गुरुवार, 22 जुलाई 2021

।।शिव रात्रि और निषाद राज गुह की कथा।।

   ।।शिव रात्रि और निषाद राज गुह की कथा।।  
    प्राचीन काल में गुरूद्रुह नामक एक भील एक वन में अपने परिवार सहित रहता था। उसका पेशा चोरी करना तथा वन में पशुओं का वध करना था। एक बार शिवरात्रि के पर्व के दिन उसके घर में कुछ भी भोजन सामग्री नहीं थी। उसके परिवार के सभी सदस्य भूखे थे। परिवार के सदस्यों ने उससे कहा कि कुछ भोजन सामग्री लाओ। हम सब भूखे हैं। तब वह धनुष बाण लेकर शिकार को चल दिया। परन्तु उस दिन शाम तक वन में घूमने पर भी उसे कोई जानवर शिकार के लिए दिखाई नहीं दिया। रात हो जाने पर भील बहुत व्याकुल हो गया। वह सोचने लगा कि खाली हाथ कैसे लोटूँ? परिवार के सदस्यों को खाने के लिए क्या दूंगा? काफी सोच-विचार करने के बाद वह तालाब के किनारे एक बेल के वृक्ष पर रात बिताने के लिए बैठ गया तथा उसने एक पात्र में जल भी रख लिया। उसने सोचा कि रात में जब कोई पशु जल पीने के लिए आएगा तब मैं शिकार करूँगा।रात्रि के प्रथम पहर में एक हिरनी जल पीने के लिए तालाब पर आई। भील ने उसका शिकार करने के लिए धनुष पर बाण चढ़ाया। धनुष पर बाण चढ़ाते समय कुछ जल तथा बेल पत्र झड़कर नीचे गिर पड़े । भील के भाग्य से उस बेल के वृक्ष के नीचे भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग स्थापित था। इससे अनजाने में ही जल और बेल पत्र ज्योतिर्लिंग पर गिर पड़े। इस प्रकार भील के द्वारा भगवान शिव की रात्रि के प्रथम पहर में पूजा हो गई। इससे अनजाने में ही भील के पापों का नाश हो गया। भील के धनुष की टंकार सुनकर हिरणी बोली - तुम यह क्या करना चाहते हों? भील ने कहा कि मेरा परिवार भूखों मर रहा है। मैं उनके भोजन के लिए तुम्हारा शिकार करना चाहता हूँ।  भील की बात सुनकर हिरनी बोली - तुम बहुत बहुत अन्यायी हो। तुम्हें जरा भी दया नहीं आती। यदि मेरे माँस से तुम्हारे परिवार की भूख मिट जाए तो मेरा यह शरीर धन्य है। दूसरों के कष्ट निवारण से ही जीव प्रशंसा के योग्य हो जाता है। तुम थोड़ी देर और रूक जाओ। मैं अपने घर जाकर अपने बच्चों को अपनी बहिन को सौंप कर आती हूँ। तब तुम मुझे मार कर ले जाना। तुम मेरा विश्वास करो। मैं लौटकर अवश्य आऊँगी। यदि मैं लौट कर नहीं आई तो मुझे वह पाप लगेगा जो विश्वासघाती को लगता है। हिरनी की बातों पर विश्वास करके भील ने हिरनी को जाने दिया। 
    हिरनी लौटकर अपने बच्चों के पास गई। इस प्रकार उस भील का रात्रि का प्रथम प्रहर का जागरण हो गया। तत्पश्चात् रात्रि के दूसरे प्रहर में उस हिरणी की बहिन उसे ढ़ूँढ़ती हुई वहाँ आ पहुँची। उसे देखकर भील ने तुरन्त अपने धनुष पर अपने बाण को चढ़ाया। बाण चढ़ाने से दुबारा बेल पत्र और पानी शिवलिंग पर गिर पड़े। इस प्रकार उस भील का रात्रि के दूसरे प्रहर का पूजन हो गया। धनुष की टंकार सुनकर वह हिरनी बोली - हे भीलराज! तुम यह क्या करने जा रहे हो। भील ने उससे भी वही बात कही जो उसने पहली हिरनी को कही थी। उसकी बात सुनकर हिरनी बोली - हे भील राज! थोड़े समय के लिए मुझे घर जाने की आज्ञा दे दो। मैं अपने बच्चों को देखकर अभी आ जाऊँगी, नहीं तो वे मेरी प्रतीक्षा करते रहेंगे। भील ने उसे भी जाने की स्वीकृति दे दी। इस प्रकार जागते-जागते भील का दूसरा प्रहर जागरण के रूप में व्यतीत हो गया।   
तत्पश्चात् रात्रि के तीसरे प्रहर में एक मोटा ताजा हिरन जल पीने उसी तालाब पर आया, वहीं पेड़ पर भील भी बैठा था। भील उस हिरन का शिकार करने के लिए अपने धनुष पर बाण को चढ़ाने लगा। बाण चढ़ाने से इस बार भी शिवलिंग पर जल व बेलपत्र गिर पड़े। इससे भील की तीसरे प्रहर की शिव-पूजा अनजाने में हो गई। हिरन ने उसके चढ़े हुए बाण को देखकर फिर से वही प्रश्न किया जो दोनों हिरनियों ने किया था। भील ने उसे भी वही उत्तर दिया। इस पर हिरन विनती कर बोला - हे भीलराज! मैं अपने बच्चों तथा पत्नियों को समझा बुझा कर अभी आता हूँ। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं लौटकर अवश्य आऊँगा। भील ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार जागरण करते हुए भील का रात्रि का तीसरा प्रहर भी व्यतीत हो गया। 
    दोनों हिरनी और हिरन ने घर पहुँचकर आपस में अपना-अपना समाचार सुनाया। तीनों ही भील के पास शपथ लेकर आए थे। अतः तीनों ही अपने बच्चों को समझा बुझाकर भील के पास चल दिए। परन्तु उनके साथ उनके बच्चे भी चल दिए। इस प्रकार हिरन का पूरा परिवार भील के पास पहुँच गया। भील ने उन सबको आया देखकर अपने धनुष पर झट से बाण चढ़ाया। इससे एक बार फिर कुछ जल और बेल झड़कर पुनः नीचे शिवलिंग पर गिर गये। इससे भील के मन में ज्ञान की उत्पत्ति हुई।  यह रात्रि के चौथे प्रहर का पूजन था। मृग परिवार ने भील से कहा- हम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आपके पास आ गए हैं। आप हमारा वध कर सकते हैं जिससे हमारा शरीर सफल हो जाए।  इस पर भगवान शिव की प्रेरणा से भील सोचने लगा मुझसे तो अच्छे यह अज्ञानी पशु हैं, जो परोपकार परायण होकर अपना शरीर मुझे भेंट कर रहे हैं । एक मैं हूँ जो मानव शरीर पाकर भी हत्यारा बना हुआ है। इस प्रकार मन में विचार कर भील बोला - हे मृगों! आप लोग धन्य हैं। मैं आपका वध नहीं कर सकता। आप लोग निर्भय होकर घर लौट जाओ। तभी वहाँ भगवान शिव प्रकट हो गए। भील भगवान शिव के चरणों में गिर गया और भक्ति कर आशीर्वाद मांगने लगा। भगवान शिव ने उसे शृंगवेरपुर की श्रेष्ठ राजधानी में भेजकर भगवान श्री राम के साथ मित्रता होने का आशीर्वाद दिया। बाद में वह निषाद श्री रामजी की कृपा से मोक्ष को प्राप्त हुआ। इस प्रकार यह शिवरात्रि की महिमा का फल था। यह व्रत महान फलदायक है।
  अन्य कथा के अनुसार
निषाद अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता युग में निषाद के रूप में विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना।

निषाद राज और श्री राम जी की प्रथम भेंट का दृश्य संत लोग बहुत सुंदर बताते हैं। निषाद राज के पिता से और चक्रवर्ती महराज से मित्रता थी। वे समय समय पर अयोध्या आया करते थे। जिस समय दशरथ जी के यहां प्रभू श्रीराम का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय वे अत्यन्त बृद्ध हो चुके थे, किन्तु लाला की बधाई लेकर वे स्वयं अयोध्या आये थे। अवध के लाला का दर्शन कर गुरु निषादराज को परम आनन्द की अनुभूति हुई थी।

जब बृद्ध गुरु निषादराज अयोध्या से लोट आए तो छोटे निषाद और परिवार मे लाला की सुंदरता का वर्णन करते रहे। यह सब सुनकर छोटे से निषाद को रामलला को देखने का बड़ी उत्कंठा हुई। छोटा निषाद जब पांच वर्ष का हो गया तब पिता और वृद्ध हो गये तो एक दिन बूढ़े पिता ने आज्ञा दे ही दी कि जावो रामलला का दर्शन कर आवो। साथ में सहायक भी भेज दिए।

बूढ़े पिता ने सुंदर मीठे फल तथा रुरु नामक मृग के चर्म की बनी हुईं छोटी छोटी पनहिंयां भेंट स्वरूप देकर बिदा किया। फल वगैरह तो छोटे निषाद ने साथियों को ले चलने के लिए दे दिया। लेकिन उन चारों पनहियों को अपना काँख मे दबाये दबाये छोटे निषाद ने पूरा रास्ता तय किया। एक बार वन विहार सो लौटने पर प्रभु राम द्वारा निषाद की बड़ी प्रसन्शा की गई, उसी समय राजा दशरथ ने निषाद को अपने सीने से लगा लिया और अपने हाथ का कंगन पहनाते हुए शृंगवेर पुर का राजा होने की घोषणा कर दी।  
      आगे प्रभु वनवास और वनवास से आने फिर निषाद राज का प्रभु संग अयोध्या जाना वहाँ से विदाई और इनकी रघुवर प्रीति की कथा आप सब जानते ही है।
             ।।।   धन्यवाद    ।।।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

।।देव पूजा के अद्भुत आठ पुष्प।।

       ।।देव पूजा केअद्भुत आठ पुष्प।।

अहिंसा प्रथमं पुष्पं द्वितीयं इन्द्रिय निग्रहः
         सर्व भूत दया पुष्पं क्षमा पुष्पं विशेषतः।
ज्ञानं पुष्पं तपः पुष्पं शान्ति पुष्पं तथैव च
        सत्यं अष्ट विधं पुष्पं विष्णो:प्रीतिकरं भवेत्।।
हिन्दी अनुवाद
प्रथम अहिंसा पुष्प, इन्द्रिय निग्रह प्रान है;
         चराचर पर दया तीजो,चौथा क्षमा दान है।
पंचम ज्ञान तप छठ, सातवाँ शांति ध्यान है;
          देव देव दया दान,जिनमे सत्य महान है।।
             ।।धन्यवाद।।


।।परिसंख्या अलंकार।।

      ।।परिसंख्या अलंकार।।               ।। Special mention।।

 परिसंख्या  अलंकार-Special mention:-

      एक वस्तु की अनेकत्र संभावना होने पर भी, उसका अन्यत्र निषेध कर, एक स्थान में नियमन 'परिसंख्या' अलंकार कहलाता है 

एकस्यानेकत्रप्राप्तावेकत्रनियमनं परिसंख्या- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व।

परिसंख्या (परि + संख्या) में 'परि' वर्जनार्थ अव्यय है तथा 'संख्या' का अर्थ है 'बुद्धि' । इस प्रकार 'परिसंख्या' का अर्थ हुआ- वर्जन-बुद्धि, अर्थात किसी वस्तु का निषेध। कोई वस्तु दूसरी जगहों में भी पायी जा सकती है, उसी का निषेध कर एक स्थान में नियमन परिसंख्या है।

       जहाँ किसी वस्तु का दूसरे स्थानों में निषेध कर किसी एक विशेष स्थान पर होना कहा जाय , वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है।

उदाहरण-

दंड जतिन कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
ज़ीतौ मनसिज सुनिय अस रामचंद्र के राज।।

'दंड', 'भेद', 'जीत' का अन्य जगहों से निषेध कर 'जतिनकर', 'नर्तक नृत्य समाज' 'मनसिज' में नियमन करना परिसंख्या है।

भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥

यहाँ विवेक, ज्ञान,वैराग्य का अन्य स्थानों पर निषेध करके केवल सद्ग्रन्थों में नियमन किया गया है अतः यहाँ भी परिसंख्या अलंकार है।

     अति चंचल जहँ चलदलै , विधवा बनी न नारि ।
      मन मोह्यो रिसिराज को, अद्धभुत नगर निहारि ।।
 यहां पर अवधपुरी में चंचलता केवल पीपल के पत्तों में पाई जाती है, अन्यत्र नहीं 
 इसी प्रकार ____
       मूलन ही की जहाँ अधोगति केसव गाइय  ।
       होम हुतासन धूम नगर एकै मालिनाइय ।।
       दुर्गति दुर्गन ही जो, कुटिल गति सरितन ही मेँ ।
     श्रीफल को अभिलाष प्रकट कविकुल के जी मेँ ।।
      यहाँ पर भी अधोगति केवल जड़ो की ही है, होम धूम की ही मलिनता है, दुर्गति दुर्गन ही की है, कुटिल गति नदियों की ही है आदि आदि ।
राम के राज्य में वक्रता केवल सुन्दरियों के कटाक्ष में थी।


                    ।।धन्यवाद।।



।।पर्याय अलंकार।।

                 ।।पर्याय अलंकार।।
     जहाँ एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में अथवा अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रम से (काल-भेद से) स्थिति का वर्णन हो वहां पर्याय अलंकार होता है।यह एक वाक्य न्यायमूलक अलंकार है।                                    इसके  मुख्य दो भेद हैं--                       
 1.एक वस्तु की अनेक वस्तुओं में क्रमशः स्थिति
जागबलिक जो कथा सुहाई। 
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी।
 सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। 
बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। 
राम भगत अधिकारी चीन्हा॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। 
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
 2.अनेक वस्तुओं की एक वस्तु में क्रमशः स्थिति
देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका।
 अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। 
बिबिध बेष देखे सब देवा॥
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप।

                 ।।धन्यवाद।।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

।।Possessives Part 3rd।।

        ।।Possessives Part 3rd।।
      Possessive के पहले दो भागों में हमने सर्वनाम (Pronoun)के संबंध कारक पर विचार किया।
      अब संज्ञा(Noun)के संबंध कारक पर विचार करें--यह ध्यान ही है कि हिन्दी में का, की, के संज्ञा के तुरंत बाद आकर संबंध कारक का कार्य करते हैं और अंग्रेजी में साधारणतः s औऱ of लगाते है।आइये हम इनके प्रयोग को जानें।
1.मनुष्य के नाम अथवा मनुष्य सूचक शव्द के साथ(s)
जोड़ा जाता है --
.Ram's horse is fast.
.Man'life is short.
.The boy's name is Hari.
     परन्तु ऐसे Noun जिनका बहुवचन s जोड़कर बनता है उनके अंत में केवल apostrophe(') अंत में
जोड़ देते हैं। जैसे--
. The boys'booka are lying on the ground.
.The horses' legs are long.
      परन्तु ऐसे Nouns जिनके बहुवचन के अंत मे s नहीं आता वहाँ ('s) लगेगा--
. Men's clothes are plain.
2.बड़े-बड़े पशुओं कभी-कभी छोटे-छोटे पशुओं व कीड़े-मकोडों के लिए भी ('s) आता है।
.The cow's tail is long.
.The ant's eggs are small.
3.निर्जीव पदार्थों  में apostrophe s ('s) का प्रयोग नहीं होता है ,उनके साथ of का प्रयोग बाद में आने वाले शब्दों के बाद होता है। जैसे--
.The door of the house.
.The legs of the table.
4. समय तथा दूरी सूचक निर्जीव शब्दों के साथ ('s) लगता है।जैसे---
. One year's time.
.Two Mike's distance.
5.जब हम निर्जीव को सजीव की तरह प्रयोग करते है तब ('s) को ही लिखते हैं। जैसे---
.प्रेम के बाण.Love's shaft.
6. कई संज्ञाओं की स्थिति में केवल अंतिम  से पहले ('s) आयेगा। जैसे---
.Gopal, Ganesh, Girdhari and Hair's fathers are rich.
7.यदि एक ही संज्ञा के लिए दो possessive adjectives आये हो तो केवल पहली बार ही संज्ञा का प्रयोग होगा। जैसे---
.Johan's  book is red but Moran's  is green.
8. Possessive adjectives के बाद house,shop, school, college, hospital, church आदि आने पर इनका लोप हो जाता है।जैसे-
.Mohan went to the barber's and had a shave.
9.मनुष्य वाची लम्बे नामों के साथ of का प्रयोग होता है।जैसे--
.He is the son of the commander-in-chief.
10.of, और 's  दोनों के द्वारा सम्बन्ध कारक सूचित किये जाते हैं लेकिन दोनों  का अंतर जानें।
'S तो possession/ownership बतलाता है औऱ of स्वामित्व या अधिकार न बताकर जिस संज्ञा के साथ रहता है उसका वर्णन करता है।जैसे--
.A king's picture.
.A picture of the king .
दोनों में महान अंतर है
                 ।।Thanks।।


सोमवार, 12 जुलाई 2021

।। देवशयनी एकादशी ।।

             ।।   देवशयनी एकादशी   ।।
    आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी का प्रसिद्ध नाम देवशयनी एकादशी है।इसके अन्य नाम भी हैं----पद्मनाभा, पद्मा एकादशी, हरि शयनी एकादशी, आषाढ़ी एकादशी
 देवशयनी एकादशी का माहात्म्य
       ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एकादशी का व्रत रखने से मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस पावन दिन पर व्रत रखने से सभी तरह के पापों से मुक्ति मिल जाती है
 देवशयनी एकादशी व्रत की मुख्य कथा
      धर्मराज युधिष्ठिर ने एक बार भगवान श्री कृष्ण से कहा हे केशव ! आषाढ़ शुक्ल एकादशी का क्या नाम है, इस व्रत के करने की विधि क्या है और किस देवता का पूजन किया जाता है ? श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर ! जिस कथा को ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था वही मैं तुमसे कहता हूँ।
        एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया: सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।
       उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
        राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन: सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए।
         वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।
        तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा: महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें। यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा: हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
        इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। धार्मिक के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक अधार्मिक नराधम तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।
        किंतु राजा का हृदय एक नराधम तपस्वी को भी मारने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा: हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ। महर्षि अंगिरा ने बताया तो फिर आप आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।
       राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
           एक अन्य कथा के अनुसार वामन बनकर भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पग में तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। राजा बलि को पाताल वापस जाना पड़ा।लेकिन बलि की भक्ति और उदारता से भगवान वामन मुग्ध थे। भगवान ने बलि से जब वरदान मांगने के लिए कहा तो बलि ने भगवान से कहा कि आप सदैव पाताल में निवास करें। भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान पाताल में रहने लगे। इससे लक्ष्मी मां दुःखी हो गयी। भगवान विष्णु को वापस बैकुंठ लाने के लिए लक्ष्मी मां गरीब स्त्री का वेष बनाकर पाताल लोक पहुंची। लक्ष्मी मां के दीन हीन अवस्था को देखकर बलि ने उन्हें अपनी बहन बना लिया।
लक्ष्मी मां ने बलि से कहा कि अगर तुम अपनी बहन को खुश देखना चाहते हो तो मेरे पति भगवान विष्णु को मेरे साथ बैकुंठ विदा कर दो। बलि ने भगवान विष्णु को बैकुंठ विदा कर दिया लेकिन वचन दिया कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तक वह हर साल पाताल में निवास करेंगे। इसलिए इन चार महीनों में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है और इस चार महिनों को चतुर्मास कहते हैं।संत,महात्मा इन चार माह के दौरान एक स्थान पर रह कर भगवद्भक्ति करते हैं।
     भागवत महापुराण के मुताबिक भगवान श्री विष्णु ने एकादशी के दिन संखासुर का वध किया था। संखासुर से युद्ध करते वे बहुत थक गए तब भगवान विष्णु का पूजन किया और विश्राम करने के लिए कहा। तब भगवान विष्णु शेष नाग की शईया पर चार महीने की योग निद्रा में सो गए।
देवशयनी एकादशी सामान्य पूजा विधि
     देवशयनी एकादशी के दिन प्रात:काल उठकर साफ-सफाई कर नित्य कर्म से निवृत हो, स्नानादि के पश्चात घर में पवित्र जल का छिड़काव करें।पूजा स्थल पर भगवान श्री हरि विष्णु जी की अपनी क्षमता अनुसार  सोने, चांदी, तांबे या फिर पीतल की मूर्ति स्थापित करें।
इसके बाद षोड्शोपचार सहित पूजा करें। पूजा के बाद व्रत कथा अवश्य सुननी चाहिये।घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करें।भगवान विष्णु का गंगा जल से अभिषेक करें। भगवान विष्णु के भोग में तुलसी को जरूर शामिल करें। ऐसा माना जाता है कि बिना तुलसी के भगवान विष्णु भोग ग्रहण नहीं करते हैं। इस पावन दिन भगवान विष्णु के साथ ही माता लक्ष्मी की पूजा भी करें। तत्पश्चात आरती करें और प्रसाद बांटे और अंत में सफेद चादर से ढंके गद्दे तकिये वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिये और विशेष हरिशयन मंत्र का पाठ करें---
सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्
सर्वं चराचरम्।।
     आपकी कृपा से ही यह सृष्टि सोती है और जागती है.हे करुणाकर आप हमारे ऊपर कृपा बनाए रखें। फिर श्री हरि विष्णु की प्रार्थना करें--
शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं 
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं 
वंदे विष्‍णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। 
त्वमेव माता, च पिता त्वमेव 
त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या च द्रविडम त्वमेव
त्वमेव सर्वम मम देव देव 
                         ।।धन्यवाद।।
 

रविवार, 11 जुलाई 2021

।।सरस्वती वंदना।।

               ।।    सरस्वती वन्दना   ।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला 
या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
 या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभि
र्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥1॥

अर्थ : जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली मां सरस्वती हमारी रक्षा करें। ..

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमाम्
 आद्यां जगद्व्यापिनीम्।
वीणा-पुस्तक-धारिणीम_
अभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌॥
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्‌।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं 
बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥
अर्थ : जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्व हैं, जो सब संसार में फैले रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिकमणि की माला लिए रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देनेवाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ ।