सत्ता के भूखे भेड़िये हैं जाल फैलाये ठाँव-ठाँव।।
रात-दिन कौवे कब कहाँ क्यों हैं शोर मचाते।
निज के लिए हैं हर कागा अद्भुत भीड़ जुटाते।।1।।
काँव-काँव ऐसा स्वर है जो बरबस सुन जाता।
सामान्य रूप की चर्चा में नहीं किसी को भाता।।
तेरी-मेरी में उलझ-सुलझ मानव मन पछताता।
दानव-मन मन लड्डू ले है काँव-काँव करवाता।।2।।
दूजे के सुख-शान्ति से दुःखी कौन है होता।
दूजे के दुःख-दावानल से सुखी कौन है होता।।
दूजे के नित कच कच से चैन कौन है लेता।
काँव-काँव करता वह कभी नहीं चैन से सोता।।3।।
काँव-काँव कर अस्त-व्यस्त पाते मन में शान्ति।
यहाँ जहां में बहम फैला फैलाते अद्भुत भ्रान्ति।।
निज स्वार्थ सिद्धि हेतु तैयार करने को क्रान्ति।
नर कौवे शान्ति गौरैये के लिए हैं व्यथा भाँति।।4।।
काँव-काँव कर जीवन-ज्योति बुझाने आतुर रहते।
अपनों से सम्बंध नहीं पर पर से संबंध न रखते।।
निष्ठावान कहाँ जहां में ऐसे कुत्सित को करते।
काँव-काँव से दूर यहाँ तो सद मानव ही रहते।।5।।
बहुत सुन्दर।
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