मंगलवार, 14 जनवरी 2025

✓मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग इकतालीस।।संकट।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी और संकट।।
संकट से हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥ यह नहीं कहा संकट से हनुमान बचावें, बचाने और छुड़ाने में बहुत बड़ा अन्तर है। बचाने में तो व्यक्ति दूर
से बचा सकता है। जैसे कोई पुलिस केस हो जाए, कोई पकड़ लेता है आप किसी बड़े व्यक्ति के पास जाते हैं।
और बताते हैं कि ऐसा- ऐसा हो गया तो वह कहता है कि ठीक है हम कह देंगे, फोन कर देंगे। अब आवश्यक
तो नहीं कि फोन मिल ही जाए यह भी आवश्यक नहीं कि फोन पर रिस्पोन्स पूरा दे ही दिया जाए? टाल-मटोल
भी हो सकती है। तो बचाया दूर से जा सकता है लेकिन छुड़ाया  अर्थात पास जाकर छुड़ाना माने किसी के हाथ में से छीन लाना। जब भी भक्त पर संकट आता है, दूर से नहीं हनुमानजी बिल्कुल पास जाकर छुड़ाते हैं।इस संदर्भ में हम  एक बहुत ही सुन्दर कथा का रसपान करते है।
एक सुपंथ नाम के  राजा थे , धर्मात्मा थे - एक बार अयोध्या में कोई संत सम्मेलन होने जा रहा था तो वह भी संत सम्मेलन में संतों का दर्शन करने जा रहे थे। रास्ते में नारदजी मिल गए। प्रणाम किया, बोले कहाँ जा रहे हैं ?  राजा ने कहा संत सम्मेलन में संतों का दर्शन करने जा रहा हूँ। नारद बोले जाकर सभी संतों को प्रणाम करना। लेकिन  वहाँ झूठे ब्रह्मर्षि विश्वामित्र होंगे वह क्षत्रिय हैं। क्षत्रियों को प्रणाम मत करना, वह साधु वेश में कपटी हैं। ऐसा नारदजी ने भड़काया। हनुमानजी की महिमा और भगवान् के नाम का प्रभाव भी शायद नारदजी प्रकट करना चाहते होंगे।  राजा बोले जैसी आपकी आज्ञा गए सभी को प्रणाम किया, विश्वामित्रजी को नहीं किया तो क्षत्रिय जाति का यह अहंकारी स्वभाव होता है। अब तो विश्वामित्रजी  गुस्से में बोले इसकी यह हिम्मत, भरी सभा में मुझे प्रणाम नहीं किया। वैसे भूल हो जाए तो कोई बात नहीं। जान-बूझकर न किया जाए तो एक्शन दिखाई दे जाता है। विश्वामित्रजी को क्रोध आ गया और दौड़कर भगवान् के पास पहुंच गए कि राघव आपके राज्य  में इतना बड़ा अन्याय, गुरुओं और संतों का इतना बड़ा अपमान? भगवान बोले गुरुदेव क्या हुआ , उस राजा ने मुझे प्रणाम नहीं किया। उसको दण्ड मिलना ही चाहिए। भगवान् ने कहा ऐसी बात है तो कल मृत्युदण्ड घोषित हो गया। और सुपंथ को पता लगा कि मृत्युदण्ड घोषित हो गया और वह भी राम ने प्रतिज्ञा की है कि मैं गुरुदेव के चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि कल सूर्यास्त तक उसके प्राणों का अंत हो जाएगा। इधर लक्ष्मणजी ने बड़े
रोष में प्रभु को देखा, पूछा प्रभु क्या बात है। भगवान बोले आज एक अपराध हो रहा है। कैसे? बोले कैवल्य
देश के राजा सुपंथ ने गुरुदेव का अपमान किया है और मैंने प्रतिज्ञा की है कि कल उसका वध करूंगा।
लक्ष्मणजी ने कहा महाराज, कल आपका कभी नहीं आता। आपने सुग्रीव को भी बोला था कल इसका
वध करूँगा। लगता है और कुछ दाल में काला होने वाला है। बोले नहीं, यह मेरी प्रतिज्ञा है। अब सुपथं रोने
लगा तो नारदजी प्रकट हो गए, बोले क्या हुआ। बोले, भगवान् ने हमारे वध की प्रतिज्ञा की है । अच्छा-अच्छा
भगवान् के हाथ से वध होगा यह तो बड़ा भाग्य है, मौत तो अवश्यमभावी होती है। मृत्यु को तो टाला नहीं जा
सकता। बोले कमाल है। आप ही ने तो भड़काया था, आप ही अब यह कह रहे हैं। नारदजी ने कहा, एक रास्ता
मैं तुमको बता सकता हूँ। भगवान् के बीच में तो मैं नहीं आऊँगा। क्या रास्ता है, बोले तुम अंजनी माँ के पास
जाकर रोओ। केवल माँ हनुमानजी के द्वारा तुम्हारी रक्षा करा सकती है। इतना बड़ा संकट है और दूसरा कोई
बचा नहीं पाएगा। सुपथं अंजनी माँ के घर पर पछाड़ खाकर हा-हा करके रोए। माँ तो माँ हैं, बोली क्या बात
है? बेटे क्यों रो रहे हो? माँ रक्षा करो, माँ रक्षा! किसकी रक्षा करनी है? बोले मेरी रक्षा करो, बोली मैं प्रतिज्ञा
करती हूँ कि तुझे कोई नहीं मार सकता। मैं तेरी रक्षा करूंगी। बता तो सही, फिर पूरी घटना बताई, लेकिन
माँ तो प्रतिज्ञा कर चुकी थी। बोली, अच्छा कोई बात नहीं तुम अन्दर विश्राम करो।  माताजी ने हनुमानजी बुलाया,  हनुमानजी आए माँ को प्रणाम किया, माँ को थोड़ा चिन्तातुर देखा तो पूछा माँ, क्या बात है। बोली, मैं एक प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ शरण आगत की रक्षा की और तुमको उसकी रक्षा करनी है। हनुमानजी ने कहा माँ, कैसी बात करती हो। आपका आदेश हो गया तो रक्षा उसकी अपने आप हो जाएगी। बोली पहले प्रतिज्ञा करो, बोले भगवान श्रीराम के चरणों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि जो आपकी शरण में आया है, उसकी रक्षा होगी। माँ ने उस राजा को बुला लिया, बोली यह हैं। पूछा कौन मारने वाला है बोले भगवानराम ने प्रतिज्ञा की है ।तब हनुमानजी ने कहा यार तूने तो मुझे ही संकट में फँसा दिया। दुनिया तो गाती थी संकट से हनुमान छुड़ाएं। आज तूने हनुमान् को ही संकट में डाल दिया। खैर, मैं माँ से प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। देखो जैसा मैं करूँ, करू  तुम घबराना नहीं। भगवान् ने धनुष-बाण उठाए और चले मारने के लिए, हनुमानजी दूसरे रास्ते से जाने लगे तो भगवान् ने पूछा हनुमान् कहाँ जा रहे हो। तो हनुमानजी ने कहा प्रभु आप कहाँ जा रहो हो। बोले मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने जा रहा हूँ। हनुमानजी ने कहा मैं भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने जा रहा हूँ। भगवान ने कहा तुम्हारी क्या प्रतिज्ञा है, हनुमानजी ने कहा पहले आप बताइए आपने क्या प्रतिज्ञा की है । उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा बताई । हनुमानजी ने कहा मैं उसी की रक्षा करने के लिए जा रहा हूँ। भगवान् ने कहा मैंने अपने गुरुदेव के चरणों की सौगन्ध खाई है कि मैं उसका वध करूँगा। हनुमानजी ने कहा मैंने अपने भगवान के चरणों की सौगन्ध खाई है कि मैं उसकी रक्षा करूँगा। यह लीला लक्ष्मणजी देख रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, यह क्या लीला हो रही है? जैसे ही भगवान् का आगमन देखा तो राज तो यह रोने लगा।पर हनुमानजी ने कहा रोइए मत, मेरे पीछे खड़े हो जाइए। संकट के समय हनुमानजी आगे आते हैं। भगवान् ने अभिमंत्रित बाण छोड़ा। हनुमान जी दोनों हाथ उठाकर श्री राम जय राम जय जय राम बोलने लगे। श्रीहनुमानजी भगवान् के नाम का कीर्तन करें और बाण विफल होकर वापस लौट जाए। जब सारे बाण निष्फल हो गए तो भगवान् ने ब्रह्मास्त्र निकाला। जैसे ही छोड़ा हनुमानजी की छाती में लगा लेकिन परिणाम क्या हुआ? प्रभु श्री राम ही मूर्छित होकर गिर पड़े, बाण लगा हनुमान जी को, मूर्छा भगवान् को अब तो बड़ी घबराहट हो गई। हनुमानजी दौड़े, मेरे प्रभु मूर्छित हो गए। क्यों मूर्छित हो गए क्योंकि जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर । हनुमानजी के हृदय में भगवान् बैठे है  तो बाण तो भगवान् को ही  लगेगा, बाकी सब घबरा गए। क्या हो गया? हनुमानजी ने प्रभु के  चरणों में प्रणाम किया और सुपंथ को  अपनी गोद में रखकर ले आए। श्रीहनुमानजी ने सुपंथ को भगवान् के चरणों में बिठा दिया। प्रभु तो मूर्छित हैं। हनुमानजी बहुत रो-रोकर कीर्तन कर रहे थे कि प्रभु की मूर्छा दूर हो जाए भगवान् की मूर्छा धीरे-धीरे दूर होती चली गयी और प्यार में, स्नेह में चूंकि भगवान् को अनुभव हो गया था कि बाण मेरे हनुमान् के हृदय में लगा तो उसे चोट लगी होगी तो भगवान् इस पीड़ा के कारण मूर्छित हो गए। जब यह कीर्तन करने लगे तो भगवान् हनुमान जी के सिर पर।हाथ फिराने लगे तो धीरे से हनुमान जी सरक गए पीछे और भगवान् का हाथ सुपंथ के सिर पर आ गया और दोनो हाथों से भगवान् सुपंथ का सिर सहलाने लगे। नेत्र खोले तो देखा सुपंथ भगवान् के चरणों में था । मुस्कुरा दिए भगवान। हनुमान् तुम जिसको बचाना चाहोगे, उसको कौन मार सकता है। संकट ते हनुमान छुड़ावें ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग चालीस।।मनोरथ।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग चालीस।।मनोरथ।।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोई अमित जीवन फल पावै ॥
और मनोरथ माने केवल भगवान् का दर्शन नहीं बंगला, कोठी, कार जो कुछ भी आपको प्राप्त करना हो
आठ सिद्धि और नौ निधियाँ। भक्त लोग सिद्धियों से बहुत दूर रहते हैं। इसलिए हमारा इससे ज्यादा मतलब नहीं। क्योंकि भक्त तो शुद्ध होने का प्रयत्न करते हैं, सिद्ध होने का नहीं। यदि जादूगरी करनी हो तो सिद्धि प्राप्त करो। परमात्मा को प्राप्त करना हो तो शुद्धि प्राप्त करो।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र कपट न भावा ॥
अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व यें आठ प्रकार की सिद्धियाँ और
पद्म, महापद्म, शंख, मकर कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील, और खर्ब ये नौ प्रकार की निधियाँ हैं जिनसे अपने
को कोई लेना-देना नहीं-
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ॥
रसायन औषधि को सिद्ध करता है और यह औषधि बहुत-बहुत कठिन रोगों का नाश कर देती है। राम-नाम
का जो यह सिद्ध रसायन है वह हर रोग को दूर करता है। श्रीहनुमानचालीसा ही वह एक रसायन है।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुःख
हनुमानजी का भजन करो भगवान् प्राप्त होते हैं।
बिसरावै ॥ अंतकाल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥ सभी सुखों को सब देवता प्रदान नहीं कर सकते। श्रीहनुमानजी सभी सुखों को प्रदान करनेवाले हैं। संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥
विपरीत परिस्थितियों में जब सारा संसार हमारा विरोधी हो जाये, अपने पराये हो जायें, प्रगति का मार्ग।अवरुद्ध हो जाये, और चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखायी दे उस समय में भी श्रीहुनमानजी हमको सहारा
देते हैं। हमारे बिगड़े हुए कामों को बनाते हैं इसलिए हमें मार्ग की कठिनाईयों को देखकर रुक नही जाना है।
जीवन में चाहे कितनी ही कष्ट कठिनाईयाँ आ गई हो, सिर पर संकटों के बादल घिर आये हो हनुमानजी की
कृपा से और उनके सुमिरण से वे पल भर में दूर हो जायेगें। उन पर भरोसा रखें और धैर्य धारण करें-
दुनियाँ रचने वाले को भगवान् कहते हैं।
संकट हरने वाले को हनुमान् कहते हैं।
हो जाते हैं जिसके अपने पराये, हनुमान उनको कंठ लगायें।
जब रूठ जाये संसार सारा, बजरंगबली तब देते सहारा ॥
अपने भक्तों का बजरंगी मान करते हैं।
संकट हरनेवाले को हनुमान् कहते हैं ॥ १ ॥
दुनियाँ में काम कोई ऐसा नही है,
बजरंग बली हनुमान के जो वश में नही हैं।
जो चीज मांगो वो पल में मिलेगी,
झोली ये खाली खुशियों से भरेगी ।।
सच्चे मन से जो भी इनका ध्यान करते हैं।
संकट हरनेवाले को हनुमान् कहते हैं ॥ २ ॥
और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्ब सुख करई ।
संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥
इनके हृदय में हरदम भगवान् रहते हैं।
संकट हरनेवाले को हनुमान् कहते हैं ॥३॥
हनुमानजी से बड़ा कौन गुरु हो सकता है। गुरु के रूप में श्रीहनुमानजी के चरणों का वन्दन करें।
गोस्वामीजी ने आगे लिखा है-
जो सत बार पाठ कर कोई । छूटहि बन्दि महा सुख होई॥
सत बार का लोग कई अर्थ लगाते हैं। कोई सौ बार लगाता है, कोई सात बार लगाता है लेकिन इसको संख्या में बांधना ठीक नहीं। मेरा मन कहता है न सात बार, न सौ बार, सत बार माने, सतत् बार, माने हर।दिन। कभी खण्डित न हो, हनुमान चालीसा सातत्य के साथ एक दिन भी नागा नहीं। सतत् पाठ करें- जो यह पढ़े हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
कभी भी पढ़ें, कैसे भी पढ़ें, कहीं भी पढ़ें, बालक पढ़ें, बूढ़े पढ़ें, बिटिया पढ़ें, बेटे पढ़ें, स्त्री पढ़ें, पुरुष पढ़ें, शुद्ध पढ़ें, अशुद्ध पढ़ें, सिद्धि प्राप्ति होगी ही क्योंकि भगवान् शिव इसके साक्षी हैं- होय सिद्धि साखी गौरीसा॥।
गोस्वामीजी कहते हैं कि जो श्रीहनुमानचालिसा का पाठ करेंगे वे भगवान् के प्रिय होंगे। भगवान् उनके
हृदय में वास करेंगे ऐसे-
पवनतनय संकट हरन । मंगल मूरति रूप ॥
राम लखन सीता सहित। हृदय बसहु सुर भूप ॥
 हनुमानजी हमारे सब प्रकार के संकटों को मुक्त
करें और रामरसायन प्रदान कर हमको भगवान् के चरणों में लेकर चलें। ऐसी विनम्र विनती श्रीहनुमानजी से
करते हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग उन्चालीस।त्रिताप।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग उन्चालीस।त्रिताप।।
 त्रिताप बहुत बड़ा संकट है। दैविक, दैहिक, भौतिक तापा ये संकट हैं और इनसे मुक्ति का साधन क्या है? भगवान् का सुमिरन-राम राज बैठें त्रैलोका । हरषित भये गये सब सोका ।। रामराज कोई शासन की व्यवस्था का नाम नहीं है, रामराज मानव के स्वभाव की अवस्था का नाम है।समाज की दिव्य अवस्था का नाम है। आज कहते हैं कि हम रामराज लाएंगे तो फिर राम कहाँ से लाएंगे? नहीं-नहीं व्यवस्था नहीं वह अवस्था जिसको रामराज कहते हैं। रामराज्य की अवस्था क्या है-सब नर करहिं परस्पर प्रीती । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥ यह रामराज्य की अवस्था है। व्यवस्था कैसी भी हो अगर, व्यक्तियों की और समाज की यह अवस्था।रहेगी तो शासन में कोई भी बैठो राज्य राम का ही माना जाएगा। राम मर्यादा है, धर्म है, सत्य है, शील है, सेवा है, समर्पण है। राम किसी व्यक्तित्व का नाम नहीं है, राम वृत्ति का नाम है, स्वरूप का नाम राम नहीं है, स्वभाव का नाम राम है। इस स्वभाव के जो भी होंगे सब राम ही कहलाएंगे। वेद की, धर्म की मर्यादा का
पालन हो, स्वधर्म का पालन हो, स्वधर्म का अर्थ हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, इसाई धर्म, बौद्ध धर्म का पालन
नहीं है। स्वधर्म का अर्थ है जिस-जिस का जो-जो धर्म है, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म, सेवक का धर्म, राजा का धर्म, प्रजा का धर्म, पति का धर्म, पत्नी का धर्म, शिक्षक का धर्म, शिष्य का धर्म। माने अपने-अपने कर्त्तव्य का पालन, जैसे सड़क पर अपनी-अपनी लाईन में यदि वाहन चलेंगे तो किसी प्रकार की टकराहट नहीं होगी, संघर्ष नहीं होगा और जब आप लाईन तोड़ देंगे जैसे मर्यादा की रेखा जानकीजी नेतोड़ दी थी। आखिर कितने संकट में फँस गयीं। कितना बड़ा युद्ध करना पड़ा जानकीजी को छुड़ाने के लिए।जरा सी मर्यादा का उल्लंघन जीवन को कितने बड़े संकट में फँसा सकता है जो रामराज्य में रहेगा हनुमानजी उसके पास संकट आने ही नहीं देंगे। क्योंकि रामराज्य के मुख्य पहरेदार तो श्रीहनुमानजी हैं। तीनों कालों का संकट हनुमानजी से दूर रहता है। संकट होता है शोक, मोह और भय से भूतकाल का भय ऐसा क्यों कर दिया, ऐसा कर देता तो मोह होता है। वर्तमान में जो कुछ सुख साधन आपके पास हैं यह बस बना रहे इसको पकड़कर बैठना यह मोह और भय होता है। भविष्यकाल में कोई छीन न ले कोई लूट न ले, भविष्य का भय । हनुमानजी सब कालों में विद्यमान हैं-
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ॥
हनुमानजी तो अमर हैं, चारों युगों में हैं और सम्पूर्ण संकट जहाँ छूट जाते हैं शोक, मोह, भय, वह है
भगवान् की कथा। कथा में हनुमानजी रहते हैं। अगर न छूटे तो हनुमानजी छुड़ा देंगे। बिल्कुल मानस के अंत
में पार्वतीजी ने प्रमाणित किया है-सुनि भुसुंडि के बचन सुहाये। हरषित खगपति पंख फुलाये ॥ तीनों तब अगर दूर चले जाते हैं, छोड़ देते हैं मनुष्य को तो वह श्रीराम की कृपा से मोह का नाश होता है सत्संग से-बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहि बिनु मोह न भाग । मोह गएँ बिनु राम पद, होय न दृढ़ अनुराग ।भगवत् कथा, सत्संग यह मोह का नाश करती है। संत-मिलन, संत दर्शन शोक को दूर करता है। तोहि देखि शीतल भई छाती, हनुमानजी मिले तो जानकीजी का हृदय शान्त हो गया, शीतल हो गया। मिले
आज मोहे राम पिरीते, श्रीभरतजी बोले श्रद्धा से भय का नाश होता है। आपके मन में किसी के प्रति श्रद्धा
है तो आप उससे भयभीत नहीं होंगे। श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई । बिनु महि गन्ध कि पावउ कोई ॥ श्रद्धा माने भवानी, भगवतीजी की पूजा माने श्रद्धा की पूजा है। श्रद्धा कहते हैं शुभ की भूख को, शुभ और बढ़े और बढ़े, जो कुछ पूजा-पाठ कर रहा हूँ वह और बढ़े, जो कुछ दान कर रहा हूँ वह और बढ़े, जो सेवा कर रहा हूँ और करूँ, यह जो शुभ की भूख है इसी का नाम भवानी है, इसी का नाम श्रद्धा है। जीवन में जितनी श्रद्धा बढ़ेगी उतना ही भय का नाश होगा।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग अड़तीस।।शनि।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग अड़तीस।।शनि।
शनि को हमारे यहाँ संकट कहते हैं। एक बार हनुमानजी पहाड़ की तलहटी में बैठे थे। शनि आ गया हनुमानजी के सिर पर, हनुमानजी ने सिर खुजाया लगता है कोई कीड़ा आ गया। हनुमानजी ने पूछा तू है कौन?।बोले, मैं शनि हूँ, मैं संकट हूँ। मेरे पास क्यों आया है? बोले मैं अब आपके सिर पर निवास करूँगा। अरे भले।आदमी, मैंने ही तुझे संकट से छुड़ाया था, मेरे ही सिर पर आ गया। बोले हाँ क्यों छुड़ाया था आपने, इसका।फल तो आपको भोगना पड़ेगा। अच्छा कितने दिन रहना है? शनि बोला साढ़े सात साल और अगर अच्छी।खातिर हो गयी तो ढाई साल और हनुमानजी ने कहा भले आदमी किसी और के पास जा । मैं मजदूर आदमी।सुबह से शाम तक सेवा में रहता हूँ, मुश्किल पड़ जाएगी, तू भी दुःख भोगेगा मुझे भी परेशान करेगा। शनि बोला नहीं मैं तो नहीं जाऊँगा। हनुमान जी बोले नहीं मानेगा? चलतो कोई बात नहीं। हनुमानजी ने एक पत्थर।उठाया और अपने सिर पर रखा। पत्थर शनि के ऊपर आ गया। शनि बोला यह क्या करता है? बोले माँ ने।कहा था कि चटनी के लिए एक बटना ले आना वह ले जा रहा हूँ। तो हनुमानजी ने जैसे ही पत्थर को उठाकर।मचका दिया तो शनि चीं बोलने लगा। दूसरी बार किया तो बोले क्या करता है? बोले चिन्ता मत कर। शनि बोले छोड़-छोड़। हनुमानजी बोले नहीं अभी तो साढ़े सात मिनट भी नहीं हुए तुझे तो साढ़े सात साल रहना।है। जब दो-तीन मचके दिए तो शनि ने कहा भैय्या मेरे ऊपर कृपा करो बोले ऐसी कृपा नहीं करूँगा। बोले वरदान देकर जा, शनि का ही दिन था। हनुमानजी ने कहा कि तू मेरे भक्तों को सताना बंद कर। तब शनि ने कहा कि हनुमानजी जो भी शनिवार को आपका स्मरण करेगा आपके चालीसा का पाठ करेगा मैं उसके यहाँ।नहीं, उसके पड़ौसी के यहाँ भी कभी नहीं जाऊंगा। संकट उसका दूर हो जाएगा। फिर शनि ने कहा कि एक कृपा आप कर दीजिए। क्या है? बोले आपने इतनी ज्यादा मेरी हड्डियां चरमरा दी हैं, बोला थोड़ी तेल मालिश।हो जाए तो बड़ी कृपा हो जाए। हनुमानजी ने कहा कि ठीक है मैं अपने भक्तों को कहता हूँ कि शनिवार के दिन जो शनि को तेल लगाएगा उसके संकट मैं दूर करूँगा । तबसे यह चौपाई आई-संकट ते हनुमान छुड़ावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग सैंतीस।।रोग।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग सैंतीस।।रोग।।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ॥
रोग किसे कहते हैं? रोग कहते हैं मानसिक बीमारियों को मानस रोग कछुक मैं गाई शारीरिक बीमारियां
होती हैं, मानसिक रोग होते हैं और ये बहुत विचित्र होते हैं। शरीर में रोग बाद में आता है, मन में रोग पहले
आ जाता है। मन के रोग भगवान् हनुमानजी की उपासना से ही दूर होते हैं। मन के रोग- काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मद, मत्सर हैं। ये सभी रोग हनुमानजी की कृपा से दूर होते हैं। जब भी जीव कामासक्त होता है तो अन्धा
हो जाता है। नारदजी जैसे को भी इसने पागल कर दिया। लोभ जब मनुष्य के जीवन में आता है तो व्यक्ति
कितना गिर सकता है और क्रोध जब आता है तो इष्ट का भी अनिष्ट करता है। ईर्ष्या, मद, लोभ, मोह के
कारण सारे संसार में आज अशान्ति है, इसका कारण और कुछ नहीं, यह मानसिक रोग ही है। वह तो औषधि
प्रयोग के द्वारा ठीक नहीं होते हैं। वैसे भी हनुमानजी वेदों के ज्ञाता हैं और वेद में आयुर्वेद भी है। आयुर्वेद
का जितना ज्ञान हनुमानजी को है उतना किसी को नही है, क्योंकि संजीवनी बूटी को कोई पहचानने वाला ही
नहीं था। हनुमानजी ही पहचानते थे लेकिन चूंकि रावण को मालूम चल गया था इसलिए रावण ने पूरे पहाड़
के शिखर पर आग लगवा दी थी तो पहचानना कठिन हो रहा था। हनुमानजी पूरे पहाड़ को ही उखाड़ लाए।
अन्यथा आयुर्वेद की समस्त जानकारी हनुमानजी को है। इसलिए मैं निवेदन करता हूँ यदि मानसिक रोगों से
मुक्ति चाहते है तो हनुमानजी की शरण में आओ, केवल हनुमानचालीसा का पाठ करो
जो यह पढ़े हनुमान चालिसा होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
हनुमानजी का सतत् ध्यान, निरन्तर ध्यान करें। हनुमानजी का सतत् ध्यान माने ज्ञान की उपासना, प्रकाश
की उपासना, हनुमानजी का ध्यान माने हर समय भगवत नाम का सुमिरन, भगवान् की, धर्म की, सेवा यह
सतत सुमिरण है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग छत्तीस।।भूत-पिशाच।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग छत्तीस।।भूत-पिशाच।।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै ॥
भूत पिशाच के पास आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जब भगवान् ने पद देने का प्रयत्न किया था तब
हनुमानजी ने कहा महाराज पद के साथ भूत जुड़ा है और भूत हमारे साथ आ नहीं सकता। भूत-पिशाच अंधेरे
में रहना पसंद करते हैं और अंधकार, अज्ञान का प्रतीक होता है और अंधकार और अज्ञान वहाँ होता है जहाँ
भगवत चर्चा नहीं होती, जहाँ भगवान की कथा नहीं होती, जिस घर में भगवत चर्चा न हो, जिस घर में शाम
को देवताओं के नाम का दीपक न जलता हो, जिस घर में कीर्तन न होता हो। प्रभु की मंगलमय आरती न
गायी जाती हो उस घर में भूत-पिशाचों का वास हो जाता है। चूंकि भूत अंधेरे व अज्ञान में रहना पसंद करते
हैं। श्रीहनुमानजी तो वहाँ रहते थे।
यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकान्जलिम् ॥
जहाँ जहाँ कीर्तन होता श्रीराम का।
लगता है पहरा वहाँ वीर हनुमान का ।।
रामजी के चरणों में इनका ठिकाना।
छम छम नाचे देखो वीर हनुमाना ॥
आपने कई घरों के बारे में सुना होगा कि यह भूत बंगला है, यह भूत घर है। क्यों, वर्षों हो गए बंद
पड़ा है। दीपक नहीं जलता, तुलसीजी नहीं है, प्रभु का कीर्तन नहीं होता, आरती नहीं होती है, प्रभु के नाम
का गुणगान नहीं हुआ, कोई चित्रपट नही है, तो भूत ही तो रहेगा। ज्ञान के प्रकाश में जहाँ हनुमानजी आ जाएं
तो वहाँ भूत-पिशाच नहीं आ सकते हैं। पिशाच का दूसरा अर्थ है कि जो हमने भूतकाल में बुरे कर्म किए हैं,
वह पिशाच बनकर हमारे पीछे लग जाते हैं। बुरे कर्मों की जो ग्लानि है। किए गए बुरे कर्म जो भीतर हमारी
यादों में समाए रहते हैं वह हमारे पीछे पिशाच बनकर चलते हैं वह शान्ति नहीं लेने देते। वह हमको चैन से
नहीं रहने देते। वह हमको छुपे छुपे रहने को मजबूर करते हैं। हनुमानजी यदि हमारे साथ हों तो बुरे काम
कौन कर पाएगा और अगर उन पिशाचों को हनुमानजी का नाम सुना दो तो हनुमानजी उनको हमारे पास नहीं
आने देते। दूसरा भूत-पिशाच तो भगवान् शिव के गण हैं। और इनको तो राम नाम बहुत प्रिय है। इसलिए जो
भी इनको राम-नाम सुनाता है शिव उनके पास भूत-पिशाचों को आने ही नहीं देते। भूत कौन है? हम लोग
नवरात्रि में पूजा किसकी करते हैं-
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥
भूत तो भगवान् शिव पार्वतीजी का वैभव है लेकिन थोड़ा भयानक है। शिव-पार्वती उनको हमारे पास
आने नहीं देते। दूसरे सुख और समृद्धि की जो आसक्ति है, सुख की जो आसक्ति है। यही भूत-प्रेत है और
कोई भूत-प्रेत नहीं है। पिशाच कौन है? गोस्वामीजी ने परिभाषा दी है-
कहहिं सुनहिं अस अधम नर। ग्रसे जे मोह पिसाच ॥
यह मोह पिशाच हैं, यह मेरा मेरा, इसके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। यह जो मोह का बन्धन है।
यह पिशाच है अपने को हम भूत हैं या पिशाच हैं, कौन बोले-
पाखण्डी हरि पद विमुख। जानहिं झूठ न साँच ॥
यह भूत पिशाच, पाखण्डी, हरिपद विमुख, जो झूठ और सच का विवेक नहीं जानता, जो कामासक्त
हैं वे भूत-पिशाच हैं। गोस्वामीजी ने लिखा है-
देव दनुज किन्नर नर व्याला । प्रेत भूत पिशाच भूत बेताला ॥
यह सब काम आ सकता है। जैसे प्रकाश के सामने अंधेरा टिक नहीं सकता ऐसे हनुमानजी के सामने
ज्ञान के सामने, प्रकाश के सामने यें भूत-प्रेत आ नहीं सकते। ऐसे  है हमारे श्रीहनुमानजी।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग पैंतीस।।तेज।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग पैंतीस।।तेज।।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ।।
इतना प्रबल तेज है श्रीहनुमानजी का इसको केवल श्रीहनुमानजी ही संभाल सकते हैं। क्योंकि यह शंकरजी
के अवतार हैं, शंकर सुवन, और शंकरजी प्रलय के देवता हैं जिसमें प्रलय करने तक की शक्ति और सामर्थ्य
हो, उसको कोई और सम्भाल सकता है क्या? लक्ष्मणजी की मूर्छा के समय यही तो बोले थे जो हो अब
अनुशासन पावो, भगवान् अगर आपकी आज्ञा हो तो
जो हों अब अनुशासन पावो तो चन्द्रमा निचोड़ चेल।
जो लाइ सुधा सिर लावों, जो हो अब अनुशासन पाऊँ।।
कैं पाताल, दलो विहयावल अमृत कुंड मैं हिलाऊँ ।
भेदि, भवनकर भानु वायु तुरन्त राहु ते ताऊ
यह तेज, यह प्रबल प्रताप यह श्रीहनुमानजी हैं। आप कल्पना करें, कितनी इनकी गर्जना भारी होगी,
एक बार भीम को कुछ अभिमान हो गया और कोई पुष्प द्रोपदी ने मंगाया था तो इन्होंने कहा मैं लाऊंगा कोई
कमल या विशेष फूल, हिमालय में होता था और उस सीमा के भीतर देवताओं का वास है। मनुष्य नहीं जा
सकता। लेकिन भीम ने अहंकार में कह दिया कि मैं लाऊँगा । बद्रीनाथ के पास हनुमानचट्टी में बूढ़े वानर
के रूप में हनुमानजी लेटे थे। भीम तो अपने अभिमान में जा रहे थे। भीम ने कहा, ऐ वानर एक तरफ हट
जा, मुझे आगे जाने दो। बूढ़े वानर के वेश में हनुमानजी ने कहा बूढ़ा हो गया हूँ, अब हिम्मत नहीं है। तुम
मुझे थोड़ा सा सरका दो तो भीम ने कहा कि लाँघ कर जा नहीं सकता, बीच में तुम पड़े हो। भीम ने पूँछ
को सरकाने की कोशिश की, मगर हनुमानजी की पूँछ जिसे रावण नहीं हिला पाया बाकी की तो बात छोड़ो।
बहुत पसीना-पसीना भीम जब हो गए तो कहा कि कहीं आप मेरे बढ़े भाई हनुमान तो नहीं हैं तब हनुमानजी
ने अपना एक छोटा रूप प्रकट किया। भीम ने प्रणाम किया और कहा कि हम आपका वह रूप देखना चाहते
हैं जिस रूप में आपने लंका जलाई थी-
विकट रूप धरि लंक जरावा ॥
हनुमानजी ने कहा वह रूप तुम सहन नहीं कर पाओगे, देख नहीं पाओगे, बोले हम क्या कोई सामान्य
व्यक्ति हैं, महावीर हैं। आप यदि महावीर तो हम महाभीम हैं। हनुमानजी ने वह रूप थोड़ा सा प्रकट किया। मूर्छित होकर भीम गिर पड़े। हनुमानजी ने मूर्छा दूर की और समझाया, तो उस तेज को सम्भालने की क्षमता केवल श्रीहनुमानजी में है। तब भीम ने कहा आप मेरे पर कृपा करें। तब हनुमानजी ने कहा जब तुम्हारा युद्ध होगा तब मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। हालांकि इस युग में सामान्य मनुष्य को मारना यह वीर को शोभा नहीं
देता है। तुम्हारी सेना में वीर हैं ही नहीं जिससे मैं युद्ध करूं फिर भी उस समय चलो, भीम को वापस कर
दिया कि आगे देवताओं की मर्यादा है। किसी की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यहाँ से भीम वापस
आए तो बहुत गुणगान करते आए -
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ सृवहिं सुनि निशिचर नारी ॥
श्रीहनुमानजी की गर्जना इतनी जबरदस्त कि राक्षसों के भी हाल बेहाल हो गए। गर्भवती राक्षसियों के
गर्भपात हो गए। हनुमानजी की हाँक सुनकर रावण भी घबरा जाता था। रावण के भी कपड़े ढीले हो जाते थे-
हाँक सुनत दशकन्द के भये बन्धन ढीले।।
रावण के वीरों को देखकर जब हनुमानजी गर्जना करते थे तो वीर सैनिक मूर्छित होकर गिर जाते थे,
भगदड़ मच जाती थी। हाँक सुनत रजनीचर भाजे, आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि
गर्जा, चलत महाधुनि गरजेसि भारी, केवल राम-रावण युद्ध में ही गर्जना नहीं, जिस समय महाभारत का
युद्ध हुआ तो भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, अर्जुन, हनुमानजी की प्रार्थना करो, बिना उनकी सहायता के
युद्ध नहीं जीत पाओगे। अर्जुन को थोड़ा गर्व था बोले नहीं महाराज, भगवान तो अपने भक्त को ही स्थापित
करना चाहते थे। अर्जुन भी भक्त थे लेकिन अर्जुन भक्त कम, सखा ज्यादा थे-
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
सखा भाव में कभी-कभी अर्जुन भगवान् के ऐश्वर्य को समझ नहीं पाते थे। उनको तो ऐसा लगता था
कि मेरे जैसा वीर कभी न हुआ है, न होता है, न होगा। भगवान् हनुमान् की वीरता को भी दिखाना चाहते थे
कि अगर तुम वीर हो तो एक महावीर भी है। एक बार हनुमान् सागर के किनारे बैठे थे, अर्जुन घूमते-घूमते
वहाँ आ गए तो परिचय हो गया। अच्छा-अच्छा आप हनुमान् हैं। अर्जुन ने कहा कि हमने सुना है कि आप
इतने बड़े वीर और बलवान हैं। आपके भगवान् वीर और बलवान परन्तु आप पुल नहीं बना पाये, पत्थर
ढो ढो कर वानरों को बनवाना पड़ा। अगर मैं होता तो अपने वाणों से ही सागर पर पुल बना देता। हनुमान जी
ने कहा कि बाणों से पुल बाँध जा सकता था, लेकिन सेना इतनी भारी थी कि उनके भार को बाणों का पुल
सहन नहीं कर पाता इसलिए हम लोगों को पत्थर लाकर पुल बनाना पड़ा। अरे ऐसा कैसे हो सकता है। मैं पुल
बनाकर देखता हूँ बोले क्यों परिश्रम करते हो तुम्हारा पुल मेरा ही भार सहन नहीं कर पाएगा। अरे कैसी बात
करते हैं आप, अर्जुन के बाण और निष्फल चले जाएं। जिद कर बैठे, शर्त तय हो गयी अगर मेरे बाण निर्मित
पुल से आप पार हो गए तो तुमको चिता में जलना पड़ेगा और मेरे बनाए पुल को यदि तुमने तोड़ दिया तो मैं
चिता में जल जाऊंगा। भगवान् को बड़ा अटपटा लगा, ऐसी भी कोई प्रतिज्ञा होती है? दोनों ही मेरे प्रिय हैं, और
चिता में जलने को तैयार हैं जरा सी बात पर अर्जुन ने बाणों से पुल बनाया, पट गया सारा सागर । बोले जाओ।हनुमानजी ने जय श्रीराम कहकर जैसे ही अपना दाहिना चरण रखा चरमरा गया। अब प्रतिज्ञाबद्ध अर्जुन को लगा,
मुझे जीवित रहने का अधिकार नहीं। चिता बनाकर प्रवेश करने वाले थे। ब्राह्मण वेश में श्रीकृष्ण प्रकट हो गए
क्या बात है किसकी चिता है। बोले, मैं प्रतिज्ञा हार चुका हूँ इसलिए मैं चिता में जीवित जलने जा रहा हूँ। कोई
तुम्हारी शर्त के बीच में साक्षी था? तो फिर ऐसे कैसे शर्त पूरी हो सकती है। कोई न कोई बीच में निर्णायक
चाहिए न, अब बनाओ हमारे सामने तब हम देखेंगे, दुबारा पुल बनाया गया, अब कहा जाओ, हनुमान जी गए।
हनुमान जी ने थोड़ा सा मचका दिया, देखा सागर का जल रक्त से लाल हो गया। हनुमान जी समझ गए मेरे
प्रभु नीचे आ गए। पुल भी नहीं टूटा, हनुमानजी भी आ गए। अर्जुन ने कहा, यह सागर का सारा जल कैसे लाल
हो गया? तब ब्राह्मण, श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हो गए। अर्जुन तुमको बचाना था। ये देखो मेरी पीठ पर हनुमान्
के भार के दाग हैं इस कारण इसका रंग लाल हो गया। इतने वीर थे हनुमानजी तब भगवान् ने कहा, अर्जुन
हनुमानजी से प्रार्थना करो। हनुमानजी ने कहा है कि मैं इस युद्ध में कमजोर लोगों को नहीं मार सकूंगा, क्योंकि
मेरे स्तर का आपके यहाँ कोई है ही नहीं। लेकिन हाँ मैं तुम्हारी सहायता करूंगा। भगवान् ने कहा था कि आप
इसके ध्वज की पताका पर बैठ जाइए इसलिए अर्जुन के रथ पर जो ध्वज लगी है, उसको कपिध्वज नाम दिया
गया है। तो हनुमानजी ने कहा कि मैं कभी-कभी अपनी गर्जना कर दिया करूंगा जिससे सामने वाले दुश्मन डर
से कमजोर हो जाएंगे। जब अर्जुन ध्वज से तीर छोड़ता था तो श्रीहनुमानजी गर्जना करते थे और हनुमानजी की
जो गर्जना होती थी, भीष्म जैसे महापुरुष के हाथ से भी शस्त्र गिर जाया करते थे। हाँक सुनत रजनीचर भागे
तीनो लोक हाँक तें कांपे, ऐसे हैं हमारे श्रीहनुमानजी।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग चौतीस।।मनोकामना।।

मानसचर्चा।।श्री हनुमानजी भाग चौतीस।।मनोकामना।।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥
हनुमानजी भगवान् के भवन के मुख्य द्वारपाल, एक तो शायद इसलिए भी द्वार पर हैं क्योंकि हनुमानजी
के बारे में एक चर्चा है कि इनका कोई प्रातः काल मुँह नहीं देखना चाहता, नाम के बारे में तो हनुमानजी भी
बोल चुके हैं कि-प्रातः लेई जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलहि अहारा ॥अनेक लोग जिन्होंने इस भय से कि यदि प्रातः काल इनका मुँह देख लेंगे तो हमको भोजन नहीं मिलेगा।भगवान् ने सोचा कि चल अपने से तो तुम इनका फोटो हटा दोगे कोई बात नहीं लेकिन जब मेरे द्वार पर मेरा दर्शन करने आओगे तो तब तुम्हें पहले हनुमानजी का दर्शन करना होगा, तभी मेरा दर्शन मिलेगा। इसलिए आपको रामजी के मन्दिर में प्रथम दर्शन हनुमान् का होता है। भगवान् का जो निजधाम है परम ब्रह्म भगवान राम जहाँ निवास करते हैं, साकेत में, श्रीहनुमानजी एक रूप में साकेत में हमेशा निवास करते हैं। जो भी कोई भक्त अपनी याचना लेकर हनुमानजी के पास आता है तो हनुमानजी ही प्रभु के पास जाकर प्रार्थना करते हैं कि प्रभु इस पर कृपा करें। साकेत में गोस्वामीजी ने भी भगवान् के दर्शन की प्रार्थना इसी प्रकार की विनयपत्रिका भी जब लिखी है उस पर हस्ताक्षर कराने भी हनुमानजी के पास आते हैं। सकाम भाव से जो भक्त आते हैं हनुमानजी हमेशा उनको द्वार पर बैठे मिलते हैं और हनुमानजी की इच्छा है कि यह छोटे-मोटे काम जो तुम लेकर आए हो मेरे प्रभु को अकारण कष्ट मत दो। प्रभु बहुत कोमल हैं, बहुत सरल हैं लाओ इनको मैं निपटाता हूँ इसलिए हनुमानजी हमेशा द्वार पर बैठे मिलते हैं और कोई प्रेम के वशीभूत, भाव के वशीभूत आता है तो हनुमानजी उसे भगवान् के भवन के द्वार में अन्दर प्रवेश करा देते हैं। दर्शन के लिए कोई आता है तो उसको प्रवेश करा देते हैं, मनोकामना लेकर आता है तो स्वयं हनुमानजी पूरी करा देते हैं क्योंकि माँ ने पहले ही आशीर्वाद दे दिया था-अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता। अस बर दीन्ह जानकी माता ।।माँ को भी मालूम था कि संसार में कितने लोग हैं जिनके कितने प्रकार के काम हैं। प्रतिदिन भीड़ लगेगी, भगवान् के दरबार पर कौन निपटाएगा, तो हनुमान् यह काम तुम पूरा करोगे। शायद इसलिए ही राम दुआरे तुम रखवारे का दूसरा भाव ऐसा ही लगता है, जैसे कथा से पहले कथा का मंगलाचरण होता है। ऐसे राम दर्शन से पहले मंगलमूरति मारुति नन्दन हनुमानजी का दर्शन आवश्यक है। घर के बाहर हम लोग
जब कोई विशेष दिन होता है तो मंगल कलश सजाकर रखते हैं। भगवानराम ने अपने घर के बाहर प्रतिदिन
मंगल कलश के रूप में हनुमानजी को विराजित किया है। भगवान् का भवन तो मंगल भवन अमंगलहारी
पर उनके द्वार पर भी तो मंगल कलश चाहिए। अपना जो मंगलमय परिवार का चिन्ह है यह मंगल कलश है।
न। इस कलश के रूप में श्रीहनुमानजी मंगल मूरति विराजमान हैं-मंगल मूरति मारुति नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन ।। पवन तनय संतन हितकारी हृदय विराजत अवध बिहारी ॥ मंगल मूरति मारुति नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन ।। जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥।मंगल मूरति मारुति नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन।।रामदूत अतुलित बलधामा । अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥।
मंगल मूरति मारुति नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन ॥।मातु पिता गुरु गणपति सारद । शिवा समेत शम्भु सुख दायक ॥।।मंगल मूरति मारुति नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन ॥।बंदऊँ राम लखन बैदेही । जे तुलसी के परम स्नेही ।।।मंगल मूरति मारुति नन्दन। सकल अमंगल मूल निकन्दन। हरे राम हरे राम, राम राम हरे।हरे कृष्ण हरे, कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।सब सुख लहैं तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डरना ।।।श्रीहनुमानजी की शरण में जो भी आ जाता है उसकी वह रक्षा करते हैं किसी भी प्रकार का उसको भय नहीं।रहता। जो हनुमानजी की शरण में एक बार आ गया उसकी क्या अवस्था हो जाती है गोस्वामीजी ने लिखा है-।सुर दुर्लभ सुखकरि जग माँही, अन्तकाल रघुपतिपुर जाई ।जो सुख देवताओं को भी दुर्लभ है उनका हनुमानजी की कृपा से साधारण सा मनुष्य भोग कर लेता है।।यह भोग, यह सुख सुग्रीव को भी मिला, विभीषण को मिला, वानरों को मिला। जो भी हनुमानजी की शरण में।आया उसे सुख मिलता है। ज्ञानेन्द्रियों से, अनुभूति कौन करता है। सुख का अनुभव करती हैं हमारी ज्ञानेन्द्रियां और।हनुमानजी ज्ञान, गुणसागर हैं। हनुमानजी ज्ञानिनामग्रगण्यम् (कान, नाक, त्वचा, आँख व जीभ) ज्ञानेन्द्रियां हैं। यही।रस का, सुख का अनुभव कराती हैं और इन इन्द्रियों का रस क्या है। इसका रस तो भगवतरस है और भगवतरस।कहाँ मिलता है? राम रसायन तुम्हरे पासा, जो भी भगवत् भजन का रस है, आनन्द का जो सागर है-।जो आनन्द सिन्धु सुख राशी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥
सो।सुख धाम राम अस नामा अखिल लोक दायक बिश्रामा।।।आनन्द के।सुख।के महासिन्धु भगवानराम तो राम रसायन तुम्हरे पासा, इनके पास क्यों हैं? क्योंकि
अपने वश करि राखे राम इसलिए सब सुख लहै, जो भी भगवत रस है वो हमारी ज्ञानेन्द्रियों को, हनुमान
जी की कृपा से प्राप्त होगा ही।तुम रच्छक काहू को डरना, इसका अर्थ है कि जिसके रक्षक श्रीहनुमानजी हो गए उसको किसी से भी डरने की आवश्यकता नहीं है। गीता में है अभयम कुरु, हनुमानजी का सेवक है अभयम् भय
रहित, भयमुक्त, देवी-देवता भी इससे डरने लगते हैं सब देवी-देवता सोचते हैं कि हनुमानजी का सेवक है।
इसको सताने से हमारी दुर्दशा हो जाएगी और इसके अनेकों प्रमाण हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तैतीस।।कवन सो काज कठिन।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तैतीस।।कवन सो काज कठिन।।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||
गोस्वामीजी कहते है जितने प्रकार के भी दुर्गम कार्य हैं, जो मनुष्य की क्षमता के बाहर हैं वे हनुमानजी की कृपा से सुगमता से हो जाते हैं। आजकल ज्योतिष के प्रति बहुत रुझान बढ़ा है। समाज में टीवी पर भी देखेंगे, कम से कम सात-आठ बार चैनलों पर ज्योतिषी आते हैं। अच्छी बात है, ज्योतिष विज्ञान है। किसी संत से पूछा कि महाराज आजकल हमारे सारे ग्रह खराब चल रहे हैं क्या करें? साधु संतों को तो भगवान् पर ही भरोसा होता है। नक्षत्र, ग्रह अपना प्रभाव डालते हैं। डालेंगे ही, यह कोई ज्योतिष की आलोचना नहीं। ज्योतिष विज्ञान है, विज्ञान तथ्यों पर हुआ करता है। विज्ञान भावना का विषय नहीं, विज्ञान तथ्यों का परिणाम होता है। ग्रह तथ्य रूप में अपना परिणाम देते ही हैं। उनके निराकरण के उपाय भी हैं। विद्वान लोग इस बात को जानते हैं, लोग कराते भी हैं। लेकिन कोई न कराना चाहे उसके लिए क्या करें? चूंकि ग्रह आदि शान्त कराने के लिए कुछ न कुछ अर्थ आदि भी खर्च करना पड़ता है। कोई गरीब व्यक्ति नहीं करना चाहता
है तो बड़ी मुश्किल, वैसे गरीबों पर कोई ग्रह-नक्षत्र प्रभाव नहीं डालते। ग्रह आए होते तो वह गरीब ही काहे
को होता। वह आखिर ग्रहों में कुछ न कुछ तो अच्छे होते ही होगें। हमने सुना है कि एक आदमी पर शनि
आ गया। शनि पहले साढ़े सात फिर ढाई वर्ष ऐसे दो साढ़े सती शनि की आ गई। व्यक्ति बड़ा परेशान, एक
ज्योतिषी के पास पहुँचा। बोला, मेरे पास शनि की साढ़े साती दो बार आ रही है। क्या करूं मैं बड़े संकट में
हूँ। महाराज ने कहा इसके उपाय हैं। शनि का अनुष्ठान करा लो क्या करना पड़ेगा बोले ऐसे-ऐसे जप आदि ।
इतने पण्डित बैठेंगे उनका भोजन, दान-दक्षिणा और काली गाय दान कर दो तो शनि का प्रकोप चला जाएगा।
व्यक्ति ने कहा महाराज काली बकरी भी मेरे सामर्थ्य में नहीं है, काली गाय की तो बात छोड़ो। तो ऐसा करो
काली गाय के स्थान पर काला कम्बल दान कर दो। व्यक्ति ने कहा काला कम्बल होता तो ठंड में ठिठुरते
बच्चे को न उढ़ा देते। बोला ऐसा करो साढ़े सात मीटर काला कपड़ा दान कर दो। अरे महाराज आप मेरी
हालत देख रहे हो कि नहीं, यह फटी बनियान पहने आपके सामने खड़ा हूँ। साढ़े सात मीटर कपड़ा दान कैसे
करूंगा मैं? इससे अच्छा अपने लिए कपड़े न बनवा लूं। अच्छा तो फिर ऐसा करो, साढ़े सात किलो काले तिल
दान कर दो। कैसी बात करते हो सात छटांक की भी सामर्थ्य नहीं है, कैसे दान कर दूं? बोला और कुछ मत
करो तो काला धागा दान कर दो। अरे घर में धागा भी तो नहीं है। उसकी भी तो सामर्थ्य नहीं है। ज्योतिषी ने
कहा तो फिर तान दुपट्टा, जाकर सो जा। अब शनि तेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। जब धागा भी तेरे पास
नहीं तो फिर वह तेरा क्या बिगाड़ेगा। शनि भी उन्हीं का बिगाड़ता है, जिनके पास कुछ होता है। महाराज ने
कहा ग्रहों की चिंता मत करो। अगर तुम्हारे नौ ग्रह भी उल्टे हो गए तो चिन्ता मत करो। हनुमानचालीसा का
पाठ करो इससे क्या फायदा होगा बोले-
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥
महात्माजी ने कहा अगर नौ ग्रह तुम्हारे विपरीत हो गए हैं तो हनुमानजी की कृपा से सब ठीक हो जाएंगे।
उन नौ ग्रहों के ऊपर एक विशिष्ट ग्रह हनुमानजी के हाथों में है। कौन से ग्रह, महाराज बोले, अनुग्रह और
यह अनुग्रह हनुमानजी के हाथ में रहता है। बाकी ग्रहों को ठीक रखने के लिए आपको बहुत कठिन परिश्रम
करना पड़ेगा लेकिन यह तो बहुत सुगमता से हो सकता है। बोले-जो यह पढ़े हनुमानचालीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ हनुमानचालीसा रूपी सिद्ध मंत्र का जो नित्य जप करेंगे, उनके ऊपर हनुमानजी के अनुग्रह की कृपा
बहुत सुगमता से होगी और इस अनुग्रह से बड़े से बड़े दुर्गम काज हो जायेंगे, जो कोई सोच नहीं सकता।
इसलिए हनुमानजी के बारे में जामवंत जी ने कह दिया था कि कवन सो काज कठिन जगमाहीं। जो नहिं होइ तात तुम पाहीं ॥ऐसा कौन सा काम है। तुमने तो बड़े-बड़े काम किए हैं-काज किये बड़ देवन्ह के तुम । बीर महाप्रभु देखि बिचारो।।
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसो नहिं जात है टारो ||बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥
को नहिं जानत है जगमें कपि संकट मोचन नाम तिहारो॥
चार सौ कोस के सागर को पार करने का साहस किसी में नहीं था। रावण को फटकारने की सामर्थ्य किसी में नहीं थी। अक्षय कुमार को मारना सामान्य बात नहीं थी। अक्षय को एक वरदान था, अंगद ने कहा था कि मैं जा तो सकता हूँ पर मुझे लौटकर आने में संशय है। बोले क्यों, बोले अक्षय और अंगद जी एक साथ पढ़ा करते थे। अंगदजी अक्षय को बहुत तंग करते थे। एक ऋषि ने अक्षय को वरदान दिया था कि अंगद जब तुम्हारे सामने आएगा तो इसकी सारी शक्ति तुम्हारे अन्दर आ जाएगी। अंगद, अक्षय के सामने कभी जाते नहीं थे वह इसीलिए लंका जाने में डर रहे थे कि यदि अक्षय से मेरी भेंट हो गयी तो मेरी शक्ति क्षीण हो जाएगी। और मैं लौट भी नहीं पाऊंगा। तो हनुमानजी ने पहले अक्षय का क्षय किया ताकि अंगदजी रावण को आकर फटकार सकें। जिस समय लक्ष्मणजी मूर्छित हो गए थे तो भगवान् का विलाप सुनकर सभी वानर विकल हो गए कि स्वामी की यह दुर्दशा है तो हमारी क्या होगी। उस समय जामवंत ने कहा था कि हनुमानजी-
कबन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥
हनुमानजी ने कहा क्या करूं, प्रभु बोलो, चन्द्रमा में से अमृत निचोड़ लाऊं, पाताल लोक में जाकर नागों
के बीच से अमृत का घड़ा उठा लाऊं या मौत को ही मार डालूं, भगवान् कुछ बोले नहीं। एक संत कहते हैं।
कि भगवान् थोड़ी यहाँ चूक कर गए अगर सिर हिला देते कि हाँ ठीक है मौत को ही मार दो तो मौत का
झंझट ही खत्म हो जाता। जामवंत ने कहा कि लंका के भीतर जाओ और वहाँ से सुषैन वैद्य को ले आओ।
दुश्मन का नगर, रात्रि का पहर और हनुमानजी से कहा जा रहा है कि वहाँ से सुषैन वैद्य को ले आइए। यह
दुर्गम नहीं, दुर्गमतम कार्य है, लेकिन हुआ क्या?
अति लघुरूप धरेऊ हनुमंता। आनेहु भवन समेत तुरन्ता ॥
श्रीहनुमानजी गए दुश्मन के नगर में, युद्ध का समय चल रहा है। वैद्य आएगा कि नहीं, उस वैद्य के
घर के बाहर हनुमानजी पहुँच गए कितना सुन्दर नाम है सुषैन। सतगुरु वैद्य और सतगुरु का आयन ही सुख
का आयन होता है। जितना सद्गुरू से दूर रहोगे दु:ख के साथ रहोगे। सुखेन को लेने के लिए सद्गुरु हनुमान्
स्वयं गए हैं और भवन समेत उठा लाए। हनुमानजी ने सोचा कि युद्ध चल रहा है दुश्मन का वैद्य है चतुराई
कर सकता है। अगर मैं वैद्य को पकड़कर ले गया तो बहाना बना सकता है कि पहले क्यों नहीं बताया कि
मैं औषधि नहीं लाया वह तो वहीं छूट गयी, नर्सिंग होम में, फिर लंका में जाना पड़ेगा, जासूस पकड़ सकते
हैं। मुश्किल हो सकती है इसलिए मकान सहित उठा लाये। संत केवल एक व्यक्ति को ही भगवान् से नहीं
जोड़ता बल्कि पूरे परिवार को भगवान् से जोड़ दिया। अगर साधु के सम्पर्क में परिवार का एक भी व्यक्ति आ
गया तो साधु पूरे परिवार को भगवान् से जोड़ देता है। यही संत का कार्य है, धौलागिरी पर्वत पर जाकर वहाँ
से औषधि लाना, बीच में कालनेमि के रुप में मार्ग की बाधा खड़ी है। फिर उससे संघर्ष करना उसको मारकर
जाना फिर संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाना यह कार्य और कोई नहीं कर सकता था, बाकी तो
दुनियां में बहुत देवता हैं-
दुनिया में देव हजारों हैं बजरंग बली का क्या कहना ।।
जो कार्य कोई सोच न सके, जितने भी जगत् में दुर्गम काज हैं वे हनुमानजी की कृपा से, अनुग्रह से
बहुत सुगमता से हो जाते हैं। भगवान् के जितने कार्य थे जिनके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था लंका
में पहुँचना, जानकीजी को प्रभु का सन्देश देना, रावण को धमकाना, लंका को जलाना, सुषैन वैद्य को भवन
सहित वहाँ से ले आना, कालनेमि को मारकर धौलागिरी पर्वत पर पहुँचना, औषधि का पूरा पहाड़ उठा कर
लाना यह कोई सामान्य घटना नहीं है इसलिए जामवंत ने कहा था कि विभीषणजी अगर हनुमान जीवित हैं तो
सारी सेना जीवित है और यदि हनुमान नहीं है तो सारी की सारी सेना मृत मानी जाएगी।  ऐसे है हमारे श्री हनुमान जी।।
जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 12 जनवरी 2025

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तेईस।।भगवान का नाम ।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तेईस।।भगवान का नाम ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥ प्रभु सागर के किनारे पर विराजमान हैं। गम्भीर, गहरा समुद्र हिलोरे मार रहा है। भगवान् चिंता में डूबे हैं कि सागर कैसे पार हो, भगवान् ने सुग्रीवजी से, विभीषणजी से प्रश्न किया-
सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि विधि तरिअ जलधि गम्भीरा ॥ संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥
यह प्रश्न प्रभु के श्रीमुख से आया है। सबने उत्तर अपनी-अपनी मति के अनुसार दिया। श्रीहनुमानजी का जो उत्तर आया है वह सबको प्रेरणा देनेवाला है। हनुमानजी ने कहा प्रभु चिंता क्यों करते हो, कैसे पार होंगे-
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥ नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं । करहुँ विचार सुजन मन माही। बचपन में हनुमानजी ने सूर्य को अपने मुख में रख लिया था और आज मुद्रिका को मुख में रखा है।यह सिद्धांत है कि जो सूर्य को मुख में रखेगा वह ही मुद्रिका को भी मुख में रख सकता है। सूर्य ज्ञान का
प्रतीक है। जो ज्ञान का भूखा होगा सुना है न जन्म लेते ही पहले दिन भूख लगी। जिसको जन्म से ही ज्ञान
की भूख जगी है। हमको बुढ़ापे में ज्ञान की भूख जागती है और जागती है भी कि नहीं। भगवान् जाने जिसको
जन्म से ज्ञान की भूख होगी वही अपने मुख में श्रीराम नाम की मुद्रिका को डालेगा। मुद्रिका को मुख में रखने
का अर्थ है कि मुद्रिका में जो लिखा गया था वह मुख में रखा गया। उस पर क्या लिखा था श्रीराम नाम, प्रभु राम का नाम, प्रभु का सुन्दर नाम उस श्रीराम रस मुक्ति को ही उन्होंने मुख में रखा है-
सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए।
जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए ॥
मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में।
तू अकेला नहीं प्यारे, राम तेरे साथ में।
विधि का विधान जान हानि-लाभ सहिये ।।
सीता राम, सीता राम कहिए .........।
किया अभिमान तो फिर, मान नही पाएगा।
होगा प्यारे वही जो, श्रीरामजी को भाएगा।
फल आशा त्याग, शुभ काम करते रहिए ।।
सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए .......
जिन्दगी की डौर सौप, हाथ दीनानाथ के ।
महलों में राखे चाहे झोंपड़ी में वास दे।
धन्यवाद, निर्विवाद, राम राम कहिए ।।
सीता राम, सीता राम कहिए.........
आशा एक रामजी से, दूजी आशा छोड़ दे।
नाता एक रामजी से, दूजा नाता तोड़ दे।
साधु संग, राम- रंग, अंग-अंग रंगिए ।
सीता राम, सीता राम कहिए..........।
काम रस त्याग प्यारे, राम रस पगिए ।
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।
सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए ..........
मुख में राम नाम और हाथ प्रभु सेवा में जब हम आपस में मिलते हैं। पूरे भारत में कोई किसी भी उपासना को मानता हो लेकिन जब भारत के ग्रामीण लोग आपस में मिलते हैं तो राम-राम कहकर मिलते हैं। इसका अर्थ है राम को प्रणाम करो, वही जीवन का मालिक है। तो इस चौपाई के माध्यम से गोस्वामीजी हनुमानजी के मुख से यह बुलवाना चाहते हैं। प्रभु मुद्रिका मेलिमुख माहि जलधि लाँघि गये अचरज नाहि ॥ नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं । करहुँ विचार सुजन मन माहिं ॥
इस कलिकाल को यदि पार करना है तो संसार भी सागर है, भगवान् भी सागर के किनारे विराजमान है। तब यह चौपाई आयी है। इस कलिकाल को यदि पार करना है तो किसी और कठोर पूजा अनुष्ठान में उलझने की जरूरत नहीं है-जोग जग्य जप तप व्रत पूजा ॥एहिं कलिकाल न साधन दूजा।।संतत सुनिय राम गुन ग्रामहिं ॥रामहि सुमिरिअ गाइये रामहिं । गोस्वामीजी ने बिल्कुल स्पष्ट घोषणा की है किसी और कलिकाल की बात नहीं जिस कलिकाल में हम और आप निवास करते हैं। इस कलिकाल में कठोर साधनों में उलझने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि हमारी क्षमता भी तो होनी चाहिए उन साधनों को पूर्ण करने की। योग, यज्ञ, जप, व्रत, तप, अनुष्ठान यह सब यदि किसी एक के द्वारा पूरे हो सकते हैं तो वो है केवल प्रभु-नाम योग का भी यदि नाम लोगे तो भी भगवान से जुड़ना होगा ही। जिसका नाम लेते हैं, उसकी छवि, उसकी मूर्ति, उसका स्वरूप, उसका स्वभाव, ध्यान में आता है। योग भी नाम जप है, यज्ञ भी नाम जप है। जप भी नाम जप है। आप लेते चले जा रहे हैं। व्रत भी हैं चूंकि नियम है कि लेना ही है। नाम द्वारा ही प्रभु की पूजा भी हो रही है। यह जो सारे के सारे साधना
के अंग हैं योग, यज्ञ, जप, तप, पूजा, अनुष्ठान आदि सब एक राम नाम में ही समाहित हैं, भगवान् के पावन
नाम में समाए हुए हैं। इसलिए साधु लोग, आपने देखे होंगे, भक्त लोग हर समय नाम जपा करते हैं। हर समय
अलग से अनुष्ठान आदि, कोई कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। रामहि सुमरिए गाइए और यह कलिकाल तो
बड़ा विचित्र है। हमारी शारीरिक क्षमता भी बहुत कम है। मानसिक सन्तुलन भी बहुत कम है। वातावरण में
प्रदूषण भी बहुत फैला हुआ है। आज हमारा जीवन सब प्रकार की अन्तर, बाह्य अशान्ति से घिरा हुआ है और
इसमें शान्त चित्त से बैठकर कर्मकाण्ड में बैठना कठिन है, समय का अभाव है। विधि-विधान नहीं आता है,
संस्कृत का ज्ञान नहीं है। अच्छे पुरोहित व पण्डित नहीं मिलते हैं तो आचार्यों के मौसम के अनुसार हर मौमस
के वस्त्र अलग होते हैं। हर मौसम में भोजन अलग प्रकार का होता है। उसी प्रकार हर मौसम का भजन भी
अलग प्रकार का यह जो कलिकाल का मौसम है। यह बड़ा कठिन भजन करने का नहीं है। कठोर भजन
करने का नहीं है। बस एक ही काम है-रामहि सुमिरिय गाइय रामहिं । संतत सुनिय राम गुन ग्रामहिं ।।
उठते बैठते, सोते, चलते, गाते, नहाए, बिना नहाए, शुद्ध, अशुद्ध, भाव, कुभाव, आलस्य, प्रमाद में जैसे ही बन पड़े मन से, बेमन से हरि नाम जैसे चैतन्य महाप्रभु ने गले में ढोल लटकाकर सारे जगत को संदेश दिया है। हर्रेनाम, हर्रेनाम, हर्रेनामैव केवलम, कलौ नास्तेव नास्तेव नास्तेव गतिरन्यथा । महाप्रभु तीन बार बोले हरि नाम,
हरि नाम, हरि नामैव केवलम् केवल केवल और केवल हरि नाम हो। दूसरा कोई साधन नहीं है और जब तीन बार कोई बात बोली जाती है तो शास्त्र प्रमाण शुद्ध मानी जाती हैं। मानस में भी इसी को
गोस्वामी जी ने तीन बार कहा है-तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामि ॥
केवल राम के नाम को नमन करो राम को नमन करो। बिल्कुल साफ लिख दिया गोस्वामीजी ने-
कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उतरिहं पारा ॥ नहि कलियोग न यज्ञ न ज्ञाना। एक अधार राम गुन गाना ।। केवल एक आधार । उठते बैठते, जागते, सोते हरि गुनगान और हरि नाम गाओ। गुरुनानकदेव ने भी कहा है- नानक दुखिया सब संसारा । सुखी वही जो नाम अधारा ।। बचेगा कौन? बोले, सुखी वही, जो नाम अधारा, जिसने भगवान के नाम का आधार ले लिया उसको।किसी दूसरे आधार की जरूरत नहीं है। एक बार किसी ने गोस्वामीजी से पूछ लिया कि आप बड़े निश्चिंत
दिखाई पड़ते हैं। इस कलि से तो सब लोग डरे हुए हैं और आपको हम कभी डरा हुआ, सहमा हुआ नहीं
देखते हैं, निश्चिंत रहते हैं। गोस्वामी जी ने कहा देखो भैय्या, मैं तो रामजी का पालतू कुत्ता हूँ इसलिए मैं निडर
रहता हूँ। बड़े आदमी के कुत्ते को किसी का डर नहीं है। मतलब क्या? गोस्वामीजी ने कहा कुत्ते दो प्रकार के होते हैं। एक पालतू, दूसरे फालतू और दोनों के साथ अलग-अलग प्रकार का व्यवहार होता है। पालतू को
कोई छेड़ता नहीं है और फालतू को कोई छोड़ता नहीं है। जब देखो फालतू कुत्ते पर डण्डा पड़ेगा, डांट पड़ेगी।
पालतू को कोई कुछ बोलता ही नहीं है । पहिचान क्या है कि यह पालतू है या फालतू है। गोस्वामीजी कहते
हैं कि जिसके गले में पट्टा पड़ा होता है वह पालतू होता है और जिसके गले में पट्टा नहीं है तो समझो वह फालतू
है। तो भैय्या, मैंने राम नाम का पट्टा गले में बाँधा है। अब मैं राम का पालतू कुत्ता हो गया हूँ। अब कलि का कोई प्रभाव मेरे पास आने का साहस ही नहीं कर पाता । गोस्वामीजी कहते हैं कि आपको भी निश्चिंत जीने की आदत डालनी चाहिए। अपने गले में रामनाम का पट्टा बाँध लीजिए, दुनियां की विकार, वासनाओं को छेड़छाड़ करने का साहस ही नहीं होगा। इसलिए उन्होंने पहले ही बोल दिया है- ऐहि कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप व्रत पूजा ।।राम ही सुमिरिए गाइय रामहि । श्रीरामचरितमानस का सार तत्व भी रामनाम ही है। आपने वह घटना सुनी होगी गोस्वामीजी ने जब ग्रन्थ पूरा कर दिया तो  पता चला कि पूरे रामचरित्र में हर चौपाई मंत्र है। एक आचार्य द्वारा मैंने सुना है कि पूरे रामचरितमानस में केवल चौदह चौपाईयों में ही राम नाम नहीं है। बाकी सम्पूर्ण चौपाईयां राम मंत्र से अभिमन्त्रित हैं एक तो मुझे भी मालूम है। झूठहि लेना, झूठहि देना, झूठहि भोजन, झूठ चबैना। इसमें कहीं राम नाम नहीं है। हमें यह इसलिए मालूम है क्योंकि यह हमसे मेल खाती है। हम इसी में डूबे हैं तो हमें अपने मतलब की मिल गयी। तो रामचरितमानस का जो सार तत्व है वह श्रीराम नाम है। काशी में जब ग्रन्थ लेकर गोस्वामीजी आए
तो काशी के विद्वत् परिषद ने प्रश्न कर दिया। बाबा यह ग्रन्थ लेकर घूम रहे हैं। तुम्हारे इस ग्रन्थ में क्या रखा है तब गोस्वामीजी ने कहा इसमें मेरे प्रभु का मधुर नाम रखा है- क्या? एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥ गोस्वामीजी ने कहा कि इसमें मेरे प्रभु श्रीराम जी का नाम रखा हुआ है। इसमें रघुपति का उदार नाम है, और कैसा है अतिपावन, समस्त वेद, शास्त्र और पुराणों का जो सार है, जो निचोड़ है, जो रस है, जो अमृत
वह श्रीराम नाम इसमें विराजमान है। अच्छा यह राम-नाम वेद शास्त्र, पुराणों का निचोड़ है। इसकी महिमा भी
बड़ी पुरानी है। विद्वत् परिषद ने पूछा महिमा क्या है आपके राम नाम की? गोस्वामीजी महिमा सुना रहे हैं-
मंगल भवन अमंगल हारी ॥ यह मंगलभवन और अमंगलहारी है। इसका प्रमाण क्या है? इसका कोई प्रमाण है, क्या प्रमाण है? तो प्रमाण सुन लीजिए ।
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥ संतत जपत सम्भु अविनासी। शिव भगवान ज्ञान गुन रासी ॥ यह प्रमाण है। काशी के विश्वनाथ भगवान् स्वयं काशी में बैठकर इसी नाम के बल से सबको मुक्ति प्रदान करते हैं-
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ||
भगवान् सबके कान में राम नाम के मंत्र की ही दीक्षा देते हैं, उसको मुक्ति प्रदान करते हैं तो ऐही कालिकाल केवल हरि नाम इसके लिए कोई विधि नहीं, कोई विधान नहीं। एक ही विधि है कि इसे नित्य सुमिरन करो और एक ही निषेध है कि इसका कभी विस्मरण न करो। सतत इसका स्मरण करो। उठते बैठते, सोते जागते, खाते, पीते देखो एक आचार्य जी ने एक बहुत अच्छी बात कही है बोले अगर विधि-विधान से रामनाम लिया और तब परिणाम हुआ तो परिणाम नाम का नहीं होगा, परिणाम तो विधि-विधान का होगा। कई लोग कहते हैं कि श्रद्धा से लो, वह कहते हैं कि श्रद्धा से लेने से परिणाम श्रद्धा का होगा। नाम का परिणाम नहीं होगा, नाम की महिमा तो तब है जब अश्रद्धा से भी लिया तो भी परिणाम होगा। जैसे लिया वैसा उसका लाभ। उदाहरण बहुत अच्छा देते थे, वह कहते थे कि बिजली का तार आप जान-बूझकर छुए तो भी झटका लगेगा और अनजाने में छुए, तो भी झटका लगेगा। अग्नि को जानकर छुए तो भी जलाएगी, अनजाने में छुए तो भी जलाएगी। अग्नि अपना काम करेगी, नाम अपनी महिमा देगा। श्रद्धा के साथ लोगे तो आपको रस आएगा, स्वाद भी आएगा लेकिन अश्रद्धा से लोगे तो भी रस ही आयेगा । गोस्वामीजी ने कह दिया है-
भायँ कुमायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ । अब तो आपको कोई संशय नहीं है श्री रामचरित्र मानस ने प्रमाणित कर दिया है। भाव, कुभाव, अनख,
आलस से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। प्रेम, वैर, क्रोध और आलस्य में ही नहीं यदि रामनाम जाने-अनजाने और यहाँ तक की वह विवशता में भी लिया जा रहा है तो भी उसके द्वारा हमारा कल्याण होना सुनिश्चित ही है। राम राम कहि जे जमुहाँहीं। तिन्हहि न पाप पुँज समुहाहीं ॥ हमारे द्वारा जम्हाई लेने में भी यदि मुख से राम-राम निकलता है तो हमारे पापों के ढेर सामने से उठकर चले जाते हैं।
सादर सुमरिन जेनर करहिं । यह तो बहुत बड़ी बात है। कोई विधि नहीं, कोई विधान नहीं। एक ही विधि है, एक ही विधान है। जैसे हुनमानचालीसा के साथ गोस्वामीजी ने कोई विधि विधान नहीं दिया- जो यह पढ़े हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ हनुमान चालीसा जो पढ़े जैसे पढ़े कोई नियम नहीं कि आसन पर बैठकर, रीढ़ की हड्डी सीधे करके, पद्मासन लगाए। जो पढे, जैसे पढ़े, जहाँ पढ़े उसे फल मिलेगा, भगवान् शिव इसके साक्षी बैठे हुए हैं, बोले मैं हूँ ना। जब शंकरजी शावर मंत्रों का भी फल प्रदान कर सकते हैं तो यह तो एक सिद्ध संत का सिद्धमंत्र है। इसका तो फल अवश्य मिलेगा। हम भोजन करते हैं मन से करेंगे तो भी पेट भरेगा, कुमन से करेंगे तो भी पेट भरेगा। मन से करोगे तो भी इससे शरीर में रक्त बनेगा, बेमन से करोगे तो भी रक्त बनेगा। मन से, स्वाद से करोगे तो रस आएगा, रुचि बढ़ेगी, आनन्द मिलेगा, मन प्रसन्न होगा, खुशी होगी। मन से करने पर भी वही बेमन से करोगे तो भी। ऐसे ही भगवान् का भजन भी है। किसी आचार्य ने नाममहिमा में बहुत अच्छा लिखा है-
दो बार द्वारिका, त्रिवेणी जाये तीन बार ।
चार बार काशी में गंग हु नहाये ते ।।
पाँच बार गया जाय छः बार नैमीषार।
सात बार पुष्कर में मज्जन कराये ते ॥
रामनाथ जगन्नाथ बद्री केदारनाथ ।
दस अश्वमेध कोटि बार बार किये ते।।
जेते फल होइ सकल तीर्थन स्नान किये।
तेते फल होड़ एक राम नाम गाये ते ॥
शुभ - अशुभ भाव से कुभाव से, अनख से, आलस्य से जैसे हो वैसे नाम का गायन करें। नाम का सुमिरण करें। इसकी एक ही विधि है, सतत् स्मरण करें, एक ही निषेध है सुमिरन नहीं करना। यह विधि है, इसका भूल से भी
विस्मरण न हो जाए। विस्मरण हुआ तो मरण ही बचा है और कुछ बचा ही नहीं है। कोई विधि निषेध नहीं
है। जैसे हनुमानचालीसा के लिए लिखा है।
जो यह पढ़े हनुमानचालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
संत एकनाथजी महाराज, महाराष्ट्र के बहुत बड़े संत थे। इनको हर समय विठ्ठल, विठ्ठल, विठ्ठल नाम सुमिरण की आदत थी। अब यह शौचालय जाएं जीभ को पुरानी आदत लगी, उसको कन्ट्रोल करना कठिन काम है इनको लगा परमात्मा जैसा पावन नाम, शौचालय जैसी अपावन जगह नहीं लेना चाहिए और जीभ को आदत है और जीभ न चले इसलिए गमछे से जीभ को पकड़ लेते थे। एक दिन सेवक ने देख लिया कि महाराज जी जीभ पकड़ कर शौचालय में बैठे हैं तो हाथ में जल लेकर सेवक हाथ धुलाने गया तो उसने पूछा कि महाराज
जी एक बात पूछें। महाराजजी ने कहा कहो तो,चेला बोला: जब आप शौचालय में बैठे थे तो जीभ पकड़कर क्यों बैठे थे। एकनाथजी ने कहा कि तुमको तो मालूम है कि मेरी जीभ को हमेशा विठ्ठल विठ्ठल कहने की आदत है और भगवान् का यह पवित्र नाम ऐसे अपवित्र जगह पर नहीं लेना चाहिए और जीभ मानती नहीं है। इसलिए मुझे इसे पकड़ कर बैठना पड़ता है। सेवक ने कहा महाराज एक बात और पूछ सकता हूँ। बोले पूछो,
तो बोला अगर शौचालय में प्राण निकल जाएं तो! एकनाथजी सुनकर दंग रह गए। जो ज्ञान मुझे गुरुदेव से
भी नहीं मिल पाया वह आज तुमसे मिल गया। इसका क्या भरोसा है कि प्राण कब और कहाँ निकल जाएं।
हमने सुना है कि ज्यादातर लोगों की लीला बाथरूम में ही समाप्त होती है। इसलिए कब प्राण जाएं हर क्षण
प्रतिपल हरिनाम लें। नाम अपनी महिमा दे रहा है। यह आचार्य बोल रहे हैं। शास्त्र प्रमाण है लेकिन अनेक लोग हैं वर्षों से नाम ले रहे हैं। मालाएं घिस गई, अंगुलियां तिरछी हो गयी, गांठे पढ़ गई लेकिन नाम जपते-जपते आज तक भी भरोसा नहीं आया है कि जिसका नाम जप रहे हैं वह सुन भी रहा है या नहीं। वह यह जानता ही नहीं
कि कोई नाम जप रहा है क्योंकि नाम तो भगवान् का जप रहे हैं और भरोसा बैंक के खाते पर कि कुछ बुढ़ापे के लिए डाल दो, बुरे समय में बुढ़ापे में काम आएगा। यह भरोसा भी नहीं कि जिसका नाम ले रहे हैं। वह सहारा देगा कि नहीं। वह सुनकर आएगा कि नहीं, उठायेगा, बिठाएगा कि नहीं वह बुढ़ापे में कुछ खाने को देगा कि नहीं। अरे जिसने जवानी में दिया बुढ़ापे में देगा कि नहीं? लेकिन हमारा भरोसा नहीं है। कारण क्या है भगवान् के ऊपर भरोसा नहीं है, यह सत्य है। भजन भगवान् का करते हैं हम और भरोसा दुनियां पर करते हैं।हम भगवान् पर कभी भरोसा नहीं करके डाक्टर पर भरोसा करते हैं। भरोसा परिवार पर करते हैं यदि भगवान् पर भरोसा होता तो इतनी भागदौड़ की आवश्यकता ही नहीं, तो यह भरोसा क्यों नहीं जमता, इसका कारण समझ लीजिए। भरोसा या विश्वास उसी पर होता है जिससे हमारा प्रेम होता है और प्रेम किससे होता है जिससे हमारा सम्बन्ध होता है। जिससे हमारा सम्बन्ध होता है उसी से हमारा प्रेम होता है और जिससे हमारा प्रेम होता है उसी पर हमारा भरोसा होता है, उसी पर विश्वास होता है। सम्बन्ध का अर्थ ही यह है। सम्बन्ध का अर्थ है जितना भक्त भगवान् से बंध गया, उतना ही भगवान् भी भक्त से बंध गया। हिन्दी साहित्य में जितने भी मूल्यवान शब्द हैं सब सम से बने हैं। सम्बन्ध, समधी, समाधि, सम्बन्धी, सम्भोग, सम्बोधी, सम्यंक,।समता, समानता, समाचार आदि अर्थपूर्ण शब्द हैं सब सम से बने हैं। भक्त और भगवान एक साथ बंधे हैं और।उसी भरोसे के आधार पर हम अपने बेटे को विदेश भेज देते हैं कि जाओ हमारे सम्बन्धी वहाँ रहते हैं। और जब सम्बन्ध नहीं होता तो पड़ौसी पर भी हमारा भरोसा नहीं होता। जिससे हमको प्रेम होता है उसकी हमको।याद करनी नहीं पड़ती,उसकी याद आती है। याद आती ही नहीं बल्कि याद सताती है, उसका एक अलग प्रकार का दर्द रहता है। दूसरा अर्थ है सताना माने जो सतत् आती है, बुलानी नहीं पड़ती, आती रहती है। जैसे पड़ौसी के लड़के को याद करने के लिए हमको सिर भी खुजलाने पड़ते हैं और कान भी कुरेदने पड़ते हैं तब पड़ौसी का बेटा याद आता है और अपने लड़के की यादें दिन-रात रुलाती हैं, दिन-रात सताती हैं। हर त्यौहार।बेटे की याद में रुलाता है। बेटा अमेरिका में सर्विस करता है त्यौहार आया, माँ के आँसू आ गए। क्यों? बेटे की याद सता रही है। बेटे की रुचि की कोई वस्तु याद आती है तो लोग रोने लगते हैं। याद दो प्रकार की आती है या तो प्रियजन की या दुश्मन की। प्रियजन की याद आती है तो मन मिठास, आनन्द से भर जाता
है। दुश्मन की याद आती है तो मन कड़वा हो जाता है, कसैला हो जाता है। प्रेम के भी सम्बन्ध और द्वेष के भी सम्बन्ध है, दुश्मनी के भी सम्बन्ध है। दुश्मनी का सम्बन्ध कंस, शिशुपाल, दुर्योधन का था। रावण व कुम्भकरण का था। मोक्ष तो मिला, भगवान् तो मिले, मोक्ष तो मिला, हरिपद तो मिला लेकिन स्वाद नहीं मिला, रस नहीं मिला। भक्तों को रस भी मिलता है, पद तो मिलता है साथ-साथ पद, परमपद भी मिलता है।तो भगवान् से प्रेम का सम्बन्ध होना चाहिए। तब देह काम करती है और याद भीतर सताती है। याद तो दिल में आती है देह संसार का व्यवहार करती है। प्रेम की यादें, प्रेम का मीठा-मीठा दर्द, प्रेम की टीस, प्रेम की कसक, प्रेम का दर्द, प्रेम का कराहट प्रेम की बैचेनी, प्रेम की व्याकुलता न बैठने देती है, न हँसने देती है, न सोने देती है, न जागने देती है, न मरने देती है, न जीने देती है। एक अलग प्रकार की व्याकुलता होती है। मीराजी बोली हैं-
ना मैं जानू आरति वन्दन, ना पूजा की रीति,
सखी मैं तो श्याम दिवानी, मेरो दरद न न जाने कोय।।
एरी मैं तो प्रेम दिवानी, मेरो दरद न जाने कोय ।।
घायल की गति घायल जानें कै जिन घायल होय ।
जौहर की गति, जौहर जाने, कै जिन जौहर होय ॥
सखी री मैं तो प्रेम दिवानी मेरो दरद न जाने कोय।
दरद की मारी बन बन भटकूं-वैद्य मिला नहिं कोय ॥
मीरा की ये पीर मिटै जब वैद्य साँवरियाँ होय ।
सखी री मैं तो प्रेम दिवानी मेरो दरद जाने कोय।।
प्रेम उससे होगा जिससे हमारा सम्बन्ध होगा और सम्बन्ध जुड़ता है गुरु के द्वारा, बिना गुरू के सम्बन्ध हो नहीं सकता। कई लोग कहते हैं कि जब राम नाम पुस्तकों में अंकित है हमको मालूम है तो इसके लिए गुरु की क्या आवश्यकता है। जैसे वर और कन्या का सम्बन्ध पुरोहित के द्वारा जुड़ता है जो बिना पुरोहित के सम्बन्ध जुड़ते वह अमान्य होते हैं, अवैध, अनैतिक, असुरक्षित होते हैं। समाज उनको मान्यता नही देता है। पुरोहित के द्वारा जो सम्बन्ध जुड़ता है वह मान्य होता है। समाज आदर देता है, फिर वह तोड़ा नहीं जा सकता, वह घोषित होता है, वह छिपकर नहीं होता बल्कि छापकर होता है। विवाह से पहले पत्र छप जाते हैं। गाजे-बाजे के साथ होता है और वही शाश्वत होता है, वही शान्ति और आनन्ददायक होता है। अहंकार के कारण हम गुरु को नकारते हैं और इसलिए भगवान से सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता। अगर मनुष्य रूप में सम्बन्ध स्वीकार नहीं कर सकते तो आओ हनुमान जी के चरणों में उन्हीं से प्रार्थना करो-
जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाई ।।
श्रीहनुमानजी के चरणों में आश्रय लीजिए। आप ही गुरुदेव की भूमिका में प्रभु हम पर कृपा करें।सम्बन्ध जुड़े और सम्बन्धी सम्बन्धी से मिलने आता है। हमारा अगर भगवत सम्बन्ध जुड़ गया तो हमको यदि फुर्सत नहीं है मिलने जाने की तो भगवान् आ जाएंगे कि हमारा सम्बन्धी निवास करता है। यहाँ हमारे नाम का सुमिरन करता है। चलो बहुत दिन हो गए भेंट कर आएं। भगवान् से सम्बन्ध घोषित करिए, वैसे कौन से सम्बन्ध ? गोस्वामीजी ने कहा है कि मोहि तोहि नाते अनेक मानिए जो भावे । गोस्वामीजी जिस कक्षा के विद्यार्थी हैं अभी उस कक्षा के द्वार तक पहुंचना भी हमारा नहीं हो पाया। वह भगवान् से कह सकते हैं कि भगवान् तू सम्बन्ध मान, सम्बन्ध हमको ही बनाना पड़ेगा कौन सा बनाएं सम्बन्ध ? बहुत हैं लेकिन जिसमें सर्वाधिक शुद्धता है वह है, भगवान् हमारे स्वामी है, हम सेवक हैं दास भाव । भगवान् हमारे मालिक हैं हम उनके सेवक (दास) इसलिए वैष्णव परम्परा में दास परम्परा है। वैष्णव संतों के नाम के आगे दास लिखा होता है। जैसे नौकर मालिक से गिड़गिड़ाता है ऐसे भक्त भी भगवान् से, प्रभु हजार अपराध होंगे भूल मेरी बहुत होगी लेकिन कृपानिधान तू मत त्याग कर देना। आपने हमारे साधु-संतों को देखा होगा, माला झोली लेते हैं, बात भी करते हैं, माला भी जपते रहते हैं। कई लोग इसकी आलोचना भी करते हैं। आलोचना करना अज्ञानता, अविवेक है। अरे तुम तो इतना भी नहीं कर रहे वह इतना तो कर रहे हैं। तुम नाटक भी करके तो देखो। केवल आलोचना। आलोचना वही करता है जिससे कुछ नहीं होता। वह बैठा-बैठा देखकर कुढ़ता रहता है। दान की आलोचना वही करते हैं जो दान नहीं करते हैं। आपने देखा होगा कि संस्थाओं का हिसाब वही मांगते हैं जिसने एक भी पैसा दान नहीं दिया। आलोचक कुछ नहीं करता केवल आलोचना करता है। तो साधु अगर बात करने में भी माला फेर रहा है तो अकारण नहीं है। जैसे हमारा किसी से प्रेम सम्बन्ध जुड़ गया तो हम घर-परिवार, दुकान, मकान, फैक्टरी, कारोबार चलाते हैं कि नहीं चलाते। और इसके साथ-साथ हम प्रेमी की याद, टीस, कसक अनुभव करते रहते हैं कि नहीं या उसे कोई अलग से याद करना पड़ता है। वह यादों में बना रहता है। हमारी साँसों में शरीर घर-परिवार का काम करता रहेगा। श्वांसें उसकी यादों में डूबी रहती हैं। यही हाल साधु का है और हर समय नाम जपना ये उनकी मजबूरी है। मजबूरी वो आपको दिखाने की नहीं है। अपने प्रभाव को उत्पन्न करने की नहीं है। आपको प्रभावित करने की नहीं। मजबूरी यह है कि वह
बिना नाम लिए रह ही नहीं सकते। चूंकि भगवान् से इतना प्रेम का सम्बन्ध हृदय में जुड़ चुका है कि अब
उसका नाम लिए बिना जिह्वा रह ही नहीं सकती। तुझ बिन रहा न जाए, तेरे बिना रहें तो रहें कैसे? सम्भव
नहीं है। जैसे भंवरा है फूल की कली खिली, भंवरे की मजबूरी है गुनगुनाना, गुन, गुन, गुन, गुन। ऐसे ही
हृदय में भगवत्भक्ति का पुष्प खिला तो साधु की जिह्वा की मजबूरी बनती है हरे राम हरे राम, राम राम
हरे, तो जो लेना पड़े वह मजबूरी है और जो चलता रहे वो मजबूती है। जो रोके से भी रुके नहीं। जैसे कई
संतों को हमने देखा कि जैसे कोई मशीन लगी है उनके होठ ऐसे हिलते रहते हैं क्योंकि जीवन भर सम्बन्ध
जुड़ा है। अब नाम रुक नहीं सकता जैसे सोते-जागते, उठते-बैठते प्रभु का नाम मीराजी से किसी ने पूछा हम
तो कलयुग के पापी प्राणी हैं। हमको बताइए, हम इस भवसागर को कैसे पार करें? मीराजी ने कहा एक ही
तरीका है। क्या है? बोली- खूब नाचो और खूब गाओ। पूछा क्या गाएं तो बोलीं मुझे तो एक ही गीत आता
है जो मैं गाती हूँ वह तुम भी गाओ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग बाइस।।हनुमानजी और विभीषणजी ।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग बाइस।।हनुमानजी और विभीषणजी ।।
तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना। लंकेस्वर भये सब जग जाना ॥
विभीषण बहुत दुःखी थे अरे व्यक्ति कितना हीनभाव से भर गया होगा। बीमार व्यक्ति भी अगर कोई जा रहा है और आप अगर उससे मिले आपने उससे पूछा कि आप कैसे हैं तो वह बोलेगा ठीक हैं। घर में कलह है, क्लेश है, दुःख है पर आप पूछेंगे कि घर में कैसा चल रहा है तो वह कहेगा सब ठीक चल रहा है। एक सामान्य व्यक्ति भी अपने रोने का दुःखड़ा रोना नहीं रोता। लेकिन विभीषण जैसा व्यक्ति, हनुमानजी ने जब पूछा कि कैसे हो विभीषण, बोलता है: अरे भाई क्या बताएं-
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥ ये रावण की कैबिनेट के सबसे बड़े मंत्री थे। स्वर्ण भवन में रहनेवाले और यह भी अपने को बेचारगी
की श्रेणी में ले आए, इतना हीन भाव से भरा हुआ। हनुमानजी ने कहा तुम्हारे ऊपर प्रभु की बड़ी कृपा
विभीषण बोले दाँतों के बीच में जीभ अरे यही कृपा है क्या? हुनमानजी ने कहा कि जिसको तुमने कष्ट समझा
है वह कष्ट नहीं है, वह परमात्मा की कृपा है। अरे पुष्प तो कांटों में ही खिला करते हैं, अगर कांटे न हों
तो पुष्प की भी शोभा नहीं होगी और न ही वे सुरक्षित रहेंगे। लेकिन तुमने कांटे तो देख लिए पर कांटों के
बीच में हंसता- मुस्कुराता सुगन्ध से भरा हुआ पुष्प नहीं देखा। जीवन में यदि कष्ट नहीं आएगा तो आनन्द का
स्वाद भी आपको ठीक से नहीं मिलेगा। अगर रात नहीं होगी तो विश्राम कैसे करोगे। आप सोचें कि चौबीस
घण्टे दिन ही होता तो मनुष्य की दशा क्या हो जाएगी, पागल हो जाएगा। यह तो भगवान की कृपा है। जिसे
तुम कष्ट समझ रहे हो, हीनभाव में डूबे हुए विभीषणजी को मंत्र दे दिया, जीवन बेचारगी का नहीं चाहिए,
विचारवान होना चाहिए। इसलिए हनुमानजी जो भी करते हैं पहले विचार करते हैं। आज हनुमानजी यह एहसास विभीषण को करा रहे हैं कि तुम मोह के भाई नहीं हो तुम तो महात्मा के भाई हो। मेरे भाई हो चलो माँ का दर्शन करें लेकिन इतना हीनभाव था कि विभीषण नहीं गया। युक्ति बता दी, जुगुति विभिषण सकल सुनाई।
व्यक्ति अपने बुरे दिनों के लिए भी युक्तियां बता देता है। बुरे दिन हैं, समय खराब है, कर्म खराब रहे होंगे।
भोगना तो पड़ेगा ही क्या करें, मनुष्य अपने दुःख, दर्द के लिए भी युक्तियां निकाल लेते हैं, उसका उपाय नहीं
सोचते। बाद में जब रावण ने लात का प्रहार किया, तब विभीषण को प्रभु की याद आई, तब उस समय सोचने
लगे कि हनुमानजी की बात ठीक थी, मैंने ही भूल की। संत अलार्म का कार्य करते हैं। हमने रात को आठ
बजे अलार्म भरा, सुबह चार बजे उठने के लिए भरा है। प्रातः चार बजे बोलेगा अलार्म, जब भरा जाता है तब
नहीं बोलता है। भरा कभी जाता है और बोलता कभी है। लेकिन बोलता जरूर है। ऐसा नहीं होता कि भरने
के बाद वह बोले नहीं। सत्संग का भी यही अर्थ होता है। सत्संग हम आज सुनते हैं हजारों लोग कथा सुन
रहे हैं, इन पर कोई परिणाम तो होता नहीं। अरे भई, परिणाम एकदम नहीं होता आज हमने कथा के माध्यम
से उनके भीतर सत्संग का अलार्म भर दिया। कभी न कभी, किसी न किसी घटना पर, किसी न किसी स्थिति
पर, अवसर पर इनको हमारी याद आ जाएगी कि एक बार फला ने कथा में यह कहा था किअलार्म आज भरा है हो सकता है दो साल बाद, चार साल, दस साल, बीस साल या अन्तिम समय में वहअलार्म बज जाए। अलार्म भरा है तो बजेगा अवश्य । इसलिए जो आज सुन रहे हैं वह आपके भीतर भर गया है। कभी न कभी अवश्य बजेगा। हनुमानजी विभिषण को मंत्र का अलार्म भर आए थे। विभीषण उस समय नहीं गए। हो सकता है, युक्ति से उन्होंने अलार्म के ऊपर हाथ धर दिया हो, इसी को युक्ति कहते हैं। लेकिन जब जोर का थपका मारते हैं तो अलार्म बजने लगता है। तो भरी सभा में रावण ने विभीषण की घड़ी को लात मारी उसी समय याद आ गयी- रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।
  मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥
मैं रावण की सभा को छोड़कर राम की शरण में जाऊंगा-
तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना।लंकेस्वर भये सब जग जाना।
हनुमानजी के मंत्र ने पापेश्वर की लात खाने वाले को भी लंकेश्वर बना दिया। ये श्रीहनुमानजी की कृपा
है। ये हनुमानजी की महिमा है। 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग इक्कीस।।कृपा करहु गुरुदेव की नाई।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग इक्कीस।।कृपा करहु गुरुदेव की नाई।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राज पद दीन्हा ।।
शास्त्र में सुग्रीव को जीव कहा गया है और जीव के ऊपर सबसे बड़ा उपकार कौन सा है? जीव के ऊपर सबसे बड़ा उपकार कहा गया है कि जीवात्मा को परमात्मा से मिला देना। इससे बड़ा और कोई उपकार नहीं है और यह कार्य केवल श्री हनुमान जी ही करा सकते हैं। श्रीहनुमानजी ने सुग्रीव को रामजी से भी मिला
दिया और राजा भी बनवा दिया। भगवान भी मिले सुग्रीव को और भोग भी मिला। यह हनुमानजी की विशेषता
है। और देवता चित्त न धरई, हनुमत सेई सर्बसुख करई । सब प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाली भगवत
प्राप्ति भी और भोगों के ऐश्वर्य की प्राप्ति, दोनों एक साथ में विरोधाभासी थे, उन दोनों को प्राप्त करा देना
यह हनुमानजी के बस की ही बात थी। पहले राम, बाद में राज्य और यह सिद्धान्त है कि पहले अगर राम
मिल जाएंगे तो राज्य के भोग का जीव दुरुपयोग नहीं कर सकता। सुग्रीव करने लगा था, राम के मिलने के
बाद भी जीवात्मा कभी-कभी भोग में राम को बिसार देता है। उसे भी हनुमानजी ठीक कर देते हैं। जब सुग्रीव
भोग में डूब गए, तब भी हनुमानजी की भूमिका गुरु के रूप में थी-इहाँ पवनसुत हृदय बिचारा । रामकाज सुग्रीव बिसारा ।।निकट जाइ चरनन्ह सिर नावा। चारिउ विधि तेहि कहि समुझावा ॥ हनुमानजी सब प्रकार से समझाकर जीवात्मा को हरि चरणों में ले आना, यही सबसे बड़ा उपकार है। भोग, वासना में डूबा हुआ जीव भगवान् के चरणों में पहुँच जाए इससे बड़ा और क्या उपकार हो सकता है। पहले हमारे पास धन, वैभव जाये, तब तीर्थों में जाएंगे, तब संतों की सेवा करेंगे, तब मन्दिरों का दर्शन करेंगे, तब भजन, पाठ करेंगे और इसी में सारा जीवन डूब जाता है। न इधर के रहते हैं, न उधर के। राम संग यदि पहले मिले तो धन भी कमाया जा सकता है और धन का सदुपयोग भी किया जा सकता है। अगर सीधे धन कमाया तो धन ही डुबा देता है। अर्थ ही अनर्थ कराता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस बहुत अच्छा उदाहरण देते थे कि देखो भाई जगत में रहते हो, रहना तो जगत में है, जगत को छोड़ा तो नहीं जा सकता पर कैसे रहना- जैसे कटहल के साथ व्यवहार करते हो ऐसे रहना। कटहल का साग बनानेवाले थोड़ी चतुराई करते हैं। पहले हाथों में तेल लगाते हैं फिर कटहल को काटते हैं। अगर तेल नहीं लगाया तो इसका दूध हाथों पर चिपक जाता है और वह आसानी से छूटता भी नहीं। और यदि तेल लगा लें तो फिर कटहल से कोई इनफेक्शन नहीं होता। संसार कटहल की तरह है इसको काटकर हल किया जाता है। हम लोग चाटकर हल करना चाहते हैं। संसार के प्रत्येक स्वाद को चाटते हैं फिर समस्याओं का हल करना चाहते हैं पर इसको काटकर हल करना चाहिए और इसका जो दूध है वह अपने हाथों पर न चिपके इसके लिए पहले श्रद्धा का तेल लगा लो अगर।श्रद्धा, प्रेम, स्नेह का तेल लगा लोगे तो फिर कटहल रूपी संसार का प्रभाव आएगा ही नहीं। पहले भगवान् से मिलिए, भोगों की ओर बाद में जाइए। हम भोगों को पहले मिलते हैं, भगवान् की ओर बुढ़ापे में जाना चाहते हैं। विश्वामित्र जब आए हैं राम-लक्ष्मण को मांगने- अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर वध में होब सनाथा ॥।तो दशरथजी ने कहा, मुझे ले चलो, मेरी सेना ले चलो, राम को देते नहीं बनता तो विश्वामित्र ने कहा,
राजन् भगवान् पर मुरझाया हुआ पुष्प नहीं चढ़ाया जाता। भगवान् पर खिला हुआ पुष्प चढ़ाया जाता है। हमारे जीवन की रचना बदल गई, हम खिली हुई जवानी को भोगों को समर्पित करते हैं और मुरझाए हुए बुढ़ापे को भगवान् की ओर ले जाते हैं। जिसने जवानी में भजन कर लिया, बुढ़ापे में वह भजन काम आता है जिसने
जवानी में शक्ति अर्जित कर ली उसको बुढ़ापे में कराहना नहीं पड़ता, इसलिए पहले राम फिर आराम।
कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।
ऐसे हनुमानजी जो कृपा सुग्रीव के ऊपर करते हैं वह हमारे ऊपर भी करें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग बीस।। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग बीस।। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सनाकदिक ब्रह्मादि मुनीसा।नारद सारद सहित अहीसा।
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते।। ब्रह्माजी, नारदमहाराज, शेषजी, शारदा जितने भी मुनि हैं सब तुम्हारी प्रशंसा कर रहे हैं। सनकादिक ऋषि प्रशंसा करते हैं चूंकि श्रीहनुमानजी कथा के रसिक हैं और सनकादिक ऋषि भी जहाँ जहाँ जाते हैं बालक
रूप लेकर बैठते हैं, कथा श्रवण करते हैं। हमसे भी ज्यादा कथा के रसीक श्रोता श्रीहनुमानजी । इस कारण से वे हनुमान् की प्रशंसा करते हैं। जिस समय मेघनाथ ने हनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो हनुमानजी
को वरदान था वें ब्रह्मास्त्र की महिमा को तोड़ सकते थे लेकिन हनुमानजी जानते हैं कि मैं मर्यादा पुरुषोत्तम
श्रीराम का सेवक हूँ और यदि मैं मर्यादा तोडूंगा तो यह शोभा नहीं देता, दूसरा, बुजुर्गों की मर्यादा को बनाए
रखना इससे बड़ा कोई धर्म कार्य नहीं होता इसलिए हनुमानजी जानबूझ ब्रह्मास्त्र के प्रयोग से मूर्छित होकर
गिरने का नाटक करते हैं। हनुमानजी को कौन मूर्छित कर सकता है? जो मूर्छित की मूर्छा दूर करने का क्षमता
रखते हैं उनको कौन मूर्छित कर सकेगा। लेकिन केवल ब्रह्माजी की मर्यादा के लिए हनुमानजी ने नाटक किया।
जामवंतजी ब्रह्माजी के अंशावतार हैं। जामवंत जी जब भी प्रशंसा करते हैं हनुमानजी की ही करते हैं।
रामकाज कीन्हेहु हनुमाना राखे सकल कपिन्ह के प्राना।
हे भगवान्, यह तो हमारी क्षमता नहीं थी, यह तो हनुमानजी की कृपा है कि आज हम आपके चरणों
में बैठे हैं। भगवान् जब भी विश्राम के क्षणों में होते हैं तो जामवंतजी आकर भगवान् को हनुमान् की ही कथा
सुनाया करते हैं। एक बार मेघनाथ ने पूरी सेना को मूर्छित कर दिया। सन्ध्या के समय विभीषणजी को साथ लेकर श्री।हनुमानजी अपनी सेना को देखने गए कि कौन मारा गया, कौन मूर्छित है और कौन घायल है, किसकी क्या दशा है। प्रांगण में कुछ मरे पड़े हैं, कुछ मूर्छित हैं। अंधेरे का समय देखा जामवंत मूर्छित पड़े हैं तो जाकर
विभीषणजी ने पूछा कि जामवंतजी आप कैसे हैं। बोले मैं तो जैसा हूँ ठीक हूँ। पहले यह बताओ कि हनुमान्
कैसे हैं? हनुमान् कहाँ हैं? तो विभीषणजी ने कहा आपने भगवानराम के बारे में नहीं पूछा लक्ष्मणजी के बारे
में नहीं पूछा और बाकी किसी के बारे में नहीं पूछा। आपने श्रीहनुमानजी के बारे में ही क्यों पूछा? जामवंत
जी ने कहा यदि हनुमानजी जीवित हैं तो हम सब जीवित है और अगर हनुमान जीवित नहीं होंगे तो हमारे
सबके जीवित होने के बाद भी हम सब मरे हुए के समान हैं। हमारा किसी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। तो
हनुमानजी ने कहा कि मैं आपके चरणों में ही बैठा हूँ। तब जामवंतजी ने कहा इस समय मुझे दिखाई कुछ नहीं
दे रहा है। अब जैसे हो वैसे संजीवनी बूटी लेकर आओ और पूरी सेना को जीवित करो। सनकादिक ब्रह्मादि
मुनीसा, नारद सारद सहित अहीसा। चूंकि नारदजी कीर्तन के प्रेमी हैं और कीर्तन राग-रागनियों के द्वारा ही
रुचिकर लगता है और श्रीहनुमानजी राग-रागनियों के मालिक हैं। नारदजी प्रशंसा करते हैं। एक बार पूरी सेना
की मुर्छा को हनुमानजी ने राग मालकोष गाकर सुनाया मूर्छा दूर कर जीवित कर दिया था। यह हनुमानजी के
राग गायन की विशेषता थी। शारदा प्रसन्न हो गयीं क्योंकि राग और रागनियों के रूप में शास्त्र शुद्ध हो गया।
जम, कुबेर, दिकपाल जहाँ ते, कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते । यमराज जी भी यश गाते हैं। रावण के
यहाँ यम नाम का दरवाजा था। उसके भीतर रावण ने यमराज को कैद कर रखा था। श्री हनुमानजी ने यमराज
को भी मुक्त किया। उस दरवाजे को तोड़ कर प्रवेश कर गए और वहाँ से मृत्यु को मुक्त किया। जहाँ जाने
से यमराज भी डरता था। श्रीहनुमानजी ने दरवाजे को तोड़ कर मृत्यु को मुक्त कर दिया। कुबेर का तो आपको
मालूम है कि रावण ने सारा राज्य ही छीन लिया था। यह लंका पहले कुबेर के पास थी। पुष्पक विमान कुबेर
के पास था। सारा राज्य, सारा वैभव सब कुछ रावण ने छीन लिया था। पुनः सारा का सारा वापस कराना यह
हनुमानजी के वश की बात थी। अब कुबेरजी क्या कहते हैं और बाकी की तो बात छोड़ दीजिए। दिगपाल
चूंकि रावण के यहाँ चाकरी करते थे। दिगपालन में नीर भरावा ।। सभी विद्वान, सभी कवि जहाँ तक हो
सकता है यह श्री हनुमानजी की प्रशंसा करते हैं। अरे और तो और रावण स्वयं हनुमानजी की प्रशंसा करता
है। है कपि एक महाबलशीला । रावण सामान्यता किसी की प्रशंसा नहीं करता, जो दिगपालों से भी पानी
भराता था, वह भी हनुमानजी की प्रशंसा कर रहा है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग उन्नीस।। कृपासिंधु कर दास।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग उन्नीस।। कृपासिंधु कर दास।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं॥
हजारों बदन (सारा जगत) या स्वयं शेषनाग जिनका यशोगान करते हैं। हनुमानजी ने अपने यश का
त्याग कर दिया और भगवान् कहते हैं मैं तो तेरे यश का गुणगान करूँगा ही, मैं शेषनाग से भी तेरा गुणगान
कराऊँगा। हनुमानजी की प्रशंसा लक्ष्मणजी बहुत करते हैं। हालांकि लक्ष्मणजी को ईर्ष्या होनी चाहिए थी जब
प्रभु ने यह बोला था कि तुम मम प्रिय लक्ष्मण तै दूना। लेकिन उनको ईर्ष्या नहीं हुई क्योंकि वह उनके
साथ थे। लक्ष्मणजी गद्गद् हो उठे कि भगवान् का कोई इतना प्रिय भी हो सकता है काश मैं भी इतना प्रिय
होता। ईर्ष्या न हुई बल्कि आनन्द हुआ लक्ष्मणजी ने कहा हनुमान् तुम सचमुच हमसे ज्यादा भाग्यशाली हो ।
बोले क्योंकि मैं तो जानकीमाँ के साथ तेरह वर्ष से लगातार साथ-साथ था, तो भी मैं माँ का विश्वास नहीं
जीत पाया। माँ को मेरे ऊपर सन्देह हो गया तभी तो माँ ने भी विश्वास ठुकरा दिया। जब मैंने कहा था कि
प्रभु पर कभी संकट नहीं आ सकता। लेकिन तुम माँ के पास थोड़ी देर को ही गए थे लेकिन माँ को तुमने
भरोसा दिला दिया-
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन विस्वास ।।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिन्धु कर दास ।।
जानकीजी समझ गयीं, मनसा, वाचा, कर्मणा यह भगवान् का दास है। इसलिए लक्ष्मणजी ने कहा हनुमान्
मैं यह घोषणा करता हूँ कि भगवान् का काम मेरे बिना तो चल सकता है लेकिन भगवान् का काम तुम्हारे
बिना नहीं चल सकता-
दुनिया चले न श्रीराम के बिना। रामजी चलें न हनुमान के बिना ॥
जब से रामायण पढ़ ली है एक बात मैने समझ ली है ।
रावण मरे ना श्रीराम के बिना लंका जले ना हनुमान के बिना ।।
लक्ष्मण का बचना मुश्किल था कौन बूटी लाने के काबिल था ।
लक्ष्मण बचे ना श्रीराम के बिना बूटी मिले ना हनुमान के बिना ।।
सीता हरण की कहानी सुनो-एक बार मेरी जबानी सुनो।
सीता मिले ना श्रीराम के बिना पता चले ना हनुमान के बिना ।।
रामजी चले ना हनुमान के बिना ।।
भगवान् को बहुत अच्छा लगा कि लखन प्रशंसा कर रहे हैं, क्योंकि साथ रहनेवालों में कभी-कभी साथी
के लिए ईर्ष्या पैदा हो जाती है। आज मेरे लखन के हृदय में भी हनुमान् के लिए अत्यधिक स्नेह है। ऐसा
कहकर प्रभु ने हनुमान् को पुनः कण्ठ से लगा लिया। कण्ठ से लगाने का अर्थ है कि हनुमान् तुम हमेशा मेरे
कण्ठ में रहोगे। तुम्हारी कण्ठ और जिह्वा पर मैं हूँ और मेरे कण्ठ और जिह्वा पर भी हमेशा तुम ही रहोगे। मेरे
कण्ठ से जब भी निकलेगा तुम्हारा ही नाम निकलेगा।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग अठारह।। दैन्यता ।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग अठारह।। दैन्यता  ।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥भगवान् ने हनुमानजी को अपने हृदय से लगा लिया। भगवान् अपने मुख से बार बार हमेशा हनुमान् की
प्रशंसा करते हैं। शंकरजी स्वयं बोले-
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई । बार बार प्रभु निज मुख गाई ।।शंकरजी के नेत्र डबडबा गए, हे गिरिजा, हे पार्वती, हे भवानी हनुमानजी की प्रशंसा बार-बार स्वयं
भगवान् अपने मुख से करते हैं। जब भी कोई हनुमानजी की प्रशंसा करता है प्रभु उसे रोक लेते हैं। नहीं,
आपको मालूम नहीं, हनुमानजी के बारे में सुनना है तो मैं सुनाऊंगा, मुझे जितना मालूम है। भरतजी को कहा
भगवान् ने भैय्या इस वानर को एक बार निगाह भरकर देख लो। रघुवंश की इकहत्तर पीढ़ियां भी हनुमान् की
सेवा में लग जाएं तो भी रघुवंश कभी हनुमानजी के ऋण से उऋण नहीं हो पाएगा। भरत भाई -कपि से
उऋण हम नाहीं। भरत, रघुवंश में आज जो दीपावली उत्सव दिखाई दे रहा है, यह मेरे हनुमान् की कृपा से
है। अगर मेरे हनुमान् ने संजीवनी लाकर नहीं दी होती तो मेरा लखन जीवित नहीं होता तो पूरा रघुवंश डूब
गया होता। रघुवंश अगर आज है तो हनुमानजी की कृपा से और भगवान् स्वयं बोले-
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउ करि बिचार मन माहीं।।प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ।। आप कर्जदार की कमजोरी और मजबूरी जानते हैं। साहूकार के सामने कर्ज लेनेवाला हमेशा झुका रहता है। भगवान् कहते हैं कि मुझे झुके रहने में भी कोई संकोच नहीं तेरे इतने बड़े उपकार मेरे ऊपर हैं कि चाहने के बाद भी मैं तेरे ऋण से उऋण नहीं हो सकता। राम ने कहा कि हनुमान्, तू मुझे मेरे भरत भैय्या के समान।प्रिय है। भरतजी के भाई समान हनुमानजी को कहा इसके कई अर्थ हैं। एक तो उपासना की दृष्टि से और एक सांसारिक दृष्टि से भी, दोनों दृष्टियों से श्रीहनुमानजी, भरतजी के भाई हैं। सांसारिक दृष्टि से भी अगर।विचार करें आपने वह कथा तो सुनी होगी। हनुमानजी भी रघुवंशी हैं। जिस प्रसाद से इन चारों भाईयों का जन्म हुआ, उसी यज्ञ के प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी जन्म हुआ। प्रसाद के रूप अलग-अलग, श्रीहनुमानजी का यश भी रघुवंशी ही हैं। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा था कि बरनउँ रघुबर बिमल जसु अर्थात् हनुमानजी के यश का वर्णन नहीं कर रहा हूँ बल्कि रघुवर के यश का वर्णन कर रहा हूँ। क्योंकि आप रघुवंशी हैं, रघुवर माने रघुकुलश्रेष्ठ हैं। जिनको भगवान् स्वयं रघुवर श्रेष्ठ कह रहे हैं। सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। उनकी श्रेष्ठता का कौन वर्णन करें। जिस प्रसाद से श्रीभरतजी का जन्म हुआ है उसी प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी हमने संतों के श्रीमुख से सुना है कि पायस प्रसाद लेकर दशरथजी राजभवन में आए हैं। कैकेयीजी सबसे सुन्दर भी थीं और दशरथजी को सबसे प्रिय भी थीं तो कैकेयीजी को मालूम था कि प्रसाद मुझे दिया जाएगा और।कैकेयीजी को विवाह के समय के वरदान की भी जानकारी थी कि मेरे पिताजी ने मेरा विवाह इस शर्त पर
किया है कि मेरे गर्भ से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा। संतानों की उत्पत्ति के लिए पहले मुझे ही दिया जाएगा, लेकिन हुआ इसके उल्टा। सबसे पहले दशरथ जी ने प्रसाद का आधा भाग कौशल्या जी को दिया और आधे का आधा कैकेयी जी को दिया। कैकेयी जी का माथा ठनक गया। कैकेयी जी क्रिया शक्ति
हैं । और क्रिया बहुत जल्दी ठनकती है। क्रिया में अहंकार होता है। अहंकार हमेशा उनकता है। प्रसाद पाकर प्रसन्न होना चाहिए। माथा ठनका लिया। प्रसाद तो कृपा से मिलता है। कैकेयी कुनमुना रही थी और कुनकुना रही थी तभी  ऊपर चील उड़ रही थी, वह हाथ से प्रसाद लेकर उड़ गयी। जो मिला था वह भी चला गया। नियम यह है कि जो मिला है वह प्रभु का प्रसाद है। शीश पर धारण करो और उसे स्वीकार करो। परमात्मा के दिए गए प्रसाद पर भी नुक्ताचीनी करोगे तो जो दिया है वह भी चला जाएगा। अब तो हाहाकार मच गया। यहाँ से प्रसाद लेकर चील जब आकाश में उड़ रही थी तो अचानक पवन का तेज झौंका आया चूंकि पवन तो कृपा करने ही वाले थे और चील के मुख से वह प्रसाद गिरा और प्रसाद सीधे अंजनाजी की गोद में जा गिरा, देखो।कृपा के लिए कोई पात्रता की आवश्यकता नहीं। कृपा प्रतीक्षा से आती है, कृपा स्वयंमेव आती है। दया मांगनी पड़ती है। कृपा प्रसाद के रूप में आती है। अंजनाजी स्थिर बैठी थीं। कैकेयीजी चंचल थीं, आया प्रसाद चला गया। अंजनाजी शांत स्थिर बैठी थीं कृपा का प्रसाद अपने आप गोदी में आ गया। प्रतीक्षा करिए, धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करिए। प्रभु की प्रतीक्षा का प्रसाद स्वयंमेव आएगा, पंथ स्वयं आएगा । अहिल्याजी बैठी थी स्थिर चित्त धैर्यपूर्वक, भगवान् स्वयं अहिल्याजी के द्वार पर आ गए। शबरी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा में बैठी है भगवान् शबरीजी के द्वार पर आ रहे हैं। विदुर- विदुरानीजी धैर्यपूर्वक अपनी कुटिया में बैठे कीर्तन कर रहे हैं प्रतीक्षा कर रहे हैं। भगवान् स्वयं आकर द्वार खटखटाते हैं। प्रसाद प्रतीक्षा प्रभु कृपा से मिलता है और उस प्रसाद का सेवन अंजनीमाँ ने किया है। तो जिस प्रसाद से श्रीभरतजी का जन्म हुआ। उसी प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी जन्म हुआ। इसलिए भगवान ने कहा है कि तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई। भगवान् जब लक्ष्मणजी की मूर्छा के समय रो रहे थे। तो रोते-रोते प्रभु बोल रहे थे। कि मिलइ न जगत सहोदर भ्राता । देखो मरण के रुदन में पुरानी पुरानी घटनाएं मनुष्य याद करके रोता है। आपने माताओं को रोते देखा होगा वह किसी ऐसे अवसर पर जब रोती हैं तो बोलती जाती हैं। पुरानी पुरानी घटनाएं उनको याद आती रहती हैं। रोती जाती हैं तो रुदन में हृदय निर्मल होता है और निर्मल हृदय में से पुरानी बातें याद आती जाती हैं। भगवान् कह रहे हैं मिलइ न जगत सहोदर भ्राता । सहोदर का अर्थ है एक ही गर्भ से पैदा होना तो यहां कई बार प्रश्न किया कि लक्ष्मणजी तो सहोदर नहीं थे। भगवान् सहोदर क्यों बोल रहे हैं। तो भगवान् यहाँ भी पुरानी बात को याद कर रहे हैं। आपको मालूम होगा कि जिस समय प्रलयकाल होता है उस समय सारी सृष्टि जलमग्न होती है, तो सृष्टि का निर्माण उस समय संकल्प से होता है तो सबसे पहले
उस प्रलयकाल में एक स्वर्ण का अण्डा आता है। आदिनारायण और शेषनारायण उस स्वर्ण अण्डे से प्रकट
होते हैं। वेद में इसका मंत्र है-
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे । भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ॥ सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् । कस्मैदेवाय हविषा विधेम् ॥
ॐ हिरण्यगर्भ से आदिनारायण और शेषनारायण दोनों एक साथ प्रकट होते हैं इसलिए लक्ष्मणजी शेषनारायण के रूप में भगवान् के सहोदर हैं, इसलिए निज जननी के एक कुमारा यह जो बोला गया। यहाँ पर शंका हुई यह तो दो भाई है। दो भाई एक कैसे? परशुरामजी वाली कथा याद होगी। धरती के एकमेव पुत्र थे शेषनाग, प्रकृति के एकमेव पुत्र हैं शेषजी तो तुम माँ के अकेले पुत्र हो इसलिए भी जाग जाओ और सहोदर हो क्योंकि प्रकृति से मेरा प्राकट्य है और प्रकृति से ही तुम्हारा प्राकट्य है। इस नाते से भी तुम मेरे।सहोदर हो। तो आज जिस प्रसाद से भरतजी का जन्म हुआ है उसी प्रसाद से हनुमानजी का जन्म हुआ है। तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई। यह देह के नाते और अगर उपासना के नाते देखें तो जिस उपासना के भाव में श्रीभरतजी रहते हैं हमेशा श्रीभरतजी की आँखों में आँसू मिलेगें। उनकी झांकी का दर्शन करोगे तो डबडबातें मिलेंगे, कंपकंपाते होंठ, झुका हुआ सिर व्यग्रता, विनम्रता की मूर्ति बिल्कुल रोते हुए उनकी कभी आंखें देखो सूखी नहीं मिलेगी जैसे मीरा के नेत्र भी कभी सूखे नहीं मिलेंगे, चैतन्य महाप्रभु के नेत्र भी कभी सूखे नहीं मिलेंगे। ऐसे ही श्रीभरतजी के भी नेत्र कभी सूखे नहीं मिलेंगे।-
पुलकगात हिय सिय रघुवीरु । नाम जीह जपि लोचन नीरु ।। हृदय में श्रीराम और जानकीजी हैं। जासुहृदय आगार, बसहिं राम सर चाप धर । दैन्यता के उपासक हनुमानजी और भरतजी जिनको अपने अन्दर कोई गुण दिखाई ही नहीं देता। दास भाव के उपासक हनुमानजी साधु हैं, भरतजी भी साधु हैं। भरतजी तो केवल साधु हैं मगर हनुमानजी साधु संत के रखवाले हैं, तात भरत तुम सब विधि साधु ...... और हनुमानजी साधु-संत के रक्षक हैं साधु संत के तुम रखवारे और यह दो ही महापुरुष ऐसे हैं जिनकी चर्चा भगवान् करते हैं। भरतजी का हर समय-
भरत सरिस को राम सनेही जगु जप राम राम जप जेही ॥चौबीस घण्टे प्रतिपल,प्रतिक्षण यदि भगवान् किसी का सुमिरन करते हैं तो भरतजी का और जब भगवान्
किसी की चर्चा करते हैं तो हनुमानजी की ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई |
भगवान् ने कहा देख हनुमान् सारा जगत तो मुझे प्रभु कहकर पुकारेगा लेकिन आज मेरी घोषणा है कि
सारा जगत तुमको महाप्रभु कहकर पुकारेगा। भगवान श्रीराम प्रभु हैं और हनुमानजी महाप्रभु है-
काज किये बड़ देवन के तुम। वीर महाप्रभु देखि बिचारौ ॥कौन सो संकट मोर गरीब को । जो तुमसे नहिं जात है टारो || बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥को नहिं जानत है जगमें कपि। संकटमोचन नाम तिहारो॥ इतना बड़ा स्थान, इतनी बड़ाई हनुमानजी को मिली कि सब लोग गद्गद् हो गए। भगवान् जिसकी प्रशंसा करें उसकी तो बात ही कुछ और है। लेकिन श्रीहनुमानजी प्रशंसा से फूलते नहीं हैं। हमारी तो कोई यदि ईर्ष्या में भी प्रशंसा कर दे या हमको मूर्ख बनाने के लिए भी प्रशंसा कर दे तो भी हम फूल जाते हैं। भगवान् जिनकी प्रशंसा कर रहे हैं, हनुमानजी को प्रसन्न होना चाहिए था लेकिन हनुमानजी एकदम भगवान् के चरणों में गिर पड़े, प्रभु रक्षा करो। भगवान् कहा, क्या बात है। मैं प्रशंसा कर रहा हूँ, तुम कहते हो मेरी रक्षा करो। क्या
बात है राक्षसों से अकेले भिड़ रहे थे लंका में, तब तो तुमने मुझे नहीं पुकारा मेरी रक्षा करो और मेरे चरणों
में कहते हो कि मेरी रक्षा करो। हनुमानजी ने कहा बड़े-बड़े राक्षसों से अकेला भिड़ सकता हूँ, मुझे बिल्कुल
भय नहीं लगता लेकिन प्रशंसा के राक्षस से बहुत भय लगता है। क्योंकि इसी मुख से आपने एक बार नारदजी
की प्रशंसा की थी। नारदजी की प्रशंसा की तो वह बन्दर बन गए और मैं तो पहले से ही बन्दर हूँ। मुझे आप
अब और क्या बनाना चाहते हो? यह हनुमानजी की दैन्यता है-
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग सत्रह।।राम ते अधिक राम कर दासा ।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग सत्रह।।राम ते अधिक राम कर दासा ।।
लाय सजीवन लखन जियाये । श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥
मेघनाथ के बाण ने लक्ष्मणजी को मूर्छित कर दिया। काम के बाण ने लक्ष्य प्रेरित मन को भी मूर्छित
कर दिया। जिनका मन हमेशा लक्ष्य में रहता है वो लक्ष्य मन है। लक्ष्य क्या है-
बारेहु ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरण रति मानी ।। संत ने अपनी गोद में उठाकर लक्ष्मणजी को प्रभु की गोद में लिटा दिया और यही संत का कार्य था।
सम्पाती और जटायु दोनों को ही संत और भगवन्त ने उठाया है। गिरे को या तो संत उठाते हैं या भगवन्त् ही
उठाते हैं। लक्ष्मणजी को संत की भी गोद मिली और भगवान्त की भी गोद मिली। भगवंत की गोद, संत की
कृपा से ही मिलती है। लक्ष्मणजी को जब प्रभु ने मूच्छित देखा तो वह रोने लगे, प्रभु जब बहुत रोये-
सुत वित नारी भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ।।
अस बिचारि जियं जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ।।
तो हनुमानजी ने कहा, प्रभु रोइए मत सेवक जीवित है न, स्वामी को चिंता करने की आवश्यकता नहीं
है। विभीषणजी ने कहा, वैद्य को लाओ यहाँ से-
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरन्ता।
हनुमानजी जब भी कभी बड़ा कार्य करते हैं तो लघु रूप धरते हैं क्योंकि छोटे रहकर ही बड़ा कार्य किया
जा सकता है। बुरे संसार में भी भले लोग मिल जाते हैं। लंका में हैं, नाम है सुषेन, सुख के पास जाओगे तो
सुखी बनोगे। पूरे घर सहित वैद्य को उठा लाए। क्यों? संत का स्वभाव है एक नहीं पूरे परिवार को भगवान् के
साथ जोड़ना है। वैद्य ने कहा कि संजीवनी चाहिए। कहाँ मिलेगी? बोले धौलागिरी पर्वत पर संजीवनी क्या है?
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन संजीवन मूरि सुहाई ॥
भगवान की कथा ही संजीवनी है मिलती कहाँ है बोले पर्वत पर और पर्वत क्या है-
पावन पर्वत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना ।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी ग्यान बिराग नयन उरगारी ।।
भाव सहित खोजड़ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥
श्रीरामभक्ति की संजीवनी कहाँ मिलती है? पर्वतों पर, पर्वत क्या है? शास्त्र में वेद और पुराण ये ही
पावन पर्वत है। चार वेद, अट्ठारह पुराण, बाइस ऐसे पर्वत हैं भारत में जिनकी पूजा होती है, जिनके चरणों
(गुफाओं) में बैठकर संत लोग तप करते हैं और आराधना करते हैं। वेद शास्त्र पुराण सीधे-सीधे पढ़ेंगे तो
कुछ समझ में नहीं आएगा। जैसे शास्त्रों को पढ़कर शास्त्रों का मर्म समझ में नहीं आता, ऐसे ही पर्वत पर जो
औषधि दिखाई देती है जब तक वैद्य इसमें से रस निचोड़ेगा नहीं तब तक वह औषधि भी अपने को लाभ नहीं करती है। गुरुजन उन्हीं शास्त्रों से संजीवनी निकालकर देते हैं। मधुर-मधुर भगवान् की कथाएं निकालकर देते
हैं। इसलिए शास्त्रों को गुरुओं के चरणों में बैठकर पढ़ें, तब कुछ मिलेगा, अन्यथा तो शास्त्रों से हम निराश हो
जाएंगे। गोस्वामीजी कहते हैं कि लक्ष्मणजी को कौन मूर्छित कर सकता है? यह तो हमको शिक्षा देने के लिए
लीला की गयी है कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी यदि काम से जब मूर्छित हो जाता है तब मूर्छा कैसे दूर होती
है। उस मूर्छा को फिर भगवान् भी दूर नहीं कर सकते। रोते-रोते प्रभु थक गए, लक्ष्मणजी कोई साधारण नहीं
हैं वह तो सदैव जाग्रत हैं व सदैव प्रभु के चरणों की सेवा में हैं। ऐसा जीव जो पल प्रतिपल जाग्रत है, विवेकी
है, भगवान् की भक्ति की सेवा में रत है, ऐसे व्यक्ति को भी काम मूर्छित कर देता है। काम ने कभी किसी
को छोड़ा नहीं। कई लोग यह अहंकार करते हैं कि हमने काम को जीत लिया है। चिता पर पहुँचते-पहुँचते भी
काम अपना आक्रमण कर देता है। चिता पर लेटी हुई हड्डियों में भी काम प्रकट हो जाया करता है। इसलिए
इसका कभी अहंकार न करें। जाग्रत जीव अगर काम के बाण से मूर्छित हो जाए तो उसकी मूर्छा फिर भगवान्
भी दूर नहीं कर सकते। उसकी मूर्छा तो फिर कोई प्रबल वैराग्यवान संत, हनुमंत जैसा ही, पर्वत से संजीवनी
रूपी राम कथा लाकर जब उसे पिलाएगा, राम कथा सुनायेगा, तभी काम की, जीवन की मूर्छा से मुक्त हो
सकता है। तभी वह संजीवनी का आनन्द ले सकता है, तभी वह चैतन्य हो सकता है। श्रीहनुमानजी इसी कार्य
को करते हैं, भगवान् ने हनुमानजी को हृदय से लगा लिया और कहा कि मैंने सब कुछ सबको दिया पर हृदय
कभी किसी को नहीं दिया है। हृदय मैं तुझको देता हूँ-
मूर्छित लक्ष्मणजी को श्रीहनुमानजी जगाते हैं। संत ने अपनी गोद में उठाकर लक्ष्मण को भगवन्त की
गोद में लिटा दिया। संजीवनी क्या है, रघुपति भक्ति यहीं संजीवनी है। श्रीभरतजी को भी जब कौशल्या माँ
ने कहा था कि गुरुदेव की आज्ञा को पथ्य के रूप में स्वीकार करना जो गुरुदेव की आज्ञा थी । भोग प्राप्त
करना, राज्य प्राप्त करना। भरतजी ने कहा माँ पथ्य तो तब लिया जाता है जब बुखार उतर जाता है और यह
तो औषधि नहीं हुई। माँ ने पूछा औषधि कहाँ है तो बोले चित्रकूट एक औषधि है। भोग की मूर्छा की औषधि
तो पर्वत पर है। संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत पर ही मिलती है शास्त्र में पर्वत है-
पावन पर्बत वेद पुराना । राम कथा रुचिराकर नाना ।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी ग्यान विराग नयन उरगारी ॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी । पाव भगति मनि सब सुखखानी ॥
रामकथा ही संजीवनी बूटी है जो शुद्ध-धवल द्रोणागिरी पर्वत पर मिलती है, पर्वत क्या है? वेद और
पुराण यही पर्वत है वेद और पुराण रुपी पर्वत यह ही राम कथा रुपी संजीवनी है, जो काम से मूर्छित जीव
को जागृत कर सकती है। काम तो व्यक्ति को मार डालता है आज जिसको राम नहीं जगा पा रहे उसको संत के श्रीमुख से गायी गयी रामकथा जगा रही थी। हनुमानजी संत हैं और रामकथा रची है वेदों में, पुराणों में, संजीवनी पर्वतों के शिखरों पर मिलती है। बाईस पर्वत ऐसे हैं जिनकी परिक्रमा की जाती है, गिरराज, चित्रकूट,।कैलाश आदि यें पर्वत वेद और पुराणों के प्रतीक हैं। ये पर्वत स्थूल नहीं हैं ये जीते-जागते शास्त्र हैं, ज्ञान हैं।।इनमें ज्ञान व भक्ति के भण्डार छुपे हैं। औषधि को सीधे नहीं लेना चाहिए बल्कि वैद्य की सलाह से लें और शास्त्रों को भी सीधे न पढ़ें बल्कि गुरुओं के चरणों में बैठकर पढ़ो। शास्त्र के मर्म को मर्मी जानता है। शास्त्री
मर्मी सुमति कुदारी, इन कथाओं के पर्वतों के, वेद के, पुराण के मर्म को समझने वाले इनके भीतर की
कथाओं को समझने वाले जो सुमति जन हैं, सुमति लेकर जाओगे, श्रद्धा लेकर जाओगे तो कुछ मिलेगा, भाव लेकर जाओगे तो कुछ मिलेगा। नहीं तो, पहाड़ खोदोगे तो कंकड़, पत्थर तो मिलेंगे पर मणियां नहीं मिलेंगी।क्योंकि इनको भी ज्ञान व वैराग्य के नेत्रों से खोजना पड़ता है। तर्क और कुतर्क की बातों से कुछ नहीं मिलेगा।।कोई न कोई सद्गुरु वहाँ से यह कथा लाते हैं। वेदों में, पुराणों में जो कथा भरी हैं, उनमें से शास्त्रज्ञ, वेदज्ञ,।आचार्य, सद्गुरु, संत उन मार्मिक कथाओं को निकालकर उनके मर्म को निचोड़कर आपको देते हैं जो आपकी।मूर्छा को दूर करते हैं। जैसे पुराणों को पढ़कर लोग कहते हैं कि कुछ नहीं है केवल कपोलकल्पित कथाएं।भरी हैं। ऐसा नहीं है यह गूढ़ ज्ञान को रसीला बनाने के लिए कथानक के साथ जोड़ा गया है लेकिन हमने।कथानक को तो पकड़ लिया पर कथानक के मर्म को नहीं पकड़ा। मर्म को कोई मर्मी ही जानता है। जब
सद्गुरु के चरणों में बैठोगे हनुमानजी गुरु की भूमिका में हैं पर्वत पर गुरु आकर पर्वत से मर्म निकालकर ले
जा रहा है। कथाओं, वेदों, पुराणों के जो असली मर्म हैं वही तो संजीवनी हैं। अन्यथा तो भगवान् को सिन्धु
कहा गया है। सागर में अथाह जल है लेकिन आप एक बूँद पी सकते हैं क्या? राम सिन्धु लेकिन सज्जन कौन
है घन हैं, बादल हैं। यही बादल जब सागर से वाष्पन के बाद बरसते हैं तो ही जल बिसलेरी से भी ज्यादा
मीठा हो जाता है। डिस्टिल वाटर बन जाता है। हमारे रोगों को वही दूर करता है। सीधे-सीधे यदि सागर का
जल पियोगे तो खारा लगेगा लेकिन वही बादलों के द्वारा यदि पान करोगे तो मिठास आएगी तो शास्त्र को,
वेद को यदि सीधा-सीधा पढ़ोगे तो खारा, कसैला, कडुवा लगेगा लेकिन वही किसी संत के श्रीमुख से सुनोगे
तो कथाएं आपको मीठी व रसीली लगेंगी, मन करेगा और सुनें। चन्दन के पेड़ को यदि सूघोगे तो सुगन्ध नहीं
मिलेगी, उसको घिसोगे तो सुगन्ध मिलेगी-
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा।चन्दन तरु हरि संत समीरा।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ।।
संत ही तो भगवान् कथा की सुगन्ध को सारे विश्व में फैलाते हैं। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा है कि
मेरे मन में तो भरोसा हो गया है कि राम ते अधिक राम कर दासा । भगवान् का नाम मात्र जीव को जगा
सकता है। आज उसको स्वयं भगवान राम का रुदन नहीं जगा पा रहा है। शायद राम इस जगत में अपने से
ज्यादा अपने दास की महिमा स्थापित करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने ये लीला की। वरना लक्ष्मणजी को कौन
मूर्छित कर सकता था? क्या कोई काल को मूर्च्छित कर सकता है? यह नाटक है कभी बुद्धि से मत सोचो कि
लक्ष्मण तो मूर्छित हो गए यह मूर्छा तो हमारे और आपके मार्गदर्शन के लिए थी। यह समझाने के लिए कि
काम के आवेश से जब इतना जाग्रत जीव भी मूर्छित हो सकता है। हमारी और आपकी तो हैसियत ही क्या है।
यह लीला तो हमारे एक संत सुना रहे थे। एक तांगे में बैठकर लोग जा रहे थे। एक बूढ़ी माँ और उनका एक
नाती भी था। यात्रा में गढ्ढा आया तो घोड़ा भी गिर गया और ताँगा भी उलट गया। लोग भी गिर गए, यह
जो बुढ़िया थी धड़ाम से गिरी और मूर्छित हो गयी। बुढ़िया मूर्छित हो गयी तो थोड़ी भगदड़ मची, कोई पानी
लाए, कोई हवा करे, बड़ी देर तक बुढ़िया की मूर्छा नहीं जागी बुढ़िया का नाती जोर-जोर से चिल्ला रहा था
और बोल रहा था अम्मा कैसे नहीं जागेगी। जब-जब अम्मा मूर्छित हो जाती थी पापा जलेबी लाकर खिलाते थे
उस भीड़ में बालक की किसी ने नहीं सुनी तो बहुत देर बाद लेटे-लेटे बुढ़िया बोली अरे सब अपनी-अपनी
बकवास में लगे हो उस बालक की कोई नहीं सुन रहा है जो बच्चा कह रहा है वह तो सुनो, तो यह मूर्छा
का नाटक था। यह तो हमारे लिए था और जब श्रीहनुमान जी की लायी संजीवनी से लक्ष्मणजी की मूर्छा दूर।हो गयी तो सब लोग भगवान् की जय-जयकार करने लगे तो भगवान् ने कहा नहीं मेरी जय जयकार मत करो
यह तो हनुमानजी की जयकार करो-
वीर हनुमाना, अति बलवाना, राम नाम रसियो रे ।
प्रभु मन बसियो रे ||
जो कोई आवे, अरजी लगावे, सबकी सुनियो रे ।
प्रभु मन बसियो रे, वीर हनुमाना ।।
बजरंगबाला, फेरूँ तेरी माला,
संकट हरियो रे प्रभु मन बसियो रे, वीर हनुमाना ॥
रामजी का प्यारा, सिया का दुलारा,
विपदा हरियो रे, प्रभु मन बसियो रे, वीर हनुमाना।
ना कोई संगी, हाथ की तंगी,
जल्दी करियो रे, प्रभु मन बसियो रे, वीर
अरजी हमारी, मरजी तुम्हारी,
हनुमाना ॥
कृपा करियो रे, प्रभु मन बसियो रे, वीर हनुमाना।।
भगवान् स्वयं श्रीहनुमानजी की जय-जयकार कर रहे हैं-
लाय सजीवन लखन जियाये ।श्री रघुबीर हरषि उर लाये।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग सोलह।।हनुमानजी का विराट रूप।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग सोलह।।हनुमानजी का विराट रूप।।
भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचन्द्र के काज सँवारे ॥
असुरों का संहार भीम रूप धर कर माने बहुत भारी रूप धरकर भीम कोई नाम नहीं है, भीम तो गुण है । स्वप्न में भी रावण को हनुमानजी याद आ जाते हैं तो एकदम रावण कांपने लगता है। जिस समय अंगदजी
आए हैं पूरी लंका में शोर हो गया-
भयउ कोलाहल नगर मझारी आवा कपि लंका जेहिं जारी । अब धौं काह करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥ पूरी लंका में कोलाहल मच गया कि वही बंदर आ गया जो लंका जलाकर गया था और यह अंगदजी थे, लेकिन अंगदजी में भी हनुमानजी आकर बस गए थे। रावण स्वप्न में भी बड़बड़ाता था। अरे इस बंदर को पकड़ो, इस बंदर की पूँछ काटो, अरे इस बंदर की पूँछ जलाओ। रावण को सोते-जागते, दिन में, रात में हर समय हनुमानजी का ही स्मरण होने लगा था। हनुमानजी का भक्त हो गया था तभी तो उसे स्वप्न व जागृत में भी हनुमानजी ही  दिखाई देते। चूंकि हनुमानजी ने इसकी नाक में बार-बार अपनी पूँछ दी थी। जब हनुमानजी जानकीजी की खोज कर रहे थे-
मंदिर-मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ।।गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति विचित्र कहि जात सो नाहीं ॥सयन कियें देखा कपि तेही । मन्दिर महँ न दीखि बैदेही ॥ उस समय  रावण खराटे लेकर सो रहा था तो हनुमानजी अंधेरे में खड़े हो गए और पूँछ लम्बी की और इसकी नाक घुमा दी ।फिर छींक पे छींक । पूरी रात परेशान। हर समय हनुमानजी की पूँछ के कारण
परेशान। हनुमानजी की युद्ध कला भी अलग प्रकार की थी। आपने पूरे युद्ध में हनुमानजी को गदा लेकर नहीं
देखा होगा। चार प्रकार की सेना जब रावण की आया करती थी तो उसी की सेना को उसी से भिड़ाभिड़ा कर
मार देते थे, हाथी से हाथी.....हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे, रथिन सों रथ बिदरनि बलवानकी।
चंचल चपेट, चोट चकोट चकोट चाहें,।हहरानी फोजें भहरानी जातुधानकी ॥।बार-बार सेवक सराहना करत रामु।'तुलसी' सराहै रीति साहेब सुजान की।।लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट, देखो-देखौ लखन ! लरनि हनुमान की। रामजी लखन से कहते थे कि लखन जरा युद्ध बंद कर दे और देख तो सही हनुमान् कैसा लड़ रहा
है। हाथी को हाथी से मारा, घोड़ों को घोड़ों से, रथों को रथों से पटककर और पैदल सिपाहियों को पूँछ पर
लपेट कर धरती पर पटक देते थे। लंका का मेन गेट लोगों की लाशों से हनुमानजी पाट देते थे-
देखो-देखो लखन लरनि हनुमान की।
रावण रोज शाम पत्रकार वार्ता बुलाता था। पूछा करता था क्या समाचार है तो पत्रकार समाचार देते थे
सत्यानाश हो गया। बस थोड़ा बहुत और बचा है। जब रावण को लगा कि इसने मेरी सेना को मार डाला ।
तब रावण ने अमर सेना को भेजा। रावण के पास अमर सेना थी जिसे किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता
था। भगवान् के पास अमर सेना का समाचार मिला, प्रभु चिंता में डूब गए अमर को कैसे मारा जा सकता है।
हनुमानजी ने कहा, सरकार चिन्ता मत कीजिए मैं जाता हूँ लड़ने। अरे भैया, तुझे मालूम नहीं अमरसेना को
कोई नहीं मार सकता। बोले, चिंता मत कीजिए अगर सेना अमर है तो हम भी अमर हैं। तुम कैसे अमर हो
बोलो माँ ने आशीर्वाद दिया है-
अजर अमर गुणनिधि सुत होहू । करहिं बहुत रघुनायक छोहू ॥ अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता ॥ तो भगवान् ने कहा ठीक है, अमरता का आशीर्वाद तो है लेकिन तुम युद्ध कैसे करोगे? बोले, महाराज आप चिंता मत कीजिए। आप टीवी खोलकर बैठ जाइए लाइव टैलीकास्ट आप यहीं बैठकर देख लीजिए।।हनुमानजी गए, जब अमर सेना आई तो हनुमानजी जानते थे कि ये मारे नहीं जा सकते हैं। बुराई छोड़ी नहीं जा सकती है तो उसको कोई कैसे सुधार सकता है। तो हनुमानजी ने अमर सैनिकों को अपनी पूँछ में लपेटा और इतनी ताकत से ऊपर फेंका कि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण की सीमा से भी ऊपर उड़ा दिया। एक कक्षा ऐसी होती है जहाँ पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण समाप्त होता है तथा ऊपर का गुरुत्वाकर्षण भी समाप्त होता है। इसके बीच में एक स्पेस होता है जिसमें वे विमान (राकेट) घूमा करते हैं। बोले, जाओ चक्कर काटते रहो, अब मरनेवाले तो हो नहीं, अब न तुमको सुधारा जा सकता है न ही बदला जा सकता है। सायंकाल जब रावण ने बुलाया पत्रकारों को, रावण ने कहा क्या बात है, समाचार बताइए, बोले पहुँच गए। कहाँ? बोले, सब ऊपर
गए और जब पूरी घटना सुनी रावण ने तो रावण एकदम जल गया इस बंदर की तो पूँछ ही उखाड़ दी जाए।
अरे मूर्ख, संतों की पूँछ नहीं उखाड़ी जाती बल्कि चरण पकड़े जाते हैं। संतों की यदि प्रतिष्ठा उखाड़ने की
कोशिश करोगे तो खुद ही उखड़ जाओगे, शास्त्र भी कहता है- संतन के संग लागि रे तेरी अच्छी बनेगी।
अच्छी बनेगी तेरी किस्मत जगेगी होय तैरौ बड़भाग रे ॥
तेरी अच्छी बनेगी....॥
रावण मूर्ख है, संतों की प्रतिष्ठा की पूँछ उखाड़ना चाहता है। रावण ने पता लगाना चाहा कि यह बंदर कभी अकेले में बैठता है क्या? बोले, सायंकाल यह बन्दर सन्ध्या करता है सागर किनारे रावण, हनुमान जी की पूँछ उखाड़ने के लिए चुपचाप छोटा सा रूप बनाकर गया। हनुमानजी ध्यान में बैठे थे तो रावण ने जाकर
पीछे से हनुमानजी की पूँछ पकड़कर उखाड़ने लगा हनुमानजी ने देखा कि यह मेरी पूँछ पकड़े है। बोले, कौन
है छोड़ दे और रावण ने जोर से पूँछ खींच दी। पूँछ तो उखड़ी नहीं मगर हनुमानजी समझ गए कि रावण है।
पूँछ सहित रावण के साथ हनुमानजी आकाश में उड़ गए, गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। जो रावण पूँछ
उखाड़ना चाहता था, अब आकाश में उड़ते-उड़ते शंकर जी से प्रार्थना करने लगा कि हे शंकर भगवान्, कहीं
पूँछ न उखड़ जाए। क्योंकि मालूम है कि यदि पूँछ उखड़ गयी तो मैं भी गया। जिसे उखाड़ने की कोशिश कर
रहा था उसी को बचाने की प्रार्थना कर रहा था- भीम रूप धरि असुर संहारे रामचन्द्र के काज सँवारे ॥ प्रभु का काज -निसिचर हीन करहुँ महि,भुज उठाइ पन कीन्ह ॥
धरती से निशिचरों को हीन कर देना, मारे तो नहीं पर धरती से हीन तो कर ही दिया आकाश में उड़ाकर ।
।। जय श्री राम जय हनुमान

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग पंद्रह।।हनुमानजी का सूक्ष्म रूप।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग पंद्रह।।हनुमानजी का सूक्ष्म रूप।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥
हनुमानजी जब जानकीजी के पास आए, माँ के पास आए, तो बहुत छोटे, सूक्ष्म बनकर । भक्ति तो
स्वयं विराट है लेकिन मिलती दैन्य को ही है। चैतन्य महाप्रभु की उद्घोषणा बिल्कुल नीच, छोटा, तिनके
जैसा लघु अति दैन्य दिखाई न दे, भक्ति वह कर सकता है जो कभी किसी को दिखाई न दे। भजन करते
जो दिखाई देता है लेकिन लोग देखें कि हम भजन कर रहे हैं तो लोगों को चिन्ता ज्यादा रहती है। भगवान्
हमको देख पा रहे हैं या नहीं यह चिन्ता हट जाती है। फिर चर्चा लोगों में होती है कि बड़े भजनानन्दी हैं।
चर्चा भगवान् में नहीं होती, जानकीजी माँ हैं, भक्ति हैं, शान्ति हैं, शुद्धि हैं। कई प्रकार से आप इसका दर्शन
करेंगे। भक्तिदेवी के सामने हमेशा छोटे बनकर रहो। जितने छोटे बन जाएंगे, उतने ही भक्ति के निकट पहुँच
जाएंगे। मनुष्य का अहंकार मनुष्य से बुरे कार्य करा देता है। कौन हमको रोक सकता है, किसी की हैसियत
ही क्या है। ऐसे में ही होता है। जब तक व्यक्ति अपने को छोटा मानता है तब तक अपने को दुर्गुणों से बचा
सकता है। जब व्यक्ति अपने को बड़ा अहंकारी और सर्वज्ञ मान लेता है वह फिर गढ्ढों में गिरना प्रारम्भ कर
लेता है। जो अपने को छोटा मान ले वह शांत रहेगा। जो बड़ा मानेगा वह अशांत रहेगा। कोई बैठने को न कहे
इसी से माथा ठनक जाएगा, पारा चढ़ जाएगा। कुर्सियां पड़ी हैं वह खड़ा क्योंकि वह इंतजार कर रहा है कि
कोई कहेगा हाथ जोड़कर कि आइए बैठिए। जिसने अपने को छोटा कर लिया वह शुद्ध भी रहेगा और शान्त
भी। भक्ति तो बिल्कुल किसी को पता न लगे। किसी के सामने नहीं रोया जाता है जो सामने रोया जाता है।
वह दिखावा है। एकांत में भगवान् के लिए आँसू बहाना तो हनुमानजी छोटे बन गए। जानकीजी माँ हैं माँ के
सामने कभी बड़े मत बनो और माँ के सामने कभी बड़े होकर मत जाओ, बिल्कुल छोटे बने रहो क्योंकि माँ
के सामने तुम सदा छोटे ही रहोगे। माँ ने ही तो बालक बनाया है तुमको। अरे इस देश की माताओं की ही तो
ताकत है जिन्होंने ब्रह्म को भी बालक बना दिया। यह अधिकार भगवान् ने किसी को नहीं दिया केवल भारत
की माता को दिया है। अनन्त कोटि ब्रहमाण्ड का नायक विराट भी सूक्ष्म बन गया। माँ ने कहा कि भगवान्
से छोटे हो जाइए भगवान् छोटे होते चले गए-
कीजै शिशु लीला अतिप्रिय शीला ॥
शिशु लीला माने रोओ, ब्रह्म को भी जो रूलाने की ताकत रखती है वह भारत की माँ है। माँ के सामने
कभी बड़े मत बनो और माँ कभी आपको बड़ा समझेगी भी नहीं। आप कितने भी बड़े हो जाइए, माँ आपको
लल्ला ही कहेगी। माँ कभी भी आपको जी कहकर नहीं बुलाएगी। चाहे आप जितने भी जी हो जाएं संसार में,
माँ आपको आपका बचपन का नाम लेकर, बिट्टू, गुड्डू कहकर ही बुलाएगी और इसी में आनन्द है। अगर
माँ भी तुमको जी कहकर आदर देकर बुलाए तो इसका अर्थ है कि माँ से दूरी बढ़ गयी, फिर ममत्व गया ।
व्यवहार जग गया तो माँ के सामने कभी बड़े मत बनो। डोंगरे जी महाराज सुनाया करते थे कि एक परिवार में
हम गए, बेटा करीब इण्टर में पढ़ता होगा। डोंगरेजी महाराज बोले हमने उनसे पूछा बेटा अपनी माँ के पैर छूते हो कि नहीं, माँ के पैरों में प्रणाम करते हो कि नहीं। बोला, छोटा था तब तो करता था अब नहीं, क्यों? माँ
कुछ समझती नहीं। डोंगरेजी महाराज बोले मुझे इतना क्रोध आया। मैने कहा माँ क्या तुझे कलेक्टर समझेगी।
माँ तुझे क्या समझेगी और तू माँ के सामने है क्या? डोंगरे जी बहुत कष्ट भरी वाणी में बोला करते थे कि
जिस माँ की गोद में तूने आँख खोली है उसी माँ को तू आँख दिखाता है। तुझे शर्म नहीं आती है। समर्थ गुरु
स्वामीरामदासजी सिद्धसंत हुए हैं। इनकी सिद्धियों की, चमत्कार की बड़ी चर्चा महाराष्ट्र में होने लगी। अनेक
वर्ष पहले घर छोड़ कर चले गए। बेटे की याद में माँ रोते-रोते अँधी हो गयी। माँ तो माँ है। शंकराचार्य जैसे
विरक्त संत भी माँ की अन्त्येष्टि करने आये माँ भगवान् से भी बड़ी हुआ करती है जो भगवान् को भी बना
दे उस माँ से कौन बड़ा हो सकता है? रामदासजी की भी इच्छा हुई कि चलो माँ के दर्शन कर आएं। उस
समय रामदास जी महाराज की सिद्धि प्रसिद्धि बहुत हो चुकी थी तो द्वार पर आकर उन्होंने माँ को आवाज
दी माँ भिक्षाम देहि, दोनों दम्पत्ति अन्दर बैठे थे तो पिता ने कहा कोई साधु है क्या? माँ ने कहा साधु नहीं,
मुझे लगता है कि मेरा रामू आ गया है। पिता ने कहा बावली हो रही है? रामू को चालीस साल हो गए घर
से गए हुए। हमने दूसरी बार उसका नाम भी नहीं जाना, सुना है, कहाँ इधर आएगा? माँ हूँ न मैं, उसकी
आवाज पहचानती हूँ। अन्धी माँ भी अपने बेटे की आवाज पहचानती है, रामू है। माँ रामू-रामू करके दौड़कर
आयी और स्वामी रामदासजी ने प्रणाम किया, माँ के चरणों से लिपटे। माँ ने यह नहीं कहा कि मैंने सुना है।
तू बहुत सिद्ध हो गया है। ऐसा नहीं कहा। माँ ने कहा, रामू मैंने सुना है कि तू बड़ा जादूगर हो गया है। तेरी
जादूगरी की चर्चा बहुत सुनने को मिलती है। अरे बेटा, मेरे ऊपर भी जादू कर दे मेरी आँखें अंधी हो गई हैं।
मैं तुझे देख सकूं मेरे ऊपर भी जादू कर दे और ऐसी कथा आती है कि स्वामी जी ने फिर दोनों हाथों से माँ
की आँखों को स्पर्श किया और माँ की ज्योति वापस आ गयी तो बेटा कितना बड़ा भी सिद्ध होगा पर माँ
के लिए तो वह जादूगर ही है। माँ तो भगवान् की भी पिटाई कर सकती है और बंधन में बांध सकती है।
इसलिए अगर छोटे बनने की, विनम्रता की कला आ गयी तो राक्षसों की नगरी में भी हमको संत और भक्ति
के दर्शन हो सकते हैं। आखिर राक्षसों की नगरी है लंका, लेकिन हनुमानजी को संत मिले कि नहीं। आखिर
विभीषण कौन है, लंकिनी कौन है, त्रिजटा कौन है? क्या इनको संत नहीं मानेंगे। हनुमानजी को लंका में भी
संत मिल गए और हमको वृन्दावन में भी दिखाई नहीं दिए। हम पूरा जीवन इसी तर्क-वितर्क में हैं कि कौन
सिद्ध है, शुद्ध है, बड़े हैं, प्रसिद्ध हैं किनका दर्शन करें?
अरे कदम-कदम पर आगे पीछे संतों में बैठे हो, फिर कहते हैं कोई संत हो तो बताइए। जब तुम्हारी
आँखें ही अंधी हैं तो तुमको दिखेगा कैसे? संतों को मत देखो, अपने भीतर की श्रद्धा को देखो, तुम्हारे भीतर
श्रद्धा की खिड़की है तो संत के दर्शन होंगे। खिड़की बंद हो गयी तो सूर्य का क्या दोष, सूर्य तो उदित है।
दरवाजा ही बंद है तो इसके लिए क्या करें। हमारा अहंकार संत मिलन नहीं होने देता, हमारा झूठा बड़प्पन संतों के दर्शन नहीं होने देता। चार शब्द अंग्रेजी के आ गए, पागल हो गए बस अब हमारे बराबर कोई योग्य नहीं
क्योंकि हम अपनी गिटपिट-गिटपिट से उस सरल साधु के हृदय को तोलना व नापना चाहते हैं। तुम्हारा क्या
लेना-देना, तुम आदर दो, न दो, मानो तो, न मानो तो, उस पर क्या अन्तर पड़ने वाला है लेकिन तुम जीवन
भर अभागे रह जाओगे क्योंकि तुमको कृपा नहीं मिलेगी। तुम केवल अकड़ और क्रोध लेकर इस दुनिया से चले जाओगे। यदि अकड़कर रहोगे तो भार हमेशा सिर पर ढोओगे, शीश झुकाओ तो भार नीचे गिर जाएगा। जब हनुमानजी का जानकीमाँ से वार्तालाप होने लगा तो माँ से कहा कि माँ चिंता मत करो, धैर्य धारण करो।भगवान् आएंगे और आपको आदर सहित यहाँ से ले जाएंगे। माँ ने मन में सोचा कि बंदर बोलता अधिक है।
जरा सा बंदर है और बातें बहुत बड़ी-बड़ी करता है। माँ ने पूछा क्यों हनुमान-
हैं सुत कपि सब तुम्हहिं समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। माँ ने पूछा क्या भगवान् के पास जितने भी बन्दर हैं सब तुम्हारे जैसे ही हैं क्या? हनुमानजी ने कहा
नहीं माँ हमारे जैसा कोई नहीं है। उन सबमें हम ही बड़े हैं बाकी तो सब छोटे छोटे हैं। माँ ने कहा तो फिर
हो गया काम, हमारी मुक्ति भी हो गई और तुम्हारे प्रभु ने लंका भी जीत ली? हनुमानजी ने पूछा माँ ऐसा क्यों
बोलती हो, क्या आपके मन में कुछ संदेह है, बोली हाँ-
मोरें हृदय परम सन्देहा । सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ॥ यहाँ सभी राक्षस बहुत बड़े-बड़े हैं और तुम सब छोटे-छोटे इसलिए मेरे मन में संदेह है। हनुमानजी ने
माँ को जयश्रीराम कहा और-
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा ॥
एकदम हनुमानजी अति विराट हो गए, माँ ने आँखें बंद कर लीं। बस बस सीता मन भरोस तब भयऊ,
पुनि लघुरुप पवनसुत लयऊ। पुनः लघु रूप जानकीजी प्रसन्न हो गईं। माँ ने कहा कि जब तू इतना विराट,
इतना बड़ा है तो तू मेरे पास छोटा क्यों आया। हनुमानजी ने कहा माँ बेटा कितना भी बड़ा हो जाए माँ को हमेशा
छोटा ही दिखाई देता है। सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥ श्रीहनुमानजी माँ
के सामने गए सूक्ष्म रूप धारण कर और जब बुराई के सामने गए तो विराट रूप धर कर हम बुराई के सामने
कई बार छोटे हो जाते हैं। बड़ों के सामने छोटे बनो, श्रेष्ठ के सामने लघु बनो, लेकिन बुराई के सामने छोटे हो
जाओगे तो बुराई सटक लेगी आपको। बुराई के सामने अपने को इतना बड़ा कर लो कि वह आपके ऊपर प्रहार
तो क्या देख भी न सके आपकी ओर, जब हनुमानजी लंका जला रहे थे तो उस समय कैसा दृश्य था-
बालधी बिसाल बिकराल, ज्वाल ज्वाल मानौं,
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है ॥
कैंधौ ब्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु ।
बीररस बीर तरवारि सो उघारी है ।
'तुलसी' सुरेस चापु कैंधौ दामिनी कलापु,
कैंधों चली मेरु ते कृषानु सरि भारी है ।।
देखें जातुधान जातुधानी अकुलानी कहैं,
काननु उजार्यो अब नगरु पजारि है ।
पूरे आकाश में अग्नि की लपटें खड़ी हो गयीं, बुराई के सामने जब संघर्ष करना हो तो इतने प्रबल हो
जाइए कि बुराई का साहस ही न हो। हनुमानजी को जब आग लगाने की आज्ञा हो गयी तो हनुमानजी भी
प्रसन्न हो गए। मैं समझ गया कि शारदा प्रसन्न हो गयीं। क्योंकि रावण की जिह्वा पर आकर बैठ गयी। जब
त्रिजटा ने कहा था कि सपने वानर लंका जारी मैं सोच रहा था कि कहाँ से व्यवस्था करूंगा। वाह माँ शारदा
बड़ी तूने कृपा की, प्रभु के कारण तूने बड़ा हाथ बंटाया।
ऐसे श्री हनुमानजी जो हर जगह अपने को छोटा मानते हुवे सदा बड़ा काम ही करते हैं,अपनी कृपा हम सब पर बनाए रखें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।