शनिवार, 8 जून 2024

मानस चर्चासहस नाम सम सुनि सिव बानी

मानस चर्चा
सहस नाम सम सुनि सिव बानी।जपि जेईं पिय संग भवानी॥ 
श्रीशिवजीके ये वचन सुनकर कि एक 'राम' नाम (विष्णु) सहस्रनामके समान है, श्रीपार्वतीजी तबसे बराबर श्रीरामनामको अपने प्रियतम पतिके साथ सदा जपती हैं ॥ 
श्रीपार्वतीजीकी इस प्रसंगके सम्बन्धकी कथा पद्मपुराण उत्तरखण्ड अ० २५४ में इस प्रकार से है कि एकबार
श्रीपार्वतीजीने श्रीवामदेवजीसे वैष्णवमन्त्रकी दीक्षा ली थी। फिर श्रीशिवजीने श्रीपार्वतीजीसे कहा कि हम
कृतकृत्य हैं कि तुम ऐसी वैष्णवी भार्या हमें मिली हो। तुम अपने गुरु महर्षि वामदेवजीके पास जाकर उनसे पुराणपुरुषोत्तमकी पूजाका विधान सीखकर उनका अर्चन करो। श्रीपार्वतीजीने जाकर गुरुदेवजीसे प्रार्थना की तब वामदेवजीने श्रेष्ठ मन्त्र और उसका विधान उनको बताया और विष्णुसहस्रनामका नित्य पाठ करनेको कहा। जैसा कि कहा भी गया है—
'इत्त्युक्तस्तु तया देव्या वामदेवो महामुनिः ।
 तस्यै मन्त्रवरं श्रेष्ठं ददौ स विधिना गुरुः ॥'
नाम्नां सहस्त्रविष्णोश्च प्रोक्तवान् मुनिसत्तमः ।'
एक समयकी बात है कि द्वादशीको सदा शिवजी जब भोजनको बैठे तब उन्होंने पार्वतीजीको साथ भोजन करनेको बुलाया। उस समय वे विष्णुसहस्रनामका पाठ कर रही थीं, अतः उन्होंने निवेदन किया कि अभी मेरा पाठ समाप्त नहीं हुआ। तब शिवजी बोले कि तुम धन्य हो कि भगवान् पुरुषोत्तममें तुम्हारी ऐसी भक्ति है और कहा कि
 'रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।
 तेन रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ ' 
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
 सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ' 
 रामेत्युक्त्वा महादेवि भुङ्क्ष्व सार्धंमयाधुना ॥
  अर्थात् योगीलोग अनन्त सच्चिदानन्द परमात्मामें रमते हैं, इसीलिये 'राम' शब्द को ही परब्रह्म कहा जाता है ॥ हे रमे ! हे सुन्दरि ! मैं राम-राम इस प्रकार जप करते हुए अति सुन्दर श्रीरामजीमें अत्यन्त रमता हूँ। तुम भी अपने मुखमें इस राम-नामका वरण करो,क्योंकि विष्णुसहस्रनाम इस एक रामनामके तुल्य है ॥ अतः महादेवि ! एक बार 'राम' ऐसा उच्चारण कर मेरे साथ आकर भोजन करो ॥ यह सुनकर श्रीपार्वतीजीने 'राम' नाम एक बार उच्चारण कर शिवजीके साथ भोजन कर लिया और तबसे पार्वतीजी बराबरश्रीशिवजीके साथश्री राम नाम जपा करती हैं। जैसा कि- वसिष्ठ कहा है- 
'ततो रामेति नामोक्त्वा सह भुक्त्वाथ पार्वती ।
रामेत्युक्त्वा महादेवि शम्भुना सह संस्थिता ॥ ' 
      मानस की यह पक्ती तो जन जन जानता ही है कि - 'मंगल भवन अमंगल हारी ।
 उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥'
 'जपि जेईं' पाठका अर्थ होगा जप किया और 'पतिके साथ जाकर भोजन कर लिया' । 'सिव बानी' शिववाणी कहनेका भाव यह है कि यह वाणी कल्याणकारी है, ईश्वरवाणी है, मर्यादायुक्त है; इसीसे बेखटके श्रीपार्वतीजीको निश्चय हो गया। वे जानती हैं कि
 संभु गिरा पुनि मृषा न होई।'
सिव सर्बग्य जान सबु कोई।।
   सनातन धर्म को मानने वाले के लिए पद्मपुराणकी उपर्युक्त कथासे यह शंका भी दूर हो जाती है कि 'क्या पतिके रहते हुए स्त्री दूसरेको गुरु कर सकती है ?' जगद्गुरु श्रीशंकरजीके रहते हुए भी श्रीपार्वतीजीने वैष्णवमन्त्रकी दीक्षा महर्षि वामदेवजीसे ली। श्रीनृसिंहपुराणमें श्रीनारदजीने श्रीयाज्ञवल्क्यजीसे कहा है कि पतिव्रताओंको श्रीरामनाम- कीर्तनका अधिकार है, इससे उनको इस लोक और परलोकका सब सुख प्राप्त हो जाता है। जैसा की कहा गया है-
'पतितानां सर्वासां रामनामानकीर्तन
ऐहिकाममिकं सौख्यं दायकं सर्वशोभते ॥' 
यह अद्भुत राम नाम की महत्ता 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा महिमा जासु जान गनराऊ ।

मानस चर्चा 
महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।
अर्थात् जिस श्रीरामनाम की महिमा श्रीगणेशजी जानते हैं। श्रीरामनामहीके प्रभावसे वे सब देवताओंसे पहले पूजे जाते हैं ॥ अर्थात् श्री राम नाम का प्रभाव  अप्रतिम है ।इस बात को सिद्ध करने वाली श्रीगणेशजीकी कथा शैवतन्त्रमें आती है कि जब श्री शिवजीने गणेशजीको प्रथम पूज्य बनाने की बात  शुरू किया तब स्वामिकार्त्तिकेयजीने
आपत्ति की कि हम बड़े भाई हैं, यह अधिकार हमको मिलना चाहिये। श्रीशिवजीने दोनोंको ब्रह्माजी के
पास न्याय कराने भेजा ।  आगे ब्रह्माजीने  सभी देवताओं को बुलाया और सब देवताओंसे पूछा कि तुममेंसे प्रथम पूज्य होनेका अधिकारी कौन है; तब सब ही अपने-अपनेको प्रथम पूजनेयोग्य कहने लगे ।
आपसमें वादविवाद बढ़ते देख श्रीब्रह्माजी बोले कि जो तीनों लोकोंकी परिक्रमा सबसे पहले करके हमारे
पास आवेगा वही प्रथम पूज्य होगा। स्वामिकार्त्तिकजी मोरपर अथवा सब देवता अपने-अपने वाहनों पर
परिक्रमा करने चले। गणेशजीका वाहन मूसा है। इससे ये सबसे पीछे रह जानेसे बहुत ही उदास हुए ।
उसी समय प्रभुकी कृपासे नारदजीने मार्गहीमें मिलकर उन्हें उपदेश किया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ' श्रीरामनाम'
के अन्तर्गत है । तुम 'राम' नामहीको पृथ्वीपर लिखकर नामहीकी परिक्रमा करके ब्रह्माजीके पास चले
जाओ । इन्होंने ऐसा ही किया । अन्य सब देवता जहाँ-जहाँ जाते, वहाँ ही अपने आगे मूसाके पैरोंके चिह्न
पाते थे। इस प्रकार गणेशजी श्रीरामनामके प्रभावसे प्रथम पूज्य हुए।
              एक अन्य कथाके अनुसार श्रीगणेशजीने  श्रीरामनामके कीर्त्तनसे अपना प्रथम पूज्य होना कहा है और यह भी कहा है कि उस 'राम' नामका प्रभाव आज भी मेरे हृदयमें विराजमान एवं प्रकाशित है। इस कथा में श्री जगदीश्वरका इनको रामनामकी महिमाका उपदेश करना कहा है।  - 
'रामनाम परं ध्येयं ज्ञेयं पेयमहर्निशम् । 
सदा वै सद्धिरित्युक्तं पूर्वं मां जगदीश्वरैः ॥
'अहं पूज्यो भवल्लोके श्रीमन्नामानुकीर्तनात् ॥'
'तदादि सर्वदेवानां पूज्योऽस्मि मुनिसत्तम। 
रामनामप्रभा दिव्या राजते मे हृदिस्थले ॥' 
पद्मपुराणसृष्टिखण्डमें श्रीगणेशजीके प्रथम पूज्य होनेकी एक दूसरी कथा जो व्यासजीने संजयजीसे कही है।  वह कथा यह है कि श्रीपार्वतीजीने पूर्वकालमें भगवान् शंकरजीके संयोगसे स्कन्द और गणेश नामक दो
पुत्रोंको जन्म दिया। उन दोनोंको देखकर देवताओंकी पार्वतीजीपर बड़ी श्रद्धा हुई और उन्होंने अमृत
तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक पार्वतीजीके हाथमें दिया । मोदक देखकर दोनों बालक उसे माता से
माँगने लगे। तब पार्वतीजी विस्मित होकर पुत्रोंसे बोलीं- 'मैं पहले इसके गुणोंका वर्णन करती हूँ, तुम दोनों सावधान होकर सुनो। इस मोदकके सूँघनेमात्रसे अमरत्व प्राप्त होता है और जो इसे सूँघता वा खाता है वह सम्पूर्ण शास्त्रोंका मर्मज्ञ, सब तन्त्रोंमें प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान्, ज्ञान-विज्ञानके तत्त्वको जाननेवाला और सर्वज्ञ होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । पुत्रो ! तुममेंसे जो धर्माचरणके द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसीको मैं यह मोदक दूँगी । तुम्हारे पिताकी भी यही सम्मति है । '
माताके मुखसे ऐसी बात सुनकर परम चतुर स्कन्द मयूरपर आरूढ़ हो तुरन्त ही त्रिलोकीके तीर्थोंकी यात्राके लिये चल दिये। उन्होंने मुहूर्त्तभरमें सब तीर्थोंका स्नान कर लिया। इधर लम्बोदर गणेशजी श्रीस्कन्दजीसे भी बढ़कर बुद्धिमान् निकले। वे माता-पिताकी परिक्रमा करके बड़ी प्रसन्नताके साथ पिताजीके सम्मुख खड़े हो गये। क्योंकि माता - पिताकी परिक्रमासे सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमा हो जाती है। जैसा कि  पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड  में कहा भी गया है-
'सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता ।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ॥
मातरं पितरंचैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम् ।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ॥'
श्री  गणेशजी की परिक्रमा पूर्ण होते ही श्रेकार्तिकेय जी भी आकर खड़े हुए और बोले, 'मुझे मोदक दीजिये ' । तब पार्वतीजी बोलीं, समस्त तीर्थोंमें किया हुआ स्नान, देवताओंको किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञोंका अनुष्ठान तथा सब प्रकारके सम्पूर्ण व्रत, मन्त्र, योग और संयमका पालन ये सभी साधन माता-पिताके पूजनके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकते । इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गुणोंसे भी बढ़कर है। अतः देवताओंका बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेशको ही अर्पण
करती हूँ । माता - पिताकी भक्तिके कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञमें सबसे पहले पूजा होगी। महादेवजी बोले,
'इस गणेशके ही अग्रपूजनसे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होगें' ।
यह है  राम नाम का प्रभाव ---
महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

बुधवार, 5 जून 2024

मानस चर्चा श्रीहनुमानजी का तीन नामों से वंदना

मानस चर्चा  श्रीहनुमानजी का तीन नामों से वंदना 
मानसकार  गोस्वामी तुलासीदासजी वंदना क्रम में लिखते है कि 
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥
यहां हमे महाबीर, हनुमान और पवनकुमार तीन नाम मिल रहे हैं।आखिर तीन नामों से वंदना क्यों जानते इस विशेष तथ्य को ।किसी मानस मर्मज्ञ  ने इसके उत्तर में क्या खूब लिखा है 
महाबीर हनुमान कहि, पुनि कह पवनकुमार।
देव इष्ट अरु भक्त लखि, बंदउ कवि त्रयबार।। अर्थात् महाबीर,हनुमान और फिर पवनकुमार कहकर देव इष्ट अरु भक्त के रूप में तीन बार वंदना की गई है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सेवक स्वामि सखा सिय पी के।। रुपों को ध्यान में रखकर तीन नामों से वंदना सापेक्ष्य है सोदेश्य है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा (धोबी की कथा)सियनिंदक अघ ओघ नसाए

मानस चर्चा (धोबी की कथा)
सियनिंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ।।
प्रभु श्री राम ने श्रीसीताजीकी निन्दा करनेवाले अपने पुरीमें ही रहनेवाले धोबी अथवा पुरवासियों  के पापसमूहका नाश किया और अपने विशोकलोकमें आदरसहित उनको वास दिया ॥ 
यहाँ 'विशोक'लोक=सान्तानिकपुर है |
वाल्मीकीय रामायण तथा अध्यात्मरामायणमें यह कथा दी है और गीतावलीसे भी पुरवासियोंहीका निन्दा करना पुष्ट होता है ।गीतावली  में कहा है कि
'चरचा चरनिसों चरची जानमनि रघुराइ । 
दूत- मुख सुनि लोक-धुनि धर धरनि बूझी आइ ।'
ममता यह दिखायी कि प्राणप्यारी श्रीसीताजीका परित्याग सहन किया,निन्दकको दण्ड न दिया, किन्तु अयोध्यामें उसको बसाये रखा और निन्दाके शोकसे भी रहित कर दिया । ऐसा सहनशील प्रभु और कौन होगा? ऐसा लोकमर्यादाका रक्षक कौन होगा? प्रजाको प्राणसे भी अधिक माननेवाला कौन होगा? उनको अपनी प्रजाके लिये कैसा मोह है ! वे यह नहीं सह सकते कि प्रजा
दुराचारिणी हो जाय । 'मर्यादापुरुषोत्तम' पदवी इन्हींको मिली है, फिर भला वे कब सह सकेंगे कि उनकी
प्रजा 'मनुष्यत्व' और 'धर्मनीति' की मर्यादासे गिर जाय ? यद्यपि श्रीसीता  पर कलंक सर्वथा झूठा है, यद्यपि उसके साक्षी देवता मौजूद हैं, पर इस समय यदि प्रजाका समाधान देवता भी आकर कर देते तो भी प्रजाके जीसे
उसका अंकुर न जाता । मन, कर्म, वचन तीनोंसे उनको सदाचारी बननेका सर्वोत्तम उपाय यही हो सकता
था; अन्य नहीं । पातिव्रत्यधर्मकी मर्यादा नष्ट न होने पावे, राज्य और राजाके आचरणपर धब्बा न लगाया
जा सके, इत्यादि विचार राजा रामचन्द्रजीके हृदयमें सर्वोपरि विराजमान थे। तभी तो उनके दस हजार वर्षसे
भी अधिक राज्यके समयमें अकालका नाम भी न सुना गया, कुत्ता जैसे जानवर आदि के  साथ भी न्याय हुआ । सोचिये तो आजकलके राजा और प्रजाकी दशा ! क्या किसी रानीके चरितपर कलंक लगानेवाला जीता रह सकता था? क्या आजकलके न्याय और न्यायालय हमें सत्यधर्मसे च्युत नहीं करते? इत्यादि । विनयके इस पद को देखें ----
'बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको ।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥' 
अध्यात्मरामायणमें उत्तरकाण्डके चौथे
 सर्गमें लिखा है कि-----
 'दशवर्षसहस्त्राणि मायामानुषविग्रहः ।
चकार राज्यं विधिवल्लोकवन्द्यपदाम्बुजः ॥
'देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते।
कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादंत्वदाश्रयम् ॥
त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः ॥
अर्थात् मायामानुषरूपधारी श्रीरामजीने जिनके
चरणकमलोंकी वन्दना त्रैलोक्य करता है, विधिपूर्वक दस हजार वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात् एक दिन
महारानीजीने उनसे कहा कि देवता मुझसे बार-बार कहते हैं कि आप वैकुण्ठ चलें तो श्रीरामजी भी वैकुण्ठ
आ जायेंगे, इत्यादि। श्रीरामजीने कहा कि मैं सब जानता हूँ। इसके लिये तुम्हें उपाय बताता हूँ। मैं तुमसे सम्बन्ध
रखनेवाले लोकापवादके बहाने से तुम्हें, लोकापवादसे डरनेवाले अन्य पुरुषोंके समान वनमें त्याग दूँगा ।  आपसमें यह सलाह हो जानेपर श्रीरामजीने अपने दूत विजय से पूछा कि मेरे, सीताके, मेरी माताओं, मेरी भाइयोंके अथवा माताकैकेयीजीके विषयमें पुरवासी क्या कहते हैं तब उसने कहा कि 'सर्वे वदन्ति ते ---
किन्तु हत्वा दशग्रीवं सीतामाहृत्य राघवः ।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा स्वं वेश्म प्रत्यपादयत् ॥ 
अस्माकमपि दुष्कर्म योषितां मर्षणं भवेत्। 
यादृग् भवति वै राजा तादृश्यो नियतं प्रजाः ॥'  
अर्थात् सभी कहते हैं कि उन्होंने रावणको मारकर सीताजीको बिना किसी प्रकारका सन्देह किये ही अपने साथ लाकर रख लिया। अब हमें भी अपनी स्त्रियोंके दुश्चरित सहने पड़ेंगे, क्योंकि जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा भी होती है ।कुछ लोग ------
'सिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज , (रज यानि धोबी)
निज नय नगर बसाई '
विनयके इस पद  के उद्धरणके बलपर 'सिय निंदक' से कुछ लोग 'धोबी'  द्वारा की गई निंदा का अर्थ ग्रहण करते हैं। लेकिन इसके पीछे की कहानी तो कुछ और ही है--- लगभग दस हजार वर्ष राज्य कर चुकने के पीछे प्रभुकी इच्छासे नगरमें कुछ काना-फूसी श्रीजानकीजीके बारेमें होने लगी। यह चर्चा सर्वत्र गुप्तरूपसे प्रारम्भ हुई, प्रकटरूपसे एक धोबीका निन्दा करना पाया जाता है। यह धोबी कौन था ? इसके प्रसंगमें यह कथा है कि वह  धोबी पूर्वजन्ममें शुक था। यह शुक अपनी शुकीके साथ क्रीड़ा कर रहा था। श्रीजानकीजीका उस समय बालपन था। आपने दोनोंको अलग-अलग पिंजरेमें कर दिया । शुकने वियोगमें श्री किशोरीजी को शाप दिया कि जैसे तुमने हमको शुकीसे छुड़ाया, वैसे ही तुम्हारा भी विछोह तुम्हारे पतिसे होगा ।
'अवधवासी सब कृतार्थरूप हैं। जैसा कि - 
'उमा अवधबासी नर नारि कृतारथरूप ।' 
तब उन्होंने ऐसे कठोर वचन कैसे कहे ? और फिर श्रीरघुनाथजीने यह भागवतापराध कैसे क्षमा कर दिया ?' इसका समाधान यह है कि - (क) उनका कोई अपराध नहीं है। बालकृष्णदास स्वामी 'सिद्धान्ततत्त्वदीपिकाकार' लिखते हैं कि-
'तिहि जो कह्यौ राम हौं नाहीं ।
इती शक्ति कहँ है मो माहीं ॥ 
जिहि आवत रावण है जान्यो ।
राखहु छाया सियहि बखान्यो । 
लै निज प्रिया अग्नि महँ राखी।
जननी जानि तेहि सुअभिलाषी ॥
छाया हरण हारहू मारयो । 
यों जग महँ निज यश विस्तारयो ॥
तिहि समता अब हौं क्यों करों ।
या करि जग अपयश ते डरों ।
सियहू रूपशील गुण करि कै।
सब बिधि अतुल पतिव्रत धरिकै ।
अपनो पिय अस वश तेहि कीनो । 
निशि दिन रहै तासु रस भीनो ॥
तिहि सम तू न हौं न बस तेरे ।
यों नहिं तुहि राखों निज नेरे ॥'
इस प्रकार उसने श्रीजानकीजीके गुण गाकर अपनी स्त्रीको शिक्षा दी। उसके अन्तःकरणमें तो कोई विकार न
था, परन्तु ऊपरसे सुननेमें लोगोंको और दूत विजय को उसकी बातें अनैसी  अर्थात् बुरी लगीं। प्रभु तो हृदयकी लेते हैं। जैसा कि-
 'कहत नसाइ होइ हिय नीकी । 
 रीझत राम जानि जन जी की ।'
 पुनः  वाल्मीकिजी सीताजीको पुत्रीरूपसे भजते थे।
उनकी आशा पूर्ण करनेके लिये यह चरित किया । पुनः,  अपने वीरोंको अभिमान हो गया था कि रावण - ऐसेको हमलोगोंने जीता, उन सबोंका अभिमान अपने पुत्रोंद्वारा नाश करानेके लिये लीला की । पुनः, पिताकी शेष आयुका भोग करना है, उस समय सीताजीको साथ रखनेसे धर्ममें बट्टा लगता । अतःरजक अर्थात् धोबी द्वारा यह त्यागका चरित किया। इसमें रजकका दोष क्या ?
'सियनिंदक अघ ओघ नसाए' इति । 
भाव यह कि साधारण किसीकी भी निन्दा करना 
पाप है । जैसा की -
' पर निंदा सम अघ न गरीसा'  
श्रीसीताजी तो 'आदिशक्ति' ब्रह्मस्वरूपा हैं कि 'जासु कृपाकटाक्ष सुर चाहत चितव न सोइ' और 'जासु अंस उपजहिं गुन खानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥' इनकी निन्दा करना तो पापका समूह ही बटोरना है। इसलिये 'अघ ओघ' कहा। कोई-कोई लोग जो भगवद्भक्त नहीं हैं सीतात्यागके कारण श्रीरामचन्द्रजीपर दोषारोपण करते हैं। साधारण दृष्टिसे उसका उत्तर यह है कि भगवान्‌ के छः ऐश्वर्योंमेंसे एक 'वैराग्य' भी है। अर्थात् कामिनीकांचनका त्याग। 'कांचन' अर्थात् राज्यवैभवका त्याग जिस प्रकार हँसते-हँसते भगवान्ने वनगमनके समय किया था—
 'नवगयंद रघुबंसमनि राज अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंद अधिकान।।
उसी तरह अनासक्त भावसे।विशुद्धचरिता, पतिव्रता, निज भार्याका त्याग भी भगवान्ने मिथ्यापवादके कारण किया। और महापतित रजकके दोषपर तनिक भी ध्यान न देते हुए उसे परधाममें आश्रय दिया, उसपर जरा भी रोष नहीं प्रकट किया। इस प्रकार रागरोषरहित मानसका परिचय दिया। इसी तरह लोकमतका आदर करके उन्होंने परमोत्कृष्ट नैतिक भावकी प्रतिष्ठा की, एवं इसी बहाने वात्सल्यरस - रसिक महर्षि वाल्मीकिकी पुरातन इच्छकी पूर्ति की । 
' 'लोक बिसोक बनाइ बसाए' अब यह जानते हैं कि, पुरवासियों अथवा धोबी के 'अघ ओघ' का नाश करके फिर क्या किया? उसको कौन धाम मिला ? इसपर महानुभाव अनेक भाव कहते हैं और ये सब भाव 'लोक बिसोक से ही निकाले हैं - विनयपत्रिकाके के पद
'तिय- निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नयनगर बसाई'
के आधारपर पं० रामकुमारजी यह भाव कहते हैं कि श्रीसीताजीकी निन्दा करनेसे दिव्य लोककी प्राप्ति नाश हो गयी थी, इसलिये दूसरा 'बिसोक लोक' जहाँ गिरनेका शोक नहीं है अर्थात्  अक्षयलोक  बनाकर उसमें उसको बसाया। यही विनयपत्रिकावाला 'नया नगर' है। यहां 'नय' का अर्थ'नया' ही लिया जाता  हैं। ऐसी  मान्यता है कि श्रीअयोध्या में विरजानदीके पार अयोध्याके दक्षिणद्वारपर  सांतानिकपुर है, जिसकी 'वन' संज्ञा है, जैसे --
वृन्दावन,  आनन्दवन,  - प्रमोदवन -बदरीवन  हैं वैसे ही सांतानिकपुर  अयोध्याहीमें है, वहाँ बसाया ।  सदाशिवसंहिताका में कहा भी गया है कि  - 
'त्रिपाद भूतिवैकुण्ठे विरजायाः परे तटे ।
या देवानां पुरायोध्या ह्यमृते तां नृतां पुरीम् ॥ साकेतदक्षिणद्वारे हनुमन्नामवत्सलः ।
यत्र सांतानिकं नामवनं दिव्यं हरेः प्रियम् ॥' 
धोबी  ने श्रीसीताजीके पातिव्रत्यपर सन्देह किया 
था, इसीसे उसके मन में इस बात को लेकर शोक था। उस सन्देह और शोकको श्रीवाल्मीकिजी तथा श्रीसीताजीको श्रीरामजीने सबके सामने बुलाकर सत्य शपथ दिलाकर मिटाया; जैसा कि अध्यात्मरामायण में कहा है- 
'भगवन्तं महात्मानं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम् ।
आनयध्वं मुनिवरं ससीतं देवसम्मितम् ॥
अस्यास्तु पार्षदो मध्ये प्रत्ययं जनकात्मजा । 
करोतु शपथं सर्वे जानन्तु गतकल्मषाम् ॥ ' 
 अर्थात् 'श्रीरामजीने कहा कि देवतुल्य मुनिश्रेष्ठ भगवान् श्रीवाल्मीकिजीको सीताजीके सहित लाओ। इस सभामें जानकीजी सबको विश्वास करानेके लिये शपथ करें, जिससे सब लोग सीताजीको निष्कलंक जान ले और इस धोबी  का शोक भी नष्ट हो जायें।' दोनों सभामें आये। पहले महर्षि वाल्मीकिजीने शपथ खायी, फिर श्रीजानकीजीने। और इसके बाद सभी का शोक दूर हो गया।  इस प्रकार प्रभु श्री राम ने 
सियनिंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

सोमवार, 3 जून 2024

मानस चर्चाबंदौ अवधपुरी अति पावनि

मानस चर्चा
बंदौ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
 मैं अति पवित्र और कलियुगके पापोंको नाश करनेवाली श्री अयोध्यापुरी और श्रीसरयू नदीको
प्रणाम करता हूँ ॥ 
अवधपुरी अति पावनीहै,इसलिये 'कलिकलुष नसावनि'है।
स्पष्ट लिखा  है
- 'देखत पुरी अखिल अघ भागा । बन उपबन बापिका
तड़ागा ॥' और सरयूजी तो 'कलिकलुष नसावनि' हैं, अतः वे भी अति पावनी हैं। प्रभु  श्रीराम स्वयं कहते हैं- 'जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरयू पावनि ॥'  वास्तव में देखा जय तो
दोनों ही है 'अति पावनि।' 
हैं'कलि कलुष नशावनि'।
 दोनोंकी एक ही स्थान पर वन्दना की  गई है, पृथक्-पृथक् वन्दना  नहीं है ।क्योंकि सरयूजी श्री अयोध्याजीका अंग हैं।  'अवधपुरी' कहकर थलकी और 'सरयूसरि' कहकर जल की।अर्थात् जल-थल दोनोंकी वन्दना की ।
 महर्षि वाल्मीकिजीने भी कहा है 
 'कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं परम् ॥
 ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः ।
 तस्मात्सुखाव सरसः सायोध्यामुपगूहते ॥
 सरः प्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरश्च्युता । ' 
अर्थात् विश्वामित्रजी श्रीरामजीसे कहते हैं कि यह नदी ब्रह्माके मनसे रचे हुए मानस-सरसे निकली है । सरसे
निकलनेके कारण सरयू नाम हुआ।  श्रीअयोध्या-सरयूका सम्बन्ध भी है। श्रीसरयूजी श्रीअयोध्याजीके लिये ही
आयी हैं। इसीसे उन्होंने आगे अपना नाम रहनेकी चिन्ता न की। गंगाके मिलनेपर अपना नाम छोड़ दिया । 
 स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड अयोध्यामाहात्म्य में, श्री अयोध्याजी और श्रीसरयूजीका माहात्म्य इस प्रकार
कहा है- 'मन्वन्तरसहस्त्रैस्तु काशीवासेषु यत्फलम् । तत्फलं समवाप्नोति सरयूदर्शने कृते ॥
 मथुरायां कल्पमेकं वसते मानवो यदि । 
तत्फलं समवाप्नोति सरयूदर्शने कृते ॥
 षष्टिवर्षसहस्त्राणि भागीरथ्यावगाहजम् । 
तत्फलं निमिषार्द्धेन कलौ दाशरथीं पुरीम् ॥' अर्थात् हजार मन्वन्तरतक काशीवास करनेका जो फल है वह श्रीसरयूजीके दर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है। मथुरापुरीमें एक कल्पतक वास करनेका फल सरयूदर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है। साठ हजार वर्षतक गंगाजीमें स्नान करनेका जो फल है वह इस कलिकालमें श्रीरामजीकी पुरी श्री अयोध्या में आधे पलभरमें प्राप्त हो जाता है। और यह भी कहा गया है कि श्री अयोध्यापुरी पृथ्वीको स्पर्श नहीं करती, यह विष्णु चक्रपर बसी हुई है । 
 'विष्णोराद्या पुरी चेयं क्षितिं न स्पर्शति द्विज । 
विष्णोः सुदर्शने चक्रे स्थिता पुण्यकरी स्थितौ ॥ ' 
 फिर श्रीवचनामृत भी है-
 'जा मज्ञ्जन ते बिनहि प्रयासा ।
 मम समीप नर पावहिं बासा ॥
हमारे यहां  सात पुरियाँ मोक्ष देनेवाली हैं। कहा गया है।
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका । 
द्वारावती तथा ज्ञेया सप्तपर्यश्च मोक्षदाः ॥'
 ये सातों पुरियाँ विष्णुभगवान्‌के अंगमें हैं, इन सबोंमें श्री अयोध्यापुरी अग्रगण्य है। शरीरके अंगोंमें मस्तक सबसे ऊँचा होता है और सबका राजा कहलाता है।विष्णुभगवान्‌ के अंगमें श्रीअयोध्यापुरीका स्थान मस्तक है । जैसा कि  रुद्रयामल अयोध्यामाहात्म्य में  लिखा है – 
विष्णोः पादमवन्तिकां गुणवतीं मध्यं च कांचीपुरीं
 नाभिं द्वारवतीं वदन्ति हृदयं मायापुरीं योगिनः । ग्रीवामूलमुदाहरन्ति मथुरां नासां च वाराणसीमेतद्
ब्रह्मपदं वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरीं मस्तकम् ॥'
 पुनश्च यथा - 'कल्पकोटिसहस्राणां काशीवासस्य यत्फलम्। तत्फलं क्षणमात्रेण कलौ दाशरथीं पुरीम् ॥'
 सब पावनी हैं और यह अति पावनी है ।  तीर्थराज प्रयाग
कहीं नहीं जाते, पर श्रीरामनवमीको वे भी श्री अवध आते हैं। यथा-जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। 'तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥' इसके प्रियत्वके विषयमें श्रीमुखवचन है कि 'जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जग जाना ॥ अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ । यह प्रसंग जानइ कोड कोऊ ।' फिर भला वह 'अति पावनि ' क्यों न हो !  करुणासिन्धुजी लिखते हैं कि जो पदार्थ राजस - तामस - गुणरहित है और केवल सात्त्विक गुणयुक्त है, वह 'पावन' कहा जाताहै और जो काल, कर्म, गुण, स्वभाव सबसे रहित हो वह 'अति पावन' है। आचार्य द्विवेदीजी कहते हैं - 'न योध्या कैश्चिदिति अयोध्या' अर्थात् चढ़ाई कर जिस पुरीको कोई जीत न सके वह अयोध्या है, इसीका अपभ्रंश
अवध है, ऐसी बहुतोंकी सम्मति है। 'न वधः कैश्चिदिति अवधः' अर्थात् किसीसे जो नष्ट न हो वह 'अवध' । 
 तुलसीदासजी को तो यह 'अवध' नाम ऐसा पसन्द है कि मानस भरमें उन्होंने यही नाम रखा है। 'अयोध्या' यह नाम कहीं नहीं रखा, केवल एक स्थानपर आया है। यथा - 'दिन प्रति सकल अयोध्या आवहिं । देखि नगरु बिराग बिसरावहिं ॥' श्रीकाष्ठजिह्वास्वामीजीने 'रामसुधा' ग्रन्थके चौथे पदमें'अयोध्या' की व्याख्या यों की है।
 'अवधकी महिमा अपरंपार, गावत हैं श्रुति चार।
 विस्मित अचल समाधिनसे 'जो ध्याई, बारंबार ।
 ताते नाम अयोध्या गायो यह ऋग बेद पुकार ॥
 रजधानी परबल कंचनमय अष्टचक्र नवद्वार।
 ताते नाम अयोध्या पावन अस यजु करत बिचार ॥ 'अकार यकार उकार देवत्रय ध्याई' जो लखि सार ।
ताते नाम अयोध्या ऐसे साम करत निरधार ॥
 जगमग कोश जहाँ अपराजित ब्रह्मदेव आगार ॥
 ताते नाम अयोध्या ऐसो कहत अथर्व उदार ॥ ' 
 रुद्रयामल अयोध्यामाहात्म्यमें शिवजी कहते हैं-
 'श्रूयतां महिमा तस्या मनो दत्त्वा च पार्वति ।
 अकारो वासुदेवः स्याद्यकारस्ते प्रजापतिः । 
उकारो रुद्ररूपस्तु तां ध्यायन्ति मुनीश्वराः ।
सर्वोपपातकैर्युक्तैर्ब्रह्महत्यादिपातकैः ॥
 न योध्या सर्वतो यस्मात्तामयोध्यां ततो विदुः । विष्णोराद्यापुरी चेयं क्षितिं न स्पृशति प्रिये ॥
 विष्णोः सुदर्शने चक्रे स्थिता पुण्याकरा सदा।'
अर्थात् हे पार्वती ! मन लगाकर अयोध्याजीकी महिमा सुनो। 'अ' वासुदेव हैं। 'य' ब्रह्मा और 'उ' रुद्ररूप हैं ऐसा मुनीश्वर उसका ध्यान करते हैं। सब पातक और उपपातक मिलकर भी उससे युद्ध नहीं कर सकते; इसीलिये
उसकोअयोध्या कहते हैं।विष्णुकी यह आद्यापुरी चक्रपर स्थित है, पृथ्वीका स्पर्श नहीं करती। 
 'कलिकलुष नसावनि'  । कलियुगके ही पापोंका क्षय करनेवाली क्यों कहा, पापी तो और युगों में भी होते आये हैं ? उत्तर यह है कि यहाँ गोस्वामीजीने और युगोंका नाम इससे न दिया कि औरोंमें सतोगुण - रजोगुण अधिक और तमोगुण कम होता है। पाप तमोगुणहीका स्वरूप है। कलियुगमें तमोगुणकी अधिकता होती है, सत्त्व और रज तो नाममात्र रह जाते हैं, जैसा उत्तरकाण्डमें कहा है- 'नित जुग धर्म होहिं सब केरे । हृदय राममाया के प्रेरे ॥
 सुद्ध सत्त्व समता बिज्ञाना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥ सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा । सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥
 बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस । द्वापर धर्म हरष भय
मानस ॥
 तामस बहुत रजोगुन थोरा । कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥' पुनः श्रीमुखवचन है कि 'ऐसे अधम मनुज खल कृतयुग त्रेता नाहिं । द्वापर कछुक बूंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥ ', 'कलि केवल मलमूल मलीना । पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥ ' जब ऐसे कलिके कलुषकी नाश करनेकी
शक्ति है तो अल्प पाप विचारे किस गिनतीमें होंगे !
ऐसी है हमारी अयोध्या ,आइए हम पुनः अयोध्या की वंदना गोस्वामीजी के ही शब्दों में करते हैं
बंदौ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

 

✓मानस चर्चा मनि मानिक मुकुता छबि जैसी


मानस चर्चा उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं । इस धरा पर कुछ भी उत्पन्न कही और होता है और उसकी शोभा कही और होती है।गोस्वामीजी ने लिखा है 
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरिगज सिर सोह न तैसी ॥ मनि /मणि अर्थात् बहुमूल्य रत्न जैसे हीरा, पन्ना आदि। मानिक /माणिक्य अर्थात् लाल माणिक्य जिसके 
तीन भेद हैं, पद्मराग, कुरुबिन्दु और सौगन्धिक। कमलके रंगका पद्मराग, टेसूके रंगका लाल कुरुबिन्द और
गाढ़ रक्तवर्ण-सा सौगन्धिक। हीरेको छोड़ यह और सबसे कड़ा होता है। मुकुता (मुक्ता) अर्थात् मोती , मोतीकी
उत्पत्तिके स्थान गज, घन, वराह, शंख, मत्स्य, सीप, सर्प, बाँस और शेष हैं, पर यह विशेषतः सीपमें होती है औरोंमें कहीं-कहीं ही मिलती हैं। इसके बारे में विख्यात है--- "करीन्द्रजीमूतवराहशंखमत्स्याहिशक्त्युद्भववेणुजानि । मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि।। 
इन पक्तियों का सीधा साधा अर्थ है कि मणि, माणिक्य और मुक्ताकी छबि जैसी है, वैसी ही सर्प, पर्वत और हाथीके मस्तकमेंशोभित नहीं होती अर्थात् उनसे पृथक होने पर ही इनका वास्तविक स्वरूप प्रकट होता है और ये सुशोभित होते हैं ॥ 
नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिँ सकल सोभा अधिकाई 
 ये सब राजा, राजा, राजाका मुकुटऔर नवयौवना स्त्रीके शरीरको पाकर ही उनके सम्बन्धसे अधिक शोभाको प्राप्त करते हैं ॥ 
तैसेहि सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥ ३ ॥
सज्जन लोग कहते हैं कि ठीक उसी तरह अच्छे विद्वान हम कहें अच्छे इंसान और सुकविकी कविता उत्पन्न कही और होते हैं और शोभा कही और प्राप्त करते है कहा भी गया है कि 'उपजी तो और ठौर, शोभा पाई और ठौर'! ठीक इसी प्रकार की बात संस्कृत में भी कही गई है कि 
कविः करोति काव्यानि बुधः संवेत्ति तद्रसान् । 
तरुः प्रसूते पुष्पाणि मरुद्वहति सौरभम् ॥'
हमारे समाज में इसीलिए जन्म स्थान और कर्म स्थान कहा जाता है।हम अपने प्रभु श्री राम के जीवन इतिहास को देखें तो पाएंगे कि उक्त सारी पक्तियां उन पर यथार्थ है। अतः इसे सपूतों का जीवन धन्य है जो  
उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ।
 मनि मानिक मुकुता छबि गहही।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।


रविवार, 2 जून 2024

मानस-चर्चा ।।गई बहोर गरीब नेवाजू ।।

मानस-चर्चा
गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥  हम आज इस मंत्र के अंदर छिपे हुवे रहस्यों को जानने का प्रयास कर रहे है। इस मंत्र का भाव क्या है ,इस मंत्र के अनुसार राम के कौन से विविध रूप  हैं और  इस मंत्र में भगवान विष्णु के कौन-कौन से  विविध अवतारों को चित्रण किया गया है ,इन सभी बातों पर चर्चा प्रारम्भ करे उससे पहले इसके अर्थ को जानते हैं। सामान्य अर्थ है कि 
श्रीरघुनाथजी खोयी हुई वस्तुको दिलानेवाले, गरीबनिवाज  दीनोंपर कृपा करनेवाले, सरल-स्वभाव वाले, सबल, सर्वसमर्थ स्वामी और रघुकुलके राजा हैं 
'गई बहोर' अर्थात्  गई  = खोयी हुई वस्तुको फिरसे ज्यों-की-त्यों प्राप्त करा देनेवाले  हैं श्री राम। आप ध्यान दे तो पाएंगे कि जहां दशरथमहाराजका कुल ही जाता था ।  ' भइ गलानि मोरे सुत नाहीं ॥' वहां 
उनके कुलकी रक्षा की।  जब विश्वामित्रजीका यज्ञ मारीचादिके कारण बन्द हो गया था, तब आपने मुनि श्रेष्ठ को निर्भय किया। देखत जग्य निसाचर धावहिं । करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥ तो फिर '  'निरभय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥'  जब  माता अहल्याका पातिव्रत्य नष्ट हुआ।तब उनका रूप उनको फिर दिया, पाषाणसे स्त्री किया और उन्हें  फिर उनके  पतिसे मिलाया। "गौतम नारी साप बस उपल देह धरि धीर ।" और 
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी । जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।  
 जब श्रीजनकजी की - प्रतिज्ञा गयी रही,तब उनका प्रण रखा। 
' तजहु आस निज निज गृह जाहू ।लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥  सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।  तब
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा । कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं । और  ""जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । ' 
वानर राज सुग्रीवजीको फिर राज्य दिया।'सो सुग्रीव कीन्ह कपि राऊ। 'बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज ।तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीब निवाज ॥ '  मायाके कारण जो सब धन ऐश्वर्यहीन हो गये उन गरीबोंको ऐश्वर्य देनेवाले होनेसे 'गरीबनिवाज' कहा।
'सरल' के  तो आप मूर्ति  ही हैं- ' 'राम कहा सब कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥'  'बेद बचन मुनि मन अगम, ते प्रभु करुना ऐन । बचन किरातन्ह के सुनत, जिमि पितु बालक बैन ।'  'सकल मुनिन्हके आश्रमन्हि, जाइ जाइ सुख दीन्ह ।'  'सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ।'  निषादराज और माता शबरीके प्रसंग इसी गुणको सूचित करते हैं।
'सबल'का तो  रामायणभर इसका दृष्टान्त है। सबल ऐसे कि 'सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई ।चाहत जासु चरन सेवकाई ।।'
साहिब का तो कोई जबाब ही नहीं
'हरि तजि और भजिये काहि । नाहिन कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥
 आप हैं 'रघुराजू'  । ऐसे कुलमें अवतीर्ण हुए कि जिसमें लोकप्रसिद्ध उदार, शरणपालादि राजा हुए और आपका राज्य कैसा हुआ कि ' त्रेता भइ सतजुग की करनी ।' 'राम राज बैठे त्रैलोका । हरषित भये गये सब सोका ॥ बयरु न करु काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहि नाहिं ।  इससे
दिखाया कि इनकी शरण लेनेसे जीव अभय हो जाते हैं। इस प्रकार आप  के हैं 'सरल सबल साहिब रघुराजू'  ।
सरल के साथ, सबल इसलिये कहा कि सबलताही में 'सरलता' और 'शक्ति'हीमें क्षमाकी शोभा होती है।
और यह न समझा जावे कि ये शक्तिहीन थे, अतएव दीन या सरल थे । यथा - 'शक्तानां भूषणं क्षमा । क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
 ज्ञानमें मौन और शक्तिमें क्षमा, दानमें अमानता,  सबलतामें सरलता - ये गुण स्वभावसे सिद्ध हैं। देखें 
'ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघा विपर्ययः । 
  गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ॥ '
सो उन रघुवंशियोंमें और उस रघुकुलमें श्रीरामचन्द्रजी सर्वश्रेष्ठ अतएव पुरुषोत्तम हैं।
अब हम यहां विविध अवतारों को देखते हैं 
गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥ से यहां सात अवतार सूचित किये हैं ।  'मीन कमठ सूकर नरहरी । बामन परसुराम बपु धरी ॥' '
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो ।
नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ॥' एक एक शब्दों पर ध्यान देते हुवे समझने का प्रयास करते हैं 
(A)'गई बहोर' से 'मीन, कमठ, शूकर' अवतार सूचित किये। शंखासुर वेदको चुराकर समुद्रमें ले गया था, सो मत्स्यरूपसे ले आये । दुर्वासाके शापसे लक्ष्मी समुद्रमें लुप्त हो गयी थीं । क्षीरसागर मथनेके लिये गरुड़पर मन्दराचल आए । देवताओंके सँभाले जब न सँभला तो कमठरूपसे मन्दराचलको पीठपर धारण किया। हिरण्याक्ष पृथ्वीको पाताल ले गया तब शूकररूप हो पृथ्वीका उद्धार किया ।
(B) 'गरीब नेवाजू' से नृसिंह अवतार सूचित किया जिसमें प्रह्लादजीकी हर तरहसे रक्षा की, 'खम्भमेंसे निकले' । 
(C) 'सरल' से वामन अवतार सूचित किया। क्योंकि प्रभुता तजकर विप्ररूप धर भीख माँगी।
(D) 'सबल' से परशुराम अवतार  जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रिय विहीन किया।
(E) इत्यादि जितने अवतार हैं उन सबके साहिब हैं श्री  राम ।
 (F) 'सबल साहिब रघुराजू' ऐसे सबल परशुराम उनके भी स्वामी श्रीरामजी हैं कि जिनकी स्तुति परशुरामजीने की।
जय रघुबंस बनज बन भानू।
 गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी।
 जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
बिनय सील करुना गुन सागर।
 जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा।
 जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा।
 जय महेस मन मानस हंसा॥
 अवतारका  ही परास्त हो गया ।इसी लिए आपको अवतारोंका अवतारी सूचित किया ।
 ' एतेषामवताराणामवतारी रघूत्तम।' (हनुमत्संहिता)
सुदर्शनसंहितामें लिखा है कि
'राघवस्य गुणो दिव्यो महाविष्णुः स्वरूपवान्। 
वासुदेवो घनीभूतस्तनुतेजः सदाशिवः ॥ 
मत्स्यश्च रामहृदयं योगरूपी जनार्दनः ।
कुर्मश्चाधारशक्तिश्च वाराहो भुजयोर्बलम् ॥
नारसिंहो महाकोपो वामनः कटिमेखला । 
भार्गवो जङ्घयोर्जातो बलरामश्च पृष्ठतः ॥
बौद्धस्तु करुणा साक्षात् कल्किश्चित्तस्य हर्षतः ।
कृष्णः श्रृंगाररूपश्च वृन्दावनविभूषणः । 
एते चांशकलाः सर्वे रामो ब्रह्म सनातनः ॥ ' 
अर्थात् श्रीराघवके दिव्य गुण हैं वही विष्णु हैं, उनका कल्याणकारी घनीभूत तेज वासुदेव हैं, योगरूपी जनार्दन श्रीरामजीका हृदय मत्स्य है, आधारशक्ति कूर्म, बाहुबल वाराह, महाक्रोध नृसिंह, कटिमेखला वामन, जंघा परशुराम, पृष्ठभाग बलराम, बौद्ध साक्षात् श्रीरामजीकी करुणा, चित्तका हर्ष कल्कि और श्रीकृष्ण वृन्दावनविहारी श्रीरामजीके शृंगारस्वरूप हैं। इस प्रकार ये सब श्रीरामजीके अंश हैं और श्रीराम अंशी स्वयं भगवान् हैं। सम्भवतः इसीके आधारपर मानसमयंककारने लिखा है, 'परसुराम अति सबल हैं, साहिब सब पर राम । 
हिय अधार भुज कोप कटि जंघ अंश सुखधाम ॥' 
सिया वर राम चंद्र की जय
।। जय श्री राम जय हनुमान।।