप्त से व्यक्ति जैसी हो रखी है। कारण कि रावण श्रीहनुमान जी को अपशब्द कहता-कहता हँसता-हँसता, अचानक अपने मृत पुत्र के वध को याद कर रोने लगता है। अचानक हँसते-हँसते रोने लगना, यह तो एक विक्षिप्त व्यक्ति के ही चिह्न हैं। तब रावण अचानक बात ही बात में, एक ऐसी काम की बात भी कह जाता है, कि श्रीहनुमान जी को प्रभु की महिमा गाने का बहाना सुलभ हो जाता है। रावण कहता है-‘कह लंकेस कवन तैं कीसा।केहि कें बल घोलेहि बन खीसा।।की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।देखउँ अति असंक सठ तोही।।’रावण श्रीहनुमान जी को अभी भी इतने हलके में ले रहा है, कि उसे स्वीकार ही नहीं हो रहा, कि एक वानर भला मेरी सुंदर अशोक वाटिका को उजाड़ भी कैसे सकता है। अवश्य ही इस वानर के बल के पीछे किसी और का हाथ है। रावण पूछता भी है, कि हे वानर! तूं यह तो बता, कि तूने किसके बल से इस वन को उजाड़ा है? तो श्रीहनुमान जी बड़े पते की बात कहते हैं। वे कहते हैं, कि हे रावण, मात्र मैं ही क्यों? मैंने तो संपूर्ण सृष्टि में देखा है, कि किसी के पास भी अपना स्वयं का बल तो है ही नहीं। मैं तो श्रीब्रह्मा जी, श्रीविष्णु जी एवं श्रीमहेश जी के अथाह बल को भी उनका स्वयं का बल नहीं मानता। भले ही वे तीनों देव सृष्टि की रचना, पालन व विध्वँस की शक्ति धारण किये हों। लेकिन तब भी वह समस्त शक्तियां, उनकी अपनी नहीं, अपितु किसी अन्य शक्ति की ही देन है। त्रिदेव ही क्यों, समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करने वाले, सहस्त्रमुख धारी, श्रीशेष जी भी अगर यह पराक्रम का पा रहे हैं, तो यह भी उनका अपना बल नहीं है, अपितु किसी अन्य शक्ति का ही बल है-‘जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।पालत सृजत हरत दससीसा।। जा बल सीस धरत सहसानन।अंडकोस समेत गिरि कानन।।’रावण के समक्ष श्रीहनुमान जी ने जिन नामों का वर्णन किया और साथ में कहा, कि उनका बल भी किसी और की देन है। तो रावण सोच में पड़ गया, कि कमाल है। वानर सीधा-सीधा उत्तर देने की बजाय, पूरी कथा ही छेड़ बैठा है। लेकिन उसे क्या पता था, कि जब स्वयं रावण का नाम सभा में लिया जाता है, तो अधिक से अधिक अलंकारों के प्रयोग के साथ लिया जाता है। जैसे महाबली, महातपस्वी, दसानन लंकापति रावण की जय हो। ऐसे संबोधन जब एक पापी राक्षस के लिए प्रयोग हो रहे थे। तो भला यह कैसे हो सकता था, कि श्रीहनुमान जी प्रभु श्रीराम जी के बल का परिचय ऐसे ही सीधे-सीधे दे देते। श्रीहनुमान जी ने केवल त्रिदेवों का नाम ही थोड़े न लिया। वे तो ओर आगे बढ़ कर गुणगान में लगे हैं-‘धरइ जो बिबिध देह सुरत्रता।तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।।हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।खर दुषन त्रिसिरा अरु बाली।बधे सकल अतुलित बलसाली।।’श्रीहनुमान जी ने वे नाम गिना दिए, जिनको श्रीराम जी ने सहज ही मार डाला था। और यह भी कह दिया था, कि देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार के अवतार लेने वाले का तो तुम्हें पता ही होगा। तुम्हें यह भी पता होगा, कि उन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला, और भरी सभा में समस्त राजाओं के समूह का गर्व चूर-चूर कर डाला। फिर खर दूषण का तो तुम्हें विशेष कष्ट होगा ही। क्योंकि उन्हें, उसी परम शक्ति ने ही तो मारा था। केवल खर दूषण ही क्यों, त्रिशिरा और महाबली बाली के नाम से तो तुम्हें विशेष ध्यान होगा ही। उन्होंने उनको भी तो अपने नन्हें से प्रयास से ही मार डाला था। और सबसे विशेष तो यह है, कि जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया। और जिनकी प्रिय पत्नी श्रीसीता जी को तूने चोरी से हर लिया। मैं उन्हीं का ही दूत हूँ। श्रीहनुमान जी ने प्रभु श्रीराम जी का संपूर्ण परिचय देने का मानों ऐसा प्रयास किया, कि रावण सुनता ही रह गया। हालांकि श्रीहनुमान जी ने, प्रभु श्रीराम जी का इतना-सा ही परिचय दे पाये ,  और इस प्रकार वे गागर में सागर को समेटने का प्रयास कर रावण के समस्त अभिमान को चकनाचूर भी कर  दिए।।।जय श्री राम जय हनुमान।।.

✓।।तपसे भी बड़ा सत्सङ्ग है।।


✓।।तपसे भी बड़ा सत्सङ्ग है।।
एक वार मुनि विश्वामित्र और वशिष्ठ में बाद विबाद
हुआ । विश्वामित्रजी कहते थे कि तप बड़ा है प्रौर वशिष्ठ जी कहते थे कि सत्सङ्ग बड़ा है । बाद विवाद तर्क बितर्क में  बदल गया। समस्या को हल कराने  दोनों शेष जी के पास गये । और सारा वृतान्त कह सुनाया ।शेषजी ने कहा कि तुम मेरे महिभार को धारण करो मैं न्याय करू' । तव विश्वामित्र जी ने सारा तपस्या का बल लगा दिया परंतु वे महि के भार को न उठा सके तब फिर वशिष्ठ जी ने थोड़े से सत्सङ्ग के बल से पृथ्वी को उठा लिया। जिसके कारण विश्वामित्र को शरमिंदा होना पड़ा। इस प्रकार शेषजी ने बहुत  ही सुन्दर निर्णय दिया कि तप से भी बड़ा सत्सङ्ग ही है। इसीलिए कहा गया है कि सत्सङ्गति की महिमा 'छिपी हुई नहीं है | सत्सङ्गति के ही प्रभाव से बाल्मिकीजी,नारदजी तथा घटयोनिजी(अगस्त्यजी) ने महर्षि पद प्राप्त किया | सत्सङ्गति का ऐसा प्रभाव है कि दुष्ट आदमी भी  सज्जन और विद्वान बन जाता है। गोस्वामीजी ने मानस में कहा है
“सत्संगति मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥”
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

✓राम के नाम की बड़ी महिमा है



✓राम के नाम की बड़ी महिमा है
समुद्र-मंथन से जब कालकूट विषाग्नि के रूप में हला-हल जहर निकला तब सभी जलचर छटपटाने लगे। समुद्र में खलबली मच गई। देवता घबड़ा गए, अरे ये क्या हुआ। प्रभु बोले मत घबड़ाओ शान्ति रखो। बिखरे हुए विष को एकत्र करके प्रभु भोलेनाथ शंकर की शरण में पहुँचे और निवेदन किया---
देवाधिदेव भोलेनाथ ! तीनों लोकों को जलाने वाले इस हलाहल विष से हमारी रक्षा करो। भोलेनाथ भवानी से मुसकुराते हुए बोले- हे देवी ! ये सब विष पीने के लिए हाथ-पैर जोड़ रहे हैं। बताइए मैं क्या करूँ? भवानी दुविधा में पड़ गई, फिर विचार करने के बाद बोलीं— भगवान ! आप वही कीजिए जिसमें सबका कल्याण हो। भोलेनाथ ने पूछा मतलब हम विष पी जाएँ। भवानी ने कहा— ये मैं नहीं कहती, कौन पतिव्रता नारी अपने पति से कहेगी कि तुम विष पियो। माँ पार्वती तो भगवान शंकर के प्रभाव को जानती ही थीं। इसीलिए उन्होंने परोक्ष रूप से अनुमोदन कर दिया।
प्रभावज्ञान्वमोदत। 
भोलेनाथ समझ गए बोले- लाओ कहाँ है? 
तत: करतलीकृत्यव्याप्य हालाहलं विषम । 
अभक्षयन् महादेव: कृपया भूत भावन: ॥
अंजलि बांधकर शंकर जी ने प्रभु का नाम लेकर तुरंत हलाहल विष पान किया। शिवजी जानते हैं कि यदि विष भीतर गया तो हमारे हृदय में श्रीराम का निवास है, उन्हें कष्ट पहुंचेगा और यदि वमन किया तो सम्पूर्ण श्रीष्टि जलकर नष्ट हो जाएगी। क्या करें। शंकर जी ने राम नाम का आश्रय लिया। रा कहने से मुंह खुल जाता है और म कहने से बंद हो जाता है। राम नाम के बीच में सारा विष गले में अटका लिया। न बाहर न भीतर। शिवजी ने स्वयं विष पी लिया और देवताओं को अमृत पान कराया, इसीलिए तो वे महादेव हैं। 
गोस्वामीजी कहते हैं ------
जरत सकाल सुर वृंद, विषम गरल जेहिं पान किय 
तेहि न भजसि मन मंद, को कृपाल संकर सरिस ॥ और
नाम प्रभाव जान शिव नीको।
कालकूट फल दीन्ह अमी को।
वास्तव में राम नाम महिमा अनन्त है। 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
एक बार कौशल्याजी, अंजनी माता और अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा साथ  साथ में बैठी थीं। कौशल्याजी ने अपने बेटे राम की बड़ाई करते हुए कहा बहन ! मेरा बेटा राम कितना महान है उसने इतने बड़े समुन्दर पर पुल बाँध दिया। यह सुनकर अंजनी माँ से नहीं रहा गया उन्होंने कहा बहन! अगर बुरा न मानो तो मैं भी कुछ कहूँ। मेरा बेटा हनुमान तो एक छलांग में ही समुद्र पार कर दिया था। अब तुम ही विचार करो वह कितना बड़ा पराक्रमी है। अब अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा से नहीं रहा गया। मेरे पतिदेव ने तो तीन आचमन में ही समुद्र को ही पी लिया था। यह सुनकर कौशल्या उदास हो गईं। मेरा बेटा राम तो तीसरे स्थान पर चला गया। माँ को उदास देखकर राम ने पूछा- क्या बात है माँ ?  माता कौशल्या ने सभी बातें दुखी होकर राम को सुनाया ,सब सुनने के बाद राम ने पूछा- अच्छा माँ ! ये तो बताओ, किसका नाम लेकर हनुमान ने समुद्र पार किया और अगस्त्य ऋषि ने  किसका नाम लेकर समुद्र का पान किया ?  मां वह है तेरे बेटे का नाम।
प्रभु राम ने माता श्री को यह भी बताया कि सेतुबंध के समय मैंने एक पत्थर उठाकर समुद्र में डाला वह पत्थर डूब गया। मैंने हनुमान से पूछा– क्या बात है हनुमान ! यह पत्थर क्यों डूब गया ? हनुमान जी ने बड़े ही सहजता से समझाया- प्रभु ! आप से बढ़कर आपका नाम है।फिर मेरा नाम राम लिखकर उसने पत्थर समुद्र में छोड़ा वह तैरने लगा। अब माता तू ही बता कौन बड़ा हैं। मां ने कहा  कि 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
राम से बढ़कर राम का नाम है।
नाम तुम्हारा तारनहारा............
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


✓रावण पुत्र अक्षय कुमार और हनुमानजी

✓रावण पुत्र अक्षय कुमार और हनुमानजी 

रावण ने जब अपने कानों से सुना, कि अमुक वानर बड़ा ही बलवान है, और अशोक वाटिका में उसने, वाटिका के साथ-साथ मेरे कितने ही रखवाले योद्धाओं का भी नाश कर दिया है। 
नाथ एक आवा कपि भारी। 
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥
तो पहले तो रावण को किसी की बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। उसे लगा कि पहली बात तो यह, कि मेरी सुरक्षा व्यवस्था इतनी चाक चौबन्द है, कि कोई भी लंका नगरी में प्रवेश करने की सोच भी नहीं सकता। लेकिन फिर भी अगर कोई घुसपैठिया, मेरी लंका नगरी में दाखिल हो ही गया है, तो उसे अभी पकड़ लेते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है, कि उसने मेरे कितने ही सैनिकों को कैसे मार डाला? कारण कि मनुष्य और वानर तो हम राक्षसों के स्वाभाविक ही आहार हैं। तो फिर अभी तक मेरे राक्षस रखवाले, उस दुष्ट वानर को पकड़ क्यों नहीं पाये? चलो कोई नहीं, मैं अभी कुछ और श्रेष्ठ योद्धाओं को भेजता हूँ। वे अभी उसका वध कर डालेंगे। लेकिन बेचारे रावण को क्या पता था, कि वह कीट पतंगों से कह रहा था, कि जाओ और गरुड़ को पकड़ कर लाओ। भला यह सत्य सिद्ध कहाँ से हो सकता था। कारण कि सुई की नोक से आप पर्वत का सीना छलनी नहीं कर सकते। लेकिन हाँ! अगर छिपकली को यह भ्रम हो ही गया हो, कि छत को उसने पकड़ कर संभाल रखा है। तो उसके भ्रम का कोई इलाज नहीं किया जा सकता है। रावण को लगा कि मेरे नये योद्धा अभी अशोक वाटिका जायेंगे और चंद पलों में ही मुझे सूचना देंगे, कि हमने उस वानर को मार गिराया। लेकिन रावण की इस परिकल्पना को तब बड़ा झटका लगा, जब उसने सुना, कि उस वानर ने तो अबकी बार के राक्षसों को भी मसल डाला। क्योंकि उन राक्षसों को देखते ही सबसे पहले तो श्रीहनुमान जी ने भयंकर गर्जना की। और देखते ही देखते उन राक्षसों को मार डाला। कुछ जो अधमरे बचे थे, वे चिल्लाते हुए भाग खड़े हुए-
‘सुति रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे।।’
रावण ने जब यह देखा, कि अमुक वानर ने तो इन राक्षसों को भी मार डाला। तो उसे अब लगा, कि वानर वाकई में बड़ा भारी बलवान है। रावण भीतर से क्रोध से तिलमिला उठा। अबकी बार उसने अपने बेटे अक्षय कुमार को आदेश दिया कि जाओ वीर पुत्र। उस दुष्ट वानर को उसके अपराधों का दण्ड देकर पुनः मेरे पास लौट कर आओ। पिता रावण का आदेश मिलते ही, अक्षय कुमार बहुत से श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर वहाँ पहुँचा, जहाँ श्रीहनुमान जी अपने रुद्र रूप को धारण किए हुए थे। अक्षय कुमार को अपनी ओर आता देख, श्रीहनुमानजी ने एक विशाल पेड़ को उखाड़ा और भयंकर ध्वनि में अक्षय कुमार को ललकारते हैं। अक्षय कुमार को लगा कि अरे वाह! क्या सचमुच में यही वह वानर है, जिससे नाहक ही हमारे योद्धा भय खा रहे थे। भला जो वानर युद्ध ही पेड़ पौधों को आधार बना करके कर रहा हो। वह भला कहाँ का वीर योद्धा? यह तो जंगली है। और यह जंगली जीव, मुझे एक ही गुण में निपुण दिखाई प्रतीत हो रहा है। वह यह कि यह उछल कूद में तो हमसे आगे हो सकता है, लेकिन बल व सामर्थ में नहीं। उछल कूद में भी हमसे अग्रणी भला क्यों न हो, मूर्ख वानर जो ठहरा। देखो तो, मंदबुद्धि मुझे देख कर गर्जना कर रहा है। लेकिन इसे क्या पता, कि मैं भी अक्षय कुमार हूँ। भला मुझे यह चंचल बँदर क्या मारेगा। इसे तो मैं अभी पल भर में ही मसल देता हूँ। लेकिन तब भी, इसे मारने में, संसार में मेरा अपयश ही होगा। दुनिया कहेगी, कि देखो अक्षय कुमार ने एक वानर को मार डाला। इसके स्थान पर कोई देव, दानव अथवा कोई बलवान राक्षस ही होता, तो कुछ रस भी होता। अब इस अभद्र वानर को मारने में तो, मेरे नाम को ही बट्टा लगेगा। चलो कोई नहीं, पिता की आज्ञा है, तो हम यह कड़वा घूँट भी भर लेते हैं। अक्षय कुमार मन ही मन संतुष्ट था लेकिन उसे क्या पता था, कि जिन श्रीहनुमान जी को, वह एक साधारण-सा वानर समझ रहा था, वास्तव में वे उसके बाप के भी बाप हैं। बाप इसलिए, क्योंकि श्रीहनुमान जी तो भगवान शंकर जी के अवतार हैं। और भगवान शंकर जी रावण के गुरु ठहरे। गुरु का पद् आप जानते ही होंगे। गुरु को शास्त्र पिता की संज्ञा भी देते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार श्रीहनुमान जी रावण के पिता तुल्य हुए। या सीधी-सीधी भाषा में कहें, तो श्रीहनुमान जी ठहरे रावण के बाप। तो सिद्ध हो गया न, कि श्रीहनुमान जी अक्षय कुमार के बाप के भी बाप हैं। अब बाप से बड़ा कोई पुत्र थोड़ी न हो सकता है। भले ही वह सौ कल्प का भी क्यों न हो। लेकिन अक्षय कुमार को तो लगा, कि मैं अभी इस दुष्ट वानर का वध कर देता हूँ। लेकिन उसे क्या पता था, कि श्रीहनुमान जी ने अभी-अभी जो विशाल वृक्ष उखाड़ा था, वह बगिया उजाड़ने के लिए थोड़ी न था। बल्कि अक्षय कुमार के जीवन की ही बगिया उजाड़ने के लिए था। श्रीहनुमान जी ने अन्य राक्षसों को तो शायद सँभलने का भी अवसर दिया था। लेकिन अक्षय कुमार को तो श्रीहनुमान जी ने यह अवसर भी नहीं दिया। पल झपकने का तो फिर भी पता चलता है, लेकिन अक्षय कुमार को, श्रीहनुमान जी ने कब उस वृक्ष के प्रहार से चारों खाने चित कर डाला, किसी को कानों कान ख़बर तक न हुई। श्रीहनुमान जी ने अक्षय कुमार को मार कर ऐसी भयंकर गर्जना की, कि बाकी राक्षसों की तो मानों छातियां ही फट गईं-
‘पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।’
चारों और राक्षसों में भगदड़ मच गई। सभी राक्षस यहाँ वहाँ दौड़ने लगे। जिसे जिधर रास्ता दिखाई प्रतीत होता। वह उस दिशा में दौड़ पड़ता। लेकिन कोई भी दिशा ऐसी न मिलती, जिधर से उन्हें श्रीहनुमान जी न घेरते नज़र आते। उन राक्षसों में से, श्रीहनुमान जी ने कुछ राक्षसों को तो मार दिया। कुछ को मसल दिया। और कुछ को पकड़-पकड़ कर धूल में मिला दिया। जो एकाध राक्षस बड़े ऊँचे भाग्य वाले थे, वे बच बचाकर फिर रावण की सभा में पहुँचे, और पुकार की, कि हे प्रभु! आप कुछ करिए, बँदर तो बड़ा ही भारी बलवान है-
‘कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।’

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

मानस चर्चा प्रश्न के प्रकार

मानस चर्चा प्रश्न के प्रकार 
आधार शिव पार्वती संवाद
प्रश्न उमा के * सहज सुहाई । 
छल बिहीन सुनि सिव मन भाई।
हर हिय रामचरित सब आए । 
प्रेम पुलक लोचन जल छाए।
इन पक्कातियोंं का  सरल अर्थ देखते हैं फिर आगे बढ़ते हैं- श्रीपार्वतीजीके छलरहित सहज ही सुन्दर प्रश्न सुनकर शिवजीके मनको भाये।  हर ( श्रीशिवजी)के हृदयमें सभी रामचरित आ गये। प्रेमसे शरीर पुलकित हो गया और नेत्रोंमें जल भर गया ।गोस्वामीजी सर्वत्र 'प्रश्न' शब्दको स्त्रीलिंग ही लिखते हैं। यथा 'प्रश्न उमा के सहज सुहाई'।और भी  'धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी । इत्यादि । 'सहज सुहाई' अर्थात् बनावटी नहीं; यथा - 'उमा प्रश्न तव सहज सुहाई ॥ ' छलरहित होनेसे 'सुहाई' कहा। अपना अज्ञान एवं जो बातें प्रथम सतीतनमें छिपाये रही थीं, यथा- 'मैं बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥' वह सब अब कह दीं; इसीसे 'छल बिहीन ' कहा । यथा- 'रामु कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥ईश्वरको छल नहीं भाता, यथा- 'निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥'ये प्रश्न 'छल बिहीन' हैं, अतः मनको भाये । प्रश्न 'सुहाये' और 'मन भाये' हैं यह आगे शिवजी स्वयं कहते हैं- 'उमा प्रस्न तव सहज सुहाई । सुखद संत संमत मोहि भाई ॥ ' अब हम प्रश्न की बात करें कि आखिर प्रश्न शब्द पर जोर क्यों,क्योंकि प्रश्न चार प्रकारके होते हैं - उत्तम, मध्यम, निकृष्ट और अधम । उत्तम प्रश्न छलरहित होते हैं, जैसे कि जिज्ञासु जिस बातको नहीं जानते उसकी जानकारीके लिये गुरुजनोंसे पूछते हैं, जिससे उनके मनकी भ्रान्ति दूर हो। फिर उन बातोंको समझकर वे उन्हें मनन करते हैं। जैसा कि मानस में कहा भी गया है- 'एक बार प्रभु सुख आसीना । लछिमन बचन कहे छल हीना ॥ 'मध्यम प्रश्न वह है जिनमें प्रश्नकर्ता वक्तापर अपनी विद्वत्ता को प्रकट करना चाहता है, जिससे वक्ता एवं और भी जो वहाँ बैठे हों वे भी जान जायँ कि प्रश्नकर्ता भी कुछ जानता है, विद्वान् है। निकृष्ट प्रश्न वह हैं जो वक्ताकी परीक्षाहेतु किये जाते हैं और अधम प्रश्न वे हैं जो सत्संग- वार्तामें उपाधि करने विघ्न डालनेके विचारसे किये जाते हैं। पार्वतीजीके प्रश्न उत्तम हैं, क्योंकि वे अपना संशय, भ्रम, अज्ञान मिटानेके उद्देश्यसे किये गये हैं। जैसा की पर्वतीजी कहती हैं-'जौ मोपर प्रसन्न सुखरासी । जानिय सत्य मोहि निज दासी ॥ तौ प्रभु हरहु मोर अज्ञाना । ॥' और भी आप देख सकते हैं  जैसे कि'जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू' 'अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवौं कर जोरें ॥ 'इत्यादि ।
'हर हिय रामचरित सब आए। यहाँयह कैसे कहा कि शिवजीके हृदयमें आये ? इस शंकाका समाधान यह है कि बात सब हृदयमें रहती है, पर स्मरण करानेसे उनकी स्मृति आ जाती है। मानसग्रन्थ हृदयमें रहा, पर पार्वतीजीके पूछनेसे वह सब स्मरण हो आया। यही भाव हृदयमें 'आए' का है । यथा - 'सुनि तव प्रश्न सप्रेम सुहाई । बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥' [भुशुण्डीजी सब जानते थे, पर गरुड़जीके प्रश्न करनेपर वे सब सामने उपस्थित - से हो गये,स्मरण हो आये। श्रीमद्भागवतमें इसी प्रकार जब वसुदेवजीने देवर्षि नारदजीसे अपने मोक्षके विषयमें उपदेश करनेकी प्रार्थना की; यथा - ' मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥' तब देवर्षि नारदजीने भी ऐसा ही कहा है, यथा—' त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः । स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥' अर्थात् आपने परमकल्याणस्वरूप भगवान् नारायणका मुझे स्मरण कराया जिनके गुणानुकीर्तन पवित्र हैं। वैसे ही यहाँ समझिये । पुनः जैसे पंसारीकी दूकानमें सब किराना रहता है, पर जब सौदा लेनेवाला आकर कोई एक, दो, चार वस्तु माँगता है तब उसके हृदयमें उस वस्तुका स्मरण हो आता है कि उसके पास वह वस्तु इतनी है और अमुक ठौर रखी है। इसी तरह जैसे-जैसे पार्वतीजीके प्रश्न होते गये वैसे ही - वैसे उनके उत्तरके अनुकूल श्रीरामचरित चित्तमें स्मरण हो आये ।] पुनः, हृदयमें 'आए' का भाव कि सब प्रश्नोंके उत्तर मुखाग्र कहने हैं, सब चरित शिवजीको कण्ठ हैं, उनके हृदयसे ही निकलेंगे, पोथीसे नहीं।  'सब' अर्थात् जोचरित पूछे हैं एवं जो नहीं पूछे हैं वे भी ।'प्रेम पुलक 'इति । चरित -स्मरण होनेसे प्रेम उत्पन्न हुआ; यथा—
'रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ।उससे शरीर पुलकित हुआ क्योंकि शिवजीका श्रीरामचरितमें अत्यन्त प्रेम है; यथा—' अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ॥
हर हिय रामचरित सब आए । यहां 'हर' शब्द देकर  यमक अलंकार के माध्यम से यह जनाया गया है  कि हर अर्थात् महादेव रामचरित कहकर उनका सब  दुःख हर अर्थात  हर लेगें । 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा कथाकार के लक्षण महादेव और राम कथा

मानस चर्चा कथाकार के लक्षण महादेव और राम कथा
आधार मानस की ये  चौपाई सुनते हैं 
बैठें सोह काम रिपु कैसें ।
धरे सरीरु सांत रसु जैसें ॥ 
पारबती भल अवसर जानी । 
गईं संभु पहिं मातु भवानी ॥ 
अर्थात् - कामदेवके शत्रु श्रीशिवजी बैठे हुए कैसे सुशोभित हो रहे हैं, जैसे  मानो शान्तरस ही शरीर धारण
किये। बैठा हो ॥  अच्छा अवसर मौका जानकर जगत् माता भवानी श्रीपार्वतीजी श्रीशिवजीके पास गयीं ॥ 
'बैठें सोह ' 'बैठे कहकर प्रसंग छोड़ा था, यथा- 'बैठे सहजहिं संभु कृपाला ।' बीचमें स्वरूपका वर्णन करने लगे थे, अब पुनः वहीं से उठाते हैं— 'बैठें सोह '।  'बैठें सोह कामरिपु’यहाँ 'कामरिपु' कहकर शान्तरसकी शोभा कही । तात्पर्य कि जबतक काम - विकारसे रहित न हो तबतक शान्तरस नहीं आ सकता, जब कामका नाश होता है तब शान्तरसकी शोभा है। जब मनुष्य शान्त होता है तभी बैठता है, बिना शान्तिके दौड़ता-फिरता रहता है।  'धरें सरीरु सांतरसु जैसें' इति । अर्थात् शिवजी शान्तरसके स्वरूप हैं। शान्तरस उज्ज्वल है और शिवजी भी गौरवर्ण हैं - कर्पूरगौरम्',  तथा उनका सब साज ही उज्ज्वल है। यथा -  'कुंद इंदु दर गौर सरीरा' (शरीर उज्ज्वल),  'नख दुति भगत हृदय तम हरना' (नखद्युति उज्ज्वल),  'भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी' (विभूति और शेष दोनों उज्ज्वल), ' आनन सरदचंद छबिहारी' (मुख चन्द्रसमान प्रकाशित), । 'शान्तका देवता परब्रह्म है, शिवजीके भी देवता परब्रह्म हैं, परमात्मा आलम्बन और आत्मतत्त्व उद्दीपन है।  निर्वेद (मनका वैराग्ययुक्त होना) स्थायी, रामतत्त्वका ज्ञान अनुभाव (शान्तरसको अनुभव करानेवाला), वट उद्दीपन और क्षमा विभाव है जो रसको प्रकट कर रहा है। करुणाकण जो तनमें विराजमान है वही संचारी है। इस रसके स्वामी ब्रह्म हैं । अतएव श्रीशिवजी अपने स्वामीकी अभंग कथा कहेंगे।  'कामरिपु' का भाव कि कामना अनेक दुःख उत्पन्न करती है, आप उनके निवारक हैं । अर्थात् श्रोताके हृदयसे कामनाओंको निर्मूल कर देनेको समर्थ हैं धरें सरीर सांतरस जैसें' - शान्त होकर बैठना भी उपदेशहेतु है । इससे जनाते हैं कि बिना शान्तचित्त हुए उपदेश लगता नहीं । अथवा, काम हरिकथाका बाधक है, यथा— 'क्रोधिहि सम कामिहिं हरिकथा। ऊसर बीज बए फल जथा ॥' तात्पर्य यह कि वक्ता और श्रोता दोनों निर्विकार हों।
कथाके प्रारम्भ-समय शिवजीका स्थान और स्वरूप वर्णन किया । इसीके द्वारा, इसीके व्याजसे ग्रन्थकारने कथाके स्थान और वक्ताओंके लक्षण कहे हैं । 'परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ शिव उमा निवासू ।। तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला।नित नूतन सुंदर सब काला ॥' से जनाया कि कथाका स्थान ऐसा होना चाहिये। अब उदाहरण सुनिये।  'भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन॥ तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । 'सब बिधि पुरी मनोहर जानी।सकल सिद्धिप्रद मंगलखानी 'गिरि सुमेरु उत्तर दिसि दूरी । नील सयल एक सुंदर भूरी । तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए ॥ तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला । बट पीपर पाकरी रसाला ॥ सैलोपरि सर सुंदर सोहा । मनि सोपान देखि मन मोहा।'  'मंगलरूप भयउ बन तब तें । कीन्ह निवास रमापति जब तें ॥ फटिकसिला अतिसुभ्र सुहाई । सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥ कहत अनुज सन कथा अनेका । भगति बिरति नृपनीति बिबेका ।'  इत्यादि ।
वक्ता कैसा होना चाहिये सो सुनिये ।– (१) 'निज कर डासि नागरिपु छाला'। ऐसा निरभिमान और कृपालु होना चाहिये । बैठें सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥' – ऐसा स्वरूप हो और निष्काम हो ।
वक्ताके सात लक्षण कहे गये हैं। यथा-
'विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् । दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिस्पृहः ॥ 
इन सातोंको श्रीशिवजीमें घटित दिखाते हैं । – (१) विरक्त, यथा- 'जोग ज्ञान वैराग्य निधि  । (२) वैष्णव, यथा- 'सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी।' (३) विप्र यथा— 'वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनम्'  (४) 'वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ' यथा— 'सकल कला गुन धाम। (५) दृष्टान्तकुशल, यथा- 'झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥'
'जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी' ।  'उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।' इत्यादि । (६) धीर, यथा- 'बैठें सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥' (७) निस्पृह, यथा - 'कामरिपु' अर्थात् निष्काम । शिवजी जहाँ बैठे हैं वहाँ 'संत बिटप सरिता गिरि धरनी' इन पंच परोपकारियोंका सम्मेलन हुआ है। यथा - 'शिव बिश्राम बिटप, ' 'परम रम्य गिरिबर कैलासू', 'सुंदर सिर गंगा'। और पृथ्वीपर तो बैठे ही हैं। शिवजी स्वयं संतशिरोमणि हैं ही। संतोंके लक्षण उनमें भरपूर हैं।
'पारबती भल अवसरु जानी ।"  अच्छा अवसर यह कि भगवान् शंकर सब कृत्यसे अवकाश पाकर एकान्तमें बैठे हैं। अपना मोह प्रकट करना है, इसलिये एकान्त चाहिये । श्रीभरद्वाजजीने भी अपना मोह श्रीयाज्ञवल्क्यजीसे एकान्तमें कहा था, जब सब मुनि चले गये थे, क्योंकि सबके सामने अपना मोह कहनेमें लज्जा लगती है; यथा - 'कहत सो मोहि लागत भय लाजा ।  जब शिवजी वट तले आये थे तब उनके साथ कोई न था, अपने हाथों उन्होंने बाघाम्बर बिछाया और जब पार्वतीजी आयीं तब भी वहाँ कोई और न आया था । स्त्री- पुरुषका एकान्त है यह समझकर आयीं ।  'भल अवसर' जानकर गयीं;
क्योंकि समयपर काम करना चाहिये, समयपर ही कार्य करनेकी प्रशंसा है, यथा- 'समयहि साधे काज सब समय
सराहहिं साधु' [ सब लोगोंने अवसर देखा है, वैसे ही पार्वतीजीने अवसर देखकर काम किया ।
उदाहरण, यथा- 'अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरि भवन पठाए । ' 'सो अवसरु बिरंचि
जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना । '  । 'सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं ॥'
'ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई । पुनि न बनिहि अस अवसरु आई।'  'अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहि नावा।' 'देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान ॥ ' 
 आप आम जीवन में भी पाते हैं की आम आदमी भी अवसर की ताक में रहता हैं नहीं तो अवसर चुके डोगरी नाचे ताल बे ताल और का वर्षा जब कृषि सुखाने।समय बीति पुनि का पछताने। अतः सीधी सी बात है कि
अवसरपर कार्य करनेसे कार्य सिद्ध होता है और संत तथा जगत् सराहता है। यथा - ' लाभ समयको पालिबो,
हानि समयकी चूक । सदा बिचारहिं चारुमति सुदिन कुदिन दिन टूक ॥'  'अवसर कौड़ी जो चुकै, बहुरि दिये का लाख । दुइज न चंदा देखिय, उदौ कहा भरि पाख ॥ ' ( 'समरथ कोउ न राम सों, तीय हरन अपराधु । समयहि साधे काज सब, समय सराहहिं साधु ।' इत्यादि ।  'पारबती' नामका भाव कि ये पर्वतराजकी कन्या हैं। पर्वत परोपकारी होते हैं, यथा- 'संत बिटप सरिता गिरि धरनी । परहित हेतु सबन्ह कै करनी ॥' अतः ये भी शिवजीके पास जगत्‌का उपकार करनेके विचारसे आयी हैं, यथा- 'कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ।।' [ नदी पर्वतसे निकलती है और समुद्रमें जा मिलती है।
वाल्मीकीयरामायणके सम्बन्धमें कहा गया ही है- 'वाल्मीकिगिरिसम्भूता रामसागरगामिनी।' वैसे ही श्रीरामचरितमानस कथारूपिणी नदी आप (पार्वतीजी) के द्वारा निकलकर श्रीरामराज्याभिषेक - प्रसंगरूपी समुद्रमें जा मिलेगी । - यह 'पार्वती' शब्दसे जनाया] 'गईं संभु पहिं मातु भवानी' इति । 'भवानी' (भवपत्नी) हैं, अतएव सबकी माता हैं। सबके कल्याणके लिये गयी हैं, इसीसे 'शंभु' पद दिया अर्थात् कल्याणकर्ताके पास गयीं। ( माता पुत्रोंका सदा कल्याण सोचती, चाहती और करती है। ये जगज्जननी हैं, अतएव ये जगत् मात्रका कल्याण सोचकर कल्याणके उत्पत्तिस्थान एवं कल्याणस्वरूप 'शंभु' के पास गयीं। 'शंभु' के पास गयी हैं, अतः अब इनका भी कल्याण होगा। शिवजी अब इनमें पत्नीभाव ग्रहणकर इनका वैसा ही आदर करेंगे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।