मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तेईस।।भगवान का नाम ।।
मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तेईस।।भगवान का नाम ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥ प्रभु सागर के किनारे पर विराजमान हैं। गम्भीर, गहरा समुद्र हिलोरे मार रहा है। भगवान् चिंता में डूबे हैं कि सागर कैसे पार हो, भगवान् ने सुग्रीवजी से, विभीषणजी से प्रश्न किया-सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि विधि तरिअ जलधि गम्भीरा ॥ संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥
यह प्रश्न प्रभु के श्रीमुख से आया है। सबने उत्तर अपनी-अपनी मति के अनुसार दिया। श्रीहनुमानजी का जो उत्तर आया है वह सबको प्रेरणा देनेवाला है। हनुमानजी ने कहा प्रभु चिंता क्यों करते हो, कैसे पार होंगे-
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥ नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं । करहुँ विचार सुजन मन माही। बचपन में हनुमानजी ने सूर्य को अपने मुख में रख लिया था और आज मुद्रिका को मुख में रखा है।यह सिद्धांत है कि जो सूर्य को मुख में रखेगा वह ही मुद्रिका को भी मुख में रख सकता है। सूर्य ज्ञान का
प्रतीक है। जो ज्ञान का भूखा होगा सुना है न जन्म लेते ही पहले दिन भूख लगी। जिसको जन्म से ही ज्ञान
की भूख जगी है। हमको बुढ़ापे में ज्ञान की भूख जागती है और जागती है भी कि नहीं। भगवान् जाने जिसको
जन्म से ज्ञान की भूख होगी वही अपने मुख में श्रीराम नाम की मुद्रिका को डालेगा। मुद्रिका को मुख में रखने
का अर्थ है कि मुद्रिका में जो लिखा गया था वह मुख में रखा गया। उस पर क्या लिखा था श्रीराम नाम, प्रभु राम का नाम, प्रभु का सुन्दर नाम उस श्रीराम रस मुक्ति को ही उन्होंने मुख में रखा है-
सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए।
जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए ॥
मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में।
तू अकेला नहीं प्यारे, राम तेरे साथ में।
विधि का विधान जान हानि-लाभ सहिये ।।
सीता राम, सीता राम कहिए .........।
किया अभिमान तो फिर, मान नही पाएगा।
होगा प्यारे वही जो, श्रीरामजी को भाएगा।
फल आशा त्याग, शुभ काम करते रहिए ।।
सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए .......
जिन्दगी की डौर सौप, हाथ दीनानाथ के ।
महलों में राखे चाहे झोंपड़ी में वास दे।
धन्यवाद, निर्विवाद, राम राम कहिए ।।
सीता राम, सीता राम कहिए.........
आशा एक रामजी से, दूजी आशा छोड़ दे।
नाता एक रामजी से, दूजा नाता तोड़ दे।
साधु संग, राम- रंग, अंग-अंग रंगिए ।
सीता राम, सीता राम कहिए..........।
काम रस त्याग प्यारे, राम रस पगिए ।
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।
सीता राम, सीता राम, सीता राम कहिए ..........
मुख में राम नाम और हाथ प्रभु सेवा में जब हम आपस में मिलते हैं। पूरे भारत में कोई किसी भी उपासना को मानता हो लेकिन जब भारत के ग्रामीण लोग आपस में मिलते हैं तो राम-राम कहकर मिलते हैं। इसका अर्थ है राम को प्रणाम करो, वही जीवन का मालिक है। तो इस चौपाई के माध्यम से गोस्वामीजी हनुमानजी के मुख से यह बुलवाना चाहते हैं। प्रभु मुद्रिका मेलिमुख माहि जलधि लाँघि गये अचरज नाहि ॥ नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं । करहुँ विचार सुजन मन माहिं ॥
इस कलिकाल को यदि पार करना है तो संसार भी सागर है, भगवान् भी सागर के किनारे विराजमान है। तब यह चौपाई आयी है। इस कलिकाल को यदि पार करना है तो किसी और कठोर पूजा अनुष्ठान में उलझने की जरूरत नहीं है-जोग जग्य जप तप व्रत पूजा ॥एहिं कलिकाल न साधन दूजा।।संतत सुनिय राम गुन ग्रामहिं ॥रामहि सुमिरिअ गाइये रामहिं । गोस्वामीजी ने बिल्कुल स्पष्ट घोषणा की है किसी और कलिकाल की बात नहीं जिस कलिकाल में हम और आप निवास करते हैं। इस कलिकाल में कठोर साधनों में उलझने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि हमारी क्षमता भी तो होनी चाहिए उन साधनों को पूर्ण करने की। योग, यज्ञ, जप, व्रत, तप, अनुष्ठान यह सब यदि किसी एक के द्वारा पूरे हो सकते हैं तो वो है केवल प्रभु-नाम योग का भी यदि नाम लोगे तो भी भगवान से जुड़ना होगा ही। जिसका नाम लेते हैं, उसकी छवि, उसकी मूर्ति, उसका स्वरूप, उसका स्वभाव, ध्यान में आता है। योग भी नाम जप है, यज्ञ भी नाम जप है। जप भी नाम जप है। आप लेते चले जा रहे हैं। व्रत भी हैं चूंकि नियम है कि लेना ही है। नाम द्वारा ही प्रभु की पूजा भी हो रही है। यह जो सारे के सारे साधना
के अंग हैं योग, यज्ञ, जप, तप, पूजा, अनुष्ठान आदि सब एक राम नाम में ही समाहित हैं, भगवान् के पावन
नाम में समाए हुए हैं। इसलिए साधु लोग, आपने देखे होंगे, भक्त लोग हर समय नाम जपा करते हैं। हर समय
अलग से अनुष्ठान आदि, कोई कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। रामहि सुमरिए गाइए और यह कलिकाल तो
बड़ा विचित्र है। हमारी शारीरिक क्षमता भी बहुत कम है। मानसिक सन्तुलन भी बहुत कम है। वातावरण में
प्रदूषण भी बहुत फैला हुआ है। आज हमारा जीवन सब प्रकार की अन्तर, बाह्य अशान्ति से घिरा हुआ है और
इसमें शान्त चित्त से बैठकर कर्मकाण्ड में बैठना कठिन है, समय का अभाव है। विधि-विधान नहीं आता है,
संस्कृत का ज्ञान नहीं है। अच्छे पुरोहित व पण्डित नहीं मिलते हैं तो आचार्यों के मौसम के अनुसार हर मौमस
के वस्त्र अलग होते हैं। हर मौसम में भोजन अलग प्रकार का होता है। उसी प्रकार हर मौसम का भजन भी
अलग प्रकार का यह जो कलिकाल का मौसम है। यह बड़ा कठिन भजन करने का नहीं है। कठोर भजन
करने का नहीं है। बस एक ही काम है-रामहि सुमिरिय गाइय रामहिं । संतत सुनिय राम गुन ग्रामहिं ।।
उठते बैठते, सोते, चलते, गाते, नहाए, बिना नहाए, शुद्ध, अशुद्ध, भाव, कुभाव, आलस्य, प्रमाद में जैसे ही बन पड़े मन से, बेमन से हरि नाम जैसे चैतन्य महाप्रभु ने गले में ढोल लटकाकर सारे जगत को संदेश दिया है। हर्रेनाम, हर्रेनाम, हर्रेनामैव केवलम, कलौ नास्तेव नास्तेव नास्तेव गतिरन्यथा । महाप्रभु तीन बार बोले हरि नाम,
हरि नाम, हरि नामैव केवलम् केवल केवल और केवल हरि नाम हो। दूसरा कोई साधन नहीं है और जब तीन बार कोई बात बोली जाती है तो शास्त्र प्रमाण शुद्ध मानी जाती हैं। मानस में भी इसी को
गोस्वामी जी ने तीन बार कहा है-तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामि ॥
केवल राम के नाम को नमन करो राम को नमन करो। बिल्कुल साफ लिख दिया गोस्वामीजी ने-
कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिर सुमिर नर उतरिहं पारा ॥ नहि कलियोग न यज्ञ न ज्ञाना। एक अधार राम गुन गाना ।। केवल एक आधार । उठते बैठते, जागते, सोते हरि गुनगान और हरि नाम गाओ। गुरुनानकदेव ने भी कहा है- नानक दुखिया सब संसारा । सुखी वही जो नाम अधारा ।। बचेगा कौन? बोले, सुखी वही, जो नाम अधारा, जिसने भगवान के नाम का आधार ले लिया उसको।किसी दूसरे आधार की जरूरत नहीं है। एक बार किसी ने गोस्वामीजी से पूछ लिया कि आप बड़े निश्चिंत
दिखाई पड़ते हैं। इस कलि से तो सब लोग डरे हुए हैं और आपको हम कभी डरा हुआ, सहमा हुआ नहीं
देखते हैं, निश्चिंत रहते हैं। गोस्वामी जी ने कहा देखो भैय्या, मैं तो रामजी का पालतू कुत्ता हूँ इसलिए मैं निडर
रहता हूँ। बड़े आदमी के कुत्ते को किसी का डर नहीं है। मतलब क्या? गोस्वामीजी ने कहा कुत्ते दो प्रकार के होते हैं। एक पालतू, दूसरे फालतू और दोनों के साथ अलग-अलग प्रकार का व्यवहार होता है। पालतू को
कोई छेड़ता नहीं है और फालतू को कोई छोड़ता नहीं है। जब देखो फालतू कुत्ते पर डण्डा पड़ेगा, डांट पड़ेगी।
पालतू को कोई कुछ बोलता ही नहीं है । पहिचान क्या है कि यह पालतू है या फालतू है। गोस्वामीजी कहते
हैं कि जिसके गले में पट्टा पड़ा होता है वह पालतू होता है और जिसके गले में पट्टा नहीं है तो समझो वह फालतू
है। तो भैय्या, मैंने राम नाम का पट्टा गले में बाँधा है। अब मैं राम का पालतू कुत्ता हो गया हूँ। अब कलि का कोई प्रभाव मेरे पास आने का साहस ही नहीं कर पाता । गोस्वामीजी कहते हैं कि आपको भी निश्चिंत जीने की आदत डालनी चाहिए। अपने गले में रामनाम का पट्टा बाँध लीजिए, दुनियां की विकार, वासनाओं को छेड़छाड़ करने का साहस ही नहीं होगा। इसलिए उन्होंने पहले ही बोल दिया है- ऐहि कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप व्रत पूजा ।।राम ही सुमिरिए गाइय रामहि । श्रीरामचरितमानस का सार तत्व भी रामनाम ही है। आपने वह घटना सुनी होगी गोस्वामीजी ने जब ग्रन्थ पूरा कर दिया तो पता चला कि पूरे रामचरित्र में हर चौपाई मंत्र है। एक आचार्य द्वारा मैंने सुना है कि पूरे रामचरितमानस में केवल चौदह चौपाईयों में ही राम नाम नहीं है। बाकी सम्पूर्ण चौपाईयां राम मंत्र से अभिमन्त्रित हैं एक तो मुझे भी मालूम है। झूठहि लेना, झूठहि देना, झूठहि भोजन, झूठ चबैना। इसमें कहीं राम नाम नहीं है। हमें यह इसलिए मालूम है क्योंकि यह हमसे मेल खाती है। हम इसी में डूबे हैं तो हमें अपने मतलब की मिल गयी। तो रामचरितमानस का जो सार तत्व है वह श्रीराम नाम है। काशी में जब ग्रन्थ लेकर गोस्वामीजी आए
तो काशी के विद्वत् परिषद ने प्रश्न कर दिया। बाबा यह ग्रन्थ लेकर घूम रहे हैं। तुम्हारे इस ग्रन्थ में क्या रखा है तब गोस्वामीजी ने कहा इसमें मेरे प्रभु का मधुर नाम रखा है- क्या? एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥ गोस्वामीजी ने कहा कि इसमें मेरे प्रभु श्रीराम जी का नाम रखा हुआ है। इसमें रघुपति का उदार नाम है, और कैसा है अतिपावन, समस्त वेद, शास्त्र और पुराणों का जो सार है, जो निचोड़ है, जो रस है, जो अमृत
वह श्रीराम नाम इसमें विराजमान है। अच्छा यह राम-नाम वेद शास्त्र, पुराणों का निचोड़ है। इसकी महिमा भी
बड़ी पुरानी है। विद्वत् परिषद ने पूछा महिमा क्या है आपके राम नाम की? गोस्वामीजी महिमा सुना रहे हैं-
मंगल भवन अमंगल हारी ॥ यह मंगलभवन और अमंगलहारी है। इसका प्रमाण क्या है? इसका कोई प्रमाण है, क्या प्रमाण है? तो प्रमाण सुन लीजिए ।
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥ संतत जपत सम्भु अविनासी। शिव भगवान ज्ञान गुन रासी ॥ यह प्रमाण है। काशी के विश्वनाथ भगवान् स्वयं काशी में बैठकर इसी नाम के बल से सबको मुक्ति प्रदान करते हैं-
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ||
भगवान् सबके कान में राम नाम के मंत्र की ही दीक्षा देते हैं, उसको मुक्ति प्रदान करते हैं तो ऐही कालिकाल केवल हरि नाम इसके लिए कोई विधि नहीं, कोई विधान नहीं। एक ही विधि है कि इसे नित्य सुमिरन करो और एक ही निषेध है कि इसका कभी विस्मरण न करो। सतत इसका स्मरण करो। उठते बैठते, सोते जागते, खाते, पीते देखो एक आचार्य जी ने एक बहुत अच्छी बात कही है बोले अगर विधि-विधान से रामनाम लिया और तब परिणाम हुआ तो परिणाम नाम का नहीं होगा, परिणाम तो विधि-विधान का होगा। कई लोग कहते हैं कि श्रद्धा से लो, वह कहते हैं कि श्रद्धा से लेने से परिणाम श्रद्धा का होगा। नाम का परिणाम नहीं होगा, नाम की महिमा तो तब है जब अश्रद्धा से भी लिया तो भी परिणाम होगा। जैसे लिया वैसा उसका लाभ। उदाहरण बहुत अच्छा देते थे, वह कहते थे कि बिजली का तार आप जान-बूझकर छुए तो भी झटका लगेगा और अनजाने में छुए, तो भी झटका लगेगा। अग्नि को जानकर छुए तो भी जलाएगी, अनजाने में छुए तो भी जलाएगी। अग्नि अपना काम करेगी, नाम अपनी महिमा देगा। श्रद्धा के साथ लोगे तो आपको रस आएगा, स्वाद भी आएगा लेकिन अश्रद्धा से लोगे तो भी रस ही आयेगा । गोस्वामीजी ने कह दिया है-
भायँ कुमायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ । अब तो आपको कोई संशय नहीं है श्री रामचरित्र मानस ने प्रमाणित कर दिया है। भाव, कुभाव, अनख,
आलस से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। प्रेम, वैर, क्रोध और आलस्य में ही नहीं यदि रामनाम जाने-अनजाने और यहाँ तक की वह विवशता में भी लिया जा रहा है तो भी उसके द्वारा हमारा कल्याण होना सुनिश्चित ही है। राम राम कहि जे जमुहाँहीं। तिन्हहि न पाप पुँज समुहाहीं ॥ हमारे द्वारा जम्हाई लेने में भी यदि मुख से राम-राम निकलता है तो हमारे पापों के ढेर सामने से उठकर चले जाते हैं।
सादर सुमरिन जेनर करहिं । यह तो बहुत बड़ी बात है। कोई विधि नहीं, कोई विधान नहीं। एक ही विधि है, एक ही विधान है। जैसे हुनमानचालीसा के साथ गोस्वामीजी ने कोई विधि विधान नहीं दिया- जो यह पढ़े हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥ हनुमान चालीसा जो पढ़े जैसे पढ़े कोई नियम नहीं कि आसन पर बैठकर, रीढ़ की हड्डी सीधे करके, पद्मासन लगाए। जो पढे, जैसे पढ़े, जहाँ पढ़े उसे फल मिलेगा, भगवान् शिव इसके साक्षी बैठे हुए हैं, बोले मैं हूँ ना। जब शंकरजी शावर मंत्रों का भी फल प्रदान कर सकते हैं तो यह तो एक सिद्ध संत का सिद्धमंत्र है। इसका तो फल अवश्य मिलेगा। हम भोजन करते हैं मन से करेंगे तो भी पेट भरेगा, कुमन से करेंगे तो भी पेट भरेगा। मन से करोगे तो भी इससे शरीर में रक्त बनेगा, बेमन से करोगे तो भी रक्त बनेगा। मन से, स्वाद से करोगे तो रस आएगा, रुचि बढ़ेगी, आनन्द मिलेगा, मन प्रसन्न होगा, खुशी होगी। मन से करने पर भी वही बेमन से करोगे तो भी। ऐसे ही भगवान् का भजन भी है। किसी आचार्य ने नाममहिमा में बहुत अच्छा लिखा है-
दो बार द्वारिका, त्रिवेणी जाये तीन बार ।
चार बार काशी में गंग हु नहाये ते ।।
पाँच बार गया जाय छः बार नैमीषार।
सात बार पुष्कर में मज्जन कराये ते ॥
रामनाथ जगन्नाथ बद्री केदारनाथ ।
दस अश्वमेध कोटि बार बार किये ते।।
जेते फल होइ सकल तीर्थन स्नान किये।
तेते फल होड़ एक राम नाम गाये ते ॥
शुभ - अशुभ भाव से कुभाव से, अनख से, आलस्य से जैसे हो वैसे नाम का गायन करें। नाम का सुमिरण करें। इसकी एक ही विधि है, सतत् स्मरण करें, एक ही निषेध है सुमिरन नहीं करना। यह विधि है, इसका भूल से भी
विस्मरण न हो जाए। विस्मरण हुआ तो मरण ही बचा है और कुछ बचा ही नहीं है। कोई विधि निषेध नहीं
है। जैसे हनुमानचालीसा के लिए लिखा है।
जो यह पढ़े हनुमानचालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
संत एकनाथजी महाराज, महाराष्ट्र के बहुत बड़े संत थे। इनको हर समय विठ्ठल, विठ्ठल, विठ्ठल नाम सुमिरण की आदत थी। अब यह शौचालय जाएं जीभ को पुरानी आदत लगी, उसको कन्ट्रोल करना कठिन काम है इनको लगा परमात्मा जैसा पावन नाम, शौचालय जैसी अपावन जगह नहीं लेना चाहिए और जीभ को आदत है और जीभ न चले इसलिए गमछे से जीभ को पकड़ लेते थे। एक दिन सेवक ने देख लिया कि महाराज जी जीभ पकड़ कर शौचालय में बैठे हैं तो हाथ में जल लेकर सेवक हाथ धुलाने गया तो उसने पूछा कि महाराज
जी एक बात पूछें। महाराजजी ने कहा कहो तो,चेला बोला: जब आप शौचालय में बैठे थे तो जीभ पकड़कर क्यों बैठे थे। एकनाथजी ने कहा कि तुमको तो मालूम है कि मेरी जीभ को हमेशा विठ्ठल विठ्ठल कहने की आदत है और भगवान् का यह पवित्र नाम ऐसे अपवित्र जगह पर नहीं लेना चाहिए और जीभ मानती नहीं है। इसलिए मुझे इसे पकड़ कर बैठना पड़ता है। सेवक ने कहा महाराज एक बात और पूछ सकता हूँ। बोले पूछो,
तो बोला अगर शौचालय में प्राण निकल जाएं तो! एकनाथजी सुनकर दंग रह गए। जो ज्ञान मुझे गुरुदेव से
भी नहीं मिल पाया वह आज तुमसे मिल गया। इसका क्या भरोसा है कि प्राण कब और कहाँ निकल जाएं।
हमने सुना है कि ज्यादातर लोगों की लीला बाथरूम में ही समाप्त होती है। इसलिए कब प्राण जाएं हर क्षण
प्रतिपल हरिनाम लें। नाम अपनी महिमा दे रहा है। यह आचार्य बोल रहे हैं। शास्त्र प्रमाण है लेकिन अनेक लोग हैं वर्षों से नाम ले रहे हैं। मालाएं घिस गई, अंगुलियां तिरछी हो गयी, गांठे पढ़ गई लेकिन नाम जपते-जपते आज तक भी भरोसा नहीं आया है कि जिसका नाम जप रहे हैं वह सुन भी रहा है या नहीं। वह यह जानता ही नहीं
कि कोई नाम जप रहा है क्योंकि नाम तो भगवान् का जप रहे हैं और भरोसा बैंक के खाते पर कि कुछ बुढ़ापे के लिए डाल दो, बुरे समय में बुढ़ापे में काम आएगा। यह भरोसा भी नहीं कि जिसका नाम ले रहे हैं। वह सहारा देगा कि नहीं। वह सुनकर आएगा कि नहीं, उठायेगा, बिठाएगा कि नहीं वह बुढ़ापे में कुछ खाने को देगा कि नहीं। अरे जिसने जवानी में दिया बुढ़ापे में देगा कि नहीं? लेकिन हमारा भरोसा नहीं है। कारण क्या है भगवान् के ऊपर भरोसा नहीं है, यह सत्य है। भजन भगवान् का करते हैं हम और भरोसा दुनियां पर करते हैं।हम भगवान् पर कभी भरोसा नहीं करके डाक्टर पर भरोसा करते हैं। भरोसा परिवार पर करते हैं यदि भगवान् पर भरोसा होता तो इतनी भागदौड़ की आवश्यकता ही नहीं, तो यह भरोसा क्यों नहीं जमता, इसका कारण समझ लीजिए। भरोसा या विश्वास उसी पर होता है जिससे हमारा प्रेम होता है और प्रेम किससे होता है जिससे हमारा सम्बन्ध होता है। जिससे हमारा सम्बन्ध होता है उसी से हमारा प्रेम होता है और जिससे हमारा प्रेम होता है उसी पर हमारा भरोसा होता है, उसी पर विश्वास होता है। सम्बन्ध का अर्थ ही यह है। सम्बन्ध का अर्थ है जितना भक्त भगवान् से बंध गया, उतना ही भगवान् भी भक्त से बंध गया। हिन्दी साहित्य में जितने भी मूल्यवान शब्द हैं सब सम से बने हैं। सम्बन्ध, समधी, समाधि, सम्बन्धी, सम्भोग, सम्बोधी, सम्यंक,।समता, समानता, समाचार आदि अर्थपूर्ण शब्द हैं सब सम से बने हैं। भक्त और भगवान एक साथ बंधे हैं और।उसी भरोसे के आधार पर हम अपने बेटे को विदेश भेज देते हैं कि जाओ हमारे सम्बन्धी वहाँ रहते हैं। और जब सम्बन्ध नहीं होता तो पड़ौसी पर भी हमारा भरोसा नहीं होता। जिससे हमको प्रेम होता है उसकी हमको।याद करनी नहीं पड़ती,उसकी याद आती है। याद आती ही नहीं बल्कि याद सताती है, उसका एक अलग प्रकार का दर्द रहता है। दूसरा अर्थ है सताना माने जो सतत् आती है, बुलानी नहीं पड़ती, आती रहती है। जैसे पड़ौसी के लड़के को याद करने के लिए हमको सिर भी खुजलाने पड़ते हैं और कान भी कुरेदने पड़ते हैं तब पड़ौसी का बेटा याद आता है और अपने लड़के की यादें दिन-रात रुलाती हैं, दिन-रात सताती हैं। हर त्यौहार।बेटे की याद में रुलाता है। बेटा अमेरिका में सर्विस करता है त्यौहार आया, माँ के आँसू आ गए। क्यों? बेटे की याद सता रही है। बेटे की रुचि की कोई वस्तु याद आती है तो लोग रोने लगते हैं। याद दो प्रकार की आती है या तो प्रियजन की या दुश्मन की। प्रियजन की याद आती है तो मन मिठास, आनन्द से भर जाता
है। दुश्मन की याद आती है तो मन कड़वा हो जाता है, कसैला हो जाता है। प्रेम के भी सम्बन्ध और द्वेष के भी सम्बन्ध है, दुश्मनी के भी सम्बन्ध है। दुश्मनी का सम्बन्ध कंस, शिशुपाल, दुर्योधन का था। रावण व कुम्भकरण का था। मोक्ष तो मिला, भगवान् तो मिले, मोक्ष तो मिला, हरिपद तो मिला लेकिन स्वाद नहीं मिला, रस नहीं मिला। भक्तों को रस भी मिलता है, पद तो मिलता है साथ-साथ पद, परमपद भी मिलता है।तो भगवान् से प्रेम का सम्बन्ध होना चाहिए। तब देह काम करती है और याद भीतर सताती है। याद तो दिल में आती है देह संसार का व्यवहार करती है। प्रेम की यादें, प्रेम का मीठा-मीठा दर्द, प्रेम की टीस, प्रेम की कसक, प्रेम का दर्द, प्रेम का कराहट प्रेम की बैचेनी, प्रेम की व्याकुलता न बैठने देती है, न हँसने देती है, न सोने देती है, न जागने देती है, न मरने देती है, न जीने देती है। एक अलग प्रकार की व्याकुलता होती है। मीराजी बोली हैं-
ना मैं जानू आरति वन्दन, ना पूजा की रीति,
सखी मैं तो श्याम दिवानी, मेरो दरद न न जाने कोय।।
एरी मैं तो प्रेम दिवानी, मेरो दरद न जाने कोय ।।
घायल की गति घायल जानें कै जिन घायल होय ।
जौहर की गति, जौहर जाने, कै जिन जौहर होय ॥
सखी री मैं तो प्रेम दिवानी मेरो दरद न जाने कोय।
दरद की मारी बन बन भटकूं-वैद्य मिला नहिं कोय ॥
मीरा की ये पीर मिटै जब वैद्य साँवरियाँ होय ।
सखी री मैं तो प्रेम दिवानी मेरो दरद जाने कोय।।
प्रेम उससे होगा जिससे हमारा सम्बन्ध होगा और सम्बन्ध जुड़ता है गुरु के द्वारा, बिना गुरू के सम्बन्ध हो नहीं सकता। कई लोग कहते हैं कि जब राम नाम पुस्तकों में अंकित है हमको मालूम है तो इसके लिए गुरु की क्या आवश्यकता है। जैसे वर और कन्या का सम्बन्ध पुरोहित के द्वारा जुड़ता है जो बिना पुरोहित के सम्बन्ध जुड़ते वह अमान्य होते हैं, अवैध, अनैतिक, असुरक्षित होते हैं। समाज उनको मान्यता नही देता है। पुरोहित के द्वारा जो सम्बन्ध जुड़ता है वह मान्य होता है। समाज आदर देता है, फिर वह तोड़ा नहीं जा सकता, वह घोषित होता है, वह छिपकर नहीं होता बल्कि छापकर होता है। विवाह से पहले पत्र छप जाते हैं। गाजे-बाजे के साथ होता है और वही शाश्वत होता है, वही शान्ति और आनन्ददायक होता है। अहंकार के कारण हम गुरु को नकारते हैं और इसलिए भगवान से सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता। अगर मनुष्य रूप में सम्बन्ध स्वीकार नहीं कर सकते तो आओ हनुमान जी के चरणों में उन्हीं से प्रार्थना करो-
जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरु देव की नाई ।।
श्रीहनुमानजी के चरणों में आश्रय लीजिए। आप ही गुरुदेव की भूमिका में प्रभु हम पर कृपा करें।सम्बन्ध जुड़े और सम्बन्धी सम्बन्धी से मिलने आता है। हमारा अगर भगवत सम्बन्ध जुड़ गया तो हमको यदि फुर्सत नहीं है मिलने जाने की तो भगवान् आ जाएंगे कि हमारा सम्बन्धी निवास करता है। यहाँ हमारे नाम का सुमिरन करता है। चलो बहुत दिन हो गए भेंट कर आएं। भगवान् से सम्बन्ध घोषित करिए, वैसे कौन से सम्बन्ध ? गोस्वामीजी ने कहा है कि मोहि तोहि नाते अनेक मानिए जो भावे । गोस्वामीजी जिस कक्षा के विद्यार्थी हैं अभी उस कक्षा के द्वार तक पहुंचना भी हमारा नहीं हो पाया। वह भगवान् से कह सकते हैं कि भगवान् तू सम्बन्ध मान, सम्बन्ध हमको ही बनाना पड़ेगा कौन सा बनाएं सम्बन्ध ? बहुत हैं लेकिन जिसमें सर्वाधिक शुद्धता है वह है, भगवान् हमारे स्वामी है, हम सेवक हैं दास भाव । भगवान् हमारे मालिक हैं हम उनके सेवक (दास) इसलिए वैष्णव परम्परा में दास परम्परा है। वैष्णव संतों के नाम के आगे दास लिखा होता है। जैसे नौकर मालिक से गिड़गिड़ाता है ऐसे भक्त भी भगवान् से, प्रभु हजार अपराध होंगे भूल मेरी बहुत होगी लेकिन कृपानिधान तू मत त्याग कर देना। आपने हमारे साधु-संतों को देखा होगा, माला झोली लेते हैं, बात भी करते हैं, माला भी जपते रहते हैं। कई लोग इसकी आलोचना भी करते हैं। आलोचना करना अज्ञानता, अविवेक है। अरे तुम तो इतना भी नहीं कर रहे वह इतना तो कर रहे हैं। तुम नाटक भी करके तो देखो। केवल आलोचना। आलोचना वही करता है जिससे कुछ नहीं होता। वह बैठा-बैठा देखकर कुढ़ता रहता है। दान की आलोचना वही करते हैं जो दान नहीं करते हैं। आपने देखा होगा कि संस्थाओं का हिसाब वही मांगते हैं जिसने एक भी पैसा दान नहीं दिया। आलोचक कुछ नहीं करता केवल आलोचना करता है। तो साधु अगर बात करने में भी माला फेर रहा है तो अकारण नहीं है। जैसे हमारा किसी से प्रेम सम्बन्ध जुड़ गया तो हम घर-परिवार, दुकान, मकान, फैक्टरी, कारोबार चलाते हैं कि नहीं चलाते। और इसके साथ-साथ हम प्रेमी की याद, टीस, कसक अनुभव करते रहते हैं कि नहीं या उसे कोई अलग से याद करना पड़ता है। वह यादों में बना रहता है। हमारी साँसों में शरीर घर-परिवार का काम करता रहेगा। श्वांसें उसकी यादों में डूबी रहती हैं। यही हाल साधु का है और हर समय नाम जपना ये उनकी मजबूरी है। मजबूरी वो आपको दिखाने की नहीं है। अपने प्रभाव को उत्पन्न करने की नहीं है। आपको प्रभावित करने की नहीं। मजबूरी यह है कि वह
बिना नाम लिए रह ही नहीं सकते। चूंकि भगवान् से इतना प्रेम का सम्बन्ध हृदय में जुड़ चुका है कि अब
उसका नाम लिए बिना जिह्वा रह ही नहीं सकती। तुझ बिन रहा न जाए, तेरे बिना रहें तो रहें कैसे? सम्भव
नहीं है। जैसे भंवरा है फूल की कली खिली, भंवरे की मजबूरी है गुनगुनाना, गुन, गुन, गुन, गुन। ऐसे ही
हृदय में भगवत्भक्ति का पुष्प खिला तो साधु की जिह्वा की मजबूरी बनती है हरे राम हरे राम, राम राम
हरे, तो जो लेना पड़े वह मजबूरी है और जो चलता रहे वो मजबूती है। जो रोके से भी रुके नहीं। जैसे कई
संतों को हमने देखा कि जैसे कोई मशीन लगी है उनके होठ ऐसे हिलते रहते हैं क्योंकि जीवन भर सम्बन्ध
जुड़ा है। अब नाम रुक नहीं सकता जैसे सोते-जागते, उठते-बैठते प्रभु का नाम मीराजी से किसी ने पूछा हम
तो कलयुग के पापी प्राणी हैं। हमको बताइए, हम इस भवसागर को कैसे पार करें? मीराजी ने कहा एक ही
तरीका है। क्या है? बोली- खूब नाचो और खूब गाओ। पूछा क्या गाएं तो बोलीं मुझे तो एक ही गीत आता
है जो मैं गाती हूँ वह तुम भी गाओ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।
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