रविवार, 12 जनवरी 2025

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग अठारह।। दैन्यता ।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग अठारह।। दैन्यता  ।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥भगवान् ने हनुमानजी को अपने हृदय से लगा लिया। भगवान् अपने मुख से बार बार हमेशा हनुमान् की
प्रशंसा करते हैं। शंकरजी स्वयं बोले-
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई । बार बार प्रभु निज मुख गाई ।।शंकरजी के नेत्र डबडबा गए, हे गिरिजा, हे पार्वती, हे भवानी हनुमानजी की प्रशंसा बार-बार स्वयं
भगवान् अपने मुख से करते हैं। जब भी कोई हनुमानजी की प्रशंसा करता है प्रभु उसे रोक लेते हैं। नहीं,
आपको मालूम नहीं, हनुमानजी के बारे में सुनना है तो मैं सुनाऊंगा, मुझे जितना मालूम है। भरतजी को कहा
भगवान् ने भैय्या इस वानर को एक बार निगाह भरकर देख लो। रघुवंश की इकहत्तर पीढ़ियां भी हनुमान् की
सेवा में लग जाएं तो भी रघुवंश कभी हनुमानजी के ऋण से उऋण नहीं हो पाएगा। भरत भाई -कपि से
उऋण हम नाहीं। भरत, रघुवंश में आज जो दीपावली उत्सव दिखाई दे रहा है, यह मेरे हनुमान् की कृपा से
है। अगर मेरे हनुमान् ने संजीवनी लाकर नहीं दी होती तो मेरा लखन जीवित नहीं होता तो पूरा रघुवंश डूब
गया होता। रघुवंश अगर आज है तो हनुमानजी की कृपा से और भगवान् स्वयं बोले-
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउ करि बिचार मन माहीं।।प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ।। आप कर्जदार की कमजोरी और मजबूरी जानते हैं। साहूकार के सामने कर्ज लेनेवाला हमेशा झुका रहता है। भगवान् कहते हैं कि मुझे झुके रहने में भी कोई संकोच नहीं तेरे इतने बड़े उपकार मेरे ऊपर हैं कि चाहने के बाद भी मैं तेरे ऋण से उऋण नहीं हो सकता। राम ने कहा कि हनुमान्, तू मुझे मेरे भरत भैय्या के समान।प्रिय है। भरतजी के भाई समान हनुमानजी को कहा इसके कई अर्थ हैं। एक तो उपासना की दृष्टि से और एक सांसारिक दृष्टि से भी, दोनों दृष्टियों से श्रीहनुमानजी, भरतजी के भाई हैं। सांसारिक दृष्टि से भी अगर।विचार करें आपने वह कथा तो सुनी होगी। हनुमानजी भी रघुवंशी हैं। जिस प्रसाद से इन चारों भाईयों का जन्म हुआ, उसी यज्ञ के प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी जन्म हुआ। प्रसाद के रूप अलग-अलग, श्रीहनुमानजी का यश भी रघुवंशी ही हैं। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा था कि बरनउँ रघुबर बिमल जसु अर्थात् हनुमानजी के यश का वर्णन नहीं कर रहा हूँ बल्कि रघुवर के यश का वर्णन कर रहा हूँ। क्योंकि आप रघुवंशी हैं, रघुवर माने रघुकुलश्रेष्ठ हैं। जिनको भगवान् स्वयं रघुवर श्रेष्ठ कह रहे हैं। सुन सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। उनकी श्रेष्ठता का कौन वर्णन करें। जिस प्रसाद से श्रीभरतजी का जन्म हुआ है उसी प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी हमने संतों के श्रीमुख से सुना है कि पायस प्रसाद लेकर दशरथजी राजभवन में आए हैं। कैकेयीजी सबसे सुन्दर भी थीं और दशरथजी को सबसे प्रिय भी थीं तो कैकेयीजी को मालूम था कि प्रसाद मुझे दिया जाएगा और।कैकेयीजी को विवाह के समय के वरदान की भी जानकारी थी कि मेरे पिताजी ने मेरा विवाह इस शर्त पर
किया है कि मेरे गर्भ से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी बनेगा। संतानों की उत्पत्ति के लिए पहले मुझे ही दिया जाएगा, लेकिन हुआ इसके उल्टा। सबसे पहले दशरथ जी ने प्रसाद का आधा भाग कौशल्या जी को दिया और आधे का आधा कैकेयी जी को दिया। कैकेयी जी का माथा ठनक गया। कैकेयी जी क्रिया शक्ति
हैं । और क्रिया बहुत जल्दी ठनकती है। क्रिया में अहंकार होता है। अहंकार हमेशा उनकता है। प्रसाद पाकर प्रसन्न होना चाहिए। माथा ठनका लिया। प्रसाद तो कृपा से मिलता है। कैकेयी कुनमुना रही थी और कुनकुना रही थी तभी  ऊपर चील उड़ रही थी, वह हाथ से प्रसाद लेकर उड़ गयी। जो मिला था वह भी चला गया। नियम यह है कि जो मिला है वह प्रभु का प्रसाद है। शीश पर धारण करो और उसे स्वीकार करो। परमात्मा के दिए गए प्रसाद पर भी नुक्ताचीनी करोगे तो जो दिया है वह भी चला जाएगा। अब तो हाहाकार मच गया। यहाँ से प्रसाद लेकर चील जब आकाश में उड़ रही थी तो अचानक पवन का तेज झौंका आया चूंकि पवन तो कृपा करने ही वाले थे और चील के मुख से वह प्रसाद गिरा और प्रसाद सीधे अंजनाजी की गोद में जा गिरा, देखो।कृपा के लिए कोई पात्रता की आवश्यकता नहीं। कृपा प्रतीक्षा से आती है, कृपा स्वयंमेव आती है। दया मांगनी पड़ती है। कृपा प्रसाद के रूप में आती है। अंजनाजी स्थिर बैठी थीं। कैकेयीजी चंचल थीं, आया प्रसाद चला गया। अंजनाजी शांत स्थिर बैठी थीं कृपा का प्रसाद अपने आप गोदी में आ गया। प्रतीक्षा करिए, धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करिए। प्रभु की प्रतीक्षा का प्रसाद स्वयंमेव आएगा, पंथ स्वयं आएगा । अहिल्याजी बैठी थी स्थिर चित्त धैर्यपूर्वक, भगवान् स्वयं अहिल्याजी के द्वार पर आ गए। शबरी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा में बैठी है भगवान् शबरीजी के द्वार पर आ रहे हैं। विदुर- विदुरानीजी धैर्यपूर्वक अपनी कुटिया में बैठे कीर्तन कर रहे हैं प्रतीक्षा कर रहे हैं। भगवान् स्वयं आकर द्वार खटखटाते हैं। प्रसाद प्रतीक्षा प्रभु कृपा से मिलता है और उस प्रसाद का सेवन अंजनीमाँ ने किया है। तो जिस प्रसाद से श्रीभरतजी का जन्म हुआ। उसी प्रसाद से श्रीहनुमानजी का भी जन्म हुआ। इसलिए भगवान ने कहा है कि तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई। भगवान् जब लक्ष्मणजी की मूर्छा के समय रो रहे थे। तो रोते-रोते प्रभु बोल रहे थे। कि मिलइ न जगत सहोदर भ्राता । देखो मरण के रुदन में पुरानी पुरानी घटनाएं मनुष्य याद करके रोता है। आपने माताओं को रोते देखा होगा वह किसी ऐसे अवसर पर जब रोती हैं तो बोलती जाती हैं। पुरानी पुरानी घटनाएं उनको याद आती रहती हैं। रोती जाती हैं तो रुदन में हृदय निर्मल होता है और निर्मल हृदय में से पुरानी बातें याद आती जाती हैं। भगवान् कह रहे हैं मिलइ न जगत सहोदर भ्राता । सहोदर का अर्थ है एक ही गर्भ से पैदा होना तो यहां कई बार प्रश्न किया कि लक्ष्मणजी तो सहोदर नहीं थे। भगवान् सहोदर क्यों बोल रहे हैं। तो भगवान् यहाँ भी पुरानी बात को याद कर रहे हैं। आपको मालूम होगा कि जिस समय प्रलयकाल होता है उस समय सारी सृष्टि जलमग्न होती है, तो सृष्टि का निर्माण उस समय संकल्प से होता है तो सबसे पहले
उस प्रलयकाल में एक स्वर्ण का अण्डा आता है। आदिनारायण और शेषनारायण उस स्वर्ण अण्डे से प्रकट
होते हैं। वेद में इसका मंत्र है-
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे । भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ॥ सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् । कस्मैदेवाय हविषा विधेम् ॥
ॐ हिरण्यगर्भ से आदिनारायण और शेषनारायण दोनों एक साथ प्रकट होते हैं इसलिए लक्ष्मणजी शेषनारायण के रूप में भगवान् के सहोदर हैं, इसलिए निज जननी के एक कुमारा यह जो बोला गया। यहाँ पर शंका हुई यह तो दो भाई है। दो भाई एक कैसे? परशुरामजी वाली कथा याद होगी। धरती के एकमेव पुत्र थे शेषनाग, प्रकृति के एकमेव पुत्र हैं शेषजी तो तुम माँ के अकेले पुत्र हो इसलिए भी जाग जाओ और सहोदर हो क्योंकि प्रकृति से मेरा प्राकट्य है और प्रकृति से ही तुम्हारा प्राकट्य है। इस नाते से भी तुम मेरे।सहोदर हो। तो आज जिस प्रसाद से भरतजी का जन्म हुआ है उसी प्रसाद से हनुमानजी का जन्म हुआ है। तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई। यह देह के नाते और अगर उपासना के नाते देखें तो जिस उपासना के भाव में श्रीभरतजी रहते हैं हमेशा श्रीभरतजी की आँखों में आँसू मिलेगें। उनकी झांकी का दर्शन करोगे तो डबडबातें मिलेंगे, कंपकंपाते होंठ, झुका हुआ सिर व्यग्रता, विनम्रता की मूर्ति बिल्कुल रोते हुए उनकी कभी आंखें देखो सूखी नहीं मिलेगी जैसे मीरा के नेत्र भी कभी सूखे नहीं मिलेंगे, चैतन्य महाप्रभु के नेत्र भी कभी सूखे नहीं मिलेंगे। ऐसे ही श्रीभरतजी के भी नेत्र कभी सूखे नहीं मिलेंगे।-
पुलकगात हिय सिय रघुवीरु । नाम जीह जपि लोचन नीरु ।। हृदय में श्रीराम और जानकीजी हैं। जासुहृदय आगार, बसहिं राम सर चाप धर । दैन्यता के उपासक हनुमानजी और भरतजी जिनको अपने अन्दर कोई गुण दिखाई ही नहीं देता। दास भाव के उपासक हनुमानजी साधु हैं, भरतजी भी साधु हैं। भरतजी तो केवल साधु हैं मगर हनुमानजी साधु संत के रखवाले हैं, तात भरत तुम सब विधि साधु ...... और हनुमानजी साधु-संत के रक्षक हैं साधु संत के तुम रखवारे और यह दो ही महापुरुष ऐसे हैं जिनकी चर्चा भगवान् करते हैं। भरतजी का हर समय-
भरत सरिस को राम सनेही जगु जप राम राम जप जेही ॥चौबीस घण्टे प्रतिपल,प्रतिक्षण यदि भगवान् किसी का सुमिरन करते हैं तो भरतजी का और जब भगवान्
किसी की चर्चा करते हैं तो हनुमानजी की ।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई |
भगवान् ने कहा देख हनुमान् सारा जगत तो मुझे प्रभु कहकर पुकारेगा लेकिन आज मेरी घोषणा है कि
सारा जगत तुमको महाप्रभु कहकर पुकारेगा। भगवान श्रीराम प्रभु हैं और हनुमानजी महाप्रभु है-
काज किये बड़ देवन के तुम। वीर महाप्रभु देखि बिचारौ ॥कौन सो संकट मोर गरीब को । जो तुमसे नहिं जात है टारो || बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥को नहिं जानत है जगमें कपि। संकटमोचन नाम तिहारो॥ इतना बड़ा स्थान, इतनी बड़ाई हनुमानजी को मिली कि सब लोग गद्गद् हो गए। भगवान् जिसकी प्रशंसा करें उसकी तो बात ही कुछ और है। लेकिन श्रीहनुमानजी प्रशंसा से फूलते नहीं हैं। हमारी तो कोई यदि ईर्ष्या में भी प्रशंसा कर दे या हमको मूर्ख बनाने के लिए भी प्रशंसा कर दे तो भी हम फूल जाते हैं। भगवान् जिनकी प्रशंसा कर रहे हैं, हनुमानजी को प्रसन्न होना चाहिए था लेकिन हनुमानजी एकदम भगवान् के चरणों में गिर पड़े, प्रभु रक्षा करो। भगवान् कहा, क्या बात है। मैं प्रशंसा कर रहा हूँ, तुम कहते हो मेरी रक्षा करो। क्या
बात है राक्षसों से अकेले भिड़ रहे थे लंका में, तब तो तुमने मुझे नहीं पुकारा मेरी रक्षा करो और मेरे चरणों
में कहते हो कि मेरी रक्षा करो। हनुमानजी ने कहा बड़े-बड़े राक्षसों से अकेला भिड़ सकता हूँ, मुझे बिल्कुल
भय नहीं लगता लेकिन प्रशंसा के राक्षस से बहुत भय लगता है। क्योंकि इसी मुख से आपने एक बार नारदजी
की प्रशंसा की थी। नारदजी की प्रशंसा की तो वह बन्दर बन गए और मैं तो पहले से ही बन्दर हूँ। मुझे आप
अब और क्या बनाना चाहते हो? यह हनुमानजी की दैन्यता है-
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ