रविवार, 28 जनवरी 2024

।।सरस्वती स्तोत्र।।


।।सरस्वती स्तोत्र Saraswati Stotra 1।।
रविरुद्रपितामहविष्णुनुतं हरिचन्दनकुङ्कुमपङ्कयुतम्।
मुनिवृन्दगजेन्द्रसमानयुतं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥१॥
शशिशुद्धसुधाहिमधामयुतं शरदम्बरबिम्बसमानकरम् ।
बहुरत्नमनोहरकान्तियुतं तव नौमि सरस्वति पादयुगम् ॥२॥

कनकाब्जविभूषितभूतिभवं भवभावविभाषितभिन्नपदम्।
प्रभुचित्तसमाहितसाधुपदं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥३॥
भवसागरमज्जनभीतिनुतं प्रतिपादितसन्ततिकारमिदम्।
विमलादिकशुद्धविशुद्धपदं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥४॥
मतिहीनजनाश्रयपादमिदं सकलागमभाषितभिन्नपदम्।
परिपूरितविश्वमनेकभवं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥५॥
परिपूर्णमनोरथधामनिधिं परमार्थविचारविवेकविधिम्।
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सुरयोषितसेवितपादतलं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥६॥

सुरमौलिमणिद्युतिशुभ्रकरं विषयादिमहाभयवर्णहरम्।
निजकान्तिविलोपितचन्द्रशिवं तव नौमि सरस्वति पादयुगम्॥७॥
गुणनैककुलं स्थितिभीतपदं गुणगौरवगर्वितसत्यपदम्।
कमलोदरकोमलपादतलं तव नौमि सरस्वति पादयुगम् ॥८॥"
।।सरस्वती स्तोत्र Saraswati Stotra 2।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रान्विता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकर
प्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती
 नि:शेषजाड्यापहा ।।1।।
आशासु राशीभवदंगवल्ली
भासैव दासीकृतदुग्धसिन्धुम ।
मन्दस्मितैर्निन्दितशारदेन्दुं
वन्देsरविन्दासनसुन्दरि त्वाम ।।2।।
शारदा शारदाम्भोज
वदना वदनाम्बुजे ।
सर्वदा सर्वदास्माकं
सन्निधिं सन्निधिं क्रियात ।।3।।
सरस्वतीं च तां नौमि
वागधिष्ठातृदेवताम ।
देवत्वं प्रतिपद्यन्ते
यदनुग्रहतो जना: ।।4।।
पातु नो निकषग्रावा
मतिहेम्न: सरस्वती ।
प्राज्ञेतरपरिच्छेदं
वचसैव करोति या ।।5।।
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमा
माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां 
जाड्यान्धकारापहाम ।
हस्ते स्फाटिकमालिकां
च दधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं
 बुद्धिप्रदां शारदाम ।।6।।
वीणाधरे विपुलमंगलदानशीले, 
भक्तार्तिनाशिनि विरिंचिहरीशवन्द्ये ।
कीर्तिप्रदेsखिलमनोरथदे महार्हे, 
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम ।।7।।
श्वेताब्जपूर्णविमलासनसंस्थिते हे, श्वेताम्बरावृतमनोहरमंजुगात्रे ।
उद्यन्मनोज्ञसितपंकजमंजुलास्ये,
विद्याप्रदायिनि सरस्वति नौमि नित्यम ।।8।।
मातस्त्वदीयपदपंकजभक्तियुक्ता,
ये त्वां भजन्ति निखिलानपरान्विहाय ।
ते निर्जरत्वमिह यान्ति कलेवरेण, भूवह्निवायुगगनाम्बुविनिर्मितेन ।।9।।
मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये,
मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे ।
स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि:, 
शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम ।।10।।
ब्रह्मा जगत सृजति पालयतीन्दिरेश:, 
शम्भुर्विनाशयति देवि तव प्रभावै: ।
न स्यात्कृपा यदि तव प्रकटप्रभावे,
न स्यु: कथंचिदपि ते निजकार्यदक्षा: ।।11।।
लक्ष्मीर्मेधा धरा पुष्टिर्गौरी
तुष्टि: प्रभा धृति: ।
एताभि: पाहि तनुभिरष्टा
भिर्मां सरस्वति ।।12।।
सरस्वत्यै नमो नित्यं 
भद्रकाल्यै नमो नम: ।
वेदवेदान्तवेदांग
विद्यास्थानेभ्य: एव च ।।13।।
सरस्वति महाभागे 
विद्ये कमललोचने ।
विद्यारुपे विशालाक्षि
 विद्यां देहि नमोsस्तु ते ।।14।।
यदक्षरं पदं भ्रष्टं 
मात्राहीनं च यद्भवेत ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि
 प्रसीद परमेश्वरि ।।15।।

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

।।भुजङ्गप्रयात छंद संस्कृत और हिन्दी में।।

।।भुजङ्गप्रयात छंद हिन्दी और संस्कृत में।।
छन्द का नामकरण-
हमारे आचार्यों ने प्रत्येक छन्द के 
भीतर विद्यमान जो सूक्ष्म विशेषताएँ 
हैं उनके आधार पर नामकरण किया है,
क्योंकि यदि आप नाम के रहस्य को 
जानते है तो उस छन्द का सम्पूर्ण 
स्वरुप मानसिक पटल पर उपस्थित हो 
जाता है। 'भुजङ्गप्रयातम्' में'भुजङ्ग' का
अर्थ होता है 'सर्प' और प्रयातम् का
अर्थ होता है 'गति' अर्थात् कहने का
आशय है साँप की गति । क्योंकि साँप 
के पैर तो होते नहीं वह आगे बढ़ने के लिये
पहले अपने शरीर को मोड़ता है और 
फिर मोड़े हुए कुण्डली को फैलाकर  
आगे की ओर बढ़ जाता है। इसी 
कुण्डली को भुज कहते हैं इसलिये
भुजंग का मतलब होता है - 
भुजेन गच्छति इति भुजङ्गः' 
अर्थात् जो अपनी कुंडली के बल
पर आगे बढ़ता है उसी को
भुजङ्ग कहते हैं। भुजङ्ग की जो
गति है उसे प्रयात कहते है – 
भुजङ्गस्य प्रयातम् इव प्रपातं 
यस्य तत् भुजङ्गप्रयातम्' संस्कृत 
में इस प्रकार की व्याख्या हुई है। 
कहने का आशय यह है कि सर्प
की चाल की तरह जिस छन्द की
चाल होती है उस छन्द को 
'भुजङ्ग प्रयात' कहते हैं। 
गंगादास छन्दोमंजरी में
भुजङ्गप्रयात छन्द का लक्षण 
इस प्रकार दिया गया
है - भुजङ्गप्रयातं चतुर्भिर्यकारैः' 
अर्थात् जिस छन्द के प्रत्येक 
चरण में क्रमशः चार यगण हों,
उसे भुजङ्गप्रयात छन्द कहते हैं।
इसके प्रत्येक चरण चार यगणों
से युक्त होता है।यगण का नाम 
आते ही आदिलघुर्यः अर्थात्  यगण
आदि में लघु वर्ण वाला होता है
और अन्त में द्वितीय और तृतीय 
अक्षर गुरु होते हैं।केदारभट्ट कृत
वृत्तरत्नाकर में भुजङ्गप्रयात छन्द 
का लक्षण इस प्रकार से प्राप्त होता
है – भुजङ्गप्रयातं भवेद्यैश्चतुर्भिः । 
अर्थात् भुजङ्गप्रयात छन्द के प्रत्येक
चरण में क्रमशः चार यगण तथा
पादान्त यति होता है। यह जगती
परिवार का प्रत्येक चरण
में 12 वर्ण × 4 चरण अर्थात् =
48 वर्णों का समवर्ण वृत्त छंद है।
इस परिवार को "जगतीजातीय"
भी कहते हैं। 
लक्षण:-
संस्कृत में इसके लक्षण निम्न
तीन प्रकार से मिलते हैं:
1-भुजङ्गप्रयातं चतुर्भि यकारै:।
2-भुजङ्गप्रयातं भवेद्यैश्चतुर्भिः।या
भुजङ्गप्रयातं भवेद् यैश्चतुर्भि:।
3-चतुर्भिमकारे भुजंगप्रयाति:।
जिनका सीधा अर्थ है कि 
भुजङ्गप्रयात छंद में चार यकार 
अर्थात चार यगण होते हैं।
चार यगण अर्थात
I S S  I S S  I S S  I S S
के क्रम में चारों चरणों में
12×4=48 वर्ण होते हैं ।
उदाहरण:
रुद्राष्टक इस छंद सर्वोत्तम
उदाहरण है:- 
I S S  I S S I S S I S S
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं।
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। 
गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। 
गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। 
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा।
लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥3॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं।
 प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं ।
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। 
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। 
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी।
 सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह मोहापहारी।
 प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
न यावद् उमानाथ पादारविंदं।
 भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं।
 प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। 
नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ 
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8॥
यहां हमें सभी पक्तियों  में
I S S  I S S I S S I S S
के क्रम में वर्ण प्राप्त होते हैं
और सभी आठों श्लोकों में
भुजङ्गप्रयात छंद है।
हिन्दी:-
हिन्दी में भी लक्षण और 
परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।
आइए उदाहरण देखते हैं:-
घुमाऊँ, बनाऊँ, सुखाऊँ, सजाऊँ।
यही चार हैं कर्म मेरे निभाऊँ।।
न होठों हँसी, तो दुखी भी नहीं हूँ।
जिसे रोज जीना.. कहानी वही हूँ ।।
यहाँ हमें सभी पक्तियों में
I S S I S S I S S I S S
के क्रम में वर्ण प्राप्त हो रहे हैं
इसलिए भुजङ्गप्रयात छंद है।
।।धन्यवाद।।

वंशस्थ छंद संस्कृत और हिन्दी में

वंशस्थ  छंद:-

यह जगती परिवार का 12×4=48

वर्णों का समवर्ण वृत्त छंद है।

इस परिवार को "जगतीजातीय"

भी कहते हैं। वंशस्थ छंद 

को वंशस्थविल अथवा 

वंशस्तनित भी कहते हैं 

लक्षण :-

जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ। 

परिभाषा:-

वंशस्थ छन्द के प्रत्येक चरण में 

क्रमश: जगण, तगण, जगण एवं

रगण के क्रम में 12 वर्ण होते हैं।

चार चरणों में 12×4=48 वर्ण

होते हैं।अर्थात ISI SSI ISI SIS 

के क्रम में वर्ण होते हैं। 

उदाहरण:-

      I S I  S S I  I S I  S I S 

1- गजाननं भूत गणादि सेवितं, 

   कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम् । 

  उमासुतं शोक विनाशकारकम्, 

  नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम् ॥

2-प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्

  तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।

 मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे 

 सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥

3-भवन्ति नम्रास्तरवो फलोद्गमैः

 नवाम्बुभिर् दूरविलम्बिनो घनाः। 

 अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः

 स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥ 

4-सशंखचक्रं सकिरीटकुण्डलं,

  सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् । 

  सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं,

 नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥

हिन्दी में भी वंशस्थ छंद के

लक्षण और परिभाषा यही है।

“जताजरौ” द्वादश वर्ण साजिये।

प्रसिद्ध ‘वंशस्थ’ सुछंद राचिये।।

आइए उदाहरण देखते हैं :-

1-बिना चले मंज़िल क्या कभी मिली।

   बहार आई तब ही कली खिली।।

   कशीश मानो दिल में कहीं पली।

   जुबान की वो सच बात हो चली।।

उक्त सभी संस्कृत और हिन्दी के 

उदाहरणों में आए प्रत्येक श्लोक/

पद्य के प्रत्येक चरणों में जगण, 

तगण, जगण एवं रगण अर्थात 

I S I S S I I S I S I S के  क्रम

में वर्ण आए हैं अतः वंशस्थ छंद है।

    ।। धन्यवाद।।

रविवार, 21 जनवरी 2024

।।ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।।

ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी। इन पक्तियों
 पर कुछ भी लिखने या बोलने से पहले
 हमें गोस्वामीजी की परिभूमि,सांदर्भिक तत्त्व,प्रसंग,पर्यावरण, पारिस्थितिकी,
लोकावश, भाषा सेक्टर आदि को 
जानकर ही आगे बढ़ना चाहिए अथवा
 चुप रहना ही श्रेयस्कर है।मानस की
 भाषा,लोक भाषा है अवधी।
 भाषा निबंध मति मंजुल मा तनोति। 
भाषा बद्ध करबि  मैं सोई।
सीधी सी बात है ग्राम नगर दूहू कूल 
की भाषा है अवधी भाषा है।
अतः इन  पंक्तियों  का अर्थ तो अवधी
भाषा से ही निकलेगा, अन्य का प्रयास 
धृष्टता ही होगा। इन पंक्तियों को लेकर 
सनातन के खिलाफ प्रवाद फैलाए जाते हैं। 
गोस्वामी जी के इस उदाहरण को बदमाशी
 भरा, नोटोरियस ,कहने वाले  अवधी भाषा
 से सम्बन्ध ही नहीं रखते हैं। उनको यह भी
 नहीं पता कि इन पक्तियों  को कहने वाला 
कौन है? एक सज्जन तो हद ही कर दिए 
और प्रमाण पत्र जारी कर दिए कि  
"तुलसीदास डिड नॉट हैव मच रिगार्ड 
फॉर वूमेन।" इस पर एक हास्य व्यंग 
याद आता है कि किसी  सज्जन ने 
अपनी धर्मपत्नी से पूछा कि  अजी  ढोल 
गवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के 
अधिकारी । का अर्थ जानती हो ,
पत्नी ने बहुत ही सरलता से जबाब दिया, 
हां  जी ,इसमें तो सिर्फ एक ही जगह मैं हूं , 
बाकी चार जगह तो आप ही है।हमारे 
तथाकथित को इस पत्नी के उत्तर से ही 
सीख ले लेनी चाहिए कि वह यहां क्या है? 
तथाकथित ने तो वह अर्थ ले लिया जो 
गोस्वामीजी के लिए  भयानक स्वप्न है। 
यहां ताड़ना के अर्थ को अपने-अपने 
अनुरूप लेकर बातें होती हैं ।ताड़ना का 
उपदेश के रूप में अर्थ संस्कृत शब्दकोश
 की उपज है यह अर्थ अवधी लोक भाषाई 
स्रोत का नहीं है। दलित शुभचिंतकों  ने तो
 हद ही कर दी और ताड़ना को पीटना बता 
दिया। लेकिन "कोटि बिप्र बध लागहि जाहू।
 आवै  सरन तजहू नहि ताहू।" करोड़ों  
ब्राह्मणों के हत्यारे को अपनाने वाली बात 
पर तो कोई शुभचिंतक नहीं बोलते । 
जो कथन जड़ मात्र का है" इनके नाथ
 सहज  जड़ करनी।" जो गहरी ग्लानि
 ग्रस्त है,उसके कथन पर तो हद ही कर 
दिया गया  है। लेकिन कोटि  बिप्र बध तो 
साक्षात प्रभु कह रहे हैं। मैं महानुभावों की
 संवेदना को समझना चाहता हूं कि ताड़न 
सहन नहीं जबकि हम इसके अर्थ या भाव 
को ठीक से जानते ही नहीं और बध इसको 
तो ठीक से समझते हो भैया फिर इस पर 
आपत्ति क्यों नहीं किया? क्यों घृणित ओछी 
बातें करते हो?  मैं ऐसे सज्जनों के लिए
 वही कहूंगा जो  कालजयी भक्तगोस्वामीजी 
ने अपने ही ग्रंथ पर टिप्प्णी करते हुवे कह 
ही दिया है कि "पैहही है सुख सुनि सुजन 
सब खल करिहहि परिहास।" गोस्वामीजी 
कभी एक वर्ग की तो बात ही नहीं करते वह 
सब की बात करते हैं। "सब नर करहि 
परस्पर प्रीति ।" "सब सुंदर सब बिरूज 
सरीरा। किसी सज्जन ने इसमें तीन वर्ग बना
 दिया  और इन पक्तियों की मजाकिया 
व्याख्या भी कर दी। वे कहते हैं  कि 
(1)ढोल(2)गवार-शुद्र(1)पशु-नारी ये 
प्रताड़ना, दंड, पिटाई  के योग्य हैं।इन्होंने 
ताड़ना शब्द के मूल अर्थ को जानने का
 प्रयास ही नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है 
कि ताड़ना का अर्थ प्रताड़ना या  पिटाई 
करने वाले महानुभाव अवधी  को तो छोड़े, 
इस प्रसंग को ही नहीं समझते हैं।  प्रसंग 
संक्षेप करते हैं ।समुद्र भयाक्रांत होकर विप्र 
 रूप धारण कर दंड परिहार की याचना के 
समय यह कहता है तो क्या वह उदाहरण 
देकर खुद को प्रताड़ित करवाने या पिटवाने
 की बात कह रहा है, कदापि नहीं ।आपका 
प्रताड़ना के अर्थ ही ले लेते हैं , तो क्या
 समुद्र ढोल है, गवार है , सूद्र है,पशु है, 
नारी है, नहीं है। पहले  ही विभीषणजी ने 
बता दिया है कि "प्रभु तुम्हारा कुलगुरु जलधि
" वह कुल गुरु हैं ।समुद्र को तो अपनी रक्षा 
करनी है वह तो कहता है," प्रभु भल किन्ह
 मोहि सिख दिन्ही।" शिक्षा की बात कर रहा है ।
वह तो राम की क्रोधाग्नि को शीतल करने में 
लगा है। न कि उस विद्वान की तरह वर्ग भेद 
बनाने में जिन्होंने गगन समीर अनल जल
 धरनी से ढोल गंवार शूद्र पशु नारी को जोड़ 
दिया। भाई उन्होंने तो गगन को ढोल, 
समीर को गवार, अनल को सूद्र,जल को पशु, 
और धरनी को नारी बता दिया ।यहां समीर 
गवार कैसे? अनल सूद्र कैसे? जल पशु कैसे?
 आइए हम गोस्वामी जी की ताड़ना का अर्थ
 अवधी में जानते  हैं ।एक समय एक वृद्ध 
मां अपनी बेटी जो अपने बाल बच्चों सहित
 उनसे विदा ले रही थी  से विदा के वक्त 
कहती है: "बाल बच्चियों को ताड़ियत 
रहियो ।" इसका सीधा अर्थ है," टेक केयर 
ऑफ द चिल्ड्रन" इस ताड़ना में कंसर्न है,
इस ताड़ना में सलाह है,इसमें सद्भाव है, 
इस शब्द में एक चिंता है, इस शब्द में 
एक ख्याल है,इस शब्द में एक अवेक्षा का
 भाव है। जो गोस्वामीजी की उस चित्तवृत्ति
 के अनुकूल है जो श्री सीताजी श्री निषाद 
राजजी श्री हनुमान जी जैसे अनेकानेक 
पात्रों के हृदय का पूरा सत्व ही उड़ेल दिया है। 
अतः स्पष्ट है कि ढोल गंवार शूद्र पशु नारी 
का हमेशा केयर करना चाहिए ध्यान देना 
चाहिए रक्षा करनी चाहिए न की अन्य
 सनातन विरोधी मान्यताओं पर ध्यान देना 
चाहिए। जय श्री राम जय हनुमान।। धन्यवाद।

शनिवार, 20 जनवरी 2024

।।रथोद्धता छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

।।रथोद्धता छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

यह त्रिष्टुप परिवार का छंद है।

लक्षण:-संस्कृत में इसके निम्न

दो लक्षण बताये गये हैं:-

(1)रथोद्धता रनौ रलौ ग।

(2)रान्नराविह रथोद्धता लगौ।

इन दोनों सूत्रों के आधार पर

इस छंद की परिभाषा है:-

परिभाषा:-

जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरणों में

रगण नगण रगण एक लघु और एक

गुरू के क्रम में ग्यारह-ग्यारह वर्ण होते 

हैं उस श्लोक/पद्य में रथोद्धता छंद होता है।

उदाहरण:

SIS   III    SIS   IS

कोसलेन्द्रपदकन्जमंजुलौ 

कोमलावजमहेशवन्दितौ।

जानकीकरसरोजलालितौ 

चिन्तकस्य मनभृंगसंगिनौ॥1।।

कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं

अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्‌।

कारुणीककलकन्जलोचनं 

नौमि शंकरमनंगमोचनम्‌॥2।।

उक्त दोनों श्लोकों के चारो चरणों 

 में प्रथम श्लोक के प्रथम चरण के

अनुसार ही रगण नगण रगण तथा

एक लघु और एक गुरू के क्रम में

ग्यारह-ग्यारह वर्ण हैं। अतः  दोनों 

में रथोद्धता छंद है।

हिन्दी:-

ठीक इसी प्रकार हिन्दी में भी 

इस छंद के लक्षण और परिभाषा

हैं। हिन्दी के उदाहरण देखते हैं:

       SIS    III  SIS    IS

(1) रौद्र रूप अब वीर धारिये।

     मातृ भूमि पर प्राण वारिये।।

    अस्त्र शस्त्र कर धार लीजिये।

     मुंड काट रिपु ध्वस्त कीजिये।।

(2) नेह प्रीत नयना निखार लो।

       प्रेम मीत सजना सवार लो।।

      गीत  ताल तबला धमाल हो।

     गान सोम महिमा कमाल हो।।

उक्त दोनों पद्यों के चारों चरणों 

 में प्रथम श्लोक के प्रथम चरण के

अनुसार ही रगण नगण रगण तथा

एक लघु और एक गुरू के क्रम में

ग्यारह-ग्यारह वर्ण हैं। अतः दोनों 

पद्यों में रथोद्धता छंद है।

विशेष:

ध्यान देने योग्य बात यह है कि

त्रिष्टुप छंद11×4=44 वर्ण वाले

सात छंदों में से पांच इंद्रवज्रा 

उपेन्द्रवज्रा उपजाति शालिनी और

स्वागता के अंत में दो गुरू वर्ण 

आते हैं लेकिन भुजंगी और रथोद्धता

के अंत में लघु और गुरू वर्ण आते हैं।

   ।।धन्यवाद।।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

।।भुजंगी छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

।।भुजंगी छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

यह त्रिष्टुप परिवार का समवर्ण वृत्त छंद है।

लक्षण:

"भुजंगी यती तीन अंते लगौ"

परिभाषा:

जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरण में 

तीन यगण तथा एक लघु और एक गुरू के

क्रम में ग्यारह-ग्यारह वर्ण होते हैं 

उस श्लोक/पद्य में भुजंगी छंद होता है।

संस्कृत में यह छंद नाम मात्र का

ही है।और हिन्दी में भी इसकी

संख्या कम ही है।

हिन्दी में भुजंगी छंद:

हिन्दी और संस्कृत दोनों में उक्त

लक्षण और परिभाषा मान्य हैं।

हिन्दी में उदाहरण देखते हैं:

मुझे भी सहारा दिखेगा सदा।

वही प्यार माँ का मिलेगा सदा।।

बसी हो हमारे हिया में सदा।

दिखे दिव्य बाती दिया में सदा।।

     उक्त पद्य में प्रथम चरण के

अनुरूप ही सभी चारों चरणों में

तीन यगण तथा एक लघु और

एक गुरू के क्रम में ग्यारह-ग्यारह 

वर्ण हैं अतः यहां भुजंगी छंद है।

कहीं-कहीं इसे "रसावल" भी

कहा जाता है 

।। धन्यवाद।।

।।शालिनी छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

।।शालिनी छंद हिन्दी और संस्कृत में।।

यह त्रिष्टुप परिवार का समवर्ण वृत्त छंद है।

लक्षण:

"मात्तौ गौ चेच्छालिनी वेेदलोकैैः" 

परिभाषा:

जिस श्लोक/पद्य के प्रत्येक चरण में 

एक मगण, दो तगण तथा दो गुरू के

क्रम में ग्यारह-ग्यारह वर्ण  होते हैं 

उस श्लोक/पद्य  में शालिनी छंद होता है।

उदाहरण:

       SSS   SSI   SSI   SS

(1) माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः ।

     स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः ॥

      सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु: ।

      नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥

(2) एको देवः केशवो वा शिवो वा

    एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।

    एको वासः पत्तने वा वने वा

    एका नारी सुन्दरी वा दरी वा ।।

उक्त दोनों छंदों में प्रथम छंद के

प्रथम चरण के अनुसार ही सभी

चरणों में एक मगण, दो तगण 

तथा दो गुरू के क्रम में

 ग्यारह-ग्यारह वर्ण हैं अतः

इनमें शालिनी छंद है।

हिन्दी में शालिनी छंद:

संस्कृत की ही तरह हिन्दी में

भी शालिनी छंद के लक्षण एवं

परिभाषा हैं। आइए उदाहरण 

देखते हैं:

उदाहरण:

माता रामो हैं पिता रामचंद्र।

स्वामी रामो हैं सखा रामचंद्र।।

हे देवो के देव  मेरे दुलारे।

मैं तो जीऊ आप ही के सहारे।।

उक्त पद्य में भी प्रथम चरण के

अनुसार ही सभी चरणों में

एक मगण, दो तगण तथा दो

गुरू के क्रम में ग्यारह-ग्यारह 

वर्ण हैं अतः इसमे शालिनी छंद है।

।। धन्यवाद।।