मानस चर्चा"दंडक बन"
दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किय पावन ॥
अर्थात् प्रभु (श्रीरामजी) ने दण्डकवनको सुहावना ( हरा-भरा ) कर दिया। और, प्रभु के नामने अमित (अनन्त) प्राणियोंके मनको पवित्र कर दिया। 'दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन' । 'सुहावन' अर्थात् हरा-भरा जो देखनेमें अच्छा लगे। भाव यह कि निशाचरोंके वहाँ रहनेसे और फल-फूल न होनेसे वह भयावन था, सो शोभायमान
हो गया । यथा - 'जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भये मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदी ताल छबि छाए ।
दिन दिन प्रति अति सुहाए ॥ ' पावन, पुनीत, पवित्र भी किया ; यथा - 'दंडक बन पुनीत प्रभु करहू ।'
'दंडक पुहुमि पायँ परसि पुनीत भई उकठे बिटप लागे फूलन फरन।'
दण्डकवनको सुहावना कर देना, यह निःस्वार्थ जीवोंका पालन करना प्रभु का 'दया' गुण है ।
जैसा कि भगवद्गुणदर्पण में कहा गया है -
'दया दयावतां ज्ञेया स्वार्थस्तत्र न कारणम् ।' पुनश्च 'प्रतिकूलानुकूलोदासीन-सर्वचेतनाचेतनवस्तुविषयस्वरूपसत्तोपलम्भनरूपदालनानुगुणव्यापारविशेषो हि भगवतो दया' अर्थात् दयावानोंकी उस दयाको दया कहा जायगा जिसमें स्वार्थका लेश भी न हो। रूपमें जो यह दयालुता प्रकट हुई, उसी गुणको नामने लोकमें फैला दिया। उस दयाकी प्याससे अनेक लोग दयालु प्रभुका नाम-स्मरण करने लगे और पवित्र हो गये । इसीसे अमित जनोंके मनका नामद्वारा पावन होना कहा।
दण्डकवन एक है और जनमनरूपी वन 'अमित' यह विशेषता है।
दंडक वन की अनेक अद्भुत कथायें हैं आप उन्हें अवश्य सुनना चाहेंगे आइए सुनते हैं --
पहली कथा यह मिलती है कि राजा इक्ष्वाकुपुत्र दण्ड शुक्राचार्यजीके शापसे दण्डकवन हो गया। अन्य वार्ता अनुसार श्रीइक्ष्वाकुमहाराजका कनिष्ठ पुत्र दण्ड था । इसका राज्य विन्ध्याचल और नीलगिरि के बीचमें था । यहाँके सब वृक्ष झुलस गये थे, प्रजा नष्ट हो गयी और निशिचर रहने लगे। इसके दो कारण कहे जाते हैं - ( १ ) एक तो गोस्वामीजीने अरण्यकाण्डमें 'मुनि वर साप' कहा है, यथा - 'उग्र साप मुनिवर कर हरहू ।' कथा यह है कि एक समय बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। ऋषियोंको अन्न-जलकी बड़ी
चिन्ता हुई। सब भयभीत होकर गौतमऋषिके आश्रमपर जाकर ठहरे। जब सुसमय हुआ तब उन्होंने अपने-
अपने आश्रमोंको जाना चाहा, पर गौतम महर्षिने जाने न दिया, वरंच वहीं निवास करनेको कहा। तब
उन सबने सम्मत करके एक मायाकी गऊ रचकर मुनिके खेतमें खड़ी कर दी। मुनिके आते ही बोले
कि गऊ खेत चरे जाती है। इन्होंने जैसे ही हाँकनेको हाथ उठाया वह मायाकी गऊ गिरकर मर गयी,
तब वे सब आपको गोहत्या लगा चलते हुए। मुनिने ध्यान करके देखा तो सब चरित जान गये और
यह शाप दिया कि तुम जहाँ जाना चाहते हो, वह देश नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा ।
(२) दूसरी कथा यह है - पूर्वकालके सत्ययुगमें वैवस्वत मनु हुए। वे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको राज्यपर
बिठाकर और उपदेश देकर कि 'तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना । दण्डका अकारण
प्रयोग न करना।', ब्रह्मलोकको पधारे। इक्ष्वाकुने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनमेंसे जो सबसे कनिष्ठ (छोटा)
था, वह गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ था। वह शूरवीर और विद्वान् था और प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष
गौरवका पात्र हो गया था । इक्ष्वाकुमहाराजने उसका नाम 'दण्ड' रखा और विन्ध्याचलके दो शिखरोंके बीचमें
उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया जिसका नाम मधुमत्त था। धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया । तदनन्तर एक समय जब चैत्रकी मनोरम छटा चारों ओर छहरा रही थी। राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया तो वहाँ एक परम सुन्दरी कन्याको देखकर वह कामपीड़ित हो गया। पूछनेसे ज्ञात हुआ कि वह भार्गववंशोद्भव श्रीशुक्राचार्यजीकी ज्येष्ठ कन्या 'अरजा' है। उसने कहा कि मेरे पिता आपके
गुरु हैं, इस कारण धर्मके नाते मैं आपकी बहन हूँ। इसलिये आपको मुझसे ऐसी बातें न करनी चाहिये। मेरे
पिता बड़े क्रोधी और भयंकर हैं, आपको शापसे भस्म कर सकते हैं। अतः आप उनके पास जायँ और धर्मानुकूल
बर्तावके द्वारा उनसे मेरे लिये याचना करें। नहीं तो इसके विपरीत आचरण करनेसे आपपर महान् घोर दुःख
पड़ेगा। राजाने उसकी एक न मानी और उसपर बलात्कार किया। यह अत्यन्त कठोरतापूर्ण महाभयानक अपराध
करके दण्ड तुरन्त अपने नगरको चला गया और अरजा दीन-भावसे रोती हुई पिताके पास आयी । श्रीशुक्राचार्यजी
स्नान करके आश्रमपर जब आये तब अपनी कन्याकी दयनीय दशा देख उनको बड़ा रोष हुआ। ब्रह्मवादी, तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्यजीने शिष्योंको सुनाते हुए यह शाप दिया- 'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयंकर विपत्ति आ रही है, तुम सब लोग देखना । वह खोटी बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन लम्बा-चौड़ा है उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर जंगम जितने भी प्राणी हैं, उन सबोंका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है वहाँतक उपवनों
और आश्रमोंमें अकस्मात् सात राततक जलती हुई रेतकी वर्षा होती रहेगी । ' - 'धक्ष्यते पांसुवर्षेण महता
पाकशासनः।'यह कहकर शिष्योंको आज्ञा दी कि तुम आश्रममें रहनेवाले सब लोगोंको राज्यकी सीमासे बाहर ले जाओ । आज्ञा पाते ही सब आश्रमवासी तुरन्त वहाँसे हट गये। तदनन्तर शुक्राचार्यजी अरजासे बोले कि - यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न सरोवर है। तू सात्त्विक जीवन व्यतीत करती हुई सौ वर्षतक यहीं रह । जो पशु-पक्षी तेरे साथ रहेंगे वे नष्ट न होंगे। - यह कहकर शुक्राचार्यजी दूसरे आश्रमको पधारे। उनके कथनानुसार एक सप्ताहके भीतर दण्डका सारा राज्य जलकर भस्मसात् हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य' कहलाता है। यह कथा पद्मपुराण सृष्टिखण्डमें महर्षि अगस्त्यजीने श्रीरामजीसे कही, जब वे शम्बूकका वध करके विप्र - बालकको जिलाकर उनके आश्रमपर गये थे। इसके अनुसार चौपाईका भाव यह है कि प्रभुने एक दण्डकवनको, जो सौ योजन लम्बा था और दण्डके एक पापसे अपवित्र और भयावन हो गया था स्वयं जाकर हरा-भरा और पवित्र किया किन्तु श्रीनाममहाराजने तो असंख्यों जनोंके मनोंको, जिनके विस्तारका ठिकाना नहीं और जो असंख्यों जन्मोंके संस्कारवश महाभयावन और अपवित्र हैं, पावन कर दिया। 'पावन' में 'सुहावन' से विशेषता है। 'पावन' कहकर जनाया कि जनके मनके जन्म-जन्मान्तरके संचित अशुभ संस्कारोंका नाश करके उसको पवित्र कर देता है और दूसरोंको पवित्र करनेकी शक्ति भी दे देता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।