मानस चर्चा (धोबी की कथा)
सियनिंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ।।
प्रभु श्री राम ने श्रीसीताजीकी निन्दा करनेवाले अपने पुरीमें ही रहनेवाले धोबी अथवा पुरवासियों के पापसमूहका नाश किया और अपने विशोकलोकमें आदरसहित उनको वास दिया ॥
यहाँ 'विशोक'लोक=सान्तानिकपुर है |
वाल्मीकीय रामायण तथा अध्यात्मरामायणमें यह कथा दी है और गीतावलीसे भी पुरवासियोंहीका निन्दा करना पुष्ट होता है ।गीतावली में कहा है कि
'चरचा चरनिसों चरची जानमनि रघुराइ ।
दूत- मुख सुनि लोक-धुनि धर धरनि बूझी आइ ।'
ममता यह दिखायी कि प्राणप्यारी श्रीसीताजीका परित्याग सहन किया,निन्दकको दण्ड न दिया, किन्तु अयोध्यामें उसको बसाये रखा और निन्दाके शोकसे भी रहित कर दिया । ऐसा सहनशील प्रभु और कौन होगा? ऐसा लोकमर्यादाका रक्षक कौन होगा? प्रजाको प्राणसे भी अधिक माननेवाला कौन होगा? उनको अपनी प्रजाके लिये कैसा मोह है ! वे यह नहीं सह सकते कि प्रजा
दुराचारिणी हो जाय । 'मर्यादापुरुषोत्तम' पदवी इन्हींको मिली है, फिर भला वे कब सह सकेंगे कि उनकी
प्रजा 'मनुष्यत्व' और 'धर्मनीति' की मर्यादासे गिर जाय ? यद्यपि श्रीसीता पर कलंक सर्वथा झूठा है, यद्यपि उसके साक्षी देवता मौजूद हैं, पर इस समय यदि प्रजाका समाधान देवता भी आकर कर देते तो भी प्रजाके जीसे
उसका अंकुर न जाता । मन, कर्म, वचन तीनोंसे उनको सदाचारी बननेका सर्वोत्तम उपाय यही हो सकता
था; अन्य नहीं । पातिव्रत्यधर्मकी मर्यादा नष्ट न होने पावे, राज्य और राजाके आचरणपर धब्बा न लगाया
जा सके, इत्यादि विचार राजा रामचन्द्रजीके हृदयमें सर्वोपरि विराजमान थे। तभी तो उनके दस हजार वर्षसे
भी अधिक राज्यके समयमें अकालका नाम भी न सुना गया, कुत्ता जैसे जानवर आदि के साथ भी न्याय हुआ । सोचिये तो आजकलके राजा और प्रजाकी दशा ! क्या किसी रानीके चरितपर कलंक लगानेवाला जीता रह सकता था? क्या आजकलके न्याय और न्यायालय हमें सत्यधर्मसे च्युत नहीं करते? इत्यादि । विनयके इस पद को देखें ----
'बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको ।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥'
अध्यात्मरामायणमें उत्तरकाण्डके चौथे
सर्गमें लिखा है कि-----
'दशवर्षसहस्त्राणि मायामानुषविग्रहः ।
चकार राज्यं विधिवल्लोकवन्द्यपदाम्बुजः ॥
'देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते।
कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादंत्वदाश्रयम् ॥
त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः ॥
अर्थात् मायामानुषरूपधारी श्रीरामजीने जिनके
चरणकमलोंकी वन्दना त्रैलोक्य करता है, विधिपूर्वक दस हजार वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात् एक दिन
महारानीजीने उनसे कहा कि देवता मुझसे बार-बार कहते हैं कि आप वैकुण्ठ चलें तो श्रीरामजी भी वैकुण्ठ
आ जायेंगे, इत्यादि। श्रीरामजीने कहा कि मैं सब जानता हूँ। इसके लिये तुम्हें उपाय बताता हूँ। मैं तुमसे सम्बन्ध
रखनेवाले लोकापवादके बहाने से तुम्हें, लोकापवादसे डरनेवाले अन्य पुरुषोंके समान वनमें त्याग दूँगा । आपसमें यह सलाह हो जानेपर श्रीरामजीने अपने दूत विजय से पूछा कि मेरे, सीताके, मेरी माताओं, मेरी भाइयोंके अथवा माताकैकेयीजीके विषयमें पुरवासी क्या कहते हैं तब उसने कहा कि 'सर्वे वदन्ति ते ---
किन्तु हत्वा दशग्रीवं सीतामाहृत्य राघवः ।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा स्वं वेश्म प्रत्यपादयत् ॥
अस्माकमपि दुष्कर्म योषितां मर्षणं भवेत्।
यादृग् भवति वै राजा तादृश्यो नियतं प्रजाः ॥'
अर्थात् सभी कहते हैं कि उन्होंने रावणको मारकर सीताजीको बिना किसी प्रकारका सन्देह किये ही अपने साथ लाकर रख लिया। अब हमें भी अपनी स्त्रियोंके दुश्चरित सहने पड़ेंगे, क्योंकि जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा भी होती है ।कुछ लोग ------
'सिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज , (रज यानि धोबी)
निज नय नगर बसाई '
विनयके इस पद के उद्धरणके बलपर 'सिय निंदक' से कुछ लोग 'धोबी' द्वारा की गई निंदा का अर्थ ग्रहण करते हैं। लेकिन इसके पीछे की कहानी तो कुछ और ही है--- लगभग दस हजार वर्ष राज्य कर चुकने के पीछे प्रभुकी इच्छासे नगरमें कुछ काना-फूसी श्रीजानकीजीके बारेमें होने लगी। यह चर्चा सर्वत्र गुप्तरूपसे प्रारम्भ हुई, प्रकटरूपसे एक धोबीका निन्दा करना पाया जाता है। यह धोबी कौन था ? इसके प्रसंगमें यह कथा है कि वह धोबी पूर्वजन्ममें शुक था। यह शुक अपनी शुकीके साथ क्रीड़ा कर रहा था। श्रीजानकीजीका उस समय बालपन था। आपने दोनोंको अलग-अलग पिंजरेमें कर दिया । शुकने वियोगमें श्री किशोरीजी को शाप दिया कि जैसे तुमने हमको शुकीसे छुड़ाया, वैसे ही तुम्हारा भी विछोह तुम्हारे पतिसे होगा ।
'अवधवासी सब कृतार्थरूप हैं। जैसा कि -
'उमा अवधबासी नर नारि कृतारथरूप ।'
तब उन्होंने ऐसे कठोर वचन कैसे कहे ? और फिर श्रीरघुनाथजीने यह भागवतापराध कैसे क्षमा कर दिया ?' इसका समाधान यह है कि - (क) उनका कोई अपराध नहीं है। बालकृष्णदास स्वामी 'सिद्धान्ततत्त्वदीपिकाकार' लिखते हैं कि-
'तिहि जो कह्यौ राम हौं नाहीं ।
इती शक्ति कहँ है मो माहीं ॥
जिहि आवत रावण है जान्यो ।
राखहु छाया सियहि बखान्यो ।
लै निज प्रिया अग्नि महँ राखी।
जननी जानि तेहि सुअभिलाषी ॥
छाया हरण हारहू मारयो ।
यों जग महँ निज यश विस्तारयो ॥
तिहि समता अब हौं क्यों करों ।
या करि जग अपयश ते डरों ।
सियहू रूपशील गुण करि कै।
सब बिधि अतुल पतिव्रत धरिकै ।
अपनो पिय अस वश तेहि कीनो ।
निशि दिन रहै तासु रस भीनो ॥
तिहि सम तू न हौं न बस तेरे ।
यों नहिं तुहि राखों निज नेरे ॥'
इस प्रकार उसने श्रीजानकीजीके गुण गाकर अपनी स्त्रीको शिक्षा दी। उसके अन्तःकरणमें तो कोई विकार न
था, परन्तु ऊपरसे सुननेमें लोगोंको और दूत विजय को उसकी बातें अनैसी अर्थात् बुरी लगीं। प्रभु तो हृदयकी लेते हैं। जैसा कि-
'कहत नसाइ होइ हिय नीकी ।
रीझत राम जानि जन जी की ।'
पुनः वाल्मीकिजी सीताजीको पुत्रीरूपसे भजते थे।
उनकी आशा पूर्ण करनेके लिये यह चरित किया । पुनः, अपने वीरोंको अभिमान हो गया था कि रावण - ऐसेको हमलोगोंने जीता, उन सबोंका अभिमान अपने पुत्रोंद्वारा नाश करानेके लिये लीला की । पुनः, पिताकी शेष आयुका भोग करना है, उस समय सीताजीको साथ रखनेसे धर्ममें बट्टा लगता । अतःरजक अर्थात् धोबी द्वारा यह त्यागका चरित किया। इसमें रजकका दोष क्या ?
'सियनिंदक अघ ओघ नसाए' इति ।
भाव यह कि साधारण किसीकी भी निन्दा करना
पाप है । जैसा की -
' पर निंदा सम अघ न गरीसा'
श्रीसीताजी तो 'आदिशक्ति' ब्रह्मस्वरूपा हैं कि 'जासु कृपाकटाक्ष सुर चाहत चितव न सोइ' और 'जासु अंस उपजहिं गुन खानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥' इनकी निन्दा करना तो पापका समूह ही बटोरना है। इसलिये 'अघ ओघ' कहा। कोई-कोई लोग जो भगवद्भक्त नहीं हैं सीतात्यागके कारण श्रीरामचन्द्रजीपर दोषारोपण करते हैं। साधारण दृष्टिसे उसका उत्तर यह है कि भगवान् के छः ऐश्वर्योंमेंसे एक 'वैराग्य' भी है। अर्थात् कामिनीकांचनका त्याग। 'कांचन' अर्थात् राज्यवैभवका त्याग जिस प्रकार हँसते-हँसते भगवान्ने वनगमनके समय किया था—
'नवगयंद रघुबंसमनि राज अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंद अधिकान।।
उसी तरह अनासक्त भावसे।विशुद्धचरिता, पतिव्रता, निज भार्याका त्याग भी भगवान्ने मिथ्यापवादके कारण किया। और महापतित रजकके दोषपर तनिक भी ध्यान न देते हुए उसे परधाममें आश्रय दिया, उसपर जरा भी रोष नहीं प्रकट किया। इस प्रकार रागरोषरहित मानसका परिचय दिया। इसी तरह लोकमतका आदर करके उन्होंने परमोत्कृष्ट नैतिक भावकी प्रतिष्ठा की, एवं इसी बहाने वात्सल्यरस - रसिक महर्षि वाल्मीकिकी पुरातन इच्छकी पूर्ति की ।
' 'लोक बिसोक बनाइ बसाए' अब यह जानते हैं कि, पुरवासियों अथवा धोबी के 'अघ ओघ' का नाश करके फिर क्या किया? उसको कौन धाम मिला ? इसपर महानुभाव अनेक भाव कहते हैं और ये सब भाव 'लोक बिसोक से ही निकाले हैं - विनयपत्रिकाके के पद
'तिय- निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नयनगर बसाई'
के आधारपर पं० रामकुमारजी यह भाव कहते हैं कि श्रीसीताजीकी निन्दा करनेसे दिव्य लोककी प्राप्ति नाश हो गयी थी, इसलिये दूसरा 'बिसोक लोक' जहाँ गिरनेका शोक नहीं है अर्थात् अक्षयलोक बनाकर उसमें उसको बसाया। यही विनयपत्रिकावाला 'नया नगर' है। यहां 'नय' का अर्थ'नया' ही लिया जाता हैं। ऐसी मान्यता है कि श्रीअयोध्या में विरजानदीके पार अयोध्याके दक्षिणद्वारपर सांतानिकपुर है, जिसकी 'वन' संज्ञा है, जैसे --
वृन्दावन, आनन्दवन, - प्रमोदवन -बदरीवन हैं वैसे ही सांतानिकपुर अयोध्याहीमें है, वहाँ बसाया । सदाशिवसंहिताका में कहा भी गया है कि -
'त्रिपाद भूतिवैकुण्ठे विरजायाः परे तटे ।
या देवानां पुरायोध्या ह्यमृते तां नृतां पुरीम् ॥ साकेतदक्षिणद्वारे हनुमन्नामवत्सलः ।
यत्र सांतानिकं नामवनं दिव्यं हरेः प्रियम् ॥'
धोबी ने श्रीसीताजीके पातिव्रत्यपर सन्देह किया
था, इसीसे उसके मन में इस बात को लेकर शोक था। उस सन्देह और शोकको श्रीवाल्मीकिजी तथा श्रीसीताजीको श्रीरामजीने सबके सामने बुलाकर सत्य शपथ दिलाकर मिटाया; जैसा कि अध्यात्मरामायण में कहा है-
'भगवन्तं महात्मानं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम् ।
आनयध्वं मुनिवरं ससीतं देवसम्मितम् ॥
अस्यास्तु पार्षदो मध्ये प्रत्ययं जनकात्मजा ।
करोतु शपथं सर्वे जानन्तु गतकल्मषाम् ॥ '
अर्थात् 'श्रीरामजीने कहा कि देवतुल्य मुनिश्रेष्ठ भगवान् श्रीवाल्मीकिजीको सीताजीके सहित लाओ। इस सभामें जानकीजी सबको विश्वास करानेके लिये शपथ करें, जिससे सब लोग सीताजीको निष्कलंक जान ले और इस धोबी का शोक भी नष्ट हो जायें।' दोनों सभामें आये। पहले महर्षि वाल्मीकिजीने शपथ खायी, फिर श्रीजानकीजीने। और इसके बाद सभी का शोक दूर हो गया। इस प्रकार प्रभु श्री राम ने
सियनिंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।