मानस चर्चा" राम नाम के प्रसाद का फल"
नाम प्रसाद संभु अबिनासी । साजु अमंगल मंगलरासी ॥ १ ॥
सुक सनकादि सिद्ध * मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥ २ ॥
अर्थात् - नामके प्रसादसे शिवजी अविनाशी हैं और शरीरमें अमंगल सामग्रियाँ होनेपर भी मंगलकी राशि हैं ॥श्रीशुकदेवजी, श्रीसनकादिजी, सिद्ध, मुनि और योगीलोग नामहीके प्रसादसे ब्रह्मसुखके भोग करनेवाले हैं ॥
संभु - 'विष पीनेसे भी न मरे, इसलिये 'अबिनासी' होना सत्य हुआ । यद्यपि चिताकी भस्म, साँपका आभूषण, नरमुण्डके माल इत्यादि अशुभ वेष किये हैं, तथापि नामके बलसे महादेव मंगलकी राशि कहलाते हैं, शंकर- शिव इत्यादि नामसे पुकारे जाते हैं और बात-बातपर सेवकोंपर प्रसन्न हो अलभ्य वरदान देते हैं; जिनके पुत्र गणेशजी मंगलमूर्ति कहलाते हैं, वे वस्तुतः मंगलराशि हैं।
'नाम-हीकी कृपासे शिवजी अविनाशी हैं।' और यही ठीक है जैसा कि 'कालकूट फल दीन्ह अमी को '
से स्पष्ट है।श्रीरामनामके ही प्रतापसे अविनाशी भी हुए, इसके प्रमाण शिव पुराण में ये हैं-
' यन्नाम सततं ध्यात्वाऽविनाशित्वं परं मुने ।
प्राप्तं नाम्नैव सत्यं तु सगोप्यं कथितं मया ॥' रामनामप्रभावेण ह्यविनाशिपदं प्रिये ।
प्राप्तं मया विशेषेण सर्वेषां दुर्लभं परम् ॥'
'साजु अमंगल मंगलरासी' । श्रीरामनामकी ही कृपा और प्रभावसे अमंगल वेषमें भी मंगलराशि हैं, इसका प्रमाण पद्मपुराणमें है। कथा इस प्रकार है - श्रीपार्वतीजी पूछ रही हैं कि - 'जब कपाल, भस्म, चर्म, अस्थि आदिका धारण करना श्रुतिबाह्य है तब आप इन्हें क्यों धारण करते हैं।'
यथा—
'कपालभस्मचर्मास्थिधारणं श्रुतिगर्हितम् ।
तत्त्वया धार्यते देव गर्हितं केन हेतुना ॥ '
श्रीशिवजीने उत्तर देते हुए कहा है कि एक समयकी बात है कि नमुचि आदि दैत्य सर्वपापरहित भगवद्भक्तियुक्त
वेदोक्त आचरण करनेवाले होकर, इन्द्रादि देवताओंके लोक छीनकर राज्य करने लगे। तब इन्द्रादि भगवान्की
शरण गये पर भगवान्ने उनको भगवद्भक्त और सदाचारी होनेके कारण मारना उचित न समझा । भक्त
होकर भी भगवान्के बाँधे हुए लोक-मर्यादा और नियम भंग कर रहे हैं, अतः उनका नाश करना आवश्यक
है; इसलिये उनकी बुद्धिमें भेद डालकर सदाचारसे मन हटानेकी युक्ति सोचकर वे (भगवान्) हमारे पास
आये और हमें यह आज्ञा दी कि आप दैत्योंकी बुद्धिमें भेद डालकर उस सदाचारसे उनको भ्रष्ट करनेके
लिये स्वयं पाखण्डधर्मोका आचरण करें । यथा -
' त्वं हि रुद्र महाबाहो मोहनार्थे सुरद्विषाम् ।
पाखण्डाचरणं धर्मं कुरुष्व सुरसत्तम् ॥ पाखण्डाचरणधर्मका लक्षण पार्वतीजीसे उन्होंने पूर्व ही बताया है। वह इस प्रकार है-
'कपालभस्मास्थिधरा ये ह्यवैदिकलिंगिनः ।
ऋते वनस्थाश्रमाच्च जटावल्कलधारिणः ॥
अवैदिक- क्रियोपेतास्ते वै पाखण्डिनस्तथा ।
'आपका परत्व सब जानते ही हैं। इसलिये आपके आचरण देखकर वे सब दैत्य उसीका अनुकरण करने लगेंगे और हमसे विमुख हो जायँगे और जब-जब हम अवतार लिया करेंगे तब-तब उनको दिखानेके लिये हम भी आपकी पूजा किया करेंगे जिससे उनका
इन आचरणों में विश्वास हो जायगा और उसीमें लग जानेसे वे नष्ट हो जायँगे।' यह सुनकर हमारा
मन उद्विग्न हो गया और मैंने उनको दण्डवत् कर प्रार्थना की कि मैं आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ, पर मुझे
बड़ा दुःख यह है कि इन आचरणोंसे मेरा भी नाश हो जायगा और यदि नहीं करता हूँ तो आज्ञा उल्लंघन
होती है, यह भी बड़ा दुःख है। मेरी दीनता देख भगवान्ने दया करके मुझे अपना सहस्रनाम और षडक्षर तारक- मन्त्र देकर कहा कि मेरा ध्यान करते हुए मेरे इस मन्त्रका जप करनेसे तुम्हारा सर्व पाखण्डाचरणका पाप नष्ट हो जायगा और तुम्हारा मंगल होगा । यथा पद्म पुराण में है-
' दत्तवान्कृपया मह्यमात्मनामसहस्त्रकम् ॥
हृदये मां समाधाय जपमन्त्रं ममाव्ययम्॥
षडक्षरं महामन्त्रं तारकब्रह्मसंज्ञितम् ॥
इमं मन्त्रं जपन्नित्यममलस्त्वं भविष्यसि । भस्मास्थिधरणाद्यत्तु सम्भूतं किल्बिषं त्वयि ॥
मंगलं तदभूत्सर्वं मन्मन्त्रोच्चारणाच्छुभात्।'
अतएव देवताओंके हितार्थ भगवान्की
आज्ञासे मैंने यह अमंगल साज धारण किया।
"साजु अमंगल " इति । कपाल, भस्म, चर्म, मुण्डमाला आदि सब 'अमंगल साज' है। शास्त्रसदाचारके
प्रतिकूल और अवैदिक है, इसीसे कल्याणका नाश करनेवाला है जैसा कि उपर्युक्त कथासे स्पष्ट है। पर
श्रीरामनाम - महामन्त्र के प्रभावसे, उसके निरन्तर जपसे, वे मंगल कल्याणकी राशि हैं। अन्यत्र भी कहा है-
'अशिव वेष शिवधाम कृपाला ।' मिलान कीजिये - ' श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहरपिशाचाः सहचराश्चिताभस्मालेपः
स्त्रगपि नृकरोटीपरिकरः । अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि ॥ २४ ॥
(महिम्नस्तोत्र) अर्थात् हे कामारि ! श्मशान तो आपका क्रीडास्थल है, पिशाच आपके संगी-साथी हैं,
चिताभस्म आप रमाये रहते हैं, मुण्डमालधारी हैं, इस प्रकार वेषादि तो अमंगल ही हैं फिर भी जो आपका
स्मरण करते हैं उनके लिये आप मंगलरूप ही हैं।
'सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । श्रीशुकदेवजी भी श्रीरामनामके प्रसादहीसे ऐसे हुए कि परीक्षित् महाराजकी सभामें व्यासादि जितने भी महर्षि बैठे थे सबने उठकर उनका सम्मान किया । शुकसंहितामें उन्होंने स्वयं कहा है कि श्रीरामनामसे परे कोई अन्य पदार्थ श्रुतिसिद्धान्तमें नहीं है और हमने भी कहीं कुछ और न देखा है न सुना । श्रीशंकरजीके मुखारविन्दसे श्रीरामनामका प्रभाव
शुकशरीरमें सुनकर हम साक्षात् ईश्वरस्वरूप समस्त मुनीश्वरोंसे पूज्य हुए। यथा - ' यन्नामवैभवं श्रुत्वा
शंकराच्छुकजन्मना । साक्षादीश्वरतां प्राप्तः पूजितोऽहं मुनीश्वरैः ॥ नातः परतरं वस्तु श्रुतिसिद्धान्तगोचरम् । दृष्टं
श्रुतं मया क्वापि सत्यं सत्यं वचो मम ॥'
अमर कथा
श्रीशुकदेवजीके श्रीरामनामपरत्व सुनकर अमर होनेकी कथा इस प्रकार है- एक समय श्रीपार्वतीजीने
श्रीशिवजीसे पूछा कि आप जिससे अमर हैं वह तत्त्व कृपा करके मुझे उपदेश कीजिये। यह सोचकर
कि यह तत्त्व परम गोप्य है, भगवान् शंकरने डमरू बजाकर पहले समस्त जीवोंको वहाँसे भगा दिया।
तब वह गुह्य तत्त्व कथन करने लगे। दैवयोगसे एक शुकपक्षीका अण्डा वहाँ रह गया जो कथाके समय
ही फूटा। वह शुकपोत अमरकथा सुनता रहा । बीचमें श्रीपार्वतीजीको झपकी आ गयी तब वह शुकपोत
उनके बदले हुँकारी देता रहा। पार्वतीजी जब जगीं तो उन्होंने प्रार्थना की कि नाथ! मुझे झपकी आ गयी
थी, अमुक स्थानसे फिरसे सुनानेकी कृपा कीजिये। उन्होंने पूछ कि हुँकारी कौन भरता था ? और यह
जानने पर कि वे हुँकारी नहीं भरती थीं, उन्होंने जो देखा तो एक शुक देख पड़ा। तुरन्त उन्होंने उसपर
त्रिशूल चलाया पर वह अमर कथाके प्रभावसे अमर हो गया था। त्रिशूलको देख वह उड़ता - उड़ता भगवान्
व्यासजीके यहाँ आया और व्यासपत्नी - ( जो उस समय जँभाई ले रही थीं ) के मुखद्वारा उनके उदरमें
प्रवेश कर गया। वही श्रीशुकदेवजी हुए। ये जन्मसे ही परमहंस और मायारहित रहे । इनकी कथाएँ
श्रीमद्भागवत, महाभारत आदिमें विलक्षण - विलक्षण हैं। (श्रीरूपकलाजीकृत भक्तमाल- टीकासे)
सु० द्विवेदीजी लिखते हैं कि 'शुक नाम माहात्म्यरूप भागवतके ही कारण महानुभाव हुए, पिता व्यास,
पितामह पराशरसे भी परीक्षित्की सभामें आदरको पाया।'
'ब्रह्मसुख भोगी' कहकर जनाया कि वे ब्रह्मरूप ही हो गये । यथा - 'योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे।'
श्रीसनकादि भी नामप्रसादसे ही जीवन्मुक्त और ब्रह्मसुखमें लीन रहते हैं, यह इससे भी सिद्ध
होता है कि ये श्रीरामस्तवराजस्तोत्रके ऋषि (प्रकाशक) हैं। उस स्तवराजमें श्रीरामनामको ही 'परं जाप्यम्'
बताया गया है। यथा - ' श्रीरामेति परं जाप्यं तारकं ब्रह्मसंज्ञकम् ।'
'ब्रह्मानंद सदा लयलीना ।
देखत बालक बहुकालीना ॥ , 'जीवनमुक्त ब्रह्मपर।'
यह बात लिखी है कि ज्ञानियोंको यही ठीक है कि प्रत्येक क्षणमें परमेश्वरका नाम लेवें और कुछ नहीं । यथा – 'योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्त्तनम्।' 'योगिनाम्' का अर्थ श्रीधरस्वामीने यह लिखा है- 'योगिनां ज्ञानिनां फलं चैतदेव निर्णीतं नात्र प्रमाणं वक्तव्यमित्यर्थः ।' अर्थात् यह
फल योगियों अर्थात् ज्ञानियोंका निर्णय किया हुआ है।
श्रीमद्भागवतके अन्तमें भी यह लिखा है कि परमेश्वरका नाम सारे पापको नाश करनेवाला है। यथा-
'नाम संकीर्त्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥' इसी कारण गोसाईंजीने लिखा कि शुक-सनकादि भी नामके प्रभावसे सुखका अनुभव करते हैं। (मानसपत्रिका)
नोट - ६ श्रीशुकदेवजीको श्रीसनकादिके पहले यहाँ भी लिखा है। इसका कारण मिश्रजी यह लिखते
हैं कि 'शुकदेवजी अनर्थप्रद युवावस्थाके अधीन न हुए। सनकादिकोंने परमेश्वरसे वरदान माँगा कि हम
बालक ही बने रहें जिससे कामके वशीभूत न हों। इस कारण इनके नामका उल्लेख ग्रन्थकारने पीछे
किया।...' शुकदेवजी परमेश्वरके रूप ही कहे जाते हैं, यथा-' योगीन्द्राय नमस्तस्मै शुकाय ब्रह्मरूपिणे ।
संसारसर्पदष्टं यो विष्णुरातममूमुचत् ॥'
अर्थात् श्रीशुकदेवजी युवावस्थामें रहते
हुए सदा भगवान् के आश्रित रहे, तब 'सीम कि चाँपि सकै कोउ तासू । बड़ रखवार रमापति जासू ॥'
।। जय श्री राम जय हनुमान।।