बुधवार, 26 जून 2024

मानस चर्चा "प्रीति की रीति"

मानस चर्चा "प्रीति की रीति"
जल पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ' रसु जाइ कपटु खटाई परत पुनि ॥ 
अर्थात्  प्रीतिकी सुन्दर रीति देखिये जल दूधमें मिलनेसे दूधके समान  अर्थात् दूधके भाव बिकता है। परंतु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है अर्थात् फट जाता है और स्वाद जाता रहता है ॥ यह पूरी की पूरी बात हम सभी मनुष्यों के लिए कही गई है,पर प्यार भरे उदाहरण द्वारा।आगे भी देखते हैं।
'जल पय सरिस बिकाइ ' यहां भाव यह है  कि दूधमें मिलनेसे जल भी दूधके भाव बिकता है और उसमें दूधका रस रंग और स्वाद भी आ जाता है यह दूधका भलपन है, पर खटाई पड़ते ही दूध अलग हो जाता है दूध फट जाता है और उस जलमें दूधका स्वाद नहीं रह जाता। इसी तरह कपट करनेसे  हम इंसानों के साथ भी होता है एक दूसरे का संग छूट जाता है। प्रीतिरूपी रस नहीं रह जाता। दूध फट जानेपर ,फिर दूध नहीं बन सकता, वैसे ही फटा हृदय फिर नहीं जुड़ता, फिर प्रेम हो ही नहीं सकता, बिगड़ा सो बिगड़ा, फिर नहीं सुधर सकता । कहा है कि 
'मन मोती और दूध रस इनको यहै स्वभाव ।
फाटे पै पुनि ना जुड़ै करिए कोटि उपाव ॥
दूध और जलके द्वारा प्रीतिकी रीति देख पड़ती है। इसीसे कहा कि 'देखहु ।' तात्पर्य यह कि  ए मानवों इसे देखकर ऐसी प्रीति करो, कपट मत करो।हम प्रसंग में देखें कि  दूध ऐसे निर्मल शिवजी  कर्पूरगौरम् और जड़ जल  जैसी सतीजी जिनके बारे में  'किमसुभिलपितैर्जडं मन्यसे और  'डलयोः सावर्ण्यात्' से सतीजी को 'जड़' से जल कहा  गया है। दोनों कीअच्छी तरहसे प्रीति देखो कि दोनों मिलकर एक हो गये थे, दोनों साथ-साथ पूजे जाते थे, दोनोंकी महिमा एक समझी जाती थी, जैसे दूधमें पानी मिलनेसे पानी भी दूध ही कहा जाता है। दूधहीके भावसे दूध मिला , पानी भी बिकता है पर जैसे वह खटाई पड़नेसे अलग और बिगड़ जाता है, वैसे ही यहाँ कपट करनेसे दूध  ऐसे महादेव सती जड़ - जल से अलग हो गये और बिगड़ भी गये। '
मित्रतापर भिखारीदासजीका पद देखने योग्य है-
दास परस्पर प्रेम लखो गुन छीर को नीर मिले सरसातु है। नीर बिकावत आपने मोल जहाँ जहँ जायके छीर बिकातु 
है ।
पावक जारन छीर लग्यो तब नीर जरावत आपन गातु है। नीर की पीर निवारिये कारन छीर घरी ही घरी उफनातु है ।  इस पद्यमें हमें दूधका और जलका भलपनअलग-अलग दिखा दिया गया है। वास्तव में यही है प्रीति की रीति जिसे हर इंसान को निभानी ही चाहिए,जीवन में कपट रूपी खटाई का प्रयोग हमेशा हमेशा के लिए त्याज्य ही होना चाहिए।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 23 जून 2024

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"

मानस चर्चा "त्रिपुरारी"
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।चले भवन सँग दच्छकुमारी।
महादेव त्रिपुरारी क्यों कहलाते है।जानते है इन कथाओं के माध्यम से--
 शिवजी त्रिपुरारी हैं। उन्होंने त्रिपुरके मारनेमें बड़ी
सावधानतासे काम लिया था। इसी तरह वे लक्ष्यपर सदा सावधान रहते हैं।  ।
त्रिपुरासुर
श्रीमद भागवत महापुराण में कथा मिलती है कि एक बार जब देवताओंने असुरोंको जीत लिया तब वे महामायावी शक्तिमान् मयदानवकी शरणमें गये। मयने अपनी अचिन्त्य शक्तिसे तीन पुररूपी विमान लोहे, चाँदी और सोनेके ऐसे
बनाये कि जो तीन पुरोंके समान बड़े-बड़े और अपरिमित सामग्रियोंसे भरे हुए थे। इन विमानोंका आना-जाना
नहीं जाना जाता था। यथा -
 'स निर्माय पुरस्तिस्त्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः । दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥'
 महाभारतसे पता चलता है कि ये तीनों पुर (जो विमानके आकारके थे) तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष
और विद्युन्माली नामक तीनों पुत्रोंने मयदानवसे अपने लिये बनवाये थे । इनमेंसे एक नगर ( विमान) सोनेका
स्वर्गमें, दूसरा चाँदीका अन्तरिक्षमें और तीसरा लोहेका मर्त्यलोकमें था । ऋग्वेदके कौषीतमें और ऐतरेय ब्राह्मणोंमें त्रिकका वर्णन है। यथा -
 ' ( असुराः) हरिणीं ( पुरं) हादो दिविचक्रिरे। रजतां अन्तरिक्षलोके अयस्मयीमस्मिन् अकुर्वत् ॥' अर्थात् असुरोंने हिरण्मयी पुरीको स्वर्गमें बनाया, रजतमयीको अन्तरिक्षमेंऔर अयस्मयीको इस पृथ्वीलोकमें । तीनों पुरोंमें एक-एक अमृतकुण्ड बनाया गया था। इन विमानोंको लेकर वे असुर तीनों लोकोंमें उड़ा करते थे । अब देवताओंसे अपना पुराना वैर स्मरणकर मयदानवद्वारा शक्तिमान् होकर तीनों विमानोंद्वारा दैत्य उनमें छिपे रहकर तीनों लोकों और लोकपतियोंका नाश करने लगे। जब असुरोंका अत्याचार बहुत बढ़ गया तब सब देवता शंकरजीकी शरण गये और कहा कि
 ' त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः । ' 
 ये त्रिपुरानिवासी असुरगण हमें नष्ट किये डालते हैं। हे प्रभो! हम आपके हैं, आप हमारी रक्षा करें। शंकरजीने
पाशुपतास्त्रसे अभिमन्त्रित एक ऐसा बाण तीनों पुरोंपर छोड़ा कि जिससे सहस्रशः बाण और अग्निकी लपटें
निकलती जाती थीं। उस बाणसे समस्त विमानवासी निष्प्राण हो गिर गये। महामायावी मयने सबको उठाकर
अपने बनाये हुए अमृतकुण्डमें डाल दिया जिससे उस सिद्ध अमृतका स्पर्श होते ही वे सब फिर वज्रसमान
पुष्ट हो एक साथ खड़े हो गये। जब-जब शंकरजी त्रिपुरके असुरोंको बाणसे निष्प्राण करते थे, तब-तब मयदानव
सबको इसी प्रकार जिला लेता था। शंकरजी उदास हो गये, तब उन्होंने भगवान्‌का स्मरण किया । उनको भग्न
संकल्प और खिन्नचित्त देख भगवान्ने यह युक्ति की कि स्वयं गौ बन गये और ब्रह्माको बछड़ा बनाकर
बछड़ेसहित तीनों पुरोंमें जा सिद्धरसके तीनों कूपोंका सारा जल पी गये। दैत्यगण खड़े देखते रह गये। वे सब
ऐसे मोहित हो गये थे कि रोक न सके। तत्पश्चात् भगवान्ने युद्धकी सामग्री तैयार की। धर्मसे रथ, ज्ञानसे
सारथी, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य
शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया । इन सामग्रियोंसे सुसज्जित हो शंकरजी रथपर चढ़े और अभिजित् मुहूर्तमें उन्होंने एक ही बाणसे उन तीनों दुर्भेद्य पुरोंको भस्म कर दिया ।
दूसरा आख्यान भी मिलता है जो यो  है- 
त्रिपुरोंकी उत्पत्ति और नाशका एक आख्यान महर्षि मार्कण्डेयने किसी समय धृतराष्ट्रसे कहा था जो दुर्योधनने महारथी शल्यसे (कर्णपर्वमें) कहा है। उसमें बताया है कि तारकासुरके तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामके तीन पुत्र थे, जिन्होंने घोर तप करके ब्रह्माजीसे यह वर माँग लिया था कि 'हम तीन नगरोंमें बैठकर इस सारी पृथ्वीपर आकाशमार्गसे विचरते रहें । इस प्रकार एक हजार वर्ष बीतनेपर हम एक जगह मिलें। उस समय जब हमारे तीनों पुर मिलकर एक हो जायँ तो उस समय जो देवता उन्हें एक ही बाणसे नष्ट कर सके, वही हमारी मृत्युका कारण हो ।' यह वर पाकर उन्होंने मयदानवके पास जाकर उससे तीन नगर अपने तपके प्रभावसे ऐसे बनानेको कहे कि उनमेंसे एक सोनेका, एक चाँदीका और एक लोहेका हो। तीनों नगर इच्छानुसार आ-जा सकते थे। सोनेका स्वर्गमें, चाँदीका अन्तरिक्षमें और लोहेका पृथ्वीमें रहा।
इनमेंसे प्रत्येककी लम्बाई-चौड़ाई सौ-सौ योजनकी थी। इनमें आपसमें सटे हुए बड़े-बड़े भवन और सड़कें
थीं तथा अनेकों प्रासादों और राजद्वारोंसे इनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इन नगरोंके अलग-अलग राजा थे।
स्वर्णमय नगर तारकाक्षका था, रजतमय कमलाक्षका और लोहमय विद्युन्मालीका । इन तीनों दैत्योंने अपने अस्त्र-
शस्त्रके बलसे तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया था । इन दैत्योंके पास जहाँ-तहाँसे करोड़ों दानव योद्धा
आकर एकत्रित हो गये। इन तीनों पुरोंमें रहनेवाला जो पुरुष जैसी इच्छा करता, उसकी उस कामनाको मयदानव
अपनी मायासे उसी समय पूरी कर देता था । यह तारकासुरके पुत्रोंके तपका फल कहा गया।
तारकाक्षका एक पुत्र 'हरि' था। इसने तपसे ब्रह्माजीको प्रसन्न कर यह वर प्राप्त कर लिया कि 'हमारे
नगरोंमें एक बावड़ी ऐसी बन जाय कि जिसमें डालनेसे शस्त्रसे घायल हुए योद्धा और भी अधिक बलवान्
हो जायँ।' इस वरके प्रभावसे दैत्यलोग जिस रूप और जिस वेषमें मरते थे उस बावड़ीमें डालने पर वे उसी
रूप और उसी वेषमें जीवित होकर निकल आते थे। इस प्रकार उस बावड़ीको पाकर वे समस्त लोकोंको
कष्ट देने लगे। देवताओंके प्रिय उद्यानों और ऋषियोंके पवित्र आश्रमोंको उन्होंने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । इन्द्रादि
देवता जब उनका कुछ न कर सके तब वे ब्रह्माजीकी शरण गये । ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सब शंकरजीके पास
गये और उनको स्तुतिसे प्रसन्न किया। महादेवजीने सबको अभयदान दिया और कहा कि तुम मेरे लिये एक
ऐसा रथ और धनुष-बाण तलाश करो जिनके द्वारा मैं इन नगरोंको पृथ्वीपर गिरा सकूँ । देवताओंने विष्णु, चन्द्रमा और अग्निको बाण बनाया तथा बड़े-बड़े नगरोंसे भरी हुई पर्वत, वन और द्वीपोंसे व्याप्त वसुन्धराको ही उनका रथ बना दिया । इन्द्र, वरुण, कुबेर और यमादि लोकपालोंको घोड़े बनाये एवं मनको आधारभूमि बना दिया। इस प्रकार जब (विश्वकर्माका रचा हुआ) वह श्रेष्ठ रथ तैयार हुआ
तब महादेवजीने उसमें अपने आयुध रखे । ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड और ज्वर – ये सब ओर मुख किये
हुए उस रथकी रक्षामें नियुक्त हुए । अथर्वा और अंगिरा उनमें चक्ररक्षक बने । सामवेद, ऋग्वेद और समस्त
पुराण उस रथके आगे चलनेवाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक बने । दिव्य वाणी और विद्याएँ
पार्श्वरक्षक बनीं। स्तोत्र, वषट्कार और ओंकार रथके अग्रभागमें सुशोभित हुए। उन्होंने छहों ऋतुओंसे
सुशोभित संवत्सरको अपना धनुष बनाया और अपनी छायाको धनुषकी अखण्ड प्रत्यंचाके स्थानोंमें रखा।
ब्रह्माजी उनके सारथी बने । भगवान् शंकर रथपर सवार हुए और तीनों पुरोंको एकत्र होनेका चिन्तन करने
लगे। धनुष चढ़ाकर तैयार होते ही तीनों नगर मिलकर एक हो गये । शंकरजीने अपना दिव्य धनुष खींचकर
बाण छोड़ा जिससे तीनों पुर नष्ट होकर गिर गये। इस तरह शंकरजीने त्रिपुरका दाह किया और दैत्योंको
निर्मूलकर त्रिलोकका हित किया।
वाल्मीकीयसे पता चलता है कि दधीचि महर्षिकी हड्डियोंसे पिनाक बनाया गया था और भूषण टीकाकारका
मत है कि भगवान् विष्णु बाण बने थे । जिससे त्रिपुरासुरका नाश हुआ । यही धनुष पीछे राजा जनकके यहाँ रख दिया गया था। दधीचिकी हड्डियोंसे दो धनुष बने, शार्ङ्ग और पिनाक । वाल्मीकीय रामायण  के
आधारपर कहा जाता है कि विष्णुभगवान्ने शार्ङ्गसे असुरोंको मारा और शंकरजीने तीनों पुरोंको जलाया । इस प्रकार से यह सिद्ध है की भगवान शंकर ने ही त्रिपुर और उनके असुरों का नाश किया इसलिए वे त्रिपुरारी कहलाए।
हर हर महादेव।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

वस्त्र का पर्यायवाची

वस्त्र का पर्यायवाची
एक ही दोहे में बारह पर्यायवाची शब्द
पट परिधान अम्बर, चेल अंशुक आच्छादन।
पोशाक वस्त्र चीर, दुकूल पहनावा वसन।।
।।धन्यवाद।।

मानस चर्चा ।। सीय स्वयंबर कथा सुहाई।।

मानस चर्चा ।। सीय स्वयंबर कथा सुहाई।।
सीय स्वयंबर कथा सुहाई।सरित सुहावनि सो छबि छाई।।  अर्थात् जो  श्री सीताजी के स्वयंवरकी सुन्दर कथा है वह  सुहावनी नदीकी सुन्दर छबि है जो मानस में
छा रही है ॥  पर बात यहां यह है कि यह स्वयंवर  'सीय स्वयंबर ' कैसे ? कुछ लोग यह शंका इसलिए करते हैं कि 'स्वयंवर तो वह है जिसमें कन्या अपनी रुचि - अनुकूल वर  का वरण कर ले, और यहाँ तो ऐसा नहीं हुआ; तब इसे स्वयंवर क्यों कहा?' इस विषयमें यह जान लेना चाहिये कि स्वयंवर कई प्रकार का होता है। देवीभागवत तृतीय स्कन्धमें लिखा है कि 'स्वयंवर केवल राजाओंके विवाहके लिये होता है, अन्यके लिये नहीं और वह तीन प्रकारका है - इच्छा-स्वयंवर, पण या प्रतिज्ञा-स्वयंवर और शौर्य-शुल्क- स्वयंवर । जैसा कि  यह श्लोक है - 'स्वयंवरस्तु त्रिविधो विद्वद्भिः परिकीर्तितः।राज्ञां विवाहयोग्यो वै नान्येषां कथितः किल ॥ इच्छास्वयंवरश्चैको द्वितीयश्च पणाभिधः । यथा रामेण भग्नं वै त्र्यम्बकस्य शरासनम् ॥तृतीयः शौर्यशुल्कश्च शूराणां परिकीर्तितः । ' 
शौर्य-शुल्क- स्वयंवरके उदाहरणमें हम भीष्मपितामहने
जो काशिराजकी तीन कन्याओं - अम्बा, अम्बालिका और अम्बिकाको अपने भाइयोंके लिये स्वयंवरमें अपने
पराक्रमसे सब राजाओंको जीतकर प्राप्त किया था, इसे दे सकते हैं।
स्वयंवर उसी कन्याका होता है जिसके रूप- लावण्यादि गुणोंकी ख्याति संसारमें फैल जाती है और अनेक राजा उसको ब्याहनेके लिये उत्सुक हो उठते हैं। अतः बहुत बड़े विनाशकारी युद्धके बचानेके लिये यह किया जाता है । इच्छास्वयंवर वह है जिसमें कन्या अपने इच्छानुकूल जिसको चाहे जयमाल डालकर ब्याह ले । जयमाल तो इच्छास्वयंवर और पणस्वयंवर दोनोंमें ही पहनाया जाता है। जयमाल- स्वयंवर अलग कोई स्वयंवर नहीं है। दमयन्ती-नल-विवाह और राजा शीलनिधिकी कन्या विश्वमोहिनी- का विवाह (जिसपर नारदजी मोहित हो गये थे) 'इच्छास्वयंवर' के उदाहरण हैं। पण अर्थात् प्रतिज्ञा  स्वयंवर वह है जिसमें विवाह किसी प्रतिज्ञाके पूर्ण होने ही से होता है, जैसे राजा द्रुपदने श्रीद्रौपदीजीका पराक्रम-
प्रतिज्ञा - स्वयंवर किया। इसी प्रकार श्रीजनकमहाराजने श्रीसीताजीके लिये पणस्वयंवर रचा था । जैसा कि मानस कहता है-
'बोले बंदी बचन बर, सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम, भुजा उठाइ बिसाल ।'  
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। 
राज समाज आज जोई तोरा । 
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ।
बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥'
श्रीरामजीने धनुषको तोड़कर ही  विवाह किया । जैसा कि
— 'रहा बिबाह चाप आधीना । टूटतही धनु भएउ बिबाहू ।  कुछ महानुभाव इसके पूर्व पुष्पवाटिका-प्रसंगके
'निज अनुरूप सुभग बर माँगा' एवं 'चली राखि उर स्यामल मूरति' इन वाक्योंसे यहाँ इच्छा - स्वयंवर होना भी कहते हैं। परन्तु इसकी पूर्ति 'प्रतिज्ञाकी पूर्ति' पर ही सम्भव थी, इसलिये इसे पण - स्वयंवर ही कहेंगे। शिवधनुषके तोड़नेपर ही अर्थात्  प्रतिज्ञा पूर्ण होने के बाद ही जयमाल पहनाया गया।
'कथा सुहाई' अर्थात् कथा अत्यंत सुहावनी/रोचक है। अन्य स्वयंवरोंकी कथासे  हटकर इसमें  विशेष विशेषता है। यह केवल धनुषभंगकी ही कथा नहीं है किन्तु इसमें एक दिन पहले पुष्पवाटिकामें परस्पर प्रेमावलोकनादि भी है और फिर दूसरे ही दिन उन्हींके हाथों धनुभंगका होना तो वक्ता - श्रोता  और दर्शक सभीके आनन्दको अनन्तगुणित कर देता है, सब जय-जय-कार कर उठते है। 'राम बरी सिय भंजेउ चापा'; अतः सीय स्वयंबर कथा सुहाई कहा। दूसरे, श्रीरामकथाको भी गोस्वामीजी  'सुहाई'कह आये हैं; जैसा कि- 'कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई' अब श्रीसीताजीकी कथाको 'सुहाई' कह रहे हैं ।
सीयस्वयंवरकथा वस्तुतः श्रीसीताजीकी कथा है।  इसके पहले गोस्वामीजी कहते है कि रघुबर जनम अनंद बधाई। भवँर तरंग मनोहरताई।। अर्थात्  'रघुबर जन्म'  भी सुहाई है और यहाँ 'सीय स्वयंबर'  भी सुहाई ही है , क्योंकि पुत्रका जन्म सुखदायी होता है।
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
और कन्याका विवाह सुखदायी होता है । लोकमें जन्मसे विवाह कहीं सुन्दर माना जाता है, इससे 'सीय स्वयंबर कथा' को 'सुहाई' कहा।सरित सुहावनि 'सो छबि छाई ' का भाव यह है कि सीयस्वयंवरकथासे ही रामयशसे भरी हुई इस कविताकी शोभा है;
यथा - 'बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। 'सीयस्वयंवरकथामें युगलमूर्तिका छबिवर्णन भरा पड़ा है,
जैसा कि आप देखें ---
भाल बिसाल तिलक झलकाही । 
कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।
यही नहीं इस पूरे प्रसंग में  बीसों बार 'छबि 'शब्दकी आवृत्ति है । यहींकी झाँकीमें 'महाछबि' शब्दका प्रयोग हुआ है। यथा - 'नख सिख मंजु महाछबि छाए । , 'छबिगन मध्य महाछबि जैसे।'  गोस्वामीजी कहते हैं कि छबिका सार भाग यहीं है। जैसा कि-
'दूलह राम सीय दुलही री।
"सुषमा सुरभि सिंगार छीर दुहि
मयन अमियमय कियो है दही री।
मथि माखन सियराम सँवारे 
सकल भुवन छबि मनहुँ मही री। '  
अतः  यहां स्पष्ट है कि कवितासरित् की छबि सीयस्वयंवर ही है। 
'सरित सुहावनि' कहनेका भाव यह है कि कीर्ति नदी तो
स्वयं सुहावनी है, स्वयंवरकथा कीर्ति नदीका श्रृंगार है।
फुलवारीकी कथा ही श्रीजानकीजीके स्वयंवरकी कथा है (क्योंकि स्वयंवर ढूँढ़कर हृदयमें उसे पतिरूपसे रखना यहाँ ही पाया जाता है और आगे तो प्रतिज्ञा एवं जयमालस्वयंवर है। केवल 'सीय स्वयंवर' यही है) जो इस नदीकी शोभित छबि है। इसे छबि कहकर जनाया कि कविता-सरितामें पुष्पवाटिकाकी कथा सर्वोपरि है, इसीसे इसे नदीका श्रृंगार कहा। बात जब सीता सौंदर्य की आती है तो आप इन पक्तियों पर जरूर ध्यान देवें की जगजननी मां सीता की छबि कैसी हो सकती है ।
'जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। 
परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू।
मथै पानि पंकज निज मारू॥
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥
वास्तव में सीता और राम  के समतूल  कोई दूजा हो ही नहीं सकता,तभी तो राम से राम सिया  सी सिया ।और यह सिय स्वयंबर कथा सुहाई।सरित सुहावनि सो छबि छाई।। कहकर गोस्वामीजी में इस कथा की महत्ता को 
प्रतिपादित किया।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा --राम चरित चिंतामनि चारू

मानस चर्चा --राम चरित चिंतामनि चारू
राम चरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तिअ सुभग सिंगारू ॥ 
अर्थात् श्रीरामचरित सुन्दर चिन्तामणि है, सन्तोंकी सुमतिरूपिणी स्त्रीका सुन्दर श्रृंगार है ॥ 
'चिन्तामणि सब मणियोंमें श्रेष्ठ है, जैसा कि-
'चिंतामनि पुनि उपल दसानन । ' 
इसी तरह रामचरित सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है । सन्तकी मतिकी शोभा रामचरित्र धारण करनेसे ही है। 'सुभग सिंगारू '  सब शृंगारोंसे यह अधिक है। जैसा कि गोस्वामीजी कहते हैं-' - 
'तुलसी चित चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि
पहिचाने।' (विनयपत्रिका)बिना रामचरित जाने चित्तकी चिन्ता नहीं मिटती । प्राकृत शृंगार नाशवान् है और यह नाशरहित सदा एकरस है । जैसे कि --
चिन्तामणि जिस पदार्थका चिन्तन करो सोई देता है वैसे ही रामचरित्र सब पदार्थोंका देनेवाला है।
' सुभग सिंगारू' का भाव यह है कि यह 'नित्य नाशरहित, एकरस और अनित्य प्राकृत श्रृंगारसे विलक्षण है।' 
उत्तरकाण्डमें सुन्दर चिन्तामणिके लक्षण यों दिये हैं- ' 
राम भगति  चिंतामनि सुंदर । 
बसई  गरुड़ जाके उर अंतर ॥ 
परम प्रकास रूप दिन राती ।
नहिँ तहँ चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। 
लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई ।
हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥ 
खलकामादि निकट नहिं जाहीं । 
बसइ भगति जाके उर माहीं ॥ 
गरल सुधासम अरि हित होई ।
तेहि मनि बिनु सुखपाव न कोई ॥ 
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। 
जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति-मनि उर बसजाकें।
दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥ ' 
यहाँ रामचरितको 'सुन्दर चिन्तामणि' कहकर इन सब लक्षणोंका श्रीरामचरित्र से प्राप्त हो जाना सूचित किया है। 'चिन्तामणि' के गुण स्कन्दपुराण ब्रह्मखण्डान्तर्गत ब्रह्मोत्तरखण्ड अध्याय पाँचमें ये कहे हैं - वह कौस्तुभमणिके समान कान्तिमान् और सूर्यके सदृश है। इसके दर्शन, श्रवण, ध्यानसे चिन्तित पदार्थ प्राप्त हो जाता है। उसकी कान्तिके किंचित् स्पर्शसे ताँबा, लोहा, सीसा, पत्थर आदि वस्तु भी सुवर्ण हो जाते
हैं। जैसा कि - 
'चिन्तामणिं ददौ दिव्यं मणिभद्रो महामतिः ।
स मणिः कौस्तुभ इव द्योतमानोऽर्क संनिभः ।
दृष्टः श्रुतो वा ध्यातो वा नृणां यच्छति चिन्तितम् ॥
तस्य कान्तिलवस्पृष्टं कांस्यं ताम्रमयस्त्रपु । पाषाणादिकमन्यद्वा सद्यो भवति काञ्चनम् ॥' 
श्रीबैजनाथ  जी का मानना है कि चिन्तामणिमें चार गुण हैं- 'तम नासत दारिद हरत, रुज हरि बिघ्न निवारि' वैसे ही श्रीरामचरित्र में अविद्या - तमनाश, मोह - दारिद्र्य हरण, मानस-रोग-शमन, कामादि- विघ्न निवारण ये गुण हैं। सन्तोंकी सुन्दर बुद्धिरूपिणी स्त्रीके अंगोंके सोलहों शृंगाररूप यह रामचरित है।
जैसा कि कहा भी गया है-
'उबटि सुकृति प्रेम मज्जन सुधर्म पट नेह नेह माँग शम दमसे दुरारी है।
नूपुर सुबैनगुण यावक सुबुद्धि आँजि चूरि सज्जनाई सेव मेंहदी सँवारी है ॥ 
दया कर्णफूल नय शांति हरिगुण माल शुद्धता सुगंधपान ज्ञान त्याग कारी है। 
घूँघट ध्यान सेज तुरियामें बैजनाथ रामपति पास तिय सुमति शृंगारी है।' 
ये सारी हमें राम चरित श्रवणमात्रसे प्राप्त हो जाती  हैं।
है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा "महादेवजी को राम कथा कैसी प्रिय है"

मानस चर्चा "महादेवजी को राम कथा कैसी प्रिय है" 
सिवप्रिय मेकल सैल  सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपतिरासी ॥ 
'मेकल- सैल - सुता'  कौन हैं - मेकल-शैल अमरकण्टक पहाड़  को कहते हैं। यहाँसे नर्मदाजी निकली है।इसीसे नर्मदाजीको 'मेकल-शैल-सुता' कहा जाता है । जैसा कि अमरकोष  में कहा भी गया है---
'रेवती तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यका।' 
श्रीशिवजीको यह कथा (राम कथा) नर्मदाके समान प्रिय है। जो सब सिद्धियों, सुख और सम्पत्तिकी राशि है ॥ 
नर्मदाजी के समान कहनेका भाव क्या है?भाव यह है कि नर्मदाके स्मरणसे सर्पजन्य विष- का नाश हो जाता है। प्रमाण स्वरूप विष्णु पुराण के  इस श्लोक को देखें -
'नर्मदायै नमः प्रातर्नर्मदायै नमो निशि । 
नमस्ते नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतः ॥'
वैसे ही रामकथाके स्मरणसे संसारजन्य विष दूर हो जाता है। अब हम अन्य बात पर भी चर्चा करते है कि ---
'सिव प्रिय मेकल सैल सुता सी'  ही क्यों कहा जा रहा है । इसका  कारण  यह है कि नर्मदा नदीसे प्रायः स्फटिकके या लाल या काले रंगके पत्थरके अण्डाकार टुकड़े निकलते हैं जिन्हें नर्मदेश्वर शिव  कहते हैं। ये पुराणानुसार शिवजीके स्वरूप  ही माने जाते हैं और इनके पूजनका बहुत माहात्म्य  भी बताया  गया है। श्रीशिवजीको नर्मदा इतनी प्रिय है कि नर्मदेश्वररूपसे उसमें सदा निवास करते  हैं या यों कहिये कि शिवजीके अति प्रियत्वके कारण सदा अहर्निश इसी द्वारा प्रकट होते हैं। रामकथा भी शिवजीको ऐसी ही प्रिय है अर्थात् आप निरन्तर इसीमें निमग्न रहते हैं ।'शिवजीका प्रियत्व इतना है कि अनेक रूप धारण करके नर्मदामें नाना क्रीड़ा करते हैं, तद्वत् इसके अक्षर-अक्षर प्रति तत्त्वोंके नाना भावार्थरूप कर उसीमें निमग्न रहते हैं। अतः मानसरामायणपर नाना अर्थोंका धाराप्रवाह है ।  नर्मदाजी शिवजीको प्रिय हैं इस संबंध में संदेह नहीं क्योंकि वायुपुराणमें कहा है कि यह पवित्र, बड़ी और
त्रैलोक्यमें प्रसिद्ध नदियोंमें श्रेष्ठ नर्मदा महादेवजीको प्रिय है।  - 
' एषा पवित्रविपुला नदी त्रैलोक्यविश्रुता ।
नर्मदासरितां श्रेष्ठा महादेवस्य वल्लभा ॥'
पद्मपुराण स्वर्गखण्डमें नर्मदाजीकी उत्पत्ति श्रीशिवजीके शरीरसे कही गयी है। जैसा कि  कहा गया है-
'नमोऽस्तु ते ऋषिगणैः शंकरदेहनिःसृते ।' 
और यह भी कहा है कि शिवजी नर्मदा नदीका नित्य सेवन करते हैं। अतः 'सिव प्रिय ' कहा। पुनः, स्कन्दपुराणमें
कथा है कि नर्मदाजीने काशीमें आकर भगवान् शंकरकी आराधना की जिससे उन्होंने प्रसन्न होकर वर
दिया कि तुम्हारी निर्द्वन्द्व भक्ति हममें बनी रहे और यह भी कहा कि तुम्हारे तटपर जितने भी प्रस्तरखण्ड
हैं वे सब मेरे वरसे शिवलिंगस्वरूप हो जायँगे। जो सदा के लिए सत्य ही है।
'सुख संपति रासी' से नव निधियोंका अर्थ भी लिया जाता है।  नव निधियाँ  हैं-
'महापद्मश्च पद्मश्च शङ्खो मकरकच्छपौ । मुकुन्दकुन्दनीलश्च खर्वश्च निधयो नव।'
इस प्रकार यह अलौकिक कथा श्री महादेवजी को प्रिय तो है ही जन जन को नव निधि देने वाली भी है।जैसा कि स्पष्ट है--
'हरषे जनु नव निधि घर आई'
तथा  'मनहुँ रंक निधि लूटन लागी'  ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा"श्री रामजी को राम कथा तुलसी सी प्रिय है"

मानस चर्चा"श्री रामजी को राम कथा तुलसी सी प्रिय है"
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हिय हुलसी सी ॥
श्रीरामजीको यह कथा पवित्र तुलसीके समान प्रिय है। मुझ तुलसीदासके हितके लिये हुलसी माता एवं हृदयके आनन्दके समान है।
' रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी' इति ।  'तुलसी' पवित्र है और श्रीरामजीको प्रिय है।तुलसीका पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं। जैसा कि पद्म पुराण में कहा भी गया है-
पत्रं पुष्पं फलं मूलं शाखा त्वक् स्कन्धसंज्ञितम् । तुलसीसम्भवं सर्वं पावनं मृत्तिकादिकम् ॥' 
वह इतनी पवित्र है कि यदि मृतकके दाहमें उसकी एक भी लकड़ी पहुँच जाय तो उसकी मुक्ति हो जाती है। यथा - 'यद्येकं तुलसीकाष्ठं मध्ये काष्ठस्य तस्य हि ।
दाहकाले भवेन्मुक्तिः कोटिपापयुतस्य च ॥'
तुलसीकी जड़में ब्रह्मा, मध्यभागमें भगवान् जनार्दन और मंजरीमें भगवान् रुद्रका निवास है । इसीसे वह पावन मानी गयी है। दर्शनसे सारे पापोंका नाश करती है, स्पर्शसे शरीरको पवित्र करती, प्रणामसे रोगोंका निवारण करती, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है और भगवान्‌के चरणोंपर चढ़ानेपर मोक्ष प्रदान करती है। यथा - ' या दृष्टा निखिलाघसंघशमनी स्पृष्टा वपुष्पावनी रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्तान्तकत्रासिनी । प्रत्यासत्ति विधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता
न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः ॥' प्रियत्व यथा -' तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। भगवान्‌को तुलसी कैसी प्रिय है, यह बात स्वयं भगवान्ने अर्जुनसे कही है। तुलसीसे बढ़कर कोई पुष्प, मणि, सुवर्ण आदि उनको प्रिय नहीं है। लाल, मणि, मोती, माणिक्य, वैदूर्य और मूँगा आदिसे भी पूजित होकर भगवान् वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदल, तुलसीमंजरी, तुलसीकी लकड़ी और इनके अभावमें तुलसीवृक्षके जड़की मिट्टीसे
पूजित होनेपर होते हैं। भगवान् तुलसी- काष्ठकी धूप, चन्दन आदिसे प्रसन्न होते हैं तब तुलसी - मंजरीकी तो बात हीक्या ?
'तुलसी' इतनी प्रिय क्यों है, इसका कारण यह भी है कि ये लक्ष्मी ही हैं, कथा यह है कि सरस्वतीने लक्ष्मीजीको शाप दिया था कि तुम वृक्ष और नदीरूप हो जाओ । यथा - ' शशाप वाणी तां पद्मां महाकोपवती सती । 
वृक्षरूपा सरिद्रूपा भविष्यसि न संशयः ॥ '
पद्माजी अपने अंशसे भारतमें आकर पद्मावती नदी और
तुलसी हुईं। जैसा कि ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रकृतिखण्ड में कहा गया है -
'पद्मा जगाम कलया सा च पद्मावती नदी । 
भारतं भारतीशापात्स्वयं तस्थौ हरेः पदम् ॥'
'ततोऽन्यया सा कलया चालभज्जन्म भारते । धर्मध्वजसुतालक्ष्मीर्विख्यातातुलसीतिच॥'
पुनः, तुलसीके समान प्रिय इससे भी कहा कि श्रीरामचन्द्रजी जो माला हृदयपर धारण करते हैं,
उसमें तुलसी भी अवश्य होती है। गोस्वामीजीने ठौर-ठौरपर इसका उल्लेख किया है। यथा - 
'उर श्रीवत्स रुचिर बनमाला । ' 
'कुंजरमनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल ॥'  'सरसिज लोचन बाहु बिसाला ।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥' 
वनमालामें प्रथम तुलसी है, यथा-
'सुंदर पट पीत बिसद भ्राजत बनमाल उरसि तुलसिका प्रसून रचित बिबिध बिधि बनाई ॥ '  पुनः,
'तुलसी - सम प्रिय' कहकर सूचित किया कि श्रीजी भी इस कथाको हृदयमें धारण करती हैं।
तुलसीकी तुलनाका भाव यहां  यह भी  है कि जो कुछ कर्म-धर्म तुलसीके बिना किया जाता है वह सब निष्फल हो जाता है। इसी प्रकार भगवत्कथाके बिना जीवन व्यर्थ हो जाता है। आगे कहा गया कि -हिय हुलसी सी'  
बृहद्रामायणमाहात्म्यमें गोस्वामीजीकी माताका नाम 'हुलसी' और पिताका नाम अम्बादत्त दिया है। पुनः-
'सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय । गोद लिये हुलसी फिरैं तुलसी सो सुत होय ॥'
इस दोहेके आधारपर भी  'हुलसी' ही गोस्वामीजी  की माताका  है।  वेणीमाधवदासकृत 'मूल गुसाईंचरित' में
भी गोस्वामीजी  की माताका नाम हुलसी लिखा है। यथा - 'उदये हुलसी उद्घाटिहि ते । 
सुर संत सरोरुह से बिकसे', हुलसी-सुत तीरथराज गये॥ ' ' हुलसी' माताका नाम होनेसे भाव  यह होता हैकि यह कथा  'मुझ तुलसीदासका हृदयसे हित करनेवाली 'हुलसी' माताके समान है।' अर्थात् जैसे माताके हृदयमें हर समय
बालकके हितका विचार बना रहता है वैसे ही यह कथा सदैव मेरा हित करती है। तुलसीदास अपने
हितके लिये रामकथाको माता हुलसीके समान कहकर जनाते हैं कि पुत्र कुपूत भी हो तो भी माताका
स्नेह उसपर सदा एकरस बना रहता है। 'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।' और 'हुलसी' माताने
हित किया भी। पिताने तो त्याग ही दिया । जैसा कि मूल गुसाईंचरित में कहा भी गया है - 
'हम का करिबे अस बालक लै । 
जेहि पालै जो तासु करै सोइ छै ॥
जनने सुत मोर अभागो महीं ।
सो जिये वा मरै मोहिं सोच नहीं ॥ 
माताने सोचा कि यह मूलमें पैदा हुआ है और माता-पिताका घातक है - यह समझकर इसका पिता इसको कहीं फेंकवा न दे, अतएव उसने बालक को दासीको सौंपकर उसको घर भेज दिया और बालकके कल्याणके लिये देवताओंसे प्रार्थना की। यथा - 
'अबहीं सिसु लै गवनहु हरिपुर ।
नहिं तो ध्रुव जानहु मोरे मुये।
सिसु फेकि पवारहिंगे भकुये ॥
सखि जानि न पावै कोई बतियाँ।
चलि जायहु मग रतियाँ - रतियाँ ॥
तेहि गोद दियो सिसु ढारस ।
निज भूषन दै दियो ताहि पठै ॥
चुपचाप चली सो गई सिसु लै ।
हुलसी उर सूनु बियोग फबै ॥
गोहराइ रमेस महेस बिधी ।
बिनती करि राखबि मोर निधी ॥ ५ ॥ मूल गुसाईंचरित के  इस उद्धरणमें माताके हृदय भाव झलक रहे हैं । यहां  यह तो स्पष्ट ही है कि  'जैसे हुलसीने अपने उरसे उत्पन्नकर स्थूलरूपका पालन किया वैसे ही रामायण अर्थात्  यह राम कथा अपने उरसे उत्पन्न करके आत्मरूपका पालन करेगी और सभी मानस प्रेमियों का कल्याण ही करेगी।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।