सोमवार, 3 जून 2024

मानस चर्चाबंदौ अवधपुरी अति पावनि

मानस चर्चा
बंदौ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
 मैं अति पवित्र और कलियुगके पापोंको नाश करनेवाली श्री अयोध्यापुरी और श्रीसरयू नदीको
प्रणाम करता हूँ ॥ 
अवधपुरी अति पावनीहै,इसलिये 'कलिकलुष नसावनि'है।
स्पष्ट लिखा  है
- 'देखत पुरी अखिल अघ भागा । बन उपबन बापिका
तड़ागा ॥' और सरयूजी तो 'कलिकलुष नसावनि' हैं, अतः वे भी अति पावनी हैं। प्रभु  श्रीराम स्वयं कहते हैं- 'जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरयू पावनि ॥'  वास्तव में देखा जय तो
दोनों ही है 'अति पावनि।' 
हैं'कलि कलुष नशावनि'।
 दोनोंकी एक ही स्थान पर वन्दना की  गई है, पृथक्-पृथक् वन्दना  नहीं है ।क्योंकि सरयूजी श्री अयोध्याजीका अंग हैं।  'अवधपुरी' कहकर थलकी और 'सरयूसरि' कहकर जल की।अर्थात् जल-थल दोनोंकी वन्दना की ।
 महर्षि वाल्मीकिजीने भी कहा है 
 'कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं परम् ॥
 ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सरः ।
 तस्मात्सुखाव सरसः सायोध्यामुपगूहते ॥
 सरः प्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरश्च्युता । ' 
अर्थात् विश्वामित्रजी श्रीरामजीसे कहते हैं कि यह नदी ब्रह्माके मनसे रचे हुए मानस-सरसे निकली है । सरसे
निकलनेके कारण सरयू नाम हुआ।  श्रीअयोध्या-सरयूका सम्बन्ध भी है। श्रीसरयूजी श्रीअयोध्याजीके लिये ही
आयी हैं। इसीसे उन्होंने आगे अपना नाम रहनेकी चिन्ता न की। गंगाके मिलनेपर अपना नाम छोड़ दिया । 
 स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड अयोध्यामाहात्म्य में, श्री अयोध्याजी और श्रीसरयूजीका माहात्म्य इस प्रकार
कहा है- 'मन्वन्तरसहस्त्रैस्तु काशीवासेषु यत्फलम् । तत्फलं समवाप्नोति सरयूदर्शने कृते ॥
 मथुरायां कल्पमेकं वसते मानवो यदि । 
तत्फलं समवाप्नोति सरयूदर्शने कृते ॥
 षष्टिवर्षसहस्त्राणि भागीरथ्यावगाहजम् । 
तत्फलं निमिषार्द्धेन कलौ दाशरथीं पुरीम् ॥' अर्थात् हजार मन्वन्तरतक काशीवास करनेका जो फल है वह श्रीसरयूजीके दर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है। मथुरापुरीमें एक कल्पतक वास करनेका फल सरयूदर्शनमात्रसे प्राप्त हो जाता है। साठ हजार वर्षतक गंगाजीमें स्नान करनेका जो फल है वह इस कलिकालमें श्रीरामजीकी पुरी श्री अयोध्या में आधे पलभरमें प्राप्त हो जाता है। और यह भी कहा गया है कि श्री अयोध्यापुरी पृथ्वीको स्पर्श नहीं करती, यह विष्णु चक्रपर बसी हुई है । 
 'विष्णोराद्या पुरी चेयं क्षितिं न स्पर्शति द्विज । 
विष्णोः सुदर्शने चक्रे स्थिता पुण्यकरी स्थितौ ॥ ' 
 फिर श्रीवचनामृत भी है-
 'जा मज्ञ्जन ते बिनहि प्रयासा ।
 मम समीप नर पावहिं बासा ॥
हमारे यहां  सात पुरियाँ मोक्ष देनेवाली हैं। कहा गया है।
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका । 
द्वारावती तथा ज्ञेया सप्तपर्यश्च मोक्षदाः ॥'
 ये सातों पुरियाँ विष्णुभगवान्‌के अंगमें हैं, इन सबोंमें श्री अयोध्यापुरी अग्रगण्य है। शरीरके अंगोंमें मस्तक सबसे ऊँचा होता है और सबका राजा कहलाता है।विष्णुभगवान्‌ के अंगमें श्रीअयोध्यापुरीका स्थान मस्तक है । जैसा कि  रुद्रयामल अयोध्यामाहात्म्य में  लिखा है – 
विष्णोः पादमवन्तिकां गुणवतीं मध्यं च कांचीपुरीं
 नाभिं द्वारवतीं वदन्ति हृदयं मायापुरीं योगिनः । ग्रीवामूलमुदाहरन्ति मथुरां नासां च वाराणसीमेतद्
ब्रह्मपदं वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरीं मस्तकम् ॥'
 पुनश्च यथा - 'कल्पकोटिसहस्राणां काशीवासस्य यत्फलम्। तत्फलं क्षणमात्रेण कलौ दाशरथीं पुरीम् ॥'
 सब पावनी हैं और यह अति पावनी है ।  तीर्थराज प्रयाग
कहीं नहीं जाते, पर श्रीरामनवमीको वे भी श्री अवध आते हैं। यथा-जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। 'तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥' इसके प्रियत्वके विषयमें श्रीमुखवचन है कि 'जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जग जाना ॥ अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ । यह प्रसंग जानइ कोड कोऊ ।' फिर भला वह 'अति पावनि ' क्यों न हो !  करुणासिन्धुजी लिखते हैं कि जो पदार्थ राजस - तामस - गुणरहित है और केवल सात्त्विक गुणयुक्त है, वह 'पावन' कहा जाताहै और जो काल, कर्म, गुण, स्वभाव सबसे रहित हो वह 'अति पावन' है। आचार्य द्विवेदीजी कहते हैं - 'न योध्या कैश्चिदिति अयोध्या' अर्थात् चढ़ाई कर जिस पुरीको कोई जीत न सके वह अयोध्या है, इसीका अपभ्रंश
अवध है, ऐसी बहुतोंकी सम्मति है। 'न वधः कैश्चिदिति अवधः' अर्थात् किसीसे जो नष्ट न हो वह 'अवध' । 
 तुलसीदासजी को तो यह 'अवध' नाम ऐसा पसन्द है कि मानस भरमें उन्होंने यही नाम रखा है। 'अयोध्या' यह नाम कहीं नहीं रखा, केवल एक स्थानपर आया है। यथा - 'दिन प्रति सकल अयोध्या आवहिं । देखि नगरु बिराग बिसरावहिं ॥' श्रीकाष्ठजिह्वास्वामीजीने 'रामसुधा' ग्रन्थके चौथे पदमें'अयोध्या' की व्याख्या यों की है।
 'अवधकी महिमा अपरंपार, गावत हैं श्रुति चार।
 विस्मित अचल समाधिनसे 'जो ध्याई, बारंबार ।
 ताते नाम अयोध्या गायो यह ऋग बेद पुकार ॥
 रजधानी परबल कंचनमय अष्टचक्र नवद्वार।
 ताते नाम अयोध्या पावन अस यजु करत बिचार ॥ 'अकार यकार उकार देवत्रय ध्याई' जो लखि सार ।
ताते नाम अयोध्या ऐसे साम करत निरधार ॥
 जगमग कोश जहाँ अपराजित ब्रह्मदेव आगार ॥
 ताते नाम अयोध्या ऐसो कहत अथर्व उदार ॥ ' 
 रुद्रयामल अयोध्यामाहात्म्यमें शिवजी कहते हैं-
 'श्रूयतां महिमा तस्या मनो दत्त्वा च पार्वति ।
 अकारो वासुदेवः स्याद्यकारस्ते प्रजापतिः । 
उकारो रुद्ररूपस्तु तां ध्यायन्ति मुनीश्वराः ।
सर्वोपपातकैर्युक्तैर्ब्रह्महत्यादिपातकैः ॥
 न योध्या सर्वतो यस्मात्तामयोध्यां ततो विदुः । विष्णोराद्यापुरी चेयं क्षितिं न स्पृशति प्रिये ॥
 विष्णोः सुदर्शने चक्रे स्थिता पुण्याकरा सदा।'
अर्थात् हे पार्वती ! मन लगाकर अयोध्याजीकी महिमा सुनो। 'अ' वासुदेव हैं। 'य' ब्रह्मा और 'उ' रुद्ररूप हैं ऐसा मुनीश्वर उसका ध्यान करते हैं। सब पातक और उपपातक मिलकर भी उससे युद्ध नहीं कर सकते; इसीलिये
उसकोअयोध्या कहते हैं।विष्णुकी यह आद्यापुरी चक्रपर स्थित है, पृथ्वीका स्पर्श नहीं करती। 
 'कलिकलुष नसावनि'  । कलियुगके ही पापोंका क्षय करनेवाली क्यों कहा, पापी तो और युगों में भी होते आये हैं ? उत्तर यह है कि यहाँ गोस्वामीजीने और युगोंका नाम इससे न दिया कि औरोंमें सतोगुण - रजोगुण अधिक और तमोगुण कम होता है। पाप तमोगुणहीका स्वरूप है। कलियुगमें तमोगुणकी अधिकता होती है, सत्त्व और रज तो नाममात्र रह जाते हैं, जैसा उत्तरकाण्डमें कहा है- 'नित जुग धर्म होहिं सब केरे । हृदय राममाया के प्रेरे ॥
 सुद्ध सत्त्व समता बिज्ञाना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥ सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा । सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥
 बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस । द्वापर धर्म हरष भय
मानस ॥
 तामस बहुत रजोगुन थोरा । कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥' पुनः श्रीमुखवचन है कि 'ऐसे अधम मनुज खल कृतयुग त्रेता नाहिं । द्वापर कछुक बूंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं ॥ ', 'कलि केवल मलमूल मलीना । पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥ ' जब ऐसे कलिके कलुषकी नाश करनेकी
शक्ति है तो अल्प पाप विचारे किस गिनतीमें होंगे !
ऐसी है हमारी अयोध्या ,आइए हम पुनः अयोध्या की वंदना गोस्वामीजी के ही शब्दों में करते हैं
बंदौ अवधपुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

 

✓मानस चर्चा मनि मानिक मुकुता छबि जैसी


मानस चर्चा उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं । इस धरा पर कुछ भी उत्पन्न कही और होता है और उसकी शोभा कही और होती है।गोस्वामीजी ने लिखा है 
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरिगज सिर सोह न तैसी ॥ मनि /मणि अर्थात् बहुमूल्य रत्न जैसे हीरा, पन्ना आदि। मानिक /माणिक्य अर्थात् लाल माणिक्य जिसके 
तीन भेद हैं, पद्मराग, कुरुबिन्दु और सौगन्धिक। कमलके रंगका पद्मराग, टेसूके रंगका लाल कुरुबिन्द और
गाढ़ रक्तवर्ण-सा सौगन्धिक। हीरेको छोड़ यह और सबसे कड़ा होता है। मुकुता (मुक्ता) अर्थात् मोती , मोतीकी
उत्पत्तिके स्थान गज, घन, वराह, शंख, मत्स्य, सीप, सर्प, बाँस और शेष हैं, पर यह विशेषतः सीपमें होती है औरोंमें कहीं-कहीं ही मिलती हैं। इसके बारे में विख्यात है--- "करीन्द्रजीमूतवराहशंखमत्स्याहिशक्त्युद्भववेणुजानि । मुक्ताफलानि प्रथितानि लोके तेषां तु शुक्त्युद्भवमेव भूरि।। 
इन पक्तियों का सीधा साधा अर्थ है कि मणि, माणिक्य और मुक्ताकी छबि जैसी है, वैसी ही सर्प, पर्वत और हाथीके मस्तकमेंशोभित नहीं होती अर्थात् उनसे पृथक होने पर ही इनका वास्तविक स्वरूप प्रकट होता है और ये सुशोभित होते हैं ॥ 
नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिँ सकल सोभा अधिकाई 
 ये सब राजा, राजा, राजाका मुकुटऔर नवयौवना स्त्रीके शरीरको पाकर ही उनके सम्बन्धसे अधिक शोभाको प्राप्त करते हैं ॥ 
तैसेहि सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥ ३ ॥
सज्जन लोग कहते हैं कि ठीक उसी तरह अच्छे विद्वान हम कहें अच्छे इंसान और सुकविकी कविता उत्पन्न कही और होते हैं और शोभा कही और प्राप्त करते है कहा भी गया है कि 'उपजी तो और ठौर, शोभा पाई और ठौर'! ठीक इसी प्रकार की बात संस्कृत में भी कही गई है कि 
कविः करोति काव्यानि बुधः संवेत्ति तद्रसान् । 
तरुः प्रसूते पुष्पाणि मरुद्वहति सौरभम् ॥'
हमारे समाज में इसीलिए जन्म स्थान और कर्म स्थान कहा जाता है।हम अपने प्रभु श्री राम के जीवन इतिहास को देखें तो पाएंगे कि उक्त सारी पक्तियां उन पर यथार्थ है। अतः इसे सपूतों का जीवन धन्य है जो  
उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ।
 मनि मानिक मुकुता छबि गहही।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।


रविवार, 2 जून 2024

मानस-चर्चा ।।गई बहोर गरीब नेवाजू ।।

मानस-चर्चा
गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥  हम आज इस मंत्र के अंदर छिपे हुवे रहस्यों को जानने का प्रयास कर रहे है। इस मंत्र का भाव क्या है ,इस मंत्र के अनुसार राम के कौन से विविध रूप  हैं और  इस मंत्र में भगवान विष्णु के कौन-कौन से  विविध अवतारों को चित्रण किया गया है ,इन सभी बातों पर चर्चा प्रारम्भ करे उससे पहले इसके अर्थ को जानते हैं। सामान्य अर्थ है कि 
श्रीरघुनाथजी खोयी हुई वस्तुको दिलानेवाले, गरीबनिवाज  दीनोंपर कृपा करनेवाले, सरल-स्वभाव वाले, सबल, सर्वसमर्थ स्वामी और रघुकुलके राजा हैं 
'गई बहोर' अर्थात्  गई  = खोयी हुई वस्तुको फिरसे ज्यों-की-त्यों प्राप्त करा देनेवाले  हैं श्री राम। आप ध्यान दे तो पाएंगे कि जहां दशरथमहाराजका कुल ही जाता था ।  ' भइ गलानि मोरे सुत नाहीं ॥' वहां 
उनके कुलकी रक्षा की।  जब विश्वामित्रजीका यज्ञ मारीचादिके कारण बन्द हो गया था, तब आपने मुनि श्रेष्ठ को निर्भय किया। देखत जग्य निसाचर धावहिं । करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं ॥ तो फिर '  'निरभय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥'  जब  माता अहल्याका पातिव्रत्य नष्ट हुआ।तब उनका रूप उनको फिर दिया, पाषाणसे स्त्री किया और उन्हें  फिर उनके  पतिसे मिलाया। "गौतम नारी साप बस उपल देह धरि धीर ।" और 
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी । जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।  
 जब श्रीजनकजी की - प्रतिज्ञा गयी रही,तब उनका प्रण रखा। 
' तजहु आस निज निज गृह जाहू ।लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥  सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई।।  तब
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा । कोदंड खंडेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं । और  ""जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई । ' 
वानर राज सुग्रीवजीको फिर राज्य दिया।'सो सुग्रीव कीन्ह कपि राऊ। 'बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज ।तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीब निवाज ॥ '  मायाके कारण जो सब धन ऐश्वर्यहीन हो गये उन गरीबोंको ऐश्वर्य देनेवाले होनेसे 'गरीबनिवाज' कहा।
'सरल' के  तो आप मूर्ति  ही हैं- ' 'राम कहा सब कौसिक पाहीं । सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं ॥'  'बेद बचन मुनि मन अगम, ते प्रभु करुना ऐन । बचन किरातन्ह के सुनत, जिमि पितु बालक बैन ।'  'सकल मुनिन्हके आश्रमन्हि, जाइ जाइ सुख दीन्ह ।'  'सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ।'  निषादराज और माता शबरीके प्रसंग इसी गुणको सूचित करते हैं।
'सबल'का तो  रामायणभर इसका दृष्टान्त है। सबल ऐसे कि 'सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई ।चाहत जासु चरन सेवकाई ।।'
साहिब का तो कोई जबाब ही नहीं
'हरि तजि और भजिये काहि । नाहिन कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥
 आप हैं 'रघुराजू'  । ऐसे कुलमें अवतीर्ण हुए कि जिसमें लोकप्रसिद्ध उदार, शरणपालादि राजा हुए और आपका राज्य कैसा हुआ कि ' त्रेता भइ सतजुग की करनी ।' 'राम राज बैठे त्रैलोका । हरषित भये गये सब सोका ॥ बयरु न करु काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहि नाहिं ।  इससे
दिखाया कि इनकी शरण लेनेसे जीव अभय हो जाते हैं। इस प्रकार आप  के हैं 'सरल सबल साहिब रघुराजू'  ।
सरल के साथ, सबल इसलिये कहा कि सबलताही में 'सरलता' और 'शक्ति'हीमें क्षमाकी शोभा होती है।
और यह न समझा जावे कि ये शक्तिहीन थे, अतएव दीन या सरल थे । यथा - 'शक्तानां भूषणं क्षमा । क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
 ज्ञानमें मौन और शक्तिमें क्षमा, दानमें अमानता,  सबलतामें सरलता - ये गुण स्वभावसे सिद्ध हैं। देखें 
'ज्ञाने मौनं क्षमा शक्तौ त्यागे श्लाघा विपर्ययः । 
  गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ॥ '
सो उन रघुवंशियोंमें और उस रघुकुलमें श्रीरामचन्द्रजी सर्वश्रेष्ठ अतएव पुरुषोत्तम हैं।
अब हम यहां विविध अवतारों को देखते हैं 
गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥ से यहां सात अवतार सूचित किये हैं ।  'मीन कमठ सूकर नरहरी । बामन परसुराम बपु धरी ॥' '
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो ।
नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ॥' एक एक शब्दों पर ध्यान देते हुवे समझने का प्रयास करते हैं 
(A)'गई बहोर' से 'मीन, कमठ, शूकर' अवतार सूचित किये। शंखासुर वेदको चुराकर समुद्रमें ले गया था, सो मत्स्यरूपसे ले आये । दुर्वासाके शापसे लक्ष्मी समुद्रमें लुप्त हो गयी थीं । क्षीरसागर मथनेके लिये गरुड़पर मन्दराचल आए । देवताओंके सँभाले जब न सँभला तो कमठरूपसे मन्दराचलको पीठपर धारण किया। हिरण्याक्ष पृथ्वीको पाताल ले गया तब शूकररूप हो पृथ्वीका उद्धार किया ।
(B) 'गरीब नेवाजू' से नृसिंह अवतार सूचित किया जिसमें प्रह्लादजीकी हर तरहसे रक्षा की, 'खम्भमेंसे निकले' । 
(C) 'सरल' से वामन अवतार सूचित किया। क्योंकि प्रभुता तजकर विप्ररूप धर भीख माँगी।
(D) 'सबल' से परशुराम अवतार  जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रिय विहीन किया।
(E) इत्यादि जितने अवतार हैं उन सबके साहिब हैं श्री  राम ।
 (F) 'सबल साहिब रघुराजू' ऐसे सबल परशुराम उनके भी स्वामी श्रीरामजी हैं कि जिनकी स्तुति परशुरामजीने की।
जय रघुबंस बनज बन भानू।
 गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी।
 जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥
बिनय सील करुना गुन सागर।
 जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा।
 जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा।
 जय महेस मन मानस हंसा॥
 अवतारका  ही परास्त हो गया ।इसी लिए आपको अवतारोंका अवतारी सूचित किया ।
 ' एतेषामवताराणामवतारी रघूत्तम।' (हनुमत्संहिता)
सुदर्शनसंहितामें लिखा है कि
'राघवस्य गुणो दिव्यो महाविष्णुः स्वरूपवान्। 
वासुदेवो घनीभूतस्तनुतेजः सदाशिवः ॥ 
मत्स्यश्च रामहृदयं योगरूपी जनार्दनः ।
कुर्मश्चाधारशक्तिश्च वाराहो भुजयोर्बलम् ॥
नारसिंहो महाकोपो वामनः कटिमेखला । 
भार्गवो जङ्घयोर्जातो बलरामश्च पृष्ठतः ॥
बौद्धस्तु करुणा साक्षात् कल्किश्चित्तस्य हर्षतः ।
कृष्णः श्रृंगाररूपश्च वृन्दावनविभूषणः । 
एते चांशकलाः सर्वे रामो ब्रह्म सनातनः ॥ ' 
अर्थात् श्रीराघवके दिव्य गुण हैं वही विष्णु हैं, उनका कल्याणकारी घनीभूत तेज वासुदेव हैं, योगरूपी जनार्दन श्रीरामजीका हृदय मत्स्य है, आधारशक्ति कूर्म, बाहुबल वाराह, महाक्रोध नृसिंह, कटिमेखला वामन, जंघा परशुराम, पृष्ठभाग बलराम, बौद्ध साक्षात् श्रीरामजीकी करुणा, चित्तका हर्ष कल्कि और श्रीकृष्ण वृन्दावनविहारी श्रीरामजीके शृंगारस्वरूप हैं। इस प्रकार ये सब श्रीरामजीके अंश हैं और श्रीराम अंशी स्वयं भगवान् हैं। सम्भवतः इसीके आधारपर मानसमयंककारने लिखा है, 'परसुराम अति सबल हैं, साहिब सब पर राम । 
हिय अधार भुज कोप कटि जंघ अंश सुखधाम ॥' 
सिया वर राम चंद्र की जय
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस-चर्चाकीरति भनिति भूति भलि सोई

मानस-चर्चा
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ * हित होई ॥
 - कीर्ति, कविता/विद्या और ऐश्वर्य वही अच्छे हैं जो गंगाजीकी तरह सब के लिए हितकर हों।
 'सुरसरि सम सब कहँ हित होई' इति । राजा भगीरथने जन्मभर कष्ट उठाकर तपस्या की तब गंगाजीको पृथ्वीपर ला सके, जिससे उनके 'पुरुखा' सगरके ६०,००० पुत्र जो कपिलभगवान् के शापसे भस्म हो गये थे तरे और आजतक सारे जगत्‌का कल्याण उनके कारण हो रहा है। उनके परिश्रम से पृथ्वीका भी हित हुआ। "धन्य देस सो जहँ सुरसरी" । गंगाजी ऊँच-नीच, ज्ञानी- अज्ञानी, स्त्री-पुरुष आदि सबका बराबर हित करती हैं । 'सुरसरि सम' कहनेका भाव यह है कि कीर्ति भी ऐसी हो जिससे दूसरेका भला हो । यदि ऐसे किसी कामसे नाम प्रसिद्ध हुआ कि जिससे जगत्‌को कोई लाभ न हो तो वह नाम सराहनेयोग्य नहीं । जैसे---
खुशामद करते-करते रायसाहब इत्यादि कहलाये अथवा प्रजाका गला घोंटने वा काटनेके कारण कोई पदवी
मिल जाय। 
इसी तरह कविता/विद्या पवित्र हो अर्थात् रामयशयुक्त हो और सबके लिये उपयोगिनी हो, जैसे गंगाजल सभीके काम आता है। 'कविता' सरल हो, सबकी समझमें आने लायक हो, व्यर्थ किसीकी प्रशंसा के लिये न कही गयी हो, वरन्, "निज संदेह मोह भ्रम हरनी।करउँ कथा भव सरिता तरनी॥"' होते हुए 'सकल जनरंजनी हो ।'भव
सरिता तरनी' के समन हो, सदुपदेशोंसे परिपूर्ण हो । जो ऐश्वर्य मिले तो उससे दूसरोंका उपकार ही करे, धन हो
तो दान करें और अन्य धर्मोके कामोंमें लगावे । क्योंकि 'सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।' धनकी तीन गतियाँ कही
गयी हैं। दान, भोग और नाश ।सो धन धन्य प्रथम गति जाकी ।। 'कीर्ति, भनिति, भूति की समता गंगाजी से देनेका कारण यह है कि तीनों गंगाके समान हैं। कीर्तिका स्वरूप स्वर्गद्वार है और अकीर्तिका नरकद्वार । यथा—
'कीर्त्तिस्वर्गफलान्याहुरासंसारं विपश्चितः । 
अकीर्त्तिं तु निरालोकनरकोद्देशदूतिकाम् ॥
' अर्थात् कीर्ति स्वर्गदायक और अकीर्ति जहाँ सूर्यका प्रकाश नहीं है ऐसे नरककी देनेवाली है। अतएव सबकी चाह कीर्तिकी ओर रहती है। वाणी उसका नाम है जिसके कथनमात्रसे प्राणिमात्रका पाप दूर हो जाय ।
'तद्वाग्विस जनताघविप्लवः' भूति का अर्थ धन है । 'धनाद्धि धर्मः प्रभवति', 'नाधनस्य भवेद्धर्मः '
 । पुन:, 'सुरसरि सम...' का भाव कि वेदादिका अधिकार सब वर्णोंको नहीं, प्रयागादि क्षेत्र एकदेशमें स्थित हैं, सबको सुलभ नहीं, इत्यादि और गंगाजी, गंगोत्तरीसे लेकर गंगासागरतक कीट-पतंग, पशु-पक्षी, चींटीसे लेकर गजराजादितक, चाण्डाल, कोढ़ी, अन्त्यज, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, रंक - राजा, देव-यक्ष-राक्षस आदि सभीका
हित करती हैं। इसी तरह संस्कृत भाषा सब नहीं जानते, अतः इससे गिने चुने लोगों का ही हित है और भाषा सभी
जानते हैं उसमें जो श्रीरामयश गाया जाय तो उससे सबका हित होगा। यह अभिप्राय इसमें गर्भित है ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चाबंदौं मुनिपदकंज

मानस चर्चा
बंदौं मुनिपदकंज, रामायन जेहिं निरमयेउ ।
सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित ॥
इस सोरठे के माध्यम से गोस्वामीजी ने अपने ग्रंथ के साथ ही साथ महर्षि वाल्मीकिजीकी महत्ता को प्रतिपादित किया है। आइए हम इसी के बहाने रामायण और रामचरितमानस दोनों के महत्त्व और वाल्मीकिजी के ज्ञाताज्ञात जीवन पर चर्चा करें।
      सबसे पहले तो  यहाँ गोस्वामीजी वाल्मीकिजीकी 'स्वरूपाभिनिवेश वन्दना' करते हैं जिससे मुनिवाक्य श्रीमद्रामायणस्वरूप हृदयमें प्रवेश करे। नमस्कार करते समय स्वरूप, प्रताप, ऐश्वर्य, सेवा जब मनमें समा जाते हैं तो उस नमस्कारको 'स्वरूपाभिनिवेश वन्दना' कहते हैं।
यह सोरठा को शेखर कवि के इस श्लोकका अनुवाद है।
'नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा ।
सदूषणापि निर्दोषा सखरापिसुकोमला ॥'
  अर्थात् यह रामायण  कठोरतासहित है। क्योंकि इसमें अधर्मियोंको दण्ड देना पाया जाता है, कोमलतायुक्त है क्योंकि इसमें विप्र, सुर, संत, शरणागत आदिपर नेह, दया, करुणा करना पाया जाता है, मंजु है क्योंकि उसमें श्रीरामनामरूप लीलाधामका वर्णन है जिसके कथन, श्रवणसे हृदय निर्मल हो जाता है,दोषरहित है क्योंकि अन्य ग्रन्थका अशुद्ध पाठ करना दोष है और इसके पाठमें अशुद्धताका दोष नहीं लगता, दूषण भी इसमें हितकारी ही है, क्योंकि अर्थ न करते बनना दूषण है सो दूषण भी इसमें नहीं लगता, पाठ और अर्थ बने या न बने इससे कल्याण ही होता है, क्योंकि इसके एक-एक अक्षर के उच्चारणसे महापातक नाश होता है। प्रमाण भी है---
'चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥'
काव्यके दोष उसमें नहीं हैं। अथवा सखर है अर्थात् श्रीरामजीका सखारस इसमें वर्णित है। सुग्रीव, गुह और विभीषणसे सखाभाव वर्णित है। कोमल, मंजु और दोषरहित तीनों विशेषण सखाभावमें लगेंगे। कोमल सुग्रीवके सम्बन्धमें कहा, क्योंकि उनके दुःख सुनकर हृदय द्रवीभूत हो गया, अपना दुःख भूल गया। गुहकी मित्रताके सम्बन्ध 'मंजु' कहा क्योंकि उसको कुलसमेत मनोहर अर्थात् पावन कर दिया। दोषरहित दूषणसहित विभीषणके सम्बन्धसे कहा । शत्रुका भ्राता और राक्षसकुलमें जन्म दूषण हैं, उन्हें दोषरहित किया । 
मुनिकृत रामायण का तो यहां एक रूपक है वास्तव में गोस्वामीजी का रामचरित मानस सभी दोषोंसे सर्वथा मुक्त है। झूठ बोलना या लिखना दोष है और सत्य बोलना या लिखना दोष नहीं है, परन्तु अप्रिय सत्य दोष तो नहीं किंतु दूषण अवश्य है । इसीसे मनुने कहा है, 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्' और मानसमें भी कहा है, 'कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी ।'  गोस्वामीजी मुनिकी रामायणको 'मंजु' और अपनी भाषारामायणको 'अति मंजुलमातनोति' कहा है। आप देखें ----
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचि दन्यतोअपि
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषा निबंधमति मंजुल मातनोति।।
  'बंदौं मुनिपदकंज रामायन जेहि निरमयेउ' रामायण  बनाने वाले वाल्मीकिजी मुनि भी थे और आदिकवि भी । ये श्रीरामचन्द्रजीके समयमें भी थे और इन्होंने श्रीरामजीका उत्तरचरित पहलेहीसे रच रखा था । उसीके अनुसार श्रीरामजीने सब चरित किये। इन्होंने शतकोटिरामचरित छोड़ और कोई ग्रन्थ रचा ही नहीं। अब हमें यह जानना है कि ये मुनि हैं कौन ? कहीं इनको भृगुवंशमें उत्पन्न प्रचेताका वंशज कहा है।  स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड वैशाखमासमाहात्म्यमें श्रीरामायणके रचयिता वाल्मीकिकी कथा इस प्रकार है कि ये पूर्वजन्ममें व्याध थे। इनको महर्षि शंखने दया करके वैशाखमाहात्म्य बताकर उपदेश किया कि तुम श्रीरामनामका निरन्तर जप करो और आजीवन वैशाखमासके जो धर्म हैं उनका आचरण करो, इससे वल्मीक ऋषिके कुलमें तुम्हारा जन्म होगा और तुम वाल्मीकि नामसे प्रसिद्ध होगे । यथा -
' तस्माद् रामेति तन्नाम जप व्याध निरन्तरम् ।
धर्मानेतान् कुरु व्याध यावदामरणान्तिकम् ॥'
'ततस्ते भविता जन्म वल्मीकस्य ऋषेः कुले । वाल्मीकिरिति नाम्ना च भूमौ ख्यातिमवाप्स्यसि ॥' 
उपदेश पाकर व्याधने वैसा ही किया । एक बार कृणु नामके ऋषि बाह्यव्यापारवर्जित दुश्चर तपमें निरत हो गये। बहुत समय बीत जानेपर उनके शरीरपर दीमककी बाँबी जम गयी इससे उनका नाम वल्मीक पड़ गया। इन वल्मीक ऋषिके वीर्यद्वारा एक नटीके गर्भसे उस व्याधका पुनर्जन्म हुआ। इससे उसका नाम वाल्मीकि हुआ जिन्होंने रामचरित गान अपने रामायण ग्रंथ में किया।जिनका रामायण सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषन सहित है अतः हम इस मुनि श्रेष्ठ के चरण कमल की वंदना करते हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।




शनिवार, 1 जून 2024

✓।।मानस-चर्चा भावी।।


।।मानस-चर्चा भावी।।
मानस-चर्चा भावी🙏'श्रीरामचरितमानस' में गोस्वामी तुलसीदासजी ने विधि की बात बताते हुए घोषित किया है,,,,,,,,,,,,,,
सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥
यहां हम केवल भावी जिसे प्रारब्ध भी कहा जाता है उस पर ही चर्चा करेगें।
 प्रारब्ध तीन प्रकार के बताए गए हैं-
1. मन्द प्रारब्ध 2. तीव्र प्रारब्ध 3.तरतीव्र प्रारब्ध।
मंद प्रारब्ध को हम अपने पुरुषार्थ से बदल सकते हैं,
तीव्र प्रारब्ध हमारे पुरुषार्थ एवं संतों-महापुरुषों की कृपा से टल सकता है लेकिन "तरतीव्र प्रारब्ध" में जो होता है वह होकर ही रहता है।इसे हम इस कथा के माध्यम से जानते हैं।
एक बार रावण कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे विधाता/ब्रह्माजी मिल गए। रावण ने उन्हें ठीक से पहचान लिया। उसने पूछाः
"हे विधाता ! आप कहाँ से पधार रहे हैं?"
''मैं कौशल देश गया था।"
"क्यों? 
कौशल देश में ऐसी क्या बात है?"
"कौशलनरेश के यहाँ बेटी का जन्म हुआ है।"
"अच्छा ! प्रभु उसके भाग्य में क्या है?" ब्रह्माजी ने बताया कि "कौशलनरेश की बेटी का भाग्य बहुत अच्छा है। उसकी शादी राजा दशरथ के साथ होगी। उसके घर स्वयं भगवान विष्णु श्रीराम के रूप में अवतरित होंगे और उन्हीं श्रीराम के साथ तुम्हारा युद्ध होगा। वे तुम्हें यमपुरी पहुँचायेंगे।" " रावण बोला ... विधाता ! तुम्हारा बुढ़ापा आ रहा है। लगता है तुम सठिया गये हो। अरे ! जो कौशल्या अभी-अभी पैदा हुई है और दशरथ.... नन्हा- मुन्ना लड़का ! वे बड़े होंगे, उनकी शादी होगी, उनको बच्चा होगा फिर वह बच्चा जब बड़ा होगा तब युद्ध करने आयेगा। मनुष्य का यह बालक मुझ जैसे महाप्रतापी रावण से युद्ध करेगा? 
रावण बाहर से तो डींग हाँकता हुआ चला गया परंतु भीतर चोट लग गयी भयभीत हो ही गया था।
समय बीतता गया। रावण इन बातों को ख्याल में रखकर कौशल्या और दशरथ के बारे में सब जाँच-पड़ताल करवाता रहता था। कौशल्या सगाई के योग्य हो गयी है तो सगाई हुई कि नहीं? फिर देखा कि समय आने पर कौशल्या की सगाई दशरथ जी के साथ हुई। उसको एक झटका सा लगा। परंतु वह अपने-आपको समझाने लगा कि सगाई हुई है तो इसमें क्या? अभी तो शादी हो... उनका बेटा हो... बेटा बड़ा हो तब की बात है।
 ..... और वह मुझे क्यों यमपुरी पहुँचायेगा? मन को शान्तवना देता रहा लेकिन एक बात और सोचता कि 
रोग और शत्रु को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए, उन के बारे में सूचना प्राप्त करते रहना चाहिए। रावण कौशल्या और दशरथ के बारे में पूरी जानकारी रखता था। रावण ने देखा कि 'कौशल्या की सगाई दशरथ के साथ हो गयी है। अब संकट शुरु हो गया है, अतः मुझे सावधान रहना चाहिए। जब शादी की तिथि तय हो जायेगी, उस समय देखेंगे।' शादी की तिथि तय हो गयी और शादी का दिन नजदीक आ गया। रावण परेशान उसने सोचा कि अब कुछ करना पड़ेगा।अतः उसने अपनी अदृश्य विद्या का प्रयोग करने का विचार किया। जिस दिन शादी थी उस दिन कौशल्या स्नान आदि करके बैठी थी और जब सहेलियों उन्हें हार- श्रृंगार आदि से सजा दिया था । उस वक्त अवसर पाकर रावण ने कौशल्या का हरण कर लिया और उसे लकड़ी के बक्से में बन्द करके वह बक्सा पानी में बहा दिया। इधर कौशल्या के साथ शादी कराने के लिए दूल्हा दशरथ जी को लेकर राजा अज ,गुरु वशिष्ठ तथा बारातियों के साथ कौशल देश की ओर निकल पड़े थे। एकाएक दशरथ और वशिष्ठजी के हाथी चिंघाड़कर भागने लगे। महावतों की लाख कोशिशों के बावजूद भी वे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। तब वशिष्ठजी ने कहाः
"हाथियों को छोड़ दो वे जहाँ जाना चाहते हों जाने दो। उनके प्रेरक भी तो परमात्मा हैं ध्यान रखो वे कहां जाते हैं।"हाथी दौड़ते-भागते वहीं पहुँच गये जहाँ पानी में बहकर आता हुआ लकड़ी का बक्सा किनारे आ गया था। बक्सा देखकर सब चकित हो गये। उसे खोलकर देखा तो अंदर से सोलह श्रृंगार से सजी एक कन्या निकली, जो बड़ी लज्जित हुई सिर नीचा करके खड़ी-खड़ी पैर के अंगूठे से धरती कुरेदने लगी। वशिष्ठजी ने कहाः "मैं वशिष्ठ, ब्राह्मण हूँ और अयोध्या का गुरु हूं। पुत्री ! पिता और गुरु के आगे संकोच छोड़कर अपना अभीष्ट और अपनी व्यथा बता देनी चाहिए। तू कौन है और तेरी ऐसी स्थिति कैसे हुई?"
तब कौशल्या ने जवाब दियाः "मैं कौशल देश के राजा की पुत्री कौशल्या हूँ।"वशिष्ठजी समझ गये। आज तो शादी की तिथि है और शादी का समय भी नजदीक आ रहा है।
कौशल्या ने बतायाः "कोई असुर मुझे उठाकर ले गया, फिर लकड़ी के बक्से में डालकर मुझे बहा दिया। अब मुझे कुछ पता नहीं चल रहा कि मैं कहाँ हूँ?"
वशिष्ठजी कहाः "बेटी ! फिक्र मत कर। तरतीव्र प्रारब्ध में जैसा लिखा होता है वैसा होकर ही रहता है। देखो, मैं वशिष्ठ हूँ।गुरु हूं ।ये दशरथ हैं और तू कौशल्या है। अभी शादी का मुहूर्त भी है। मैं अभी यहीं पर तुम्हारा विवाह करवा देता हूँ।"ऐसा कहकर महर्षि वशिष्ठजी ने वहीं दशरथ-कौशल्या की शादी करा दी।उधर कौशलनरेश कौशल्या को न देखकर चिंतित हो गये कि 'बारात आने का समय हो गया है, क्या करूँ? सबको क्या जवाब दूँगा? अगर यह बात फैल गयी कि कन्या का अपहरण हो गया है तो हमारे कुल को कलंक लग जायेगा कि सजी-धजी दुल्हन अचानक कहाँ और कैसे गायब हो गयी?'
अपनी इज्जत बचाने कि लिए राजा ने कौशल्या की चाकरी में रहनेवाली एक दासी को बुलाया। वह करीब कौशल्या की उम्र की थी और रूप-लावण्य भी ठीक था। उसे बुलाकर समझाया कि "कौशल्या की जगह पर तू तैयार होकर कौशल्या बन जा। हमारी भी इज्जत बच जायेगी और तेरी भी जिंदगी सुधर जायेगी।" कुछ दासियों ने मिलकर उसे सजा दिया। वह तो मन ही मन खुश हो रही थी कि 'अब मैं महारानी बनूँगी।'
इधर दशरथा-कौशल्या की शादी संपन्न हो जाने के बाद सब कौशल देश की ओर चल पड़े। बारात के कौशल देश पहुँचने पर सबको इस बात का पता चल गया कि कौशल्या की शादी दशरथ के साथ हो चुकी है। सब प्रसन्न हो उठे। जिस दासी को सजा-धजाकर बिठाया गया था वह ठनठनपाल ही रह गयी। उसको मिला बाबाजी का ठुल्लू। तबसे यह कहावत चल पड़ीः
"विधि का घाल्या न टले, टले रावण का खेल।
 रही बेचारी दूमड़ी, घाल पटा में तेल॥"
'बिधि' यानी प्रारब्ध। प्रारब्ध में उसको रानी बनना नहीं था,
इसलिए सज-धजकर, बालों में तेल डालकर, सज धजकर भी वह कुँआरी की कुँआरी ही रह गयी।
 आगे की कथा दुनिया जानती ही है की रावण का क्या हुवा।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

🌺🍀🌺🍀🌺🍀🍀🌺🍀🌺🍀🌺🍀🌺🍀


।।सेवक स्वामि सखा सिय पी के।।

।।सेवक स्वामि सखा सिय पी के।।
मानस चर्चा में आज हम मानस मंत्र
सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ॥  इस पर  चर्चा करेगें।यहां सेवक स्वामि सखा  ये तीन बिंदु हैं ।इन्हें हम गोस्वामीजी के भावनाओं का सम्मान  करते हुवे "सनातन धर्म के चार धामों में एक प्रसिद्ध धाम "रामेश्वर"और समस्त मानवता के स्रोत "पति- पत्नी" पर भी केंद्रित करते हुवे समझेगें इसके पहले यहां गोस्वामीजी ने 'सेवक स्वामि सखा इन तीन शब्दों का प्रयोग किनके लिए किया है,इसे हमें जानना और समझना है।  आगे बढ़ने से पहले " सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ॥" का अर्थ समझने का प्रयास करतें हैं--अर्थ इस प्रकार निकल रहा है।
"जो श्रीसीतापति रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामि, सखा हैं,  वे सब तरहसे ( मुझ) तुलसीदासके अर्थात् भक्तोंके सदा निश्छल हितकारी हैं।"वे हैं कौन ? मानस मर्मज्ञों ने
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी॥इस पूर्व पक्तियों को मिलाते हुवे यह भाव बताया  है कि  शिवजी गुरु, पिता, माता, दाता और श्रीसीतापति श्री राम सेवक-स्वामी - सखा रूप से भक्तों के सदा ही हितकारी  हैं । हमें अपना ध्यान "सेवक स्वामि सखा सिय पी के" मंत्र पर केंद्रित करते हुवे चलना हैं। अतः हम प्रभु श्रीराम और महादेव  के परस्पर  सेवक, स्वामी और सखा होनेके भाव को ही सर्वप्रथम समझते हैं  जिनके प्रसंग श्रीरामचरितमानसमें बहुत जगह प्राप्त  हैं।
(1) महादेव स्वयं को राम का सेवक मानते हैं --
शिव पार्वती संवाद प्रसंग में इन्हें देखें _
(अ)'रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ, कहि सिव नाएउ माथ।' 
(ब)'सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी।।
श्री राम जी द्वारा शिवजी के विवाह अनुरोध के  प्रसंग में 
(अ)' नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥
(B)सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥ '
सती  मोह के  प्रसंग में 
(अ) सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा।'
(2) राम के महादेव  स्वामी  हैं ऐसे के प्रसंगों  को देखते हैं_
गंगा पार जाने के प्रसंग में देखें 
(अ)'तब मज्जन करि रघुकुलनाथा । पूजि पारथिव नायउ माथा ॥ '
रामेश्वर स्थापना के प्रसंग में देखें
(अ)लिंग थापि बिधिवत करि पूजा ।'सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥
(3) दोनों सखा  हैं ऐसे के प्रसंगों  को देखते हैं
रामेश्वर स्थापना के प्रसंग में देखें
(अ )'संकरप्रिय मम द्रोही सिवद्रोही मम दास ।
 ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महँ बास ॥' 
(ब)संकर बिमुख भगति चह मोरी ।
      सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥' 
आइए हम रामेश्वर स्थापना के बाद देवों की चर्चा पर नजर डालते हैं _
श्रीरामचन्द्रजीने जब सेतुबन्धनके समय शिवलिंगकी स्थापना की तब उनका नाम 'रामेश्वर' रखा।इस पदमें सेवक, स्वामी और सखा तीनोंका अभिप्राय आता है। ऐसा नाम रखनेसे भी तीनों भाव दर्शित होते हैं। इस सम्बन्धमें एक आख्यायिका है जो ऐसे है_
'रामस्तत्पुरुषं वक्ति बहुब्रीहिं महेश्वरः ।
ऊचुः प्रांजलयः सर्वे ब्रह्माद्याः कर्मधारयम् ॥'
इस श्लोकको लेकर  ऐसी बात कही जाती है कि जिस समय सेतुबन्ध हुआ था उस समय ब्रह्मा, शिव आदि देवता और बड़े-बड़े ऋषि उपस्थित थे। रामेश्वर की स्थापना होनेपर नामकरण होनेके पश्चात् परस्पर 'रामेश्वर' शब्दके अर्थपर विचार होने लगा। सबसे पहले श्रीरामचन्द्रजीने इसका अर्थ कहा कि इसमें तत्पुरुष समास है , इसका अर्थ 'रामस्य ईश्वरः 'है अर्थात यहां  राम स्वयं  को महादेव का  सेवक मान रहे हैं । उसपर शिवजी बोले कि भगवन् ! यहां बहुब्रीहि समास है। अर्थात् इसका अर्थ 'रामः ईश्वरो यस्यासौ रामेश्वर:' इस भाँति है,यहां  राम महादेव के स्वामी हो रहे हैं । तब ब्रह्मादिक देवता हाथ जोड़कर बोले कि 'महाराज ! इसमें कर्मधारय समास'है। अर्थात् 'रामश्चासौ ईश्वरश्च' वा 'यो रामः स ईश्वरः ' जो राम वही ईश्वर ऐसा अर्थ है। इस प्रकार यहां राम और महादेव परस्पर सखा हो रहे हैं। इस प्रकार इस आख्यायिकासे तीनों भाव स्पष्ट हैं। बहुब्रीहि समाससे शिवजीका सेवकभाव स्पष्ट है। तत्पुरुषसे शिवजी  का स्वामीभावऔर कर्मधारयसे शिवजी  का सख्यभाव पाया जाता है।
'शिवजी सदा सेवक रहते हैं; इसलिये 'सेवक' पद प्रथम दिया है।'पुनः 'भक्तिपक्षमें स्वामीसे सब नाते बन सकते हैं। इसीसे शिवजीको 'सेवक स्वामि सखा' कहा। अथवा, हनुमानुरूपसे सेवक हैं, रामेश्वररूपसे स्वामी और सुग्रीवरूपसे सखा हैं। 
वास्तव  में श्री शंकरजी, श्रीरघुनाथजी परात्पर भगवान्‌के सदा सेवक हैं, विष्णुके स्वामी हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश
तीनों समान हैं, इससे सखा भी हैं।इसका अर्थ सीधा है कि प्रभु श्री राम और महादेव परस्पर सेवक स्वामि सखा ही हैं। अब हम थोड़ा "सिय पी" के भाव को समझते हैं। सिय,
सीताजी और पी,पति श्री रामजी परस्पर सेवक स्वामि सखा भाव से ही रहते हैं, और सम्पूर्ण मानवता को संदेश देते है कि जहां हर पति को अपनी पत्नी का सेवक स्वामि सखा होना ही चाहिए वही हर पत्नी को भी अपने पति की सेविका स्वामिनी और सहेली के रूप में भी होना ही चाहिए और यदि वे इन भावों को बनाकर साथ साथ रहते है तो स्वयं के साथ ही साथ परिवार समाज एवं मानवता का कल्याण एवं विकास होगा ही होगा इसलिए हर पति पत्नी को इस मंत्र से प्रेरणा लेकर परस्पर सेवक स्वामि सखा भाव के साथ रहते हुवे परिवार समाज एवं मानवता के उत्थान में अपना अपना सहयोग देना ही चाहिए।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।