।।सत्संग की महिमा ।।
ब्रह्मऋषि बाल्मिकी, देवर्षिनारद और महर्षि अगस्त्य की कथा सुनते है
मानस चर्चा में ---
सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधुसमाज प्रयाग ॥
१ -जो लोग या भक्त जन साधुसमाज प्रयाग के माहात्म्य को आनन्दपूर्वक सुनकरसमझते हैं और प्रसन्न मनसे अत्यन्त अनुरागसे इसमें स्नान करते हैं, वे जीते जी इसी शरीरमें चारों फल प्राप्त कर लेते हैं॥
'सुनि समुझहिँ ' को हम मानस में ही समझते हैं देखें---'कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥और भी स्पष्ट समझ लेते हैं कि काशी और प्रयाग का फल तो राम नाम अनुराग में ही है जैसा कि --
कासी बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग ।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम नाम अनुराग ॥आज की
मानस चर्चा सत्संग की महिमा पर है जिसे ब्रह्मऋषि बाल्मिकीजी, देवरिषि नारदजी और महर्षि अगस्त्यजी ने अपने अपने मुख से सुनाई है यहां श्री गणेश करते है कि -
सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधुसमाज प्रयाग ॥
नोट - (१) इस दोहे में सन्त समाजप्रयागके स्नानकी तीन सीढ़ियाँ लिखते हैं। 'सुनना' अर्थात् किनारे पहुँचना है, 'समझना 'अर्थात् धारामें प्रवेश करना है और जो समझनेसे आनन्द, अनुराग होता है यही डुबकी या
गोता लगाना है। इस विधानसे सन्त समाजप्रयागके स्नानसे इसी तनमें चारों फल मिलते हैं।
पुन: (२) श्रवण, मनन और अभ्यास अथवा यों कहें कि दर्शन स्पर्श और स्नान अर्थात् समागम ये तीन बातें आवश्यक बतायी हैं। जिनके फल बताए गए हैं ---
'मुख दीखत पातक हरै, परसत कर्म बिलाहिं।
बचन सुनत मन मोहगत पूरुब भाग मिलाहिं ॥'
'सुनि' से सन्तवचन श्रवण करना, 'समुझहिं' से मनन करना और 'मज्जहिं' से निदिध्यासन नित्य निरन्तर अभ्यास कहा गया।
(३) 'अछत तनु' कहकर जनाया कि प्रयाग चारों फल शरीर रहते नहीं देता । यथा- 'दर्शनात्स्यर्शनात्स्नानाद्गङ्गायमुनसंगमे । निष्पापो जायते
मर्त्यः सेवनान्मरणादपि ।।लेकिन साधु समाज से
'लहहिँ चारि फल अछत तनु, यहीं सत्य है।
सन्त- समाजरूपी प्रयागके त्रिविधवचन मुदित मनसे जो जन सुनते और समझते हैं, वे ही बड़े अनुरागसे इसमें स्नान करते हैं और शरीरके रहते ही चारों फल प्राप्त करते हैं ॥ यहाँ 'प्रयाग' से त्रिवेणी लक्षित है। हरिहरकथा - त्रिवेणी। इस अर्थके अनुसार सन्त समाजमें
'हरिहरकथा' को सुनकर समझना ही त्रिवेणीका स्नान है।
श्रवण-मनन करनेसे जो प्रसन्नता होती है वही प्रेमसहित मज्जन है। मज्जन अर्थात् स्नान का फल तो तुरंत मिलना ही मिलना है---
मज्जन फल पेखिय ततकाला। काक होहिँ पिक बकउ मराला ॥ १ ॥
सुनि आचरज करै जनि कोई सतसंगति महिमा नहिँ गोई
बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥ ३ ॥
-सन्त-समाज रुपी प्रयागमें स्नानका फल तत्काल देख पड़ता है कि कौवे कोकिल और बगुले हंस हो जाते हैं । यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे। सत्सङ्गतिका प्रभाव छिपा नहीं है।श्रीवाल्मीकिजी श्रीनारदजी और श्रीअगस्त्यजीने अपने-अपने मुखोंसे अपना अपना वृत्तान्त कहा है ॥ ३ ॥
१ 'मज्जन फल पेखिय ततकाला' । (क) 'लहहिं चारि फल अछत तनु' अर्थात् शरीरके रहते जीते-जी चारों फलोंकी प्राप्ति कही। इस कथनसे फलके मिलनेमें कुछ विलम्ब
पाया गया, न जाने कितनी बड़ी आयु हो और उसमें न जाने कब मिले? इस सन्देहके निवारणार्थ
यहाँ 'ततकाला' पद दिया। अर्थात् सत्सङ्गका फल तुरन्त मिलता है। पुनः, 'ततकाला' से यह भी जनाया कि प्रयाग 'तत्काल' फल नहीं देता, मरनेपर ही मोक्ष देता है। 'मज्जन फल पेखिय' और 'काक होहिं पिक बकहु मराला' दोनोंके साथ है। मज्जनका फल तत्काल देख पड़ता है और तत्काल ही काक पिक हो जाते हैं, बगुला हंस हो जाता है। यहाँ'अन्योक्ति अलङ्कार' है। काक पिक के द्वारा दूसरों को कहते हैं, अर्थात् दुष्ट शिष्ट हो जाता है तथा कटुभाषी मिष्टभाषी हो जाता है।'काक होहिं पिक बकउ मराला' । (क) काक और बक कुत्सित पक्षी हैं। यथा-'जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।'
'तेहि कारन आवत हिय हारे।
कामी काक बलाक बिचारे।।'पिक और हंस उत्तम पक्षी हैं। काक चाण्डाल, हिंसक, कठोर बोलनेवाला, मलिनभक्षी, छली और शङ्कित-हृदय होता है। काकसे काकसमान कुजाति, हिंसक, मलिनभक्षी, कटुकठोरवादी, छली, अविश्वासी इत्यादि मनुष्य अभिप्रेत हैं। यथा- 'काक समान पाकरिषु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती।।' 'होहि
निरामिष कबहुँ कि कागा।' 'सत्य वचन विश्वास न करही। बायस इव सबहीं ते डरही।'मूढ़ मंदमति कारन कागा'
काकके विपरीत कोकिल सुन्दर रसालादिको खानेवाली,
मङ्गल ,शुभ जाति और मधुरभाषी इत्यादि होती है। काक पिक हो जाता है अर्थात् काकसमान जोहिंसक, कटुवादी, कुजाति, छली, मलिन इत्यादि दुर्गुणोंसे युक्त हैं वे पिकसमान सुजाति, उत्तम वस्तुओं ,भगवत् प्रसाद आदि का सेवन करनेवाले, स्वच्छ शुद्ध हृदयवाले, विश्वासी एवं गुरु, सन्त और भगवान् तथा उनके वाक्योंपर विश्वास करनेवाले 'मधुरभाषी ,भगवत्-कीर्तन, श्रीरामनामयशके गान करनेवाले एवं मिष्ट प्रिय और सत्य बोलनेवाले हो जाते हैं। इसी तरह बगुला हिंसक, विषयी, दम्भी ,जलाशयोंके तटपर आँख मूँदा हुआ-सा बैठा देख पड़ता है, पर मछलीके आते ही तुरन्त उसको हड़प कर जाता है जबकि हंस परमविवेकी होता है। वह सार दूधको ग्रहण कर लेता है और असार जलको अलग करके छोड़ देता है। 'बकउ मराला होहिं' अर्थात् जो दम्भी, कपटी और विषयी हैं, वे कपट, दम्भ आदि छोड़कर हंससमान विवेकी और सुहृद् हो जाते हैं। यथा- 'संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।' (ख) यहां बाह्य और अंतरशुद्धि दिखानेके लिये काक और बक दो दृष्टान्त दिये गए हैं।
बाहरकी शुद्धि दिखानेके लिये काक-पिककी उपमा दी और अन्तरशुद्धिके लिये बक- हंसकी। 'काक होहिं
पिक' अर्थात् सन्तोंका जैसा ऊपरका व्यवहार देखनेमें आता है, वैसा वे भी बरतने लगते हैं। मधुरभाषी
हो जाते हैं। प्रथम मिष्ट वाक्य बोलने लगते हैं यह सन्तोंके बाह्यव्यवहारका ग्रहण दिखाया। फिर अन्तरसे
भी निर्मल हो जाते हैं, यह 'बकउ मराला' कहकर बताया 'बकउ मराला' अर्थात् विवेकी हो जाते हैं ।सत्सङ्गसे प्रथम तो सन्तोंका-सा बाह्यव्यवहार होने लगता है, फिर अन्तःकरण भी शुद्ध हो जाता है। भाव यह है कि सन्त समाजप्रयागमें स्नान करनेसे केवल चारों फलों धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष की ही प्राप्ति नहीं होती, किन्तु साथ-ही-साथ स्नान करनेवालोंके हृदयोंमें अनेक
सद्गुण भी प्राप्त हो जाते हैं, रूप वही बना रहता है।
(ग) विषयी, कामी ही बक, काक हैं।
यथा- 'अति खल जे बिषई बक कागा।' अतः कौवा और बगुला की उपमा देकर अत्यन्त विषयी दुष्टोंका भी सुधरना कहा गया है।
यहां १ 'बकउ मराला' में 'बकमें लगे उकारसे ---
अद्भुतरस प्रगट हो रहा । दंभी, हिंसक और कुटिल ज्ञानी हंस बन जाते हैं ॥' काक-पिकका सम्बन्ध भी है अद्भुत है क्योंकि काक ही कोयलको पोसता-पालता है। कोयल अपना अण्डा कौवेके घोंसलेमें रख देती है, कौवा उसे अपना जानकर सेता है, वहीं उसमें से बच्चा निकलता है। यहाँ काकमें केवल क्रूरभाषिताका दूषण दिखाकर पिककी मधुरभाषितामें सम्बन्ध मिलाया है। बक और हंसमें बड़ा अन्तर है। दोनोंकी बोलचाल, चरण- चोंचका
रंग और निवास तथा भोजन एक-दूसरेसे भिन्न हैं। यहां केवल अन्तरङ्गभावका मिलान किया गया है, बाहरी आकृति आदिका नहीं। बकमें अन्तरङ्ग मलिनता आदि अनेक दोष देख 'बक' शब्दमें 'उ'लगाकर उसके दोषोंको सूचित कर हंसके सद्गुणोंमें सम्बन्धित किया है। यहाँ उकार आश्चर्यका द्योतक है कि न होनेयोग्य बात हो गयी।'
नोट- २ सन्त समाजमें आनेपर भी जब वही पूर्व शरीर बना रहता है तब कौवेसे कोयल होना कैसे माना जाय? उत्तर यह है कि कौवा और कोकिलकी आकृति एक सी होती है। कौवेमें कोयलकी वाणी आ जाय तो वह कोयल कहा जाता है। अतः शरीर दूसरा होनेका कोई काम नहीं। इसी तरह जब बगुलेमें हंसका गुण आ जाता है तब वह हंस कहा जाता है; दोनोंकी शक्ल भी एक-सी होती
है। वैसे ही मनुष्य जब मायाबद्ध रहता है तब कौवेके समान कठोर वाणी बोलता है, सन्त-समाजमें
आनेपर वही कोकिलकी बोली बोलने लगता है, उसमें दया-गुण आ जाता है और हिंसक - अवगुण चला
जाता है। वह काकसे पिक और बकसे हंस हो जाता है।
३ 'सुनि आचरज करै जनि कोई' (क) कौवे कोयल हो जाते हैं और बगुले हंस ।यह सुनकर आश्चर्य होना ही है। क्योंकि स्वभाव अमिट है यथा- 'मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ।' 'सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । अर्थात् सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं, अपने स्वभावसे परवश हुए कर्म करते हैं; ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। नीतिवेत्ताओंने इस बातको तर्क-वितर्क करके खूब दृढ़ किया है। यथा, 'काकः
पद्मवने रतिं न कुरुते हंसो न कूपोदके। मूर्खः पण्डितसङ्गमे न रमते दासो न सिंहासने । कुस्त्री सज्जनसङ्गमे
न रमते नीचं जनं सेवते । या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ।।'अर्थात् कौवा कमलवनमें नहीं रमता, हंस कूपोदकमें नहीं रमते मूर्ख पण्डितोंके संग नहीं
रमते और न दास सिंहासनपर, कुत्सित स्त्रियाँ सज्जनसङ्गमें न रमणकर नीच पुरुषोंका ही सेवन करती
हैं। क्योंकि जिसकी जो प्रकृति होती है वह उसे कदापि नहीं छोड़ता । अतः सन्देह हुआ कि जब स्वभाव
अमिट है तो कविने बहुत बढ़ाकर कहा होगा, वस्तुतः ऐसा है नहीं। इस सन्देह और आश्चर्यके निवारणार्थ
कहते हैं कि 'सुनि आचरज करै जनि कोई।' 'प्राप्तौ सत्यां निषेधः ।' जब किसी प्रसङ्गकी प्राप्ति होती
है तभी उसका निषेध किया जाता है। यहाँ कोई आश्चर्य कर सकते हैं, इसीसे उसका निषेध किया गया
है। (ख) 'सतसंगति महिमा नहिं गोई' । यह सत्सङ्गकी महिमा है भाव यह है कि जो बात अनहोनी है ,जैसे काकका पिक, बकका हंस सा स्वभावका बदल जाना।वह सत्सङ्गतिसे हो ही जाती है। इसीको दृढ़ करनेके लिये 'महिमा नहिं गोई, महिमा छिपी नहीं है, महिमा प्रसिद्ध है। महिमा प्रसिद्ध है; इसीसे जो महात्मा जगत्प्रसिद्ध हैं, उन्हीं के बारे में क्रमसे उदाहरण हैं। वाल्मीकिजीको प्रथम कहा; क्योंकि 'काक होहिं पिक' और 'बकउ मराला' को क्रमसे घटाते हैं। वाल्मीकिजी काकसे पिक हुए ।
यथा- 'कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्। आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥'कठोरभाषी व्याध दुर्गुणयुक्त थे, सो मधुरभाषी, ब्रह्माके पुत्र और ब्रह्मर्षि हो गये। नारदजी और अगस्त्यजी बकसे मराल हो गये। (ग) इनको महात्मा होनेका उदाहरण देकर
आगे उनको पदार्थकी प्राप्ति होनेका उदाहरण देते हैं।
नोट- ४ 'बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी।। (क) यहाँ तीन दिव्य दृष्टान्त और वह
भी बड़े-बड़े महात्माओंके दिये गये- क्योंकि ये तीनों महात्मा प्रामाणिक हैं। सारा जगत् इनको जानता और इनके वाक्यको प्रमाण मानता है, इससे ये प्रमाण पुष्ट हुए। (ख) 'निज निज मुखनि ।' से सूचित किया कि दूसरा कहता तो चाहे कोई सन्देह भी करता परन्तु खुद के मुखसे कहा हुआ अवश्य प्रमाण माना जायगा। (ग) कब, किससे और कहाँ इन महात्माओंने अपने-अपने जीवन-
वृत्तान्त कहे ? महर्षि वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीसे जो अपना वृत्तान्त कहा था वह उन्हीं के शब्दों में सुनते है-- हे रघुनन्दन ! केवल जन्ममात्रसे तो मैं विप्रपुत्र हूँ; मैं पूर्वकालमें किरातोंमें बालपनेसे शूद्रोंके आचारमें सदा रत रहा। शूद्रास्त्रीसे मेरे बहुत-से पुत्र हुए। तदनन्तर चोरोंका संग होनेसे मैं भी चोर हुआ। नित्य ही धनुष-बाण लिये जीवोंका घात करता था ।एक समय एक भारी वनमें मैंने सात तेजस्वी मुनियोंको आते देखा तो उनके पीछे 'खड़े रहो, खड़े रहो' कहता हुआ दौड़ा। मुनियोंने मुझे देखकर पूछा कि 'हे द्विजाधम ! तू क्यों दौड़ा आता है ?' मैंने कहा कि मेरे पुत्र, स्त्री आदि बहुत हैं, वे भूखे हैं। इसलिये आपके वस्त्रादिक लेने आ रहा हूँ। वे बिकल न हुए किन्तु प्रसन्न मनसे बोले कि तू घर जाकर सबसे एक-एक करके पूछ कि जो पाप तूने बटोरा है इसको वे भी बटावेंगे कि नहीं? मैंने ऐसा ही किया; हर एकने यही उत्तर दिया कि हम तुम्हारे पापके भागी नहीं, वह पाप तो सब तुझको ही लगेगा। - ' पापं तवैव तत्सर्वं वयं तु फलभागिनः ।।' ऐसे वचन सुनमेरे मनमें निर्वेद उपजा, अर्थात् खेद और ग्लानि हुई । उससे लोकसे वैराग्य हुआ और मैं फिर मुनियोंके पासगया। उनके दर्शनसे निश्चय करके मेरा अन्तःकरण शुद्ध हुआ । मैं दण्डाकार उनके पैरोंपर गिर पड़ा और दीन वचन बोला कि 'हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं नरकरूप समुद्रमें आ पड़ा हूँ, मेरी रक्षा कीजिये।' मुनि बोले 'उठ, उठ, तेरा
कल्याण हो । सज्जनोंका मिलना तुझको सफल हुआ। हम तुझे उपदेश देंगे जिससे तू मोक्ष पावेगा'। मुनि परस्पर विचार करने लगे कि यह अधर्मी है तो क्या, अब शरणमें आया है, रक्षा करनी उचित है। और फिर मुझे 'मरा' 'मरा' जपनेका उपदेश दिया और कहा कि एकाग्र मनसे इसी ठौर स्थित रहकर जपो, जबतक फिर हम लौट न आवें। यथा—'इत्युक्त्वा राम ते नाम व्यत्यस्ताक्षरपूर्वकम् । एकाग्रमनसात्रैव मरेति जप सर्वदा।।' अर्थात् हे राम ! ऐसा विचारकर उन्होंने आपके नामाक्षरोंको उलटा करके मुझसे कहा कि तू इसी स्थानपर रहकरएकाग्रचित्तसे सदा, 'मरा, मरा' जपा कर) मैंने वैसा ही किया, नाममें तदाकार हो गया, देहसुध भूल गयी, दीमकने मिट्टीका ढेर देहपर लगा दिया, जिससे वह बाँबी हो गयी । वर्षों बीतनेपर वे ऋषि फिर आये औरकहा कि बाँबीसे निकल। मैं वचन सुनते ही निकल आया। उस समय मुनि बोले कि तू 'वाल्मीकि' नामक
मुनीश्वर है, क्योंकि तेरा यह जन्म बल्मीकसे हुआ है। रघुनन्दन ! उसीके प्रभावसे मैं ऐसा हुआ कि श्रीसीता-
अनज- सहित साक्षात घर बैठे आपके दर्शन हए। व
उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मिक भए ब्रह्म समाना।।
देवर्षि श्रीनारदजी - इन्होंने अपनी कथा व्यासजीसे इस प्रकार कही है कि 'मैं पूर्वजन्ममें वेदवादी ब्राह्मणोंकी एक दासीका पुत्र था। चातुर्मास्यमें एक जगह रहनेवाले कुछ योगी वहाँ आकर ठहरे। मैं बाल्यावस्थाहीमें उनकी सेवामें लगा दिया गया। बालपनेसे ही मैं चञ्चलतासे रहित, जितेन्द्रिय, खेल-कूदसे दूर रहनेवाला, आज्ञाकारी, मितभाषी और सेवापरायण था। उन ब्रह्मर्षियोंने मुझपर कृपा करके एक बार अपना उच्छिष्ट सीथ प्रसादी खानेको दिया- 'उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः सकृत्स्म भुञ्जे
तदपास्तकिल्विषः ।' जिसके पानेसे मेरा सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गया और चित्त शुद्ध हो गया तथा भगवद्धर्ममें रुचि उत्पन्न हो गयी। मैं नित्यप्रति भगवत्कथा सुनने लगा जिससे मनोहरकीर्त्तिवाले भगवान् में मेरी रुचि और बुद्धि निश्चल हो गयी तथा रजोगुण और तमोगुणको नष्ट करनेवाली भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ।जब वे मुनीश्वर वहाँसे जाने लगे तब उन्होंने मुझे अनुरागी, विनीत, निष्पाप, श्रद्धालु, जितेन्द्रिय और अनुयायी जानकर उस गुह्यतम ज्ञानका उपदेश किया जो साक्षात् भगवान्का ही कहा हुआ है। 'ज्ञानं गुह्यतमं यत्तत्साक्षाद्भगवतोदितम्।' जिससे मैंने भगवान्की मायाका प्रभाव समझा और जिस ज्ञानके
प्राप्त होनेपर मनुष्य भगवान् के धामको प्राप्त होता है ।
ज्ञानोपदेश करनेवाले भिक्षुओंके चले जानेपर मैं माताके स्नेहबन्धनके निवृत्त होनेकी प्रतीक्षा करता हुआ ब्राह्मणपरिवारमें ही रहा, क्योंकि मेरी अवस्था केवल पाँच वर्षकी थी। एक दिन माताको सर्पने डँस लिया और वह मर गयी। इसे भगवान्का अनुग्रह समझकर मैं उत्तर दिशाकी ओर चल दिया। अन्तमें एक बड़े घोर भयंकर वनमें पहुँचकर नदीके कुण्डमें स्नान-पानकर थकावट मिटायी। फिर एक पीपलके तले बैठकर जैसा सुना था उसी प्रकार परमात्माका ध्यान मन-ही-मन करने लगा। जब अत्यन्त उत्कण्ठावश मेरे नेत्रोंसे आँसू बहने लगे तब हृदयमें श्रीहरिका प्रादुर्भाव हुआ-औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ।। थोड़ी ही देरमें वह स्वरूप अदृश्य हो गया। बहुत प्रयत्न करनेपर भी जब वहदर्शन फिर न हुआ तब मुझे व्याकुल देख आकाशवाणी हुई कि 'तुम्हारा अनुराग बढ़ानेके लिये तुमकोएक बार यह रूप दिखला दिया गया। इस जन्ममें अब तुम मुझे नहीं देख सकते। इस शरीरको छोड़कर तुम मेरे निज जन होगे, तुम्हारी बुद्धि कभी नष्ट न होगी। तत्पश्चात् मैं भगवान्के नाम, लीला
आदिका कीर्तन - स्मरण करता कालकी प्रतीक्षा करता हुआ पृथिवीतलपर विचरने लगा। काल पाकर शरीर
छूट गया। कल्पान्त होनेपर ब्रह्माजीके श्वासद्वारा मैं उनके हृदयमें प्रविष्ट हुआ। फिर सृष्टि होनेपर मरीचि
आदिके साथ मैं भी ब्रह्माजीका मानस पुत्र हुआ। भगवान्की कृपासे मेरी अव्याहत गति है। भगवान्की
दी हुई वीणाको बजाकर हरिगुण गाता हुआ सम्पूर्ण लोकोंमें विचरता हूँ। चरित गाते समय भगवान्का
बराबर दर्शन होता है। यह मेरे जन्म-कर्म आदिका रहस्य है। महर्षि श्रीअगस्त्यजी ने अपनी कथा भगवान शिव को सुनाया - प्राचीन कालमें किसी समय इन्द्रने वायु और अग्निदेवको दैत्योंका नाश करनेकीआज्ञा दी। आज्ञानुसार इन्होंने बहुत से दैत्योंको भस्म कर डाला, कुछ जाकर समुद्रमें छिप रहे । तब इन्होंनेउनको अशक्त समझकर उन दैत्योंकी उपेक्षा की। वे दैत्य दिनमें समुद्रमें छिपे रहते और रात्रिमें निकलकर देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्यादिका नाश किया करते थे। तब इन्द्रने फिर अग्रि और वायुको आज्ञा दी कि समुद्रका शोषण कर लो। ऐसा करनेमें करोड़ों जीवोंका नाश देख इस आज्ञाको अनुचित जानकर उन्होंने
समुद्रका शोषण करना स्वीकार न किया । इन्द्रने कहा कि देवता धर्म-अधर्मके भागी नहीं होते, वे वही करते हैं जिससे जीवोंका कल्याण हो, तुम् दोनों ज्ञान छाँटते हो, अतः तुम दोनों एक मनुष्यका रूप धारणकर पृथ्वीपर धर्मार्थशास्त्ररहित योनिसे जन्म लेकर मुनियोंकी वृत्ति धारण करते हुए जाकर रहो औरजबतक तुम वहाँ चुल्लूसे समुद्रको न पीकर सुखा लोगे तबतक तुम्हें मर्त्यलोकमें ही रहना पड़ेगा। इन्द्रका शाप होते ही उनका पतन हुआ और उन्होंने मर्त्यलोकमें आकर जन्म लिया ।उन्हीं दिनोंकी बात है कि उर्वशी मित्रके यहाँ जा रही थी, वे उसको उस दिनके लिये वरण कर चुके थे, रास्तेमें उसे जाते हुए देख उसके रूपपर आसक्त हो वरुणने उसको अपने यहाँ बुलाया तब
उसने कहा कि मैं मित्रको वचन दे चुकी हूँ। वरुणने कहा कि वरण शरीरका हुआ है तुम मन मेरेमें लगा दो और शरीरसे वहाँ जाना। उसने वैसा ही किया। मित्रको यह पता लगनेपर उन्होंने उर्वशीको शाप दिया कि तुम आज ही मर्त्यलोकमें जाकर पुरुरवाकी स्त्री हो जाओ। मित्रने अपना तेज एक घटमें रख दिया और वरुणने भी उसी घटमें अपना तेज रखा। एक समय निमिराजा जब स्त्रियोंके साथ जूआ खेल रहे थे श्रीवसिष्ठजी उनके यहाँ गये। जूएमें आसक्त राजाने गुरुका आदर सत्कार नहीं किया। इससे
श्रीवसिष्ठजीने उनको देहरहित होनेका शाप दिया। पता लगनेपर राजाने उनको भी वैसा ही शाप दिया।
दोनों शरीररहित होकर ब्रह्माजीके पास गये। उनके आज्ञानुसार राजा निमिको लोगोंकी पलकोंपर निवास
मिला और वसिष्ठजीने उपर्युक्त मित्रावरुणके तेजवाले घटसे आकर जन्म लिया। इधर वायुसहित अग्निदेव
भी उसी घटसे वसिष्ठजीके पश्चात्, चतुर्बाहु, अक्षमाला कमण्डलधारी अगस्त्यरूपसे उत्पन्न हुए। इसके पश्चात्
उन्होंने स्त्रीसहित वानप्रस्थविधानसे मलयपर्वतपर जाकर बड़ी दुष्कर तपस्या की। इस दुष्कर तपस्याके पश्चात्
उन्होंने समुद्रको पान कर लिया, तब ब्रह्मादिने आकर इनको वरदान दिया।इस कथासे ये बातें ध्वनित होती हैं कि धर्मार्थशास्त्ररहित योनिसे जिनकी उत्पत्ति हुई, शापद्वारा जो मर्त्यलोकमें उत्पन्न हुए वे ही कैसे परम तेजस्वी और देवताओं तथा ऋषियोंसे पूज्य हुए? यह सत्सङ्गका प्रभाव है।इस प्रकार प्रयागराज है हमारा साधु समाज और जिनकी महिमा के बारे में यह सत्य ही है कि
सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधुसमाज प्रयाग ॥
।।जय श्री राम जय हनुमान।।