।।भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
एक बार मेरे आदर्श कथाकार गीताप्रेस गोरखपुरमें कथा
कहनेके लिये गये थे। संयोगवश एक दिन उनके पीठमें दर्द हो गया । उपचार करनेवाले डाक्टरने कहा- गर्म पानीकी थैलीसे सेंक करा लें। उन्होंने गर्म पानीकी रबरकी थैलीसे रात भर सेंक किया । दूसरे दिन डाक्टर महोदयने पूछा- दर्द कैसा है ? उन्होंने कहा- भैया ! दर्द तो समाप्त हो ही गया,दर्दके साथ उनका भ्रम भी समाप्त हो गया। आपने
तो उनके जीवनकी समस्या ही सुलझा दी - उनकी बहुत बड़ी शङ्काका समाधान हो गया। डाक्टर महोदयने आश्चर्यविस्फारित नेत्रों से उन्हें देखते हुए पूछा - कैसा भ्रम ? कैसी समस्या ? उन्होंने कहा- उनको भ्रम था कि जब रामनाम जपमें मन नहीं लगता है तब उन्हें क्या लाभ
होगा ? श्रीकबीरदासजीने इस दोहे के माध्यम से उनके भ्रमको पक्का कर दिया था कि
माला फेरत जुग भया मिटा न मनका फेर ।
करका मनका डार के मनका मनका फेर ॥
परन्तु आज समस्याका समाधान हो गया । उनके सारे भ्रम निर्मूल हो गये । आज वे यह सोच रहे है कि - जब ऊपरसे गर्म पानीकी थैलीके सेंकसे भीतरका दर्द नष्ट हो गया तब ऊपरसे बिना मन लगे भी किया हुआ श्रीरामनाम जप क्या अन्तःकरणके कालुष्यको, मनके पापको नहीं नष्ट कर देगा ? अतएव मन लगे या न लगे, ऊपरसे हो या भीतरसे, ढोंगसे हो या सद्भावसे श्रीरामनामका जप अवश्य करना चाहिये । श्रीरामनामके जपसे कल्याण सुनिश्चित है।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
श्रीरामनामका महत्व निरूपण करके भक्तकवि अपने आराध्य करुणामय श्रीरामचन्द्रजीके स्वभावका वर्णन करते हैं । संसारके स्वामी अपने सेवकोंके वचन और कर्मको देखते हैं; परन्तु श्रीरामजी तो अपने भक्तोंके मनको देखते हैं। वाणी और कर्म से विगड़ जाय तो भी विशेष हानि नहीं है।
बचन बेष तें जो बनै सो बिगरइ परिनाम |
तुलसी मन तें जो बनै बनी बनाई राम ॥
भाव यह है कि हृदय अच्छा न हो तो मात्र वचनसे ही सर्वज्ञ श्रीरामजी नहीं रीझते ।
मूर्खो वदति विष्णाय बुधो वदति विष्णवे ।
नमः इत्येवमर्थञ्च द्वयोरेव समं फलम् ॥
अर्थात् मूर्ख-व्याकरण ज्ञानरहित व्यक्ति 'विष्णाय
नमः' कहता है, जो व्याकरणकी दृष्टिसे अशुद्ध है। वस्तुतः 'विष्णवे नमः' कहना चाहिये । विद्वान् यही कहकर प्रणाम करता है; परन्तु श्रीठाकुरजी यह देखते हैं कि 'नमः' का उच्चारण भावपूर्वक कौन कर रहा है। कृपालु प्रभुके ध्यानमें दासकी की हुई त्रुटिकी बात तो आती ही नहीं है। वे तो भक्तके हृदयके एकबार भी आये हुये सुन्दर भावको सौ-सौ बार स्मरण करते हैं ।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी ।
रीझत राम जानि जन जी की ॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
मनकी बात तो श्रीठाकुरजी ही जानते हैं । संसार तो ऊपरकी बात - वचन और कर्मकी बात अर्थात् केवल व्यवहार जानता है; परन्तु विडम्बना यह है - श्रीरामजी मनको देखते हैं उन्हें हम मन नहीं देते हैं, व्यवहार देते हैं और संसार व्यवहार देखता है मनकी बात नहीं समझता, उसे हम मन देते हैं। इस प्रसङ्गमें निम्नाङ्कित दोहे मनन करने योग्य हैं-
रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि ।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि ॥
सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति ।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति ॥
बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन ।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन ॥
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु ।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ॥
इस प्रकार यह स्वयं सिद्ध है कि
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
जय श्री राम जय हनुमान