मंगलवार, 28 मई 2024

।।समास।।

।।समास।।
समास शब्द-रचना की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अर्थ की दृष्टि से परस्पर भिन्न तथा स्वतंत्र अर्थ रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द मिलकर किसी अन्य स्वतंत्र शब्द की रचना करते हैं।

समास विग्रह सामासिक शब्दों को विभक्ति सहित पृथक करके उनके संबंधों को स्पष्ट करने की प्रक्रिया है। यह समास रचना से पूर्ण रूप से विपरित प्रक्रिया है।

समास रचना में दो शब्द अथवा दो पद होते हैं पहले पद को पूर्व पद तथा दूसरे पद को उत्तर पद कहा जाता है।
इन दोनों पदों के समास से जो नया संक्षिप्त शब्द बनता है उसे समस्त पद या सामासिक पद कहते हैं।
जैसे: राष्ट्र (पूर्व पद) + पति (उत्तर पद) = राष्ट्रपति (समस्त पद)

समास की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—
समास में दो या दो से अधिक पदों का मेल होता है।
समास में शब्द पास-पास आकर नया शब्द बनाते हैं।
पदों के बीच विभक्ति चिह्नों का लोप हो जाता है।
समास से बने शब्द में कभी उत्तर पद प्रधान होता है तो कभी पूर्व पद और कभी-कभी अन्य पद। इसके अलावा कभी कभी दोनों पद प्रधान होते हैं।

परिभाषा:

‘समास’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘छोटा-रूप’। अतः जब दो या दो से अधिक शब्द(पद) अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो छोटा रूप बनाते हैं, उसे समास कहते हैं।
सामासिक

शब्द या समस्त पद कहते हैं। जैसे ‘रसोई के लिए घर’ शब्दों में से ‘के लिए’ विभक्ति का लोप करने पर नया शब्द बना ‘रसोई घर’, जो एक सामासिक शब्द है।
किसी समस्त पद या सामासिक शब्द को उसके विभिन्न पदोंएवं विभक्ति सहित पृथक् करनेकी क्रिया को समास का विग्रह कहते हैं जैसे विद्यालय विद्या के लिए आलय, माता-पिता=माताऔर पिता।
समास के कुल भेद

समास के निम्नलिखित छह भेद होते हैं—
1. अव्ययीभाव समास (Adverbial Compound)
2. तत्पुरुष समास (Determinative Compound)
3. कर्मधारय समास (Appositional Compound)
4. द्विगु समास (Numeral Compound)
5. द्वन्द समास (Copulative Compound)
6. बहुव्रीहि समास (Attributive Compound)

1.अव्ययीभाव समास:-

अव्ययीभाव समास में प्रायः(i)पहला पद प्रधान होता है।
(ii) पहला पद या पूरा पद अव्यय होता है।
(वे शब्द जो लिंग, वचन, कारक,काल के अनुसार नहीं बदलते, उन्हें अव्यय कहते हैं)
(iii)यदि एक शब्द की पुनरावृत्ति हो और दोनों शब्द मिलकर अव्यय की तरह प्रयुक्त हो, वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है।
(iv) संस्कृत के उपसर्ग युक्त पद भी अव्ययीभव समास होते हैं-
यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
यथाशीघ्र = जितना शीघ्र हो
यथाक्रम = क्रम के अनुसार
यथाविधि = विधि के अनुसार
यथावसर = अवसर के अनुसार
यथेच्छा = इच्छा के अनुसार
प्रतिदिन = प्रत्येक दिन। दिन-दिन। हर दिन
प्रत्येक = हर एक। एक-एक। प्रति एक
प्रत्यक्ष = अक्षि के आगे
घर-घर = प्रत्येक घर। हर घर। किसी भी घर को न छोड़कर
हाथों-हाथ = एक हाथ से दूसरे हाथ तक। हाथ ही हाथ में
रातों-रात = रात ही रात में
बीचों-बीच = ठीक बीच में
साफ-साफ = साफ के बाद साफ। बिल्कुल साफ
आमरण = मरने तक। मरणपर्यन्त
आसमुद्र = समुद्रपर्यन्त
भरपेट = पेट भरकर
अनुकूल = जैसा कूल है वैसा
यावज्जीवन = जीवनपर्यन्त
निर्विवाद = बिना विवाद के
दर असल = असल में
बाकायदा = कायदे के अनुसार
आजीवन - जीवन-भर
यथासामर्थ्य - सामर्थ्य के अनुसार
यथाशक्ति - शक्ति के अनुसार
यथाविधि- विधि के अनुसार
यथाक्रम - क्रम के अनुसार
भरपेट- पेट भरकर
हररोज़ - रोज़-रोज़
हाथोंहाथ - हाथ ही हाथ में
रातोंरात - रात ही रात में
प्रतिदिन - प्रत्येक दिन
बेशक - शक के बिना
निडर - डर के बिना
निस्संदेह - संदेह के बिना
प्रतिवर्ष - हर वर्ष
आमरण - मरण तक
खूबसूरत - अच्छी सूरत वाली
अव्ययीभाव समास की पहचान
अव्ययीभाव समास में तीन प्रकार के पद आते हैं:
1. उपसर्गों से बने पद:
आजीवन (आ + जीवन) = जीवन पर्यन्त
निर्दोष (निर् + दोष) = दोष रहित
प्रतिदिन (प्रति + दिन) = प्रत्येक दिन
बेघर (बे + घर) = बिना घर के
लावारिस (ला +‌ वारिस) = बिना वारिस के
यथाशक्ति (यथा‌ + शक्ति) = शक्ति के अनुसार
2. यदि एक ही शब्द की पुनरावृत्ति हो:
घर-घर = घर के बाद घर
नगर-नगर = नगर के बाद नगर
रोज-रोज = हर रोज
3. एक जैसे दो शब्दों के मध्य बिना संधि नियम के कोई मात्रा या व्यंजन आए:
हाथोंहाथ = हाथ ही हाथ में
दिनोदिन = दिन ही दिन में
बागोबाग = बाग ही बाग में

2- तत्पुरुष समास

इस समास में पूर्व पद गौण तथा उत्तर पद प्रधान होता है।
समस्त पद बनाते समय पदों के विभक्ति चिह्नों को लुप्त किया जाता है।
इस समास की दो प्रकार से रचना होती है:
(क) संज्ञा + संज्ञा/विशेषण
युद्ध का क्षेत्र = युद्धक्षेत्र
दान में वीर = दानवीर
(ख) संज्ञा + क्रिया
शरण में आगत = शरणागत
स्वर्ग को गमन = स्वर्गगमन
कारक की दृष्टि से तत्पुरुष समास के निम्नलिखित छह भेद होते हैं:
1. कर्म तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न: 'को')
सिद्धिप्राप्त = सिद्धि को प्राप्त
नगरगत = नगर को गत
2. करण तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न: 'से, के द्वारा')
हस्तलिखित = हाथों से लिखित
तुलसीरचित = तुलसी के द्वारा रचित
3. सम्प्रदान तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'के लिए')
रसोईघर = रसोई के लिए घर
जेबखर्च = जेब के लिए खर्च
4. अपादान तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'से' [अलग होने का भाव])
पथभ्रष्ट = पथ से भ्रष्ट
देशनिकाला = देश से निकाला
5. संबंध तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'का, के, की')
राजपुत्र = राजा का पुत्र
घुड़दौड़ = घोड़ों की दौड़
6. अधिकरण तत्पुरुष (विभक्ति चिह्न 'में, पर')
आपबीती = आप पर बीती
विश्व प्रसिद्ध = विश्व में प्रसिद्ध
यद्यपि तत्पुरुष समास के अधिकांश विग्रहों में कोई विभक्ति चिह्न अवश्य आता है परंतु तत्पुरुष समास के कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं, जिनके विग्रहों में विभक्ति चिह्न का प्रयोग नहीं किया जाता; संस्कृत में इस भेद को

नञ तत्पुरुष कहा जाता है। जैसे:

असभ्य( न सभ्य) अनंत (न अंत)
अनादि( न आदि) असंभव (न संभव)
तत्पुरुष समास के भेद (Tatpurush samas
ke bhed)

अन्य भेद

समानाधिकरण तत्पुरुष समास (कर्मधारय समास)

(Samanadhikaran tatpurush samas)

जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद हों, अर्थात विशेष्य-विशेषण-भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के
हों और लिंग - वचन में समान हों, वहाँ 'कर्मधारय तत्पुरुषसमास' होता है।

व्यधिकरण तत्पुरुष समास (Vyadhikaran
tatpurush samas)

जिस तत्पुरुष समास में प्रथम पद तथा द्वतीय पद दोनों भिन्न-भिन्न विभक्तियों में हो, उसे व्यधिकरण तत्पुरुष समास कहते हैं।

उदाहरणतया - राज्ञः पुरुषः - राजपुरुष: में प्रथम पद राज्ञः षष्ठी विभक्ति में है तथा द्वतीय पद पुरुष: में प्रथमा विभक्ति है। इस प्रकार दोनों पदों में भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ होने से व्यधिकरण तत्पुरुष समास हुआ।
व्यधिकरण तत्पुरुष समास 6 प्रकार का होता है
1. कर्म तत्पुरुष समास
2. करण तत्पुरुष समास
3.सम्प्रदान तत्पुरुष समास
4-अपादान तत्पुरुष समास
5-सम्बंध तत्पुरुष समास
6-अधिकरण तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास के उपभेद (Tatpurush
samas ke upbhed)
1. नञ् तत्पुरुष समास
2. उपपद तत्पुरुष समास
3. लुप्तपद तत्पुरुष समास
उपपद तत्पुरुष समास
ऐसा समास जिनका उत्तरपद भाषा में स्वतंत्र रूप से
प्रयुक्त न होकर प्रत्यय के रूप में ही प्रयोग में लाया जाता है। जैसे- नभचर, कृतज्ञ, कृतघ्न, जलद, लकड़हारा इत्यादि ।
लुप्तपद तत्पुरुष समास
जब किसी समास में कोई कारक चिह्न अकेला लुप्त न होकर पूरे पद सहित लुप्त हो और तब उसका सामासिक पद बने तो वह लुप्तपद तत्पुरुष समास कहलाता है। जैसे-दहीबड़ा-दही में डूबा हुआ बड़ा
ऊँटगाड़ी - ऊँट से चलने वाली गाड़ी
पवनचक्की - पवन से चलने वाली चक्की आदि।
नञ तत्पुरुष समास (Nav samas in hindi)
इसमें पहला पद निषेधात्मक होता है उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं।
नञ तत्पुरुष समास के उदाहरण (Nav
tatpurush samas ke udaharn):
असभ्य =न सभ्य

3- कर्मधारय समास

इस समास में पूर्व पद तथा उत्तर पद के मध्य में विशेषण-विशेष्य का संबंध होता है।
पूर्व पद गौण तथा उत्तर पद प्रधान होता है।
चंद्रमुख (चंद्र जैसा मुख) कमलनयन (कमल के समान नयन)
देहलता (देह रूपी लता) महादेव ( महान देव/
नीलकमल (नीला कमल)पीतांबर (पीला अंबर (वस्त्र))
सज्जन( सत् (अच्छा) जन )नरसिंह( नरों में सिंह के समान)
कर्मधारय समास के भेद (Karmdharay
samas ke bhed)
1. विशेषणपूर्वपद कर्मधारय समास
2. विशेष्यपूर्वपद कर्मधारय समास
3. विशेषणोंभयपद कर्मधारय समास
4. विशेष्योभयपद कर्मधारय समास

4-द्विगु समास

यह कर्मधारय समास का उपभेद होता है। इस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण होता है तथा समस्त पद किसी समूह को बोध होता है।
समस्त पद = समास-विग्रह । समस्त पद= समास-विग्रह
नवग्रह नौ= ग्रहों का समूह। दोपहर= दो पहरों का समाहार
त्रिलोक =तीन लोकों का समाहार ।चौमासा= चार मासों का समूह
नवरात्र =नौ रात्रियों का समूह। शताब्दी=सौ अब्दो (वर्षों) का समूह
अठन्नी आठ= आनों का समूह। त्रयम्बकेश्वर= तीन लोकों का ईश्वर
द्विगु समास के भेद (Dvigu samas ke
bhed)
1. समाहारद्विगु समास
2. उत्तरपदप्रधानद्विगु समास
समाहारद्विगु समास (Samahar dvigu
samas)
समाहार का मतलब होता है समुदाय, इकट्ठा होना, समेटना उसे समाहारद्विगु समास कहते हैं। जैसे :
तीन लोकों का समाहार = त्रिलोक
पाँचों वटों का समाहार =पंचवटी
तीन भुवनों का समाहार = त्रिभुवन
उत्तरपदप्रधानद्विगु समास (Uttar-pad-
pradhan dvigu samas)
उत्तरपदप्रधानद्विगु समास दो प्रकार के होते हैं।
1. बेटा या फिर उत्पन्न के अर्थ में। जैसे :-
दो माँ का = दुमाता
दो सूतों के मेल का =दुसूती।
2. जहाँ पर सच में उत्तरपद पर जोर दिया जाता है। जैसे 
पांच प्रमाण = पंचप्रमाण
पांच हत्थड = पंचहत्थड

5-द्वन्द्व समास

इस समास के दोनों पद प्रधान होते हैं एवं एक दूसरे के विलोम होते हैं। तथा विग्रह करने पर योजक या समुच्चय बोधक शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे- माता-पिता, भाई-बहन, राजा-रानी, दु:ख-सुख, दिन-रात, राजा-प्रजा।
"और" का प्रयोग समान प्रकृति के पदों के मध्य तथा "या" का प्रयोग विपरीत प्रकृति के पदों के मध्य किया जाता है। उदाहरण: माता-पिता = माता और पिता (समान प्रकृति) गाय-भैंस = गाय और भैंस (समान प्रकृति) धर्माधर्म = धर्म या अधर्म (विपरीत प्रकृति) सुरासुर = सुर या असुर (विपरीत प्रकृति)
द्वन्द्व समास के तीन भेद होते हैं-(1) इतरेतर द्वन्द्व, (2)समाहार द्वन्द्व, (3)वैकल्पिक द्वन्द्व

6-बहुव्रीहि समास

जिस समास के दोनों पद अप्रधान हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त कोई सांकेतिक अर्थ प्रधान हो उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। जैसे:
समस्त पद   =समास-विग्रह
दशानन    = दश है आनन (मुख) जिसके अर्थात् रावण
नीलकंठ    = नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव
सुलोचना   = सुंदर है लोचन जिसके अर्थात् मेघनाद की पत्नी
पीतांबर =पीला है अम्बर (वस्त्र) जिसका अर्थात् श्रीकृष्ण
लंबोदर। = लंबा है उदर (पेट) जिसका अर्थात् गणेशजी
दुरात्मा = बुरी आत्मा वाला ( दुष्ट)
श्वेतांबर   =श्वेत है जिसके अंबर (वस्त्र) अर्थात् सरस्वती

प्रयोग की दृष्टि से समास के भेद-

1. संयोगमूलक समास
2. आश्रयमूलक समास
3. वर्णनमूलक समास

पदों की प्रधानता के आधार पर वर्गीकरण-

1. पूर्वपद प्रधान - अव्ययीभाव
2. उत्तरपद प्रधान - तत्पुरुष, कर्मधारय, द्विगु
3. दोनों पद प्रधान - द्वंद्व
4. दोनों पद अप्रधान - बहुव्रीहि (इसमें कोई तीसरा अर्थ
प्रधान होता है)

पूर्वपद और उत्तरपद - Pre and
Post Compound

समास रचना में दो पद होते हैं, पहले पद को 'पूर्वपद' कहा जाता है और दूसरे पद को'उत्तरपद'कहा जाता है। इन दोनों से जो नया शब्द बनता है वो समस्त पद कहलाता है। जैसे-
पूजाघर (समस्तपद) पूजा (पूर्वपद) + घर
(उत्तरपद)
पूजा के लिए घर (समास - विग्रह )
राजपुत्र (समस्तपद) - राजा (पूर्वपद) + पुत्र ( उत्तरपद) -
राजा का पुत्र (समास - विग्रह )

समास विग्रह - Compound
words in Hindi

सामासिक शब्दों के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट करने को समास विग्रह कहते हैं। विग्रह के बाद सामासिक शब्द गायब हो जाते हैं अथार्त जब समस्त पद के सभी पद अलग-अलग किय जाते हैं, उसे समास - विग्रह कहते हैं।
जैसे:-
माता-पिता= माता और पिता ।
राजपुत्र = राजा का पुत्र ।

'समसनम्' इति समास:। इस प्रकार 'समास' शब्द का अर्थ है— संक्षेपण।
अर्थात् दो या दो से अधिक पदों में प्रयुक्त विभक्तियों, समुच्चय 'बोधक 'च' आदि को हटाकर एक पद बनाना । यथा — गायने कुशला = गायनकुशला। इसी तरह राज्ञ: पुरुष: = राजपुरुष: पदों में विभक्ति-लोप,
सीता च रामश्च =सीतारामौ में
समुच्चय बोधक 'च' का लोप हुआ है। इसी प्रकार विद्या एव धनं यस्य स:=विद्याधन: पद में कुछ पदों का लोप कर संक्षेपण क्रिया द्वारा गायनकुशला,
राजपुरुष:, सीतारामौ तथा विद्याधन: पद बनाए गए हैं।
कहीं-कहीं पदों के बीच की विभक्ति का लोप नहीं भी होता है।यथा— खेचरः, युधिष्ठिर:, वनेचर: आदि। ऐसे समासों को अलुक् समास कहते हैं। पदों की प्रधानता के आधार पर समास के मुख्यत: चार भेद होते हैं—
(1) अव्ययीभाव (2) तत्पुरुष (3) द्वन्द्व तथा (4) बहुव्रीहि। तत्पुरुष के दो उपभेद भी हैं— कर्मधारय एवं द्विगु । इस प्रकार सामान्य रूप से समास के छ: भेद हैं।

एकशेष

जहाँ अन्य पदों का लोप होकर एक ही पद शेष बचे, वहाँ एकशेष होता है। यह समास से भिन्न वृत्ति है।
उदाहरण – बालकश्च बालकश्च बालकश्च = बालकाः ।
एकशेष में पुँल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग पदों में से पुंल्लिङ्ग पद ही शेष रहता है।
यथा-माता च पिता च = पितरौ
दुहिता च पुत्रश्च = पुत्रौ

कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर

कर्मधारय में समस्त-पद का एक पद दूसरे का विशेषण होता है। इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है।
जैसे: नीलकंठ = नीला कंठ।
बहुव्रीहि में समस्त पद के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का संबंध नहीं होता अपितु वह समस्त पद ही किसी अन्य संज्ञा का विशेषण होता है। इसके साथ ही शब्दार्थ गौण होता है और कोई भिन्नार्थ ही प्रधान हो जाता है।
जैसे: नीलकंठ = नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव।

बहुब्रीहि व द्विगु समास में अंतर

द्विगु समास में पहला पद संख्यावाचक होता है और समस्त पद समूह का बोध कराता है लेकिन बहुब्रीहि समास में पहला पद संख्यावाचक होने पर भी समस्त पद से समूह का बोध न होकर अन्य अर्थ का बोध कराता है। जैसे- चौराहा अर्थात चार राहों का समूह (द्विगु समास), चतुर्भुज- चार हैं भुजाएँ जिसके (विष्णु) अन्यार्थ (बहुब्रीहि समास)

संधि और समास में अंतर

संधि में वर्णों का मेल होता है। इसमें विभक्ति या शब्द का लोप नहीं होता है। जैसे: देव + आलय = देवालय।
समास में दो पदों का मेल होता है। समास होने पर विभक्ति या शब्दों का लोप भी हो जाता है।
जैसे: विद्यालय = विद्या के लिए आलय।
समास-व्यास से विषय का प्रतिपादन
यदि आपको लगता है कि सन्देश लम्बा हो गया है (जैसे, कोई एक पृष्ठ से अधिक), तो अच्छा होगा कि आप समास और व्यास दोनों में ही अपने विषय-वस्तु का प्रतिपादन करें अर्थात् जैसे किसी शोध लेख का प्रस्तुतीकरण आरम्भ में एक सारांश के साथ किया जाता है, वैसे ही आप भी कर सकते हैं। इसके बारे में कुछ प्राचीन उद्धरण भी दिए जा रहे हैं।
विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत्।
इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ॥ (महाभारत )
अर्थात् महर्षि ने इस महान ज्ञान (महाभारत) का संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकार से वर्णन किया है, क्योंकि इस लोक में विद्वज्जन किसी भी विषय पर समास (संक्षेप) और व्यास (विस्तार) दोनों ही रीतियाँ पसन्द करते हैं।
ते वै खल्वपि विधयः सुपरिगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपंचश्च।
केवलं लक्षणं केवलः प्रपंचो वा न तथा कारकं भवति॥ (व्याकरण-महाभाष्य )
अर्थात् वे विधियाँ सरलता से समझ में आती हैं जिनका लक्षण (संक्षेप से निर्देश) और प्रपंच (विस्तार) से विधान होता है। केवल लक्षण या केवल प्रपंच उतना प्रभावकारी नहीं होता।
संस्कृत में समासों का बहुत प्रयोग होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी समास उपयोग होता है। समास के बारे में संस्कृत में एक सूक्ति प्रसिद्ध है:

द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।
तत् पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः॥

 समास के बारे में विशेष  यहां से

द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥ [1]
इसमें छहों समासों का वर्णन है। क्रम निम्नवत है
द्वंद: दोनों पद प्रधान जैसे राधाकृष्ण , ऊंच नीच
द्विगु : पूर्व पद संख्यावाचक जैसे चतुर्युग , त्रिलोक
अव्ययीभावः पूर्व पद प्रधान एवं अव्यय उत्तर पद संज्ञा (या अनव्यय ) - परंतु समस्त पद अव्यय - जिसका रूप अपरिवर्तित होता है। पाणिनि ले अनुसार ये 16 प्रकार के होते हैं। [2] जैसे उपनगर , अध्यात्म , अनुरूप
तत्पुरुष:जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। जैसे - तुलसीदासकृत = तुलसी द्वारा कृत (रचित), गंगाजल । यह नञ समास सहित 7 प्रकार के होते हैं। [3]
कर्मधारय:जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद व उत्तरपद में विशेषण-विशेष्य अथवा उपमान-उपमेय का संबंध हो वह कर्मधारय समास कहलाता है। जैसे नीलकमल , चंद्रमुखी।
बहुव्रीहिः जिसके दोनों पद गौण हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त तीसरा सांकेतिक अर्थ प्रधान हो जाए जैसे - नीलकंठ (अर्थ - शंकर, लंबोदर अर्थ - गणेश )
द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः ।
तत्पुरुष कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ॥
का अर्थ इसका व्यंग्य अर्थ ऐसा है--‘मैं घर में द्वन्द्व (दो प्राणी, स्त्री-पुरुष) हूँ । द्विगु हूँ (दो बैल मेरे पास हैं ) । मेरे घर में नित्य अव्ययी-भाव रहता है (खरचा नहीं चलता ) । तत्पुरुष (इसलिए हे पुरुष महाशय) कर्मधारय (ऐसा काम करो) जिससे मैं बहुव्रीहि (अधिक अन्नवाला) हो जाऊँ ।’ 
विशेष यहां तक है।
।।धन्यवाद।।

















सोमवार, 27 मई 2024

।।ठाकुर श्री राम का अवतरण नवमी को ही क्यों।।

।।ठाकुर श्री राम का अवतरण नवमी को ही क्यों।।
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥
ठाकुर श्री राम का अवतरण नवमी को ही क्यों जानते है इसके पीछे की अद्भुतरहस्यमयी कथा 
- एक बार साकेताधीश श्री विष्णुजी(श्रीरामजी)
करुणामयी माता लक्ष्मी के( श्रीसीताजीके) साथ विराजमान थे । उसी समय एक दीन-हीन देवी आ गयी। प्रभुने पूछा- तुम कौन हो ? उसने कहा- हे स्वामिन्! मैं
नवमी तिथिकी अधिष्ठातृ देवी हूँ। प्रभुने पूछा- कैसे आयी हो ? उसने कहा- हे सर्वान्तर्यामिन्! हे करुणासागर! हे अनाथनाथ ! मेरी बड़ी दुर्दशा है। लोग रिक्ता कहकर मेरा अपमान करते हैं। मैं यात्रा आदि प्रशस्त कार्योंमें हटा दी जाती हूँ। प्रभुने पूछा- क्या तुम वास्तवमें रिक्ता हो ? उसने कहा- हे दयामय ! सच कहनेसे डर लग रहा है,
कहीं आपके दरबारसे भी न निकाल दी जाऊँ; वास्तवमें मैं रिक्ता ही हूँ। मेरे पास कोई आता नहीं और मुझे कोई पूछता भी नहीं, निषेध- प्रतिषेध सभी करते हैं। प्रभु मन्द मन्द मुसकरा पड़े और उसे आश्वस्त करते हुए बोले - हे
नवमी देवि ! चिन्ता मत करो अब तुम ठीक जगह आ गयी हो, यहाँसे निकाले जानेका भय नहीं है। यहाँ जो निष्कपट भावसे दीन होकर आता है उसे निकाला नहीं जाता अपितु अपनाया जाता है। जिसके पास कोई नहीं जाता है, जिसके पास कोई जानेकी इच्छा भी नहीं करता है उसके पास मैं जाता हूँ। जिसे कोई नहीं पूछता है उसे
मैं पूछता हूँ। जिसे कोई नहीं अपनाता, जिसे सब भगा देते हैं, जिसका सब अपमान करते हैं, उसे मैं अपनाता हूँ—अपने हृदयसे लगा लेता हूँ। करुणामय श्रीरघुनाथजीने श्रीकिशोरीजीकी ओर अर्थपूर्ण दृष्टिसे निहारा । नित्यकिशोरी श्रीसीताजीने नेत्रोंकी भाषामें उत्तर दे दिया। दोनों ठाकुरने- प्रिया-प्रियतमने सम्मिलित घोषणा कर दी - हे नवमि ! जो रिक्ता है वही हम दोनोंको भाता है, जो समस्त आश्रयसे रिक्त है, कामनाओंसे रिक्त है, कपटसे रिक्त है और छल छिद्रसे रिक्त है, वही हम दोनोंको प्यारा है। हे रिक्ते ! हम रिक्तमें ही निवास करते हैं। जो आकण्ठ कपट-छलसे परिपूर्ण है उससे हम दूर रहते हैं । तुम रिक्ता हो अतः मेरा आविर्भाव तुम्हींमें होगा। मैं नवमी
तिथिमें ही जन्म लूँगा । श्रीकिशोरीजीने कहा- मेरे नाथ! जिसे आपने अपना लिया है उसी नवमीमें मैं भी जन्म लूँगी। दोनों ठाकुरका जन्म रिक्ता तिथिमें — नवमीमें ही होता है। श्रीरामनवमी और श्रीजानकीनवमी । नवमी निहाल हो गयी। अब कौन कहेगा मुझे रिक्ता ? कहते हैं तो कहें, मैं तो आज भर गयी हूँ- परिपूर्ण हो गयी हूँ। मैं तो पूर्णासे भी अपनेको सौभाग्यशालिनी मानती हूँ ।
श्रीराम-सीताने मुझे स्वीकार कर लिया है। मैं उनके नामसे जुड़ गयी हूँ । निहाल हो गयी नवमी । ठाकुरजी आ गये नवमी तिथि में । भगवान्‌का जन्म नक्षत्र 'पुनर्वसु ' है । भगवान्‌का एक नाम भी पुनर्वसु है ।
'अनघो विजयो जेता विश्वयोनिर्पुनवसुः '
पुनर्वसुका यह अर्थ है 'पुनः पुनः शरीरेषु वसतीति
पुनर्वसुः श्रीहरिः । पुनर्वसुका यह भी अर्थ है कि जो लोगोंको पुनः बसावे - उजड़े हुयेको बसावे, अनाथको सनाथ करे, मेरे श्रीरामजीमें यह सब गुण सहज ही विद्यमान हैं। इस प्रकार योग, वार, लग्न, तिथि, नक्षत्र
सब मङ्गलमय हो गये  तब ठाकुर का अवतार हुवा।
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥
।।जय राम नवमी जय जानकी नवमी।।

✓।।श्रीसीताजी द्वारा जयमाल पहनाने में देरी का कारण।।

।।श्री किशोरीसीताजी  द्वारा जयमाल पहनाने में देरी का कारण।।
श्रीसीताजीकी चतुर सखियोंने नेत्रोंकी भाषा में समझाकर कहा - हे किशोरीजू ! आप यह सुहावनी जयमाला अपने प्रियतमको पहना दो ।
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई ।
पहिरावहु जयमाल सुहाई ॥
सखियोंकी बात सुनकर राजकिशोरी श्रीसीताने दोनों हाथोंसे माला उठायी; परन्तु
प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।
श्रीसीताजीने सोचा - माला पहनानेके पश्चात् सखियाँ कहेंगी कि अब चलो, तो इतने सन्निकटसे जो परम प्रियतमकी मङ्गलमयी छविका दर्शन हो रहा है वह समाप्त हो जायगा अतः
'प्रेम बिबस पहिराइ न जाई।'
अथवा श्रीसीताजीने अपने जीवनधन श्रीरामजीसे मान कर लिया। मूक भाषामें - नेत्रोंकी भाषामें कहा - हे स्वामिन्! आपने धनुष तोड़नेके लिये अति विलम्ब किया, किसी प्रकार उठे भी तो बहुत धीरे-धीरे झूमते हुये चलकर धनुषके पास आये। उस समय धनुष तोड़नेके लिये उठना और चलना तो आपके आधीन था। आप स्वतन्त्र थे, उसमें आपने विलम्ब किया। अब जयमाला पहनाना मेरे हाथमें है, इसलिए अब आप भी किञ्चित् प्रतीक्षा करो। अतः
प्रेमबिबस पहिराइ न जाई। अथवा 
जिस भाँति मुझको ललचना पड़ा है आज
उसी भाँति अब आपको भी ललचाऊँगी।
जैसा था गुमान आपको कमान खींचनमें,
वैसी ही सुजान ! स्वाभिमानता दिखाऊँगी ॥
अधिक बिलम्ब से उठी थी जो विरह ज्वाल,
शीतल सनेह विन्दु से उसे बुझाऊँगी ।
नाथ तरसाया चाप तोड़नेमें आपने तो
मैं भी जयमाल छोड़ने में तरसाऊँगी ॥ इं
अथवा
किं वा - श्रीसीताजी छोटी हैं और श्रीरामजी लम्बे हैं । श्रीरामजीके झुके बिना माला कैसे पहनायी जाय ? इधर प्रभु कहते हैं कि मैं तो नहीं झुकूँगा। सखियोंके सामने बड़ी समस्या है। सखियोंने युक्ति निकाली - गीत गाना आरम्भ कर दिया। वह गीत भी रटा हुआ नहीं था अपितु परम सुन्दर श्रीरामजीकी छविको देखकर गीतकी रचना कर
रही थीं और उसी सद्यः रचित गीतको गा रही थीं । जैसा कि गोस्वामीजी ने लिखा ही है
'गावहिं छबि अवलोकि' 
एक-एक अङ्गका वर्णनकरती हैं- हे रघुनन्दन ! आप परम सुन्दर हैं। आपका वक्षःस्थल विशाल है, जानुपर्यन्त लम्बिनी आपकी भुजायें हैं, आपका समुन्नत ललाट है,
विद्रुमकी भाँति आपके लाल लाल ओष्ठ हैं, तोतेकी
तरह आपकी नासिका है, आपके नेत्र कमलकी तरह स्निग्ध और विशाल हैं और आपका श्रीविग्रह इतना लम्बा है कि हमारी किशोरी सरकारके हाथ जयमाला पहनानेके लिये नहीं पहुँच रहे हैं। अतः श्रीचरणोंमें प्रार्थनापूर्वक विनम्र निवेदन है कि आप थोड़ा-सा झुककर जयमाला धारण कर लो। यह  उपाय भी व्यर्थ हो गया, सरकार नहीं झुके । तब सखियोंने कहा—हे रघुनन्दन ! आप सुन्दर हैं,कामाभिराम हैं, लोकाभिराम हैं। आपने हमारे नगरके समग्र नर नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे मुग्ध कर लिया है, अपने वशमें कर लिया है; परन्तु हे सरकार ! अब अपने सौन्दर्यपर अधिक गर्व न करो। आपसे सुन्दर तो हमारी श्रीकिशोरीजी हैं। आप तनिक अपना रूप देखो तो सही । कहाँ देखूँ ? सखियोंने कहा- सरकार यह विदेहनगर है, यहाँका सब कुछ विलक्षण है। आप अपना
रूप हमारी किशोरी सरकारकी परछाहींमें देखिये ।
प्रभुने सोचा - परिछाहीमें कैसे रूप दीखता होगा ।
सखियोंने फिर कहा कि हे सरकार ! आप आश्चर्य न करें, तनिक परिछाहीपर दृष्टि डालें ।
गरब करहु रघुनंदन जनि मन माँह ।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाँह ॥
( श्रीबरवै रामायण १७ )
सखियोंने गीतके चक्कर में परब्रह्मको डाल दिया । प्रभुने अपना स्वरूप देखनेके लिये जब परछाहींमें ध्यान देने के लिये मस्तक झुकाया, उसी समय सिय जयमाल राम उर मेली ।
किं वा सखियों ने - गीत गाकर श्रीकिशोरीजीसे कहा- श्रीरामजीके गलेमें माला पहनाओ, सुनकर श्रीकिशोरीजीने रामजीके गलेमें माला डाल दी।
गावहिं छबि अवलोकि सहेली ।
सियँ जयमाल राम उर मेली ॥
भगवती भास्वती श्री मिथलेशनन्दिनीने विजयश्री संवलित जयमाला पहना दी। श्रीराघवेन्द्र सरकारके हृदयमें विराजमान जयमालाको देखकर देवता नन्दनकाननके पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। जनकनगर और आकाशमें दुन्दुभि ध्वनि होने लगी । देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीन्द्र जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं । अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। बार-बार पुष्पाञ्जलि हो रही है । यत्र-तत्र ब्राह्मणलोग वेदध्वनि कर रहे हैं । बन्दी यशका वर्णन कर रहे हैं।
रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन ।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓।।शिव धनुष किसने तोड़ा।।

।।शिव धनुष किसने तोड़ा।।
महि पाताल नाक जसु ब्यापा ।
राम बरी सिय भंजेउ चापा ॥
'राम बरी सिय भंजेउ चापा' का दो प्रकारसे अर्थ किया जाता है। श्रीअयोध्यावाले अर्थ करते हैं— 'राम बरी सिय, भंजेउ चापा' अर्थात् श्रीरामने धनुषको तोड़कर श्रीसीताजीका वरण किया ।उनसे विवाह किया।यह तो पूरा संसार ही जानता है।लेकिन मिथिला वाले ऐसा नहीं मानते है,मिथिलापक्षवाले कहते हैं-
'राम बरी, सिय भंजेउ चापा' अर्थात् श्रीरामजीने विवाह तो किया; परन्तु धनुषको श्रीसीताजीने तोड़ा। इस भावकी पुष्टिमें वे इस प्रसिद्ध पद झूम झूम कर गाते हैं ।
परि परि पाय जाय गिरिजा निहोरी नित्य
शंकर मनाये पूजे गणपति भावसे।
दीने दान विविध विधान जप कीने बहु
नेम व्रत लीने सिय सहित उछावसे ॥
रसिक बिहारी मिथलेशकी दुलारी दृढ़
प्रीति उर धारी अवधेश सुत चावसे ।
जनक किशोरी के प्रताप ते पिनाक टूटो
टूटो है न जानौ रामबलके प्रभावसे ॥
अब आपको स्वयं ही सत्य पहचानना है
।जय श्री राम जय हनुमान।।

।।भक्तों को भगवान शंकर का उपदेश।।

।।भक्तों को भगवान शंकर का उपदेश।।
एक बार भगवान् शङ्कर कैलास पर्वतपरवटवृक्षके नीचे पधारे। वृक्षको देखकर उन्हें बहुत सुख मिला। अपनेहाथ
से बाघम्बर बिछाकर सहज भावसे विराजमान हो गये ।
निज कर डासि नागरिपु छाला ।
बैठे सहजहिं। संभु कृपाला ॥
 श्रीशङ्करजी अपने चरित्रसे भगवत्तत्त्वके वक्ताको एवं हम सब को उपदेश दे रहे हैं - कि हम अपने शरीरकीसेवा करानेकी अपेक्षा न करे 'स्वयं दासास्तपस्विनः ' हम
तपस्वीको अपना कार्य स्वयं करना चाहिये अतः उन्होंने स्वयं अपने हाथसे आसन बिछाया । उपदेशकको अपने चरित्रसे धर्म मार्गका उपदेश करना चाहिये
'धर्ममार्ग चरित्रेण' ।
पूजापाठमें, साधन नियममें और सन्ध्योपासनादि
नित्यकर्ममें आसनका विशेष महत्त्व है। कुशासनपर
बैठकर साधन करनेसे आयुकी वृद्धि होती है मोक्षकामीको व्याघ्रासनपर, समस्त सिद्धिके लिये
कृष्ण मृगचर्म और कम्बलासनका प्रयोग उचित है । सूती आसनसे दारिद्र्य, बिना आसनके भूमिपर बैठनेसे शोक और पाषाणपर बैठनेसे रोग होता है । काष्ठासनपर बैठकर पूजा आदि करनेसे समस्त परिश्रम व्यर्थ हो जाता है । यह बात अगस्त्यसंहिता में कही गई है।
कुशासने भवेदायुः मोक्षः स्याद् व्याघ्रचर्मणि ।
अजिने सर्वसिद्धिः स्यात् कम्बले सिद्धिरुत्तमा ॥
वस्त्रासनेषु दारिद्र्यं धरण्यां शोक सम्भवः ।
शिलायाञ्च भवेद् व्याधिः काष्ठे व्यर्थ परिश्रमः ॥
आसन अपना होना चाहिये । अन्यत्र जाय तो अपना आसन लेकर जाना चाहिये। माला, ग्रन्थ और आसन यह सब अकारण जल्दी नहीं बदलना चाहिये। कुछ लोग तो गुरु ही बदल देते हैं। खैर इस तलाकके जमानेमें कोई आश्चर्य नहीं है । बाकी आप सब समझदार है।आगे प्रभु इच्छा।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓।।भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।।

।।भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
एक बार मेरे आदर्श कथाकार गीताप्रेस गोरखपुरमें कथा
कहनेके लिये गये थे। संयोगवश एक दिन उनके पीठमें दर्द हो गया । उपचार करनेवाले डाक्टरने कहा- गर्म पानीकी थैलीसे सेंक करा लें। उन्होंने गर्म पानीकी रबरकी थैलीसे रात भर सेंक किया । दूसरे दिन डाक्टर महोदयने पूछा- दर्द कैसा है ? उन्होंने कहा- भैया ! दर्द तो समाप्त हो ही गया,दर्दके साथ उनका भ्रम भी समाप्त हो गया। आपने
तो उनके जीवनकी समस्या ही सुलझा दी - उनकी बहुत बड़ी शङ्काका समाधान हो गया। डाक्टर महोदयने आश्चर्यविस्फारित नेत्रों से उन्हें देखते हुए पूछा - कैसा भ्रम ? कैसी समस्या ? उन्होंने कहा- उनको भ्रम था कि जब रामनाम जपमें मन नहीं लगता है तब उन्हें क्या लाभ
होगा ? श्रीकबीरदासजीने  इस दोहे के माध्यम से उनके भ्रमको पक्का कर दिया था कि 
माला फेरत जुग भया मिटा न मनका फेर ।
करका मनका डार के मनका मनका फेर ॥
परन्तु आज समस्याका समाधान हो गया । उनके सारे भ्रम निर्मूल हो गये । आज वे  यह सोच रहे है कि - जब ऊपरसे गर्म पानीकी थैलीके सेंकसे भीतरका दर्द नष्ट हो गया तब ऊपरसे बिना मन लगे भी किया हुआ श्रीरामनाम जप क्या अन्तःकरणके कालुष्यको, मनके पापको नहीं नष्ट कर देगा ? अतएव मन लगे या न लगे, ऊपरसे हो या भीतरसे, ढोंगसे हो या सद्भावसे श्रीरामनामका जप अवश्य करना चाहिये । श्रीरामनामके जपसे कल्याण सुनिश्चित है।
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
श्रीरामनामका महत्व निरूपण करके भक्तकवि अपने आराध्य करुणामय श्रीरामचन्द्रजीके स्वभावका वर्णन करते हैं । संसारके स्वामी अपने सेवकोंके वचन और कर्मको देखते हैं; परन्तु श्रीरामजी तो अपने भक्तोंके मनको देखते हैं। वाणी और कर्म से विगड़ जाय तो भी विशेष हानि नहीं है। 
बचन बेष तें जो बनै सो बिगरइ परिनाम |
तुलसी मन तें जो बनै बनी बनाई राम ॥
भाव यह है कि हृदय अच्छा न हो तो मात्र वचनसे ही सर्वज्ञ श्रीरामजी नहीं रीझते ।
मूर्खो वदति विष्णाय बुधो वदति विष्णवे ।
नमः इत्येवमर्थञ्च द्वयोरेव समं फलम् ॥
अर्थात् मूर्ख-व्याकरण ज्ञानरहित व्यक्ति 'विष्णाय
नमः' कहता है, जो व्याकरणकी दृष्टिसे अशुद्ध है। वस्तुतः 'विष्णवे नमः' कहना चाहिये । विद्वान् यही कहकर प्रणाम करता है; परन्तु श्रीठाकुरजी यह देखते हैं कि 'नमः' का उच्चारण भावपूर्वक कौन कर रहा है। कृपालु प्रभुके ध्यानमें दासकी की हुई त्रुटिकी बात तो आती ही नहीं है। वे तो भक्तके हृदयके एकबार भी आये हुये सुन्दर भावको सौ-सौ बार स्मरण करते हैं ।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी ।
रीझत राम जानि जन जी की ॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
मनकी बात तो श्रीठाकुरजी ही जानते हैं । संसार तो ऊपरकी बात - वचन और कर्मकी बात अर्थात् केवल व्यवहार जानता है; परन्तु विडम्बना यह है - श्रीरामजी मनको देखते हैं उन्हें हम मन नहीं देते हैं, व्यवहार देते हैं और संसार व्यवहार देखता है मनकी बात नहीं समझता, उसे हम मन देते हैं। इस प्रसङ्गमें निम्नाङ्कित दोहे मनन करने योग्य हैं-
रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि ।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि ॥
सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति ।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति ॥
बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन ।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन ॥
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु ।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ॥
इस प्रकार यह स्वयं सिद्ध है कि 
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
जय श्री राम जय हनुमान

।।महाबीर बिनवउँ हनुमाना।।।

।।महाबीर बिनवउँ हनुमाना।।।
महाबीर बिनवउँ हनुमाना।
राम जासु जस आप बखाना।।
महावीर — और लोग केवल वीरताके कारण महावीर हो सकते हैं; परन्तु श्रीहनुमान्जी तो गुण और नाम दोनोंसे महावीर हैं। इनकी अभिधा 'महावीर' है। 'महावीर' शब्दसे इन्हींका बोध होता है। वीरताको अनेक प्रकारसे समझाया जा सकता है - 
(क) शारीरिक वीरतामें ये अकेले ही लङ्काके समस्त राक्षसोंका संहार करनेमें समर्थ हैं। ये अद्वितीय योद्धा हैं तीनों लोकमें।
कौन की हाँक पर चौंक चण्डीस बिधि,
चंड कर थकित फिरि तुरग हाँके ।
कौन के तेज बलसीम भट भीम से
भीमता निरखि कर नयन ढाँके ॥
दास - तुलसीस के बिरुद बरनत बिदुष,
बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके ।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन,
कहाँ हनुमान से बीर बांके।।
(ख) वीरेन्द्र मुकुटमणि श्रीरामचन्द्रजीको जिन्होंने अपने वशमें कर लिया है। उनसे महान् वीर कौन हो सकता है ?
अपने बस करि राखे रामू ।
(ग) 'वीर' शब्दका अर्थ है विशेषेण "ईरयति प्रेरयतीति वीरः" दर्शनार्थी भक्तोंको प्रेरित करके श्रीरामचरणोंमें पहुँचा देते हैं । श्रीविभीषण इसके प्रमाण हैं ।
तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना ।
लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥
(घ) करुणामय श्रीरामजीको आर्त भक्तोंके ऊपर करुणा करनेके लिये प्रेरित करते हैं। भक्तोंकी करुण गाथा सुनाकर भक्तवत्सल श्रीरामजीके राजीव नयनोंमें प्रेमाश्रुओंका अवतरण करा देते हैं ।
सुनि सीता दुख प्रभु सुखअयना ।
भरि आए जल राजिव नयना ॥
बस यही तो श्रीहनुमान्जीका कार्य है।
महान्‌को - श्रीराम भगवान्‌को भक्तोंके ऊपर करुणा
करनेके लिये विशेष प्रेरणा देते हैं। इसीलिये उनका नाम 'महावीर' है । भक्तकवि गोस्वामीजी श्रीविनयपत्रिकाजीमें बड़े भावपूर्ण शब्दोंमें लिखते हैं-
'साहेब कहूँ न राम से तोसे न उसीले' अर्थात् हे हनुमान्जी ! श्रीरामजीके तरह कोई करुणामय स्वामी नहीं है और उनकी कृपा - करुणा प्राप्त करनेके लिये आपकी भाँति 'उसीला' अर्थात् माध्यम नहीं है। श्रीहनुमान्जी हमें भी इस कथा माध्यम से श्रीसीतारामजीका कृपापात्र बना दें। इसी आशा के साथ जय श्री राम जय हनुमान।।

✓राम की उदारता

राम की उदारता 
मानस चर्चा मानस के प्रधान विषय पर वह है रघुपति के नाम की उदारता जैसा कि गोस्वामीजी ने घोषित किया है।
एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
उदारकी परिभाषा 'भगवद्गुणदर्पण' नामक ग्रन्थमें इस प्रकार है- जो सुपात्र, कुपात्र, देश, कालका ध्यान न देकर आवश्यकतासे अधिक स्वार्थरहित होकर देता है उसे 'उदार' कहते हैं ।
पात्रापात्रविवेकेन देशकालाद्युपेक्षणात् ।
वदान्यत्वं विदुर्वेदा औदार्यवचसापरे ॥
ब्राह्मणसे चाण्डालपर्यन्त और यवन आदि समस्त विधर्मियोंको समानभावसे पालन करनेके कारण किंवा मुक्ति प्रदान करनेके कारण श्रीरामनाममहाराज उदार हैं। वाराहपुराणमें में एक बहुत ही सुंदर कथा  श्रीशङ्करजीने कहा है- हे देवि ! एक यवन बैलका व्यापार करते हुए किसी वनमें ठहरा था। वह अत्यन्त वृद्ध था, सङ्ग्रहणी रोगसे पीड़ित था । रात्रिमें शौचके लिए गया । दैवयोगसे — प्रारब्धसे एक शूकरके बच्चेने उसे धक्का दे दिया। वह उसी समय गिरकर मर गया । धक्का लगने के कारण
गिरते समय उसके मुखसे 'हरामने मार डाला ' 'हरामने मार डाला' ये शब्द निकले। इस 'हराम' के ब्याजसे 'राम' कहनेके कारण वह गोपदके समान भवसागरसे तर गया। भाव यह कि यदि कोई स्नेहपूर्वक रामनामका जप करे तो
उसका तो कहना ही क्या है ?
दैवाच्छूकरशावकेन निहतो म्लेच्छो जराजर्जरो
हारामेण हतोऽस्मि भूमि पतितो जल्पंस्तनुं त्यक्तवान् ।
तीर्णो गोष्पदवद्भवार्णवमहो नाम्नः प्रभावादहो
किं चित्रं यदि रामनाम रसिकास्ते यान्ति रामास्पदम् ॥
( वाराहपुराण)

रविवार, 26 मई 2024

।।मानस चर्चा सिंहिका का बध।।

।।मानस चर्चा सिंहिका का बध।।
सुरसा देवी थीं । उनके आशीर्वाद देकर जानेपर अब एक
राक्षसी मिली जो समुद्रमें रहती थी। 
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई ।
करि माया नभु के खग गहई।।
यह मायावी है।गोस्वामीजी ने इसका नाम नहीं बतायाl
इसका नाम सिंहिका था, यह हिरण्यकशिपुकी पुत्री, विप्रचित्ति नामक दैत्यकी पत्नी और राहुकी माता थी । संसार का यह नियम है कि किसीकी छाया किसीके द्वारा पकड़ी नहीं जा सकती
 'तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी। '
परन्तु यह राक्षसी छाया पकड़कर नभचर जीवोंको खा जाती थी इसके मायाकी यह बहुत बड़ी विशेषता थी ।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं ।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं ॥
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
वही छल सिंहिकाने हनुमान्जीसे किया— हनुमान्जीकी छाया पकड़ ली। गतिके अवरुद्ध होनेपर श्रीहनुमानजीको वानरेन्द्र सुग्रीवजीकी बात याद आ गयी। उन्होंने निश्चय कर लिया कि यह वही राक्षसी है।
कपिराज्ञा यथाख्यातं सत्त्वमद्भुतदर्शनम्।
छायाग्राहि महावीर्यं तदिदं नात्र संशयः ॥
श्रीहनुमान्जी विशालकाय होकर सिंहिका के फैले हुए विकराल मुखमें शरीरको संक्षिप्त करके आ गिरे और अपने तीक्ष्ण नखोंसे उसका हृदय विदीर्ण कर दिया, वह मर गयी ।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः ।
गोस्वामीजी ने लिखा---
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा ।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ॥
ताहि मारि मारुतसुत बीरा ।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा ॥
आकाश में विचरण करनेवाले प्राणी प्रसन्न हो गये और उन्होंने कहा - हे वानरेन्द्र ! जिस व्यक्तिमें आपकी तरह धृति, दृष्टि, सूझबूझ वाली बुद्धि और दक्षता ये चार गुण होते हैं वह कभी किसी कार्यमें असफल नहीं होता है।
यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव ।
धृतिर्दृष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति ॥
यह श्लोक जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें सफलताके लिये हमें स्मरण रखना चाहिये । यही श्रीहनुमान्जीकी
समुद्रयात्राकी फलश्रुति भी है ।
जय श्री राम जय हनुमान।

✓मानस चर्चा राम काज किन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम।

✓मानस चर्चा तुलसी के राम

मानस चर्चा तुलसी के राम
"एक राम दशरथ का बेटा। एक राम घट-घट में लेटा ।। एक राम का सकल पसारा।एक राम है सबसे न्यारा।"
यहां 'राम जी के चार स्वरूप दर्शाये गये हैं- पहला दशरथ नंदन दूसरा अन्तर्यामी, तीसरा सोपाधिक ईश्वर और चौथा अखिल ब्रहमाण्ड निकाया" । श्री राम के जीवन चरित्र का  आँखो देखा हाल प्रामणिकता से महर्षि वाल्मीकि ने आदिकाव्य रामायण में किया है।गोस्वामी तुलसीदासजी ने लोकमंगल आराध्य सियाराम के चरित्र को 'रामचरित मानस में लिखा है जो लोक मंगल आराधना एवं सनातन मूल्य का लोकप्रिय सद्ग्रन्थ है। जहां  राम निराकार और साकार दोनों हैं-
राम ब्रम्ह परमारथ रूपा।अबिगत अलख अनादि अनूपा।।
इसका समर्थन वेदों के शिरोभाग उपनिषद् ने भी  किया है
राम रूपं परं ब्रम्ह राम एव परं तपः । राम एव परं तत्वं श्री रामो ब्रम्ह तारकम् ।।
राम तुरीय ब्रह्म सीता मूल प्रकृति- भरत,लक्ष्मण, शत्रुघ्न, प्राज्ञ एवं तेजस् है अक्षर ब्रह्म है और तत्वमसि महाकाव्य है- 'र' का अर्थ तत्व परमात्मा है। 'म' का अर्थ त्वम् (जीवात्मा) है और 'आ' की मात्रा (1) असि' का पर्याय है।
लोकनायक गोस्वामी जी श्री राम की उपासना विधि के
माध्यम से अपने हृदय के उद्गार रूपी धन को खोलकर
सबके सामने रख देते है-
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहिं प्रिय जिमि दाम । तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहिराम ।। " 
अर्थात् जैसे कामी को नारी प्रिय होती है, वैसे ही
रघुनाथ मुझे प्रिय है। मेरी रघुनाथ की प्रीति कभी कम न हो, कामी की तो स्त्री कुरूप होते ही प्रीति क्षीण हो जाती है, पर मेरी निरन्तर बनी रहे ।
लोभी की आसक्ति धन पर होती है, रूप पर नहीं
नोट (रूपया) चाहे जैसी सूरत की हो उनकी गणना में ही
लोभी रस लेता रहता है, उसी तरह मेरी रसना 'राम नाम' का जप द्विगुणित करती रहे। उपमा लोभी से देकर राम नाम प्रीतिकर कितना है, यह जानने समझने की कला है। इस दोहे में निरन्तर राम के प्रिय लगने की दृढ़ता व आह्वान है। 'राम नाम की महिमा एवं मूल्य का वर्णन करने में गोस्वामी जी ने बहुत ही बढ़ियाँ दोहा रचा है-
"राम नाम मनिदीप धरू जींह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजियार ।। "
अर्थात् शरीर हमार घर है, जिस घर के भीतर सदा
अन्धकार रहता है, जहाँ सूर्य का प्रकाश न हो, वहाँ उल्लू
चमगादड़ और मच्छर का बसेरा हो जाता है ।
यानी राम नाम मणि रूपी दीप को जीभ और ओठ-अधर
पर बराबर स्मरण करना चाहिये, इससे मनुष्य का पतन नहीं हो सकता। इसके विपरीत जहाँ भगवान का प्रकाश नहीं होगा वहाँ अज्ञान रूपी उल्लू, मलरूपी चमगादड़ और विक्षेप रूपी मच्छर निवास करेंगे, परन्तु प्रकाश पड़ते ही वह सब भाग जाते हैं, और भाव विकार से अन्तःकरण एवं मन निर्मल हो जाता है। बाहर का जगत रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण से निर्मित है, जो सभी मनुष्यों के दुःख का कारण है। भीतर राम नाम का प्रकाश होने से इन तीनों वृत्तियों से स्वतः मुक्ति मिल जाती है। इससे तुलसीदास ने सभी को सिद्ध कर दिया, कि भीतर एवं बाहर की पवित्रता और शक्ति के लिये भगवत् प्रकाश ही परम आवश्यक है, और मूल्य का जीवन में उतरना ही भक्ति का सोपान है।
प्रकाश के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्पष्ट मत है कि 'राम नाममणि' के समान ऐसा प्रकाश है,
जिसमें दीया, बाती, तेल किसी साधन की आवश्यकता नहीं है,यह सब आप के शरीर स्वभाव सेवा में घटित होने लगता है।यह प्रकाश हर पल, हर स्थान पर निरन्तर प्रज्ज्वलित रहता है। यह सबल मंत्र है, दीखने में छोटा पर बड़ा काम करताहै, इससे भीतर बाहर दोनों जगह आनन्द की प्राप्ति शाश्वत होगी।
भक्त कवि तुलसीदास रामोपासना का रहस्य दोहावली में इस प्रकार करते हैं-
हियै निर्गुन नथनन्हि सगुन रसना नाम सुनाम।।
गोस्वामी जी की आराधना लोकमंगल कारी है. उन्होंने चित्रकूट में राम लक्ष्मण सहित साकार रूप का दर्शन
किया, और उनके निर्गुण ब्रह्म स्वरूप को अपने हृदय में धारण किया। नित्य प्रति श्री गंगा जी में खड़े होकर राम परिवार' का दर्शन एवं सुख लाभ राम-नाम जपते थे, इसके पीछे स्वभाव एवं कर्म की भी स्थापना है।
साधक को सावधानी का मंत्र जीवन मूल्य की सुरक्षा
एवं व्यवहार में ही प्रकट होता है। हृदय में निर्गुण परमात्मा
का बोध एवं सगुण साक्षर रूप के दर्शन से अपने नेत्र, कान,नाक तथा समस्त इन्द्रियों को राम नाम के समर्पण समर्थनएवं जप साधना में लगा लें। इससे अपने स्थूल सूक्ष्म एवंकारण शरीर को कृत कृत्य करके अक्षुण्ण परमानंद की प्राप्ति की जा सकती है, यही उपासना का परम सुगम, सहज कल्याण कारी मार्ग है।
छोटी-छोटी छेपक कथा भी हमारा मार्ग दर्शन करने में
सहयोगी है।
 एक राम भक्त अपनी धर्म-पत्नी को ब्याह कर अपने घर
ले जा रहा था, रास्ते में चार चोर-ठग-लंपट मिल गये चोरों ने कहा-जहाँ आप जा रहें है वही हम सभी जा रहे है साथ-साथ चले तो ठीक रहेगा, क्योंकि भयानक जंगल से हम सभी को गुजरना है। पति ने कहा- भाई! हमें आप पर भरोसा और विश्वास नहीं हो रहा है हम सभी अपरिचित है। इस पर चोरों ने कहा- "हम राम की शपथ लेते है हम
आप से धोखा एवं विश्वास घात नहीं करेंगे, हमारे और आपके बीच में राम है। राम भक्त सदैव राम पर आश्वस्त - विश्वस्त रहता है सो आगे जंगल में कुछ दूर जाने के बाद ठगों ने ठगी कर राम भक्त को एक वृक्ष से बांधकर मार दिया एवं उसकी पत्नी को जबरन खींच कर साथ ले जा रहे थे, पत्नी चलते-चलते बार-बार पीछे मुड़कर देख रही थी, ठग बोले-"तुम्हारे पति को हमने तुम्हारे सामने मारा, अब तुम पीछे बार-बार क्या देख रही हो? पत्नी बोली- मैं पति को नहीं देख रही हूँ, मैं तो उस बीच वाले को देख रही हूँ, कि वह जमानत देने वाला कहाँ रह गया? बस विश्वास पूर्वक यह बोलना ही था, कि तुरन्त घोड़े पर सवार श्री राम और लक्ष्मण वहाँ प्रकट हो गये- चारो ठगो को मार डाला और उस स्त्री के सुहाग राम भक्त को पुनः जीवित कर दिया।"
यह है अखण्ड भक्ति का आग्रह, जहाँ असंभव भी
संभव हो जाता है। अनगिनत घटनायें इस घट में सच्चरित
होती है, किन्तु भगवान् का भरोसा और विश्वास महान् कवि तुलसी दास एवं भक्तों जैसा होना चाहिये। रामचरित मानस असाधारण लोक कल्याण कारक सद्ग्रन्थ है उसकी हर चौपाई,दोहा जीवन का मर्म खोलता है। मर्म की पहचान कराता है। इसकी सार्थकता सिद्ध होती है-
"एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास ।
एक राम घनस्याम हित् चातक तुलसी दास।।"
ये है तुलसी के राम जय श्री राम जय हनुमान।।

शनिवार, 25 मई 2024

।।सत्संग की महिमा ।।

।।सत्संग की महिमा ।।
ब्रह्मऋषि बाल्मिकी, देवर्षिनारद और महर्षि अगस्त्य की कथा सुनते है
मानस चर्चा  में ---
सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधुसमाज प्रयाग ॥ 
१ -जो लोग या भक्त जन  साधुसमाज प्रयाग के  माहात्म्य को आनन्दपूर्वक सुनकरसमझते हैं और प्रसन्न मनसे अत्यन्त अनुरागसे इसमें स्नान करते हैं, वे जीते जी इसी शरीरमें चारों फल प्राप्त कर लेते हैं॥
'सुनि समुझहिँ ' को हम मानस में ही समझते हैं देखें---'कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥और भी स्पष्ट समझ लेते हैं कि काशी और प्रयाग का फल तो  राम नाम अनुराग में ही है जैसा कि --
कासी बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग ।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम नाम अनुराग ॥आज की 
मानस चर्चा सत्संग की महिमा पर है जिसे ब्रह्मऋषि बाल्मिकीजी, देवरिषि नारदजी और महर्षि अगस्त्यजी ने अपने अपने मुख से सुनाई है यहां श्री गणेश करते है कि -
सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधुसमाज प्रयाग ॥ 
नोट - (१) इस दोहे में सन्त समाजप्रयागके स्नानकी तीन सीढ़ियाँ लिखते हैं। 'सुनना' अर्थात् किनारे पहुँचना है, 'समझना 'अर्थात् धारामें प्रवेश करना है और जो समझनेसे आनन्द, अनुराग होता है यही डुबकी या
गोता लगाना है। इस विधानसे सन्त समाजप्रयागके स्नानसे इसी तनमें चारों फल मिलते हैं। 
पुन: (२) श्रवण, मनन और अभ्यास अथवा यों कहें कि दर्शन स्पर्श और स्नान  अर्थात् समागम ये तीन बातें आवश्यक बतायी हैं। जिनके फल बताए गए हैं ---
'मुख दीखत पातक हरै, परसत कर्म बिलाहिं। 
बचन सुनत मन मोहगत पूरुब भाग मिलाहिं ॥' 
'सुनि' से सन्तवचन श्रवण करना, 'समुझहिं' से मनन करना और 'मज्जहिं' से निदिध्यासन नित्य निरन्तर अभ्यास कहा गया। 
(३) 'अछत तनु' कहकर जनाया कि प्रयाग चारों फल शरीर रहते नहीं देता । यथा- 'दर्शनात्स्यर्शनात्स्नानाद्गङ्गायमुनसंगमे । निष्पापो जायते
मर्त्यः सेवनान्मरणादपि ।।लेकिन साधु समाज से
'लहहिँ चारि फल अछत तनु, यहीं सत्य है।
सन्त- समाजरूपी प्रयागके त्रिविधवचन मुदित मनसे जो जन सुनते और समझते हैं, वे ही बड़े अनुरागसे इसमें स्नान करते हैं और शरीरके रहते ही चारों फल प्राप्त करते हैं ॥  यहाँ 'प्रयाग' से त्रिवेणी लक्षित है। हरिहरकथा - त्रिवेणी। इस अर्थके अनुसार सन्त समाजमें
'हरिहरकथा' को सुनकर समझना ही त्रिवेणीका स्नान है। 
श्रवण-मनन करनेसे जो प्रसन्नता होती है वही प्रेमसहित मज्जन है। मज्जन अर्थात् स्नान का फल तो तुरंत मिलना ही मिलना है---
मज्जन फल पेखिय ततकाला। काक होहिँ पिक बकउ मराला ॥ १ ॥
सुनि आचरज करै जनि कोई सतसंगति महिमा नहिँ गोई 
बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥ ३ ॥
-सन्त-समाज रुपी प्रयागमें स्नानका फल तत्काल देख पड़ता है कि कौवे कोकिल और बगुले  हंस हो जाते हैं । यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे। सत्सङ्गतिका प्रभाव छिपा नहीं है।श्रीवाल्मीकिजी श्रीनारदजी और श्रीअगस्त्यजीने अपने-अपने मुखोंसे अपना अपना वृत्तान्त कहा है ॥ ३ ॥
१ 'मज्जन फल पेखिय ततकाला' । (क) 'लहहिं चारि फल अछत तनु' अर्थात् शरीरके रहते जीते-जी चारों फलोंकी प्राप्ति कही। इस कथनसे फलके मिलनेमें कुछ विलम्ब
पाया गया, न जाने कितनी बड़ी आयु हो और उसमें न जाने कब मिले? इस सन्देहके निवारणार्थ
यहाँ 'ततकाला' पद दिया। अर्थात् सत्सङ्गका फल तुरन्त मिलता है। पुनः,  'ततकाला' से यह भी जनाया कि प्रयाग 'तत्काल' फल नहीं देता, मरनेपर ही मोक्ष देता है।  'मज्जन फल पेखिय' और 'काक होहिं पिक बकहु मराला' दोनोंके साथ है। मज्जनका फल तत्काल देख पड़ता है और तत्काल ही काक पिक हो जाते हैं, बगुला हंस हो जाता है। यहाँ'अन्योक्ति अलङ्कार' है। काक पिक के द्वारा दूसरों को कहते हैं, अर्थात् दुष्ट शिष्ट हो जाता है तथा कटुभाषी मिष्टभाषी हो जाता है।'काक होहिं पिक बकउ मराला' । (क) काक और बक कुत्सित पक्षी हैं। यथा-'जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल।'  
'तेहि कारन आवत हिय हारे। 
कामी काक बलाक बिचारे।।'पिक और हंस उत्तम पक्षी हैं। काक चाण्डाल, हिंसक, कठोर बोलनेवाला, मलिनभक्षी, छली और शङ्कित-हृदय होता है। काकसे काकसमान कुजाति, हिंसक, मलिनभक्षी, कटुकठोरवादी, छली, अविश्वासी इत्यादि मनुष्य अभिप्रेत हैं। यथा- 'काक समान पाकरिषु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती।।' 'होहि
निरामिष कबहुँ कि कागा।' 'सत्य वचन विश्वास न करही। बायस इव सबहीं ते डरही।'मूढ़ मंदमति कारन कागा' 
काकके विपरीत कोकिल सुन्दर रसालादिको खानेवाली,
मङ्गल ,शुभ जाति और मधुरभाषी इत्यादि होती है। काक पिक हो जाता है अर्थात् काकसमान जोहिंसक, कटुवादी, कुजाति, छली, मलिन इत्यादि दुर्गुणोंसे युक्त हैं वे पिकसमान सुजाति, उत्तम वस्तुओं ,भगवत् प्रसाद आदि का सेवन करनेवाले, स्वच्छ शुद्ध हृदयवाले, विश्वासी एवं गुरु, सन्त और भगवान् तथा उनके वाक्योंपर विश्वास करनेवाले 'मधुरभाषी ,भगवत्-कीर्तन, श्रीरामनामयशके गान करनेवाले एवं मिष्ट प्रिय और सत्य बोलनेवाले हो जाते हैं। इसी तरह बगुला हिंसक, विषयी, दम्भी ,जलाशयोंके तटपर आँख मूँदा हुआ-सा बैठा देख पड़ता है, पर मछलीके आते ही तुरन्त उसको हड़प कर जाता है जबकि हंस परमविवेकी होता है। वह सार दूधको ग्रहण कर लेता है और असार जलको अलग करके छोड़ देता है।  'बकउ मराला होहिं' अर्थात् जो दम्भी, कपटी और विषयी हैं, वे कपट, दम्भ आदि छोड़कर हंससमान विवेकी और सुहृद् हो जाते हैं। यथा- 'संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।' (ख) यहां  बाह्य और अंतरशुद्धि दिखानेके लिये काक और बक दो दृष्टान्त दिये गए हैं।
बाहरकी शुद्धि दिखानेके लिये काक-पिककी उपमा दी और अन्तरशुद्धिके लिये बक- हंसकी। 'काक होहिं
पिक' अर्थात् सन्तोंका जैसा ऊपरका व्यवहार देखनेमें आता है, वैसा वे भी बरतने लगते हैं। मधुरभाषी
हो जाते हैं। प्रथम मिष्ट वाक्य बोलने लगते हैं यह सन्तोंके बाह्यव्यवहारका ग्रहण दिखाया। फिर अन्तरसे
भी निर्मल हो जाते हैं, यह 'बकउ मराला' कहकर बताया 'बकउ मराला' अर्थात् विवेकी हो जाते हैं ।सत्सङ्गसे प्रथम तो सन्तोंका-सा बाह्यव्यवहार होने लगता है, फिर अन्तःकरण भी शुद्ध हो जाता है। भाव यह है कि सन्त समाजप्रयागमें स्नान करनेसे केवल चारों फलों धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष की ही प्राप्ति नहीं होती, किन्तु साथ-ही-साथ स्नान करनेवालोंके हृदयोंमें अनेक
सद्गुण भी प्राप्त हो जाते हैं, रूप वही बना रहता है। 
(ग) विषयी, कामी ही बक, काक हैं।
यथा- 'अति खल जे बिषई बक कागा।'  अतः कौवा और बगुला की उपमा देकर अत्यन्त विषयी दुष्टोंका भी सुधरना कहा गया है।
यहां १ 'बकउ मराला' में 'बकमें लगे उकारसे ---
अद्भुतरस प्रगट हो रहा । दंभी, हिंसक और कुटिल ज्ञानी हंस बन जाते हैं ॥' काक-पिकका सम्बन्ध भी है अद्भुत है क्योंकि काक ही कोयलको पोसता-पालता है। कोयल अपना अण्डा कौवेके घोंसलेमें रख देती है, कौवा उसे अपना जानकर सेता है, वहीं उसमें से बच्चा निकलता है। यहाँ काकमें केवल क्रूरभाषिताका दूषण दिखाकर पिककी मधुरभाषितामें सम्बन्ध मिलाया है। बक और हंसमें बड़ा अन्तर है। दोनोंकी बोलचाल, चरण- चोंचका
रंग और निवास तथा भोजन एक-दूसरेसे भिन्न हैं। यहां केवल अन्तरङ्गभावका मिलान किया गया है, बाहरी आकृति आदिका नहीं। बकमें अन्तरङ्ग मलिनता आदि अनेक दोष देख 'बक' शब्दमें 'उ'लगाकर उसके दोषोंको सूचित कर हंसके सद्गुणोंमें सम्बन्धित किया है। यहाँ उकार आश्चर्यका द्योतक है कि न होनेयोग्य बात हो गयी।'
नोट- २ सन्त समाजमें आनेपर भी जब वही पूर्व शरीर बना रहता है तब कौवेसे कोयल होना कैसे माना जाय? उत्तर यह है कि कौवा और कोकिलकी आकृति एक सी होती है। कौवेमें कोयलकी वाणी आ जाय तो वह कोयल कहा जाता है। अतः शरीर दूसरा होनेका कोई काम नहीं। इसी तरह जब बगुलेमें हंसका गुण आ जाता है तब वह हंस कहा जाता है; दोनोंकी शक्ल भी एक-सी होती
है। वैसे ही मनुष्य जब मायाबद्ध रहता है तब कौवेके समान कठोर वाणी बोलता है, सन्त-समाजमें
आनेपर वही कोकिलकी बोली बोलने लगता है, उसमें दया-गुण आ जाता है और हिंसक - अवगुण चला
जाता है। वह काकसे पिक और बकसे हंस हो जाता है। 
३ 'सुनि आचरज करै जनि कोई' (क) कौवे कोयल हो जाते हैं और बगुले हंस ।यह सुनकर आश्चर्य होना ही है। क्योंकि स्वभाव अमिट है यथा- 'मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ।' 'सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । अर्थात् सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं, अपने स्वभावसे परवश हुए कर्म करते हैं; ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। नीतिवेत्ताओंने इस बातको तर्क-वितर्क करके खूब दृढ़ किया है। यथा, 'काकः
पद्मवने रतिं न कुरुते हंसो न कूपोदके। मूर्खः पण्डितसङ्गमे न रमते दासो न सिंहासने । कुस्त्री सज्जनसङ्गमे
न रमते नीचं जनं सेवते । या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ।।'अर्थात् कौवा कमलवनमें नहीं रमता, हंस कूपोदकमें नहीं रमते मूर्ख पण्डितोंके संग नहीं
रमते और न दास सिंहासनपर, कुत्सित स्त्रियाँ सज्जनसङ्गमें न रमणकर नीच पुरुषोंका ही सेवन करती
हैं। क्योंकि जिसकी जो प्रकृति होती है वह उसे कदापि नहीं छोड़ता । अतः सन्देह हुआ कि जब स्वभाव
अमिट है तो कविने बहुत बढ़ाकर कहा होगा, वस्तुतः ऐसा है नहीं। इस सन्देह और आश्चर्यके निवारणार्थ
कहते हैं कि 'सुनि आचरज करै जनि कोई।' 'प्राप्तौ सत्यां निषेधः ।' जब किसी प्रसङ्गकी प्राप्ति होती
है तभी उसका निषेध किया जाता है। यहाँ कोई आश्चर्य कर सकते हैं, इसीसे उसका निषेध किया गया
है। (ख) 'सतसंगति महिमा नहिं गोई'  । यह सत्सङ्गकी महिमा है भाव यह है कि जो बात अनहोनी है ,जैसे काकका पिक, बकका हंस सा स्वभावका बदल जाना।वह सत्सङ्गतिसे हो ही जाती है। इसीको दृढ़ करनेके लिये 'महिमा नहिं गोई, महिमा छिपी नहीं है, महिमा प्रसिद्ध है। महिमा प्रसिद्ध है; इसीसे जो महात्मा जगत्प्रसिद्ध हैं, उन्हीं के बारे में क्रमसे उदाहरण हैं। वाल्मीकिजीको प्रथम कहा; क्योंकि 'काक होहिं पिक' और 'बकउ मराला' को क्रमसे घटाते हैं। वाल्मीकिजी काकसे पिक हुए ।
यथा- 'कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्। आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥'कठोरभाषी व्याध दुर्गुणयुक्त थे, सो मधुरभाषी, ब्रह्माके पुत्र और ब्रह्मर्षि हो गये। नारदजी और अगस्त्यजी बकसे मराल हो गये। (ग) इनको महात्मा होनेका उदाहरण देकर
आगे उनको पदार्थकी प्राप्ति होनेका उदाहरण देते हैं।
नोट- ४ 'बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी।। (क) यहाँ तीन दिव्य दृष्टान्त और वह
भी बड़े-बड़े महात्माओंके दिये गये- क्योंकि ये तीनों महात्मा प्रामाणिक हैं। सारा जगत् इनको जानता और इनके वाक्यको प्रमाण मानता है, इससे ये प्रमाण पुष्ट हुए। (ख) 'निज निज मुखनि ।' से सूचित किया कि दूसरा कहता तो चाहे कोई सन्देह भी करता परन्तु खुद के मुखसे कहा हुआ अवश्य प्रमाण माना जायगा। (ग) कब, किससे और कहाँ इन महात्माओंने अपने-अपने जीवन-
वृत्तान्त कहे ? महर्षि वाल्मीकिजीने श्रीरामचन्द्रजीसे जो अपना वृत्तान्त कहा था वह उन्हीं  के शब्दों में सुनते है-- हे रघुनन्दन ! केवल जन्ममात्रसे तो मैं विप्रपुत्र हूँ; मैं पूर्वकालमें किरातोंमें बालपनेसे शूद्रोंके आचारमें सदा रत रहा। शूद्रास्त्रीसे मेरे बहुत-से पुत्र हुए। तदनन्तर चोरोंका संग होनेसे मैं भी चोर हुआ। नित्य ही धनुष-बाण लिये जीवोंका घात करता था ।एक समय एक भारी वनमें मैंने सात तेजस्वी मुनियोंको आते देखा तो उनके पीछे 'खड़े रहो, खड़े रहो' कहता हुआ दौड़ा। मुनियोंने मुझे देखकर पूछा कि 'हे द्विजाधम ! तू क्यों दौड़ा आता है ?' मैंने कहा कि मेरे पुत्र, स्त्री आदि बहुत हैं, वे भूखे हैं। इसलिये आपके वस्त्रादिक लेने आ रहा हूँ। वे बिकल न हुए किन्तु प्रसन्न मनसे बोले कि तू घर जाकर सबसे एक-एक करके पूछ कि जो पाप तूने बटोरा है इसको वे भी बटावेंगे कि नहीं? मैंने ऐसा ही किया; हर एकने यही उत्तर दिया कि हम तुम्हारे पापके भागी नहीं, वह पाप तो सब तुझको ही लगेगा।  - ' पापं तवैव तत्सर्वं वयं तु फलभागिनः ।।' ऐसे वचन सुनमेरे मनमें निर्वेद उपजा, अर्थात् खेद और ग्लानि हुई । उससे लोकसे वैराग्य हुआ और मैं फिर मुनियोंके पासगया। उनके दर्शनसे निश्चय करके मेरा अन्तःकरण शुद्ध हुआ । मैं दण्डाकार उनके पैरोंपर गिर पड़ा और दीन वचन बोला कि 'हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं नरकरूप समुद्रमें आ पड़ा हूँ, मेरी रक्षा कीजिये।' मुनि बोले 'उठ, उठ, तेरा
कल्याण हो । सज्जनोंका मिलना तुझको सफल हुआ। हम तुझे उपदेश देंगे जिससे तू मोक्ष पावेगा'। मुनि परस्पर विचार करने लगे कि यह अधर्मी है तो क्या, अब शरणमें आया है, रक्षा करनी उचित है। और फिर मुझे 'मरा' 'मरा' जपनेका उपदेश दिया और कहा कि एकाग्र मनसे इसी ठौर स्थित रहकर जपो, जबतक फिर हम लौट न आवें। यथा—'इत्युक्त्वा राम ते नाम व्यत्यस्ताक्षरपूर्वकम् । एकाग्रमनसात्रैव मरेति जप सर्वदा।।' अर्थात् हे राम ! ऐसा विचारकर उन्होंने आपके नामाक्षरोंको उलटा करके मुझसे कहा कि तू इसी स्थानपर रहकरएकाग्रचित्तसे सदा, 'मरा, मरा' जपा कर) मैंने वैसा ही किया, नाममें तदाकार हो गया, देहसुध भूल गयी, दीमकने मिट्टीका ढेर देहपर लगा दिया, जिससे वह बाँबी हो गयी । वर्षों बीतनेपर वे ऋषि फिर आये औरकहा कि बाँबीसे निकल। मैं वचन सुनते ही निकल आया। उस समय मुनि बोले कि तू 'वाल्मीकि' नामक
मुनीश्वर है, क्योंकि तेरा यह जन्म बल्मीकसे हुआ है। रघुनन्दन ! उसीके प्रभावसे मैं ऐसा हुआ कि श्रीसीता-
अनज- सहित साक्षात घर बैठे आपके दर्शन हए। व
उलटा नाम जपत जग जाना।
बाल्मिक भए ब्रह्म समाना।।
देवर्षि श्रीनारदजी - इन्होंने अपनी कथा व्यासजीसे इस प्रकार कही है कि 'मैं पूर्वजन्ममें वेदवादी ब्राह्मणोंकी एक दासीका पुत्र था। चातुर्मास्यमें एक जगह रहनेवाले कुछ योगी वहाँ आकर ठहरे। मैं बाल्यावस्थाहीमें उनकी सेवामें लगा दिया गया। बालपनेसे ही मैं चञ्चलतासे रहित, जितेन्द्रिय, खेल-कूदसे दूर रहनेवाला, आज्ञाकारी, मितभाषी और सेवापरायण था। उन ब्रह्मर्षियोंने मुझपर कृपा करके एक बार अपना उच्छिष्ट सीथ प्रसादी खानेको दिया- 'उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः सकृत्स्म भुञ्जे
तदपास्तकिल्विषः ।' जिसके पानेसे मेरा सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गया और चित्त शुद्ध हो गया तथा भगवद्धर्ममें रुचि उत्पन्न हो गयी। मैं नित्यप्रति भगवत्कथा सुनने लगा जिससे मनोहरकीर्त्तिवाले भगवान् में मेरी रुचि और बुद्धि निश्चल हो गयी तथा रजोगुण और तमोगुणको नष्ट करनेवाली भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ।जब वे मुनीश्वर वहाँसे जाने लगे तब उन्होंने मुझे अनुरागी, विनीत, निष्पाप, श्रद्धालु, जितेन्द्रिय और अनुयायी जानकर उस गुह्यतम ज्ञानका उपदेश किया जो साक्षात् भगवान्‌का ही कहा हुआ है। 'ज्ञानं गुह्यतमं यत्तत्साक्षाद्भगवतोदितम्।' जिससे मैंने भगवान्‌की मायाका प्रभाव समझा और जिस ज्ञानके
प्राप्त होनेपर मनुष्य भगवान् के धामको प्राप्त होता है ।
ज्ञानोपदेश करनेवाले भिक्षुओंके चले जानेपर मैं माताके स्नेहबन्धनके निवृत्त होनेकी प्रतीक्षा करता हुआ ब्राह्मणपरिवारमें ही रहा, क्योंकि मेरी अवस्था केवल पाँच वर्षकी थी। एक दिन माताको सर्पने डँस लिया और वह मर गयी। इसे भगवान्‌का अनुग्रह समझकर मैं उत्तर दिशाकी ओर चल दिया। अन्तमें एक बड़े घोर भयंकर वनमें पहुँचकर नदीके कुण्डमें स्नान-पानकर थकावट मिटायी। फिर एक पीपलके तले बैठकर जैसा सुना था उसी प्रकार परमात्माका ध्यान मन-ही-मन करने लगा। जब अत्यन्त उत्कण्ठावश मेरे नेत्रोंसे आँसू बहने लगे तब हृदयमें श्रीहरिका प्रादुर्भाव हुआ-औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ।। थोड़ी ही देरमें वह स्वरूप अदृश्य हो गया। बहुत प्रयत्न करनेपर भी जब वहदर्शन फिर न हुआ तब मुझे व्याकुल देख आकाशवाणी हुई कि 'तुम्हारा अनुराग बढ़ानेके लिये तुमकोएक बार यह रूप दिखला दिया गया। इस जन्ममें अब तुम मुझे नहीं देख सकते। इस शरीरको छोड़कर तुम मेरे निज जन होगे, तुम्हारी बुद्धि कभी नष्ट न होगी। तत्पश्चात् मैं भगवान्‌के नाम, लीला
आदिका कीर्तन - स्मरण करता कालकी प्रतीक्षा करता हुआ पृथिवीतलपर विचरने लगा। काल पाकर शरीर
छूट गया। कल्पान्त होनेपर ब्रह्माजीके श्वासद्वारा मैं उनके हृदयमें प्रविष्ट हुआ। फिर सृष्टि होनेपर मरीचि
आदिके साथ मैं भी ब्रह्माजीका मानस पुत्र हुआ। भगवान्‌की कृपासे मेरी अव्याहत गति है। भगवान्‌की
दी हुई वीणाको बजाकर हरिगुण गाता हुआ सम्पूर्ण लोकोंमें विचरता हूँ। चरित गाते समय भगवान्‌का
बराबर दर्शन होता है। यह मेरे जन्म-कर्म आदिका रहस्य है। महर्षि श्रीअगस्त्यजी ने अपनी कथा भगवान शिव को सुनाया - प्राचीन कालमें किसी समय इन्द्रने वायु और अग्निदेवको दैत्योंका नाश करनेकीआज्ञा दी। आज्ञानुसार इन्होंने बहुत से दैत्योंको भस्म कर डाला, कुछ जाकर समुद्रमें छिप रहे । तब इन्होंनेउनको अशक्त समझकर उन दैत्योंकी उपेक्षा की। वे दैत्य दिनमें समुद्रमें छिपे रहते और रात्रिमें निकलकर देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्यादिका नाश किया करते थे। तब इन्द्रने फिर अग्रि और वायुको आज्ञा दी कि समुद्रका शोषण कर लो। ऐसा करनेमें करोड़ों जीवोंका नाश देख इस आज्ञाको अनुचित जानकर उन्होंने
समुद्रका शोषण करना स्वीकार न किया । इन्द्रने कहा कि देवता धर्म-अधर्मके भागी नहीं होते, वे वही करते हैं जिससे जीवोंका कल्याण हो, तुम् दोनों ज्ञान छाँटते हो, अतः तुम दोनों एक मनुष्यका रूप धारणकर पृथ्वीपर धर्मार्थशास्त्ररहित योनिसे जन्म लेकर मुनियोंकी वृत्ति धारण करते हुए जाकर रहो औरजबतक तुम वहाँ चुल्लूसे समुद्रको न पीकर सुखा लोगे तबतक तुम्हें मर्त्यलोकमें ही रहना पड़ेगा। इन्द्रका शाप होते ही उनका पतन हुआ और उन्होंने मर्त्यलोकमें आकर जन्म लिया ।उन्हीं दिनोंकी बात है कि उर्वशी मित्रके यहाँ जा रही थी, वे उसको उस दिनके लिये वरण कर चुके थे, रास्तेमें उसे जाते हुए देख उसके रूपपर आसक्त हो वरुणने उसको अपने यहाँ बुलाया तब
उसने कहा कि मैं मित्रको वचन दे चुकी हूँ। वरुणने कहा कि वरण शरीरका हुआ है तुम मन मेरेमें लगा दो और शरीरसे वहाँ जाना। उसने वैसा ही किया। मित्रको यह पता लगनेपर उन्होंने उर्वशीको शाप दिया कि तुम आज ही मर्त्यलोकमें जाकर पुरुरवाकी स्त्री हो जाओ। मित्रने अपना तेज एक घटमें रख दिया और वरुणने भी उसी घटमें अपना तेज रखा। एक समय निमिराजा जब स्त्रियोंके साथ जूआ खेल रहे थे श्रीवसिष्ठजी उनके यहाँ गये। जूएमें आसक्त राजाने गुरुका आदर सत्कार नहीं किया। इससे
श्रीवसिष्ठजीने उनको देहरहित होनेका शाप दिया। पता लगनेपर राजाने उनको भी वैसा ही शाप दिया।
दोनों शरीररहित होकर ब्रह्माजीके पास गये। उनके आज्ञानुसार राजा निमिको लोगोंकी पलकोंपर निवास
मिला और वसिष्ठजीने उपर्युक्त मित्रावरुणके तेजवाले घटसे आकर जन्म लिया। इधर वायुसहित अग्निदेव
भी उसी घटसे वसिष्ठजीके पश्चात्, चतुर्बाहु, अक्षमाला कमण्डलधारी अगस्त्यरूपसे उत्पन्न हुए। इसके पश्चात्
उन्होंने स्त्रीसहित वानप्रस्थविधानसे मलयपर्वतपर जाकर बड़ी दुष्कर तपस्या की। इस दुष्कर तपस्याके पश्चात्
उन्होंने समुद्रको पान कर लिया, तब ब्रह्मादिने आकर इनको वरदान दिया।इस कथासे ये बातें ध्वनित होती हैं कि  धर्मार्थशास्त्ररहित योनिसे जिनकी उत्पत्ति हुई, शापद्वारा जो मर्त्यलोकमें उत्पन्न हुए वे ही कैसे परम तेजस्वी और देवताओं तथा ऋषियोंसे पूज्य हुए? यह सत्सङ्गका प्रभाव है।इस प्रकार प्रयागराज  है हमारा साधु समाज और जिनकी महिमा के बारे में यह सत्य ही है कि 
सुनि समुझहिँ जन मुदित मन, मज्जहिँ अति अनुराग ।
लहहिँ चारि फल अछत तनु, साधुसमाज प्रयाग ॥ 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।


गुरुवार, 23 मई 2024

✓।।सन्त-समाज प्रयागराज है।।

।।सन्त-समाज प्रयागराज है।।
मानस चर्चा  --
संत समाज जंगम अर्थात्  चलता फिरता प्रयागराज है जिनकी सेवा के प्रभाव बारे में मानस में  गोस्वामी तुलासुदासजी ने घोषणा किया है
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा ।। 
अकथ अलौकिक तीरथराऊ ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।।
संत समाज हर किसी को हर दिन हर स्थान पर सुलभ है,और संत समाज को सेवत सादर अर्थात्  आदर पूर्वक सेवन करते ही समन कलेसा अर्थात् सभी क्लेश-दुःख, सङ्कट नष्ट हो जाते हैं। सभी क्लेश कौन से है उन्हें पातञ्जल-योगसूत्रमें बताया  गया है कि क्लेश पाँच प्रकारके कहे गये हैं यथा 'अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: पञ्चक्लेशाः' अर्थात् अविद्या अर्थात् (मोह और अज्ञान) अस्मिता अर्थात् (मैं हूँ, ऐसा अहङ्कार), राग, द्वेष और अभिनिवेश  अर्थात् (मृत्युका भय) । ये सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं। सीधी सी बात है कि (सन्त-समाज  रूपी प्रयाग) सभीको, सब दिन और सभी ठौर प्राप्त होता है। आदरपूर्वक सेवन
करनेसे सभी क्लेशोंको दूर करनेवाला है। (यह) तीर्थराज प्रयाग अलौकिक है। (इसकी महिमा) अकथनीय
है। इसका प्रभाव प्रसिद्ध है कि यह तुरत फल देता है ॥ 
यहां  सन्त समाजमें प्रयागसे अधिक गुण दिखते हैं। यहाँ 'अधिक अभेद रूपक' है;क्योंकि उपमानसे उपमेयमें कुछ अधिक गुण दिखलाकर एकरूपता स्थापित की गयी है।
सन्त समाज
१. जङ्गम है। अर्थात् ये सब देशोंमें सदा विचरते
रहते हैं।
२. 'सबहि सुलभ सब दिन सब देसा' अर्थात् (१)
ऊँच-नीच, धनी निर्धन इत्यादि कोई भी क्यों न हो,
सबको सुलभहै। पुन:, (२) इसका माहात्म्य सब दिन
एक-सा रहता है। पुनः, (३) सत्सङ्ग हर जगह प्राप्त
हो जाता है। यथा- 'भरत दरस देखत खुलेउ मग लोगन्ह
कर भाग । जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधिबस सुलभ
प्रयाग ।। '
 ३. इसकी महिमा और गुण अकथनीय हैं। यथा-बिधि हरिहर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा
सकुचानी ॥'  'सुनु मुनि साधुनके गुन जेते ।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ।।' 
४. जैसा इनका कथन है, भाव है, कर्म, निष्ठा,विश्वास इत्यादि हैं, वैसा कोई कहकर बता नहीं सकता
और न आँखसे देखा जा सकता।
५. इसकी समताका कोई तीर्थ, देवता आदि लोकमें
नहीं है। सन्त समाजके सेवन करनेवाले सन्तस्वरूप हो
जाते हैं। यह फल सबपर प्रकट है। वाल्मीकिजी
प्रह्लादजी, अजामिल इत्यादि उदाहरण हैं।
६. सन्त समाजके सादर सेवनसे चारों फल इसी
तनमें शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं और जीते-जी मोक्ष
मिलता है। अतः इसका प्रभाव प्रकट है। सत्सङ्गसे
जीवन्मुक्त हो जाते हैं, यही 'अछत तन' मोक्ष मिलना
है। तुरत फल इस प्रकार कि सत्सङ्गमें महात्माओंका
उपदेश सुनते ही मोह, अज्ञान मिट जाता है। जबकि
प्रयाग स्थावर है। अर्थात् एक ही जगह स्थित है.(१) सबको सुलभ नहीं, जिसका शरीर नीरोग हो, रुपया पास हो, जिससे वहाँ पहुँच सके इत्यादि ही लोगोंको सुलभ है। (२) इसका विशेष माहात्म्य केवल माघमें है जब मकर
राशिपर सूर्य होते हैं।माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ (३) स्थानविशेषमें है ।
इसका माहात्म्य वेदपुराणोंमें कहा गया है।सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम। बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥अर्थात् महिमा कथ्य है।इसके सब अङ्ग देख पड़ते हैं।लोकमें इसके समान ही नहीं, किन्तु इससे
बढ़कर पञ्चप्रयाग हैं। अर्थात् देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग,
नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग और विष्णुप्रयाग। हृषीकेशमें
भी त्रिवेणी हैं, गालव मुनिको सूर्यभगवान् के वरदानसे यहीं त्रिवेणीस्नान हो गया था, उसकामाहात्म्य विशेष है।
इससे भी चारों फल प्राप्त होते हैं। यथा-चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू।। पर कालान्तरमें अर्थात् मरनेपर ही मोक्ष मिलता है; इसीसे इसका प्रभाव प्रकट नहीं है।
' देइ सद्य फल'से यह भी जाना जाता है कि और सब तीर्थ तो विधिपूर्वक सेवनसे कामिक अर्थात् इच्छित फल देते हैं पर सन्त समाजका यह प्रभाव प्रकट है कि चाहे कामिक हो या न हो पर यही फल देता है जिससे लोक-परलोक दोनों बनें। 
'सेवत सादर समन कलेसा'  । (क) अविद्या आदि पञ्चक्लेशोंको दूर करनेके लिये योगशास्त्रका आरम्भ है। परन्तु यह सब क्लेश अनायास ही दूर हो जाते हैं, यदि सन्त समाजका सादर सेवन किया जाय। (ख) 'सादर' से श्रद्धापूर्वक स्नान करना कहा। यथा- 'अश्रद्दधानः पुरुषः पापोपहत-चेतनः । न प्राप्नोति परं स्थानं प्रयागं देवरक्षितम् ॥' (मत्स्यपुराण) अर्थात् जिनकी बुद्धि पापोंसे मलिन हो
गयी है, ऐसे श्रद्धाहीन पुरुष देवोंद्वारा रक्षित परम श्रेष्ठ स्थान प्रयागकी प्राप्ति नहीं कर सकते। स्कन्दपुराण
ब्राह्मखण्डान्तर्गत ब्रह्मोत्तरखण्ड अ० १७ में श्रद्धाके सम्बन्धमें कहा है कि 'श्रद्धा तु सर्वधर्मस्य चातीव
हितकारिणी । श्रद्धयैव नृणां सिद्धिर्जायते लोकयोर्द्वयोः ॥' श्रद्धया भजतः पुंसः शिलापि फलदायिनी । मूर्खोऽपि
पूजितो भक्त्या गुरुर्भवति सिद्धिदः ॥' श्रद्धया पठितो मन्त्रस्त्वबद्धोऽफलप्रदः । श्रद्धया पूजितो देवो नीचस्यापि
फलप्रदः ॥' अर्थात् सब धर्मोंके लिये श्रद्धा ही अत्यन्त हितकारक है। श्रद्धाहीसे लोग इहलोक और परलोक प्राप्त करते हैं। श्रद्धासे मनुष्य पत्थरकी भी पूजा करे तो वह भी फलप्रद होता है। मूर्खकी भी यदि कोई श्रद्धासे सेवा करे तो वह भी सिद्धिदायक गुरुतुल्य होते हैं। मन्त्र अर्थरहित भी हो तो भी श्रद्धापूर्वक जपनेसे वह फलप्रद होता है। और नीच भी यदि श्रद्धासे देवताका पूजन करे तो वह
फलदायक होता है। पुनः कहा गया है कि मन्त्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, ओषधिऔर गुरुमें जिसकी जैसी भावना होती है, वैसा उसको फल मिलता है। यथा,(स्कन्दपुराण ब्रह्मोत्तरखण्ड ) में कहा  भी गया है---
'मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यत्र सिद्धिर्भवति तादृशी ॥' 
अतएव तीर्थादिका 'सादर' सेवन करना कहा। 'सादर' में उद्धरणोंका सब आशय जना दिया। अश्रद्धा
वा अनादरपूर्वक सेवनसे फल व्यर्थ हो जाता है, इसीसे गोस्वामीजीने सर्वत्र 'सादर' शब्द ऐसे प्रसङ्गोंमें दिया
है। यथा- 'सादर मज्जन पान किये तें। मिटहिं पाप परिताप हिये तें।।'देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल
त्रिबेनी। ' 'सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥राम कथा सो कहइ निरंतर।''सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ।' इत्यादि आदि प्रसंग हैं ।
पं० रामकुमारजीने  भी कहा है ----
 'यत्र श्रीरामभक्तिर्लसति सुरसरिद्धारती ब्रह्मज्ञानम् ।
 कालिन्दी कर्मगाथा हरिहरचरितं राजतेयत्र वेणी || विश्वासः स्वीयधर्मेऽचल इव सुवटो यत्र शेते मुकुन्दः। सेव्यः सर्वः सदासी सपदि सुफलदः सत्समाजःप्रयागः॥' अर्थात् जहाँ श्रीरामभक्तिरूपी गङ्गा शोभित होती हैं तथा ब्रह्मज्ञानरूपी सरस्वती और कर्म-कथारूपी
यमुना स्थित हैं। जहाँ हरिहरचरितरूपी त्रिवेणी और जिसपर मुकुन्दभगवान् शयन करते हैं, ऐसा स्वधर्म में
विश्वासरूपी सुन्दर वट विराजते हैं, ऐसा तत्काल फलप्रद सत्समाजरूपी प्रयाग सबके लिए सदा ही सेव्य है।
।।जय श्री राम जय  हनुमान।।

बुधवार, 22 मई 2024

✓।। कृतज्ञ के पर्यायवाची।।

।। कृतज्ञ के पर्यायवाची।।
एहसानमंद उपकृत,आभारी थैंकफुल।
शुक्रगुज़ार अनुगृहीत, ऋणी कृतज्ञ ग्रेटफुल।।
Thankful Grateful 

✓।। कुबेर के पर्यायवाची।।

।। कुबेर के पर्यायवाची।।
सात दोहों में अठ्ठावन पर्यायवाची शब्द 
कुबेर के इन पर्यायवाची शब्दों को जानने से पहले हम इनके बारे में कुछ बातों को जान लेते हैं ---
कुबेर  धन के देवता  हैं। इनके बारे में अनेक कथाएं मौजूद हैं। उनमें से कुछ प्रसिद्ध कथाएं निम्न हैं ---
(A) स्कंद पुराण के अनुसार
पूर्वजन्म में भगवान कुबेर का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था जिसका नाम गुणनिधि था। लेकिन उसमें एक अवगुण था कि वह चोरी करने लगा था। इस बात का पता चलने पर उसके पिता ने उसे घर से निकाल दिया। जब भटकते हुए उसे एक शिव मंदिर दिखा तो उसने मंदिर से प्रसाद चुराने की योजना बनाई। वहां एक पुजारी सो रहा था। जिससे बचने के लिए गुणनिधि ने दीपक के सामने अपना अंगोछा फैला दिया। लेकिन पुजारी ने उसे चोरी करते हुए पकड़ लिया।हाथापाई में उसकी मृत्यु हो गई।
मृत्यु के उपरांत जब यमदूत गुणनिधि को लेकर आ रहे थे तो दूसरी ओर से भगवान शिव के दूत भी आ गाये और भगवान शिव के दूतों ने गुणनिधि को भोलेनाथ के समक्ष प्रस्तुत किया। भोलेनाथ को यह प्रतीत हुआ कि गुणनिधि ने अंगोछा बिछाके उनके लिए जल रहे दीपक को बुझने से बचाया है। इसी बात से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने गुणनिधि को कुबेर की उपाधि प्रदान की। साथ ही देवताओं के धन का खजांची बनने का आशीर्वाद भी दिया।
(B)रामायण के अनुसार
भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कुबेर ने हिमालय पर्वत पर तप किया। तप के अंतराल में शिव तथा पार्वती दिखायी पड़े। कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से पार्वती की ओर बाएं नेत्र से देखा। पार्वती के दिव्य तेज से वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया। कुबेर वहां से उठकर दूसरे स्थान पर चले गए। कुबेर के घोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने  कुबेर से कहा कि तुमने मुझे तपस्या से जीत लिया है। तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: तुम एकाक्षी  एवं पिंगल कहलाओंगे।इनके अतिरिक्त कुछ विशेष बातें और जान लेते हैं-----
1- पिता विश्रवाजी  का पुत्र होने के कारण इन्हें वैश्रवण
कहते हैं।
2-माता देववर्णिणी का पुत्र होने के कारण इन्हें देववर्णिणीनन्दन कहते हैं।
3-भगवती भद्रा का पति होने के कारण इन्हें भद्राकान्त
और भद्रापति कहते हैं।
4- इन्हें और  भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलरामजी जो माता रोहिणी के पुत्र थे और  जो शेषनाग के अवतार माने जाते हैं को एककुंडल कहा जाता है।
5-कुबेर संबंध में रावण के सौतेले भाई थे।
6-हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार इनके एक आँख तीन पैर और आठ दाँत हैं ।
आइए अब हम इनके विभिन्न नामों/पर्यायवाची शब्दों को देखते हैं।
एककुंडल एकनयन ऐलविल वित्तनाथ।
अलकाधिपति अलकेश्वर,श्वेतोदर धननाथ।।1।।
निधिप निधिनाथ निधिपाल, निधीश्वर नरवाहन।
भद्राकान्त अलकापति,अलकाधिप नृवाहन।।2।।
धनाधिप धनराज धनद,धनदेवता धनेश।
देवकोषाध्यक्ष यक्षपति,धनधारी पर्वेश।।3।।
देववर्णिणीनन्दन व,धनदेव हि धनेश्वर।
त्र्यंबकसखा महासत्व,अर्थद गुह्यकेश्वर।।4।।
मनुष्यधर्मा मनुराज,किन्नरराज निधिपति।
श्रीमत श्रीमन शजराज,राजराज अर्थपति।।5।।
बहुधनेश्वर ईश्वरसख,भद्रापति यक्षेश्वर।
यक्षराज यक्षेश यक्षेंद्र, द्रुम किंपुरुषेश्वर।।6।।
विश्रवा बेटा वैश्रवण ,रत्नगर्भ रत्नेश।
हैं जो रत्नकर कुबेर,वो वसुप्रद वित्तेश।।7।।
धन्यवाद 

रविवार, 19 मई 2024

।। कंठ का पर्यायवाची।।

।। कंठ का पर्यायवाची।।
एक दोहे में बारह पर्यायवाची शब्द 
शिरोधरा घाँटी हलक, थ्रोट नेक गला स्वर ।
टेंटुआ ग्रीवा गर्दन,  कंठ को कहते सुर।।
Throat Neck
धन्यवाद 

।। कुत्ता का पर्यायवाची।।

।। कुत्ता का पर्यायवाची।।
दो दोहों में सत्रह पर्यायवाची शब्द 
दीर्घजिह्वी सालावृक,कुत्ता कुक्कुर कुकर।
श्वा श्वान शुनि सारमेय,नखरायुध हैं कुकुर।।1।।
सोनहा पिल्ला व गृहप, डॉग कहावे शुनक।
हरियाणा-राजस्थान,कहता उसे गंडक।।2।।
(अ)शुनक और पिल्ला-कुत्ते के बच्चे को कहते हैं।
(ब) डॉग (Dog) अंग्रेजी में कहते हैं।
(स) गंडक - राजस्थानी और हरियाणवी भाषा में कुत्ता को गंडक कहा जाता है। कई कुत्तों को गंडकड़ा बोला जाता है। पर हिंदी में गंडक बिहार और नेपाल में बहने वाली एक नदी का नाम है। इस नदी को नेपाल मे सालिग्रामि और मैदान मे नारायनी कहते है यह पटना के निकट गंगा मे मिल जाती है।
धन्यवाद 

शनिवार, 18 मई 2024

।। किनारा का पर्यायवाची।।

।। किनारा का पर्यायवाची।।
दो दोहों में सत्रह पर्यायवाची शब्द
मार्जिन हाशिया अंचल,कूल किनारा कोर।
तट कगार साहिल पुलिन,शोर को कहे छोर।।1।।। 12
सिरा बीच एज व कोस्ट,कहते हैं सब संत।
मां गंगा का हर तीर, करे पाप का अंत।।2।। 5
Edge,Shore,Coast,Beach

शुक्रवार, 17 मई 2024

।। किरण का पर्यायवाची।।

।। किरण का पर्यायवाची।।
एक दोहे में चौदह पर्यायवाची शब्द
अर्चि मरीचि मयूख कर,गो प्रभा रश्मि दीप्ति।
अंशु कला दीति हि किरन, बीम रे और ज्योति।।
 Beam,Ray

।। कांति का पर्यायवाची।।

।। कांति का पर्यायवाची।।
दो दोहों में पच्चीस पर्यायवाची शब्द
उजाला आलोक चमक,उजास दमक प्रदीप्ति।
सुषमा सौन्दर्य रौनक,श्री आभा छवि दीप्ति।।1।।
ज्योति तेज प्रभा प्रकाश,शोभा उद्योत द्युति।
शाइन रेडियन लाइट,छटा को कहें कान्ति।।2।।
Radian Shine Light 

।। कली का पर्यायवाची।।

।। कली का पर्यायवाची।।
एक ही दोहे में तेरह पर्यायवाची शब्द
अँखुवा डोंडी कुडमल,कल्ल कलिका कोरक।
बड अंकुर मुकुल जालक,किसलय कली कोंपल।।1।।
Bud 

।। कमल का पर्यायवाची।।

।। कमल का पर्यायवाची।।
तीन दोहों में चौतीस पर्यायवाची शब्द
अम्बुज नीरज राजीव,शतदल जलज सरोज।
पद्म पंकज अब्ज कंज, पुण्डरीक अम्भोज।। 1।।
कुशेशय कुवलय पुष्कर,सरसीरुह महोत्पल।
अरविन्द नलिन सारंग,शतपत्र वनज उत्पल।।2।।
तरुणज तामरस सरसिज,इन्दीवर पाथोज।
पंकरुह कोकनद कमल, लोटस कुमुद वारिज।।3।।
Lotus 

।। कपड़ा का पर्यायवाची।।

।।  कपड़ा का पर्यायवाची।।
दो दोहों में पंद्रह पर्यायवाची शब्द
पोशाक परिधान चीर, शोभित करते वीर।
अंबर आच्छादन वसन,जीवन में हो धीर।।1।।
पहनावा लिबास वस्त्र,पगड़ी से है शान।
कपड़ा पट दुकूल चेल,अंशुक से सम्मान।।2।।

गुरुवार, 16 मई 2024

✓।। सोना का पर्यायवाची।।

।। सोना का पर्यायवाची।।
दो दोहों में उन्नीस पर्यायवाची शब्द

तपनीय तामरस कनक, हेम हिरण्य हाटक।
चामीकर सोना स्वर्ण,सुवर्ण रुक्म हारक।।1।।

(अ)-तामरस 

सियरे बदन सूखि गए कैसे।परसत तुहिन तामरस जैसे ।

1-कमल 2- सोना 3- ताँबा 4-धतूरा 5-सारस 

(ब)-कनक का अर्थ सोना और धतूरा आप जानते ही हैं -

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। 
वा खाए बौराय जग, या पाए बौराय।।

कलधौत गोल्ड सुवानन,महारजत हि कंचन।
जटारूप से जातरूप, हो गया  है कुंदन।।2।।

(अ)-Gold अंग्रेजी में
(ब)-सुवानन (काम किया हुआ सोना)
(स)-जटारूप ,जाटरूप , जातरूप

जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥

बुधवार, 15 मई 2024

।। कर्ण के पर्यायवाची शब्द।।

।। कर्ण के पर्यायवाची शब्द।।
तीन दोहों में उन्नीस पर्यायवाची शब्द
अरुणात्मज राधातनय,
         कन्याजात अर्कज।
राधेय पार्थ कौन्तेय,
           सूतपुत्र ही सूतज।।1।।9
यहां निम्न पर्ययों को समझ लेते है---
1-अरुणात्मज और सूर्यपुत्र का अर्थ
जटायु  यम शनि सुग्रीव कर्ण भी होता है।
2- कन्याजात  का अर्थ
कुमारी कन्या से उत्पन्न।
वह पुत्र जो किसी कन्या को कुमारी अवस्था
में पैदा हुआ हो।
वेदव्यासजी भी कन्याजात के पर्याय हैं। 
3-पार्थ और कौन्तेय
कुंती का एक नाम पृथा था । पृथा के पुत्र पार्थ अर्थात् कर्ण युधिष्ठिर भीम और अर्जुन चारों पार्थ के पर्याय हैं।
इसी प्रकार कौन्तेय अर्थात् कुंती के पुत्र तो फिर ये चारों 
कर्ण युधिष्ठिर भीम और अर्जुन यकौन्तेय के भी पर्याय हैं।
थे रविनन्द रविनंदन,
          सूर्यपुत्र वैकर्तन।
महादानी महावीर,
        सूर्यभक्त चिरंतन।।2।।4
धीर पातंगी सावित्र,
          कानीन अर्कतनय।
सुयोधन के अंगराज,
          प्रख्यात सूततनय।।3।।6
1- कानीन का अर्थ
कुमारी कन्या से उत्पन्न।
वह पुत्र जो किसी कन्या को कुमारी
अवस्था में पैदा हुआ हो। इस प्रकार 
वेदव्यासजी भी कानीन के पर्याय हैं। 
धन्यवाद

मंगलवार, 14 मई 2024

।। इच्छा का पर्यायवाची।।


।।  इच्छा का पर्यायवाची।।
निम्न छंदों में बीस पर्यायवाची शब्द
अरमान अभिप्राय अभिलाषा।
आकांक्षा मनोरथ लालसा।।
इच्छा अभीष्ट ईहा ईप्सा।
चाह चाहत कामना लिप्सा।।
वांछा मर्जी डिजायर, सबकी आरजू विश।
यदि सद स्पृहा हैं हर मन,हरि हर पूरवे विल।।
Desire wish will

सोमवार, 13 मई 2024

।। अंगद का पर्यायवाची।।

।।  अंगद का पर्यायवाची।।
तीन  दोहों में सोलह पर्यायवाची शब्द
अंगद शब्द हमारा ध्यान बाली पुत्र की ओर ले जाता है
जिनका  सात पर्याय पहले दोहे में स्पष्ट दिखता है।
दूसरे और तीसरे दोहे में अंगद आभूषण के नौ पर्याय हैं
आइए देखते हैं ---
बालितनय बालिकुमार,बालिपुत्र थे अंगद। 
बालिसुत ताराकुमार, तारेय पांव विहद।।1।।7
बाजूबीर बाहुबंद,बहुँठा बाजूबंद।
बजुल्ला व बिजावट, होते हैं भुजबंद।।2।।7
केयूर नाम है अमर, कहता सदा संस्कृत।
आर्मलेट से अलंकृत,जीवन महा झंकृत।।3।।2
Armlet

।। असभ्य का पर्यायवाची।।

चार दोहों में पैतीस पर्यायवाची शब्द
।। असभ्य का पर्यायवाची।।
आचारभ्रष्ट असंस्कृत,अननुग्रही अकुलीन।
शिष्टाचारहीन अभद्र,जंगली शीलहीन।।1।।
अविनीत अशिष्ट बर्बर,हीनाचार कुशील।
गँवार गुस्ताख़ अक्खड़,शीलरहित दुःशील।।2।।
असौम्य उजड्ड बेअदब, अधम आचारहीन।
अनसिविलाइज्ड असभ्य, रूड संस्कारहीन।।3।।
अनकल्चर्ड बदतमीज, इंपोलाइट कर्ट।
बेहूदा व लट्ठमार,असाधु औ निर्लज्ज।।4।।
ये पांच अंग्रेजी शब्द दोहों में आ चुके हैं।
Uncivilized  Rude  Uncultured 
Impolite   Curt 
इनके अतिरिक्त ये अंग्रेजी के और छः प्रसिद्ध शब्द असभ्य के पर्यायवाची हैं।
Rough  Savage Illbread  
Vulgar  Gross Barbarian 

रविवार, 12 मई 2024

।। अंतर्धान का पर्यायवाची।।

।। अंतर्धान का पर्यायवाची।।
दो दोहों में बारह पर्यायवाची शब्द 
उड़नछू ओझल अदृश्य,गायब अंतर्धान।
रफूचक्कर व तिरोहित,लापता तिरोधान।।1।।
होते हैं दूजे शब्द, जाने जैसे कि गुम। 
अंग्रेज का डिसैपियर,हमारे यहां लुप्त।।2।।
Disappear

शुक्रवार, 10 मई 2024

।। अंकुश का पर्यायवाची।।

।। अंकुश का पर्यायवाची।।
अंकुश के पर्याय जानने से पहले हम जानते हैं की मूलतः अंकुश क्या है:-
अंकुश एक हथियार है जिसके द्वारा पिलवान हाथी को वश में करते हैं ।यह एक प्रकार का अस्त्र भी है, जो आठ प्रसिद्ध अस्त्र-शस्त्र की गिनती में आता है। जिसके बारे में कहा भी गया है :-
अंकुश बरछी शक्ति पवि गदा धनुष असि तीर। 
आठ शस्त्र को चिह्न यह धारत पद बलबीर।।
आइए हम इसके प्रसिद्ध उन्नीस नामों/पर्यायवाची शब्दों को भी इन दो दोहों में देखते हैं ।

गजांकुश कोंचा अंकुश,रोकथाम गजबाँक।
चेक कन्ट्रोल प्रतिबंध,पाबंदी गजबाग।।1।।
नियंत्रण दबाव लगाम,काबू निग्रह निरोध।।
संयमन रोक निज मन, नहि जीवन अवरोध।।2।।
धन्यवाद

✓।।अधर्म का पर्यायवाची।।

।।अधर्म का पर्यायवाची।।
दो दोहों में अठारह पर्यायवाची शब्द
अपकर्म अन्याय अनित,अपराध अनाचार।
अधर्म जुल्म दोष पाप, दुष्कर्म दुराचार ।।1।।
 बढ़ाते कुकर्म कल्मष, करके सदा अधर्म।
अघ दुरित गुनाह पातक, नष्ट करै सद्धर्म।।2।।

।।अजेय का पर्यायवाची।।

।।अजेय का पर्यायवाची।।

एक दोहे में आठ पर्यायवाची शब्द 
अपराजेय अपराजित,अदम्य अजेय अजित।
अनकंकरेबल अभेद्य, अवश्यमेव अविजित।।
unconquerable

✓।।धनवान का पर्यायवाची।।

।।धनवान का पर्यायवाची।।

दो  दोहों में सत्रह पर्यायवाची शब्द 
धनाढ्य धनधारी धनिक, धनी अमीर धनपति।
दौलतमंद मालदार,अर्थवान अर्थपति।।1।।
रईस समृद्ध संपन्न, पैसेवाले संत।
अर्थधारी व धनवान,कुबेर सा धनवंत।।2।।

।।संभ्रांत का पर्यायवाची।।



।।संभ्रांत का पर्यायवाची।।
दो  दोहों में बीस पर्यायवाची शब्द 
अमीरज़ादा शालीन,खानदानी सुजात।
संभ्रान्त रईस कुलीन,श्रेष्ठ पूज्य अभिजात।।1।।
शाहज़ादा उच्च कुलज, भद्र शिष्ट कुलवंत।
एरिस्टोक्रेट सत्कुल, कुलवान आर्य संत।।
Aristocrat अंग्रेजी
संत पद पूर्ति हेतु। शेष सभी बिसों शब्द सम्भ्रांत के पर्यायवाची हैं।

बुधवार, 8 मई 2024

।।नौकर का पर्यायवाची।।

।।नौकर का पर्यायवाची।।
दो  दोहों में पन्द्रह पर्यायवाची शब्द
परिचारक सेवक दास,खिदमतगार अनुचर।
टहलुआ सर्वेंट भार्य,भृत्य किंकर परिचर।।1।।
सेवादार औ चाकर,सबसे बड़े खादिम।
कर्म का नित देता सिख,कहलाता मुलाजिम।।2।।

।।सेना का पर्यायवाची।।

।।सेना का पर्यायवाची।।
एक ही दोहे में तेरह पर्यायवाची शब्द
अनीकिनी अनी अनीक,आर्मी पलटन कुमक।
वाहिनी वरूथ लश्कर,दल चमू यूथ कटक।।1।।

।।जंगल का पर्यायवाची।।

।।जंगल का पर्यायवाची।।
एक ही दोहे में तेरह पर्यायवाची शब्द
अटवी अरण्य अख्य वन,बीहड़ विपिन कानन।
कान्तार विटप बियावन,झाड़ी जंगल गहन।।1।।
नोट:-
1-विटप का अर्थ मूलतः वृक्ष और झाड़ी होता है लेकिन कहीं कहीं जंगल के लिए भी प्रयुक्त होता है।
2-सहारा भी जंगल का पर्याय माना गया है जिसका मूल अर्थ रेगिस्तान है। लेकिन इसका अर्थ चांद और जंगल भी होता है। 
      

।।भगवान के पर्यायवाची।।


।।भगवान के पर्यायवाची।।
पाँच दोहों में अड़तालीस पर्यायवाची शब्द
परमपिता अक्षरब्रह्म,हिरण्यगर्भ परमेश्वर।
परब्रह्म  अगोचर प्रभु,अखिलेश विश्वेश्वर।।1।।
साहब सर्वशक्तिमान, विधाता विश्वनाथ।
अक्षय अलख अनन्त ईश,भगवान जगन्नाथ।।2।।
अंतर्यामी अल्लाह,सच्चिदानन्द ब्रह्म।
साईं खुदा आदिपुरुष,व्यापक अक्षरब्रह्म।।3।।
दीनबंधु दीनानाथ,रब नित्य अखिलेश्वर।
अच्युत अज त्रिलोकीनाथ,ईश्वर व जगदीश्वर।।4।।
गॉड अल्माइटी शर्व,परब्रह्म विश्वंभर ।
परमात्मा अनादि ठाकुर , नारायण  महेश्वर।।5।।

मंगलवार, 7 मई 2024

✓।। बन्दर का पर्यायवाची।।

।। बन्दर का पर्यायवाची।।
एक ही दोहे ग्यारह पर्यायवाची शब्द
शाखामृग कपि कीश हरि, ऐप मंकी बन्दर।।
तरुमृग पग और बबून, जाति से हैं वानर।।
Ape Monkey  Baboon Pug

रविवार, 5 मई 2024

।।मतलब का पर्यायवाची।।

।।मतलब का पर्यायवाची।।
दो दोहों में चौदह पर्यायवाची शब्द
अभिप्राय आशय मतलब,तात्पर्य भाष्य स्वार्थ।
मंशा नीयत प्रयोजन,उद्देश्य और अर्थ।।1।।
व्याख्या का है यह विषय,इरादा सदा स्पष्ट।
मायने बता महाशय, हरते सबके कष्ट।।
धन्यवाद

।।धन का पर्यायवाची।।

।।धन का पर्यायवाची।।
दो दोहों में बीस पर्यायवाची शब्द
लक्ष्मी श्री रुपया रकम, माया राशि विभूति।
पूँजी पैसा माल धन,द्रव्य अर्थ सम्पत्ति।।1।।
जर जोरू जमीन जब, कंचन कीर्ति कामिनि।
मुद्रा दौलत वित्त तब,संपदा है भामिनि।।2।।
धन्यवाद

शनिवार, 4 मई 2024

।।अहंकारी का पर्यायवाची।।

।।अहंकारी का पर्यायवाची।।
दो दोहों में बारह 
 आत्माभिमानी अकडू,गर्वित ठस्सेबाज।
डींगें हांकने वाला ,घमंडी अकड़बाज।।1।।
अहंकारी व मगरूर,हॉटी ईगोटिस्ट।
गर्वीला भरा गरूर, अंग्रेज का कनसिट।।2।।
egotist haughty conceite  
धन्यवाद 

।।आभूषण के पर्यायवाची।।

।।आभूषण के पर्यायवाची।।
दो दोहों में चौदह पर्यायवाची शब्द
अ अलंकार अलंकरण,आभरण आभूषण।
सारंग जेवर भूषण,ज्वेल जेम विभूषण।।1।।
ऑर्नेमेंट औ मंडन,गहना से श्रृंगार।
सत्कर्म ज्वैलरी पहन,तू पा सबका प्यार।।2।।
Jewel Gem Ornament Jewellery 

।।अतिथि के पर्यायवाची।।

।।अतिथि के पर्यायवाची।।
दो दोहों में बारह पर्यायवाची शब्द
आगन्तुक अतिथि आगत,पाहुना अभ्यागत।
मुलाकाती मेहमान,परिदर्शक गृहागत।।1।।

गैस्ट विजिटर भी फेमस,पूजित देव समान।
प्रेमांबु पाता पाहुन,जानत सकल जहान।।2।।
Guest Visitor 

।।अपमान के पर्यायवाची शब्द।।

।।अपमान के पर्यायवाची शब्द।।
आइए हम आज अपमान का तीस पर्यायवाची इन तीन दोहों में देखते हैं -
जलील  रुसवा फटकार , बदनामी अपमान।
निन्दा अवज्ञा फ़ज़ीहत,असम्मान अवमान।।1।।
बेकदरी धर्षण  हतक,तिरस्कार अनादर।
ख़्वारी तौहीन ज़िल्लत,बेइज्जती निरादर।।2।।
उपेक्षा भद्द इंसल्ट (insult), भर्त्सना व दुत्कार।
गञ्जन परिभव अपयश च, बेआबरु धिक्कार।।3।।
।।धन्यवाद।।
एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है कि -
"यदि आप स्वंय का आदर करवाना चाहते हैं तो आपको दूसरों का आदर करना चाहिए।"
इसी बात को अंग्रेज भी यो कह रहे हैं-
"If you want to have respect for yourself, you must respect others."
अपमान अमृत समझ नर,प्रतिष्ठा विष समान।
जीवन परमानंद भर, बन जा सदा महान।।