सोमवार, 27 मई 2024

✓।।शिव धनुष किसने तोड़ा।।

।।शिव धनुष किसने तोड़ा।।
महि पाताल नाक जसु ब्यापा ।
राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥
'राम बरी सिय भंजेउ चापा' का दो प्रकारसे अर्थ किया जाता है। श्रीअयोध्यावाले अर्थ करते हैं— 'राम बरी सिय, भंजेउ चापा' अर्थात् श्रीरामने धनुषको तोड़कर श्रीसीताजीका वरण किया ।उनसे विवाह किया।यह तो पूरा संसार ही जानता है।लेकिन मिथिला वाले ऐसा नहीं मानते है,मिथिलापक्षवाले कहते हैं-
'राम बरी, सिय भंजेउ चापा' अर्थात् श्रीरामजीने विवाह तो किया; परन्तु धनुषको श्रीसीताजीने तोड़ा। इस भावकी पुष्टिमें वे इस प्रसिद्ध पद झूम झूम कर गाते हैं ।
परि परि पाय जाय गिरिजा निहोरी नित्य
शंकर मनाये पूजे गणपति भावसे।
दीने दान विविध विधान जप कीने बहु
नेम व्रत लीने सिय सहित उछावसे ॥
रसिक बिहारी मिथलेशकी दुलारी दृढ़
प्रीति उर धारी अवधेश सुत चावसे ।
जनक किशोरी के प्रताप ते पिनाक टूटो
टूटो है न जानौ रामबलके प्रभावसे ॥
अब आपको स्वयं ही सत्य पहचानना है
।जय श्री राम जय हनुमान।।

।।भक्तों को भगवान शंकर का उपदेश।।

।।भक्तों को भगवान शंकर का उपदेश।।
एक बार भगवान् शङ्कर कैलास पर्वतपरवटवृक्षके नीचे पधारे। वृक्षको देखकर उन्हें बहुत सुख मिला। अपनेहाथ
से बाघम्बर बिछाकर सहज भावसे विराजमान हो गये ।
निज कर डासि नागरिपु छाला ।
बैठे सहजहिं। संभु कृपाला ॥
 श्रीशङ्करजी अपने चरित्रसे भगवत्तत्त्वके वक्ताको एवं हम सब को उपदेश दे रहे हैं - कि हम अपने शरीरकीसेवा करानेकी अपेक्षा न करे 'स्वयं दासास्तपस्विनः ' हम
तपस्वीको अपना कार्य स्वयं करना चाहिये अतः उन्होंने स्वयं अपने हाथसे आसन बिछाया । उपदेशकको अपने चरित्रसे धर्म मार्गका उपदेश करना चाहिये
'धर्ममार्ग चरित्रेण' ।
पूजापाठमें, साधन नियममें और सन्ध्योपासनादि
नित्यकर्ममें आसनका विशेष महत्त्व है। कुशासनपर
बैठकर साधन करनेसे आयुकी वृद्धि होती है मोक्षकामीको व्याघ्रासनपर, समस्त सिद्धिके लिये
कृष्ण मृगचर्म और कम्बलासनका प्रयोग उचित है । सूती आसनसे दारिद्र्य, बिना आसनके भूमिपर बैठनेसे शोक और पाषाणपर बैठनेसे रोग होता है । काष्ठासनपर बैठकर पूजा आदि करनेसे समस्त परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । यह बात अगस्त्यसंहिता में कही गई है।
कुशासने भवेदायुः मोक्षः स्याद् व्याघ्रचर्मणि ।
अजिने सर्वसिद्धिः स्यात् कम्बले सिद्धिरुत्तमा ॥
वस्त्रासनेषु दारिद्र्यं धरण्यां शोक सम्भवः ।
शिलायाञ्च भवेद् व्याधिः काष्ठे व्यर्थ परिश्रमः ॥
आसन अपना होना चाहिये । अन्यत्र जाय तो अपना आसन लेकर जाना चाहिये। माला, ग्रन्थ और आसन यह सब अकारण जल्दी नहीं बदलना चाहिये। कुछ लोग तो गुरु ही बदल देते हैं। खैर इस तलाकके जमानेमें कोई आश्चर्य नहीं है । बाकी आप सब समझदार है।आगे प्रभु इच्छा।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓।।भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।।

।।भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
एक बार मेरे आदर्श कथाकार गीताप्रेस गोरखपुरमें कथा
कहनेके लिये गये थे। संयोगवश एक दिन उनके पीठमें दर्द हो गया । उपचार करनेवाले डाक्टरने कहा- गर्म पानीकी थैलीसे सेंक करा लें। उन्होंने गर्म पानीकी रबरकी थैलीसे रात भर सेंक किया । दूसरे दिन डाक्टर महोदयने पूछा- दर्द कैसा है ? उन्होंने कहा- भैया ! दर्द तो समाप्त हो ही गया,दर्दके साथ उनका भ्रम भी समाप्त हो गया। आपने
तो उनके जीवनकी समस्या ही सुलझा दी - उनकी बहुत बड़ी शङ्काका समाधान हो गया। डाक्टर महोदयने आश्चर्यविस्फारित नेत्रों से उन्हें देखते हुए पूछा - कैसा भ्रम ? कैसी समस्या ? उन्होंने कहा- उनको भ्रम था कि जब रामनाम जपमें मन नहीं लगता है तब उन्हें क्या लाभ
होगा ? श्रीकबीरदासजीने  इस दोहे के माध्यम से उनके भ्रमको पक्का कर दिया था कि 
माला फेरत जुग भया मिटा न मनका फेर ।
करका मनका डार के मनका मनका फेर ॥
परन्तु आज समस्याका समाधान हो गया । उनके सारे भ्रम निर्मूल हो गये । आज वे  यह सोच रहे है कि - जब ऊपरसे गर्म पानीकी थैलीके सेंकसे भीतरका दर्द नष्ट हो गया तब ऊपरसे बिना मन लगे भी किया हुआ श्रीरामनाम जप क्या अन्तःकरणके कालुष्यको, मनके पापको नहीं नष्ट कर देगा ? अतएव मन लगे या न लगे, ऊपरसे हो या भीतरसे, ढोंगसे हो या सद्भावसे श्रीरामनामका जप अवश्य करना चाहिये । श्रीरामनामके जपसे कल्याण सुनिश्चित है।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
श्रीरामनामका महत्व निरूपण करके भक्तकवि अपने आराध्य करुणामय श्रीरामचन्द्रजीके स्वभावका वर्णन करते हैं । संसारके स्वामी अपने सेवकोंके वचन और कर्मको देखते हैं; परन्तु श्रीरामजी तो अपने भक्तोंके मनको देखते हैं। वाणी और कर्म से विगड़ जाय तो भी विशेष हानि नहीं है। 
बचन बेष तें जो बनै सो बिगरइ परिनाम |
तुलसी मन तें जो बनै बनी बनाई राम ॥
भाव यह है कि हृदय अच्छा न हो तो मात्र वचनसे ही सर्वज्ञ श्रीरामजी नहीं रीझते ।
मूर्खो वदति विष्णाय बुधो वदति विष्णवे ।
नमः इत्येवमर्थञ्च द्वयोरेव समं फलम् ॥
अर्थात् मूर्ख-व्याकरण ज्ञानरहित व्यक्ति 'विष्णाय
नमः' कहता है, जो व्याकरणकी दृष्टिसे अशुद्ध है। वस्तुतः 'विष्णवे नमः' कहना चाहिये । विद्वान् यही कहकर प्रणाम करता है; परन्तु श्रीठाकुरजी यह देखते हैं कि 'नमः' का उच्चारण भावपूर्वक कौन कर रहा है। कृपालु प्रभुके ध्यानमें दासकी की हुई त्रुटिकी बात तो आती ही नहीं है। वे तो भक्तके हृदयके एकबार भी आये हुये सुन्दर भावको सौ-सौ बार स्मरण करते हैं ।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी ।
रीझत राम जानि जन जी की ॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
मनकी बात तो श्रीठाकुरजी ही जानते हैं । संसार तो ऊपरकी बात - वचन और कर्मकी बात अर्थात् केवल व्यवहार जानता है; परन्तु विडम्बना यह है - श्रीरामजी मनको देखते हैं उन्हें हम मन नहीं देते हैं, व्यवहार देते हैं और संसार व्यवहार देखता है मनकी बात नहीं समझता, उसे हम मन देते हैं। इस प्रसङ्गमें निम्नाङ्कित दोहे मनन करने योग्य हैं-
रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि ।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि ॥
सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति ।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति ॥
बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन ।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन ॥
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु ।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ॥
इस प्रकार यह स्वयं सिद्ध है कि 
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
जय श्री राम जय हनुमान

।।महाबीर बिनवउँ हनुमाना।।।

।।महाबीर बिनवउँ हनुमाना।।।
महाबीर बिनवउँ हनुमाना।
राम जासु जस आप बखाना।।
महावीर — और लोग केवल वीरताके कारण महावीर हो सकते हैं; परन्तु श्रीहनुमान्जी तो गुण और नाम दोनोंसे महावीर हैं। इनकी अभिधा 'महावीर' है। 'महावीर' शब्दसे इन्हींका बोध होता है। वीरताको अनेक प्रकारसे समझाया जा सकता है - 
(क) शारीरिक वीरतामें ये अकेले ही लङ्काके समस्त राक्षसोंका संहार करनेमें समर्थ हैं। ये अद्वितीय योद्धा हैं तीनों लोकमें।
कौन की हाँक पर चौंक चण्डीस बिधि,
चंड कर थकित फिरि तुरग हाँके ।
कौन के तेज बलसीम भट भीम से
भीमता निरखि कर नयन ढाँके ॥
दास - तुलसीस के बिरुद बरनत बिदुष,
बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके ।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन,
कहाँ हनुमान से बीर बांके।।
(ख) वीरेन्द्र मुकुटमणि श्रीरामचन्द्रजीको जिन्होंने अपने वशमें कर लिया है। उनसे महान् वीर कौन हो सकता है ?
अपने बस करि राखे रामू ।
(ग) 'वीर' शब्दका अर्थ है विशेषेण "ईरयति प्रेरयतीति वीरः" दर्शनार्थी भक्तोंको प्रेरित करके श्रीरामचरणोंमें पहुँचा देते हैं । श्रीविभीषण इसके प्रमाण हैं ।
तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥
(घ) करुणामय श्रीरामजीको आर्त भक्तोंके ऊपर करुणा करनेके लिये प्रेरित करते हैं। भक्तोंकी करुण गाथा सुनाकर भक्तवत्सल श्रीरामजीके राजीव नयनोंमें प्रेमाश्रुओंका अवतरण करा देते हैं ।
सुनि सीता दुख प्रभु सुखअयना ।
भरि आए जल राजिव नयना ॥
बस यही तो श्रीहनुमान्जीका कार्य है।
महान्‌को - श्रीराम भगवान्‌को भक्तोंके ऊपर करुणा
करनेके लिये विशेष प्रेरणा देते हैं। इसीलिये उनका नाम 'महावीर' है । भक्तकवि गोस्वामीजी श्रीविनयपत्रिकाजीमें बड़े भावपूर्ण शब्दोंमें लिखते हैं-
'साहेब कहूँ न राम से तोसे न उसीले' अर्थात् हे हनुमान्जी ! श्रीरामजीके तरह कोई करुणामय स्वामी नहीं है और उनकी कृपा - करुणा प्राप्त करनेके लिये आपकी भाँति 'उसीला' अर्थात् माध्यम नहीं है। श्रीहनुमान्जी हमें भी इस कथा माध्यम से श्रीसीतारामजीका कृपापात्र बना दें। इसी आशा के साथ जय श्री राम जय हनुमान।।

✓राम की उदारता

राम की उदारता 
मानस चर्चा मानस के प्रधान विषय पर वह है रघुपति के नाम की उदारता जैसा कि गोस्वामीजी ने घोषित किया है।
एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
उदारकी परिभाषा 'भगवद्गुणदर्पण' नामक ग्रन्थमें इस प्रकार है- जो सुपात्र, कुपात्र, देश, कालका ध्यान न देकर आवश्यकतासे अधिक स्वार्थरहित होकर देता है उसे 'उदार' कहते हैं ।
पात्रापात्रविवेकेन देशकालाद्युपेक्षणात् ।
वदान्यत्वं विदुर्वेदा औदार्यवचसापरे ॥
ब्राह्मणसे चाण्डालपर्यन्त और यवन आदि समस्त विधर्मियोंको समानभावसे पालन करनेके कारण किंवा मुक्ति प्रदान करनेके कारण श्रीरामनाममहाराज उदार हैं। वाराहपुराणमें में एक बहुत ही सुंदर कथा  श्रीशङ्करजीने कहा है- हे देवि ! एक यवन बैलका व्यापार करते हुए किसी वनमें ठहरा था। वह अत्यन्त वृद्ध था, सङ्ग्रहणी रोगसे पीड़ित था । रात्रिमें शौचके लिए गया । दैवयोगसे — प्रारब्धसे एक शूकरके बच्चेने उसे धक्का दे दिया। वह उसी समय गिरकर मर गया । धक्का लगने के कारण
गिरते समय उसके मुखसे 'हरामने मार डाला ' 'हरामने मार डाला' ये शब्द निकले। इस 'हराम' के ब्याजसे 'राम' कहनेके कारण वह गोपदके समान भवसागरसे तर गया। भाव यह कि यदि कोई स्नेहपूर्वक रामनामका जप करे तो
उसका तो कहना ही क्या है ?
दैवाच्छूकरशावकेन निहतो म्लेच्छो जराजर्जरो
हारामेण हतोऽस्मि भूमि पतितो जल्पंस्तनुं त्यक्तवान् ।
तीर्णो गोष्पदवद्भवार्णवमहो नाम्नः प्रभावादहो
किं चित्रं यदि रामनाम रसिकास्ते यान्ति रामास्पदम् ॥
( वाराहपुराण)

रविवार, 26 मई 2024

।।मानस चर्चा सिंहिका का बध।।

।।मानस चर्चा सिंहिका का बध।।
सुरसा देवी थीं । उनके आशीर्वाद देकर जानेपर अब एक
राक्षसी मिली जो समुद्रमें रहती थी। 
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ।
करि माया नभु के खग गहई।।
यह मायावी है।गोस्वामीजी ने इसका नाम नहीं बतायाl
इसका नाम सिंहिका था, यह हिरण्यकशिपुकी पुत्री, विप्रचित्ति नामक दैत्यकी पत्नी और राहुकी माता थी । संसार का यह नियम है कि किसीकी छाया किसीके द्वारा पकड़ी नहीं जा सकती
 'तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी। '
परन्तु यह राक्षसी छाया पकड़कर नभचर जीवोंको खा जाती थी इसके मायाकी यह बहुत बड़ी विशेषता थी ।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं ।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
वही छल सिंहिकाने हनुमान्जीसे किया— हनुमान्जीकी छाया पकड़ ली। गतिके अवरुद्ध होनेपर श्रीहनुमानजीको वानरेन्द्र सुग्रीवजीकी बात याद आ गयी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह वही राक्षसी है।
कपिराज्ञा यथाख्यातं सत्त्वमद्भुतदर्शनम्।
छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशयः ॥
श्रीहनुमान्जी विशालकाय होकर सिंहिका के फैले हुए विकराल मुखमें शरीरको संक्षिप्त करके आ गिरे और अपने तीक्ष्ण नखोंसे उसका हृदय विदीर्ण कर दिया, वह मर गयी ।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः ।
गोस्वामीजी ने लिखा---
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा ।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा ।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
आकाश में विचरण करनेवाले प्राणी प्रसन्न हो गये और उन्होंने कहा - हे वानरेन्द्र ! जिस व्यक्तिमें आपकी तरह धृति, दृष्टि, सूझबूझ वाली बुद्धि और दक्षता ये चार गुण होते हैं वह कभी किसी कार्यमें असफल नहीं होता है।
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव ।
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति ॥
यह श्लोक जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सफलताके लिये हमें स्मरण रखना चाहिये । यही श्रीहनुमान्जीकी
समुद्रयात्राकी फलश्रुति भी है ।
जय श्री राम जय हनुमान।

✓मानस चर्चा राम काज किन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।