रविवार, 23 जून 2024

मानस चर्चा"दंडक बन"


मानस चर्चा"दंडक बन"
दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किय पावन ॥
अर्थात् प्रभु (श्रीरामजी) ने दण्डकवनको सुहावना ( हरा-भरा ) कर दिया। और,  प्रभु के नामने अमित (अनन्त) प्राणियोंके मनको पवित्र कर दिया। 'दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन'  । 'सुहावन' अर्थात्  हरा-भरा जो देखनेमें अच्छा लगे। भाव यह कि निशाचरोंके वहाँ रहनेसे और फल-फूल न होनेसे वह भयावन था, सो शोभायमान
हो गया । यथा - 'जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भये मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदी ताल छबि छाए ।
दिन दिन प्रति अति सुहाए ॥ ' पावन, पुनीत, पवित्र भी किया ; यथा - 'दंडक बन पुनीत प्रभु करहू ।'
'दंडक पुहुमि पायँ परसि पुनीत भई उकठे बिटप लागे फूलन फरन।' 
दण्डकवनको सुहावना कर देना, यह निःस्वार्थ जीवोंका पालन करना प्रभु का 'दया' गुण है ।
जैसा कि भगवद्गुणदर्पण में कहा गया है -
'दया दयावतां ज्ञेया स्वार्थस्तत्र न कारणम् ।' पुनश्च 'प्रतिकूलानुकूलोदासीन-सर्वचेतनाचेतनवस्तुविषयस्वरूपसत्तोपलम्भनरूपदालनानुगुणव्यापारविशेषो हि भगवतो दया' अर्थात् दयावानोंकी उस दयाको दया कहा जायगा जिसमें स्वार्थका लेश भी न हो। रूपमें जो यह दयालुता प्रकट हुई, उसी गुणको नामने लोकमें फैला दिया। उस दयाकी प्याससे अनेक लोग दयालु प्रभुका नाम-स्मरण करने लगे और पवित्र हो गये । इसीसे अमित जनोंके मनका नामद्वारा पावन होना कहा।
दण्डकवन एक है और जनमनरूपी वन 'अमित' यह विशेषता है।
दंडक वन की अनेक अद्भुत कथायें हैं आप उन्हें अवश्य सुनना चाहेंगे आइए सुनते हैं --
पहली कथा यह मिलती है कि राजा  इक्ष्वाकुपुत्र दण्ड शुक्राचार्यजीके शापसे दण्डकवन हो गया। अन्य वार्ता अनुसार श्रीइक्ष्वाकुमहाराजका कनिष्ठ पुत्र दण्ड था । इसका राज्य विन्ध्याचल और नीलगिरि के बीचमें था । यहाँके सब वृक्ष झुलस गये थे, प्रजा नष्ट हो गयी और निशिचर रहने लगे। इसके दो कारण कहे जाते हैं - ( १ ) एक तो गोस्वामीजीने अरण्यकाण्डमें 'मुनि वर साप' कहा है, यथा - 'उग्र साप मुनिवर कर हरहू ।' कथा यह है कि एक समय बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा। ऋषियोंको अन्न-जलकी बड़ी
चिन्ता हुई। सब भयभीत होकर गौतमऋषिके आश्रमपर जाकर ठहरे। जब सुसमय हुआ तब उन्होंने अपने-
अपने आश्रमोंको जाना चाहा, पर गौतम महर्षिने जाने न दिया, वरंच वहीं निवास करनेको कहा। तब
उन सबने सम्मत करके एक मायाकी गऊ रचकर मुनिके खेतमें खड़ी कर दी। मुनिके आते ही बोले
कि गऊ खेत चरे जाती है। इन्होंने जैसे ही हाँकनेको हाथ उठाया वह मायाकी गऊ गिरकर मर गयी,
तब वे सब आपको गोहत्या लगा चलते हुए। मुनिने ध्यान करके देखा तो सब चरित जान गये और
यह शाप दिया कि तुम जहाँ जाना चाहते हो, वह देश नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा । 
(२) दूसरी कथा यह है - पूर्वकालके सत्ययुगमें वैवस्वत मनु हुए। वे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको राज्यपर
बिठाकर और उपदेश देकर कि 'तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना । दण्डका अकारण
प्रयोग न करना।', ब्रह्मलोकको पधारे। इक्ष्वाकुने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनमेंसे जो सबसे कनिष्ठ (छोटा)
था, वह गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ था। वह शूरवीर और विद्वान् था और प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष
गौरवका पात्र हो गया था । इक्ष्वाकुमहाराजने उसका नाम 'दण्ड' रखा और विन्ध्याचलके दो शिखरोंके बीचमें
उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया जिसका नाम मधुमत्त था। धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया । तदनन्तर एक समय जब चैत्रकी मनोरम छटा चारों ओर छहरा रही थी। राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया तो वहाँ एक परम सुन्दरी कन्याको देखकर वह कामपीड़ित हो गया। पूछनेसे ज्ञात हुआ कि वह भार्गववंशोद्भव श्रीशुक्राचार्यजीकी ज्येष्ठ कन्या 'अरजा' है। उसने कहा कि मेरे पिता आपके
गुरु हैं, इस कारण धर्मके नाते मैं आपकी बहन हूँ। इसलिये आपको मुझसे ऐसी बातें न करनी चाहिये। मेरे
पिता बड़े क्रोधी और भयंकर हैं, आपको शापसे भस्म कर सकते हैं। अतः आप उनके पास जायँ और धर्मानुकूल
बर्तावके द्वारा उनसे मेरे लिये याचना करें। नहीं तो इसके विपरीत आचरण करनेसे आपपर महान् घोर दुःख
पड़ेगा। राजाने उसकी एक न मानी और उसपर बलात्कार किया। यह अत्यन्त कठोरतापूर्ण महाभयानक अपराध
करके दण्ड तुरन्त अपने नगरको चला गया और अरजा दीन-भावसे रोती हुई पिताके पास आयी । श्रीशुक्राचार्यजी
स्नान करके आश्रमपर जब आये तब अपनी कन्याकी दयनीय दशा देख उनको बड़ा रोष हुआ। ब्रह्मवादी, तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्यजीने शिष्योंको सुनाते हुए यह शाप दिया- 'धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयंकर विपत्ति आ रही है, तुम सब लोग देखना । वह खोटी बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन लम्बा-चौड़ा है उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर जंगम जितने भी प्राणी हैं, उन सबोंका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है वहाँतक उपवनों
और आश्रमोंमें अकस्मात् सात राततक जलती हुई रेतकी वर्षा होती रहेगी । ' - 'धक्ष्यते पांसुवर्षेण महता
पाकशासनः।'यह कहकर शिष्योंको आज्ञा दी कि तुम आश्रममें रहनेवाले सब लोगोंको राज्यकी सीमासे बाहर ले जाओ । आज्ञा पाते ही सब आश्रमवासी तुरन्त वहाँसे हट गये। तदनन्तर शुक्राचार्यजी अरजासे बोले कि - यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न सरोवर है। तू सात्त्विक जीवन व्यतीत करती हुई सौ वर्षतक यहीं रह । जो पशु-पक्षी तेरे साथ रहेंगे वे नष्ट न होंगे। - यह कहकर शुक्राचार्यजी दूसरे आश्रमको पधारे। उनके कथनानुसार एक सप्ताहके भीतर दण्डका सारा राज्य जलकर भस्मसात् हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य' कहलाता है। यह कथा पद्मपुराण सृष्टिखण्डमें महर्षि अगस्त्यजीने श्रीरामजीसे कही, जब वे शम्बूकका वध करके विप्र - बालकको जिलाकर उनके आश्रमपर गये थे।  इसके अनुसार चौपाईका भाव यह है कि प्रभुने एक दण्डकवनको, जो सौ योजन लम्बा था और दण्डके एक पापसे अपवित्र और भयावन हो गया था स्वयं जाकर हरा-भरा और पवित्र किया किन्तु श्रीनाममहाराजने तो असंख्यों जनोंके मनोंको, जिनके विस्तारका ठिकाना नहीं और जो असंख्यों जन्मोंके संस्कारवश महाभयावन और अपवित्र हैं, पावन कर दिया। 'पावन' में 'सुहावन' से विशेषता है। 'पावन' कहकर जनाया कि जनके मनके जन्म-जन्मान्तरके संचित अशुभ संस्कारोंका नाश करके उसको पवित्र कर देता है और दूसरोंको पवित्र करनेकी शक्ति भी दे देता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

रविवार, 9 जून 2024

मानस चर्चा नर नारायन सरिस सुभ्राता


मानस चर्चा नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥ 
राम के र  और म ,नर और नारायणके समान सुन्दर भाई हैं। यों तो वे  जगत्भरके पालनकर्ता हैं पर अपने जनके विशेष रक्षक हैं ॥ 
 'नर नारायणका भायप कैसा था' यह बात जैमिनीय भारतकी कथा में बहुत सुंदर ढंग से आयी है। जैमिनी
भारतमें कहते हैं कि एक हजार कवच वाले सहस्रकवची दैत्यने तपसे सूर्य भगवान्‌को प्रसन्न करके वर माँग लिया था कि मेरे शरीरमें हजार कवच हों, जब कोई हजार वर्ष युद्ध करे तब कहीं एक कवच टूट सके, पर कवच टूटते ही शत्रु मर जावे । उसको मारने के लिए  नर-नारायणावतार हुआ। एक भाई हजार वर्ष युद्ध करके मर जाता  तब दूसरा भाई मन्त्रसे उसे जिलाकर स्वयं हजार वर्ष युद्ध करके दूसरा कवच तोड़कर मरता, तब पहला इनको जिलाता और स्वयं युद्ध करता । इस तरहसे लड़ते-लड़ते जब एक ही कवच रह गया तब दैत्य भागकर सूर्यमें लीन हो गया और तब नर-नारायण बदरीनारायणमें जाकर तप करने लगे। वही असुर द्वापरमें कर्ण हुआ जो गर्भसे ही कवच धारण किये हुए निकला,तब बदरीनारायण में तप रत  नर-नारायणहीने ही अर्जुन और श्रीकृष्ण के रुप में अवतार लेकर उस सहस्रकवची दैत्य  कर्ण को मारा यह है नर नारायन सरिस सुभ्राता ।
एक दूसरी कथा भी लोक में प्रसिद्ध है ---
धर्मकी पत्नी दक्षकन्या मूर्तिके गर्भसे भगवान्ने शान्तात्मा ऋषिश्रेष्ठ नरऔर नारायणके रूपमें अवतार लिया। उन्होंने आत्मतत्त्वको लक्षित करनेवाला कर्मत्यागरूप कर्मका उपदेश किया। वे बदरिकाश्रममें आज भी विराजमान हैं। 
निर्गुणरूपसे जगत्का उपकार नहीं होता, जैसा कहा है कि 'ब्यापक एक ब्रह्म अबिनासी ।
सत चेतन घन आनँदरासी ॥' 
'अस प्रभु हृदय अछत अबिकारी। 
सकल जीव जग दीन दुखारी ॥' 
इसीलिये सगुण रुप में अवतार लिया। सगुणरूपसे सबका और सब प्रकारसे उपकार होता है, इसलिये रामनामके
दोनों वर्णोंका नर-नारायणरूपसे जगत्का पालन करना कहा। भाईपना ऐसा है कि जिह्वासे दोनों प्रकट
होते हैं। इसलिये जीभ माता है, 'र', 'म' भाई हैं। जैसा कि स्पष्ट है- 
'जीह जसोमति हरि हलधर से । ' 
 'बिसेषि जन त्राता' ऐसा कहने का भाव है कि  जैसे नर-नारायणने वैसे तो संपूर्ण  जगत्भरका पालन करते है, पर भरतखण्डकी विशेष रक्षा करते हैं; वैसे ही ये दोनों वर्ण जगन्मात्रके रक्षक हैं, पर जापक जनके विशेष
रक्षक हैं। जगन्मात्रका पालन इसी लोकमें करते हैं और जापक जन अर्थात् जो इनके सेवक हैं, भक्त हैं उनके लोक-परलोक दोनोंकी रक्षा करते हैं।  ईश्वरत्वगुणसे सबका और वात्सल्यसे अपने जनका पालन करते हैं। जैसा की कहा गया है----
- 'सब मम प्रिय सब मम उपजाये।'
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
 और
'सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रान प्रिय'
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब।।
 पुनः, नर-नारायण भरतखण्डके विशेष रक्षक हैं और वहाँ नारदजी उनके पुजारी हैं, वैसे ही यहाँ 'रा', 'म' भरतजीकी रीतिवाले भक्तोंरूपी भरतखण्डके विशेष रक्षक हैं, नामसे प्रेम करने वाले, स्नेह करने वाले, नारदरूपी पुजारी हैं। पुनः, नर-नारायण सदा एकत्र रहते हैं वैसे ही 'रा', 'म' सदा एकत्र रहते हैं। वे विशेष रुप से हमारा पालन  करते हैं अर्थात् हमें मुक्तिसुख देते हैं । 'जन' का  सेवक ,भक्त, 'दर्शक' आदि  अर्थ  होता हैं। जो सेवक, भक्त, दर्शक  बदरिकाश्रममें जाकर नर  नारायण रूप के दर्शन करते हैं  उस भक्त के लोक परलोककी रक्षा  वे स्वयं करते हैं। कहा भी गया है--
 'जो जाय बदरी, सो फिर न आवै उदरी ।' 
।।जय श्री राम जय हनुमान।। 

शनिवार, 8 जून 2024

मानस चर्चानाम प्रभाउ जान सिव नीको।

मानस चर्चा
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ श्रीशिवजी श्री राम नामका प्रभाव भलीभाँति जानते हैं राम नाम के प्रभाव से ही हालाहल विषने उनको अमृतका फल दिया ॥ 
 'नाम प्रभाउ जान सिव नीको' । 'नीको' अर्थात् भलीभाँति शिवजी ही सबसे अधिक राम नाम के प्रभावको जानते हैं तभी तो विनयपत्रिका में गोस्वामीजी ने लिखा है कि
'सतकोटि चरित अपार दधिनिधि
मथि लियो काढ़ि बामदेव नाम - घृतु है',
मानस में भी यही भाव मिलता है
ब्रह्म राम ते नाम बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सतकोटि महँ लिय महेस जिय जानि । ' और अहर्निश 'सादर जपहिं अनंग आराती'। देखिये, सागर मथते समय सभी देवगण वहाँ उपस्थित थे और सभी नामके परत्व और महत्त्वसे भिज्ञ थे, तब औरोंने क्यों न पी लिया हलाहल कालकूट को? कारण स्पष्ट है कि वे सब श्रीरामनामके प्रतापको 'नीकी' भाँति नहीं जानते थे । जैमिनिपुराणमें भी इसका प्रमाण है; कि - 
'रामनाम परं ब्रह्म सर्वदेवप्रपूजितम् ।
महेश एव जानाति नान्यो जानाति वै मुने ॥ ' पद्मपुराणमें एक श्लोक ऐसा भी है, 
'रामनामप्रभावं यज्जानाति गिरिजापतिः।
 तदर्थं गिरिजा वेत्ति तदर्धमितरे जनाः ॥ ' 
 अर्थात् राम-नामका प्रभाव जो शिवजी जानते हैं, गिरिजाजी उसका आधा जानती हैं तो फिर अन्य लोग उस 'कालकूट फल दीन्ह अमी को' कैसे जान जाते। श्रीमद्भागवत में यह कथा दी है कि 
'छठे मन्वन्तरमें नारायणभगवान् अजितनामधारी हो अपने अंशसे प्रकट हुए देवासुर संग्राम में दैत्य देवताओंका विनाश कर रहे थे। दुर्वासा ऋषिको विष्णुभगवान्ने मालाप्रसाद दिया था। उन्होंने इन्द्रको ऐरावतपर सवार रणभूमिकी ओर जाते देख वह प्रसाद उनको दे दिया । इन्द्रने प्रसाद हाथीके मस्तक पर रख दिया जो उसने पैरोंके नीचे कुचल डाला । इसपर ऋषिने शाप दिया कि 'तू शीघ्र ही श्रीभ्रष्ट हो जायगा।' इसका फल तुरन्त उन्हें मिला । संग्राममें इन्द्रसहित तीनों लोक श्रीविहीन हुए । यज्ञादिक धर्मकर्म बन्द हो गये। जब कोई उपाय न समझ पड़ा, तब इन्द्रादि देवता शिवजीसहित ब्रह्माजीके पास सुमेरु
शिखरपर गये। इनका हाल देख-सुन ब्रह्माजी सबको लेकर क्षीरसागरपर गये और एकाग्रचित्त हो परमपुरुषकी
स्तुति करने लगे और यह भी प्रार्थना की कि 'हे भगवन्! हमको उस मनोहर मूर्त्तिका शीघ्र दर्शन दीजिये, जो हमको अपनी इन्द्रियोंसे प्राप्त हो सके।' भगवान् हरिने दर्शन दिया, तब ब्रह्माजीने प्रार्थना की कि
'हमलोगोंको अपने मंगलका कुछ भी ज्ञान नहीं है, आप ही उपाय रचें, जिससे सबका कल्याण हो ।' भगवान् बोले
कि‘हे ब्रह्मा ! हे शम्भुदेव ! हे देवगण ! वह उपाय सुनो, जिससे तुम्हारा हित होगा। अपने कार्यकी सिद्धिमें कठिनाई देखकर अपना काम निकालनेके लिये शत्रुसे मेल कर लेना उचित होता है। जबतक तुम्हारी वृद्धिका समय न आवे तबतकके लिये तुम दैत्योंसे मेल कर लो। दोनों मिलकर अमृत निकालनेका प्रयत्न करो । क्षीरसागरमें तृण, लता, ओषधि, वनस्पति डालकर सागर मथो । मन्दराचलको मथानी और वासुकिको रस्सी बनाओ। ऐसा करने से तुमको अमृत मिलेगा। सागरसे पहले कालकूट निकलेगा, उससे न डरना, फिर रत्नादिक निकलेंगे इनमें लोभ न करना....'''। यह उपाय बताकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास सन्धिके लिये गये।- समुद्र मथकर अमृत निकालनेकी इन्द्रकी सलाह दैत्य- दानव सभीको भली लगी। सहमत हो दानव, दैत्य और देवगण मिलकर मन्दराचलको उखाड़ ले चले। उनके थक जानेसे पर्वत गिर पड़ा। उनमेंसे बहुतेरे कुचल गये । इनका उत्साह भंग हुआ।यह देख भगवान् विष्णु गरुड़पर पहुँच गये......'और लीलापूर्वक एक हाथसे पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख उन्होंने उसे क्षीरसागरमें पहुँचा दिया। वासुकिको अमृतमें भाग देने को कह कर उनको रस्सी बननेको उत्साहित किया गया। मन्दराचलको जलपर स्थित रखनेके लिये भगवान्ने कच्छपरूप धारण किया। जब बहुत मथनेपर भी अमृत न निकला, तब अजितभगवान् स्वयं मथने लगे। पहले कालकूट निकला जो सब लोकोंको असह्य हो उठा, तब भगवान्‌का इशारा पा सब मृत्युंजय शिवजीकी शरण गये और जाकर उन्होंने उनकी स्तुति की। भगवान् शंकर करुणालय इनका दुःख देख सतीजी से बोले कि 'प्रजापति महान् संकटमें पड़े हैं, इनके प्राणोंकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। मैं इस विषको पी लूँगा जिसमें इनका कल्याण हो।' भवानीने इस इच्छाका अनुमोदन किया ।जैसा कि स्पष्ट है-' श्रीरामनामाखिलमन्त्रबीजं मम जीवनं च हृदये प्रविष्टम् | हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं वा विशतां कुतो भयम्॥'
 शिवजीने उस सर्वतोव्याप्त कालकूटको हथेलीपर रखकर पी लिया । नन्दीपुराणमें नन्दीश्वरके वचन हैं कि
 शृणुध्वं भो गणास्सर्वे रामनाम परं बलम् । यत्प्रसादान्महादेवो हालाहलमयीं पिबेत् ॥ 
''जानाति रामनाम्नस्तु परत्वं गिरिजापतिः ।
 ततोऽन्यो न विजानाति सत्यं सत्यं वचो मम ॥' 
 विद्वानों की मान्यता है कि 'रा' उच्चारणकर शिवजीने हालाहलविष कण्ठमें धर लिया और फिर 'म' कहकर मुख बन्द कर लिया। जिस के कारण जहर कंठ में ही रुक गया।यह है राम नाम का प्रभाव जिसे महादेव ही जानते ।
कालकूट फलु दीन्ह फल दीन्ह अमी । विषपानका फल मृत्यु है, पर आपको वह विष भी श्रीराम- नामके प्रतापसे अमृत हो गया; कहा भी गया है की - 
'खायो कालकूट भयो अजर अमर तन ।'
इस विषकी तीक्ष्णतासे महादेव का कण्ठ नीला पड़ गया जिससे आपका नाम 'नीलकण्ठ' पड़ा। आइए हम महादेव की जय कार करे ,हर हर महादेव जय शिव शंकर।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चासहस नाम सम सुनि सिव बानी

मानस चर्चा
सहस नाम सम सुनि सिव बानी।जपि जेईं पिय संग भवानी॥ 
श्रीशिवजीके ये वचन सुनकर कि एक 'राम' नाम (विष्णु) सहस्रनामके समान है, श्रीपार्वतीजी तबसे बराबर श्रीरामनामको अपने प्रियतम पतिके साथ सदा जपती हैं ॥ 
श्रीपार्वतीजीकी इस प्रसंगके सम्बन्धकी कथा पद्मपुराण उत्तरखण्ड अ० २५४ में इस प्रकार से है कि एकबार
श्रीपार्वतीजीने श्रीवामदेवजीसे वैष्णवमन्त्रकी दीक्षा ली थी। फिर श्रीशिवजीने श्रीपार्वतीजीसे कहा कि हम
कृतकृत्य हैं कि तुम ऐसी वैष्णवी भार्या हमें मिली हो। तुम अपने गुरु महर्षि वामदेवजीके पास जाकर उनसे पुराणपुरुषोत्तमकी पूजाका विधान सीखकर उनका अर्चन करो। श्रीपार्वतीजीने जाकर गुरुदेवजीसे प्रार्थना की तब वामदेवजीने श्रेष्ठ मन्त्र और उसका विधान उनको बताया और विष्णुसहस्रनामका नित्य पाठ करनेको कहा। जैसा कि कहा भी गया है—
'इत्त्युक्तस्तु तया देव्या वामदेवो महामुनिः ।
 तस्यै मन्त्रवरं श्रेष्ठं ददौ स विधिना गुरुः ॥'
नाम्नां सहस्त्रविष्णोश्च प्रोक्तवान् मुनिसत्तमः ।'
एक समयकी बात है कि द्वादशीको सदा शिवजी जब भोजनको बैठे तब उन्होंने पार्वतीजीको साथ भोजन करनेको बुलाया। उस समय वे विष्णुसहस्रनामका पाठ कर रही थीं, अतः उन्होंने निवेदन किया कि अभी मेरा पाठ समाप्त नहीं हुआ। तब शिवजी बोले कि तुम धन्य हो कि भगवान् पुरुषोत्तममें तुम्हारी ऐसी भक्ति है और कहा कि
 'रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।
 तेन रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ ' 
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
 सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ' 
 रामेत्युक्त्वा महादेवि भुङ्क्ष्व सार्धंमयाधुना ॥
  अर्थात् योगीलोग अनन्त सच्चिदानन्द परमात्मामें रमते हैं, इसीलिये 'राम' शब्द को ही परब्रह्म कहा जाता है ॥ हे रमे ! हे सुन्दरि ! मैं राम-राम इस प्रकार जप करते हुए अति सुन्दर श्रीरामजीमें अत्यन्त रमता हूँ। तुम भी अपने मुखमें इस राम-नामका वरण करो,क्योंकि विष्णुसहस्रनाम इस एक रामनामके तुल्य है ॥ अतः महादेवि ! एक बार 'राम' ऐसा उच्चारण कर मेरे साथ आकर भोजन करो ॥ यह सुनकर श्रीपार्वतीजीने 'राम' नाम एक बार उच्चारण कर शिवजीके साथ भोजन कर लिया और तबसे पार्वतीजी बराबरश्रीशिवजीके साथश्री राम नाम जपा करती हैं। जैसा कि- वसिष्ठ कहा है- 
'ततो रामेति नामोक्त्वा सह भुक्त्वाथ पार्वती ।
रामेत्युक्त्वा महादेवि शम्भुना सह संस्थिता ॥ ' 
      मानस की यह पक्ती तो जन जन जानता ही है कि - 'मंगल भवन अमंगल हारी ।
 उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥'
 'जपि जेईं' पाठका अर्थ होगा जप किया और 'पतिके साथ जाकर भोजन कर लिया' । 'सिव बानी' शिववाणी कहनेका भाव यह है कि यह वाणी कल्याणकारी है, ईश्वरवाणी है, मर्यादायुक्त है; इसीसे बेखटके श्रीपार्वतीजीको निश्चय हो गया। वे जानती हैं कि
 संभु गिरा पुनि मृषा न होई।'
सिव सर्बग्य जान सबु कोई।।
   सनातन धर्म को मानने वाले के लिए पद्मपुराणकी उपर्युक्त कथासे यह शंका भी दूर हो जाती है कि 'क्या पतिके रहते हुए स्त्री दूसरेको गुरु कर सकती है ?' जगद्गुरु श्रीशंकरजीके रहते हुए भी श्रीपार्वतीजीने वैष्णवमन्त्रकी दीक्षा महर्षि वामदेवजीसे ली। श्रीनृसिंहपुराणमें श्रीनारदजीने श्रीयाज्ञवल्क्यजीसे कहा है कि पतिव्रताओंको श्रीरामनाम- कीर्तनका अधिकार है, इससे उनको इस लोक और परलोकका सब सुख प्राप्त हो जाता है। जैसा की कहा गया है-
'पतितानां सर्वासां रामनामानकीर्तन
ऐहिकाममिकं सौख्यं दायकं सर्वशोभते ॥' 
यह अद्भुत राम नाम की महत्ता 
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा महिमा जासु जान गनराऊ ।

मानस चर्चा 
महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।
अर्थात् जिस श्रीरामनाम की महिमा श्रीगणेशजी जानते हैं। श्रीरामनामहीके प्रभावसे वे सब देवताओंसे पहले पूजे जाते हैं ॥ अर्थात् श्री राम नाम का प्रभाव  अप्रतिम है ।इस बात को सिद्ध करने वाली श्रीगणेशजीकी कथा शैवतन्त्रमें आती है कि जब श्री शिवजीने गणेशजीको प्रथम पूज्य बनाने की बात  शुरू किया तब स्वामिकार्त्तिकेयजीने
आपत्ति की कि हम बड़े भाई हैं, यह अधिकार हमको मिलना चाहिये। श्रीशिवजीने दोनोंको ब्रह्माजी के
पास न्याय कराने भेजा ।  आगे ब्रह्माजीने  सभी देवताओं को बुलाया और सब देवताओंसे पूछा कि तुममेंसे प्रथम पूज्य होनेका अधिकारी कौन है; तब सब ही अपने-अपनेको प्रथम पूजनेयोग्य कहने लगे ।
आपसमें वादविवाद बढ़ते देख श्रीब्रह्माजी बोले कि जो तीनों लोकोंकी परिक्रमा सबसे पहले करके हमारे
पास आवेगा वही प्रथम पूज्य होगा। स्वामिकार्त्तिकजी मोरपर अथवा सब देवता अपने-अपने वाहनों पर
परिक्रमा करने चले। गणेशजीका वाहन मूसा है। इससे ये सबसे पीछे रह जानेसे बहुत ही उदास हुए ।
उसी समय प्रभुकी कृपासे नारदजीने मार्गहीमें मिलकर उन्हें उपदेश किया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ' श्रीरामनाम'
के अन्तर्गत है । तुम 'राम' नामहीको पृथ्वीपर लिखकर नामहीकी परिक्रमा करके ब्रह्माजीके पास चले
जाओ । इन्होंने ऐसा ही किया । अन्य सब देवता जहाँ-जहाँ जाते, वहाँ ही अपने आगे मूसाके पैरोंके चिह्न
पाते थे। इस प्रकार गणेशजी श्रीरामनामके प्रभावसे प्रथम पूज्य हुए।
              एक अन्य कथाके अनुसार श्रीगणेशजीने  श्रीरामनामके कीर्त्तनसे अपना प्रथम पूज्य होना कहा है और यह भी कहा है कि उस 'राम' नामका प्रभाव आज भी मेरे हृदयमें विराजमान एवं प्रकाशित है। इस कथा में श्री जगदीश्वरका इनको रामनामकी महिमाका उपदेश करना कहा है।  - 
'रामनाम परं ध्येयं ज्ञेयं पेयमहर्निशम् । 
सदा वै सद्धिरित्युक्तं पूर्वं मां जगदीश्वरैः ॥
'अहं पूज्यो भवल्लोके श्रीमन्नामानुकीर्तनात् ॥'
'तदादि सर्वदेवानां पूज्योऽस्मि मुनिसत्तम। 
रामनामप्रभा दिव्या राजते मे हृदिस्थले ॥' 
पद्मपुराणसृष्टिखण्डमें श्रीगणेशजीके प्रथम पूज्य होनेकी एक दूसरी कथा जो व्यासजीने संजयजीसे कही है।  वह कथा यह है कि श्रीपार्वतीजीने पूर्वकालमें भगवान् शंकरजीके संयोगसे स्कन्द और गणेश नामक दो
पुत्रोंको जन्म दिया। उन दोनोंको देखकर देवताओंकी पार्वतीजीपर बड़ी श्रद्धा हुई और उन्होंने अमृत
तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक पार्वतीजीके हाथमें दिया । मोदक देखकर दोनों बालक उसे माता से
माँगने लगे। तब पार्वतीजी विस्मित होकर पुत्रोंसे बोलीं- 'मैं पहले इसके गुणोंका वर्णन करती हूँ, तुम दोनों सावधान होकर सुनो। इस मोदकके सूँघनेमात्रसे अमरत्व प्राप्त होता है और जो इसे सूँघता वा खाता है वह सम्पूर्ण शास्त्रोंका मर्मज्ञ, सब तन्त्रोंमें प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान्, ज्ञान-विज्ञानके तत्त्वको जाननेवाला और सर्वज्ञ होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । पुत्रो ! तुममेंसे जो धर्माचरणके द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसीको मैं यह मोदक दूँगी । तुम्हारे पिताकी भी यही सम्मति है । '
माताके मुखसे ऐसी बात सुनकर परम चतुर स्कन्द मयूरपर आरूढ़ हो तुरन्त ही त्रिलोकीके तीर्थोंकी यात्राके लिये चल दिये। उन्होंने मुहूर्त्तभरमें सब तीर्थोंका स्नान कर लिया। इधर लम्बोदर गणेशजी श्रीस्कन्दजीसे भी बढ़कर बुद्धिमान् निकले। वे माता-पिताकी परिक्रमा करके बड़ी प्रसन्नताके साथ पिताजीके सम्मुख खड़े हो गये। क्योंकि माता - पिताकी परिक्रमासे सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमा हो जाती है। जैसा कि  पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड  में कहा भी गया है-
'सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता ।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ॥
मातरं पितरंचैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम् ।
प्रदक्षिणीकृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ॥'
श्री  गणेशजी की परिक्रमा पूर्ण होते ही श्रेकार्तिकेय जी भी आकर खड़े हुए और बोले, 'मुझे मोदक दीजिये ' । तब पार्वतीजी बोलीं, समस्त तीर्थोंमें किया हुआ स्नान, देवताओंको किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञोंका अनुष्ठान तथा सब प्रकारके सम्पूर्ण व्रत, मन्त्र, योग और संयमका पालन ये सभी साधन माता-पिताके पूजनके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकते । इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गुणोंसे भी बढ़कर है। अतः देवताओंका बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेशको ही अर्पण
करती हूँ । माता - पिताकी भक्तिके कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञमें सबसे पहले पूजा होगी। महादेवजी बोले,
'इस गणेशके ही अग्रपूजनसे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होगें' ।
यह है  राम नाम का प्रभाव ---
महिमा जासु जान गनराऊ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

बुधवार, 5 जून 2024

मानस चर्चा श्रीहनुमानजी का तीन नामों से वंदना

मानस चर्चा  श्रीहनुमानजी का तीन नामों से वंदना 
मानसकार  गोस्वामी तुलासीदासजी वंदना क्रम में लिखते है कि 
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥
यहां हमे महाबीर, हनुमान और पवनकुमार तीन नाम मिल रहे हैं।आखिर तीन नामों से वंदना क्यों जानते इस विशेष तथ्य को ।किसी मानस मर्मज्ञ  ने इसके उत्तर में क्या खूब लिखा है 
महाबीर हनुमान कहि, पुनि कह पवनकुमार।
देव इष्ट अरु भक्त लखि, बंदउ कवि त्रयबार।। अर्थात् महाबीर,हनुमान और फिर पवनकुमार कहकर देव इष्ट अरु भक्त के रूप में तीन बार वंदना की गई है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सेवक स्वामि सखा सिय पी के।। रुपों को ध्यान में रखकर तीन नामों से वंदना सापेक्ष्य है सोदेश्य है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा (धोबी की कथा)सियनिंदक अघ ओघ नसाए

मानस चर्चा (धोबी की कथा)
सियनिंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ।।
प्रभु श्री राम ने श्रीसीताजीकी निन्दा करनेवाले अपने पुरीमें ही रहनेवाले धोबी अथवा पुरवासियों  के पापसमूहका नाश किया और अपने विशोकलोकमें आदरसहित उनको वास दिया ॥ 
यहाँ 'विशोक'लोक=सान्तानिकपुर है |
वाल्मीकीय रामायण तथा अध्यात्मरामायणमें यह कथा दी है और गीतावलीसे भी पुरवासियोंहीका निन्दा करना पुष्ट होता है ।गीतावली  में कहा है कि
'चरचा चरनिसों चरची जानमनि रघुराइ । 
दूत- मुख सुनि लोक-धुनि धर धरनि बूझी आइ ।'
ममता यह दिखायी कि प्राणप्यारी श्रीसीताजीका परित्याग सहन किया,निन्दकको दण्ड न दिया, किन्तु अयोध्यामें उसको बसाये रखा और निन्दाके शोकसे भी रहित कर दिया । ऐसा सहनशील प्रभु और कौन होगा? ऐसा लोकमर्यादाका रक्षक कौन होगा? प्रजाको प्राणसे भी अधिक माननेवाला कौन होगा? उनको अपनी प्रजाके लिये कैसा मोह है ! वे यह नहीं सह सकते कि प्रजा
दुराचारिणी हो जाय । 'मर्यादापुरुषोत्तम' पदवी इन्हींको मिली है, फिर भला वे कब सह सकेंगे कि उनकी
प्रजा 'मनुष्यत्व' और 'धर्मनीति' की मर्यादासे गिर जाय ? यद्यपि श्रीसीता  पर कलंक सर्वथा झूठा है, यद्यपि उसके साक्षी देवता मौजूद हैं, पर इस समय यदि प्रजाका समाधान देवता भी आकर कर देते तो भी प्रजाके जीसे
उसका अंकुर न जाता । मन, कर्म, वचन तीनोंसे उनको सदाचारी बननेका सर्वोत्तम उपाय यही हो सकता
था; अन्य नहीं । पातिव्रत्यधर्मकी मर्यादा नष्ट न होने पावे, राज्य और राजाके आचरणपर धब्बा न लगाया
जा सके, इत्यादि विचार राजा रामचन्द्रजीके हृदयमें सर्वोपरि विराजमान थे। तभी तो उनके दस हजार वर्षसे
भी अधिक राज्यके समयमें अकालका नाम भी न सुना गया, कुत्ता जैसे जानवर आदि के  साथ भी न्याय हुआ । सोचिये तो आजकलके राजा और प्रजाकी दशा ! क्या किसी रानीके चरितपर कलंक लगानेवाला जीता रह सकता था? क्या आजकलके न्याय और न्यायालय हमें सत्यधर्मसे च्युत नहीं करते? इत्यादि । विनयके इस पद को देखें ----
'बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको ।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥' 
अध्यात्मरामायणमें उत्तरकाण्डके चौथे
 सर्गमें लिखा है कि-----
 'दशवर्षसहस्त्राणि मायामानुषविग्रहः ।
चकार राज्यं विधिवल्लोकवन्द्यपदाम्बुजः ॥
'देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते।
कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादंत्वदाश्रयम् ॥
त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः ॥
अर्थात् मायामानुषरूपधारी श्रीरामजीने जिनके
चरणकमलोंकी वन्दना त्रैलोक्य करता है, विधिपूर्वक दस हजार वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात् एक दिन
महारानीजीने उनसे कहा कि देवता मुझसे बार-बार कहते हैं कि आप वैकुण्ठ चलें तो श्रीरामजी भी वैकुण्ठ
आ जायेंगे, इत्यादि। श्रीरामजीने कहा कि मैं सब जानता हूँ। इसके लिये तुम्हें उपाय बताता हूँ। मैं तुमसे सम्बन्ध
रखनेवाले लोकापवादके बहाने से तुम्हें, लोकापवादसे डरनेवाले अन्य पुरुषोंके समान वनमें त्याग दूँगा ।  आपसमें यह सलाह हो जानेपर श्रीरामजीने अपने दूत विजय से पूछा कि मेरे, सीताके, मेरी माताओं, मेरी भाइयोंके अथवा माताकैकेयीजीके विषयमें पुरवासी क्या कहते हैं तब उसने कहा कि 'सर्वे वदन्ति ते ---
किन्तु हत्वा दशग्रीवं सीतामाहृत्य राघवः ।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा स्वं वेश्म प्रत्यपादयत् ॥ 
अस्माकमपि दुष्कर्म योषितां मर्षणं भवेत्। 
यादृग् भवति वै राजा तादृश्यो नियतं प्रजाः ॥'  
अर्थात् सभी कहते हैं कि उन्होंने रावणको मारकर सीताजीको बिना किसी प्रकारका सन्देह किये ही अपने साथ लाकर रख लिया। अब हमें भी अपनी स्त्रियोंके दुश्चरित सहने पड़ेंगे, क्योंकि जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा भी होती है ।कुछ लोग ------
'सिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज , (रज यानि धोबी)
निज नय नगर बसाई '
विनयके इस पद  के उद्धरणके बलपर 'सिय निंदक' से कुछ लोग 'धोबी'  द्वारा की गई निंदा का अर्थ ग्रहण करते हैं। लेकिन इसके पीछे की कहानी तो कुछ और ही है--- लगभग दस हजार वर्ष राज्य कर चुकने के पीछे प्रभुकी इच्छासे नगरमें कुछ काना-फूसी श्रीजानकीजीके बारेमें होने लगी। यह चर्चा सर्वत्र गुप्तरूपसे प्रारम्भ हुई, प्रकटरूपसे एक धोबीका निन्दा करना पाया जाता है। यह धोबी कौन था ? इसके प्रसंगमें यह कथा है कि वह  धोबी पूर्वजन्ममें शुक था। यह शुक अपनी शुकीके साथ क्रीड़ा कर रहा था। श्रीजानकीजीका उस समय बालपन था। आपने दोनोंको अलग-अलग पिंजरेमें कर दिया । शुकने वियोगमें श्री किशोरीजी को शाप दिया कि जैसे तुमने हमको शुकीसे छुड़ाया, वैसे ही तुम्हारा भी विछोह तुम्हारे पतिसे होगा ।
'अवधवासी सब कृतार्थरूप हैं। जैसा कि - 
'उमा अवधबासी नर नारि कृतारथरूप ।' 
तब उन्होंने ऐसे कठोर वचन कैसे कहे ? और फिर श्रीरघुनाथजीने यह भागवतापराध कैसे क्षमा कर दिया ?' इसका समाधान यह है कि - (क) उनका कोई अपराध नहीं है। बालकृष्णदास स्वामी 'सिद्धान्ततत्त्वदीपिकाकार' लिखते हैं कि-
'तिहि जो कह्यौ राम हौं नाहीं ।
इती शक्ति कहँ है मो माहीं ॥ 
जिहि आवत रावण है जान्यो ।
राखहु छाया सियहि बखान्यो । 
लै निज प्रिया अग्नि महँ राखी।
जननी जानि तेहि सुअभिलाषी ॥
छाया हरण हारहू मारयो । 
यों जग महँ निज यश विस्तारयो ॥
तिहि समता अब हौं क्यों करों ।
या करि जग अपयश ते डरों ।
सियहू रूपशील गुण करि कै।
सब बिधि अतुल पतिव्रत धरिकै ।
अपनो पिय अस वश तेहि कीनो । 
निशि दिन रहै तासु रस भीनो ॥
तिहि सम तू न हौं न बस तेरे ।
यों नहिं तुहि राखों निज नेरे ॥'
इस प्रकार उसने श्रीजानकीजीके गुण गाकर अपनी स्त्रीको शिक्षा दी। उसके अन्तःकरणमें तो कोई विकार न
था, परन्तु ऊपरसे सुननेमें लोगोंको और दूत विजय को उसकी बातें अनैसी  अर्थात् बुरी लगीं। प्रभु तो हृदयकी लेते हैं। जैसा कि-
 'कहत नसाइ होइ हिय नीकी । 
 रीझत राम जानि जन जी की ।'
 पुनः  वाल्मीकिजी सीताजीको पुत्रीरूपसे भजते थे।
उनकी आशा पूर्ण करनेके लिये यह चरित किया । पुनः,  अपने वीरोंको अभिमान हो गया था कि रावण - ऐसेको हमलोगोंने जीता, उन सबोंका अभिमान अपने पुत्रोंद्वारा नाश करानेके लिये लीला की । पुनः, पिताकी शेष आयुका भोग करना है, उस समय सीताजीको साथ रखनेसे धर्ममें बट्टा लगता । अतःरजक अर्थात् धोबी द्वारा यह त्यागका चरित किया। इसमें रजकका दोष क्या ?
'सियनिंदक अघ ओघ नसाए' इति । 
भाव यह कि साधारण किसीकी भी निन्दा करना 
पाप है । जैसा की -
' पर निंदा सम अघ न गरीसा'  
श्रीसीताजी तो 'आदिशक्ति' ब्रह्मस्वरूपा हैं कि 'जासु कृपाकटाक्ष सुर चाहत चितव न सोइ' और 'जासु अंस उपजहिं गुन खानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥' इनकी निन्दा करना तो पापका समूह ही बटोरना है। इसलिये 'अघ ओघ' कहा। कोई-कोई लोग जो भगवद्भक्त नहीं हैं सीतात्यागके कारण श्रीरामचन्द्रजीपर दोषारोपण करते हैं। साधारण दृष्टिसे उसका उत्तर यह है कि भगवान्‌ के छः ऐश्वर्योंमेंसे एक 'वैराग्य' भी है। अर्थात् कामिनीकांचनका त्याग। 'कांचन' अर्थात् राज्यवैभवका त्याग जिस प्रकार हँसते-हँसते भगवान्ने वनगमनके समय किया था—
 'नवगयंद रघुबंसमनि राज अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंद अधिकान।।
उसी तरह अनासक्त भावसे।विशुद्धचरिता, पतिव्रता, निज भार्याका त्याग भी भगवान्ने मिथ्यापवादके कारण किया। और महापतित रजकके दोषपर तनिक भी ध्यान न देते हुए उसे परधाममें आश्रय दिया, उसपर जरा भी रोष नहीं प्रकट किया। इस प्रकार रागरोषरहित मानसका परिचय दिया। इसी तरह लोकमतका आदर करके उन्होंने परमोत्कृष्ट नैतिक भावकी प्रतिष्ठा की, एवं इसी बहाने वात्सल्यरस - रसिक महर्षि वाल्मीकिकी पुरातन इच्छकी पूर्ति की । 
' 'लोक बिसोक बनाइ बसाए' अब यह जानते हैं कि, पुरवासियों अथवा धोबी के 'अघ ओघ' का नाश करके फिर क्या किया? उसको कौन धाम मिला ? इसपर महानुभाव अनेक भाव कहते हैं और ये सब भाव 'लोक बिसोक से ही निकाले हैं - विनयपत्रिकाके के पद
'तिय- निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नयनगर बसाई'
के आधारपर पं० रामकुमारजी यह भाव कहते हैं कि श्रीसीताजीकी निन्दा करनेसे दिव्य लोककी प्राप्ति नाश हो गयी थी, इसलिये दूसरा 'बिसोक लोक' जहाँ गिरनेका शोक नहीं है अर्थात्  अक्षयलोक  बनाकर उसमें उसको बसाया। यही विनयपत्रिकावाला 'नया नगर' है। यहां 'नय' का अर्थ'नया' ही लिया जाता  हैं। ऐसी  मान्यता है कि श्रीअयोध्या में विरजानदीके पार अयोध्याके दक्षिणद्वारपर  सांतानिकपुर है, जिसकी 'वन' संज्ञा है, जैसे --
वृन्दावन,  आनन्दवन,  - प्रमोदवन -बदरीवन  हैं वैसे ही सांतानिकपुर  अयोध्याहीमें है, वहाँ बसाया ।  सदाशिवसंहिताका में कहा भी गया है कि  - 
'त्रिपाद भूतिवैकुण्ठे विरजायाः परे तटे ।
या देवानां पुरायोध्या ह्यमृते तां नृतां पुरीम् ॥ साकेतदक्षिणद्वारे हनुमन्नामवत्सलः ।
यत्र सांतानिकं नामवनं दिव्यं हरेः प्रियम् ॥' 
धोबी  ने श्रीसीताजीके पातिव्रत्यपर सन्देह किया 
था, इसीसे उसके मन में इस बात को लेकर शोक था। उस सन्देह और शोकको श्रीवाल्मीकिजी तथा श्रीसीताजीको श्रीरामजीने सबके सामने बुलाकर सत्य शपथ दिलाकर मिटाया; जैसा कि अध्यात्मरामायण में कहा है- 
'भगवन्तं महात्मानं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम् ।
आनयध्वं मुनिवरं ससीतं देवसम्मितम् ॥
अस्यास्तु पार्षदो मध्ये प्रत्ययं जनकात्मजा । 
करोतु शपथं सर्वे जानन्तु गतकल्मषाम् ॥ ' 
 अर्थात् 'श्रीरामजीने कहा कि देवतुल्य मुनिश्रेष्ठ भगवान् श्रीवाल्मीकिजीको सीताजीके सहित लाओ। इस सभामें जानकीजी सबको विश्वास करानेके लिये शपथ करें, जिससे सब लोग सीताजीको निष्कलंक जान ले और इस धोबी  का शोक भी नष्ट हो जायें।' दोनों सभामें आये। पहले महर्षि वाल्मीकिजीने शपथ खायी, फिर श्रीजानकीजीने। और इसके बाद सभी का शोक दूर हो गया।  इस प्रकार प्रभु श्री राम ने 
सियनिंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।