गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

केवल हिन्दी के छंद


चंचला छंद विधान – (वर्णिक छंद परिभाषा) <– 

“राजराजराल” वर्ण षोडसी रखो सजाय।
‘चंचला’ सुछंद राच आप लें हमें लुभाय।।

“राजराजराल” = रगण जगण रगण जगण रगण लघु
21×8 = 16 वर्ण प्रत्येक चरण का वर्णिक छंद। 4 चरण, 2-2 चरण समतुकांत।

छा गयी सुहावनी बसंत की छटा अपार।

झूम के बसंत की तरंग में खिली बहार।।

कूँज फूल से भरे तड़ाग में खिले सरोज।

पुष्प सेज को सजा किसे बुला रहा मनोज।।

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं। 
उदाहरण -
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
कुण्डलिया
कुण्डलिया विषम मात्रिक छंद है। इसमें छः चरण होते हैं अौर प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। उदाहरण -

कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

गीतिका 

गीतिका (छंद) मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है। उदाहरण-

खोजते हैं साँवरे को,हर गली हर गाँव में।
आ मिलो अब श्याम प्यारे,आमली की छाँव में।।
आपकी मन मोहनी छवि,बाँसुरी की तान जो।
गोप ग्वालों के शरीरोंं,में बसी ज्यों जान वो।।
छप्पय
छप्पय मात्रिक विषम छन्द है। यह संयुक्त छन्द है, जो रोला (11+13) चार पद तथा उल्लाला (15+13) के दो पद के योग से बनता है।उदाहरण-

डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर।
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर।
दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर।
सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर।
चौंकि बिरंचि शंकर सहित,कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ।।
सवैया
सवैया चार चरणों का समपद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहा जाता है।सवैये के मुख्य १४ प्रकार हैं:- १. मदिरा, २. मत्तगयन्द, ३. सुमुखी, ४. दुर्मिल, ५. किरीट, ६. गंगोदक, ७. मुक्तहरा, ८. वाम, ९. अरसात, १०. सुन्दरी, ११. अरविन्द, १२. मानिनी, १३. महाभुजंगप्रयात, १४. सुखी। उदाहरण-

मानुस हौं तो वही रसखान,बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को,जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
सेस गनेस महेस दिनेस,सुरेसहु जाहि निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,अछेद अभेद सुभेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,पचिहारे तौं पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
कानन दै अँगुरी रहिहौं,जबही मुरली धुनि मंद बजैहैं।
माहिनि तानन सों रसखान,अटा चढ़ि गोधन गैहैं पै गैहैं॥
टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि,काल्हि कोई कितनो समझैहैं।
माई री वा मुख की मुसकान,सम्हारि न जैहैं,न जैहैं,न जैहैं॥

कवित्त

कवित्त एक वार्णिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये। इसके दो प्रकार हैं:- 1.मनहरण कवित्त और घनाक्षरी। घनाक्षरी छंद के दो भेद हैं:- 1.रूप घनाक्षरी, 2.देव घनाक्षरी। उदाहरण-

नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि,
एक बुद्धि आब नहि,सागर अपार में।
वीर अरि छोट नहि, संग एक गोट नहि,
लंका लघु कोट नहि, विदित संसार में।।

मधुमालती (छंद)

मधुमालती छंद में प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है।उदाहरण -

होंगे सफल,धीरज धरो ,
कुछ हम करें,कुछ तुम करो ।
संताप में , अब मत जलो ,
कुछ हम चलें , कुछ तुम चलो ।।
विजात
विजात छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है। उदाहरण -

तुम्हारे नाम की माला,
तुम्हारे नाम की हाला ।
हुआ जीवन तुम्हारा है,
तुम्हारा ही सहारा है ।।

मनोरम

मनोरम छंद के प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं ,आदि में 2 और अंत में 211 या 122 होता है ,3-10 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है।उदाहरण-

उलझनें पूजालयों में ,
शांति है शौचालयों में।
शान्ति के इस धाम आयें,
उलझनों से मुक्ति पायें।।

पुष्पिताग्रा

एक अर्धसम वृत्त जिसके पहले और तीसरे चरण में दो नगण, एक रगण और एक यगण होता है तथा दूसरे और चौथे चरण में एक नगण दो जगण, एक रगण और गुरु होता है । जैसे -

प्रभु सम नहिं अन्य कोइ दाता।
सुधन जु ध्यावत तीन लोक त्राता।
सकल असत कामना बिहाई।
हरि नित सेवहु मित्त चित्त लाई।

शक्ति (छंद)

शक्ति छंद में 18 मात्राओं के चार चरण होते हैं, अंत में वाचिक भार 12 होता है तथा 1,6,11,16 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य होता है। उदाहरण -

चलाचल चलाचल अकेले निडर,
चलेंगे हजारों, चलेगा जिधर।
दया-प्रेम की ज्योति उर में जला,
टलेगी स्वयं पंथ की हर बेला ।।

पीयूष वर्ष

पीयूष वर्ष छंद में 10+9=19 मात्राओं के चार चरण होते हैं,अंत में 12 होता है तथा 3,10,17 वीं मात्रा पर लघु 1 अनिवार्य है। यदि यति अनिवार्य न हो और अंत में 2 = 11 की छूट हो तो यही छंद 'आनंदवर्धक' कहलाता है।

उदाहरण-

लोग कैसे , गन्दगी फैला रहे ,
नालियों में छोड़ जो मैला रहे।
नालियों पर शौच जिनके शिशु करें,
रोग से मारें सभी को खुद मरें।।

सुमेरु

सुमेरु छंद के प्रत्येक चरण में 12+7=19 अथवा 10+9=19 मात्राएँ होती हैं ; 12,7 अथवा 10,9 पर यति होतो है ; इसके आदि में लघु 1 आता है जबकि अंत में 221,212,121,222 वर्जित हैं तथा 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण-

लहै रवि लोक सोभा , यह सुमेरु ,
कहूँ अवतार पर , ग्रह केर फेरू।
सदा जम फंद सों , रही हौं अभीता ,
भजौ जो मीत हिय सों , राम सीता।।

सगुण (छंद)

सगुण छंद के प्रयेक चरण में 19 मात्राएँ होती हैं , आदि में 1 और अंत में 121 होता है,1,6,11, 16,19 वी मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -

सगुण पञ्च चारौ जुगन वन्दनीय ,
अहो मीत, प्यारे भजौ मातु सीय।
लहौ आदि माता चरण जो ललाम ,
सुखी हो मिलै अंत में राम धाम।।

शास्त्र (छंद)

शास्त्र छंद के प्रत्येक चरण में 20 मात्राएँ होती हैं ; अंत में 21 होता है तथा 1,8,15,20 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -

मुनीके लोक लहिये शास्त्र आनंद ,
सदा चित लाय भजिये नन्द के नन्द।
सुलभ है मार प्यारे ना लगै दाम ,
कहौ नित कृष्ण राधा और बलराम।।

सिन्धु (छंद)

सिन्धु छंद के प्रत्येक चरण में 21 मात्राएँ होती है और 1,8,15 वीं मात्रा लघु 1 होती है।उदाहरण -

लखौ त्रय लोक महिमा सिन्धु की भारी ,
तऊ पुनि गर्व के कारण भयो खारी।
लहे प्रभुता सदा जो शील को धारै ,
दया हरि सों तरै कुल आपनो तारै।।

बिहारी (छंद)

बिहारी छंद के प्रत्येक चरण में 14+8=22 मात्राएँ होती हैं,14,8 मात्रा पर यति होती है तथा 5,6,11,12,17,18 वीं मात्रा लघु 1 होती है। उदाहरण -

लाचार बड़ा आज पड़ा हाथ बढ़ाओ ,
हे श्याम फँसी नाव इसे पार लगाओ।
कोई न पिता मात सखा बन्धु न वामा ,
हे श्याम दयाधाम खड़ा द्वार सुदामा।।

दिगपाल (छंद)

दिगपाल छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं ;12,24 मात्रा पर यति होती है,आदि में समकल होता है और 5,8,17,20 वीं मात्रा अनिवार्यतः लघु 1 होती है।इस छंद को मृदुगति भी कहते हैं।उदाहरण-

सविता विराज दोई , दिक्पाल छन्द सोई
सो बुद्धि मंत प्राणी, जो राम शरण होई।
रे मान बात मेरी, मायाहि त्यागि दीजै
सब काम छाँड़ि मीता, इक राम नाम लीजै।।

सारस (छंद)

सारस छंद के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं , 12,12 मात्रा पर यति होती है ;आदि में विषम कल होता है और 3,4,9,10,15,16,21,22 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदाहरण-

भानु कला राशि कला, गादि भला सारस है
राम भजत ताप भजत, शांत लहत मानस है।
शोक हरण पद्म चरण, होय शरण भक्ति सजौ
राम भजौ राम भजौ, राम भजौ राम भजौ।।

गीता (छंद)

गीता छंद के प्रत्येक चरण में 26 मात्राएँ होती हैं; 14,12 पर यति होती है , आदि में सम कल होता है ; अंत में 21 आता है और 5,12,19,26 वीं मात्राएँ अनिवार्यतः लघु 1 होती हैं।उदहारण -

कृष्णार्जुन गीता भुवन, रवि सम प्रकट सानंद l
जाके सुने नर पावहीं, संतत अमित आनंद l
दुहुं लोक में कल्याण कर, यह मेट भाव को शूल l
तातें कहौं प्यारे कवौं, उपदेश हरि ना भूल ll

शुद्ध गीता

शुद्ध गीता छंद के प्रत्येक चरण में 27 मात्राएँ होती हैं ; 14,13 मात्रा पर यति होती है . आदि में 21 होता है तथा 3,10,17,24,27 वीं मात्राएँ लघु होती हैं।उदाहरण -

मत्त चौदा और तेरा, शुद्ध गीता ग्वाल धार
ध्याय श्री राधा रमण को, जन्म अपनों ले सुधार।
पाय के नर देह प्यारे, व्यर्थ माया में न भूल
हो रहो शरणै हरी के, तौ मिटै भव जन्म शूल।।

विधाता (छंद)

विधाता छंद के प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती है ; 14,14 मात्रा पर यति होती है ; 1, 8, 15, 22 वीं मात्राएँ लघु 1 होती हैं। इसे शुद्धगा भी कहते हैं। उदाहरण -

ग़ज़ल हो या भजन कीर्तन,सभी में प्राण भर देता ,
अमर लय ताल से गुंजित,समूची सृष्टि कर देता।
भले हो छंद या सृष्टा,बड़ा प्यारा 'विधाता' है ,
सुहानी कल्पना जैसी,धरा सुन्दर सजाता है।।

हाकलि

हाकलि एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 14 मात्रा होती हैं , तीन चौकल के बाद एक द्विकल होता है। यदि तीन चौकल अनिवार्य न हों तो यही छंद 'मानव' कहलाता है। उदाहरण -

बने बहुत हैं पूजालय,
अब बनवाओ शौचालय।
घर की लाज बचाना है,
शौचालय बनवाना है।।

चौपई

चौपई एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रयेक चरण में 15 मात्रा होती हैं, अंत में SI अनिवार्य होता है, कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को जयकरी भी कहते हैं। उदाहरण :

भोंपू लगा-लगा धनवान,
फोड़ रहे जनता के कान।
ध्वनि-ताण्डव का अत्याचार,
कैसा है यह धर्म-प्रचार।।

पदपादाकुलक

पदपादाकुलक एक सम मात्रिक छंद है। इसके एक चरण में 16 मात्रा होती हैं,आदि में द्विकल अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल वर्जित होता है, पहले द्विकल के बाद यदि त्रिकल आता है तो उसके बाद एक और त्रिकल आता है,कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकान्त होते है।उदाहरण :

कविता में हो यदि भाव नहीं,
पढने में आता चाव नहीं।
हो शिल्प भाव का सम्मेलन,
तब काव्य बनेगा मनभावन।।

श्रृंगार (छंद)

श्रृंगार एक सम मात्रिक छंद है। इनके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा होती हैं, आदि में क्रमागत त्रिकल-द्विकल (3+2) और अंत में क्रमागत द्विकल-त्रिकल (2+3) आते हैं, कुल चार चरण होते हैं,क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

भागना लिख मनुजा के भाग्य,
भागना क्या होता वैराग्य।
दास तुलसी हों चाहे बुद्ध,
आचरण है यह न्याय विरुद्ध।।

राधिका (छंद)

राधिका एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 13,9 पर यति होती है, यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है, कुल चार चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

मन में रहता है काम , राम वाणी में,
है भारी मायाजाल, सभी प्राणी में।
लम्पट कपटी वाचाल, पा रहे आदर,
पुजता अधर्म है ओढ़, धर्म की चादर।।

कुण्डल/उड़ियाना (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 मात्रा होती हैं, 12,10 पर यति होती है , यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है औए अंत में 22 आता है। यदि अंत में एक ही गुरु 2 आता है तो उसे उड़ियाना छंद कहते हैं l कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।

कुण्डल का उदाहरण :

गहते जो अम्ब पाद, शब्द के पुजारी,
रचते हैं चारु छंद, रसमय सुखारी।।
देती है माँ प्रसाद, मुक्त हस्त ऐसा,
तुलसी रसखान सूर, पाये हैं जैसा।।
उड़ियाना का उदाहरण :

ठुमकि चालत रामचंद्र, बाजत पैंजनियाँ,
धाय मातु गोद लेत, दशरथ की रनियाँ।
तन-मन-धन वारि मंजु, बोलति बचनियाँ,
कमल बदन बोल मधुर, मंद सी’ हँसनियाँ।।

रूपमाला

रूपमाला एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 24 मात्राएं होती हैं एवं 14,10 पर यति होती है, आदि और अंत में वाचिक भार 21 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों में तुकांत होता है। इसे मदन भी कहते हैं। उदाहरण :

देह दलदल में फँसे हैं, साधना के पाँव,
दूर काफी दूर लगता, साँवरे का गाँव।
क्या उबारेंगे कि जिनके, दलदली आधार,
इसलिए आओ चलें इस, धुंध के उसपार।।

मुक्तामणि

मुक्तामणि एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होतीं हैं और 13,12 पर यति होती है। यति से पहले वाचिक भार 12 और चरणान्त में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं; क्रमागत दो-दो चरण तुकांत। दोहे के क्रमागत दो चरणों के अंत में एक लघु बढ़ा देने से मुक्तामणि का एक चरण बनता है। उदाहरण :

विनयशील संवाद में, भीतर बड़ा घमण्डी,
आज आदमी हो गया, बहुत बड़ा पाखण्डी।
मेरा क्या सब आपका, बोले जैसे त्यागी,
जले ईर्ष्या द्वेष में, बने बड़ा बैरागी।।

गगनांगना छंद

गगनांगना एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 25 मात्राएं होती हैं और 16,9 पर यति होती है एवं चरणान्त में 212। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

कब आओगी फिर, आँगन की, तुलसी बूझती
किस-किस को कैसे समझाऊँ, युक्ति न सूझती।
अम्बर की बाहों में बदरी, प्रिय तुम क्यों नहीं
भारी है जीवन की गठरी, प्रिय तुम क्यों नहीं।।

विष्णुपद

विष्णुपद एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 2 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

अपने से नीचे की सेवा, तीर-पड़ोस बुरा,
पत्नी क्रोधमुखी यों बोले, ज्यों हर शब्द छुरा।
बेटा फिरे निठल्लू बेटी, खोये लाज फिरे,
जले आग बिन वह घरवाला, घर पर गाज गिरे।।

शंकर (छंद)

शंकर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 26 मात्राएं होतीं हैं और 16,10 पर यति होती है एवं चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होता है।उदाहरण :

सुरभित फूलों से सम्मोहित, बावरे मत भूल
इन फूलों के बीच छिपे हैं, घाव करते शूल।
स्निग्ध छुअन या क्रूर चुभन हो, सभी से रख प्रीत
आँसू पीकर मुस्काता चल, यही जग की रीत।।

सरसी

सरसी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 27 मात्राएं होती हैं औथ 16,11 पर यति होती है, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इस छंद को कबीर या सुमंदर भी कहते हैं। चौपाई का कोई एक चरण और दोहा का सम चरण मिलाने से सरसी का एक चरण बन जाता है l उदाहरण :

पहले लय से गान हुआ फिर,बना गान ही छंद,
गति-यति-लय में छंद प्रवाहित,देता उर आनंद।
जिसके उर लय-ताल बसी हो,गाये भर-भरतान,
उसको कोई क्या समझाये,पिंगल छंद विधान।।

रास (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 22 मात्रा होती हैं एवं 8,8,6 पर यति होती है अंत में 112। चार चरण होते हैं एवं क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।उदाहरण :

व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वह, सत्य यही,
कुछ न करे जो, त्रस्त रहे वह, बात सही।
जो न समय का, मूल्य समझता, मूर्ख बड़ा,
सब जाते उस, पार मूर्ख इस, पार खड़ा।।

निश्चल (छंद)

यह एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 23 मात्रा होती हैं एवं 16,7 पर यति होती है और चरणान्त में 21। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

बीमारी में चाहे जितना, सह लो क्लेश,
पर रिश्ते-नाते में देना, मत सन्देश।
आकर बतियायें, इठलायें, निस्संकोच,
चैन लूट रोगी का, खायें, बोटी नोच।।

सार (छंद)

सार एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 28 मात्राएं होतीं हैं और 16,12 पर यति होती है। अंत में वाचिक भार 22 होता है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। उदाहरण :

कितना सुन्दर कितना भोला,था वह बचपन न्यारा
पल में हँसना पल में रोना,लगता कितना प्यारा।
अब जाने क्या हुआ हँसी के,भीतर रो लेते हैं
रोते-रोते भीतर-भीतर,बाहर हँस देते हैं।।

लावणी (छंद)

लावणी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 30 मात्राएं होतीं हैं और 16,14 पर यति होती है। कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। इसके चरणान्त में वर्णिक भार 222 या गागागा अनिवार्य होने पर ताटंक , 22 या गागा होने पर कुकुभ और कोई ऐसा प्रतिबन्ध न होने पर यह लावणी छंद कहलाता है। उदाहरण :

तिनके-तिनके बीन-बीन जब,पर्ण कुटी बन पायेगी,
तो छल से कोई सूर्पणखा,आग लगाने आयेगी।
काम अनल चन्दन करने का,संयम बल रखना होगा,
सीता सी वामा चाहो तो,राम तुम्हें बनना होगा।।

वीर (छंद)

वीर एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 31 मात्राएं होतीं हैं और 16,15 पर यति होती है। चरणान्त में वाचिक भार 21 होता है। इसमें कुल चार चरण होते हैं और क्रमागत दो-दो चरणों पर तुकांत होते हैं। इसे आल्हा भी कहते हैं। उदाहरण :

विनयशीलता बहुत दिखाते,लेकिन मन में भरा घमण्ड,
तनिक चोट जो लगे अहम् को,पल में हो जाते उद्दण्ड l
गुरुवर कहकर टाँग खींचते,देखे कितने ही वाचाल,
इसीलिये अब नया मंत्र यह,नेकी कर सीवर में डाल l

त्रिभंगी

त्रिभंगी एक सम मात्रिक छंद है। इसमें 32 मात्राएं होतीं हैं और 10,8,8,6 पर यति होती है एवं चरणान्त में 2 होता है। कुल चार चरण होते हैं और।क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं। पहली तीन या दो यति पर आतंरिक तुकांत होने से छंद का लालित्य बढ़ जाता है। तुलसी दास ने पहली दो यति पर आतंरिक तुकान्त का अनिवार्यतः प्रयोग किया है। उदाहरण :

तम से उर डर-डर, खोज न दिनकर, खोज न चिर पथ, ओ राही,
रच दे नव दिनकर, नव किरणें भर, बना डगर नव, मन चाही l
सद्भाव भरा मन, ओज भरा तन, फिर काहे को, डरे भला,
चल-चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला चल, चल अकेला l

कुण्डलिनी (छंद)
कुण्डलिनी एक विषम मात्रिक छंद है। दोहा और अर्ध रोला को मिलाने से कुण्डलिनी छंद बनता है जबकि दोहा के चतुर्थ चरण से अर्ध रोला का प्रारंभ होता हो (पुनरावृत्ति)। इस छंद में यथारुचि प्रारंभिक शब्द या शब्दों से छंद का समापन किया जा सकता है (पुनरागमन), किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। दोहा और रोला छंदों के लक्षण अलग से पूर्व वर्णित हैं l कुण्डलिनी छंद में कुल चार चरण होते हैं, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं।

कुण्डलिनी = दोहा + अर्धरोला
उदाहरण :

जननी जनने से हुई, माँ ममता से मान,
जननी को ही माँ समझ, भूल न कर नादान।
भूल न कर नादान, देख जननी की करनी,
करनी से माँ बने, नहीं तो जननी जननी।।

वियोगिनी
इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और एक लघु व एक गुरु होते हैं। जैसे -

विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सुख से सदा
करती रहती सदैव ही
करुण की मद-मय साधना।।


 मत्तगयन्द (मालती)
इस छन्द के प्रत्येक चरण में सात भगण (ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।) और अन्त में दो गुरु (ऽ) के क्रम से 23 वर्ण होते हैं;

जैसे-
ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ऽ। ।ऽ।। ऽऽ
“सेस महेश गनेस सुरेश, दिनेसहु जाहि निरन्तर गावें।
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें।।”
सुन्दरी सवैया
इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ सगण (।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ) और अन्त में एक गुरु (ऽ) मिलाकर 25 वर्ण होते हैं;

जैसे-
।। ऽ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽऽ
“पद कोमल स्यामल गौर कलेवर राजन कोटि मनोज लजाए।
कर वान सरासन सीस जटासरसीरुह लोचन सोन सहाए। को
जिन देखे रखी सतभायहु तै, तुलसी तिन तो मह फेरि न पाए।
यहि मारग आज किसोर वधू, वैसी समेत सुभाई सिधाए।।”

यह छन्द मात्रा की गणना पर आधृत रहता है, इसलिए इसका नामक मात्रिक छन्द है। जिन छन्दों में मात्राओं की समानता के नियम का पालन किया जाता है किन्तु वर्णों की समानता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उन्हें मात्रिक छन्द कहा जाता है। मात्रिक छन्दों का विवेचन इस प्रकार है-

 

रोला (काव्यछन्द)

यह चरण वाला मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा । व 13 मात्राओं पर ‘यति’ होती है। इसके चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु रहने पर, इसे काव्यछन्द भी कहते हैं;

जैसे-
ऽ ऽऽ ।। ।।। ।ऽ ऽ ।ऽ ।।। ऽ = 24 मात्राएँ
हे दबा यह नियम, सृष्टि में सदा अटल है।
रह सकता है वही, सुरक्षित जिसमें बल है।।
निर्बल का है नहीं, जगत् में कहीं ठिकाना।
रक्षा साधक उसे, प्राप्त हो चाहे नाना।।

हरिगीतिका
यह चार चरण वाला सममात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं, अन्त में लघु और गुरु होता है तथा 16 व 12 मात्राओं पर यति होती है;
जैसे-
।। ऽ। ऽ।। ।।। ऽ।। ।।। ऽ।। ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ।
“मन जाहि राँचेउ मिलहि सोवर सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेह जानत राव।।
इहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली।।”

अथवा

‘हरिगीतिका’ शब्द चार बार लिखने से उक्त छन्द का एक चरण बन जाता है;

जैसे-
।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ
हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका

वीर (आल्हा)
वीर छन्द के प्रत्येक चरण में 16, ।ऽ पर यति देकर 31 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में । गुरु-लघु होना आवश्यक है;

जैसे-
।। ।। ऽ ऽऽ। ।।। ।। ऽ। ।ऽ ऽ ऽ।। ऽ। = 31 मात्राएँ
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।।”


सोरठा

सोरठा
सोरठा अर्ध सम मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उल्टा होता है। इसके विषम चरणों(प्रथम और तृतीय ) में 11-11 मात्राएँ और सम (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना उत्तम माना जाता है।
सोरठा छंद के द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के आरम्भ में जगण का आना अच्छा नहीं माना जाता है।
उदाहरण -
1-जो सुमिरत सिधि होय,
  गननायक करिबर बदन।
  करहु अनुग्रह सोय, 
  बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1।।
2-जानि गौरि अनुकूल, 
   सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
   मंजुल मंगल मूल,
    बाम अंग फरकन लगे॥2।।
।।।धन्यवाद।।।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

वंदना में समानता

 मानस चर्चा 
लंकाकांड की वंदना और सुंदरकांड की वंदना में समानता :
लंकाकांड की वंदना आप सब जानते ही हैं: जो यो है:
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वंदे कंदावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥ 1॥
यहाँ के 'योगीन्द्रम् १, अजितम् २,
निर्विकारम् ३, भवभयहरणम् ४, कामारिसेव्यम् ५, ज्ञानगम्यम् ६, निर्गुणम् ७, रामम् ८, ईशम् ९, सुरेशम् १०,माया (तीतम्) ११, ब्रह्मवृन्दैकदेवम् १२, कन्दावदातम् १३, खलवधनिरतं रामम् १४, उर्वीशरूपम् १५ और वन्दे
१६ की जगह यहाँ
सुंदरकांड की वंदना है
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।
जिसमे शान्तम् १, शाश्वतम् २, अनघम् ३, निर्वाणशान्तिप्रदम् ४, ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यम् ५, वेदान्तवेद्यम् ६, विभुम् ७, रामाख्यम् ८, जगदीश्वरम् ९, सुरगुरुम् १०, मायामनुष्यम् ११, हरिम् १२, करुणाकरम् १३ रघुवरम्१४भूपालचूड़ामणीं१५ और वंदे१६ शब्द हैं।।
इस मिलानसे प्रभु श्री राम के विशेषणोंके भाव स्पष्ट हो जाते है।





रविवार, 21 अप्रैल 2024

।।प्रतिवस्तूपमा अलंकार(Typical Comparison)।।

प्रतिवस्तूपमा अलंकार-(TypicalComparison)
    प्रतिवस्तूपमा का शाब्दिक अर्थ है-प्रतिवस्तु अर्थात् प्रत्येक वस्तु में उपमा (सादृश्य या समानता)का होना।इस अलंकार में दो वाक्य रहते हैं, एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य। इन दोनों वाक्यों में साधारण धर्म एक ही होता है, परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है । 
परिभाषा:-
जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाय, वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है।
जैसे:- 
(अ)सिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ? 
     क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?

       यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है।वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है।
एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है। अतः यहाँँ प्रतिवस्तूपमा अलंकार है।

(आ)चटक न छाँड़त घटत हू, सज्जन नेह गँभीर ।

      फीको परे न बरु फटे, रंग्यो चोल रंग चीर ।

यहाँ ‘चटक न छाँडत’ तथा ‘फीको परै न ‘ में केवल शब्दों का ही अन्तर है, दोनों के अर्थ में समानता है । अत: यहाँ भी प्रतिवस्तूपमा है ।

    यह साधर्म्य, वैधर्म्यं और माला इन तीन रूपों में पाया जाता है।इन तीनों को हम उदाहरणों के माध्यम से समझते हैं। 

1-साधर्म्य प्रतिवस्तूपमा अलंकार

 (एक धर्मता या समानधर्मता बताने वाला)

जैसे :-(अ)सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।

        पारस परस कुधातु सुहाई।।

(आ) अरुनोदय सकुचे कुमुद 

       उडगन ज्योति मलीन।

       तिमि तुम्हार आगमन सुनि

       भये नृपति बलहीन।।

2-वैधर्म्यं प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(असमानता भिन्नता - गुण, धर्म या कर्तव्य की भिन्नता वैपरीत्य, विपरीतता विषमता, अन्तर बताने वाला) जैसे:-

सूर समर करनी करहि कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।

3-माला प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहने वाला क्रम)

सरुज सरीर बादि बहु भोगा।

बिनु हरि भगति जाइ जप जोगा।।

जाय जीव बिनु देह सुहाई।

बादि मोर बिनु सब रघुराई।।

काकु (वह विचित्र या परिवर्तित ध्वनि जो आश्चर्य, कष्ट, क्रोध, भय आदि के कारण मुँह से निकलती है। ऐसी बात जो अप्रत्यक्ष रूप से किसी का मन दुखाती हो को काकु  कथन माना जाता है।)द्वारा एक धर्म-सम्बंध वर्णन के कारण चौथा भेद भी माना  गया है-

4-काकु प्रतिवस्तूपमा अलंकार

(अ)प्रिय लागिहि अति सबहि मम

      भनिति राम जस संग।

     दारु बिचारु कि करइ कोउ

     बंदिअ मलय प्रसंग


(आ)तिन्हहि सुहाव न अवध-बधावा।

       चोरहिं चाँदनि रात न भावा।।

यहाँ 'न सुहाना साधारण धर्म है जो उपमेय वाक्य में 'सुहाव न' शब्दों से और उपमान वाक्य में 'न भावा' शब्दों से व्यक्त किया गया है।

इस अलंकार के अन्य उदाहरण भी देखें _

1. नेता झूठे हो गए, अफसर हुए लबार.

  हम अनुशासन तोड़ते, वे लाँघे मर्याद.

2. पंकज पंक न छोड़ता, शशि ना तजे कलंक.

3. ज्यों वर्षा में किनारा, तोड़े सलिला-धार.

त्यों लज्जा को छोड़ती, फिल्मों में जा नार..

4. तेज चाल थी चोर की गति न पुलिस की तेज


सोमवार, 15 अप्रैल 2024

।। विनोक्ति अलंकार।।

।।विनोक्ति अलंकार।।
परिभाषा:
जहाँ कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु के बिना
शोभा प्राप्त न होते हुए दिखाई जाय वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

व्याख्या:

जहाँ पर उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को किसी
अन्य वस्तु के बिना हीन अर्थात् अशोभन
या रम्य अर्थात् शोभन कहा जाता है वहाँ 
विनोक्ति अलंकार होता है।

दूसरे शब्दों में उपमेय अर्थात् प्रस्तुत को
शोभनीय या अशोभनीय बताने के लिए
जहाँ काव्य में बिना,विना, बिन,बिनु,विनु
ऋते,रीते, रिते ,रहित आदि शब्दों का 
प्रयोग होता है वहाँ विनोक्ति अलंकार 
होता है।अनेक विद्वानों ने शोभनीय के 
आधार पर शोभन विनोक्ति और 
अशोभनीय  के आधार पर अशोभन 
विनोक्ति नाम के  दो भेद भी बताया हैं।
जो शब्दों पर ध्यान देने मात्र से ही
आसानी से पहचाने जाते  हैं।

उदाहरण:-

1.जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु 
  चंद बिनु    जिमि       जामिनी।
  तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिन
  समुझि धौं जियँ         भामिनी।

2-राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा।
  हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
  बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ।
  श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥


3-जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।
 तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥


4-लसत न पिय अनुराग बिन
    तिय के सरस सिंगार।

5-भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
  राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
  बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। 
  सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥


धन्यवाद

रविवार, 14 अप्रैल 2024

।।उदाहरण अलंकार ।।

।।उदाहरण अलंकार ।।
व्याख्या :
जहाँ दो वाक्यों का साधारण धर्म भिन्न
हो पर उसमें वाचक शब्द के द्वारा
समता बताया जाए वहाँ उदाहरण 
अलंकार होता है। 
विशेष ध्यान रखने योग्य बात है कि
 उदाहरण अलंकार में 
उपमेय वाक्य देने के बाद: जैसे,जैसी,तैसे,तैसी,जिमि,तिमि,
यथा,जथा,जस, तस आदि वाचक
 शब्दों का प्रयोग होता है और ये
 उदाहरण अलंकार की पहचान भी हैं।

परिभाषा:

जहाँ किसी बात के समर्थन में उदाहरण
किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाय,
वहाँ उदाहरण अलंकार होता है।
उदाहरण:-

1-वे रहीम नर धन्य है, 
पर उपकारी अंग।
बाँटन वारे को लगे, 
ज्यों मेंहदी को रंग ।

2-जपत एक हरि-नाम के, 
पातक कोटि बिलाहिं।
ज्यों चिनगारी एक तें, 
घास-ढेर जरि जाहिं।।

3-जो पावै अति उच्च पद, 
ताको पतन निदान।
ज्यों तपि-तपि मध्याह्न लौं, 
असत होत है भान।।

4-एक दोष गुन-पुंज में,
 तौ बिलीन ह्वै जात।
  जैसे चन्द-मयूख में,
 अंक कलंक बिलात।।

5-हरित-भूमि तृन-संकुल, 
समुझि परहि नहिं पंथ।
जिमि पाखंड-बिबाद तें,
लुप्त होहिं सद्ग्रन्थ।।

6-नयना देय बताय सब,
 हिय को हेत अहेत।
जैसे निर्मल आरसी, 
भली बुरी कही देत।।

7-निकी पै फिकी लगै,
 बिनु अवसर की बात।
जैसे बरनत युद्ध में,
 रस सिंगार न सुहात।।

8-बसै बुराई जासु तन,
ताही को सन्मान।
भलौ-भलौ को छाङियौ,
खोटे ग्रह जप दान।।

9-मन मलीन, तन सुंदर कैसे।
 विष रस भरा कनक-घट जैसे।।

10-उदित कुमुदिनी नाथ
     हुए प्राची में ऐसे
     सुधा-कलश
    रत्नाकर से उठता हो जैसे।

11-बूंद आघात सहै गिरी कैसे ।
  खल के वचन संत सह जैसे ।।

 12- छुद्र नदी भरि चलि उतराई।
       जस थोरेहुँ धन खल बौराई।

13- ससि सम्पन्न सोह महि कैसी ।
     उपकारी कै संपति जैसी ।।

14-कामिहि नारि पियारी जिमि
   लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
   तिमि रघुनाथ निरन्तर 
   प्रिय लागहु मोहि राम।।

।।।। धन्यवाद। ।।।।   

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

।।स्रग्धरा छन्द हिन्दी एवं संस्कृत में।

।।स्रग्धरा छन्द।।
छन्द का नामकरण
स्रग्धरा का अर्थ माला को धारण करने वाली है। इस छन्द में कवि अपनी बात को 'स्रक्' अर्थात् 'माला' रुप में विस्तार के साथ कहता है। यह एक ऐसा विशिष्ट छन्द है, जिसके इक्कीस अक्षरों का विभाजन यति की दृष्टि से
सात-सात अक्षरों में बराबर किया गया है और इस तरह सात-सात अक्षरों की समानाकार वाली तीन मालाएँ बन जाती है।
छन्द का लक्षण— 
गंगादास छन्दोमंजरी में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि- 
'म्रभ्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्' 
छन्द सूत्र में स्रग्धरा का लक्षण देते हुए कहा है कि-
"स्रग्धरा म्-रौभ् -नौ यौ य् त्रिः सप्तकाः।" 
लक्षणों की व्याख्या-
जिस छंद के प्रत्येक  चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में वर्ण हो और "त्रिमुनियतियुता"मुनियों के क्रम से तीन बार यति हो उसे  स्रग्धरा छंद के नाम से जाना जाता है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार सप्तर्षि की उत्पत्ति इस सृष्टि पर संतुलन बनाने के लिए हुई। उनका काम धर्म और मर्यादा की रक्षा करना और संसार के सभी कामों को सुचारू रूप से होने देना है। सप्तर्षि अपनी तपस्या से संसार में सुख और शांति कायम करते हैं।सप्त ऋषियों के नाम हैं- कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज।इन सात ऋषियों को सप्तर्षि कहा जाता है। इस प्रकार यह छंद एक बहुत ही मर्यादित छंद है जिसके द्वारा मर्यादापूर्ण बातों की अभिव्यक्ति की जाती है।त्रिः सप्तकाः का भी यही अर्थ है की सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति होता है।प्रत्येक चरणों में इक्कीस वर्णों वाला यह एकल छंद है।यह अति छंद परिवार का प्रकृति छंद है।सच बात तो यह है कि जो अर्थ मालिनी और स्रग्विणी का है, वही अर्थ स्रग्धरा का भी है। केवल प्रकृति और प्रत्यय का अन्तर है। स्रग्धरा में दो शब्द है 'स्रक' एवं 'धरा' जिसमें स्रक का अर्थ है 'माला' और धरा का अर्थ है 'धारण करने वाली' । स्रग्धरा छन्द में जब कवि को ढेर सारा अभिप्राय या बहुत लम्बे वृतांत का वर्णन करना होता है या प्रभुत अर्थ को परस्पर समेटना होता है तब वह प्रायः इस छन्द का प्रयोग होता है।दीर्घ छन्दों में ओजभाव को प्रकाशित करने वाला छन्द स्रग्धरा है। 
परिभाषा :- 
जिस छंद के प्रत्येक चरणों में मगण रगण भगण नगण यगण यगण यगण के क्रम में अर्थात् S S S, S I S, S I I, I I I, I S S, I S S, I S S  के क्रम में वर्ण हो और सात-सात वर्णों पर हर चरण में तीन-तीन बार यति हो उसे स्रग्धरा छंद कहते है।
छन्द का उदाहरण-1-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहतिविधिहुतं या हविर्या च होत्री,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S   I S S  I S S
येद्वेकालंविधत्तः श्रुतिविषयगुणा यास्थिताव्याप्य विश्वम्।
S S S   S I S   S I I   I I I  I S S  I S S   I S S
यामाहुः सर्वबीज - प्रकृतिरितियया प्राणिनः प्राणवन्तः,
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।
उदाहरण-2-
S S S S I S S I I I I I I S S I S S I S S
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् ।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
 वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥
उदाहरण-3-
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्‌।
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
S S S  S I S  S I I  I I I  I S S  I S S  I S S
  नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्‌॥
हिन्दी:- 

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण, परिभाषा एवम् विवरण संस्कृत की तरह ही है।
उदाहरण :-
काशी के आप वासी, शुभ यह नगरी, मोक्ष की है प्रदायी।
दैत्यों के नाशकारी, त्रिपुर वध किये, घोर जो आततायी।।
देवों की पीड़ हारी, भयद गरल को, कंठ में आप धारे।
देवों के देव हो के, परम पद गहा, सृष्टि में नाथ न्यारे।।
।।धन्यवाद।।