गुरुवार, 3 जून 2021

।।विरोधाभासअलंकार-Contradiction।।

     ।।विरोधाभास अलंकार -Contradiction।।
                  (OXYMORON)

      विरोधाभास’ शब्द ’विरोध+आभास’ के योग से बना है।इस प्रकार  जहाँ विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास हो वहाँ 'विरोधाभास अलंकार' होता है।

        विरोधाभास अलंकार के अंतर्गत एक ही वाक्य में आपस में कटाक्ष करते हुए दो या दो से अधिक भावों का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण :-

"मोहब्बत एक मीठा ज़हर है"

      इस वाक्य में ज़हर को मीठा बताया गया है जबकि ये ज्ञातव्य है कि ज़हर मीठा नहीं होता। अतः, यहाँ पर विरोधाभास अलंकार है।

सुधि आये सुधि जाय

मीठी लगै अँखियान लुनाई

बुधवार, 2 जून 2021

।।आक्षेप अलंकार।।

               आक्षेप अलंकार

    आक्षेप करने का सामान्य अर्थ है दोषारोपण करना। परन्तु साहित्य में आक्षेप एक अलंकार है जिसका अर्थ है निषेध। इस अर्थालंकार में लेखक या कवि अपने इष्टार्थ को निषेध से वर्णित करता है परन्तु वह भी विधिरूप में परिणत हो जाता है। यह वास्तव में निषेध नहीं परन्तु निषेधाभास होता है।

      स्वयं कथित बात का किसी कारण विशेष को सोचकर प्रतिषेध सा किया जाना आक्षेप अलंकार है।
 इसके अनेक भेद बताये गये हैं जिनमे से तीन मुख्य हैं--

1.उक्ताक्षेप:- 
अपने पूर्व कहीं हुई बात का वक्ता स्वयं निषेध समझे--
 उमा प्रस्न तव सहज सुहाई।
 सुखद संतसंमत मोहि भाई॥
 एक बात नहिं मोहि सोहानी।
 जदपि मोह बस कहेहु भवानी।।

2.निषेधाक्षेप:-
पहले निषेध करके फिर दृष्टार्थ को व्यक्त किया जाय--
 भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
 सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल       
 बिबेक॥

3.व्यक्ताक्षेप:-
प्रगट रूप में जहाँ स्वीकारात्मक हो वहाँ निषेध किया जाय---
राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥


                    धन्यवाद

  अन्य उदाहरण भी देखें---
1.चलन चहत बन जीवननाथू।
  केहि सुकृती सन होइहि साथू॥
  की तनु प्रान कि केवल प्राना।
  बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥
2.फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। 
 देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।
 सुदिन सुघरी तात कब होइहि।
 जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥
              ।। धन्यवाद ।।

।।ब्याजस्तुति अलंकार एवं ब्याजनिंन्दा अलंकार।।

ब्याजस्तुति अलंकार एवं ब्याजनिन्दा अलंकार

1.ब्याजस्तुति अलंकार :-

  काव्य में जब निंदा के बहाने       प्रशंसा किया जाता है , तो वहाँ   ब्याजस्तुति  अलंकार होता है ।

 उदाहरण :- 

 निर्गुन निलज कुबेष कपाली।   अकुल अगेह दिगंबर ब्याली।।   कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ।   भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥


2.ब्याजनिंन्दा अलंकार :-
काव्य में जब प्रशंसा के बहाने निंदा किया जाता है , तो वहाँ ब्याजनिंदा अलंकार होता है । 

उदाहरण:-
1.राम साधु तुम साधु सयाने | 
राम मातु भलि मैं पहिचाने || 

 यहाँ पर ऐसा प्रतीत होता है कि कैकेयी राजा दशरथ की  प्रशंसा  कर रही हैं , किन्तु ऐसा नहीं है, वह प्रशंसा की आड़ में निंदा कर रही हैं। 

2.नाक कान बिन भगिनी निहारी।
  क्षमा कीन्ह तुम धरम विचारी।।
        यहाँ पर सुनने या पढ़ने में ऐसा लगता है कि अंगद रावण की प्रशंसा कर रहेहैं,किन्तु यहां निन्दा की जा रही है। 

         ।।   धन्यवाद   ।।

।।पर्यायोक्ति अलंकार।।

            ।।   पर्यायोक्ति अलंकार   ।।
अभीष्ट अर्थ का स्पष्ट कथन न कर अभ्यंतर से कथन करना पर्यायोक्ति होता है। इस अलंकार में कवि अपना वक्तव्य घूमा-फिराकर प्रगट करता है।
पर्यायोक्ति के दो भेद हैं .
1. जहाँ किसी बात को सीधे-सीधे न कहकर        चतुराईपूर्वक घुमा-फिराकर कहा जाये
उदाहरण:-
1.बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
   बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥

2.सीता हरन तात जनि, कहिय पिता सन जाय.
   जो मैं राम तो कुल सहित, कहिहि दसानन आय..
2. जहाँ किसी कार्य को किसी अन्य बहाने से साधा जाता है..
उदाहरण:
1.देखन मिस मृग बिहंग तरु, फिरत बहोरि-बहोरि.
  निरखि-निरखि रघुबीर छबि, बड़ी प्रीति न थोरि.

2. मागी नाव न केवटु आना। 
    कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
    चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। 
    मानुष करनि मूरि कछु अहई।।
    छुअत सिला भइ नारि सुहाई। 
    पाहन तें न काठ कठिनाई॥
    तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। 
    बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥
    एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू।
    नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
    जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। 
    मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥
          ।।    धन्यवाद    ।।

।।अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार --Indirect description (a figure of speech)।।

       अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार

 Indirect description a figure of speech
अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार :- 

  जहाँ अप्रस्तुत के वर्णन में प्रस्तुत की प्रतीति हो, वहाँ 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलंकार होता है ।
अप्रस्तुतात् प्रस्तुत-प्रतीति: अप्रस्तुतप्रशंसो।
अप्रस्तुत प्रशंसा का अर्थ है- अप्रस्तुत कथन।
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत, सरल हो।
यहाँ अपस्तुत सर्प के विशेष वर्णन से सामान्य अर्थ की प्रतीति होती है कि शक्तिशाली पुरुष को ही क्षमादान शोभता है। यहाँ ' अप्रस्तुतप्रशंसा' है।

  यह अप्रस्तुत प्रशंसा 5 प्रकार से होती है--

1.कारण निबन्धना

 कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा।

 सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥

  छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।

 तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥

2.कार्य निबंधना 

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

3.विशेष निबन्धना

 बार बार अस कहइ कृपाला।

 नहिं गजारि जसु बधें सृकाला॥

  मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। 

 सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥

4.सामान्य निबन्धना

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। 

बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥

एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। 

कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।

5.सारूप्य निबन्धना(अन्योक्ति)

  मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली।

 जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥

 नव रसाल बन बिहरनसीला।

 सोह कि कोकिल बिपिन करीला ॥

    मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है।नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है।

यहाँ सारूप्य निबन्धना के माध्यम से सीता का चित्रण किया गया है।


                    ।। धन्यवाद ।।

           
 




।। परिकरांकुर अलंकार।।

परिकरांकुर अलंकार

जहाँ विशेष्य का प्रयोग अभिप्राय-सहित हो, वहाँ परिकरांकुर अलंकार होता है।
जहाँ परिकर में विशेषण का प्रयोग साभिप्राय होता है वहाँ परिकरांकुर में विशेष्य  का प्रयोग साभिप्राय होता है।
1. सुनहु विनय मम विटप अशोका।
 सत्य नाम करु, हर मम शोका॥
      यहाँ शोक दूर करने का प्रसंग है। अत: अशोक वृक्ष के लिये अशोक (शोक रहित) नाम साभिप्राय है।
इन्हें भी देखें--
2.सब उपमा कबि रहे जुठारी।
केहि पटतरौ बिदेह कुमारी।।
3.बरबस रोकि बिलोचन बारी।
धरि धीरजु उर अवनि कुमारी।।
4.अहह  तात  दारूनि हठ ठानी।
समुझत नहि कछु लाभ न हानी।।
5.बिधि केहि   भाँति धरौ उर धीरा।
  सिरस सुमन कन बेधिय हीरा।।
                   धन्यवाद

मंगलवार, 1 जून 2021

।।परिकर अलंकार।।


परिकर अलंकार

             जब विशेष्य के साथ किसी विशेषण का साभिप्राय प्रयोग हो, तब परिकर अलंकार होता है।
उदाहरण:-
1.सोच हिमालय के अधिवासी, यह लज्जा की बात हाय।
अपने ताप तपे तापों से, तू न तनिक भी शान्ति पाय॥
                  यहाँ शान्ति न पाना क्रिया के प्रसंग में, 'हिमालय के अधिवासी' यह विशेषण साभिप्राय है। जो शीतल हिमालय का अधिवासी है, वही अपने ही तापों से सन्तप्त रहे तो वस्तुत: लज्जा की बात है।
2-देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥
                  इस विशेषण द्वारा कैकेयी राजा को अपने वाग्जाल में घेर लेती है।
3.गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
   सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि॥
                इस विशेषण के द्वारा कैकेयी का मंथरा के मायाजाल में उलझ जाने का वातावरण निर्मित किया गया है।
4. प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥3॥
                  इस विशेषण द्वारा कैकेयी के कोपन स्वभाव की ओर इंगित किया गया है।
              इस तरह साभिप्राय विशेषण का प्रयोग परिकर अलंकार की विशेषता और पहचान है।
                    धन्यवाद