सोमवार, 23 सितंबर 2024

✓सहसबाहु सन परी लराई

श्री हनुमानजी रावण से कहते है कि तुम पूछते हो कि मैंने तुम्हारा नाम और यश सुना है कि नहीं, उसपर मेरा उत्तर यह है कि तुम्हारी प्रभुता सुननेकी तो बात ही क्या है, मैं तो उसे भलीभाँति जानता भी हूँ कि वह कैसी है। उस प्रभुताको जानकर मैंने यह सब किया है।  'सहसबाहु सन परी लराई' अर्थात् तुम लड़ने गये, पर कुछ लड़ाई न हुई; उसने तुमको दौड़कर पकड़ लिया। सहस्रबाहुसे हारना कहकर जनाया कि तू सहस्रार्जुनसे हारा, वह परशुरामसे हारा और परशुराम श्रीरामजीसे हारे । प्रमाण देखें 'एक बहोरि सहसभुज देखा । धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाड़छोड़ावा॥'  (इसमें अंगदजीने सहस्रार्जुनसे रावणका पराजय कहा है और) 'सहसबाहु भुज गहन अपारा।दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा । तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा। ( इसमें सहस्रार्जुन का परशुरामजी द्वारा पराजय भुजछेदन और वध कहकरपरशुरामजीका बिना युद्ध ही श्रीरामजीके सम्मुख गर्व चूर हो जाना कहा है। इस प्रकार जनाया कि तब तू किस बलपर घमण्डकर उन श्रीरामजीसे विरोध कर रहा है ? उनके आगे तू क्या चीज है जब कि  वे तो तेरे जीतनेवाले के जीतने वाले भी है। श्री परशुरामजी ने तो उनको देखते ही उनसे  हार मान गये। 'परी लराई' में भाव यह भी है कि लड़ाईका अवसर आया था, तुम लड़ने गये थे, परथोड़ी ही लड़ाई में तुम हार गये। इसमें ऊपरसे प्रशंसा यह है कि बीस ही भुज होनेपर भी हजार भुजवालेसे लड़ाई ठानी थी और व्यंगसे अपयश होना प्रकट किया है। आइए हम सहस्रबाहु और रावणकी कथा सुनते हैं।सहस्रार्जुन कृतवीर्यका पुत्र और माहिष्मतीका राजा था। भगवान् दत्तात्रेयके आशीर्वादसे इसे, जब यहचाहता, हजार भुजाएँ हो जाती थीं। एक बार जब यह नर्मदामें अपनी स्त्रियोंके साथ जलविहार कर रहाथा, संयोगसे उसी समय रावण भी उसी स्थानके निकट जो यहाँसे दो कोसपर था, वहां आया और नर्मदामेंस्नान करके शिवजीका पूजन करने लगा। उधर सहस्रबाहुने अपनी भुजाओंसे नदीका बहाव रोक दिया,जिससे नदीमें बाढ़ आ गयी और जल उलटा बहने लगा। शिवपूजनके लिये जो पुष्पोंका ढेर रावणकेअनुचरोंने तटपर लगा रखा, वह तथा सब पूजनसामग्री बह गयी। बाढ़ के कारणका पता लगाकर औरपूजनसामग्रीके बह जानेसे क्रुद्ध होकर रावण सहस्रार्जुनसे युद्ध करनेको गया । उसने कार्तवीर्यकी सारी सेनाकानाश किया। समाचार पाकर राजा सहस्रार्जुनने आकर राक्षसोंका संहार करना प्रारम्भ किया । प्रहस्तके गिरतेही निशाचर सेना भगी तब रावणसे गदायुद्ध होने लगा। यह युद्ध बड़ा ही रोमहर्षण अर्थात् रोंगटे खड़ाकर देनेवाला भयंकर युद्ध हुआ । अन्तमें सहस्रार्जुनने ऐसी जोरसे गदा चलायी कि उसके प्रहारसे वह धनुषभर पीछे हट गया और चोटसे अत्यन्त पीड़ित हो वह अपने चार हाथोंके सहारे बैठ गया  रावण की यह दशा देख इसीबीच मेंसहस्रार्जुन  ने उसे अपनी भुजाओंसे इस तरह पकड़ लिया जैसे गरुड़ सर्पको पकड़ लेता है और फिर उसे इस तरह बाँध लिया जैसे भगवान्ने बलिको बाँधा था। रावणके बँध जानेपर प्रहस्त आदि उसे छुड़ानेके लियेलड़े, पर कुछ कर न सके, भागते ही बना । तब सहस्रार्जुन रावणको पकड़े हुए अपने नगरमें आया । अन्तमेंश्रीपुलस्त्यमुनिने जाकर उसे छुड़ाया और मित्रता करा दी ।  ' एक बहोरि सहसभुज देखा।धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।  इस कथाके अनुसार यह भी व्यंगसे जनाते हैं कि तू वही तो है जिस, सहस्रबाहुके कारागारमें बँधे पड़े हुएकोतेरे पितामह पुलस्त्यजी दीन होकर भिक्षा माँग लाये थे । जय श्री राम जय हनुमान

रविवार, 22 सितंबर 2024

✓रावण की रक्षा (अशोकवाटिका में)

लाखों वर्ष पहले रावण ने अद्भुत विस्मयकारी रक्षा व्यवस्था कर रखा था। सिंहिका और लंकिनी तो रडार थे।  स्टार वाली रक्षा प्रणाली  तो अशोक वाटिका में दिखती है। जब श्री हनुमानजी अशोक वाटिका में फल खाने जाते हैं तो देखते हैं कि भट अर्थात दो स्टार वाले रखवाले वहां बहुत हैं 
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
तो इनके लिए हनुमानजी को गरजने की भी जरूरत नही थी बिना गरजे ,बिना वृक्ष लिए ही उनकी हालत पतली 
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥ कुछ मारे गए और कुछ रावण से पुकार करने जाते हैं 
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥ यह सुनते ही रावण ने 
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
नाना भट को भेजा , अब श्री हनुमानजी गर्जे और सबका ही संहार कर दिया ,कुछ अधमरे  ही रावण तक पुकार  करने  जा पाते हैं  तब रावण
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। 
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। 
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
अब तीसरी बार हनुमानजी वृक्ष लेकर तरजते है और इन तीन स्टार वालों  को मारकर महाधुनि करते हुवे गरजते हैं फिर
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। 
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। 
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
अब बारी है पांच स्टार और चार स्टार वालों का, पांच स्टार वाला मेघनाद सरदार है चार स्टार वालों का, देखें 
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। 
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। 
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। 
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। 
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
पांच स्टार वाले दारूनभट के लिए श्री हनुमानजी कटकटा कर गरजते हैं और एक विशाल पेड़ के वार से उसे विरथ कर जमीन पर ला देते हैं और चार स्टार वालों को
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। 
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। 
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
एकल  पांच स्टार वाला दारूनभट ही है जो भीड़ सका लेकिन वह भी मात्र एक ही मुष्टिका में मुरुक्षित हो गया। इस प्रकार श्री हनुमान जी ने रावण की इन सभी रक्षा प्रणाली  को नष्ट कर दिया। आगे की कथा क्रमशः 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

✓रघबीर पंचवीर

जौंरघुबीरअनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥  यहां 'रघुबीर' शब्द पाँच प्रकारकी वीरताके सम्बन्धमें प्रयुक्त है, यथा - ' त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो
विचक्षणः। पराक्रममहावीरो धर्मवीरः सदा स्वतः ॥ पंचवीराः समाख्याता राम एव च पंचधा । रघुवीर इति ख्यातः सर्ववीरोपलक्षणः ॥' इन पाँचोंके उदाहरण क्रमसे लिखते हैं-
(१) त्यागवीर
'पितु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदय कछु पहिरे बलकल चीर ।' 
(२) दयावीर
'चरनकमलरज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ '
(३) विद्यावीर
'श्रीरघुबीरप्रताप तें सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जो राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ।' 
( जलपर पत्थर तैरना - तैराना एक विद्या है ) 
(४) पराक्रमवीर
'सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीर ।
हृदय न हरष बिषाद कछु बोले श्रीरघुबीर ॥' 
(५) धर्मवीर
'श्रवन सुजस सुनि आयउँ प्रभु भंजन भवभीर ।
त्राहि त्राहि आरतिहरन सरन सुखद रघुबीर ॥'
ये पाँचों वीरताएँ श्रीरामजीहीमें हैं औरमें नहीं । इस प्रसंग में विभीषणजी एवं हनुमानजी दोनोंने कृपा करनेसे (अर्थात् उनकी दया - वीरतागुणको स्मरण करके) 'रघुबीर' कहा, यथा- 'जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा' और
'मोहू पर रघुबीर कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन।' दयावीर हैं, इसीसे हमारे-से अधमपर कृपा की। 'दरसु हठि दीन्हा, यथा- 'एहि सन हठि करिहौं पहिचानी ।' ये हनुमान्जीके ही वचन हैं । [ 'दरसु हठि दीन्हा, इस पदसे श्रीभगवत्के
अनुग्रहपूर्वक अपने भाग्यकी प्रबलता दरसाते हुए परम भागवत श्रीहनुमान्जीका अनुग्रह दरसाया गया और श्री राम के रघुवीर रुप में पाँच प्रकारकी वीरता को धारण करने वाला बताकर उनकी प्रभुता प्रगट की गई है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

✓"पतिव्रत धर्म"

  "पतिव्रत धर्म"
बूंदी नरेश महाराज यशवन्त सिंह जी शाही दरबार में
रहते थे एक दिन बादशाह ने अपनी सभा में प्रश्न किया कि
आज कल वह जमाना गर्त  हो रहा है कि स्त्री भी दुराचारिणी हो गई हैं । पतिव्रत धर्म को ग्रहण करने वाली स्त्री पृथ्वी पर नहीं हैं और न होंगी क्योंकि समय बड़ा बलवान है । यह सुन कर सारे सभासद चुप हो गये परन्तु वीर क्षत्री बूंदी नरेश को नहीं रहा गया और क्रोध पूर्वक सभा में खड़े हो कर बोले कि हे बादशाह आगे की तो मैं कह नहीं सकता हूं लेकिन  इस वक्त तो मेरी स्त्री पूर्ण पतिव्रत धर्म को ग्रहण करने वाली है ।
यह सुन कर बादशाह चुप हो गये परन्तु एक शेरखां नामी
मुसलमान बोला कि आपकी स्त्री पतिव्रता नहीं है । बाद में 
तर्क वितर्क से यह निश्चय हुआ कि एक माह की मुहलत में मैं आपको जसवन्तसिंह की पत्नी का पतिव्रत धर्म दिखला दूँगा । इस पर बादशाह ने कहा कि दोनों में से जो झूट
निकलेगा उसी को फांसी लगवा दी जावेगी और दूसरे को
इनाम मिलेगा । शेरखां यह सुन कर बहुत खुश हुआ । और अपने महल में  दो दूती बुलाया और दोनों से पूछा कि तुम क्या क्या काम कर सकती हो। तब एक ने कहा कि मैं बादल फाड़ सकती हूं और दसरी ने कहा कि मैं बादल फाड़ कर सीं सकती हूं। यह सुन कर शेरखां ने दूसरी को पसन्द किया । और उससे कहा कि बूंदी नरेश की पत्नी पतिव्रता है इस कारण तू, उसके पतिव्रत धर्म को छल से डिगादे तो राजा तुझे पाँच गांव इनाम में देगें।इस बात को सुन कर वह प्रसन्न हो गई। उसे पालकी से बूंदी पहुंची।
जब वह बूंदी नरेश के यहां पहुंची तो उस बूंदी नरेश की पतिव्रता नारी ने उसका आदर सत्कार किया ।
क्योंकि वह बूंदी नरेश की बुआ बनकर गई थी
और रानी ने बुआ को कभी देखा नहीं था इसलिये 
रानी ने उसे महाराज  की बुआ ही समझा ।
दो दिन पश्चात  दूती ने रानी से  कहा  कि चलो स्नान
कर ले।
रानी ने कहा बुआ जी मैं पीछे स्नान करूंगी।
आप स्नान कर लीजिए ।
दूती यह सुनकर कोधित हुई और बनावटी भय
दिखलाने लगी कि मैं जसवन्तसिंह से तेरी शिकायत करूंगी।रानी बेचारी को डर  गई क्योंकि रानी उसको ठीक से जानती नहीं थीं। इस कारण विश्वास करके उसके सामने स्नान करने लगी , तो उस दूती ने उनके अंग को देखा तो रानी की जंघा पर लहसन दिखाई दिया, स्नान करने के पश्चान दूती ने भोजन किया । अन्त में दूसरे दिन दूती ने कहा कि अब तो मैं जाती हैं और वहां पर एक रखी हुई कटार को देख कर उसे मांगने लगी ।
रानी ने हाथ जोड़े कर कहा कि हे बुआजी यह तो
कटार मेरे पतिव्रत धर्म की है। महाराज जी ने मुझको दे रखी है । दूती ने कटार को बार बार मांगा परन्तु रानी ने कटार नहीं  दिया ।
अन्त में दती ने क्रोधित हो कर कहा कि मैं तुझे जस-
वन्तसिंह से कह कर निकलवा दूंगी। तब तू अपने धर्म की
किस प्रकार रक्षा करेगी । तू ने मेरा इस छोटी सी कटार पर
इस तरह अनादर किया। रानी ने उसके कोध से भयभीत हो कर कटार को दे दिया । दूतो प्रसन्न होकर वहां से चल दी और शेरखां को कटार दे दिया और  जंघा ले  निशान को बता  दिया । अब शेर खां  शेर बन गया और वह इनाम
जो कि पांच गांव राजा ने रखे थे उनके लेने के लिए वह 
शाही दरबार में गया और कटार  बादशाह के आगे रख कर  कहा कि  बादशाह  मैं इस कटार को लेकर और रानी के जंघा पर  लहसन का निशान देख कर अभी चला आ रहा हूँ । जसवन्तसिंह इस बात को सुनकर हतप्रद । अब तो  जसवन्त सिंह को फाँसी का हुक्म हो ही  गया और शेरखां को इनाम  भी मिल गया। लेकिन जसवंतसिह को एक बार अपनी पत्नी से मिलने  बूंदी भेजा गया और फांसी की तारीख मुकर्रर हो गई।दूसरे दिन जसवन्तसिंह घोड़े पर सवार होकर बूंदी पहुंचे रानी महाराज का आगमन सुनकर दरवाजे पर गंगाजल लेकर आई परन्तु जसवन्तसिंह रानीको  देख कर लौट गए । रानी ने अपने पति को क्रोधित जान कर शोक किया कि हे दैव मैंने एसा क्या दुष्कर्म किया जिससे महाराज मुझसे कुछ भी न कहकर लौट गए । अन्त में इस पतिव्रत नारी को सारा वृतान्त मालूम हुआ तब वह क्रोधित होकर अपनी पांच सहेलियों के साथ दिल्ली को गई और नाचना
प्रारम्भ किया ।  बादशाह को नाच दिखाकर गाना इस तरह सुनाया कि बादशाह सुनकर प्रसन्न होगया । ईश्वर की प्रार्थना जो कि रानी ने गाई थी बादशाह अपने
ऊपर घटित करके बहुत प्रसन्न हुआ और कहा कि तुम्हारी
जो कुछ इच्छा हो  सो मांगो । रानी ने तीन वचन भरवा कर कहा कि हे बादशाह ! शेरखां पर मेरा पांच लाख का  कर्जा है सो आप उनको दिलवा दीजिए ।
बादशाह ने शेरखां को रुपयों की बाबत पूछा तो वह
रानी के मुंह को ताक कर बोला कि मैं खुदा की कसम खाता हूँ कि मैंने तो इसका कभी मुह तक भी नहीं देखा है मुझ पर इसका कर्जा क्योंकर है। रानी ने यह सुनकर वादशाह से कहा कि यदि मेरा मुख भी नहीं देखा था तो यह वह कटार  कैसे लाया और लहसन का निशान तृने किस तरह बतला दिया । यह सुनकर
शेरखां के होश उड़ गए और उसको अपनी सारी कहानी बादशाह  को बतानी पड़ी ।अब जसवन्तसिंह के बजाय शेरखां को फांसी का दण्ड मिला क्योंकि रानी ने बादशाह से दूती का सत्र हाल बयान कर दिया था ।
भावार्थ-
इससे यह शिक्षा मिली कि पतिव्रत धर्म के प्रताप से
सारे कठिन से कठिन काम तुच्छ दिखाई देते हैं ।
बिन्दा पतिव्रत धर्म के ही कारण तुलसी बनकर
भगवान की प्राणप्यारी बनी क्योंकि इसके बिना भगवान छप्पन भोगों को भी नहीं मानते । सीता जी ने भी राम से कहा है कि-
जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।।सारांश यह कि स्त्री के लिए पति ही सर्वस्व है और यदि वह पतिव्रता है तो उसके पति और उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।ईश्वर की कृपा सदा उन पर बनी ही रहती है।
जय श्री राम जय हनुमान

शनिवार, 14 सितंबर 2024

✓कह मुनीस हिमवंत सुनु

कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥

जो कुछ विधाता ने भाग्य में लिख दिया है वह होकर
ही रहता है, चाहे कोई कितना ही परिश्रम करे परन्तु जैसा
प्रारब्ध में लिखा है वैसा ही रहेगा, प्रारख्ध न बढ़ती है और न घटती है ।
एक पुरुष अपनी स्त्रो सहित कहीं जा रहा था और
साथ उसका  पुत्र भी था। मार्ग में उसे भगवान शंकर और
पार्वतीजी  मिले | पार्वती जी को उनकी दशा देख कर दया
आ गई और उन्होंने महादेव जी से कहा कि हे नाथ इन पर दया करनी चाहिए । महादेव जी ने कहा कि, ये तोनों कम नसीव  के हैं। मेरी दया से इनको लाभ नहीं होगा । पार्वती जी ने बार बार आग्रह पूर्वक कहा तव महादेव जी ने उनसे कहा कि तुम तीनों एक २ चीज मुझसे माँग लो वह तुरन्त मिल जायगी । तव औरत  ने सुन्दर स्वरूप मांगा वह तुरन्त रूपवती हो गई । एक राजा उसे देख कर हाथी पर चढ़ा ले चला । जब उसके पति ने देखा कि मेरी स्त्री तो हाथ से गई तो वह  महादेवजी से कहा कि इस औरत का रूप सूअर के समान हो जायं सो उसी क्षण होगई । अव जो राजा हाथो पर चढ़ा  उसे ले जा रहा था।उसके रूप से घृणा करके छोड़ दिया । अब पुत्र ने अपनी माता
को बदसूरत जान कर यह मांगा कि मेरी माता पहिले जैसी  थी वैसी ही हो जाय वह तुरन्त वैसी ही हो गई । मतलब यह है कि तीनों को कुछ न मिला । तब महादेवजी ने पार्वती से कहा कि विधाता ने जो प्रारब्ध में लिखा है वही मिलता है । तभी तो देवर्षि नारद जी ने यह बात कहा है।
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥

✓हनुमानजी ने ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान क्यों रखा था?

हनुमानजी ने ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान क्यों रखा था?
मेघनाद और श्रीहनुमान जी के मध्य विकराल युद्ध आरम्भ हो गया था। दोनों लड़ते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो कोई दो गजराज भिड़ पड़े हों। 
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
दोनों के पाँव धरती को अथाह बल से रगड़ रहे थे। और वाटिका में उस स्थान का घास मानो किसी चटनी की भाँति मसला जा चुका था। धूल उड़ कर आसमान को छूने जा पहुँची थी। ऐसा दंगल था, कि त्रिलोकी के समस्त गण इसी दृश्य के आधीन हो मूर्त से बने साक्षी हो चले थे। मेघनाद ने अपने समस्त माया व प्रपँच अपना लिए, लेकिन श्रीहनुमान जी हैं, कि उससे जीते ही नहीं जा पा रहे-
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। 
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
‘उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।’
मेघनाद ने देखा, कि यह कपि तो बड़ा ही बलवान है। मेरे किसी भी शस्त्र को यह पल भर में ही काट डाल रहा है। तब उसने सोचा, कि अवश्य ही मुझे अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना चाहिए। ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के क्या लाभ होंगे, और क्या हानियां होंगी, यह विचारे बिना ही उसने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। श्रीहनुमान जी ने देखा, कि मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान करके अच्छा नहीं किया। कारण कि ऐसा नहीं कि हम ब्रह्मास्त्र का प्रतिकार नहीं कर सकते। लेकिन ऐसे करने से हमारे बल का तो, हो सकता है कि डंका बज उठे, लेकिन इससे ब्रह्मास्त्र की महिमा को ठेस पहुँचेगी। वैसे भी ब्रह्मा जी तो सृष्टि के रचयिता हैं। वे हम सबके पिता हैं। हम कितने भी बड़े हो जायें। लेकिन क्या अपने पिता से बड़े हो सकते हैं? नहीं, कभी भी नहीं। और उनके अस्त्र का संधान हो, तो उसका प्रतिकार व अपमान तो किसी भी स्तर पर उचित नहीं। निश्चित ही मुझे ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान रखना ही होगा-
‘ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।’
बस फिर क्या था। मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का संधान कर दिया। और श्रीहनुमान जी मूर्छित होकर, पेड़ से धरा पर गिर पड़े। श्रीहनुमान जी नीचे क्या गिरे। राक्षसों की तो श्वाँस में श्वाँस आई। लगा कि उनके चारों ओर मँडराती मृत्यु के ताँडव को मानों विराम लगा हो। लेकिन सबने श्रीहनुमान जी को भला क्या, यूँ ही कोई साधारण वानर समझ रखा था? ऐसा थोड़ी था, कि श्रीहनुमान जी अब गिर रहे हैं, तो उनके गिरते-गिरते बस गिर ही जाना होगा। जान-माल की हानि से भी पूर्णतः बच जाना होगा। जी नहीं! श्रीहनुमान जी तो ऐसे वीर बलवान व सजग हैं, कि वे गिरते-गिरते भी कितने ही राक्षसों को अपने नीचे दबा कर मार डालते हैं।
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। 
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥
जब मेघनाद ने देखा कि श्रीहनुमान जी मूर्छित होकर, पेड़ से नीचे गिर गए हैं। तो वह उन्हें नागपाश में बाँधकर अपने साथ ले चलता है-
यह दृश्य देखकर निश्चित ही साधारण बुद्धि का स्वामी यह सोच लेता है, कि हाँ, श्रीहनुमान जी नागपाश में बँध गए होंगे। लेकिन ऐसा नहीं है। भगवान शंकर जी भी जब माता पार्वती जी को ‘श्रीराम कथा’ का रसपान करवा रहे हैं, तो वे यही बात कह रहे हैं, कि भला ऐसे कैसे संभव हो सकता है, कि श्रीहनुमान जी भी किसी बँधन में बँध जायें। कारण कि जिन प्रभु के पावन नाम के स्मरण से, संसार के ज्ञानी नर-नारियां, संपूर्ण भव सागर के बँधन काट डालते हों, भला उनका ऐसा प्रिय शिष्य, किसी बँधन में भला कैसे बँध सकता है। निश्चित ही यह सँभव ही नहीं है। निश्चित ही वास्तविकता यह है, कि श्रीहनुमान जी को बाँधा नहीं गया, अपितु लीला रचने हेतु, श्रीहनुमान जी ने ही, स्वयं को नागपाश में बँधना स्वीकार कर लिया-
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। 
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। 
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥
श्रीहनुमान जी का बँधना सुन पूरे लंका नगरी में कौतूहल मच गया। सभी राक्षस गण श्रीहनुमान जी को, यूँ बँधा देखने के लिए रावण की सभा में उपस्थित हो रहे हैं।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। 
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। 
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥
श्रीहनुमान जी ने भी रावण की सभा देखी, तो बस देखते ही रह गए। कारण कि रावण की सभा का वैभव ही ऐसा है, कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता है। वहाँ रावण को छोड़कर सभी सभासद दास की ही भूमिका में हैं। देवता और दिक्पाल हाथ जोड़कर रावण की भौं ताक रहे हैं। हर किसी का बस यही प्रयास है, कि काल बिगड़ता है, तो बिगड़ जाये। लेकिन रावण न बिगड़ने पाये। क्योंकि रावण अगर प्रतिकूल हो गया। तो मानों, कि अमुक जीव का भाग्य ही उससे रूठ गया। समझना कि उसकी श्वाँसों को उसकी छाती से अब कोई सरोकार नहीं रहा। लेकिन इन सब से परे, श्रीहनुमान जी पूर्णतः निशंख व अखण्ड़ भाव से ऐसे खड़े हैं, जैसे सर्पों के झुण्ड में गरुड़ महाराज निर्भय खडे़ होते हैं-
‘कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।’
महाबली श्रीहनुमान जी अब रावण की सभा में पहुँच तो गए हैं। और आशा है कि आप भी समझ ही गए होगे कि हनुमानजी ने ब्रह्मास्त्र की मर्यादा का सम्मान क्यों रखा था? 
।।जय श्रीराम जय हनुमान।।

✓कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
एक बार एक ब्राह्मण देवता अपनी ब्राह्मणी सहित मार्ग में चले जा रहे थे। कुछ दूर पर  चार ठग मिले और
ब्राह्मणी के आभूषणों को देख कर कपट से मधुर वचन कहने लगे कि, हे महाशय आपने कहाँ के लिए प्रस्थान किया है ब्राह्मण ने अपने पहुंचने का निर्दिष्ट स्थान उनको बतला दिया । तब ठग  बोले कि, हे महाराज जी हमको भी वहीं पहुंचना है जहां पर कि, आपने गमन किया है। अस्तु हम और आप साथ साथ चलें तो बहुत अच्छा है ।यह सुन ब्राह्मण ने विचार किया कि,  एकला चलिये न घाट, अस्तु यह सोच कर ब्राह्मण ने उनसे कहा कि चलिये हमारे लिये तो लाभ ही है क्योंकि आप इस मार्ग से पूर्ण
परिचित होंगे और साथ साथ मार्ग भी अच्छी भांति तय हो जायगा। ऐसा कह कर ब्राह्मण, ब्राह्मणी और चारों ठग साथ हो लिये । आगे एक सघन बन में जाकर ठगों ने मार्ग को छोड़ कर एक पगदंडी पकड़ लिया । यह देख ब्राह्मण के हृदय में कुछ भय उत्पन्न हुआ और  ठगों का साथ छोड़कर  वे अलग खड़े हों गये तव चारों  ठग ब्राह्मण से कहने लगे कि, महाशय  आप हमारे साथ क्यों नहीं चलते हैं यदि हम आपके साथ दुष्कर्म करें तो हमारे और आपके बीच में रमापति राम साक्षी है । यह सुन कर ब्राह्मण को विश्वास हो गया और वे ठगी  के साथ पुनः चल दिये। अब आगे जाकर जब झाड़ियों के मध्य में प्रवेश किया तब ठगों ने ब्राह्मण के मारने के लिए तलवार निकाल लिया ।यह देख कर ब्राह्मण ब्राह्मणी कहने लगे कि हे ठगों जो तुमको लेना हो सो हमसे माँगो परन्तु हमारे प्राणों को न लो । यह सुन कर ठग वोले कि, हे ब्राह्मण हम विना प्राण हरण किये किसी व्यक्ति का धन नहीं लेते यह हमारा आदि सनातन धर्म है ।यह सुनते ही दीन हीन ब्राह्मण ब्राह्मणी दोनों रोने लगे।और भगवान से  कहने लगे कि, हे चराचर के स्वामी, भक्तवत्सल, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान आप हमारे और इनके मध्य में साक्षी थे यदि आज आप ने आकर न्याय न किया तो फिर आपको मर्यादा  पुरुषोत्तम, घटघट वासी, करुणानिधान, भुवनेश्वर, दया के समुद्र और कल्याणकारी कहना वृथा है । यदि आज न्याय न किया तो यह पृथ्वी रसातल को चली जायेगी। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है।
उनके के इन वचनों को सुनकर बैकुंठ निवासी घट घट वासी भगवान सुदर्शन चक्र धारण किये वहीं प्रगट हो गए और तुरन्त ही चारों डाकुओं को मार डाले और ब्राह्मण तथा ब्राह्मणी को दर्शन दे  अंतर्धान हो गए । यह कथा हमें  बताती है कि भगवान पर विश्वास रख कर कठिन से कठिन कार्य की  भी सिद्धि होती  ही है । इस विषय में एक कवि ने लिखा है ।
जो जन जाये हरि निकट, धरि मन में विश्वास ।
कोई न खाली फिर गयौं, पूरि लियों निज आस।।
और गोस्वामीजी ने तो मानस में घोषणा ही कर दिया है कि 
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥
जय श्री राम जय हनुमान