शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

✓रावण के आगे हाथ जोड़ कर क्या आग्रह कर रहे थे हनुमानजी ?


रावण के आगे हाथ जोड़ कर क्या आग्रह कर रहे थे हनुमानजी ?
श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे रावण! बँधे जाने में मुझे कोई लज्जा नहीं है। लज्जा भला किस बात की। क्योंकि मैं तो श्रीराम जी का कार्य कर रहा हूँ। उनकी सेवा में मैं मेघनाद को बाँध लेता, तो भी यह प्रभु की ही कृपा से संभव होता।
रावण ने देखा कि वानर को एक बात पूछो, ओर यह आगे दस सुना रहा है। इसने तो अपनी चर्चा ही बालि और सहस्त्रबाहु वाले काण्डों से आरम्भ की है। अब पता नहीं यह वानर मेरी क्या-क्या पोल खोल सकता है। मैं तो सोचा रहा था, कि यह मेरे समक्ष अपने प्राणों की भीख के लिए गिड़गिड़ायेगा। लेकिन यह वानर तो यूँ तन कर खड़ा है, मानों इसे मेरा रत्ती भर भी भय नहीं है। भय तो छोड़ो, इसे तो तनिक-सी, लज्जा तक नहीं है। यह अपने स्वामी को भला क्या मुख दिखायेगा, कि लंका में पता नहीं वह कौन-सा तीर मार बैठा था। और वास्तविकता यह है, कि यह भरी सभा में मेरे सामने पाश में बँधा पड़ा है। अपनी पराजय पर भी इसे लज्जा नहीं है। रावण के अंतःकरण में उठ रही, यह विष की धारा, श्रीहनुमान जी सहज ही देख पा रहे थे। तभी उन्होंने तत्काल ही रावण का भ्रम दूर किया, और बोले-
‘जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।’
श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे रावण! बँधे जाने में मुझे कोई लज्जा नहीं है। लज्जा भला किस बात की। क्योंकि मैं तो श्रीराम जी का कार्य कर रहा हूँ। उनकी सेवा में मैं मेघनाद को बाँध लेता, तो भी यह प्रभु की ही कृपा से संभव होता। और अगर मुझे आज बँध जाने की सेवा निभानी है, तो यह भी मेरे प्रभु की ही कृपा है। प्रभु मुझे भवन निर्माण की सेवा दे देंगे, तो हम तो उसमें भी प्रसन्न हैं। और अगर प्रभु हमें उसी भव्य भवन को गिराने का आदेश दे देंगे, तो हमें उसमें भी उतनी ही प्रसन्नता होगी, जितनी उस भवन को बनाने में हुई थी। मान-सम्मान से परे उठेंगे, तभी तो मेरे प्रभु की सेवा से हम न्याय कर पायेंगे। नहीं तो उनकी पावन शरण में आकर भी, निश्चित ही हम कष्टों से ही ग्रसित रहेंगे। रावण ने सोचा, कि इस विचित्र वानर को तो यह भान भी नहीं है, कि इसे दोनों हाथ जोड़ कर मुझसे क्षमा याचना भी करनी है। रावण अपने अहंकार को तुष्ट करता हुआ, फिर एक बार हँसा। रावण हँसा इसलिए, क्योंकि वह यह दिखाना चाहता था, कि वानर जाति को भला क्या अपमान अथवा सम्मान की जानकारी होगी। कारण कि इनका तो वैसे भी कोई सम्मान नहीं होता है। अब जिसका कोई सम्मान ही नहीं, तो भला उसका अपमान क्या होगा। लेकिन वानर को प्राणों का भी भय न हो, यह भला कैसे हो सकता है? कारण कि प्राणों का मोह तो क्षुद्र से क्षुद्र जीव को भी होता है। भला कौन अपने प्राणों को बचाने के लिए, मिन्नतें नहीं करता। निश्चित ही इस वानर को भी मैं अपने समक्ष दोनों हाथ जोड़े देखना चाहता हूँ। सज्जनों संयोग देखिए कि श्रीहनुमान जी ने उसी समय अपने हाथों को जोड़ भी लिया। अवश्य ही श्रीहनुमान जी ने रावण के मन की बात पढ़ ली होगी। लेकिन क्या श्रीहनुमान जी सचमुच रावण से अपने प्राणों की भीख माँगने वाले थे। जी नहीं, ऐसा भला कैसे हो सकता था। क्या गंगा जी भी कभी अपनी पावनता की रक्षा हेतु, किस गंदे नाले के समक्ष झुकती देखी हैं। अथवा सूर्य भगवान को किसी अँधेरी कँद्रा से सहमते देखा है। तो फिर श्रीहनुमान जी रावण के समक्ष, हाथ जोड़ कर क्यों खड़े हो गए। तो चलिए सज्जनों, आपके संदेह का भी नाश कर दें। वास्तव में श्रीहनुमान जी ने हाथ, क्षमा याचना करने के लिए नहीं जोड़े थे। अपितु रावण को सद्मार्ग की शिक्षा देने हेतु, उसे समझाने हेतु जोड़े थे। श्रीहनुमान जी हाथ जोड़ कर क्या आग्रह करते हैं-
‘बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।’
अर्थात हे लंकापति रावण! मैं तुम्हारे समक्ष हाथ जोड़ कर विनती करता हूँ, कि तुम अभिमान छोड़ कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो, और भ्रम त्यागकर भक्त भयहारी भगवान का भजन करो। रावण ने जब श्रीहनुमान जी के यह वाक्य सुने तो रावण तो हँस-हँस कर मानो पगला-सा गया क्योंकि उसे किसी का सीख देना, तो मानों संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य लग रहा था। कारण कि सीख तो उसने उनकी नहीं सुनी थी, जिनसे समस्त संसार सीख लेता था। अर्थात उसके तपस्वी पिता विश्रवामुनि, और उसके दादा पुलस्तय ऋर्षि। और एक वानर की सीख वह सुन लेगा, यह तो स्वप्न में भी संभव नहीं था। फिर भी हमारे हनुमानजी हाथ जोड़कर  सिख  दे ही देते हैं ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।

कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
एक बार कौशल्याजी, अंजनी माता और अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा साथ  साथ में बैठी थीं। कौशल्याजी ने अपने बेटे राम की बड़ाई करते हुए कहा बहन ! मेरा बेटा राम कितना महान है उसने इतने बड़े समुन्दर पर पुल बाँध दिया। यह सुनकर अंजनी माँ से नहीं रहा गया उन्होंने कहा बहन! अगर बुरा न मानो तो मैं भी कुछ कहूँ। मेरा बेटा हनुमान तो एक छलांग में ही समुद्र पार कर दिया था। अब तुम ही विचार करो वह कितना बड़ा पराक्रमी है। अब अगस्त्य ऋषि की पत्नी हर्षलोमा से नहीं रहा गया। उन्होंने  कहा सखियों मेरे पतिदेव ने तो तीन आचमन में ही समुद्र को ही पी लिया था तो सोचो कि वे कितने बड़े महान हैं। यह सुनकर कौशल्या उदास हो गईं और दुखी रहने लगी
कि मेरा बेटा राम तो तीसरे स्थान पर चला गया। माँ को उदास देखकर राम ने पूछा- क्या बात है माँ ?  माता कौशल्या ने सभी बातें दुखी होकर राम को सुनाया ,सब सुनने के बाद राम ने पूछा- अच्छा माँ ! ये तो बताओ, किसका नाम लेकर हनुमान ने समुद्र पार किया और अगस्त्य ऋषि ने  किसका नाम लेकर समुद्र का पान किया ?  मां वह है तेरे बेटे का नाम।
प्रभु राम ने माता श्री को यह भी बताया कि सेतुबंध के समय मैंने एक पत्थर उठाकर समुद्र में डाला वह पत्थर डूब गया। मैंने हनुमान से पूछा– क्या बात है हनुमान ! यह पत्थर क्यों डूब गया ? हनुमान  ने बड़े ही सहजता से समझाया- प्रभु ! आप से बढ़कर आपका नाम है।फिर मेरा नाम राम लिखकर उसने पत्थर समुद्र में छोड़ा वह तैरने लगा। अब माता तू ही बता कौन बड़ा हैं। मां ने कहा  कि 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। 
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
राम से बढ़कर राम का नाम है।
नाम तुम्हारा तारनहारा............

बुधवार, 11 सितंबर 2024

✓करि बिनती निज कथा सुनाई

मानसचर्चा
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
अर्थात् राजा जनक ने गुरु विश्वामित्र जी से विनती (स्तुति, अपने भाग्यकी प्रशंसा) करके अपनी कथा सुनायी और सब रंगभूमि मुनिको दिखायी ॥  अब बात आती है कि 
कौन सी कथा सुनाई? इस संबंध में अनेक कथाएं हैं।आज हम इस पर चर्चा करते हैं और कुछ कथाओं को सुनते हैं।
वाल्मीकीय रामायण में श्रीजनकमहाराजने श्रीविश्वामित्रजीसे स्वयं इस धनुषके सम्बन्धकी कथा इस प्रकार कही है- जिस प्रयोजनके लिये यह धनुष मेरे यहाँ रखा गया उसे सुनिये। निमिमहाराजके कुलमें देवरात नाम
एक राजा हो गये हैं। उनको यह धनुष धरोहरके रूपमें मिला था । दक्षयज्ञके विध्वंसके लिये इस धनुषको
श्रीशिवजीने चढ़ाया था, यज्ञका नाश करके उन्होंने क्रोधमें भरकर देवताओंसे कहा कि तुम लोगोंने मुझ भागार्थीको
यज्ञभाग नहीं दिया, अतः मैं इसी धनुषसे तुम सबोंका सिर काटे डालता हूँ। यह सुन देवता लोग उदास हो
गये और किसी तरह उन्होंने शिवजीको प्रसन्न किया। तब शिवजीने यह धनुष देवताओंको दे दिया और
देवताओंने हमारे पूर्वजोंके पास उसे रख दिया । कूर्मपुराणमें भी यह कथा कही जाती है ।
परशुरामजीने श्रीरामजीसे इसके सम्बन्धमें यह कहा था कि ये शारंग  और पिनाक दोनों धनुष अत्युत्तम दिव्य और
लोकोंमें प्रसिद्ध हैं, बड़े दृढ़ हैं, इन्हें  देवशिल्पी विश्वकर्माने बड़े परिश्रमसे ब्रह्म ऋषि  दधीचि की हड्डी से सावधानतापूर्वक बनाया था। इनमेंसे पिनाक को 
देवताओंने  (जिसे तुमने तोड़ा है) महादेवजीको दिया जिससे उन्होंने त्रिपुरासुरका नाश किया, और
दूसरा शारंग को  विष्णुभगवान्‌को दिया । उस समय देवताओंने ब्रह्माजीसे पूछा कि विष्णु और शिवमें कौन अधिक बलवान् है । उनका अभिप्रायमहान् समझकर तथा दोनों धनुषोंमें कौन श्रेष्ठ है यह जाननेके लिये ब्रह्माजीने दोनोंमें विरोध करा दिया, जिससे रोमांचकारी युद्ध हुआ। शिवजीका महापराक्रमी धनुष ढीला पड़ गया और विष्णुके हुंकारसे उस समय शिवजी स्तम्भित हो गये । चारणों और ऋषियोंसहित देवताओंने आकर दोनोंसे शान्त होनेकी प्रार्थना की। तब दोनों अपने-
अपने स्थानको चले गये। अपनी हार देख शिवजीने क्रुद्ध होकर अपना धनुष बाणसहित राजर्षि देवरातको दे
दिया । 
श्रीगोस्वामीजीके मतानुसार यह धनुष पुरके पूर्व दिशामें, पुरके बाहर रखा था, वहीं रंगभूमि बनायी
गयी थी। शिवजीने इसे त्रिपुरासुरके वधके लिये खास तौरपर बनवाया था, जैसा कवितावलीसे सिद्ध है-
'मयनमहन, पुर-दहन-गहन जानि, आनिकै सबैको सारु धनुष गढ़ायो है। जनक सदसि जेते भले- भले भूमिपाल
किए बलहीन बल आपनो बढ़ायो है ।मानस में
भी इस धनुष के साथ त्रिपुरारि वा पुरारि शब्दोंका प्रयोग हुआ है । यथा 'सोइ पुरारि कोदंड कठोरा। राजसमाज
आजु जोइ तोरा ॥' धनुही सम त्रिपुरारि धनु बिदित सकल संसार । इससे भी इसीसे त्रिपुरका नाश किया जाना सिद्ध होता है। धनुष जनकजीको सौंप दिया गया था, यह गीतावलीमें भी कहा है; यथा - ' अनुकूल नृपहि सूल-पानि हैं। नीलकंठ कारुन्यसिंधु हर दीनबन्धु दिन दानि हैं। जो पहिले ही पिनाक जनक कहँ गए सौप जिय जानि हैं। बहुरि त्रिलोचन लोचनके फल सबहि सुलभ किए आनि हैं ॥'इस ग्रन्थसे भी यही सिद्ध होता है, यथा - 'सोइ पुरारि कोदंड कठोरा' 
राजा जनकने विश्वामित्रजीसे धनुषका अपने यहाँ रखे जानेका प्रयोजन कहकर फिर यह भी बताया कि
यज्ञके लिये मैं हलसे खेत जोत रहा था। उस समय हलके अग्रभाग- ( सीता - ) की ठोकरसे एक कन्या पृथ्वीसे
निकल आयी, जो अपने जन्मके कारण 'सीता' के नामसे प्रसिद्ध हुई । मैंने इस अपनी अयोनिजा कन्याका शुल्क
यही रखा कि जो इस- (धनुष) को उठाकर इसपर रोदा चढ़ा दे उसीको यह ब्याही जायगी। अनेक राजा आये ।
कोई भी इसे न उठा सका- ' न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेऽपि वा ।' उन्होंने इससे अपनेको तिरस्कृत समझ नगरको घेर लिया। एक वर्षतक संग्राम होनेसे मेरे सब साधन नष्ट हो गये, तब मैंने तपस्याद्वारा देवताओंको प्रसन्नकर उनकी चतुरंगिणी सेना प्राप्त कर सबको पराजित किया । - यह वही धनुष है ।
सत्योपाख्यानमें श्रीसीतास्वयंवरके विषयमें यह कथा लिखी है कि श्रीजानकीजीकी महिमा देख
श्रीसुनयना अम्बाजीने सोचा कि इनका विवाह इन्हींके अनुकूल पुरुषसे करना चाहिये और श्रीशीरध्वज
महाराजसे उन्होंने अपना विचार प्रकट किया। राजा भी सहमत हुए और इसी संकल्पसे पृथ्वीपर कुशा
बिछाकर उसपर सोये । शिवजीने स्वप्नमें दर्शन देकर यह आज्ञा दी कि तुम जिस हमारे धनुषका पूजनकरते हो उसके विषयमें यह प्रतिज्ञा करो कि जो इसे तोड़ेगा उसीके साथ श्रीजानकीजीका विवाह किया जायगा ।
यथा - 'धनुर्मदीयं ते गेहे पूजितं तव पूर्वजैः । तस्य प्रतिज्ञा त्वया कार्या भंगाय तोलनाय च । तोलयित्वा च यो भंग कारयेद्धनुषो मम । तस्मै देया त्वया कन्या ह्येवमुक्त्वा गतो हरः । ' सबेरे राजाने यह वृत्तान्त मन्त्रियोंसे कह उनकी सम्मतिसे राजाओंको निमन्त्रण भेजा, वे सब आये। रावणको भी निमन्त्रण गया; उसका मन्त्री
प्रहस्त आया था। बाणासुर और काशिराज सुधन्वा भी (जो शिवभक्त थे) आये।.... । ' धनुष कोई न उठा सका। सुधन्वाने कहा कि धनुषसहित सीताजीको हमें दे दो, नहीं तो हम तुम्हारा नगर लूट लेंगे।
सालभर बराबर लड़ाई होती रही पर राजाने प्रतिज्ञा न छोड़ी। अन्तमें श्रीशिवजीकी कृपासे सुधन्वा मारा गया और काशी नगरी कुशध्वजको दे दी गयी। राजाओंको फिर निमन्त्रण भेजा गया। 
धनुष तोड़नेकी प्रतिज्ञाके सम्बन्धमें और भी कथाएँ हैं - पहली कथा है कि अध्यात्म रामायण में पाणिग्रहणके पश्चात् जनकजीने
श्रीवसिष्ठजी और श्रीविश्वामित्रजीसे बताया कि एक दिन जब मैं एकान्तमें बैठा हुआ था, देवर्षि नारद आये और
मुझसे कहा कि परमात्मा अपने चार अंशोंसहित दशरथपुत्र होकर अयोध्यामें रहते हैं । उनकी आदिशक्ति तुम्हारे यहाँ सीतारूपसे प्रकट हुई हैं। अत: तुम प्रयत्नपूर्वक इनका पाणिग्रहण रघुनाथजीके साथ ही करना, क्योंकि यह पहले से ही रामजीकी ही भार्या हैं- 'पूर्वभायैषा रामस्य परमात्मनः । ' देवर्षिके चले जानेपर यह सोचते हुए कि किस प्रकार जानकीजीको रघुनाथजीको दूँ, मैंने एक युक्ति विचारी कि सीताके पाणिग्रहणके लिये सबके गर्वनाशक इस धनुषको ही पण (शुल्क) बनाऊँ। मैंने वैसा ही किया। आपकी कृपासे कमलनयन राम यहाँ धनुष देखनेको आ गये और मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया । 
दूसरी कथा मिलती है कि महा सुनयना प्रतिदिन चौका दिया करती थीं। एक दिन अवकाश न मिलनेके कारण उन्होंने सीताजीको चौका लगानेको भेजा । इन्होंने धनुष उठाकर उसके नीचे भी चौका लगाया।  तीसरी  कथा यह है कि'एक समय जानकीजीने खेलते हुए सखियोंके सामने धनुषको उठा लिया। यह सुन राजाने धनुषभंगकी प्रतिज्ञा की।' एक  कथा यों  भी है कि राजा जनक अपने महलसे कुछ दूरीपर धनुषकी पूजा करने जाया करते थे। एक दिन सीताजी उनके साथ गयीं । उन्होंने विचारकर कि पिताजी इसीकी पूजाके कारण परिश्रम कर यहाँ आते हैं, वे उसे उठाकर अपने घर ले आयीं । अन्य  कथा यह भी कही जाती  है कि धनुषके आस-पास सीताजी सखियोंसहित चाईं माईं खेल रही थीं, ओढ़नीका अंचल धनुषमें अटका और धनुष स्थानसे हट गया ।ऐसा चमत्कार देखकर राजा जान गये कि सीता तो  ब्रह्मविद्या (आदिशक्ति) है। और राजा ने प्रतिज्ञा किया कि जो इस धनुषको तोड़े उसके साथ इसका विवाह करना योग्य है। इन सारी कथाओं को सुनाया या एक को कथा तो सुनाया । जो भी हो राजा जनक  ने गुरू विश्वामित्र से निवेदन किया कि   शिवजीने हमें जो उपदेश दिया कि तुम प्रतिज्ञा करो कि जो इस धनुषको तोड़े वही जानकीको ब्याहेगा। उसी  आज्ञा के अनुसार   हमने प्रतिज्ञा की, रंगभूमि बनवायी, कृपया चलकर इसे देखिये ।  
करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई।।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

✓।।जीवन प्रबंधन के गुरु है हनुमानजी।।

।।जीवन प्रबंधन के  गुरु है हनुमानजी।।
हनुमान जी को कलियुग में सबसे प्रमुख ‘देवता’ माना जाता है। रामायण के सुन्दर कांड और तुलसीदास की हनुमान चालीसा में बजरंगबली के चरित्र पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसके अनुसार हनुमान जी का किरदार हर रूप में युवाओं के लिए प्रेरणादायक है।
हनुमान जी के बारे में तुलसीदास लिखते हैं ‘संकट कटे मिटे सब पीरा,जो सुमिरै हनुमत बल बीरा’। हमेशा अपने भक्तों को संकट से निवृत्त करने वाले हनुमान जी ‘स्किल्ड इंडिया’ के जमाने में युवाओं के परमप्रिय देवता होने के साथ ही उनके जीवन प्रबंधन गुरु की भी भूमिका निभाते हैं।
आज हम आपको ‘बजरंगबली’ के उन 10 गुणों के बारे में बताएंगे, जो न केवल आपको ‘उद्दात’ बनाएंगे, बल्कि आपके प्रोफ्रेशनल जीवन के लिए भी काफी प्रेरक साबित होंगे।
(1) संवाद कौशल : – सीता जी से हनुमान पहली बार रावण की ‘अशोक वाटिका’ में मिले, इस कारण सीता उन्हें नहीं पहचानती थीं। एक वानर से श्रीराम का समाचार सुन वे आशंकित भी हुईं, परन्तु हनुमान जी ने अपने ‘संवाद कौशल’ से उन्हें यह भरोसा दिला ही दिया की वे राम के ही दूत हैं। सुंदरकांड में इस प्रसंग को इस तरह व्यक्त किया गया हैः
“कपि के वचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह ,कृपासिंधु कर दास ।।”
(2)विनम्रता : – समुद्र लांघते वक्त देवताओं ने ‘सुरसा’ को उनकी परीक्षा लेने के लिए भेजा। सुरसा ने मार्ग अवरुद्ध करने के लिए अपने शरीर का विस्तार करना शुरू कर दिया। प्रत्युत्तर में श्री हनुमान ने भी अपने आकार को उनका दोगुना कर दिया। “जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा।” इसके बाद उन्होंने स्वयं को लघु रूप में कर लिया, जिससे सुरसा प्रसन्न और संतुष्ट हो गईं। अर्थात केवल सामर्थ्य से ही जीत नहीं मिलती है, “विनम्रता” से समस्त कार्य सुगमतापूर्वक पूर्ण किए जा सकते हैं।
(3)आदर्शों से कोई समझौता नहीं : – लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते, तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया। हालांकि, यह प्राणघातक भी हो सकता था। यहां गुरु हनुमान हमें सिखाते हैं कि अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए । तुलसीदास जी ने हनुमानजी की मानसिकता का सूक्ष्म चित्रण इस पर किया हैः
“ब्रह्मा अस्त्र तेंहि साँधा, कपि मन कीन्ह विचार । 
जौ न ब्रहासर मानऊँ, महिमा मिटई अपार ।
(4)बहुमुखी भूमिका में हनुमान : – हम अक्सर अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रदर्शन करते रहते हैं, कई बार तो वहां भी जहां उसकी आवश्यकता भी नहीं होती। तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैंः “सूक्ष्म रूप धरी सियंहि दिखावा, विकट रूप धरी लंक जरावा ।”
सीता के सामने उन्होंने खुद को लघु रूप में रखा, क्योंकि यहां वह पुत्र की भूमिका में थे, परन्तु संहारक के रूप में वे राक्षसों के लिए काल बन गए। एक ही स्थान पर अपनी शक्ति का दो अलग-अलग तरीके से प्रयोग करना हनुमान जी से सीखा जा सकता है।
(5)समस्या नहीं समाधान स्वरूप : – जिस वक़्त लक्ष्मण रण भूमि में मूर्छित हो गए, उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरे पहाड़ उठा लाए, क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे। हनुमान जी यहां हमें सिखाते हैं कि मनुष्य को शंका स्वरूप नहीं, वरन समाधान स्वरूप होना चाहिए।
(6)भावनाओं का संतुलन : – लंका के दहन के पश्चात् जब वह दोबारा सीता जी का आशीष लेने पहुंचे, तो उन्होंने सीता जी से कहा कि वह चाहें तो उन्हें अभी ले चल सकते हैं, पर “मै रावण की तरह चोरी से नहीं ले जाऊंगा। रावण का वध करने के पश्चात ही यहां से प्रभु श्रीराम आदर सहित आपको ले जाएंगे।” रामभक्त हनुमान अपनी भावनाओं का संतुलन करना जानते थे, इसलिए उन्होंने सीता माता को उचित समय (एक महीने के भीतर) पर आकर ससम्मान वापिस ले जाने को आश्वस्त किया।
(7)आत्ममुग्धता से कोसों दूर :- सीता जी का समाचार लेकर सकुशल वापस पहुंचे श्री हनुमान की हर तरफ प्रशंसा हुई, लेकिन उन्होंने अपने पराक्रम का कोई किस्सा प्रभु राम को नहीं सुनाया। यह हनुमान जी का बड़प्पन था,जिसमे वह अपने बल का सारा श्रेय प्रभु राम के आशीर्वाद को दे रहे थे। प्रभू श्रीराम के लंका यात्रा वृत्तांत पूछने पर हनुमान जी जो कहा उससे भगवान राम भी हनुमान जी के आत्ममुग्धताविहीन व्यक्तित्व के कायल हो गए।
“ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं, जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभाव बड़वानलहि ,जारि सकइ खलु तूल ।।
(8)नेतृत्व क्षमता : – समुद्र में पुल बनाते वक़्त अपेक्षित कमजोर और उच्चश्रृंखल वानर सेना से भी कार्य निकलवाना उनकी विशिष्ठ संगठनात्मक योग्यता का परिचायक है। राम-रावण युद्ध के समय उन्होंने पूरी वानरसेना का नेतृत्व संचालन प्रखरता से किया।
(9)बौद्धिक कुशलता और वफादारी : – सुग्रीव और बाली के परस्पर संघर्ष के वक़्त प्रभु राम को बाली के वध के लिए राजी करना, क्योंकि एक सुग्रीव ही प्रभु राम की मदद कर सकते थे। इस तरह हनुमान जी ने सुग्रीव और प्रभु श्रीराम दोनों के कार्यों को अपने बुद्धि कौशल और चतुराई से सुगम बना दिया। यहां हनुमान जी की मित्र के प्रति ‘वफादारी’ और ‘आदर्श स्वामीभक्ति’ तारीफ के काबिल है।
(10)समर्पण : – हनुमान जी एक आदर्श ब्रह्चारी थे। उनके ब्रह्मचर्य के समक्ष कामदेव भी नतमस्तक थे। यह सत्य है कि श्री हनुमान विवाहित थे, परन्तु उन्होंने यह विवाह एक विद्या की अनिवार्य शर्त को पूरा करने के लिए अपने गुरु भगवान् सूर्यदेव के आदेश पर किया था। श्री हनुमान के व्यक्तित्व का यह आयाम हमें ज्ञान के प्रति ‘समर्पण’ की शिक्षा देता है। इसी के बलबूते हनुमान जी ने अष्ट सिद्धियों और सभी नौ निधियों की प्राप्ति की।
     बड़ी विडंबना है कि दुनिया की सबसे बड़ी युवा शक्ति भारत के पास होने के बावजूद उचित जीवन प्रबंधन न होने के कारण हम युवाओं की क्षमता का समुचित दोहन नहीं कर पा रहे हैं। युवाओं के बीच खासे लोकप्रिय श्री हनुमान निश्चित रूप से युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श हैं, क्योंकि हनुमान जी का चरित्र अतुलित पराक्रम, ज्ञान और शक्ति के बाद भी अहंकार से विहीन था।
आज हमें हनुमान जी की पूजा से अधिक उनके चरित्र को पूजकर उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है, जिससे हम भारत को राष्ट्रवाद सरीखे उच्चतम नैतिक मूल्यों के साथ ‘कौशल युक्त’ भी बना सकें।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मंगलवार, 10 सितंबर 2024

रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस


रामचरितमानस की काव्यभाषा में रस
कविता भाषा की एक विधा है और यह एक विशिष्ट संरचना अर्थात् शब्दार्थ का विशिष्ट प्रयोग है। यह (काव्यभाषा) सर्जनात्मक एक सार्थक व्यवस्था होती है जिसके माध्यम से रचनाकार की संवदेना, अनुभव तथा भाव साहित्यिक स्वरूप निर्मित करने में कथ्य व रूप का विषिष्ट योग रहता है। अत: इन दोनों तत्त्वों का महत्त्व निर्विवाद है। कवि द्वारा गृहित, सारगर्भित, विचारोत्तोजक कथ्य की संरचना के लिए भाषा का तद्नुरूप प्रंसगानुकूल, प्रवाहनुकूल होना अनिवार्य है। भाषा की उत्कृष्ट व्यंजना शक्ति का कवि अभिज्ञाता व कुशल प्रयोक्ता होता है। रचनाकार अपनी अनुभूति को विशिष्ट भाषा के माधयम से ही सम्प्रेषित करता है, यहीं सर्जनात्मक भाषा अथवा साहित्यिक भाषा ‘काव्यभाषा’ कहलाती है। काव्यभाषा के संदर्भ में रस का महत्तवपूर्ण स्थान है। प्रौढ और महान् कवि काव्यषास्त्र के अन्य तत्त्वों की अपेक्षा रस से मुख्यतया अपने काव्य में रसयुक्त भाव की सृष्टि करता है।
    व्युत्पत्ति की दृष्टि से रस शब्द रस् धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है स्वाद लेना। रस शब्द स्वाद, रुचि, प्रीति, आनन्द, सौंदर्य आदि के साथ ही तरल पदार्थ, जल, आसव आदि भौतिक अर्थो में प्रयुक्त होता रहा है। रस का व्याकरण सम्मत अर्थ है-‘रस्यते आस्वधते इति रस:’ अर्थात जिसका स्वाद लिया जाय या जो आस्वादित हो, उसे रस कहते हैं। रस सिद्धांत के अनुसार काव्य की आत्मा रस है। इससे काव्यवस्तु की प्रधानता लक्षित होती है,विभिन्न रसों के अनुरूप काव्यरचना करने में काव्यभाषा की स्पष्ट झलक है। अनुभूति जब हृदय में मंडराती है, वह अरूप और मौन है पर इससे ही अभिव्यक्त होती है तो किसी न किसी भाषा में ही होती है। अभिनव गुप्त ने लिखा है कि शब्द-निष्पीङन में काव्यानंद की प्राप्ति होती है। यह शब्द-निष्पीङन काव्यभाषा का काम है। इन्होंने (अभिनवगुप्त) अभिधा और व्यंजना को स्वीकारते हुए रसों की अभिव्यक्ति स्वीकार की है।
  आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में रस को परिभाषित करते हुए लिखा है-जिस प्रकार नाना भॉति के व्यंजनों से सुसंस्कृत अन्न को ग्रहण कर पुरुष रसास्वादन करता हुआ प्रसन्नचित्त होता है, उसी प्रकार प्रेषक या दर्शक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों से युक्त स्थायी भाव का आस्वादन कर हर्षोत्फुल्ल हो जाता है।
       आचार्य मम्मट के अनुसार लोक में रति आदि चित्तवृत्तियों के जो कारण, कार्य और सहकारी होते हैं, वे ही काव्य अथवा नाटक में विभाव, अनुभाव एवं संचारी या व्याभिचारी भाव कहे जाते हैं तथा उन विभावादि के द्वारा व्यक्त (व्यंजनागम्य) होकर स्थायी भाव रस कहा जाता है।
        आधुनिक रसवादी आलोचक डॉ. नगेंद्र भी साधरणीकरण को भाषा का धर्म मानते हैं।
      रामचरितमानस में काव्य-स्वीकृत सभी रसों की सुंदर योजना की गईं हैं । महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने भक्तयात्मक व्यक्तित्व के प्रभाव से भक्ति नामक भाव को ‘भक्तिरस’ में प्रतिष्ठित भी कर दिया है।
     आज तक रसों की स्वीकृत संख्या बारह तक पहुंची है। वे ये हैं -शृगांर, हास्य, करूण; रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शान्त, वात्सल्य, सख्य, और भक्तिरस।
     आइए आज हम रामचरितमानस में रस संयोजन को देखते हैं।
(1)शृंगार रस- शृंगार रस का स्थायी भाव ‘रति’ है और नायक- नायिका आलंबन और आश्रय हैं। शृंगार शब्द ‘शृंग’ और ‘आर’ के योग से निष्पन्न हुआ है।आचार्य भरत के अनुसार शृंगार रस उज्ज्वल वेशात्मक, शुचि और दर्शनीय होता है। प्रेमियों के मन में संस्कार-रूप से वर्तमान रति या प्रेम रसावस्था को पहुँचकर जब आस्वादयोग्यता को प्राप्त करता है तब उसे शृंगार रस कहते हैं।गोस्वामीजी भक्ति-रस के समर्थक हैं। परंतु कवि-कर्म की दृष्टि से शृंगार रस का भी वर्णन रामचरितमानस में आया है, जिससे भाव चित्रों की रमणीयता बढ गयी है। शृंगार के दो भेद हैं-
(क) संयोग शृंगार–
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। 
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥

भये विलोचन चारु अचंचल।
मनहु सकुचि निमि तजेउ दिंगचल॥

देखि सीय सोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

थके नयन रघुपति छबि देंखे।
पलकन्हिहूं परिहरिं निमेषें॥

अथिक सनेह देह भइ भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

(ख) वियोग शृंगार-

घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥

दामिनी दमक रह न घन माहीं।
खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥

नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। 
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।

(2 )हास्य रस –विकृत वेश- रचना या वचन भंगी के द्वारा हास्य रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायी भाव हास है और आलंबन है-विचित्र वेशभूषा, व्यंग्य भरे वचन, उपाहासास्पद व्यक्ति की मुर्खताभरी चेष्टा, हास्योपादक पदार्थ, निर्लज्जता आदि। हास्यवर्द्धक चेष्टाएँ इसके उद्दीपन हैं और गले का फुलाना, असत् प्रलाप, ऑंखों का मींचना, मुख का विस्फारित होना तथा पेट का हिलना आदि अनुभाव हैं। इसके संचारी अश्रु, कंप, हर्ष, चपलता, श्रम, अवहित्था, रोमांच, स्वेद, असूया आदि हैं।  रामचरितमानस में हास्य रस के निम्न उदाहरण देखने को मिलते हैं-
मर्कट बदन भेकर देही। देखत हृदय क्रोध भा तेही॥
जेही दिसि नारद फूली। सो दिसि तेहि न बिलोकी भूली॥
पुनि पुनि मुनि उकसाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं॥11

(3 )करुण रस- इष्ट की हानि, अनिष्ट की प्राप्ति, धननाश या प्रिय व्यक्ति की मृत्यु में करूण रस होता है। इसका स्थायी भाव शोक है आलंबन के अंतर्गत पराभाव आदि आते हैं। प्रिय वस्तु आदि के यश, गुण आदि का स्मरण आदि उद्दीपन हैं। अनुभाव हैं- रूदन, उच्छ्वास मुर्च्छा, भूमिपतन, प्रलाप आदि। संचारी भावों में व्याधि, ग्लानि, दैन्य, चिंता, विषाद एवं उन्माद आदि। तुलसी के रामचरितमानस में भी करूण -रसकी छटा देखने को मिलती है-
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहु कर धीरज कर धीरजु भागा॥
सोक बिलाप सब रोबहिं रानी। रूप सीलु बलु तेजु बखानी॥
करहीं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमि तल बारहीं बारा॥1
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदन करहिं पुरबासी॥
अथएउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधी गुन रूप निधानू॥

(4 )रौद्र रस-शत्रु के असहनीय अपराध या अपकार के कारण क्रोध भाव की पुष्टि से रौद्ररस उत्पन्न होता है। क्रोध इसका स्थायी भाव है। इसके अनुभाव हैं-विकत्थन, ताडन, स्वेद आदि तथा आलंबन- विरोधियों द्वारा किए गए अनिष्ट कार्य,अपराध,एवं अपकार होते हैं। संचारी भाव हैं- उग्रता, अमर्ष, चंचलता, उध्देग, मद, असूया, श्रम, स्मृति, आवेग आदि। रामचरितमानस में भी रौद्र रस  अनेक प्रकरणों में देखने को मिलता है-
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जङ जनक धनुष कै तोरा॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥
परसुरामु तब राम बोले उर अति क्रोधु।
संभू सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥

(5 )वीर रस-जब उत्साह के भाव का परिपोषण होता है तो वीर रस की उत्पत्ति होती है। वीर तीन प्रकार हैं- युद्धवीर, दानवीर और दयावीर। इसका स्थायी भाव उत्साह है और शत्रु, विद्वज्जन, दीन आदि आलंबन होते हैं। इसके अनुभाव हें- शौर्य, दान, दया आदि और अपकार, गुण, कष्ट आदि उद्दीपन हैं। आवेग, हर्ष, चिंता आदि संचारी होतो हैं।  रामचरितमानस में  वीर रस अनेक रूप में देखने को मिलता है-
रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥

(6 ) भयानक रस – भयंकर परिस्थिति ही भयानक रस की उत्पत्ति का कारण है। भयदायक पदार्थो के दर्शन, श्रवन अथवा प्रबल शत्रु के विरोध के कारण भयानक -रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायी भाव भय है और व्याघ्र, सर्प, हिंसक प्राणी, शत्रु आदि आलंबन हैं। हिंसक जीवों की चेष्टाएँ, शत्रु के भयोत्पादक व्यवहार, विस्मयोपादक ध्वनि आदि उद्दीपन हैं। अनुभाव, रोमांच, स्वेद, कंप, वैवर्ण्य, रोना, चिल्लाना आदि हैं। संचारी भाव हैं- शंका, चिंता, ग्लानि, आवेग, मुर्च्‍छा, त्रास, जुगुप्सा, दीनता आदि।  रामचरितमानस में भयानक रस अनेक रूप में देखने को मिलता है-
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भंयकर प्रगटत भई॥
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥

(7 )बीभत्स रस- घृणोंत्पादक पदार्थों के देखने ,सुनने से घृणा या जुगुप्सा रस होता है। इसका स्थायी भाव जुगुप्सा है। श्‍मशान, शव, सङामांस, रूधिर, मलमूत्र, घृणोत्पादक पदार्थ आदि आलंबन है। उद्दीपन भाव हैं गीधों का मांस नोचना,कीङों-मकोङो का छटपटाना,कुत्सित रंग-रूप आदि। आवेग ,मोह, जङता, चिंता, व्याधि, वैवर्ण्य, उन्माद, निर्वेद, ग्लानि, दैन्य आदि संचारी भाव हैं। रामचरितमानस  में भी यह रस अनेक स्थानों पर  देखने को मिलता हैं-
काक कंक लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥

खैंचहि गीध ऑंत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥

बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं।जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥

(8 )अद्भूत रस-दिव्य दर्षन ,इंद्रजाल या विस्मयजनक कर्म एवं पदार्थों के देखने से आष्चर्य है। अलौकिक घटना और अद्भुत इसके आलंबन हैं। अनुभाव है- निर्निमेष, दर्शन, रोमांच, स्वेद, स्तंभ आदि। इसके संचारी भाव जङता, दैन्य, आवेग, शंका, चिंता, वितर्क, हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि हैं। रामचरितमानस में भी यह रस हमें अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है-
जोजन भर तेहि बदनु पसारा।कवि तनु कीन्ह दुगन विस्तारा॥
सोरह जोजन तेहि आनन ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥
जस जस सुरसा बदन बढावा। तासु दून कपि रूप दिखावा॥
सत जोजन तेहि आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवन सुत लीन्हा॥

(9) शान्त रस –तत्त्वज्ञान एव वैराग्य से शान्त रस उत्पन्न है। इसका स्थायी भाव निर्वेद है और आलंबन है मिथ्या रूप से ज्ञात संसार तथा परमात्म-चिंतन आदि। इसके अनुभाव हैं- शास्त्र-चिंतन, संसार की अनित्यता का ज्ञान आदि। शांत रस कं संचारी भाव मति, धैर्य, हर्ष आदि हैं। इसके उद्दीपन पुण्याश्रम, तीर्थ-स्थान, रमणीय वन एवं सत्संगति हैं।  रामचरितमानस में भी इस रस को  देखते हैं-
रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरइ। होइ सुखी जौं एहिं सर परई॥
करि बिनती मंदिर लै तारा। करि बिनती समुझाव कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥

(10) वात्सल्य रस-पुत्रादि के प्रति माता-पिता के स्नेह से वात्सलरस उत्पन्न होता है। इसका स्थायी भाव है- संतान के प्रति रति या वात्साल्य प्रेम  है और पुत्रादि आलंबन हैं। शिर चुबंन, आलिंगन आदि अनुभाव हैं और पुत्रादि की चेष्टाएँ उद्दीपन। अनिष्ट, शंका, हर्ष, गर्व आदि को वत्सलरस का संचारी माना गया है।  रामचरितमानस में  यह रस  अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है- इसके भी दो भेद हैं 

(क) संयोग वात्सल्य-
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक ठुमुक प्रभु चलहिं पराई॥

(ख)वियोग वात्सल्य-

सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ॥

(11 ) साख्य रस –इस रस में मित्रता का भाव होता है। इस महाकाव्य में भी सख्य भाव के रस को  देखते हैं -
तुम मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि तानां मित्रक दुख रज मेरु समाना॥

(12) भक्ति रस- ईश्‍वर-प्रेम के कारण भक्ति रस उत्पन्न होता है। इसके आलंबन हैं भगवान् और उनके वल्ल्भरूप, राम, कृष्ण, आदि अन्य अवतार। भगवान् के गुण, चेष्टा, प्रसाधन, ईश्‍वर के अलौकिक कार्य, सत्संग एवं भगवान् की महिमा का गान आदि इसके उद्दीपन हैं। नृत्य, गीत, अश्रुपात, नेत्रनिमीलन आदि भक्ति रस के अनुभाव हैं और हर्ष, गर्व, निर्वेद, मति आदि संचारी भाव हैं। रामचरितमानस में यह रस अनेक रूप से देखने को मिलता है-
मति अति नीच उँचि रुचि आछी।चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरी ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मंगल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामचरित चित चाऊ॥

गोस्वामीजी  का रस स्वरूप सहृदय पाठक के चित के आवरण को दूर करने के कारण, चित का मद, मोह, काम, क्रोध, दंभ आदि भावनाओं से विमुक्ति दिलाने के कारण,मन में विवेक रूपी पावक को अरनी के समान जगाने के कारण, गृह कारज संबंधी वैयक्ति जंजालों से मुक्ति के कारण,  कलिकलुष मिटाने के कारण, मानस का  भक्ति रस अलौकिक तथा ब्रहमानंद सहोदर कोटि का है।
  इससे यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि गोस्वामीजी  के रस तत्त्व में सहृदयों की सभी इच्छाएँ निहीत है। इनकी रस संबंधी धारणा में सहृदयों की सभी मनोवृत्तियो, सभी प्रमुख भावों, साधित भावनाओं, सहचर भावनाओं, सभी आदर्शों, मूल्यों, सत्-चित आनंद तत्त्वों, उदात्त् तत्त्वों,  वास्तविकताओं, कल्पना, चिंतन, अनुभूति तत्त्वों, पुरुषार्थ सिद्धियों का समावेश है अन्यथा उनका रस तत्त्व सबको अनुरंजित करने में सफल नहीं होता। इनका काव्यरस इतना उच्च कोटि का है वह विरोधी को भी विभोर कर देता है, शत्रु  भी सहज बैर को भुलकर काव्यानंद द्वारा उसके आस्वादन में मग्न हो जाता है। गोस्वामी द्वारा संकेतित रस इतना उच्च कोटि का है कि वह सब प्रकार के मानसिक रोगों को नष्ट करने वाला है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।

✓हनुमानजी ने मेघनाद का रथ क्यों तोड़ा?

हनुमानजी ने मेघनाद का रथ क्यों तोड़ा?
रावण ने जब सुना, कि उसका पूत्र अक्षय कुमार भी काल की भेंट चढ़ गया है। तो वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसे तो इस बात की स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी, कि कोई वानर इस अभेद्य लंका नगरी में आयेगा, और ऐसा साहस करेगा, कि मेरी मूँछ का बाल ही उखाड़ कर ले जायेगा। यह कोई यूँ ही भुला देने वाली घटना नहीं थी। अबकी बार रावण को लगा, कि बैरी सचमुच ही बलवान है। रावण को इच्छा हुई, कि निश्चित ही ऐसे वानर को देखना चाहिए। वध तो उसका मैं कभी भी कर डालूंगा। लेकिन पहले मैं उसकी सूरत तो देख लूँ, कि वह वानर कैसा प्रतीत होता है। इसलिए मैं अब अपने पुत्र मेघनाद को भेजता हूँ और उसे ठोक कर कहता हूँ, कि वह अबकी बार उस वानर को मारे नहीं, अपितु उसे पकड़ कर मेरे पास लेकर आये-
‘सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।’
बस फिर क्या था, इन्द्र को जीतने वाला अतुलित योद्धा मेघनाद पूरे बल व शौर्य को साथ ले चला। मेघनाद भी अपने भाई के मारे जाने से  क्रोध में था। किसी भयंकर कोबरे की भाँति ही, मेघनाद भी फुंफकारता हुआ अशोक वाटिका में प्रवेश करता है। श्रीहनुमान जी ने देखा, कि अबकी बार रावण ने बड़ा भारी योद्धा को भेजा है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े-
‘चला इन्द्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।’
श्रीहनुमान जी ने के लड़ने का तरीका ही बड़ा विलक्षण है। वे अपनी गदा का प्रयोग कर ही नहीं रहे। अन्यथा मेघनाद की क्या बिसात थी, कि वह श्रीहनुमान जी के मार्ग पर एक कदम भी बढ़ पाता। कारण कि अगर श्रीहनुमान जी सहज ही अपनी गदा को लंका की धरा पर पटक देते, तो पूरी लंका नगरी के गुम्बद ढह जाते। फिर मेघनाद की क्या हस्ती, कि वह श्रीहनुमान जी के समक्ष खड़ा भी रह पाता। लेकिन श्रीहनुमान जी हैं कि अपनी गदा का प्रयोग कर ही नहीं रहे। वे तो बस अशोक वाटिका के वृक्षों को उखाड़-उखाड़ कर ही राक्षसों का संहार किए जा रहे हैं। मानो श्रीहनुमान जी का क्रोध राक्षसों के साथ-साथ, अशोक वाटिका के वृक्षों पर भी बरस रहा था। वह इसलिए, क्योंकि इन वृक्षों में भी बला का छल था। माता सीता जी जिस वृक्ष के नीचे विराजमान थी। वह भी मात्र नाम का ही ‘अशोक वृक्ष’ था। वह वास्तव में किसी को शोक  रहित  नहीं कर पा रहा था। अपितु वह तो माता सीता जी के दुख का आठों प्रहर साक्षी बना रहा। और एक क्षण के लिए भी, सीता मईया का कष्ट हरण नहीं कर पाया। वाह री लंका नगरी, नाम कुछ और, और काम कुछ और। तो क्या करना ऐसे प्रपंची व पाखंड़ी वृक्षों का, जो अपने नाम के अनुसार व्यवहार ही नहीं कर पा रहे हों। श्रीहनुमान जी रावण को यही संदेश देना चाह रहे थे, कि हे रावण यह बात अपने हृदय में ठीक से धारण कर लो कि तुम्हारा छल व कपट तब तक ही अस्तित्व में है, जब तक तुम्हारा सामना संत से नहीं हो जाता। संत ऐसे कपट से भरे धूर्तों को यूँ ही जड़ से उखाड़-उखाड़ कर फेंकते हैं। मानो श्रीहनुमान जी कहना चाह रहे हों, कि हे रावण जैसे मैं इन वृक्षों को उखाड़-उखाड़ कर फेंक रहा हूँ, ठीक ऐसे ही मैं तुम्हें और तुम्हारे प्रत्येक दुष्ट राक्षस को उखाड़-उखाड़ कर नष्ट करूँगा। श्रीहनुमान जी ने मेघनाद को देख कर जो वृक्ष उखाड़ा था, उन्होंने उस वृक्ष का ऐसा प्रहार किया, कि मेघनाद का रथ ही तोड़ डाला, और उसे बिना रथ के कर डाला। मेघनाद नीचे गिर गया। और श्रीहनुमान जी मेघनाद के संग आये राक्षसों को अपने शरीर के साथ मसल-मसल कर प्राणहीन करने लगे-
‘अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा।।’
श्रीहनुमान जी ने मेघनाद का रथ तोड़ा, तो यह भी मेघनाद के लिए एक संदेश ही था। वह यह कि हे मेघनाद तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं, कि किसी संत से भेंट करने जाओ, तो अपने रथ पर चढ़ कर थोड़ी न जाते हैं। कारण कि रथ तो जीव के अहंकार व वैभव का प्रतीक होता है। और संत के पास अहंकार का त्याग करके जाते हैं, न कि अहंकार पर सवार हो कर। लेकिन तुम्हें इन संस्कारों से क्या वास्ता। कारण कि सुसंस्कारों से तो, तुम लंका वासियों का कोई दूर-दूर तक लेना देना नहीं है। इसलिए चलो मैं स्वयं ही तुम्हें रथहीन कर देता हुँ। क्या पता तुम कुछ समझ ही जाओ। पर श्रीहनुमान जी को भी क्या पता था, कि मेघनाद तो रावण से भी बड़ा अहंकारी था। कारण कि, उसने तो वह कर दिखाया था, जो रावण भी नहीं कर सका था। और वह था, स्वर्ग को जीतना। मेघनाद ने स्वर्ग नरेश इन्द्र को न केवल पराजित किया था, अपितु उसे बंदी बना कर, उसका लंका नगरी में जुलूस निकालते हुए, भरी सभा में रावण के समक्ष प्रस्तुत किया था। जिसके कारण मेघनाद को एक नया नाम ‘इन्द्रजीत’ मिला था। और ऐसा ही आदेश रावण ने फिर से मेघानद को दिया था, कि जाओ पुत्र मेघनाद! उस वानर को बाँध कर मेरे समक्ष ले आओ। आज रावण और मेघनाद दोनों  ही उस  विजय रथ के गर्व से भरे थे अतः उनके गर्व के इस रथ को भी नेस्तनाबूत  करने के लिए श्री हनुमानजी ने उसके रथ को तोड़ा।
जय श्री राम जय हनुमान


✓श्री हनुमानजी के किन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रहा गया था अभिमानी रावण?

श्री हनुमानजी के किन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रहा गया था अभिमानी रावण?
श्रीहनुमान जी रावण को जो उपदेश दे रहे हैं, वे मात्र केवल रावण पर ही क्रियावन्त हेतु नहीं हैं। अपितु जिस-जिस का भी मन प्रभु से विमुख है, और जो अभिमान में सर्वदा चूर है, वे सब श्रीहनुमान जी के इस श्रेष्ठ व पावन संदेश के अधिकारी हैं। रावण की समस्या का मूल क्या है? एक अहंकार ही तो जो  उसे प्रभु मार्ग की ओर जाने से रोक रहा है ? अन्यथा रावण जैसे कुल, तपस्या अथवा संपत्ति इत्यादि की पूरे संसार में  कोई काट नहीं। श्रीहनुमान जी द्वारा दिए गए उदाहरण कितने प्रासंगिक हैं, यह देखते ही बनता है। श्रीहनुमान जी कहते हैं 
‘राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।’
श्रीहनुमान जी रावण पर ऐसे शब्दों के बाण चला रहे हैं, कि रावण पर इसका प्रभाव होना ही बनता था। रावण तो था ही कामी व स्त्री मोह से ग्रसित। और श्रीहनुमान जी ठहरे अखण्ड ब्रह्मचारी। उनके मुख से निश्चित ही ऐसा उदाहरण, आज प्रथम और अंतिम बार निकल रहा था। क्योंकि किसी नारी के बारे में श्रीहनुमान जी द्वारा, ऐसे निम्न से भासित होने वाले शब्दों का उच्चारण करना,
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी।।’
एक परिकल्पना-सी लगता है। श्रीहनुमान जी ने रावण से पूछा, कि क्या उसने किसी स्त्री को नग्न अवस्था में देखा है? अब रावण से यह प्रश्न पूछना कुछ ऐसे था, मानो किसी बिल्ली से पूछा जा रहा था, कि क्या उसने कभी किसी चूहे का शिकार किया है, अथवा कभी दूध के कटोरे को देख कर, जिह्वा से लार तो नहीं टपकी? इसका प्रति ऊत्तर क्या है, पाठक गण भलि भाँति जानते हैं। रावण ने देखा कि वाह! वानर तो बड़ा रसिक प्रवृति का है। लेकिन तनिक भोला-सा भी है। भला मुझसे ऐसा प्रश्न पूछने की नादानी क्यों की जा रही है। चलो कोई नहीं। पर इसे मेरी आँखों की चमक देख कर स्वयं ही समझ लेना चाहिए, कि मैंने किसी नग्न स्त्री का दर्शन किया है, अथवा नहीं। श्रीहनुमान जी ने रावण का उत्तर उसके ललचाये नेत्रों से पढ़ ही लिया था।
श्रीहनुमान जी ने अगला प्रश्न किया, कि हे रावण! क्या तुम्हें किसी भी स्त्री को श्रृँगार किए देखना प्रिय लगता है ? रावण ने कहा कि हाँ भई, श्रृँगार से सजी स्त्री भला किसे प्रिय नहीं होगी। और मुझे तो ऐसी स्त्री विशेष रूप से प्रिय है। लेकिन यह सब पूछने का तुम्हारा ध्येय समझ में नहीं आ रहा। यह सुन श्रीहनुमान जी ने कहा, कि बस---बस। एक अंतिम प्रश्न और। वह यह कि अगर वह श्रृँगार किसी नग्न स्त्री का  कर दिया जाय,गहनों से उसका पूरा तन सजा दिया जाय, तो क्या वे आभूषण उस नग्न स्त्री पर शोभायमान होंगे? तुम्हारी मुखाकृति स्पष्ट कह रही है, कि तुम भी ऐसे  श्रृँगार का समर्थन नहीं करते। यह निश्चित ही आकर्षण हीन होने के साथ-साथ, अमर्यादित भी होगा। हे रावण, ठीक इसी प्रकार, भले ही तुम्हारी लंका में पग-पग पर सोना मढ़ा हो। समस्त लोक पाल, दिकपाल तुम्हारे चाकर हों। तुमने काल को भी वश में कर लिया हो। लेकिन तब भी, अगर तुम्हें श्रीराम नाम की धुन नहीं लगी, व तुम्हारे रोम-रोम में मायापति नहीं हैं, अपितु माया है, तो यह दृढ़ भाव से मान कर चलना, कि तुम्हारा समस्त वैभव व कीर्ति भी उस नग्न स्त्री के श्रृँगार के ही मानिंद है।
रावण ने जब यह सुना, तो वह दंग रह गया। कि यह वानर तो बातों का जाल ही बिछा देता है। इसकी बातों में तो कोई भी उलझ कर रह जाये। लेकिन श्रीहनुमान जी को रावण की तो  सुननी ही नहीं थी, अपितु उसे सुनानी थी। श्रीहनुमान जी ने फिर कहा, कि हे रावण, माना कि तुम्हारे पास इस धरती की अथाह धन संपदा है। वह तो होगी ही, कारण कि तुमने तीनों लोकों पर विजय जो प्राप्त कर ली है। यह इतनी संपत्ति है, कि अगर तुम अपनी बीसों भुजाओं से भी, आठों पहर इसे लुटाते रहो, तो सौ कल्प तक भी यह संपत्ति समाप्त नहीं होगी। लेकिन यह भी सत्य मानना, कि अगर तुम ऐसे ही राम विमुख बने रहे, तो तुम्हारी प्रभुता और संपत्ति ऐसे चली जायेगी, जैसे मुठ्ठी में पकड़ी बालु की रेत फिसल कर निकल जाती है। समझ लो कि ऐसी संपत्ति का तुम्हारे पास होना, अथवा न होना, एक समान है। कारण कि जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं होते, अर्थात जिन्हें केवल बरसात का ही सहारा होता है, वे बरसात बीत जाने पर, फिर तुरन्त ही सूख जाती हैं-
‘राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं।।’
इसलिए हे रावण, मेरी कही पर विश्वास करो और श्रीराम जी का भजन करो। मुझे पता है, कि तुम्हारा अभिमान ही तुम्हारे कल्याण में बाधा है।ऐसा अभिमान किस काम का। जो महाप्रलयकारी मोह  के मूल से बधा हो। तो तुम  क्यों न इस अति पीड़ादायक तमरूप अभिमान का त्याग कर द रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्रीरामचन्द्र जी का भजन करते हो-
‘मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।’
श्रीहनुमान जी निःसंदेह भक्ति, ज्ञान व वैराग्य से भरपूर उपदेश दे रहे थे। जिन्हें सुन विषयी से विषयी व्यक्ति का भी हृदय द्रवित हो जाये।
जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
लेकिन रावण है कि पिघलता ही नहीं। और तो और रावण ने, श्रीहनुमान जी को अब तो यह  कह डाला, कि 
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
ऐसी स्थिति में श्रीहनुमान जी के स्थान पर, कोई अन्य भक्त होता, जो हनुमानजी जैसा शक्तिशाली होता तो निश्चित ही  वह रावण का वध कर डालता। लेकिन वाह  रे हनुमानजी आप रामकाज के लिए सब कुछ सहन कर रहे हैं।आपको शतशत नमन। नित्य का वंदन।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।