रविवार, 30 मई 2021

।।व्यतिरेक अलंकार।।


व्यतिरेक अलंकार:
 

काव्य में जहाँ उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता है, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है।दूसरे शब्दों में जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो, वहाँ 'व्यतिरेक अलंकार' होता है।व्यतिरेक' का शाब्दिक अर्थ ही 'आधिक्य' (अतिरेक) होता है।
व्यतिरेक में उपमान की तुलना में उपमेय में अधिक गुण बताकर उसकी उपमान से श्रेष्ठता प्रकट की जाती है। उपमेय की उपमान से श्रेष्ठता का आधार उसमें अधिक विशेषताओं का होना होता है।
प्रतीप अलंकार में उपमेय की तुलना पर अधिक जोर होता है।  किन्तु व्यतिरेक अलंकार में उपमेय  में उपमान से गुणों अथवा विशेषताओं को अधिक बताकर उपमेय को श्रेष्ठ सिद्ध किया जाता है। इसमें तुलना का भाव नहीं होता । 
उदाहरण
(1) सन्त हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह पर कहै न जाना ॥
निज परताप द्रवै नवनीता॥
पर दुःख द्रवहिं सन्त सुपुनीता ॥
उपर्युक्त उदाहरण में सन्त हृदय (उपमेय) तथा नवनीत (उपमान) है। नवनीत की अपेक्षा सन्त हृदय को गुणों की अधिकता के कारण श्रेष्ठ बताया गया है। नवनीत स्वयं के ताप से पिघलता है किन्तु संतों का हृदय दूसरों का दु:ख देखकर द्रवित हो उठता है।
(2)शरद चन्द्र की कोई समता राधा मुख से है न।
    दिन मलीनवह घटता बढ़ता, यह विकसित    दिन   रैन।

शरद का चन्द्रमा (उपमान) प्रकाशमान और सुन्दर होता है। परन्तु उसकी राधा के मुख (उपमेय) से समानता नहीं हो सकती। वह रात में मलिन तथा घटता-बढ़ता है अत: राधा के रात-दिन खिलते मुख से वह हीन है।कुछ अन्य उदाहरण भी देखें--
3.कहहि परस्पर बचन सप्रीती।
सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।
सुर नर असुर नाग मुनि माही।
सोभा अस कहु सुनिअति नाही।।
 बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी।
बिकट भेष मुख पंच पुरारी।।
 अपर देव अस कोउ न आही।
यह छबि सखी पटतरिय जाही।।
4. स्वर्ग की तुलना उचित ही है यहाँ, 
    किन्तु सुर सरिता कहाँ सरयू कहाँ। 
    वह मरों को पार उतारती,
    यह यहीं से सबको तारती।।
5. जन्म सिंधु पुनि बंधु विष ,दिन मलीन सकलंक|
   सिय मुख समता पाव किमि चंद बापुरो रंक।।
6-सियमुख की समता भला क्या करे मयंक।
  विष है उसके अंक में और बदन सकलंक।
(यहाँ सिय मुख (उपमेय) को मयंक (उपमान) से श्रेष्ठ बताया गया है।)
विशेष:-
व्यतिरेक अलंकार में कारण का होना अनिवार्य है।कारणों के आधार पर इसके चार भेद हैं।
1.उपमेय के उत्कर्ष औऱ उपमान के अपकर्ष का कारण निर्देश--
संत हृदय नवनीत समाना।
कहा कबिन्ह पर कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवै नवनीता।
पर दुःख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
2.उपमेय के उत्कर्ष का कारण निर्देश
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा।।
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।
3.उपमान के अपकर्ष का काऱण निर्देश
गिरा मुखर तनु अरध भवानी।
रति अति दुखित अतनुपति जानी।।
बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही।
कहिय रमा सम किमि बैदेही।।
4.उपमेय के उत्कर्ष और उपमान के अपकर्ष का कारण निर्देश न करना
जौ हठ करहूँ त निपट कुकरमू।
हरगिरि ते गुरु सेवक धरमू।।
                ।।धन्यवाद।।


शनिवार, 29 मई 2021

।।समासोक्तिअलंकार-SpeechofBrevity।।

 समासोक्ति अलंकार -Speech of Brevity
  जहाँ प्रस्तुत के वर्णन में अप्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है।दूसरे शब्दों में जब प्रस्तुत वृत्तान्त के वर्णन किये जाने पर विशेषण के साम्य से अप्रस्तुत वृत्तान्त का भी वर्णन हो  जाता तब समासोक्ति अलंकार होता है।
यहाँ वास्तव में संक्षिप्त उक्ति के द्वारा प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों के अर्थ का स्पष्ट बोध होता है।आचार्य विश्वनाथ के अनुसार:-
प्रस्तुतादप्रस्तुतप्रतीति: समासोक्ति- साहित्यदर्पण।
समासोक्ति शब्द, समास+उक्ति से मिलकर बना है जिसका अर्थ है संक्षेप कथन।
 प्रस्तुत का वर्णन हो और अप्रस्तुत की प्रतीति हो- यही संक्षेप कथन है।
यह संक्षेप कथन विशेषण, लिंग तथा कार्य के साम्य के आधार पर हो सकता है।
वस्तुतः समासोक्ति का मूल मन्त्र है---
"प्रस्तुत के वर्णन से अप्रस्तुत की प्रतीति हो जाना"
 तभी तो समासोक्ति के बारे में यह भी प्रसिद्ध है:
“परोक्ति भेदकै:  श्लीष्टः समासोक्तिः ”
उदाहरण:
1-जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवन-        बाला।
  रे कब से जाग रही वह आँसू की नीरव माला।
  पीली पर निर्बल कोमल कृश देहलता कुम्हलाई।
  विवसना लाज में लिपटी साँसों में शून्य समाई।।
            यहाँ लिंगसाम्य के कारण निष्प्रभ चाँदनी के वर्णन से बीमार बालिका की प्रतीति हो रही है, अतः यहाँ 'समासोक्ति' अलंकार है।
2-लोचन मग रामहि उर आनी।
   दीन्हें पलक कपाट सयानी।।
यहाँ राम को सीता द्वारा हृदय बंदी  बनाया जाना प्रतीत होता है।
3-उयउ अरुन अवलोकहु ताता।
    पंकज कोक लोक सुख दाता।।
यहाँ अरुनोदय से पंकज,कोक,लोक के  सुखी होने में
सीता,जनक,सुनयना सखियों-नगरवासियों के सुखी होने की स्पष्ट प्रतीति  हो रही है।
कुछ और अद्भुत उदाहरण देखें-- 
4-बाहु तुम्हारी छूकर भर उठती थी जो उल्लास से।
  दुर्बल, हत-सौन्दर्य जय श्री है तव चिर वियोग के त्रास से॥
5-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
   तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥
6-श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
   तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥
7-सिंधु-सेज पर धरा बधूअब,तनिक संकुचित बैठी सी।
प्रलय-निशा की हलचल स्मृति में,मान किए सी ऐंठी सी।

                     धन्यवाद

शुक्रवार, 28 मई 2021

।।सहोक्ति अलंकार।।

          ।।सहोक्ति अलंकार।।

सहोक्ति अलंकार 

 जहां कई बातों का एक साथ होना सरल रीति से कहा जाता है वहां सहोक्ति अलंकार होता है । सह+उक्ति=सहोक्ति अर्थात साथ-साथ उक्ति। इसमें  प्रायः सह, समेत, साथ, संग आदि शब्दों के द्वारा एक शब्द दो पक्षों में लगता है,  एक में प्रधान रूप से और दूसरे में अप्रधान रूप से । जैसे -

1. कीरति अरि कुल संग ही

   जलनिधि पहुंची जाय .

2. त्रिभुवन जय समेत बैदेही।
    बिनहि बिचारि बरै हठि तेही।।

3.बलु प्रताप बीरता बड़ाई। 
   नाक पिनाकहि संग सिधाई |

 4. प्रथम टंकोर झुकि झारि संसार मद, 
             चण्ड कोदण्ड रह्यो मण्डि नव खण्ड को ।
     चालि अचला अचल, घालि दिगपाल बल, 
                पालि  रिसिराज के  बचन  परचण्ड  को।।        सोधु  दै  ईस  को   बोधु  जगदीश  को, 
                क्रोध  उपजाय   भृगुनंद  बरिबंड   को  ।
      बाँधि  वर  स्वर्ग   को   साधि  अपवर्ग, 
                धनुभंग को सबद गयो भेदि ब्रह्माण्ड को ।।

 यहां पर धनुष तोड़ने के साथ ही साथ अनेक कार्यों का होना दिखाया गया है ।

                   धन्यवाद

गुरुवार, 27 मई 2021

।।एक अद्भुत श्लोक और उसकी कथा।। मेरा पर को नहि मिलना है।।

   ।एक अद्भुत  कथा ,मेरा पर को नहि मिलना है।।

प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो
देवोऽपि तं लङ्घयितुं न शक्तः ।
तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे
यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ॥

मिलेगा हमे जो मिलना है।
नहि देवों से भी डरना है।।
अचरज-शोच क्यों करना है।
मेरा पर को नहि मिलना है।।

मनुष्य को जो प्राप्त होना होता है,  उसका उल्लंघन करने में देवता भी समर्थ नहीं हैं इसलिए मुझे न आश्चर्य है और न ही शोक क्योंकि जो मेरा है वह कोई और मुझसे छीन नहीं सकता ॥

Whatever belongs to you will come to you , even Gods cannot change that. That is why I do not get either disappointed or surprised. No one else can take whatever is mine.
                  ।।  धन्यवाद  ।।

मंगलवार, 25 मई 2021

।।निदर्शना अलंकार:- Illustration।।

      ।।निदर्शना अलंकार- Illustration।।

    जहाँ वस्तुओं का पारस्परिक संबंध संभव अथवा असंभव होकर उनमें बिंब प्रतिबिंब भाव सूचित करता है और सदृशता का आधार करता है, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है। 

  आचार्य विश्वनाथ के  शव्दों में---
  सम्भवन वस्तुसम्बन्धोऽसम्भवन् वाऽपि कुत्रचित्।
  यत्र बिम्बानुबिम्बत्वं बोधयेत् सा निदर्शना।।

उदाहरण:-
 यह प्रेम का पंथ कराल महा, 
तलवार की धार पै धावनो है।।
              
निदर्शना के मुख्य तीन भेद हैं-----
1.परस्पर असम्बद्ध वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिंब भाव।
2.उपमेय के गुण का उपमान में आरोप या उपमान के गुण का उपमेय में आरोप।
3.क्रिया के माध्यम से सत या असत अर्थ का बोधन।

1.परस्पर असम्बद्ध वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिंब भाव

अ. सम्भव वस्तु संबंध वाली
निज प्रतिबिम्ब बरुक गहि जाई।
जानि न जाइ नारि गति भाई।।

आ. असम्भव वस्तु संबंध वाली
सो धनु राज कुँवर कर देही।
बाल मराल कि मंदर लेही।।

2.उपमेय के गुण का उपमान में आरोप या उपमान के गुण का उपमेय में आरोप।इसे पदार्थ निदर्शना भी कहते हैं।

अ.उपमेय के गुण का उपमान में आरोप
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता आभास।।

आ.उपमान के गुण का उपमेय में आरोप।
पूँछेउ रघुपति कथा प्रसंगा।
सकल लोक जग पावनि गंगा।।

3.क्रिया के माध्यम से सत या असत अर्थ का बोधन।जहाँ अपने सद/असद व्यवहार या ज्ञान से उपदेश दिया जाय।

अ.सदर्थ निदर्शन
प्रभु पयान जाना बैदेही।
फरकि बाम अंग जनु कहि देही।।

आ. असदर्थ निदर्शना
भूमि सयन पटु मोट पुराना।
दिये डारि तन भूषन नाना।।
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी।
अन अहिबातु सूचि जनु भाबी।।

माला रूपा निदर्शना भी है देखें--
  सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति    बिभिचारी॥
  लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए    
  प्रानी।

                        ।धन्यवाद।

रविवार, 23 मई 2021

।।दीपक अलंकार - Illuminater।।

       ।। दीपक  अलंकार - Illuminater।।
परिभाषा:
           जब काव्य में उपमेय (वर्ण्य, प्रकृत,प्रस्तुत पदार्थ,present things) तथा उपमान (अवर्ण्य, अप्रकृत,अप्रस्तुत पदार्थ,absent things) दोनों के लिए एक ही साधारण धर्म होता है तो वहाँ दीपक अलंकार होता है।
आचार्य विश्वनाथ ने  साहित्यदर्पण में कहा भी है:
प्रस्तुताप्रस्तुतयोदींपकंतु निगद्यते -
विशेष: यह एक सादृश्य गम 
गम्यौपम्याश्रय मूलक अलंकार  है। 
उदाहरण:
 सुर महिसुर हरिजन अरु गाई।
 हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।
 गोस्वामी तुलसीदासजी ने यहाँ महिसुर एक प्रस्तुत तथा सुर, हरिजन तथा गाय अनेक अप्रस्तुतों का 'सुराई' रूप एकधर्म-संबंध वर्णित हुआ है, इसलिए 'दीपक' अलंकार है।
एक उदाहरण और देखें---
कामिनी कन्त सों, जामिनी चन्द सों,
दामिनी पावस मेघ घटा सों
जाहिर चारिहु ओर जहान लसै,
हिन्दवान खुमान शिवा सों।

यहाँ प्रस्तुत पदार्थ या उपमेय (हिन्दू सम्राट शिवाजी से शोभित संसार) तथा अप्रस्तुत पदार्थ या उपमानों (कामिनी, यामिनी, दामिनी, मेघ आदि) के लिए एक ही साधारण धर्म (लसै-सुशोभित होना) का प्रयोग हुआ है, अतः यहाँ दीपक अलंकार है।

इसे भी अवश्य देखें:

देखें ते  मन  न  भरै, तन  की  मिटै  न   भूख ।

बिन चाखै रस न मिलै, आम, कामिनी, ऊख ।।

 यहाँ पर कामिनी उपमेय  तथा आम और ऊख  उपमान का एक धर्म 'बिना चाखै  रस ना मिले 'कहा गया है !

एक उदाहरण जिसमें दस प्रस्तुत और चार अप्रस्तुत का धर्म एक है:-

कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। 

अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥

सदा रोगबस संतत क्रोधी। 

बिष्नु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥

तनु पोषक निंदक अघ खानी।

जीवत सव सम चौदह प्रानी॥

1-वाममार्गी, 2-कामी,3-कंजूस, 4-अत्यंत मूढ़,5-
अति दरिद्र, 6-बदनाम, 7-बहुत बूढ़ा,8-नित्य का रोगी, 9-निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला,10-भगवान्‌ विष्णु से विमुख, 11-वेद और संतों का विरोधी, 12-अपना ही शरीर पोषण करने वाला, 13-पराई निंदा करने वाला और 14-पाप की खान (महान्‌ पापी रावन )- ये चौदह प्राणी जीते ही शव के समान हैं । यहाँ10 जो प्रस्तुत हैं वे सब रावण में ही हैं जैसे:-1-वाममार्गी, 2-कामी,3--अत्यंत मूढ़,4-बदनाम,5-निरंतर क्रोधयुक्त रहने वाला,6-भगवान्‌ विष्णु से विमुख,7-वेद और संतों का विरोधी, 8-अपना ही शरीर पोषण करने वाला, 9-पराई निंदा करने वाला और 10-पाप की खान (महान्‌ पापी रावन )-
+04 जो अप्रस्तुत हैं वे हैं :-1-कंजूस,2-अति दरिद्र,3-बहुत बूढ़ा,4-नित्य का रोगी=14इस प्रकार यहाँ10 प्रस्तुत और 04 अप्रस्तुत में एक ही  धर्म संबंध जीवत सव सम से दीपक अलंकार है।

दीपक अलंकार के प्रमुख भेद-प्रभेद

1.कारक दीपक:
जहाँ अनेक क्रियाओं में एक ही कारक का योग होता है वहाँ कारक दीपक अलंकार होता है.

(A)लेत चढ़ावत खैचत गाढ़े।
   काहू न लखा देख सब ठाढ़े।।
(B)कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।
भरे भवन में करत हैं नैनन ही सो बात।।

2.माला दीपक:

जहाँ पर पूर्वोक्त वस्तुओं से उत्तरोक्त वस्तुओं का एकधर्मत्व स्थापित होता है वहाँ पर माला दीपक अलंकार होता है।

भरत सरिस को राम सनेही।
जगु जप राम रामु जप जेही।।


3.आवृत्ति दीपक:

जहाँ पर अर्थ तथा पदार्थ की आवृत्ति हो वहाँ पर आवृत्ति दीपक अलंकार होता है.

इसके तीन प्रकार पदावृत्ति दीपक, अर्थावृत्ति दीपक तथा पदार्थावृत्ति दीपक हैं.

3.(a)पदावृत्ति दीपक:
जहाँ भिन्न अर्थोंवाले क्रिया-पदों की आवृत्ति होती है वहाँ पदावृत्ति दीपक अलंकार होता है.

1.तब इस घर में था तम छाया,।
था मातम छाया, गम छाया,-भ्रम छाया।।


2.सर्व सर्व गत सर्व उरालय

3.(b)  अर्थावृत्ति दीपक:जहाँ एक ही अर्थवाले भिन्न क्रियापदों की आवृत्ति होती है, वहाँ अर्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है.

कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा।
कूजहिं कोकिल गुंजहि भृंगा।।

3.(c)पदार्थावृत्ति दीपक:
जहाँ पद और अर्थ दोनों की आवृत्ति हो वहाँ,पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार होता है.

1.भलो भलाइहि पै लहै लहै निचाइहि नीचु।
   सुधा सराहिय अमरता गरल सराहिय मीचु।।


2.राम साधु तुम्ह साधु सयाने।
  राम मातु भलि सब पहिचाने।।

विशेष:-

हिन्दी में एक  "दीपक देहली  नामक भेद भी विद्वानों को मान्य है----क्योंकि
   जिस प्रकार देहली पर दीपक जलकर घर-बाहर सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार दीपक अलंकार निकटस्थ पदार्थों एवं दूरस्थ पदार्थों का एकधर्म-संबंध वर्णित करता है। 

बंदौ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जह।
संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनि।।

                         धन्यवाद

शुक्रवार, 21 मई 2021

।।STUDENT-विद्यार्थी।।

        ।।    STUDENT-विद्यार्थी     ।।
विद्या को जो प्राप्त करना चाहता है वह विद्यार्थी ही होता है। यहाँ हम विद्यार्थी के कुछ लक्षणों पर दृष्टिपात करें  -------

1.STUDENT को पहले समझते हैं___
S =   STUDIOUS- विद्याभ्यासी, SIMPLE साधारण जीवन जीने वाला
T = TRUTHFUL -सच्चा, THOUGHTFUL सावधान, चिन्ताशील 
U=UNDERSTANDING-समझ,सुबोध
D=DESIRIOUS-अभिलाषी,इच्छुक, चाहने वाला
  DISCIPLINED-अनुशासित, विनयशील
E=EAGER-जिज्ञासु, ENERGETIC-तेजस,शक्तिशाली
N=NEAT-स्वच्छ, साफ़-सुथरा NORMAL -साधारण
T=TENDER-कोमल,संवेदनशील TALENTED- प्रतिभावान
 जब हम हिन्दी-संस्कृत में विद्यार्थी की बात करते हैं तो यह तो पाते हैं कि यह दो शब्दों विद्या+अर्थी से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है विद्या को चाहने वाला 
अब वर्णों की दृष्टि से विचार करते हैं----
वि  = विद्याभ्यासी, विनयशील विवेकी
द_ =दयावान हो सकता है
या= याचक किसका विद्या का किया जा सकता है
र_= रहमदिल माना जा सकता है ,रसिक विद्या का,रखवाला विद्या का और
थी=थिरकता-कूदता,हँसता-खेलता कह सकतें हैं।
सभी भाषाओं की जननी देववाणी में एक श्लोक है-
काक चेष्टा बको ध्यानं श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी गृह त्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणम_।।
    इसके बारे में आम आदमी भी विस्तार से जानता है।
परन्तु विद्यार्थी के बारे में एक औऱ श्लोक है---

सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम्।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्।।

यह श्लोक स्वयं ही अर्थ स्पष्ट कर देता है।लेकिन वास्तविक विद्यार्थी को परिभाषित करने वाला एक श्लोक और है जिसे देखते हैं-----
अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बो दृढाभ्यासः षडेते छात्रसद्गुणाः
इसके अनुसार----
1) आलस के बिना मेहनत करते रहना, 
2) ब्रह्मचर्य का पालन करना, 
3) उत्तम चारित्र्य (स्वभाव-कर्म) बनाये रखना, 
4) गुरु (श्रेष्ठ) तथा ज्ञानी का सदा आदर करना, 
5) स्वावलंबी / खुद के काम खुद करना,
6) सतत  दृढ़ अभ्यास करते रहना।
 यह विद्यार्थी के छः सद्गुण है।
इन सद्गुणों का जो विद्यार्थी पालन करता है उसका विद्याभ्यास सदा  सफलता और सम्मान देने वाला  हो जाता है।
                         इति