रविवार, 29 दिसंबर 2024

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग बत्तीस।।हनुमानजी का विक्रम।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग बत्तीस।।हनुमानजी का  विक्रम।।
विक्रम का अर्थ है मन का संयम जिसने भी अपने मन को साध लिया वह विक्रम है। जिसने मन में संयम कर लिया वह विक्रमी है जो कभी उत्तेजित नहीं होते हैं उस विक्रमी हनुमानजी को कभी उत्तेजना नहीं आती। उनकी कितनी ही प्रशंसा करिए, रावण जैसा महाबली प्रशंसा कर रहा है, हनुमानजी तनिक भी फूले नहीं। कितनी अशिष्ट भाषा रावण ने हनुमानजी से बोला है अरे मूरख! अरे अधम ! अरे निर्लज्ज ! अरे सठ ! यानि।आप कल्पना कर सकते हैं कि इतने बड़े महापुरुष से रावण कितनी अशिष्टता से कहता है। महावीर विक्रम बजरंगी को यह अधम कहता है, निर्लज्ज कहता है, सठ कहता है, मूर्ख कहता है लेकिन सब बातों को सुनकर भी हनुमानजी उत्तेजित नहीं होते। रावण की कितनी भी अशिष्ट भाषा आयी लेकिन वह भाषा हनुमानजी।को उत्तेजित नहीं कर सकी, क्यों? क्योंकि, श्रीहनुमानजी अपने सम्मान के लिए बल का उपयोग नहीं करते।।अपने बल का उपयोग जब भी हनुमानजी करते हैं तो भगवान् के कार्य के लिए करते हैं। उन्होंने तो बोल।दिया, अरे रावण मुझे कोई शर्म संकोच नहीं-
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु करि काजा ।।
हनुमानजी ने कहा कि रावण मुझे बँधन में बँधने में कोई लाज नही हैं। और देखिए! भरी सभा में रावण।अशिष्ट बात बोल रहा है। आपने कभी अनुभव किया है कि घरों में झगड़ा किस बात का है। मित्रों में झगड़ा किस बात का है। सब एक शिकायत करते हैं कि पिताजी को समझाइए यह चार लोगों के बीच में फटकारते हैं, अकेले में आप कुछ कह दीजिए मगर चार लोगों में तो मत कहो। यानि कितना हमारा सम्मान, हमारी नाक पर।रहता है। बाप ने अगर किसी के सामने बेटे को कुछ कह दिया तो इसी पर तूफान मच गया। रावण पूरी भरी सभा में सब देवता जन खड़े हैं और रावण कितनी अशिष्ट भाषा बोल रहा है और हनुमानजी क्या कह रहे हैं-
विनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन ।।
हनुमानजी जब भी बोलते हाथ जोड़ कर हे प्रभु! खायऊँ फल प्रभु लागि भूखा । यह हनुमानजी की कायरता नहीं है। आप इसे हनुमानजी की कायरता समझने की भी भूल मत करना। यह हनुमानजी की विनम्रता है। यह उनकी महानता है। दुष्ट को उसी की भाषा में मत बोलो अन्यथा दुष्टता और बढ़ेगी। दुष्ट के सामने भी।शिष्टता का ही प्रयोग हो । हनुमानजी कभी उत्तेजित नहीं होते क्योंकि मान-सम्मान का कोई भाव ही हनुमानजी।में नहीं है, वह तो मान-अपमान से कभी भी प्रभावित नहीं होते। हमारा जो भी बल है वह केवल हमारे अहम्।की तृप्ति के लिए है। कुछ भी बात हो जाए आप तुरन्त अकड़ जाएंगे। अरे पैसे में क्या रखा है किस काम।आएगा। ऐसा किसलिए है, समझता क्या है अपने को, छठी का दूध याद दिला दूँगा। अरे भई यह मत सोचो कि पैसा किस काम आएगा। विचार करो पैसा किस काम आ रहा है? पैसा किसी को रुला रहा है या हमारा।पैसा किसी रोते हुए को हँसा रहा है। पैसा किसी को गिरा रहा है या गिरे हुए को सहारा देकर उठा रहा है। हमारा पैसा किसी के प्राणों का हरण करने जा रहा है या किसी के प्राणों की रक्षा करने जा रहा है। हमारा पैसा किसी की रोजी-रोटी छीनने में लगा है या किसी की रोजी-रोटी की व्यवस्था में लगा है। यह मत देखो
कि पैसा किस काम आएगा यह देखो कि पैसा किस काम आ रहा है और किस काम आना चाहिए यही
विक्रम है। हनुमानजी रावण की अशिष्ट भाषा में भी मौन यानि एक बार तो रावण ने यहाँ तक कह दिया कि
अरे मूर्ख तेरी मृत्यु निकट आई देख तो सही तेरे बराबर में कौन खड़ा है। तो हनुमानजी ने मुड़कर देखा, बोले
तुझे इससे डर नहीं लग रहा है कि मौत तेरे पास खड़ी है। बोले डर तो नहीं लग रहा है बोले क्यों? तो फिर
हनुमानजी ने कहा खड़ी तो मेरे पास है पर देख तुझे रही है, इसलिए मुझे डर नहीं लग रहा है। पूछा तेरे पास
आकर क्यों खड़ी है, मेरे पास क्यों नहीं आयी? तो बोले पूछने आयी है कि रावण का अभी काम करना है
या कुछ दिन बाद करना है। थोड़ी बहुत हनुमानजी मजाक करते थे अन्यथा हनुमानजी तो मौन ही रहते हैं।
हमारे संतों का कहना है कि-
मूरख कामुक बाँबिया, निकसत बचन भुजंग।
ताकी औषधि मौन है, विष नहिं व्यापत अंग ।।
अगर सामने वाला अशिष्ट है तो आप मौन हो जाइए। अगर एक गाली देगा तो सैकड़ों की संख्या में
वापस आएंगी और अगर मौन हो गए तो एक की एक ही रहती है। हनुमानजी शांत मौन खड़े हैं, उत्तेजित
नहीं होते हैं। मैंने सुना है बड़ी उपहास की कथा है। सही या गलत मुझे नहीं पता लेकिन मैंने सुनी है।
एक बार अकबर ने बीरबल से कहा कि बीरबल हम तुम्हारे पिताजी से मिलना चाहते हैं। हम देखना
चाहते हैं कि जिन्होंने इतने योग्य पुरुष को जन्म दिया है वह पिता कैसे होंगे। हम उनकी भी योग्यता देखना
चाहते हैं। बीरबल ने कहा वह गांव के बूढ़े व्यक्ति; वह कहां राजदरबार में आएंगे? रहने दीजिए। अकबर
बोले, नहीं, हम तुम्हारे पिता जी से मिलना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि जिससे तुम्हारी प्रखर बुद्धि है
हम उनकी भी परीक्षा लेना चाहते हैं। अब यह बड़ा मुश्किल हो गया बीरबल को मालूम है कि वह बिल्कुल
गाँव के हैं उनको कुछ आता जाता नहीं और राजा जिद कर रहा है। अगर पिता जी उनका उत्तर दे न पाए तो
बादशाह पिताजी का अपमान करेंगे जो मैं सह नहीं सकता। न ही राजा से बिगाड़ सकता हूँ। तो क्या करूं?
बीरबल घर आए और पिताजी से कहा कि पिता जी एक धर्म संकट आ गया है। बोले कल आपको राजदरबार
चलना है और सम्राट आपकी योग्यता की परीक्षा लेंगे। वह कितने भी प्रश्न आपसे पूछें बस इतना करना कि
आप मौन रहना, बाकी मैं सम्भाल लूंगा। पिता जी को समझा-बुझाकर दरबार में ले आये। दरबार लगा और
बादशाह का आगमन हुआ। पिताजी को बादशाह ने प्रणाम किया और कहा कि आपने जैसे योग्य पुत्र को जन्म दिया है। हमारी इच्छा थी कि आपका दर्शन करें, आपकी योग्यता का भी दर्शन करें। तो अकबर ने बीरबल के पिताजी से प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया। बीरबल ने पिताजी को देखकर इशारा कर दिया मौन, तो बीरबल के पिताजी कुछ बोले नहीं। दूसरा प्रश्न किया फिर मौन, तीसरा प्रश्न किया फिर मौन अब भरी सभा में बादशाह
का उत्तर न दे, न सिर हिलाए, बिल्कुल जड़वत् से बैठे हैं तो बादशाह का अहंकार जाग गया कि मैं बोल
रहा हूँ मगर यह बूढ़ा मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे रहा है। अकबर बोला, बीरबल एक बात बताओ, अगर
किसी मूर्ख से पाला पड़ जाए तो क्या करना चाहिए? यह अकबर ने बीरबल से प्रश्न किया उनके पिताजी
के लिए। बीरबल ने कहा सरकार उस समय मौन ही रहना चाहिए और कुछ नहीं। बीरबल के पिता को मूर्ख
बोल रहा है। मौन ही होना चाहिए तो। जो किसी प्रकार से उत्तेजित न हो वही विक्रम है, वही बजरंगी है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानसचर्चा।।हनुमान की पूंछ रावण की मूंछ।।

जय श्री राम मानसचर्चा में आप सभी राम भक्तों का स्वागत है ।।गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना।। के आधार पर आज हम 
हनुमान की पूंछ रावण की मूंछ।। पर चर्चा कर रहे हैं । आइए हम इस चर्चा रूपी कथा अमृत का अवगाहन कर प्रभु कृपा प्राप्त करें।हमारे हनुमानजी है"महावीर विक्रम बजरंगी" सामान्यतः बजरंगी का है कि श्री हनुमानजी का हर अंग बज्र जैसा है। रामजी की पूरी सेना में हनुमान जी ही एक ऐसे हैं जिनको कोई परास्त नहीं कर पाया है और ना ही कोई उन पर अस्त्र प्रहार  कर पाया है। सभी मूर्छित हुए हैं भगवान् तक मूर्छित हो गए। मेघनाथ के नागपास ने भगवान् तक को बांध लिया लेकिन हनुमानजी को नहीं। और जो बन्धन  अशोक वाटिका में आया है वह भी हनुमानजी की इच्छा से आया है क्योंकि बँधकर ही वह रावण के दरबार में जाना चाहते हैं और हनुमानजी  संसार यह  को दिखाना चाहते है कि कितना ही बड़ा प्रकृति या परिस्थिति का बंधन आ जाए, भगवान् की कृपा का हमेशा भरोसा करें, क्योंकि वह एक दिन पहले ही तो भगवान् की कृपा का दर्शन कर चुके हैं। जिस समय अशोक वाटिका में जानकीजी को मारने के लिए रावण ने अपनी तलवार निकाली उसी समय मन्दोदरी ने उसका हाथ पकड़ लिया, खबरदार। तभी हनुमानजी समझ गए  कि भगवान् की लीला, जब राम बचाए तो मारे कौन और जब भगवान् मारे तो बचाए कौन। तभी हनुमानजी समझ गए कि मन्दोदरी के रूप में राम ने  ही आकर रावण की तलवार को रोका है वरना वह तलवार से मार सकता था। हनुमानजी को लगा कि कितना भी बड़ा बंधन हो अगर रामजी को मुक्त करना हो तो वह कर देंगे और आज की भरी सभा में रावण ने आदेश कर दिया कि इस वानर को मार डालो और जैसे ही राक्षस तलवार लेकर दौड़े तो उसी समय विभीषणजी का आगमन हो गया, नहीं सरकार ! नीति कहती है कि नीति बिरोध न मारिए दूता ! नीति कहती है कि दूत को मारना नहीं चाहिए, भरी सभा में काल के सामने विभीषण के रूप में भगवान् की कृपा हमारी रक्षा के लिए आती है ,चूंकि हम भगवान् का भजन नहीं करते इसलिए हमें भगवान् की कृपा की अनुभूति नहीं हो पाती है। हर कदम पर तू जहाँ-जहाँ चलेगा मेरा साया साथ होगा, - तू जहाँ-जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा, ऐसे हैं भगवान्। तो भगवान् की कृपा को कभी बिसारिए मत। संसार पर भी भरोसा मत करिए पर राम पर तो  करिए ही।श्रीभरत जी ने कहा है ,मोहे रघुवीर भरोस । हनुमानजी अगर बंधन में भी बँधे हैं तो जगत् को समझाने के लिए बधे हैं कि कितना भी भयानक बंधन क्यों न हो काल भी शीश पर आकर क्यों न खड़ा हो , काल के दरबार में भगवान् विभीषण रूप में खड़े हो जाते हैं, नीति विरोध न मारिय दूता। ऐसे श्रीहनुमानजी "महावीर विक्रम बजरंगी" से कौन युद्ध कर सकता है, सब बचकर भागते हैं। एक बार रावण ने युद्ध में चतुरंगिनी सेना भेजी और भगवान बड़े चिन्तित हो गए कि इनसे कौन मुकाबला करे तो हनुमानजी ने कहा प्रभु क्यों चिंता करते हैं, और कोई नहीं है चतुरंगिनी सेना से लड़ने के लिए तो यह सेवक हनुमान हैं न। हनुमानजी के हाथ में कोई शस्त्र नहीं है, कोई गदा नहीं है, गदा भी जाने कहाँ छिपा दिया । सामान्य काल में हनुमानजी के हाथों में गदा दिखाई देती है लेकिन युद्ध में आप कहीं गदा का वर्णन नहीं सुनेंगे।तो हनुमानजी चतुरंगिनी सेना से भिड़ गए और भगवान् इस तमाशे को लक्ष्मणजी  के साथ खड़े हो कर देख रहे हैं। हाथियों से हाथी मारे, घोड़े से घोड़े संघारे, करें क्या हनुमानजी , हाथियों पर हाथियों को पटक दें और घोड़ों को घोड़ों पर पटक दें, रथों को रथों पर पटक दें। सामने वाले को वैसे पछाड़े और जो पीछे रहे उनको पूँछ में लपेट लपेट कर पटक रहे हैं। और उन्हें सीधे लंका में फेंक देते हैं। प्रभु इस लड़ाई को देख रहे हैं और कह रहे हैं कि लखन देखो लड़ाई, हनुमान् की युद्ध की कला देखो। हनुमानजी क्या सुन्दर लड़ रहे है। जब पूरी चतुरंगिनी सेना मारी गयी तो सायंकाल के समय रावण  पत्रकारों से वार्ता करता है। आज के क्या समाचार हैं तो रावण का जो मुख्य प्रवक्ता है उससे रावण कह रहा है कि- आज तो तहस-नहस करके आई चतुरंगिनी सेना, पत्रकार चेहरा लटकाये बैठा है। तब रावण ने गरज  कर पूछा क्या समाचार है ?तब पत्रकार ने  कहा कि समाचार गम्भीर है। क्या गम्भीर है, बोले , सब मारे गए, अच्छा सब वानर मारे गए। उन्होंने कहा वानर नहीं मारे गए आपकी पूरी सेना मारी गई। बोले पूरी सेना, बोले हाथियों से हाथी मार डाले, घोड़ों से घोड़े मार डाले, रथियों से रथी मार डाले बोले और जो शेष बचे थे उन्हें वानर ने पूँछ में बाँध कर, फेंक कर मार डाला। आपको पता ही है कि रावण हनुमानजी की पूँछ से बहुत चिढ़ता है । लंका में जब हनुमानजी जानकीजी के पास आए तब भी रावण को हनुमानजी की पूंछ ने बहुत परेशान किया है।जब रावण खराटे लेकर सो रहा है, मुंह फाड़ कर सो रहा है तब हनुमानजी ने अपनी पूँछ को उसकी नाक में घुसाया। इस तरह रावण दे छींक, दे छींक मारता है ,और जब रावण फिर खराटे ले तो फिर हनुमानजी नाक में पूँछ घुसा दें। सोते-सोते भी रावण बड़बड़ाता रहा अरे इस वानर की पूँछ को पकड़ो, अरे इस वानर की पूंछ को पकड़ो, सारी लंका में पूँछ ही पूँछ।अब रावण को यह लगा कि कैसे इस वानर को मारा जाए तो रावण ने अपनी साठ हजार सैनिकों की अमर सेना जो अमृत पीए हुए है ,जो कि मरती नहीं है ,अपने सेनापति से बोला इसको भेजो, जाओ और जब अमर सेना को आदेश हुए तो भगवान् भी घबरा गए कि इस सेना को कैसे मारा जाए, यह तो अमर हैं इनको मारा नहीं जा सकता। जिसको किसी भी प्रकार से भगवान् भी मार न पाए वही तो अमर है। और अमर है ऐसा दुर्गुण जिसे न तो संत सुधार पाए न भगवंत सुधार पाए वही तो अमर है। जो मरने को ही तैयार नहीं है जो बुराई मरने को भी तैयार नहीं है उसको कौन मारे ? भगवान् तो घबरा गए हनुमानजी ने कहा भगवन् चिंता मत करो हम हैं न! भगवान बोले- तुम राक्षसों को मार सकते हो,पर यह तो अमर सेना है।।अमर को तो अमर मार सकता है। हनुमानजी ने कहा हम भी अमर हैं चिंता मत करो। तुम अमर कैसे हो । बोले हमको माँ ने आशीर्वाद दिया है।
अजर अमर गुण निधि सुत होऊ । करहिं बहुत रघुनायक छोहू ।।
हम आज देखते हैं कि ये कैसे नहीं मरते हनुमानजी को तो मालूम है कि इनको कितना ही मारो कुछ।भी करो ये मरते तो हैं नहीं तब क्या करें? हनुमानजी ने कहा ऐसी बुराई जो मिटने को तैयार नहीं, मरने को तैयार नहीं, बदलने को तैयार नही, उसको आँखों से दूर कर दो, उसे दृष्टि से हटा लो। बुराई अगर सही नहीं हो रही है तो उसकी उपेक्षा करो, उसको अपनी दृष्टि से दूर कर दो, उसका चिंतन बंद कर दो, अपने आप मर जाएगी। बुरे लोग जीवित क्यों हैं। हमारे द्वारा बुरे लोगों को जीवन प्रदान हो रहा है। मेरा कथन अन्यथा मत लीजिए और उसके लिए मैं किसी और वजह से कह रहा हूँ कि आज समाज में बुराई कितने बड़े पैमाने पर दिख रही है। सच में बुराई दिखाई नहीं दे रही है बल्कि दिखाई जा रही है अखबार के माध्यम से, चैनलों के माध्यम से। इतना बड़ा देश है जिसमें लगभग एक सौ चालीस करोड़ जनता रह रही है। इसमें कुछ न कुछ तो गलत होगा ही, कुछ लोग लड़ेंगे, कुछ अश्लीलता होगी लेकिन वही चीजे खोज-खोज कर, ढूंढ-ढूँढ कर, बीन-बीन कर लाई जा रही है और दिखाई जा रही है। एक चैनल सुबह से वही बुराई चालू करता है। वही नहीं और बताओ क्या हो रहा है? और बताओ कैसा लग रहा है? लोग कैसा कह रहे हैं? तुम्हारे लिए रो रहे हैं। लोग तुम्हारे चैनलों को रो रहे हैं तो बुराई को दिखाइए मत, बुराई को प्रसारित मत करिए, बुराई का प्रदर्शन मत करिए, शुभ का दर्शन कराइए बुराई को अंधेरे में छुपा दीजिए तो बुराई छुप जाएगी, नष्ट हो जाएगी। बुराई को अगर प्रकट करोगे तो ऐसा लगेगा कि सर्वत्र बुराई ही बुराई है। यह जो अमर सेना है, ऐसी बुराई है जो न मरने को तैयार है न सुधरने को ही तैयार है। तो हनुमानजी ने सोचा कि इनको आँखों से दूर कर दूँ। लड़ना तो इनसे बेकार है, सुधार की कोई गुंजाईश नहीं है तो जो खेल में परास्त होता है तोउससे दुश्मनी भी नहीं बनती। इनको खेल में मारो, दूर फेंको इनको। हनुमानजी ने अपनी पूँछ बढ़ाई और साठ हजार अमर सेना को अपनी पूँछ में लपेटा और पहले तो  कसके घुमाया और जब घुमाते घुमाते चक्कर आ गया और यह मूर्छित होने लगे तो हनुमानजी ने इतनी जोर से इन्हें ऊपर फेंका कि जो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति है उसके ऊपर अंतरिक्ष में चले गए। जैसे अंतरिक्ष में यान घूमते रहते हैं। अंतरिक्ष में ऊपर जाओ, हनुमानजी ने कहा, जाओ ऐसे ही चक्कर काटते रहो, वहीं बैठे टीवी देखते रहो, आपस में बात करते रहो, अखबार पढ़ते रहो। मारने की आवश्यकता नहीं पड़ी। आँखों से दूर कर दिया। रावण तो बड़ा प्रसन्न बैठा कॉफी पी रहा है, हुक्का गुड़गुड़ा रहा है। सन्ध्या के समय अखबार वाले फिर आ गए। सारे चैनलों के कैमरे सेट हो गए। रावण आया काफी का कप हाथ में लेकर, बोले क्या समाचार है? पत्रकार बोले- गए-गए। कौन गए? बोले सब गए। बोले क्या सेना सारी लौट गयी, लंका से तपस्वी सारे लौट गए? बोले नहीं तपस्वी और वानर तो सब जमे हुए हैं फिर कौन गया? बोले।आपकी अमर सेना गयी। बोले कि क्या मर गयी? बोले, नहीं अमर सेना मर नहीं सकती, लंका छोड़कर गयी।और केवल लंका छोड़कर नहीं, धरती भी छोड़कर ,आकाश को चली गयी, हमने तो जो देखा है। हमको तो पता नहीं, कहाँ गयी। हमको तो मालूम ही नहीं है, धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के ऊपर चले गए हैं। कैसे गए? बोले पूँछ में लपेट कर अरे क्या बकते हैं? बार-बार पूँछ, काटो पूँछ। सरकार पूँछ कैसे कटेगी? जिस पूँछ को आप नहीं जला पाए, तो चैनल वाले कैसे काट सकते हैं। यह तो पूँछ बढ़ती है, जितनी पूँछ हम काटेंगे उतनी ही बढ़ेगी। उस वानर की विशेषता ही यह है, तब रावण ने सोचा कि पहले पूँछ का ही सत्यानाश किया जाए। पहले इस पूँछ को ही हटाओ। रावण ने अपनी जासूसी से पता लगवाया कि वानर कभी अकेले में भी रहता है क्या? तो पता लगा कि संध्या समय समुद्र के किनारे संध्या वन्दन करते देखा जाता है। देखो इस देश के वानर युद्ध के समय भी सन्ध्या करते हैं, मगर आज का ब्राह्मण भी संध्या नहीं करते हैं। कैसी विचित्र बात है कि वानर सन्ध्या करता है, युद्ध के समय करता है। हम घर में भी नहीं करते। तो रावण ने सुना सन्ध्या के समय समुद्र के किनारे सन्ध्या कर रहा है तो धीरे से रावण आया चोरी से, रावण को चोरी करने की बड़ी आदत है, बहुत बड़ा चोर है। छुपके-छुपके चला आ रहा है। हनुमानजी ध्यान में ही बैठे हैं। इसने आते ही हनुमानजी की पूँछ पकड़ ली। इसको पूँछ से तो चिढ़ थी ही पूँछ को झटका मारता है। कई बार तो गिर पड़ा। जरा सी पूँछ खींची तो धम्म से गिरा तो हनुमानजी इधर-उधर देखें तो इधर-उधर हो जाता, सामने नहीं आता। बार-बार हनुमानजी की पूँछ खींचता है परन्तु पूँछ उखड़ नहीं पा रही है। बहुत देर हो गई, रावण न सामने आने को तैयार, न पूँछ छोड़ने को तैयार है तो हनुमानजी ने जय श्रीराम बोला और  आकाश की और उछाल मार दी। अब हनुमानजी आकाश में उड़े जा रहे हैं। पूँछ रावण के हाथ, रावण डर के मारे बोला, भोलेनाथ, हे शंकर भगवान्, रक्षा करो। अभी तक रावण हनुमानजी की पूँछ उखाड़ता था पर अब डर रहा है कि कहीं पूँछ न उखड़ जाए। हे भगवान् कहीं पूँछ उखड़ी और मैं धम्म से नीचे गिरा तो बे मौत ही मरा। जो रावण अब तक पूँछ उखाड़ने की कोशिश कर रहा है, अब कह रहा है कि हे भगवान्, इस पूँछ से बचाओ पूँछ मत उखड़े। पूँछ की रक्षा करो, पूँछ की रक्षा करो। गोस्वामीजी ने बहुत सुन्दर वर्णन किया है-
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना।।
जैसे ही रावण ने पूँछ पकड़ी हनुमानजी ने उड़ान भर दी फिर आकाश में हनुमानजी ने  रावण की जो धुनाई की है कि  धीरे से रावण ने कहा काहे को मारे डाल रहा है। छोड़ मुझे छोड़। तब हनुमानजी ने रावण को लंका में फेंका है। ऐसे हैं श्रीहनुमानजी 
महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।






मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग इकतीस।।सुरसा और हनुमानजी।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग इकतीस।।सुरसा और हनुमानजी।।
आपने एक घटना सुनी होगी। श्रीहनुमानजी जा रहे थे, देवताओं ने सापों की माँ सुरसा को भेजा। सुरसा ने
मुंह फाड़कर कहा कि मैं तुझे खाऊंगी, हनुमानजी ने कहा, माँ, ऐसे तो इस शरीर का कोई उपयोग नहीं है।
लेकिन मैं रामकाज के लिए जा रहा हूँ तो प्रभु का संदेश माँ को दे आऊँ और माँ का संदेश प्रभु को । इसके
बाद तू खा लेना जैसा तेरा मन करे। सुरसा ने कहा नहीं मैं तो आए शिकार को छोड़ती नहीं हूँ। हनुमानजी
ने कहा नहीं मानती तो खा ले। खाना चाहती हो तो खा लो। सुरसा ने हनुमानजी को निगलने के लिए एक
योजन का मुँह फाड़ा। हनुमानजी ने जयश्रीराम बोला और दो योजन के हो गए क्योंकि हनुमानजी को भगवान
का आशीर्वाद है तैं मम प्रिय लक्ष्मण ते दूना। लक्ष्मणजी साक्षात् नाग हैं और यह नागों की माँ है । शेषनाग
है लक्ष्मण । हनुमानजी दूने हो गए सुरसा ने दो योजन मुँह फाड़ा हनुमानजी चार योजन हो गए। सुरसा ने चार
योजन मुँह फाड़ा हनुमानजी आठ योजन हो गए। सुरसा ने आठ योजन मुँह फाड़ा हनुमान जी सोलह योजन
हो गए। सुरसा ने सोलह योजन मुँह फाड़ा तुरत पवनसुत बत्तीस भयऊ, यानि बत्तीस योजन हो गए। सुरसा
ने बत्तीस योजन मुँह फाड़ा हनुमानजी चौंसठ योजन हो गए और गोस्वामी जी ने लिखा है-
जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा । तासु दून कपि रुप देखावा ।।
सत योजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रुप पवनसुत लीन्हा ॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मांगा बिदा ताहि सिरु नावा ।।
जैसे-जैसे सुरसा बढ़ती गयी हनुमानजी दो गुने होते चले गए।सटक भी नहीं पाई और फिर क्या हुआ श्रीहनुमानजी अति लघु रूप हो गये। अंकगणित में सबसे छोटा अंक एक माना जाता है और जिसकी कोई।कीमत नहीं होती उसे शून्य कहते हैं। हनुमानजी शून्य हो गए। हनुमानजी विराटतम भी हो जाते हैं और अति लघु भी हो जाते हैं। या तो इतने बड़े हो जाओ कि किसी के मुँह में नहीं आओ या तो इतने छोटे हो जाओ कि किसी की आँख को दिखाई न दो यह विक्रम है। किसी भी प्रकार से बड़े होने में भी और लघु होने पर भी जिनका कोई अतिक्रमण न होता हो वह श्रीहनुमानजी हैं। वही बड़े कार्य कर सकते हैं। अंत में हनुमानजी सुरसा का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और वह उनको आशीर्वाद देकर चले जाती हैं।
राम काज सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।।
आसिष देइ गई सो, हरषि चलेउ हनुमान ।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

सोमवार, 23 दिसंबर 2024

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग अठ्ठाईस।।भगवान् के प्रिय।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग अठ्ठाईस।।भगवान् के प्रिय।।
पाँच क्लेश होते हैं और छह विकार होते हैं। कलेश मानसिक होते हैं, विकार शारीरिक होते हैं। पहले विकार मन में आता है तन में उसका प्रदर्शन बाद में होता है।पहले दोष, दुर्गुण मन में आते हैं। चाट खानी है।यह मन मेंआया, पेट में विकार उसके बाद आता है। मदिरा पीनी है मन में विकार पहले आएगा, शरीर नाली में गिरा है विकार बाद में दिखाई देता है। तो यह कलेश है, विकार है, जो मन को मैला करते हैं, तन को रुलाते हैं। वें विकार है और ये दोनों साथ-साथ रहते हैं तन में यदि विकार है तो इसका अर्थ है पहले मन में कोई न कोई विकार अवश्य आया होगा जिसका आपने पालन किया है। परिणाम उसका तन भोग रहा है। इनको यदि कोई दूर कर सकता है तो बल, बुद्धि, विद्या, संकल्प का बल, विचार की शक्ति और अज्ञान के मार्ग से विरक्ति ये तीनों ही आपको अन्याय से, अधर्म से बचा सकते हैं। गोस्वामीजी ने हनुमानजी से विनय की है कि-
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥
श्रीहनुमानचालीसा का शुभारम्भ भी हुआ जय हनुमान् से और समापन भी जय हनुमान् से हो रहा है।
जै जै जै हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाई ॥
जय संकल्प का प्रतीक है। हनुमानजी संकल्प के प्रतीक हैं जो संकल्प लेते हैं वो पूर्ण होता है और जय-विजय का प्रतीक है जय-जय का प्रतीक है। श्रीहनुमानजी की सदा जय होती है। कभी भी हनुमानजी परास्त नहीं होते और केवल गोस्वामीजी कहते हैं जो सदैव हनुमानजी की शरण में रहते हैं उनकी भी हमेशा जय होती है और यह नियम है कि संकल्पवान हमेशा विजयी होता है जो संशय में डूबा है,सन्देह में डूबा है, होगा कि नहीं होगा,वो पराजित होगा।होगा कैसे नहीं हनुमानजी मेरे साथ है इस संकल्प के साथ हम कार्य करेगें तो वह कार्य अवश्य होगा। जय हनुमान् गोस्वामीजी ने हनुमान् शब्द का प्रयोग किया है। हनुमान् का अर्थ है जिन्होंने अपने मान का हनन कर दिया हो जिन्होंने अपने सभी प्रकार के अहं का हनन कर दिया हो, वो हनुमान् है। इनकी बचपन की कथा है जब इनका जन्म हुआ तो अंजनी माता फल लेने के लिए इनको पालने में छोड़कर जंगल में गयी हैं। उस दिन प्रातःकाल आकाश में सूर्य उदित हो रहे थे लाल-लाल रसीला कोई फल।प्रकट हुआ है, ऐसा हनुमानजी को लगा और वहां से उछाल मार दी और उन्होंने सूर्य को पकड़कर मुंह में ले लिया। सारी सृष्टि में अंधकार छा गया। बाद में इन्द्र ने आकर अपने वज्र का प्रहार किया जिससे इनकी ठोढ़ी थोड़ी टेढ़ी हो गई हनुमानजी की तो थोड़ी सी ठोढ़ी टेढ़ी हुई थी परन्तु हनुमानजी से टकराकर इन्द्र का जो वज्र था उसकी धार सदा-सदा के लिए समाप्त हो गई। तबसे इनका नाम हनुमान् पड़ गया। हनु जिनकी थोड़ी सी ठोढ़ी टेढ़ी है उसको हनुमान् कहते हैं। लेकिन हनुमान् के अनेक अर्थ हैं। मूल में हम जिनकी चर्चा करेंगे जिन्होंने अपने मान का हनन कर लिया है। भगवान् की आप झाँकी देखिए इसमें आप हमेशा लक्ष्मणजी को साथ में नहीं देखेंगे। आप हमेशा भरत, शत्रुघ्न जानकीजी को भी साथ नहीं देखेंगे। लेकिन प्रभु की प्रत्येक झाँकी में हनुमानजी को सदा साथ में देखेंगे। हनुमानजी को भगवान सदैव अपने पास रखते हैं क्योंकि इन्होंने अपने मान को छोड़ दिया। इन्होंने तीन चीजें छोड़ीं और जिन्होंने तीन चीजें छोड़ देता है भगवान उन्हें हमेशा अपने।साथ रखतें है। एक तो हनुमानजी ने अपना नाम छोड़ा आज तक कोई हनुमानजी का नाम ही नहीं बता पाया। ये जो हनुमानजी के नाम हैं वे उनके नाम नहीं हैं, गुण हैं। पवनपुत्र, अंजनीसुत, बजरंगबली, वायुपुत्र, महाबली, रामेष्ट, पिंगाक्ष, सीताशोक विनाषन: लक्ष्मणप्राणदाता, ये सब हनुमानजी के नाम नहीं हैं ये तो उनके गुण है।और हम सब नाम के पीछे हैं। हनुमानजी ने जानबूझकर अपना नाम नहीं रखा। हनुमानजी से जब कोई नाम पूछता है तो हनुमानजी कहते हैं अरे, बन्दर का नाम क्या पूछते हो। नाम बन्दर का मत लो नाम तो किसी
सुन्दर का लो। पूछा सुन्दर कौन है, हनुमानजी ने कहा सुन्दर तो केवल दो ही हैं-
जग में सुन्दर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम ।
बोलो राम राम राम, बोलो श्याम श्याम श्याम ||
जो भी कोई नाम पूछता है, हनुमानजी नाम तो नहीं बताते उसको रामकथा सुनाने लग जाते हैं। विभीषणजी के यहाँ हनुमानजी आए पूरी रामकथा सुना दी, तब हनुमंत कही सब राम कथा । तो विभीषण ने कहा महाराज कथा तो बहुत सुन्दर सुनाई आप अपना नाम तो बताइए। हनुमानजी बोले नाम का क्या करोगे? अरे भई जिसने इतनी सुन्दर कथा सुनाई उसका नाम तो मालूम होना चाहिए। हनुमानजी ने कहा नाम तो बता देंगे लेकिन नाम सुनने से पहले नाम का महात्म्य सुन लीजिए। नाम का महात्म्य क्या है बोले-
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।
हनुमानजी ने कहा हमारे नाम का ये महात्म्य है कि अगर प्रातःकाल हमारा नाम ले लोगे तो उस दिन आपको भोजन नहीं मिलेगा, बोले नाम बताएं तो विभीषण जी बोले रहने दो जब भोजन ही न मिले तो नाम का फायदा ही क्या। हनुमानजी अपना नाम छुपाते हैं भगवान की कथा को प्रकट करने के लिए। और हमारे जैसे तो पहले अपना नाम छपवाते हैं, कथा उसके बाद आती है। हनुमानजी अपने नाम को छुपाते हैं कथा को पहले प्रकट करते हैं।
तब हनुमन्त कही सब राम कथा निज नाम ।
हनुमानजी नाम को छुपाते हैं। कथा को छापते हैं तो हनुमानजी ने अपने नाम को छुपा लिया हम अपना नाम प्रकट करने के लिए लालायित हैं। कई तो पत्थर पर खुदवाते हैं। भले ही हम दुनियां से चले जाएं लेकिन हमारा नाम रहना चाहिए। काम दिखाई दे न दे उसकी चिंता नहीं है। लेकिन नामदिखाई देना चाहिए, इसकी चिंता है। हनुमानजी का जगत में काम दिखाई देता है लेकिन हनुमानजी का कोई नाम नहीं पता लगा पाया। एक तो हनुमानजी ने अपना नाम मिटाया दूसरे रूप आपको मालूम है कि कुरूप कोई होता है तो बन्दर होता है और इसके पीछे भी कारण होगा कि हनुमानजी चाहते हैं कि लोग मुझे देख कर मुंह फेर लें, मेरे प्रभु का सब लोग दर्शन कर लें। मेरे प्रभु सुन्दर लगें, मैं तो बन्दर ही ठीक हूँ। हम सब अपने नाम, रूप व यश के लिए रोते हैं। आप किसी भी परिवार में जाइए, कोई न कोई यह शिकायत करते
मिलेगा कि हम कितना भी कर दें, कितनी भी मेहनत करें, कितना भी काम कर दें, सबके लिए कितना भी कर दें, लेकिन हमें हमेशा अपयश ही मिलता है। हमको केवल बुराई ही बुराई मिलती है। कोई हमारे लिए यश की कोई बात ही नहीं बोलता है। सारा रोना यश का हर घर में परंतु हनुमानजी भगवानजी का यश चाहते हैं। जब लंका में हनुमानजी जानकीजी के पास बैठे थे और जानकी माँ स्वयं रो रहीं थीं तब हनुमानजी ने कहा माँ वैसे तो मैं आपको अभी ले जा सकता था।
अबहि मातु मैं जाउँ लैवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दुहाई ||
कछुक दिवस जननी धरु धीरा ।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि ले जैहहिं ।
तिहुं पुर नारदादि जस गैहहिं ॥
वैसे तो माँ मैं आपको अभी ले जा सकता हूँ परन्तु मैं चाहता हूँ कि सारा जगत्, तीनों लोक मेरे प्रभु का यशगान करें,और बन्धुओं जो यश का त्याग कर देता है उनका यश हमेशा भगवान् गातें है।
महाबीर विनवउँ हनुमाना। 
राम जासु जस आपु बखाना ।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार-बार प्रभु निज मुख गाई ॥
भगवान बोलते है कि रघुवंश की इकहत्तर पीढ़ियां भी हनुमान् की सेवा में लग जायेंगी,तो भी हे भरत! रघुवंशी हनुमान के इस ऋण से उऋण नहीं होंगे। भगवान् कहते हैं कि हनुमान् तूने अपना यश त्याग दिया है  तो मेरा आशीर्वाद है तेरा यश केवल मैं ही नहीं अपितु-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥
हजारों मुखों से शेषनाग भी तुम्हारे यश का गान करेंगे। श्रीहनुमानजी को देखो यश से कितनी दूर हैं, मनुष्य जरा सा भी काम करता है, उसको भी छपवाना चाहता है। हनुमानजी कितना बड़ा काम करके आए तो भी छुपाते रहे। आपने घटना सुनी होगी कि वानरों के बीच में भगवान् बैठे हैं तो भगवान चाहते हैं कि हनुमानजी के गुण वानरों के सामने आएं। भगवान बोले हनुमान् 400 कोस का सागर कोई वानर पार नहीं कर पाया मैंने सुना तुम बड़े आराम से पार करके चले गए। कैसे चले गए? हनुमानजी ने कहा महाराज बन्दर की क्या क्षमता थी। शाखा से शाखा पर जाई, बन्दर तो इस टहनी से उस टहनी पर उछल कूद करता है यह तो प्रभु आपकी कृपा से हुआ। प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥
अवधी भाषा में हनुमान जी बोले- तोय मुद्रका उस पार किये। भगवान् से कहा यह तो आपकी मुद्रिका थी जिस के कारण।मैं सागर पार कर गया। भगवान् ने कहा अच्छा मेरी मुद्रिका से सागर पार किया परन्तु मुद्रिका तो आप सीता। जानकीजी को दे आए थे। तो ठीक है। लेकिन जब लौट कर आए तो सागर थोड़ा सिकुड़ गया था या गहराई
थोड़ी घट गई थी क्या? हनुमानजी बोले सागर तो उतना ही रहा। भगवान् ने पूछा जब तुम मेरी मुद्रिका से सागर पार गए और लौटते समय मुद्रिका तुम्हारे पास थी नहीं तो तुम इस पार कैसे आए। हनुमानजी ने बहुत
सुन्दर उत्तर दिया कि- तोय मुदरी उस पार किये और चूड़ामणि इस पार । आपकी कृपा ने तो माँ के चरणों तक पहुंचा दिया और माँ के आशीर्वाद ने आपके चरणों तक पहुंचा दिया।
तोय मुदरी उस पार किया। चूडामणि इस पार ।।
भगवान् ने कहा कि अच्छा चलो सागर तो तुमने कृपा से पार कर लिया। यह बताओ कि लंका कैसे जलाई?
केहि विधि दहेउ दुर्ग अति बंका।हनुमानजी ने कहा कि मेरा नाम गलत लगा है। अखबार वालों ने गलत छापा है। मैंने नहीं जलाई। तो किसने जलाई ? श्री हनुमानजी बोले-
सीय विरह लंका जरी, सकल प्रताप तुम्हार ॥
हनुमानजी ने कहा कि प्रभु लंका तो जानकी माँ के विरह के ताप ने जलाई। लंका तो आपके प्रताप ने जलाई है। बताऊं भगवन्, किसने जलाई। एक व्यक्ति ने नहीं जलाई, इसमें बहुत लोगों का हाथ था।भगवान् ने पूछा बहुत लोगों का जलाने में हाथ था। किस-किस का हाथ था? बोले जानकीजी के विरह के ताप ने जलाई, आपके प्रताप ने जलाई, रावण के पाप ने जलाई, ब्राह्मणों के शाप ने जलाई और हमारे बाप ने जलाई।चूंकि पवन बहुत तेज चल रही थी।
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उन्चास ॥
श्रीहनुमानजी, यश से बहुत दूर हैं। अरे सामान्य व्यक्ति की बात छोड़ दीजिए रावण कभी किसी की प्रशंसा नहीं करता पूरी रामायण में अगर रावण ने प्रशंसा की है तो केवल एक हनुमानजी की। लेकिन वह भी हनुमानजी का नाम नहीं बता पाया। वह भी हनुमानजी का नाम नहीं जानता। जब अंगदजी गए हैं, तब रावण ने कहा कि अंगद तुम किसके साथ खड़े हो जो तुम्हारा स्वामी है वो तो नारी विरह में रो रहा उसका छोटा भाई तो रोते-रोते और ज्यादा कमजोर हो गया है।अब कौन लड़ेगा मेरे साथ,अब तुम्हारी सेना में है कौन जो मुझसे लड़ेगा? सुग्रीव कमजोर है, विभीषण की कोई हिम्मत नहीं है, नल और नील केवल शिल्पी हैं उनको युद्ध करना क्या आएगा, जामवंत मंत्री अति बूढ़ा, वो बूढ़ा हो चुका है। हाँ हाँ हाँ लेकिन एक वानर तुम्हारी सेना में बहुत ताकतवर है, वह थोड़ी हिम्मत कर सकता है। अंगदजी ने पूछा कौन? वह बोला नाम तो कुछ
मुझे मालूम नहीं है लेकिन काम उसका मालूम है। काम? क्या काम करता है? बोले हमारी लंका में आया था,हमारे नगर को जलाकर राख कर गया।आवा प्रथम नगरु जेहि जारा।। जो पहली बार नगर में तुमसे पहले आया था उसने लंका को जलाया। अंगदजी मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं। बोला,हमारे लड़के को भी मार गयाऔर बोले सारी अशोक वाटिका उजाड़ कर उसने ध्वस्त कर दी। अंगदजी ने पूछा उसका कुछ नाम भी तो होगा बोले नाम हमें पता नहीं कि नाम क्या है। हनुमानजी नाम से बिल्कुल दूर हैं, देखिए मान व अपमान से हनुमानजी बिल्कुल ऊपर उठे हुए हैं। लंका के राक्षस हनुमानजी का कितना अपमान करते हैं।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ हनुमानजी का जुलूस निकालते हैं। लातों से, थप्पड़ों से मारने पर भी हनुमानजी मुस्कुरा रहे हैं। हनुमानजी सोच रहे हैं कोई बात नहीं थोड़ा मजा ले लो। हनुमानजी सोचते हैं कि मैंने इनको जितना पीटा है, इसके बदले में यह कुछ भी नहीं है। थोड़ा बहुत मेरे शरीर को खुजा रहे हैं। खुजा लेने दो, रावण ने हनुमानजी को बंधवाकर लाने को कहा। बांध कर लाओ। हनुमान जी बंध गए। अब आप रावण की भाषा देखो बंधने के बाद भी हनुमानजी शांत खड़े हैं। हनुमानजी आपको बधने में शर्म नहीं लगी किसी ने कहा वे बोले-
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा ।कीन्ह चहहुँ निज प्रभु कर काजा ॥ मुझे बंधने में कोई शर्म नहीं है मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ और प्रभु का कार्य अगर बंधकर
भी होता हो तो मुझे बंधकर भी आनन्द का अनुभव होगा। हनुमानजी न अपमान से कभी व्याकुल होते हैं और न
सम्मान से कभी फूलते हैं। जिस समय सागर पार करना था और सागर के किनारे बैठे सभी वानर चिंता में डूबे
थे तो जामवंतजी हनुमानजी को ललकारते हैं कि हे हनुमानजी! का चुप साधि रहे बलवाना और पुरानी पुरानी
घटनाओं को सुनाकर उनके पौरुष को जगाने की कोशिश करते हैं। अरे हनुमानजी जरा याद तो करो-
बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अंधियारो । ताही सों त्रास भयो जग को यह संकट काहू सों जात न टारो ॥ देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रवि कष्ट निवारो । को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो॥
हे हनुमानजी, तुमने बालपन में कितने-कितने बड़े पौरुष पराक्रम दिखाए थे अब कैसे चुप बैठे हो । का चुप साधि रहा बलवाना। हनुमानजी को कोई फर्क नहीं पड़ता, हनुमानजी धरती कुरेद रहे हैं। प्रशंसा से फूले नहीं लेकिन जैसे ही कहा कि राम काज लगि तब अवतारा ॥
अरे हनुमानजी, आपका जन्म रामकाज को हुआ है- सुनतहि भयउ पर्वताकारा ।।।एकदम पर्वताकार हो गए। बोलो जामवंतजी ! अगर ऐसा है तो क्या करूं? न प्रशंसा से फूलते हैं, न।अपमान से झुंझलाते हैं। हमारी कोई जरा सी प्रशंसा कर दे तो फूल जाते हैं। कोई जरा सी दो बात बोल दे तो फिर बुझ जाते हैं। आप रावण की भाषा देखें। रावण कैसी भाषा बोलता है। हनुमानजी शंकर जी के अवतार हैं लेकिन रावण बोल क्या रहा है।
कह लंकेश कवन तैं कीसा। 
केहि के बल घालेहु बन खीसा ।।
की धौं भवन सुनेहि नहिं मोही।
देखेउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारेहि निसिचर केहि अपराधा। 
कहु सठ तोहि न प्रान कउँ बाधा ।।
रावण की भाषा कितनी अशिष्ट है। क्या बोलता है? अरे बन्दर तू कौन है किसके बल पर तूने हमारा।वन उजाड़ा, तूने राक्षसों को मारा, क्या तूने मेरा नाम नहीं सुना कीधौं श्रवण सुनेहि नहिं मोही। क्या तूने मेरा नाम अखबारों व टीवी में नहीं सुना? क्या तू मुझे जानता नहीं? ऐ सठ तुझे अपने प्राणों का भी भय नहीं? अधम निर्लज्ज देखो इसके शब्दों को यह शास्त्रों का पण्डित है। और हमने देखा भी है, बड़े-बड़े शास्त्री लोग भी भाषा जब बोलते हैं बहुत गिरी हुई भाषा बोलते हैं। शास्त्र मस्तिष्क में भरे हुए और मुख में गालियां भरी हुई हैं, अरे मूर्ख, अरे सठ, ऐ अधम, ऐ निर्लज्ज ये भाषा है और ये भाषा किससे बोल रहा है रावण-
महावीर विक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी॥
हनुमानजी जैसे महावीर विक्रम बजरंगी उनसे बोल रहा था, ये भाषा, अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं से बोल रहा है। चाहते तो हनुमानजी यहीं मसल सकते थे, लेकिन हनुमानजी अपने मान और अपमान के लिए।अपने बल का प्रयोग नहीं करते। जब हनुमानजी ने रावण को उत्तर दिया तो सब बैठे सभासद सोच रहे थे कि जिस भाषा में इसको गालियां दी गयी हैं। अब यह उत्तर किस भाषा में देगा। यह भारत का बन्दर है, यह राम का दूत है, यह भारत की गौरव गाथा है, भारत का व्यक्ति भाषा कभी अशिष्ट नहीं बोलता । हनुमानजी की भाषा भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है। आप हनुमानजी की भाषा सुनिए-
बिनती करउँ जोरि कर रावन। 
सुनहु मान तजि मोर सिखावन ।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
श्रीहनुमानजी की विनम्रता देखिए, इनका शील स्वभाव देखिए रावण को हाथ जोड़कर विनय के स्वभाव में बोले है- देखिए । विनती करूऊँ जोर करि रावण । स्वामी शब्द बोला है-
सबके देह परम प्रिय स्वामी। 
मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा तें मैं मारे ।
तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कई लाजा ।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
अरे हनुमानजी तो कितने नीचे उतर आए प्रभु कहकर पुकार दिया, खायहुँ फल प्रभु लागी भूखा। अशिष्टता का उत्तर भी हनुमान जी ने शिष्टता से दिया क्योंकि हनुमानजी के भीतर स्वयं के प्रति किसी।प्रकार का मान-अपमान का भाव ही नहीं है। अभिमानशून्य और जो अभिमानशून्य होता है वो हमेशा भगवान् को प्रिय होता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तीस ।।मां अंजना।।

मानसचर्चा।। श्री हनुमानजी भाग तीस ।।मां अंजना।। 
ऐसा सुना गया कि जिस समय युद्ध समाप्त हो गया, लंका विजय के बाद प्रभु अवध को लौट रहे थे, पुष्पक विमान गन्धमादन पर्वत के ऊपर से उड़ रहा था तो हनुमानजी ने कहा प्रभु यहां मेरी माँ निवास करती हैं। बहुत दिन हो गए, माँ के दर्शन नहीं हुए, आज्ञा हो तो मैं दर्शन कर लूँ। भगवान् बोले हनुमान् जिस माँ ने तुम्हारे जैसे पुत्र को जन्म दिया हो उनका दर्शन करने का मन तो हमारा भी बहुत है, चलो हम भी दर्शन करेंगे। विमान नीचे उतर आया, दौड़ कर हनुमानजी ने माँ को प्रणाम किया। प्रभु ने भी जाकर प्रणाम किया और बोले माँ आपके दर्शन पाकर मेरे नेत्र धन्य हो गए, माँ आपने ऐसे पुत्र को जन्म दिया। तो अंजनी माँ ने हनुमानजी से पूछा, पुत्र! कुम्भकरण को किसने मारा? हनुमानजी बोले, माँ प्रभु ने मारा। अच्छा,
मेघनाथ को? बोले, उनको लखनजी ने मारा। अच्छा रावण को किसने मारा? बोले रावण को भगवान् ने मारा।
इतना बोलना था कि अंजनीमाँ क्रोध में आ गयीं और बोलीं आगे से मुझे मुँह नहीं दिखाना । चले जाओ, क्यों
मैंने तुम्हें इसलिए दूध पिलाया था कि भगवान् को श्रम करना पड़े? राक्षसों का वध करने के लिए? तुमने मेरे
दूध को लजा दिया। अंजनी माँ के दूध में इतनी ताकत थी उसी समय गन्धमादन चोटी पर जब दूध की धारा
फेंकी तो गन्धमादन के खण्ड-खण्ड हो गए। इतना ताकतवर दूध मैंने तुम्हें पिलाया और प्रभु को श्रम करना
पड़ा। मुझे शक्ल दिखाने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु हाथ जोड़कर बोले, माँ क्रोध मत करो। हमने नहीं मारा
कोई राक्षस। यह तो हनुमान् मार-मार कर अधमरा कर देते थे। हमको यश देने के लिए कहते थे, प्रभु, आप
इसको मुक्ति दे दीजिए। मारने का काम तो हनुमान ने किया है हमको तो केवल यश दिलाने के लिए कहते
थे कि प्रभु ने मारा। ऐसी माँ के गर्भ से हनुमानजी का जन्म, अंजनीपुत्र और पिता का नाम बाद में जुड़ा है। पवनसुतनामा और पवन के पुत्र भी कहे गए। चूंकि मैंने ऐसा सुना है कि अंजनी माँ यही तपस्या करती थीं, बहुत ही अच्छा बलवान योग्य पुत्र मुझे मिले, ऐसी आकांक्षा से तप कर रहीं थीं। उस समय श्रृंगार करके टहल रही थीं, टहलते-टहलते अंजनीमाँ को लगा कि कोई मुझे पीछे से छू रहा है। माता ने कहा कौन मुझ पतिव्रता को छू रहा है। दिखाई कोई दे नहीं रहा था, फिर बोली, मैं श्राप दूंगी, नहीं तो सामने आओ, सामने से तो कोई नहीं आया परन्तु पीछे से आवाज आई, मैं पवनदेव हूँ। इस समय साक्षात् शंकरजी तुम्हारे पुत्र रूप में जन्म लेना चाहते हैं। मैंने शंकरजी के तेज को तुम्हारे शरीर में स्थापित कर दिया है, उससे तुम्हारे पतिवृत्य को नुकसान नहीं होगा। उससे तुम्हें बहुत तेजस्वी शंकरजी का अवतार मिलेगा। ऐसा कहकर पवनजी वहाँ से चले गए। इसलिए अंजनीपुत्र के साथ ही हनुमानजी पवन पुत्र भी कहलाए जाने लगे। अंजनी पुत्र पवन सुतनामा। पवनसुत का दूसरा  कि पवन स्वयं नहीं दिखाई देते हैं। पवन का कार्य दिखाई देता है। उनका अनुमान होता है उनका कार्य रूप तो दिखाई देता है लेकिन उनका कर्ता रूप दिखाई नहीं देता। प्रभु ने जब धनुष तोड़ा लेत चढ़ावत खचत गाढ़े, काहु न लखा देख सबु ठाढ़े। भगवान् का भी कार्य दिखाई देता है परन्तु उनका कर्ता रुप दिखाई नहीं देता है। ऐसे ही पवन का कार्य दिखाई देता है। कर्ता नहीं दिखाई देता है। अपना नाम नहीं वह स्वयं पीछे हट जाते हैं। वह कहते हैं कि जब किसी पुष्प की सुगंध आती है तब आप कहते हैं कि पुष्प की कितनी सुन्दर सुगन्ध आ रही है न कि पवन की सुगन्ध आ रही है। कहते हैं चमेली की बहुत ही मनमोहक सुन्दर सुगन्ध आ रही है, चम्पा की कितनी सुन्दर सुगन्ध आ
रही है, चन्दन की कितनी सुन्दर सुगन्ध आ रही है। कभी नहीं कहेंगे कि पवन कितनी सुगन्धित है। पवन सुत
का दूसरा भी अर्थ है, पवन के तीन गुण हैं शीतल, मंद और सुगन्ध। पवन जब शीतल हल्का चलता है तो
शीतलता प्रदान करता है, मंद-मंद चलता है तो मर्यादा की रक्षा करता है। जब पवन तेज होता है तो माताओं
की मर्यादा भंग होती है, उनके वस्त्र इधर-उधर होते हैं। इसलिए हनुमानजी ने भी बोला है एक मैं मंदमति ।
शीतल और मंद पवन अगर सुगन्धित होती है तो भी आनन्द देती है। लू चलती है तो सब लोग बचना चाहते
हैं। जब ठण्डी शीतल वायु चलती हैं तो बोलते हैं कि कितनी शीतल वायु है, कितनी सुगन्ध आ रही है। हमारे
अन्दर जो मन्दता भर दे, खुशबू भर दे, यही पवन का गुण है। ऐसा है हमारा देश जहां के माता-पिता मां अंजना और पवनदेव हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓मानसचर्चा।।भारत की माताएं।।

मानसचर्चा।।भारत की माताएं।।
शिवाजी ऐसे ही पैदा नहीं हुए। शिवाजी का निर्माण जीजाबाई माँ के द्वारा हुआ। जिस समय जीजाबाई दूध पिलाती थीं और दूध पिलाती-पिलाती थपकी देती थीं उस समय शिवजी को भगवान् राम और हनुमानजी की कथायें सुनाती थीं। भगवान् की कथाओं को सुनकर धर्म की स्थापना हुई है। धर्म संस्थापनार्थाय हिन्दू पद पादशाही की स्थापना शिवाजी कर पाए। इतना बड़ा औरंगजेब का साम्राज्य सारे भारत में फैलने वाला साम्राज्य महाराष्ट्र में जाकर रुक गया। हमारे यहाँ ऐसी माताएं, बूढ़ी माताएं हुई हैं जिनको कुछ नहीं आता था। वे प्रातः कालीन चाकी पीसा करती थीं तो बालक उनकी गोद में लेटा होता था। चाकी पीसते पीसते गीत गाया करती थीं।
आजु मोहि रघुबर की सुधि आई। सीय बिना मेरी सूनी रसोई। लखन बिना ठकुराई। आजु मोहि रघुवर की सुधि आई।
ये भारत की माताएं थीं। जिनके कारण इस देश में ब्रह्म को भी अवतार लेना पड़ा। कैसा देश है ? क्या देश है ?
जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़ियाँ करती है बसेरा ।
वो भारत देश है मेरा ॥
जहाँ सत्य-अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा ॥
वह भारत देश है मेरा ॥
ये धरती है वो जहाँ ऋषि-मुनि जपते हरिनाम की माला ।
जपते हरि नाम की माला ॥
यहाँ हर बालक मनमोहन है और राधा हर एक बाला।
राधा हर एक बाला ॥
जहाँ सूरज सबसे पहले आकर डाले अपना डेरा |
वो भारत देश है मेरा ॥
वन्देमातरम्, वन्देमातरम् । वन्देमातरम् जय भारत वन्देमातरम् ।
इस देश में हमेशा ही  माताओं का वन्दन किया है। चाहे गर्भवती माता हो  या भूगर्भ की माता हो। माताओं के कारण इस देश का धर्म और संस्कृति जीवित हैं।  एक ऐसी घटना  सुनने में आती है कि जिस समय बिलाव राणा के बेटे के हाथ से घास की रोटी का टुकड़ा छीन कर ले गया उस समय हिमालय जैसा अडिग स्थिर राणा का हृदय भी कांप गया। यह घटना देख कर चीख पड़े थे राणा जी लेकिन सत्य या झूठ मुझे मालूम नहीं, ऐसा सुना हूँ  कि राणा संधि पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार हो गए लेकिन राणा की पत्नी ने हाथ पकड़ लिए, नहीं राणा, अगर आप डूबे तो भारत की आत्मा डूब जाएगी। यह प्रारब्ध है हमारा, इसको भोग लेंगे लेकिन परिवार व इतिहास को कलंकित नहीं होने देंगे। राणा की पत्नी ने हाथ पकड़कर रोक दिया। धर्म डूबने जा रहा था उन्होंने धर्म को बचा लिया।  ऐसी थी वह क्षत्राणी । जिस समय भारत, मुस्लिम आक्रांताओं की चपेट में धर्म संस्कृति से विरत होने लगा, भय के कारण से यज्ञ, धर्म, जागरण, धार्मिक कथा, प्रवचन डूबने लगे, उस समय सचिमाता ने चैतन्यमहाप्रभु को तिलक करके कहा कि जाओ, इस संसार को हरिनाम का संदेश दो । सचिमाता ने कहा- जाओ बेटा, धर्म को तुम्हारी आवश्यकता है।यह है हमारा भारत देश,ये हैं हमारी भारत की माताएं।जय भारत ।। जय भारत की माताएं।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

✓।।मानसचर्चा।।उर्मिला,भारत की बेटियां।।

।।मानसचर्चा।।उर्मिला,भारत की बेटियां।।
शुद्धोऽसि - बुद्धोऽसि - निरंजनोऽसि ।।
उर्मिलाजी का दर्शन करें। हमने संतों के श्रीमुख से सुना है जब लक्ष्मणजी सुमित्रा माँ के भवन से बाहर आ रहे हैं और रास्ते में सोचते आ रहे थे कि उर्मिला से कैसे मिलूं इस चिंता में डूब रहे थे कि उर्मिला को बोल कर न गए तो रो-रो कर प्राण त्याग देगी और बोल कर अनुमति लेकर जाएंगे तो शायद जाने न दे वो मेरे साथ चलने की जिद करेंगी, रोएंगी और कहेंगी कि जब जानकीजी अपने पति के साथ जा सकती हैं तो मैं क्यों नहीं जा सकती? लक्ष्मणजी स्वयं धर्म हैं लेकिन आज धर्म ही द्वंन्द में फँस गया। उर्मिलाजी को साथ लेकर जाया नहीं जा सकता और बिना बताए जाएँ तो जाएँ कैसे? रोती हुई को छोड़ा नहीं जा सकता। स्त्री के आँसू को ठोकर मारना किसी पुरूष के बस की बात नही पत्थर दिल हृदय, पत्थर हृदय पुरुष भी बड़े से बड़े पहाड़ को ठुकरा सकता है लेकिन रोती हुई स्त्री को ठुकराना यह किसी पुरुष के बस की बात नहीं है। लक्ष्मणजी चिंता में डूबे हैं अगर रोई तो उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता और साथ लेकर जाया नहीं जा सकता। करें तो करें क्या? इस चिंता में डूबे चले जा रहे  थे कि उर्मिलाजी का भवन आ गया। इधर, उर्मिलाजी को घटना की पहले जानकारी हो चुकी है और इतने आनन्द में डूबी हैं कि मेरे प्रभु, मेरे पति मेरे सुहाग का इतना बड़ा सौभाग्य कि उन्हें प्रभु की चरणों की सेवा का अवसर मिला है। पति की सोच में डूबी श्रृंगार किए बैठी है,  उर्मिला ने वो वेष धारण किया जो विवाह के समय किया था और कंचन का थाल सजाकर ,आरती का दीप सजाकर प्रतीक्षा कर रही है। आएंगे अवश्य, बिना मिले तो जा नहीं सकते?  यहां भय में डूबे लक्ष्मणजी , साक्षात काल भी कांप रहा है। आप कल्पना कीजिए इस देश की माताओं के सामने काल हमेशा कांपता रहा है। माताओं को काल नहीं ले जा सकता, काल शरीर को ले जाता है। माँ को काल स्पर्श नहीं कर सकता। संकोच में डूबे लक्ष्मण जी ने धीरे से कुण्डी खटखटाई, देवी द्वार खोलो। जैसे ही उर्मिलाजी ने द्वार खोला तो लक्ष्मणजी ने आँख बंद कर लीं, निगाह से निगाह मिलाने का साहस नहीं, उनको भय लगता है, आँसू आ गए। उर्मिलाजी ने जैसे ही  आँसू देखा बोल उठी कि भगवन् यह तो नाचने का समय है, आनंद का समय है उत्सव का समय है, और आपकी आँखों में आँसू ? उर्मिलाजी समझ गई कि मेरे कारण मेरे पति देव असमंजस में आ गए हैं। उर्मिलाजी ने दोनों हाथों से कंधा पकड़ लिया और कहा आर्यपुत्र घबराओ नही, धीरज धरो-
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।आपद काल परिखिअंहि चारी।
धैर्य की, धर्म की, मित्र की, और नारी की आपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। आपको शायद यह लगता होगा कि मुझे घटना की जानकारी नहीं है। लेकिन मुझे तो पूरी जानकारी है और मुझे यह भी मालूम है कि आप भगवान् की सेवा में 14 वर्ष के लिए जा रहे हैं और मैं समझ रही हूँ कि आप  संकोच में डूबे हैं कि उर्मिला साथ जाने की जिद करेगी तो ध्यान से सुनिये, मैं साथ जाने की जिद क्या, जाने के बारे में सोच भी नहीं रही हूँ। यह तो मेरा सौभाग्य है कि मेरा सुहाग प्रभु के साथ उनकी सेवा में जा रहा है। और सुनिए ! मैंने किसी भोगी के घर का अन्न नहीं खाया, मैं योगीराज जनक की बेटी हूँ, योगी की गोद में खेली हूँ। भोगी की गोद में नहीं । मस्तक ऊपर उठाइये। अपनी साड़ी के पल्लू  से उर्मिलाजी ने लक्ष्मण जी के आँसू पोंछे। तब लक्ष्मण जी उर्मिलाजी से लिपटकर इतना रोये हैं कि उनके आँसू थम नहीं रहे हैं। सामान्यतः लक्ष्मणजी जीवन में रोते नहीं हैं। जीवन में केवल तीन बार रोने का उल्लेख है पहली बार आज, दूसरी बार तब जब लंका में जानकीजी की अग्नि परीक्षा हुई थी और उस अग्नि परीक्षा में  जब काठ किन चिता को लक्ष्मण जी को तैयार करना पड़ा और तीसरी बार वह तब रोये जब जानकीजी को लक्ष्मणजी वन में छोड़ने गये। जब लव-कुश माँ के गर्भ में थे। सामान्यतया काल रोता नहीं है, रुलाता है। लक्ष्मणजी कहते हैं कि उर्मिला तेरे चरणों में सिर रखकर रोऊ, आज तूने मुझे गिरने से, डगमगाने से बचा लिया। उर्मिलाजी दौड़ कर गईं अन्दर से थाल सजाकर लाई, दीपक जलाए, आरती उतारी, रोली, चावल से टीका किया और जिस समय पाँव छूने को झुकीं तो उर्मिला जी ने आँसूओं को पोंछ लिया। उर्मिला जी को लगता है कि यदि एक भी आँसू पति के चरणों में गिर गया तो वनवास काल में मेरे पति को मेरी याद आएगी। मेरी याद परमात्मा की सेवा में रुकावट आएगी, मैं दु:ख सहन कर सकती हूँ लेकिन पति को दुःख में नहीं डाल सकती। खड़े होकर विनम्र विनती की कि आर्यपुत्र यह मेरा सौभाग्य है कि आप प्रभु की सेवा में जा रहे हैं। अब मेरी एक प्रार्थना स्वीकार कीजिए। आज जिस दीपक से मैं आपकी आरती उतार रही हूँ जब आप चौदह वर्ष बाद लौटें तब भी मैं उसी दीपक से आपकी आरती उतारूं यही मेरी तमन्ना है,बस इतनी कृपा करना कि यह दीपक हमेशा जलता रहे। चौदह वर्ष तक मैं इस दीपक को बुझने नहीं दूंगी, बस मेरे दीपक को धोखा न देना। ऐसा सुना है कि चौदह वर्ष उर्मिलाजी ने इस दीपक को बुझने नहीं दिया और हमने यह भी सुना है कि जिन परिवारों में अखण्ड दीपक जलते हैं, अधर्म प्रवेश नहीं कर पाता, जब भी प्रवेश करेगा, धर्म ही करेगा। चौदह वर्ष तक जो वेश धारण किया था वह वेश उतारा ही नहीं, श्रृंगार  भी नहीं उतारा, चौदह वर्ष तक अपने महल का द्वार भी बंद नहीं किया और न ही अन्न का सेवन किया, चौदह वर्ष तक उर्मिलाजी सोयी नहीं। शास्त्र कहते हैं कि लक्ष्मणजी के द्वारा मेघनाथ का वध हुआ था किन्तु आत्मा कहती है कि वह उर्मिलाजी की तपस्या के कारण मारा गया। उर्मिलजी के इस अखंड तप ने मेघनाथ का वध किया है। यह रघुवंश की पुत्रवधू है, योगीराज महाराज जनक की कन्या है, रामराज केवल राम के कारण नहीं आया है। रामराज्य जनकजी की बेटियों के कारण आया है। इस रामराज्य के भव्य भवन की नींव में जनकजी की बेटियां बैठी हैं। इनकी पीठ पर ही यह अयोध्या का राज्य है जिसकी आज चारों तरफ जय-जयकार हो रही है,  वह जय जयकर जनकजी के  परिवार के कारण आया है। भगवान् राम ने तो केवल उसके ऊपर कलश की स्थापना की है। चलते-चलते उर्मिला ने कहा कि मेरी याद मत करना, मेरा तो नाम ही उर्मिला है। मैं तो आपसे एक क्षण भी दूर नहीं हूँ। यह भी बात आपने सुनी होगी कि जब लक्ष्मणजी को शक्ति लगी और इस परिवार की नारियों को कितना भरोसा है अपने पतिव्रत पर, अपने धर्म पर जब संजीवनी बूटी लेकर लौट रहे थे हनुमानजी, तो ऐसी घटना आती है कि अयोध्या के ऊपर से उड़ान थी तो भरतजी ने भूलवश, संदेहवश बाण मारकर नीचे गिरा दिया। कौशल्या माँ भी मिलने गईं, सुमित्राजी भी मिलने गईं। सब लोग मिलने गए। हमने सुना है कि उर्मिलाजी भी गईं। कौशल्याजी ने हनुमानजी से कहा कि हनुमान् राघव को जाकर बोलना कि राम की शोभा लक्ष्मण के साथ है अगर मेरा लखन जीवित नहीं हुआ तो राम की अयोध्या में कोई आवश्यकता नहीं है। मेरा संदेश दे देना।
सुमित्राजी ने कहा- नहीं, नहीं भैया! माँ की बात मत सुनना, राघव को जा कर कहना कि शोक मुक्त हों,
लक्ष्मण को छोड़ें, मेरा शत्रुघ्न अभी जीवित है दूसरा बेटा। हनुमानजी सोच रहे हैं कि कैसी माँ है एक बच्चा
मृत्यु की गोद में है, काल के गाल में है और दूसरे बेटे को भी प्रस्तुत कर रही है। हनुमानजी ने उर्मिलाजी की
ओर देखा कि इनके ऊपर क्या बीतती है, देखा तो उर्मिलाजी सबकी बात सुन रही हैं और मंद-मंद मुस्कुराती खड़ी हैं। तो हनुमानजी ने बोला, माँ आप भी कुछ बोलिए, आपके पति के प्राण संकट में हैं। उर्मिलाजी ने कहा मेरे पति के प्राण कभी संकट में नहीं हो सकते। हनुमानजी ने कहा मैं स्वयं संकट में देखकर आया हूँ
तभी तो संजीवनी लेने आया हूँ। सूर्योदय की अवधि है। पूरब दिशा में लालिमा आ चुकी है और लंका यहाँ
से कोसों दूर है। और आप कहती हैं कि प्राण संकट में नहीं हैं और सूर्य उदित हो गया तो उनके प्राण कैसे
बच पाएंगे? उर्मिलाजी ने कहा हनुमानजी आप अपनी चिंता करिए। मेरे पति के प्राणों की चिंता मत करिए।
हनुमानजी बोले, सूर्योदय की अवधि है। अगर उससे पहले औषधि नहीं पहुंची तो ? तब उर्मिला जी ने कहा,
तुमको दो-चार दिन अयोध्या में विश्राम करना हो तो कर लो तब तक मैं सूर्य को उदित  होने ही नहीं दूंगी। हनुमानजीबोले, आप सूर्य को कैसे रोकोगी? बोलीं कि मैं सूर्यवंश की बहू हूँ, मेरा विवाह सूर्यवंश में हुआ है। सूर्य हमारे कुल के पुरखे हैं और कोई पुरखा यह नहीं चाहेगा कि जब मैं आँख खोलूं तो मेरी आँखों के सामने विधवा बहू खड़ी हो। सूर्य उदित ही नहीं होगा। आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पति को कुछ नहीं होगा। आपको कैसे मालूम? तो उर्मिलाजी बोली, मेरा दीपक मुझे बता रहा है। दीपक जल रहा है तो इसका मतलब कि मेरे पति जीवित हैं। और सुनो मैं तो लंका नहीं गयी थी, तुम तो लंका से आए हो? यह बताओ इस समय मेरे पति कहाँ हैं। हनुमानजी बोले भगवान् की गोद में हैं। उर्मिलाजी ने कहा भैया! अगर मेरे पति भोग की गोद में होते तो काल उनको मार देता पर जो भगवान की गोद में लेटा है, उसको काल छू भी नहीं सकता है। वह हमेशा चिरंजीवी रहता है। मेरे पति भगवान् की गोद में लेटे हैं और मैं भगवान् के करुणामयी स्वभाव से  मै पूर्ण परिचित हूँ , मुझे यह मालूम है कि मेरे  प्रभु  को मेरे  पति के  जागने का संकल्प ज्ञात है, भगवान् को यह जानकारी है कि लखन माँ के चरणों में चौदह वर्ष तक नहीं सोने का संकल्प लेकर आया है, सोयेगा नहीं और प्रभु का स्वभाव बहुत ही कोमल है- अति कोमल
रघुवीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ। प्रभु को लगता है मेरा छोटा भाई लखन दिनभर इतने बड़े-बड़े राक्षसों से लड़ता है, थककर चूर हो जाता है और फिर सन्ध्या समय माँ को दिए संकल्प को याद करता है और सोता नहीं है। इसको विश्राम कैसे दिलायें, भगवान् ने मेघनाथ के बाण के बहाने से मेरे पतिदेव को अपनी गोद में विश्राम के लिए लिटाया है। जो राम की शरण में रहता है वह विश्राम के लिए रहता है, वह कभी मरण में नहीं जाता।
जो आनन्द सिंधु सुख रासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी ॥
सो सुखधाम राम अस नामा । अखिल लोक दायक विश्रामा ||
जो भगवान श्रीराम की गोद में होगा वो विश्राम में होगा, आराम में होगा-
सकल लोक दायक विश्रामा।
जब लक्ष्मण ने चौदह वर्ष जागरण का संकल्प ले लिया। तब हमने सुना, नींद लक्ष्मणजी के पास आयी और नींद ने लक्ष्मणजी से कहा कि आज तक हमको कोई नहीं जीत पाया और आज आपने हमको जीत लिया है। हमसे कोई वरदान मांगिये। तो लक्ष्मण जी ने कहा मुझे तो कोई आवश्यकता नहीं है मगर तुम उर्मिलाजी के पास चली जाओ। नींद उर्मिला जी के पास आई। उर्मिला जी से कहा आप हमसे कोई वरदान मांगिए, पूछा किसने भेजा है तो बोली आपके पतिदेव ने भेजा है। बोली उन्होंने हमें जीत लिया है हम उन्हें वरदान देना चाहती थीं तो उन्होंने कहा जाओ, उर्मिला जी के पास जाओ। मांगो वरदान मांगो तो उर्मिला जी ने कहा अगर वरदान देना चाहती हो तो एक वरदान दो कि चौदह वर्ष जब तक मेरे पति भगवान् के चरणों की सेवा में लगे हैं उनको मेरी याद न आए। पत्नी कहती परमात्मा की सेवा में उनको भोग की याद न आए, उनको काम की याद न आए। जो रघुवर की सेवा में बैठे हैं उनको घर की याद न आए। ऐसी है हमारे भारत की ये आदर्श नारियां जिन पर हमें हमेशा ही गर्व रहेगा।जय मां उर्मिला।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।।माता सुमित्रा और लक्ष्मण।।

मानसचर्चा।।माता सुमित्रा और लक्ष्मण।।
हमारे यहाँ माता का नाम पहले आता
है। यह भारत की संस्कृति है। यही भारत का स्वभाव है। आपने आजकल विवाहों के निमंत्रण-पत्र देखे होंगे।
निमंत्रण पत्र में भी श्रीमती एवं श्री । पहले कभी रहा होगा, श्री एवं श्रीमती लेकिन अब पहले माँ का नाम ।
माँ का जो स्थान है भारत वर्ष में सर्वोत्तम है इसलिए हमने इस देश की धरती को भी माँ कहा है। भारतमाता
और इस देश की नहीं पूरे विश्व की धरती को माता माना है। माँ का प्रतिबिम्ब पृथ्वी माँ है, पालन करती है।
सबका। और इसलिए हमने भगवान् की भी पूजा की है तो उसको भी हमने माँ कह कर पुकारा है। त्वमेव
माता भगवान् का पहले हमने माँ के रूप में दर्शन किया है। पिता कह कर बाद में सम्बोधित किया है। त्वमेव
माता च पिता त्वमेव। इसका कवि ने कितना सुन्दर वर्णन किया है। सभी भाव से गाइए। तुम्हीं हो माता पिता तुम्हीं हों, तुम्ही हो बन्धू सखा तुम्हीं हो। तुम्हीं हो साथी, तुम्हीं सहारे, कोई न अपना सिवा तुम्हारे ।जो खिल सके ना वो फूल हम हैं, तुम्हारे चरणों की धूल हम हैं। कृपा की दृष्टि सदा ही रखना, तुम्हीं हो बन्धु सखा तुम्हीं हो।
आरती भी गाते हैं तो यही गाते हैं- मातु-पिता तुम मेरे सरन गहूँ किसकी ।।तुम बिन और न दूजा आस करूँ जिसकी ।।ॐ जय जगदीश हरे |माताओं के द्वारा ही जगत् में महापुरुषों की रचना हुई है। उनके द्वारा ही हमारे देश को
हैं। माताएं बच्चों को दूध पिलाते समय, गोद खिलाते समय, भगवान् से यही प्रार्थना करती हैं।बुद्धोऽसि - शुद्धोऽसि - निरंजनोऽसि ॥महापुरुष मिले मेरा बेटा बुद्ध बने, जाग्रत बने, मेरा बेटा विकार रहित शुद्ध बने और मेरा बेटा माया में लिप्त न हो जाए। निर्लिप्त रहे माया से मुक्त हो। ऐसी माता में आप सुमित्रा माता का दर्शन करो। आखिर लक्ष्मण जी कहाँ सेआए, लक्ष्मणजी में जो भी गुण हैं वो सुमित्रा माता की कृपा के कारण हैं। बनवास की घटना देखिए । लक्ष्मणजी प्रभु के साथ बनवास जाने के लिए आतुर हैं। प्रभु ने कहा पहले माँ से आज्ञा ले लो। लक्ष्मणजी ने कहाप्रभु आप चले तो नहीं जाएंगे? प्रभु ने कहा, नहीं जाएंगे। लक्ष्मणजी सुमित्रामाताजी के पास गए। सुमित्राजी नेबोला क्या हुआ बेटा, बाजे बज रहे थे। जय-जयकार हो रही थी, एकदम सब शांत हो गया। क्या बात है, मुहूर्त बदल गया क्या? माँ तुमको मालूम है क्या हुआ है? अयोध्या का भाग्य फूट गया है। क्या हुआ है? श्रीराम जी को चौदह वर्ष का वनवास हुआ है, प्रभु माँ जानकीजी के साथ वन को जा रहे हैं और मैं भी तू फिर यहाँ क्यों आया है। भगवान जी ने कहा, पहले माँ से आज्ञा लाओ- माँगहुं बिदा मातु सन जाई ।माँ, कौन माँ? लक्ष्मणजी ने कहा तू मेरी माँ है न। सुमित्राजी ने कहा, मैं तेरी माँ नहीं हूँ। लक्ष्मणजी ने कहा तू मेरी माँ नहीं तो मेरी माँ कौन है? सुमित्रा जी ने कहा, लखन बेटा! मैं तो तेरी धरोहर की माँ हूँ, केवल गर्भ धारण करने के लिए भगवान ने मुझे माँ बनाया है। तेरी माँ तो कोई और है और उन्हीं से आज्ञा लो और उन्हीं की सेवा में जाओ। तो पूछा वह माँ है कौन? सुमित्राजी ने कहा: बेटा मैं तो देह वाली माँ हूँ और देह वाली माँ कितने दिन तेरा साथ देगी? 70 साल, 80 साल, 90 साल और 100 साल देह वाली माँ तो तुझे एकदिन छोड़ देगी लेकिन जन्मान्तर तक तेरे साथ रहनेवाली उस माँ की सेवा में जाओ, देह वाली माँ में मत डूबो । है कौन? बोली- तात तुम्हारि मातु बैदेही, पिता राम सब भाँति सनेही । सुमित्राजी ने असली माँ का दर्शन करा दिया। अयोध्या कहाँ हैं? अवध जहाँ राम, और सुनो लखन! जौं पै सीय राम बन जाहीं अवध तुम्हार काज कछु नाहीं। अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है। हमको कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा जन्म ही राम की सेवा के लिए हुआ है और शायद तुमको यह भ्रम होगा कि भगवन् माँ कैकयी के कारण से वन को जा रहे हैं। इस भूल में मत रहना। लक्ष्मणजी ने पूछा फिर जा क्यों रहे हैं, माँ बोली-
तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं ॥
दूसरा कोई कारण नहीं है तुम्हरे भाग राम वन जाहीं। लक्ष्मणजी ने कहा, माँ मेरे कारण क्यों वन जा रहे हैं। माँ ने कहा, तू जानता नहीं है अपने को, मैं तुझे जानती हूँ। तू शेषनाग का अवतार है, धरती तेरे शीश पर है और धरती पर पाप का भार इतना बढ़ गया है कि तू उसे सम्भाल नहीं पा रहा है। इसलिए राम तेरे सर के भार को कम कर रहे हैं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं और जब भगवान् केवल तेरे कारण जा रहे हैं तो तुझे मेरे दूध की सौगंध है कि चौदह वर्ष की सेवा में स्वप्न में भी तेरे मन में कोई विकार नहीं आना चाहिए। लक्ष्मणजी ने कहा माँ अगर ऐसी बात है तो सुन ले तू जब स्वप्न की शर्त दे रही है तो मैं चौदह वर्ष तक
सोऊँगा ही नहीं और जब सोऊँगा ही नहीं तो कोई विकार नहीं आएगा। यह जगत का अद्वितीय भाई है यह भैया और भाभी की सेवा के लिए चौदह वर्ष जागरण का संकल्प ले रहा है। लेकिन अगर छोटा भाई बड़े भाई
की सेवा के लिए चौदह वर्ष का संकल्प लेता है तो बड़ा भाई पिता माना जाता है। उसको भी पिता का भाव
चाहिए। जैसे पिता अपने पुत्र की चिंता रखता है, ऐसे ही बड़ा भाई अपने छोटे भाई की पुत्रवत् चिंता करे तब
वह बड़ा भाई कहलाने लायक है। ऐसी सुमित्रा जैसी माताऐं के जिनके कारण ऐसे भक्त पैदा हुए, सेवक पैदा
हुए, महापुरुष पैदा हुए। कल्पना कीजिए अवध तुम्हार काज कछु नाहीं ।जाओ भगवान् की सेवा में, यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है और अब हम अपने ऊपर विचार करें। अनुभव क्या कहता है? लड़का अगर शराबी हो जाए परिवार में चल सकता है। लड़का अगर दुराचारी हो जाए तो भी चलेगा, जुआरी हो जाए चलेगा, बुरे से बुरा लड़का चलेगा लेकिन लड़का साधु हो जाए, संन्यासी हो जाए,
समाजसेवक बन जाये, तो अपना-अपना हृदय टटोलो कैसा लगता है? सारे रिश्तेदारों को इकट्ठा कर लेते हैं
कि, भैया इसे समझाओ। हम चाहते तो हैं कि इस देश में महापुरुष पैदा हों, हम चाहते तो हैं कि राणा और
शिवाजी इस देश में बार-बार जन्म लें लेकिन मेरे घर में नहीं पड़ौसी के घर में। क्या इससे धर्म बच सकता
है? क्या इससे देश बच सकता है? माँ ने अपने दुधमुहें बच्चों को इस देश की रक्षा के लिए दीवारों में चिनते
अपनी आँखों के सामने देखा है। आप कल्पना कर सकते हो कि माँ के ऊपर क्या बीती होगी? तेरह साल का बालक माँ के सामने सिर कटाता है। माँ ने आँख बंद कर लीं, कोई बात नहीं जीवन तो आना और जाना है। देह आती और जाती है। धर्म की रक्षा होनी चाहिए। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उनकी रक्षा करता है। धर्मो रक्षति रक्षतः । इस देश की रक्षा के लिए कितनी माताओं की गोद सूनी हुई। कितनी माताओं के सुहाग मिटे, कितनों की माथे की बिंदी व सिन्दूर गए। कितनों के घर के दीपक बुझे, कितने बालक अनाथ हुए, कितनों की राखी व दूज के त्यौहार मिटे। ये देश, धर्म, संस्कृति तब बची है। ये नेताओं के नारों से नहीं बची, ये माताओं के बलिदान से बची, इस देश की माताओं ने बलिदान किया।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग उनतीस।।अतुलित बलके धाम।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग उनतीस।।अतुलित बलके धाम।।
अतुलित बलधामं स्वर्ण शैलाभदेहं,
दनुजवनकृसानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम |
सकल गुणनिधानं वानराणामधीशं,
रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ॥
श्रीहनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं, धाम माने क्या हुआ जैसे श्री वृन्दावनधाम है। अयोध्याधाम,
चित्रकूटधाम धाम का अर्थ होता है- जहाँ देव निवास करते हैं। वृन्दावनधाम है जहाँ की सीमा के बाहर प्रभु एक कदम भी निकले नहीं, चित्रकूटधाम है भगवान् ने जिसका कभी त्याग नहीं किया। बलधाम माने जहाँ बल निवास करता है। हनुमानजी में अपना बल नहीं है। हनुमानजी में भगवान का बल निवास करता है। श्री हनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं। अतुलित बलधामा हैं। शस्त्रागार का मालिक मकान नहीं होता जिस कमरे में जिस मकान में शस्त्र रखे हैं, वो मकान मालिक नहीं होता मालिक कोई और होता है। जिसने रखे हैं। जैसे किसी के घर में सोना रखा है। सोने का मालिक मकान नहीं है बल्कि वह है जिसने सोना रखा है तो हनुमान जी कहते हैं कि हम तो केवल धाम हैं बल तो हमारे भगवानजी का है। अतुलित बल अतुलित प्रभुताई, मैं मतिमन्द जान नही पायी। यह इन्द्र का लड़का जयंत बोला है। जयंत ने इसका प्रमाण पत्र दिया है। जयंत की घटना भगवान् के बल का दर्शन कराती है। जयंत इन्द्र का लड़का बोला है। एक बार जयंत भगवान् के बल की परीक्षा लेने आए। गोस्वामीजी ने कहा- सठ चाहत रघुपति बल देखा - अतुलित बल को तौलने के लिए आ रहा है। चित्रकूट का चित्र है- एक बगीचे में भगवान् पुष्प चुनने गए, बहुत सुन्दर-सुन्दर पुष्प हैं। भगवान् आज श्रृंगार के भाव में हैं।
एक बार चुनि कुसुम सुहाये। निज कर भूषन राम बनाये ।।
सीतहि पहिराये प्रभु सादर बैठे फटिक सिला पर सुन्दर ।।
सुरपति सुत घरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा।जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा ।।
भगवान् एक बार जानकी जी का फूलों से श्रृंगार कर रहे थे। अब इसमें किसी भी प्रकार की मर्यादा।का उल्लंघन का तो प्रश्न ही नहीं है। जब वो स्वयं मर्यादापुरुषोत्तम हैं तो वो मर्यादा का उल्लंघन कैसे करेंगे?
पति और पत्नी दो देह और एक प्राण है। पति-पत्नी का श्रृंगार करेगा, पत्नी पति को श्रृंगार करेगी इसमें कोई
मर्यादा के उल्लंघन की तो बात ही नहीं है। जयंत ने जब देखा कल तो स्वर्गलोक में चर्चा हो रही थी कि आजकल तो चित्रकूट में ब्रह्म का निवास है भगवान् प्रवास पर हैं और ये ब्रह्म हैं? ये तो सामान्य पुरुष की तरह स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। भगवान् की लीला को देखकर भ्रम में पड़ गए। और मेरा  निवेदन है कि जब भी आप भगवान् की लीला का चिन्तन बुद्धि से करेंगे आप गढ्ढे में गिरेंगे। और यह जयंत उसी रास्ते पर जा रहा है। सुमिरन को छोड़कर मरण के रास्ते पर जा रहा है, और भगवान् के बल का परीक्षण करने का कि इनमें बल कितना है षठ चाहत रघुपति बल देखा ।। कौवे का वेश बनाकर आया और जानकीजी के चरणों पर चञ्चु प्रहार करके उड़ गया। एक संत  बहुत अच्छा यहाँ पर कहते हैं कि जो किसी के दाम्पत्य के हंसते-खेलते जीवन में चञ्चु प्रहार कर अपनी कटु वाणी से, अपने शब्दों से खटास पैदा करे वह कौवा ही हो सकता है, वह हंस नहीं हो सकता। हंस तो विवेकी होता है वह विवेक का व्यवहार करता है। कौवा हमेशा विष्ठा के ऊपर मुँह मारता है। इसकी चोंच हमेशा विष्ठा पर रहती है। कई लोगों की वाणी ऐसी होती है जब भी बोलेंगे विष्ठा जैसी, दुर्गन्ध जैसी बातें। निकृष्ट बातें, अविवेक कहिए, दुर्देव कहिए, कोई भी कारण हो सकता है। अनेक माता-पिता ऐसे हैं जो अपने बच्चों के दाम्पत्य जीवन को अपने ही चञ्चु प्रहार से तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अगर कुछ गलतफहमी है बालकों के जीवन में समझाकर, बुझाकर अपने विवेक से प्रेम से उस टूटे हुए सूत्र को जोड़ना चाहिए। जो डोर कमजोर हो रही है उसको मजबूत करना चाहिए। परिवार में जो आजकल तलाक हो रहे हैं उसकाnऔर कोई बड़ा कारण नहीं है केवल परिवार में वाणी का जो व्यवहार है, दुरुपयोग है वाणी कैसी चाहिए,
कब बोलें, कैसे बोलें, कब न बोलें, कहाँ बोलें, कहाँ न बोलें, इसका विवेक न रहने के कारण अच्छे-अच्छे
परिवारों के बेटे और बहुओं के दाम्पत्य जीवन में तनाव है, खिंचाव है, उदासी है, उबासी है अथवा टूटने की कगार पर है। जो कार्य जयंत ने किया कई बार हम करने लग जाते हैं। उधर जयंत जैसे ही चञ्चु प्रहार करके उड़ा और जानकीजी के पैरों से रुधिर की धारा बही, प्रभु ने पूछा यह रक्त कैसा? जानकीजी ने कहा प्रभु एक कौवा चोंच मार के गया। प्रभु के पास उस वक्त धनुष बाण तो था नहीं, सींक के तिनके पड़े थे।
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना ।।
भगवान् ने सींक का धनुष बाण बनाकर उसको अभिमन्त्रित किया और छोड़ दिया जयंत के पीछे।
आगे-आगे जयंत और पीछे-पीछे भगवान् के काल का बाण दौड़े चले जा रहा था। इन्द्रलोक गया, वरुणलोक
गया, कुबेरलोक गया लेकिन किसी ने बात नहीं सुनी-
काहुँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकई राम कर दोही ।।सबने कह दिया भैया रामद्रोही को कौन शरण देगा, बाप तक ने फटकार दिया। दौड़े जा रहा था तभी
एक घटना घटित हो गयी-
नारद देखा बिकल जयन्ता लागि दया कोमल चित संता ॥
नारदजी ने देखा जयंत विकल होकर भाग रहा है। नारदजी ने पुकारा ओ! जयंत! गोस्वामीजी ने यहाँ नाम
का उल्लेख किया है पहले नहीं किया था। एक ने गोस्वामीजी से पूछा पहले तो आपने इन्द्र का बेटा कहकर
लिखा था अब यहाँ नाम का उल्लेख क्यों किया। गोस्वामीजी ने लिखा अब इसको संत का दर्शन हो गया है
और संत दरस जिमि पातक टरहीं।
संत दर्शन से पाप कट जाते हैं अब इसको संत का दर्शन हो गया। इसका अर्थ है अब इसके ऊपर भगवान की कृपा हो रही है। एक सिद्धांत है अगर कोई संत मिले, मिलते तो हमें रोज हैं साधु-संत का रोज दर्शन करते हैं लेकिन जीवन वैसा का वैसा रहता है जीवन में कोई पुष्प तो नहीं खिलते, कोई सुगन्ध तो नहीं आती तो संत मिलन का अर्थ आँखों से मिलना नहीं, आँखों से देखना नहीं, संत मिलन का अर्थ है कोई संत हमारे जीवन में प्रवेश करे, किसी संत के भीतर हमने प्रवेश पा लिया। एकांत में भी जिनकी याद सताती हो और मन पवित्र हो जाता है। मन जिनसे बार-बार दर्शन की लालसा करता हो वो संत मिलन है। एक सूत्र समझिए कि अगर किसी संत से हमारा मिलन हो गया है तो इसका अर्थ है भगवान् हमसे मिलना चाह रहे हैं। भगवान् से हमारा मिलन होने जा रहा है। जब तक हमसे भगवान् मिलने की इच्छा नहीं करते तब तक हमारा
संत से मिलन नहीं हो सकता। भगवंत को प्रेरणा से ही संत का आगमन हमारे जीवन हुआ करता है।
आपने देखा होगा कि आपके गांव या मौहल्ले में कोई बड़े सज्जन आनेवाले होते हैं उससे पहले पुलिस आ जाती है और मौहल्ले के लोग पूछने लगते हैं कि कौन आ रहा है? पुलिस क्यों आ रही है? पुलिस आने का अर्थ है कि पीछे-पीछे अधिकारी, मंत्री आ रहे हैं। साधु संत ये भगवान् की पुलिस है, ये भगवान् के संदेशवाहक हैं। अगर हमारे जीवन में भगवान् का कोई सिपाही आ गया तो इसका अर्थ है कि पीछे-पीछे भगवान् भी आने वाले है। बिना भगवत् कृपा के संत का आगमन हमारे जीवन में हो ही नहीं सकता और इसका प्रमाण दिया हैं सुन्दरकाण्ड में जब विभीषणजी व हनुमानजी में वार्ता हो रही थी तो विभीषण नाचने लगे। हनुमानजी ने पूछा क्या हुआ, इतने आनन्द में कैसे आ गए? बोले- अब मुझे भरोसा हुआ, बोले कैसा भरोसा? तब विभीषण बोले हैं-
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
विभीषणजी बोले अब मुझे भरोसा हुआ है। हनुमानजी ने कहा, भरोसा कैसे हो गया? आप जो मिल
गये सो, क्योंकि संत भगवंत की कृपा के बिना मिल ही नहीं सकते। संतों की कृपा से भगवंत मिलते हैं और
भगवंत की इच्छा से संत मिलते हैं। अगर संत मिलन हुआ है इसका मतलब भगवंत पीछे-पीछे आ रहे हैं।
गोस्वामीजी ने जयंत का नाम उल्लेख कर दिया नारद देखा विकल जयंता ।
क्योंकि अब थोड़ी देर में भगवंत की कृपा मिलने जा रही है। तो नारदजी ने पूछा क्या बात है? तो जयंत
बोला कि भगवान् के काल का बाण मेरे पीछे लगा है। शरीर मेरा झुलस रहा है जलाने को तैयार है। हो क्या
गया? बोला भगवानजी का एक अपराध कर दिया मैंने। कहाँ-कहाँ गया बोला पिताजी के पास गया, ब्रह्मलोक
गया, शिवलोक गया पर किसी ने मुझे पूछा नहीं सबने फटकारा तो नारदजी ने कहा अरे बावले अपराध तो
भगवानजी का किया है और क्षमा औरों के पास जाकर माँग रहा है वो क्षमा कैसे कर देंगे? यह तो नियम है
कि जिसका अपराध किया जाता है, क्षमा उसको ही करने का अधिकार है। न्यायालय भी अपराधी को क्षमा
नहीं कर सकता, दण्डित तो कर सकता है लेकिन क्षमा करने का अधिकार न्यायालय को भी नहीं है। अपराध
यहाँ कर रहे हैं और क्षमा वहाँ माँग रहे हैं। अपराध पड़ोस में किया है, क्षमा मन्दिर में जाकर माथा टेककर
मांगते हैं। नारदजी ने कहा अब तक बाण ने तुमको मारा क्यों नहीं यह विचार किया? तीनों लोकों में तुम दौड़े
हो बाण मारना चाहता तो मारता नहीं, मार भी सकता था। इसका अर्थ हैं कि भगवान् ने काल का बाण तो
उसके पीछे लगाया है। प्रभु कहना चाहते हैं कि तीनों लोकों में तुम कहीं भी जाओ, काल के बाण से तुम
बच नहीं सकते। लेकिन मेरे चरणों में अगर आना चाहते हो तो किसी संत की वाणी का सहारा लेकर आ
सकते हो। कोई संत की वाणी तुम्हें प्रभु के चरणों तक ले आएगी। इसलिए प्रभु ने मुझे भेजा है, बोल क्या
चाहता है। मेरे साथ आप चलें ऐसा उसने कहा । नारदजी ने कहा नहीं तुम सीधे जाओ और प्रभु से क्षमा माँगो,
नारदजी ने कहा तुम भगवान् के स्वभाव को नहीं जानते हो-
अति कोमल रघुवीर सुभाऊ । यद्यपि अखिल लोक कर राऊ ।।
नारदजी ने कहा जयन्त! भगवान् अति कोमल हैं, तुम जाओ। आप चलो। नारदजी ने कहा तेरा तो कोई
बड़ा अपराध ही नहीं, तूने तो केवल चरणों को ही स्पर्श किया है। मैंने तो उनकी घरवाली से विवाह करने की
ठानी थी। जब मुझे क्षमा कर सकते हैं तो तुझे क्यों नहीं क्षमा करेंगे? तो जयन्त ने कहा मैं जाऊं तो प्रभु पूछेंगे
कि पहले तुमने क्षमा क्यों नहीं माँगी ? भाग क्यों गया? तो नारदजी ने बोला कि कह देना पहले मैं आपका
प्रभाव देखने चला गया था कि कहाँ-कहाँ तक आपका प्रभाव है, ठीक है यह तो बोल दूँगा, परन्तु प्रभु जी
बोलेंगे कि अब क्यों आए हो? तो नारद जी बोले, बोल देना कि आपका प्रभाव देख लिया कि आपका प्रभाव
कैसा है। अब आपका स्वभाव देखने आया हूँ कि आपका स्वभाव कैसा है। भगवान् का स्वभाव अति कोमल
रघुवीर स्वभाव- कोमल चित कृपालु रघुराई ! जिनको अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं आया। ऐसे हमारे प्रभु
हैं। जिनकी अपराधी पर अपनी कृपा दृष्टि हो और करुणा का हाथ हो तो ऐसे प्रभु श्री राम से जाकर जयन्त
ने जब क्षमा माँगी है तो यही बात बोली है।
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जान नहिं पाई ।।
श्रीहनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं। हनुमानजी में अपना बल नहीं है। भगवान् का बल विराजमान
है। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर । धनुष-बाण लेकर भगवान जिनके हृदय में विराजमान हैं।
भगवान् का बल भी उनके साथ विराजमान होगा कि नहीं? और अपना स्वभाव देखिए! हम हमेशा अपने बल
पर गर्व करते हैं। और श्रीहनुमानजी हमेशा भगवान् के बल का गर्व करते हैं। सो सब तब प्रताप रघुराई नाथ
ना कछु मोर प्रभुताई। हनुमानजी जब भी बोलते हैं तो यही बोलते हैं कि प्रभु मेरा क्या है। मैं तो बन्दर हूँ,
कामुक पशु हूँ। कपि चंचल सबही विधि हीना । यह तो प्रभु आपकी कृपा हो गयी तो लोग बन्दरों को भी
आदर देने लगे। ऐसे अतुलित बलधाम श्रीहनुमानजी अंजनि माँ के पुत्र हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग सत्ताईस।।रामदूत।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग सत्ताईस।।रामदूत।।
दूत स्वामी का संदेशवाहक होता है। स्वामी का हितकारक होता है। स्वामी का प्रभाव स्थापित करने वाला होता है। शास्त्र में दूत के कई गुण बताए हैं। दूत वही जो अपनी बात बिना संकोच के धड़ल्ले से बोल सके। दूसरे, दूत विलक्षण स्मरण शक्ति वाला होना चाहिए। तीसरे उसकी वाणी अकाट्य हो, वो जो तर्क प्रस्तुत करे सामने वाला उसको काट ना पाए। इतना गुण, इतनी विलक्षण प्रतिभा, इतना विलक्षण गुण व ज्ञान किसी दूसरे वानर में दिखाई नहीं देता । भगवान् के संदेश को देना यह दूत का कार्य है। जानकीजी के पास जब हनुमानजी पहुंचे हैं तब जानकी जी चिता बनाकर जलने को बैठी हैं। त्रिजटा से अग्नि की माँग करती हैं। कहीं से भी ला कर दे। त्रिजटा ने समझाया, बिटिया धैर्य धारण करो,निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी ! और समय एक जैसा नहीं रहता। अभी अंधकार है, प्रकाश भी होनेवाला है लेकिन त्रिजटा का भी
जानकीजी पर प्रभाव न हुआ जो जानकीजी चिता बना कर जलने के लिए बैठी थीं। श्रीहनुमानजी ने अपनी
वाणी से जानकीजी को भगवद् प्राप्ति का भरोसा दिला दिया। माँ चिंता मत कर, चिंता मत कर माँ ने पूछा
क्या कभी प्रभु मुझे मिलेंगे? और यह प्रसंग बड़ा मार्मिक है। जब यह परिचय हो गया कि हनुमान् भगवान्
का दूत है और मुद्रिका यही लेकर आया है तो उस मुद्रिका को देखकर और भगवान् के स्वभाव का सुमिरन
कर जानकीजी की आँखों से आँसू की झड़ी लग गयी। बहुत मार्मिक स्वर माँ ने कहे हनुमान् मैंने तो सुना है,
सुना नहीं जाना है कि प्रभु तो बहुत कोमल हैं-
कोमल चित कृपालु रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥
भगवान् का सुमिरन कर जानकी जी बहुत रोई । वचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ मोहिं निपट बिसारी। आँखों से आसुओं की धारा बही, वाणी बोल नहीं पा रही हैं। जब व्यक्ति भाव में होता है, रुदन के भाव में होता है तो केवल आँसू-आँसू हिलकी-हिलकी । शब्द नहीं आते, जानकीजी की भी वही दशा है। बेटा सामने बैठा है। वह भी समर्थ बेटा बैठा है और उसकी माँ हिलकी भर-भर कर रोती हैं। आप कल्पना करिए हनुमानजी पर क्या बीतती होगी? और जानकीजी के शब्द देखिए- कोमल चित कृपालु रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥ भगवान कैसे कठोर हो गए हैं कपि केहि हेतु धरी निठुराई । मैं कैसी अभागी हो गई हूँ। अहह नाथ मोहि निपट बिसारी, प्रभु ने क्या मुझे विसार दिया? क्या कभी मेरा सुमिरन उनको नहीं हुआ? हनुमानजी ने कहा माँ आप यह जो कहती हैं, भगवान् ने आपको बिसार दिया। मुझे लगता है कि आपने भगवान् की कृपा को बिसार दिया। यह तुम क्या कह रहे हो ? मेरा मन तो हर क्षण हर पल, प्रतिपल, निज पद नयन दिए मन राम पद कमल, प्रभुराम के पद-कमलों में लगा हुआ हैं। मैं तो प्रतिपल प्रतिक्षण उनके
नाम का सुमिरण कर उनमें डूबी हूँ। परन्तु मुझे लगता है कि प्रभु ने ही मुझे बिसार दिया है। हनुमानजी ने पूछा आपके पास इसका प्रमाण क्या है कि प्रभु ने आपको बिसार दिया। बोली मेरे पास प्रमाण है, जब जयंत
ने मेरे ऊपर चञ्चु प्रहार किया था तो प्रभु इतने आवेश में आ गए, क्रोध में आ गए कि 'सींक धनुष सायक
संधाना' कि सींक का धनुष बाण बनाकर जयंत के पीछे लगा दिया। लेकिन रावण तो मेरा हरण करके लाया
है और प्रभु को मालूम है और इसके बावजूद रावण चैन की नींद सो रहा है और प्रभु ने अभी तक बाण
नहीं भेजे। हनुमानजी ने कहा माँ आपको कैसे लगता है, माँ, कि बाण आपके पास नहीं आए हैं? मैं कहता
हूँ, बाण भेजा है। जानकीजी ने कहा, कहाँ हैं बाण? हनुमानजी ने कहा, जयन्त जी के पीछे तो सींक का ही
बाण था, मैं सीधे साक्षात् बाण के रूप में ही तो आया हूँ-
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।एही भाँति चलेउ हनुमाना।
हनुमानजी ने कहा प्रभु ने इस वक्त मुझे ही बाण बना कर भेजा है और इसका ज्ञान आपको भी हो चुका था कि प्रभु का बाण आ चुका है। जब आप रावण को फटकार रही थीं तब मैं अशोकवाटिका के वृक्ष के ऊपर बैठा था। आपने रावण को फटकार कर कहा था-
खल सुधि नहिं रघुवीर बान की।
क्या तुझे भगवान् के बाण की सुधि नहीं। इसका अर्थ है कि आपको ज्ञान हो चुका था कि भगवान का बाण आ चुका है। बस माँ इतना ही अन्तर है। भगवान् कभी ऐसा नहीं करते कि जीव को अपनी कृपा से अलग करें। प्रभु की कृपा तो जीव पर सदा रहती है। कई बार जीव उसका अनुभव नहीं करता। आपको सामने संकट के रूप में रावण तो दिखाई दे रहा था लेकिन आपके शीश पर भगवान् की कृपा मेरे रूप में विराजमान थी, वो नहीं दिखाई दे रही थी और यह मनुष्य का स्वभाव है। संकट चूंकि हमेशा आँखों के सामने रहता है इसलिए वह दिखाई देता है, इसलिए मनुष्य हमेशा संकट का रोना रोता है लेकिन कृपा हमेशा सिर पर रहती है। सिर पर जो वस्तु रहती है वह दिखाई नहीं देती लेकिन रहती सिर पर है। भगवान् की कृपा हमेशा जीव के साथ है क्योंकि संकट हमेशा आँखों के सामने है, कृपा दिखाई नहीं देती, कृपा तो भगवान् के भजन से अनुभव होती है। कृपा तो परमात्मा की प्रत्येक जीव पर है लेकिन जो भजन से दूर हुए हैं उनको भगवान की कृपा का अनुभव नहीं होता। और यह सिद्धान्त एकदम स्वीकार कर लीजिए कि भगवान् जीव को बीच मझधार में संकट में अकेला, असहाय नहीं छोड़ते। अगर कोई प्रारब्ध के वशीभूत उसके जीवन में संकट आ रहा है तो कोई न कोई कृपा का कारण भी उसके साथ आ रहा है। अगर प्रभु ने प्रारब्ध के वशीभूत उसके जीवन का कोई द्वार बंद किया है तो सहायता के रूप में पीछे से कोई खिड़की जरूर खुलती है। अगर कोई अपने परिवार में अकाल मृत्यु हो रही है तो इसका अर्थ है इसके पहले बहू के गर्भ में बालक का आगमन हो चुका है, ऐसा कभी नहीं होता कि मौत हो जाए पर बच्चे का जन्म न हो, भगवान की कृपा कदम,-कदम पर है। हनुमानजी ने कहा, माँ! न प्रभु निष्ठुर हुए हैं, न प्रभु ने आपको बिसारा है मुझे ऐसा लगता है आपने उनके स्वरुप, उनके स्वभाव को बिसारा है। अगर आपको भरोसा नहीं तो आप भगवान् के ही श्रीमुख से सुन लें कि आपके विरह में मेरे प्रभु कितने व्याकुल हैं। उन्हीं की वाणी में सुन लीजिए-
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।
हनुमानजी तो मौन हो गए। अब आप लाइव टेलीकास्ट देखिए, माँ! सीधा दर्शन करो यह संदेश कौन बोल रहा है।
राम कहेउ बियोग तव सीता।मो कहूँ सकल भए बिपरीता।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।काल निसा सम निसि ससि भानू ।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा बारिद तपत तेल जनु बरिसा ।।जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥
कहूँ तें कछु दुख घटि होई काहि कहीं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।जानत प्रिया एक मनु मोरा ।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरि राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु बिकलाई ॥
और ये जो शब्द बोले हैं वो हनुमानजी नहीं कह सकते हैं कोई बेटा माँ को प्रिय कहकर नहीं सम्बोधित कर सकता। हनुमानजी ने कहा माँ प्रभु की वाणी आप सीधे-सीधे सुनिए । जो अभिमानशून्य होता है वही
भगवान् का दूत बनता है। रामदूत का अर्थ है कि वाणी और शब्द तो भक्त के होते हैं लेकिन उसमें संदेश
भगवान् का होता है। जिस वाणी में भगवान् का संदेश न हो, जो वाणी भगवान् का सुमिरन न कराती हो, जो
शब्द भगवान् के दर्शन की उत्सुकता न जगाते हों वो शब्द सांसारिक हैं, वो शब्द रामदूत के नहीं हो सकते,
वो कामदूत के होते हैं। हनुमानजी रामदूत हैं, वाणी हनुमानजी की है लेकिन संदेश उसमें भगवान् का होता है।
ये दो अवतारों में है। दो लोग भगवान् के दूत बने हैं। रामावतार में हनुमानजी और कृष्णावतार में वंशी । इन दोनों ने दूत का काम किया दूत माने भगवान् का संदेश पहुँचाने वाला। आखिर वंशी के स्वर के द्वारा ही तो वो गोपियों तक अपना संदेश पहुँचाते थे। वंशी बजायी, गोपियों ने सुनी और दौड़कर गोपियाँ भगवान् के पास आती थीं। जो कार्य कृष्णावतार में बंशी करती थी वही कार्य रामावतार में हनुमानजी करते थे। एक बार गोपियों ने बंशी से पूछा (थोड़ी ईर्ष्या भी हो गयी थी कि क्यों री बंशी, वैसे तो तू कोरे बांस की है कितने ही छिद्र तेरे भीतर हैं, फिर भी तू हमेशा श्याम सुन्दर के हाथों में, होठों पर रहती हो। हम इतने रूपवान, गुणवान, बुद्धिमान हैं लेकिन हमको कभी इतना प्रेम नहीं करते। ऐसा तेरे अन्दर कौन सा गुण है? तो बंशी ने कहा कि मेरे अन्दर एक ही गुण है। क्या गुण है? बोली मेरे अन्दर कोई गुण नहीं है यही गुण है।।आप तो गुणों से भरी हुई हैं और भगवान् के हाथों में वह रहता है जिसमें कोई गुण नहीं है अन्यथा जिसमें
गुण है वो गुणों के हाथ में रहता है और बंशी ने कहा क्या आपको मालूम है कि भगवान् के हाथों में आने के
लिए उसे कितने पापड़ बेलने पड़े? क्या करना पड़ा? बोले, मैंने अपना तन कटवाया, मन कटवाया, जिसने मुझे
कटवाया उससे मैंने पूछा भी नहीं, अपने मन की भी मैंने नहीं कही कि कहाँ ले जाओगे ? चारपाई बनाओगे,
सीढ़ी बनाओगे, लाठी बनाओगे, अर्थी में लगाओगे। मैंने यह भी नहीं पूछा कि कहाँ लेकर जाओगे, जहाँ ले
जाओ सर्वांग समर्पण, न शिकवा, न शिकायत। तन कटवायो, मन कटवायो, ग्रन्थिन-ग्रन्थिन मैं छिदवायो ।
मेरी एक-एक गांठ को गरम-गरम सलाखों से छेदा गया और फिर जैसो चाहते हैं श्याम मैंने वैसो ही स्वर
सुनायो । ऐहि कारण निज अधरन पर मोहि धरत मुरारी, भगवान् जैसा स्वर चाहते हैं मैं वैसा ही सुनाती हूँ।
आप अपना स्वर भगवान् को सुनाती हो और मैं भगवान् का स्वर आपको सुनाती हूँ। हनुमानजी भगवान् का
स्वर सुनाते हैं। भगवान का संदेश पहुंचाते हैं बंशी कृष्णावतार में भगवानकृष्ण का संदेश सुनाती हैं। भगवान्
के हाथों में रहना है, उनके होठों पर रहना है। भगवान श्रीराम के होठों पर हमेशा हनुमानजी रहते हैं - राम जासु
जस आपु बखाना ॥
अगर हमें भगवान श्रीकृष्ण के होठों पर रहना हो तो अपने जीवन को बंशी बनाना होगा-
जीवन है तेरे हवाले मुरलियावाले ॥
हम तो मुरली तेरे हाथ की। चाहे जैसे बजा ले मुरलिया वाले ॥
जीवन है तेरे हवाले मुरलिया वाले ॥
जो कार्य श्रीहनुमानजी करते थे वही कार्य कृष्णावतार में बंशी करती थी। जानकीजी को जाकर संदेश दिया, रावण को जाकर संदेश दिया। अवध में भरतजी को जाकर भगवान का संदेश दिया श्रीहनुमानजी ने जब भरतजी ने पूछा कि तुम हो कौन तो श्रीहनुमानजी ने उत्तर दिया-
मारुतसुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपा निधाना।।
दीनबन्धु रघुपति कर किंकर।सुनत भरत भेंटेउउठि सादर।
कपि तब दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते ॥
एहि संदेस सरिस जग माहीं । करि विचार देखेउँ कछु नाहीं ॥
श्रीहनुमानजी जहाँ भी जाते हैं प्रभु दूत बनकर, संदेश लेकर जाते हैं।
रामदूत अतुलित बलधामा, अजनि पुत्र पवनसुत नामा।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग छब्बीस।।हनुमानजी का पद।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग छब्बीस।।हनुमानजी का पद।।
हनुमानजी के लिए  बाबा ने कहा है कि
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहूं लोक उजागर।
और  हनुमानजी वानरों के रक्षक भी  हैं। राखेहू सकल कपिन के प्राणा यह कपियों के वास्तव में ईश्वर हैं, रक्षक हैं। जय कपीस तिहूं लोक उजागर। श्रीहनुमान का यश तीनों लोकों में है। स्वर्ग में देवता इनका यशोगान करते हैं। मृत्युलोक में राम-रावण संग्राम में सारे ऋषि-मुनि, सारे मानव एवं दानव सभी ने यहाँ तक की दानवराज रावण ने भी हनुमानजी की प्रशंसा की है।पाताललोक मेंअहिरावण व महिरावण भगवान् का हरण करके ले गए थे तो जाकर देवी की प्रतिमा में विराजमान होकर श्रीहनुमानजी ने भगवान् की रक्षा की है। वह बड़ा मार्मिक प्रसंग है। हनुमानजी देवी की प्रतिमा में प्रवेश कर गए। अहिरावण, महिरावण ने देवीजी को प्रसन्न करने के लिए 56 भोग लगाए और हनुमानजी युद्ध में बहुत दिनों तक भोजन नहीं कर पाए थे। टोकरी पे टोकरी चढ़ाए जा रहे हैं। हनुमानजी कह रहे हैं ले चले आओ, ले चले आओ और हनुमानजी लड्डू खा-खा कर बहुत प्रसन्न, अहिरावण और महिरावण
देखकर मन ही मन बहुत प्रसन्न कि आज देवी जी बहुत प्रसन्न हैं। हनुमानजी सोच रहे हैं कि बेटा चिंता मत कर। एक साथ इसका फल दूँगा । तो पाताललोक में, नागलोक में अहिरावण, महिरावण, भूलोक में ऋषि व मुनि, मृत्युलोक में देवता, लोकउजागर ऐसे श्रीहनुमानजी जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। हनुमान चालीसा की चौपाई-
राम दूत अतुलित बल धामा अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।कह रही है कि श्रीहनुमानजी महाराज भगवान् श्रीराम के दूत हैं रामदूत हैं। जानकीजी के पास में गए तो माँ ने यही प्रश्न किया, तुम हो कौन, अपना पता व परिचय दो। तो हनुमानजी ने अपने परिचय में इतना ही कहा रामदूतमैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुना निधान की। अपने परिचय में हनुमानजी यही बोले माँ मैं भगवान् श्रीरामजी का दूत हूँ। हनुमानजी की वाणी सुनकर माँ ने कहा दूत बन कर क्यों आया है भैया, तू तो पूत बनने के योग्य
है। पूत बन कर क्यों नहीं आया? हनुमानजी बोले पूत तो आप बनाओगी तभी तो बनूँगा। मैंने इतना कहा तो
जानकीजी आगे जब भी बोलीं हमेशा पूत शब्द का प्रयोग किया
हैं सुत कपि सब तुमहि समाना।
जब-जब बोली हैं जानकीजी, पुत्र बोल कर सम्बोधित किया इसके बाद भगवान् बोले हैं- सुनु सुत तोहि उरिन मैं
नाहीं। क्योंकि पुत्र का जो प्रमाण पत्र है वह तो माँ देती है। भगवान् अगर पहले पुत्र कह कर सम्बोधित कर
देते तो जगत की व्यवहारिक कठिनाई खड़ी हो जाती, क्योंकि पुत्र तो माँ के द्वारा प्रमाणित होता है। क्योंकि
माँ जो बोलेगी, माँ ही तो बोलेगी कि मैंने जन्म दिया है। इससे पहले माँ ने पुत्र कह कर सम्बोधित किया फिर जब भगवान् भी बोलते हैं तो पुत्र कह कर ही बोलते हैं। रावण के पास भी जब हनुमानजी गए तो रावण ने पूछा अरे बन्दर तेरे पास पद कौन सा है। किस पद की हैसियत से तू यहाँ पर आया है क्योंकि समाज में प्रतिष्ठा पद की है और जब से पद को प्रतिष्ठा मिली है तब से समाज में ईर्ष्या व द्वेष बढ़ा है। फिर बुरे से बुरा व्यक्ति पद प्राप्त कर लेता है, और इस कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है। जो बुरे से बुरा व्यक्ति पद पर बैठा है उसको आप आदर देते हैं। अच्छे से अच्छा व्यक्ति चरित्रवान व्यक्ति अगर छोटा है, किसी पद पर नहीnहै तो हम उसको सम्मान नही देते हैं। हम अपने घर के नौकर को कहाँ सम्मान देते हैं। बेईमान से बेईमान
व्यक्ति अगर पद पर विराजमान हो, आप उसको आदर देते हैं। समाज में चरित्रवान ईमानदार को कहाँ सम्मान
मिलता है। रावण ने भी पूछा तेरे पास पद कौन सा है और हनुमानजी जीवन भर पद से दूर रहे। देखिए एक बात है, पद से तो दूर रहे पर क्या पद पर विराजमान रहे। उन्होंने जगत का पद नहीं लिया, जगत पिता के पद पर विराजमान रहे। आपने वह घटना सुनी होगी! भगवान् ने एक बार हनुमानजी से बहुत प्रेम के भाव मे बोला भगवान् ने कहा हनुमान आज मन में एक बात आ रही है मानो तो कहें? हनुमानजी बोले बोलिए प्रभु क्या कह रहे हैं? भगवान बोले हनुमान तुमको तो मालूम है कि कोई जगत में हमारा तनिक सा भी कार्य करता है, सहयोग करता है तो हम उसको दस-दस गुना करके वापस करते हैं। अंगद ने हमारा सहयोग किया हमने उसको किष्किन्धा का युवराज बना दिया। सुग्रीव ने हमारा सहयोग किया हमने किष्किन्धा का राजपाद उसको दे दिया। विभीषण ने हमारा सहयोग किया तो हमने लंका का राजपद उसे दे दिया और भले आदमी तुमने तो सारा जीवन हमको दे दिया लेकिन कभी हमने तुम्हें अपने हाथों से कुछ न दिया। यह मुझे मालूम है किन्तु तुम निवृत्तिमार्गी हो, तुमको कुछ नहीं चाहिए लेकिन मेरी प्रसन्नता के लिए कि मुझे अच्छा लगे कि मैंने हनुमान् को कुछ दिया है। आज तुम कुछ मांगो, जब भगवान् ने कहा कि तुम कुछ मांगो, हनुमानजी भी थोड़े मूड़ में आ गए। हनुमानजी कहा कि सचमुच कुछ देना चाहते हो या वैसे ही किसी मीठी बात में फँसाना चाहते हो? भगवान् ने कहा माँग तो सही तेरे मन में कुछ मांगने की इच्छा तो आई, बोल क्या चाहिए, हनुमानजी ने
कहा भगवन् एक तो हम पद नहीं ले सकते क्योंकि पद लेने का अर्थ है कि मनुष्य को भूत बनना पड़ता है.
जिसके पास पद आएगा उसको भूत बनना पड़ेगा और पद मेरे पास आ नहीं सकता क्योंकि मेरे पास भूत भी
नहीं आ सकता फिर कहते हैं मेरे बारे में सबको मालूम है ना-
भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ॥
तो हनुमानजी ने कहा कि पद मेरे पास आएगा नहीं, क्योंकि पद के साथ भूत जुड़ा है और भूत मेरे नाम से
ही भागता है। भगवान् ने कहा हमारी इच्छा है, हमारी इच्छा के लिए माँगो हनुमानजी ने कहा कि ऐसा है तो सुनिये आपने सबको एक-एक पद दे रखे हैं किसी को युवराज पद, किसी को राजपद मैं एक पद से तो राजी नहीं हूँगा । भगवान ने कहा माँग तो सही कितने पद चाहिए? जब भगवान् ने पूछा कितने पद चाहिए तो तुरन्त हनुमानजी ने भगवान के दोनों चरण पकड़े और बोले मुझे तो ये दोनों पद चाहिए। बाकी कोई पद किसी को भी दे दीजिए।
जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम्ह सन सहज सनेह ।
बसहु निरन्तर तासु उर, सो राउर निज गेह ।।
भगवान् मुझे तो आपके चरण पद चाहिए और भगवन् बाकी पद देकर आप भूत बनाना क्यों चाहते हैं, मैं तो अभूतपूर्व रहना चाहता हूँ। और सचमुच में श्रीहनुमानजी अभूतपूर्व हैं। क्योंकि जब रावण ने पूछा अरे
पास पद कौन सा तो हनुमानजी ने यही उत्तर दिया।
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥
मैं श्रीराम दूत हूँ। 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।।श्रीहनुमानजी भाग पच्चीस।।सज्जन पर कृपा।।

मानसचर्चा।।श्रीहनुमानजी भाग पच्चीस।।सज्जन पर कृपा।।
सज्जन के पास सारे सद्गुण आया करते हैं बुलाने नहीं पड़ते। सज्जन शब्द मानस का प्रिय शब्द है।
मानस में सज्जन की परिभाषा है। हनुमानजी ने विभीषण के द्वार पर यह शब्द प्रयोगं किया इहाँ-कहाँ सज्जन कर बासा। हनुमान ने विभीषण को सज्जन के रूप में देखा। यहाँ सज्जन कैसे निवास करता है। सज्जन क्यों कहा क्योंकि विभीषण जब जागे हैं तो भगवान् के नाम का सुमिरन किया है।
राम-राम तेहिं सुमिरन कीन्हा ।
हृदय हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एक तो श्रीहनुमानजी ने सज्जन की परिभाषा दी, सज्जन कौन है? जो भगवान् रामचन्द्रजी का सुमिरन
करे, हनुमानजी को वही सज्जन दिखाई देता है।
राम-राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयं हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥और ऐसे सज्जन को पहचान कर श्रीहनुमानजी गद्गद् हो गए और जो राम नाम का सुमिरन करे वह सज्जन है। दूसरे सज्जन की परिभाषा सागर से आई है। जब चन्द्रमा पूर्णमासी का होता है तब आपने सुना होगा कि सागर में ज्वार उठता है, सागर उमड़ता है और यह गोस्वामीजी ने संकेत दिया है।
सज्जन सुकृत सिन्धु सम होई।
देखि पूर बिधु बाढहिं जोही ।
जो दूसरे को बढ़ता हुआ देखकर आनन्द में उमड़े, वह सज्जन है। हम दूसरे को बढ़ता देख कर जलते हैं। सागर उमड़ता है, सागर उछलता है, चन्द्रमा आकाश में बढ़ रहा है और धरती पर सागर उमड़ रहा है। जो किसी को आकाश में बढ़ता हुआ, उड़ता हुआ उठता हुआ, उमड़ता हुआ देखता है उसमें सज्जनता वास करती है। जिसका हृदय उमड़ता हो, प्रसन्नता से भरता हो वह सज्जन है। हम सबकी दशा कैसी है। अब हम अपने बारे में विचार करें कि हम कितने सज्जन हैं। पड़ौसी का बालक प्रथम श्रेणी में पास हुआ है। सुनकर अपने को कैसा लगता है? हमारा पड़ौसी हमसे ज्यादा महंगी कार खरीद कर ले आया है, देखकर हमको कैसा लगता है ? हमारे पड़ौसी का कारोबार हमसे आठ गुना बढ़ गया है। सुनकर हमें कैसा लगता है? सज्जन की परिभाषा बाहर मत ढूंढिये। सज्जन की परिभाषा अपने अन्दर खोजिए। सच यह है कि हम किसी को बढ़ता देख ही नहीं सकते, देखना तो बहुत बड़ी बात, हम सुन नहीं सकते। मनुष्य का स्वभाव देखो न, कोई किसी की बुराई कर रहा हो, बड़े-बड़े व्यक्ति की बुराई कर रहा हो तो आप कभी नहीं टोकेंगे कि नहीं-नहीं, आप नहीं जानते  उनके बारे में हमको मालूम है। इतने सज्जन हैं, उनके बारे में आप कैसे बोल रहे हैं? आप उनकी बुराई को रस लेकर सुनते जाएंगे। बहुत ज्यादा आप बड़प्पन दिखाएंगे तो नमक मिर्च नहीं लगाएंगे। शान्ति से सुन लेंगे।
लेकिन अगर कोई किसी की प्रशंसा कर रहा हो तो आप तुरन्त टोक देंगे। नहीं-नहीं, आप क्या जानते हो उनके बारे में? उनके बारे में तो हम जानते हैं, हमको मालूम है। यह हमारा स्वभाव है। हम बुराई को तत्काल अपनी सहमति देते हैं। किसी में दोष है या नहीं हमको मालूम नहीं परन्तु हम तुरन्त सहमति देते हैं कि ऐसा जरूर होगा। आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन अगर कोई किसी की प्रशंसा करे तो हम तत्काल टोकते हैं, रोकते हैं कि नहीं-नहीं, आपको मालूम नहीं। यह भीतर जो ईर्ष्या की जलन है न, यह किसी दूसरे की प्रशंसा सुनने के लिए तैयार नहीं है। किसी को बढ़ता हुआ देखना इसको पसंद ही नहीं। एक  बहुत सुन्दर कथा है, एक सज्जन ने किसी संत से आशीर्वाद ले लिया तो उन्होंने कह दिया, जाओ सागर की उपासना करो। अगर सागर प्रसन्न हो गए तो तुमको सागर एक चमत्कारी शंख प्रदान कर देंगे जिससे जो चाहो ऐश्वर्य-वैभव ले सकते हो। इसलिए उसने सागर के किनारे जाकर अनुष्ठान किया और सागर ने प्रसन्न होकर इनको एक शंख प्रदान कर दिया और कहा कि जाओ इसको दूध से अभिषेक करके
जो चाहोगे वह मिलेगा। इसमें एक शर्त जुड़ी है कि इससे जितना तुम्हें मिलेगा उससे दोगुना तुम्हारे पड़ौसी को
मिलेगा, यह इस शंख की विशेषता है। अब यह शंख तो ले आया और सोचने लगा कि इस शंख से मांगूंगा तो पड़ौसी का दोगुना हो जाएगा और पड़ौसी को ही तो चौपट करने के लिए मैंने पूजा की थी। बड़ी मुश्किल से उसने शंख को पूजाघर में रख दिया। पत्नी को यह मालूम था कि शंख की पूजा से जो चाहो वो मिलता है, तो यह व्यक्ति कहीं बाहर गया और पत्नी ने शंख उठाया दूध से अभिषेक किया। पूजा-अर्चना की हाथ जोड़ कर यह मांगा कि हमें एक गाड़ी और एक बंगला मिल जाए। पड़ौसी को दो गाड़ी और दो बंगले मिल।गए। जब पति आए और देखा कि पड़ौसी के दो बंगले, दो बड़ी-बड़ी गाड़ी। पत्नी से पूछा, तुमने इस शंख की पूजा की थी क्या? हाँ इतने दिनों से खाली रखा था। अरे पगली, पूजा तो की परन्तु पड़ौसी दोगुना हो गया। मैं नहीं कर सकता था क्या? मैं पड़ौसी के कारण नहीं कर पा रहा था। भले ही हम भूखे मरें परन्तु
पड़ौसी को भोजन नहीं मिलना चाहिए।अब पुरुष ने शंख की पूजा की। शंख ने पूछा बोलो क्या चाहते हो तोबोला ऐसा करो सरकार, मेरे घर के सामने पानी का बहुत बड़ा संकट है एक गहरा कुआं खोद दो तो शंख ने इसके सामने एक गहरा कुआं खोदा और पड़ौसी के सामने दो कुएं खुदवा दिए क्योंकि पड़ौसी को दूने का आशीर्वाद था । तो शंख ने कहा और कोई चाह बोलो बोला- मेरी एक आंख फोड़ दो, जो होगा सो देखा जाएगा। जब मेरी एक आँख फूटेगीं, तो पड़ौसी की दोनों आँख फूटेगीं। यह मनुष्य की प्रकृति है जो दूसरे को।बढ़ता न देख पायें, वो दुर्जन है। यह जो सहानुभूति शब्द है न यह बहुत चालाकी का शब्द है। सहानुभूति आप।सभी संकट में दिखाते हैं। किसी की कोठी या फैक्ट्री में आग लग गई या किसी की कोठी को नगरपालिका के बुलडोजर ने ढहा दिया तो आप दिखाने के लिए सहानुभूति के शब्द लेकर घड़ियाली आँसू लेकर चले जाओगे । लेकिन किसी पड़ौसी ने बहुत बड़ा बंगला बनवा लिया तो उस खुशी में लड्डू बांटने नहीं जाओगे।
किसी का बालक फेल हो गया तो सहानुभूति देने चले जाओगे लेकिन किसी का बालक पास हो गया तो
खुशी में लड्डू लेकर नहीं जाओगे तो सहानुभूति आपकी चतुराई है। आप उसे दुःख में देखना चाहते हैं और
दिखावे के मीठे शब्द बोलकर अपने मन को आनन्दित करना चाहते हैं तो क्या यह सज्जनता है? आसमान में
चन्द्रमा पूर्ण हो रहा है और नीचे धरती पर समुद्र उमड़ रहा है इसको सज्जनता कहते हैं। जो दूसरे की बढ़ती
को देखकर उमड़े। उसको सज्जन कहते हैं। और तीसरी सज्जनता की परिभाषा भगवान् ने दी-
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी। 
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें ॥
भगवानजी ने विभीषणजी को कहा है नौ जगह मनुष्य की ममता रहती है। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार में जहाँ-जहाँ हमारा मन डूबता है जहाँ-जहाँ हम डूब जाते हैं, इन सब ममता।के धागों को बट कर एक रस्सी बना, तब उस ममता की रस्सी को मेरे पैरों से बाँध दे अर्थात  हमसे ममता करे वह सज्जन है ।चौथी परिभाषा हनुमानजी कहते हैं - सज्जन कौन है, बोलते, उठते, सोते, जगते हरि नाम लेता है, भगवान् का सुमिरन करता है, वो सज्जन।है। सागर कहते हैं जो दूसरे को बढ़ते हुए देख उमड़ता हो, वो सज्जन है जो सबकी ममता मुझसे जोड़ दे, मेरे चरणों में छोड़ दे “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणंब्रज ।” जो सबकी ममता को मुझसे जोड़ दे सबका दर्शन।मेरे अन्दर करे, वह सज्जन है। बाबा गोस्वामीजी लिखते है कि ऐसे सज्जन से हनुमानजी हठपूर्वक मित्रता करते हैं।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी ।
साधु ते होइ न कारज हानी ।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।।श्रीहनुमान भाग चौबीस।। शील।।

मानसचर्चा।।श्रीहनुमान भाग चौबीस।। शील।।
हनुमानजीको माँ का आशीर्वाद है । होहुँ तात बल शील निधाना, देखिए गुण के साथ शील होना आवश्यक है। शील आएगा माँ के आशीर्वाद से भक्ति की कृपा गुण में शील के साथ जुड़ी है और भक्ति श्रीहनुमानजी के आशीर्वाद से मिलेगी, अन्यथा तो गुण अभिमानी हो जाता है। हमारे सबके गुण अभिमान लेकर आते हैं और हनुमानजी के गुण भगवान् को लेकर आते हैं। गुण माने योग्यता तथा गुण रस्सी को भी कहते हैं। गुणवान अनेक प्रकार के बन्धनों में बंधे भी देखे जाते हैं। गुण अभिमान के बन्धन में हमको बाँध देते हैं। गुण बहुत धीरे-धीरे शील के साथ आते है। बहुत सुन्दर चौपाई लिखी है-
सिमिटि सिमिटि जल भरहिं तलाबा ।
जिमि सद्गुन सज्जन पहिँ आवा।।
गुण के साथ शील चाहिए, धर्मशील, विनयशील, दानशील- 
विनयशील करुणा गुण सागर।
जयति बचन रचना अति नागर।
शील माने दयालुता, विनम्रता, सरलता, सहजता। आपने प्रहलादजी की कथा सुनी है। प्रहलादजी ने अपने तपोबल से तीनों लोकों का राज्य अपने वशीभूत कर लिया। इन्द्र घबराकर भगवान् के पास आए और इन्द्र ने कहा महाराज लगता है कि मेरा सिंहासन भी जानेवाला है क्योंकि प्रहलादजी ने अपने बल से तीनों लोकों पर आधिपत्य कर लिया है। मेरा राज्य मुझे कैसे मिले युद्ध मैं उनसे कर नहीं सकता इतने बलवान हैं। भगवान ने कहा कि प्रहलादजी भी दानशील व शीलवान हैं। आप जाइये ब्राह्मण का वेष बनाकर और जो माँगना है उनसे माँग लीजिए, वे मना नहीं करेंगे। ब्राह्मण वेष बनाकर इन्द्र प्रहलादजी के दरबार में आए, प्रहलाद ने अन्तर्दृष्टि से जान लिया कि ब्राह्मण रूप में इन्द्र है। पूछा,अरे ब्राह्मण देवता कैसे आगमनहुआ,
क्या चाहते हैं। ब्राह्मण ने एक-एक करके बल, वैभव, सम्पति, ऐश्वर्य, राज्य, शक्ति जो कुछ भी उनको माँगना
था माँगते चले गए। तथास्तु - तथास्तु प्रहलाद देते चले गए। जब सब कुछ दे दिया तो इन्द्र ने कहा कि अब मुझे आपका सत्य चाहिए सत्य भी दे दिया, शक्ति भी चाहिए शक्ति भी दे दी। अंत में कहा कि हमें आपका शील भी चाहिए। प्रहलादजी ने कहा हम आपको शील नहीं देंगे। तो ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने कहा आपने तो सब कुछ देने का वचन दिया था तो आप मना क्यों कर रहे हैं? यह आपको शोभा नहीं देता। तो प्रहलादजी ने मुस्कुराकर कहा कि ब्राह्मण देवता शील मांगना न तो आपके हित में है, न मेरे हित में है। पूछा कैसे ? तब प्रह्लाद जी ने हँसकर कहा कि महाराज, मैं आपको जानता हूँ, आप तो इन्द्र हैं और ब्राह्मण वेष में आप मुझसे छल करके माँगने आए हैं। यह जानने के बावजूद भी कि आप छल करके मुझसे सब कुछ माँग रहे हैं, फिर भी दे रहा हूँ यह मेरा शील ही तो है। अगर मैं शील भी आपको दूँगा तो मारपीट के सब कुछ आपसे छीन लूँगा । इसलिए भलाई इसी में है कि शील छोड़ जाइए, सब कुछ ले जाइए। अन्यथा शील मैंने आपको दे दिया तो मैं सब कुछ आपसे छीन लूँगा । ज्ञान के साथ अगर शील है 'होहु तात् गुणशील निधाना' गुण
के साथ शील है तो भगवान् रहेंगे, गुण के साथ अभिमान रहेगा तो मान और अपमान के साथ हमेशा रोते रहेंगे जैसे
सिमिटि सिमिटि जल भरहिं तलाबा। जिमि सदगुन सज्जन पहँ आवा।। ऐसे ही सद्गुण अपने आप आते हैं। एक नियम समझिए, जीवन में एक सद्गुण आपके अन्दर आ
गया तो एक ही सद्गुण सारे सद्गुणों को बुला लेता है और जीवन में यदि एक भी दुर्गुण आ गया तो सारे
दुर्गुणों को बुला लेता है। आ जाओ आ जाओ आपको भी जगह मिल जाएगी। सारे रिश्तेदारों को भी अपने
यहाँ बुला लेते हैं। एक कहावत है कि- गांव के लोग अपनी लड़की की शादी के लिए लड़का देखने गए। लड़का देखा
अच्छी नौकरी में था, किसी पड़ौसी से पूछा कि बिटिया की शादी पक्की करना चाहते हैं। चूंकि पड़ौसी ही असलियत जानते हैं और पड़ौसी ही असलियत बताते हैं। पड़ौसी ने कहा लड़का तो अच्छा है, सर्विस भी अच्छी करता है, लेकिन लड़के को पुरानी खाँसी है। आजकल खाँसी, टी.बी. कोई ऐसा रोग नहीं है जो ठीक न हो पाए। आजकल अच्छी-अच्छी औषधि बन गई है यह भी ठीक हो जाएगी। लड़के को टी.बी. है क्या? बोले नहीं, साहब टी.बी. तो क्या, नई उम्र का बालक है लड़कों के साथ पीने की आदत पड़ गई है। ओह तो इसका मतलब लड़का शराब भी पीता है क्या? नहीं साहब इस मंहगाई के जमाने में कौन शराब पी पाएगा वो।तो जब कभी जुए में हाथ लग गया तो थोड़ी सी पी लेता है। अच्छा-अच्छा लड़का जुआरी भी है। नहीं-नहीं।साहब जुए के लिए रोज-रोज पैसा कहाँ से लाएगा वो तो कभी-कभी किसी की जेब साफ कर लेता है या किसी की साईकिल या स्कूटर मिल जाता है तो दाव लगा लेता है। अच्छा तो लड़का चोरी भी करता है। तो एक दुर्गुण आया हजार दुर्गुण पीछे चले आए, एक सद्गुण आएगा तो वो हजारों सद्गुणों को बुलाएगा। जल हमेशा गड्ढे में ही भरता है ऊँचे-ऊँचे पर्वत के शिखर खाली रह जाते हैं। छोटी-छोटी पोखर भर
जाती हैं क्योंकि जो अकड़कर खड़ा है उस पर कृपा की वर्षा तो होगी परन्तु सारा जल व्यर्थ में इधर-उधर
बह जायेगा क्योंकि जल तो गड्ढे में ही भरता है। जो विनम्र है उसके अन्दर कृपा आकर बैठ जाएगी। इसको
गोस्वामीजी ने सज्जन कहा है-
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ।।
तिमि सुख सम्पत्ति बिनहिं बुलाये । 
धरमसील पहँ जाहि सुहाये ॥
सिमिटि - सिमिटि जल भरहिं तलाबा ।
जिमि सद्गुन सज्जन पहिँ आवा ॥
सरिता जल जलनिधि मँहु जाई । 
होई अचल जिमि जिव हरि पाई ।।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

मानसचर्चा।।हनुमानजी भाग पाँच।। हनुमानजीकी पूंछ / पूछ सबसे लम्बी क्यों।।

मानसचर्चा।।हनुमानजी की  पूंछ / पूछ सबसे लम्बी क्यों।। यहां हम पूंछ शब्द में श्लेष करते हुवे क्रमशः पूंछ अर्थात् दुम tail और पूछ अर्थात् सम्मान respect के अर्थों में चर्चा करेंगे।हम इन  दोनों अर्थों  को लेते हुवे इस चर्चा का अंग बनकर हनुमान कथा के आनंद सागर में डुबकी  लगाए। किसी ने गोस्वामीजी से एक बार पूछा कि  पूरी सेना में हनुमानजी की सबसे ज्यादा लम्बी पूँछ क्यों है ? गोस्वामीजी ने कहा कि हनुमानजी की पूँछ सबसे लम्बी इसलिए है क्योंकि उनकी मूँछ नहीं है।हम प्रायः  यही पाते हैं कि हनुमानजी की मूँछ नहीं है। बिल्कुल क्लीन सेव, दाढ़ी तो है पर मूँछ नहीं। दाढ़ी गम्भीरता का प्रतीक है। मूँछ अहंकार का प्रतीक है। आजकल तो बिना मूँछ वाले भी भी जरा-जरा सी भी बात पर मूँछ ऐंठने लगते हैं। हनुमानजी में किसी प्रकार की भी ऐंठ नहीं, एकदम विनम्र इसलिए हनुमानजी की पूँछ है।और रावण को हनुमानजी से अगर कुछ भी चिढ़ है तो उनकी पूँछ से है। क्योंकि रावण दुष्ट है और दुष्ट व्यक्ति हमेशा सज्जनों की पूँछ से चिढ़ते हैं। और यह तमाशा देखे कि सारी दुनिया पूँछ के पीछे ही पड़ी है कि हमें तो कोई पूछता ही नहीं,हमारी पूछ हो तब न हम वहां जाएं। जहाँ देखो पूँछ का झगड़ा। हम सब पूँछ के पीछे भाग रहे हैं और पूँछ हनुमानजी के पीछे भाग रही है। इसलिए रावण को हनुमानजी की पूँछ से बहुत चिढ़ है। उसने कहा कि बन्दर की पूँछ में आग लगा दो और यह हर युग का नियम रहा है जब भी सज्जनों की पूँछ बढ़ती है तो दुष्टों के हृदय में ईर्ष्या की आग जलती है। और वह ईर्ष्या की आग सज्जनों पूँछ को प्रतिष्ठा को जलाने की कोशिश करती है लेकिन परिणाम क्या हुआ जैसे ही हनुमान जी की पूँछ जलाई-
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।रहा न नगर बसन घृत तेला।
अर्थात् नियम यह  है जब भी समाज के निकृष्ट कोटि के लोग सज्जनों की प्रतिष्ठा की पूँछ जलाने की कोशिश करेंगे तो उस पूंछ को  जलाना तो दूर की बात है वह पूँछ और अधिक बढ़ जाएगी। हनुमानजी की पूंछ का बाल भी बांका नहीं हुआ और उसके पीछे एक और कारण है। किसी ने हनुमानजी से पूछा कि आपकी पूँछ क्यों नहीं जली । हनुमानजी बोले, माँ ने रक्षा की थी। चूंकि लंका में आग नहीं लगाई  गई थी पावक लगाई गई  थी।जैसा कि रावण का आदेश भी था। तेल बोरि पट बाँधि पुनि,पावक देहु लगाई।और पावक में मेरी माँ जानकी  बैठी हुई है। आपने पंचवटी की घटना सुनी होगी जिसमें जब भैया लक्ष्मण कन्द, मूल, फल लेने जंगल में गए हैं तब भगवान् ने जानकीजी से कहा कि आप अपने तेज को पावक में समाहित कर दीजिए, अब मैं नर  लीला  करने जा रहा हूँ।रावण आएगा आपको स्पर्श नहीं कर पाएगा। आपका ऐसा तेजस्वी शरीर है। मायावी रूप धारण करिए ताकि लीला आगे बढ़े उस समय भगवान ने कहा कि
तुम्ह पावक महुं करहु निवासा।
जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥ 
यह भगवान ने आज्ञा दी थी कि तुम पावक में निवास करो ।और रावण ने भी अग्नि को आज्ञा नहीं दी थी पावक को कहा था-
तेल बोरि पट बाँधि पुनि । पावक देउ लगाइ ॥
और जहाँ माँ बैठी हो वहाँ माँ क्रोध में दुष्टों को जलाएगी और वात्सल्य भाव में बालक की रक्षा करेगी,इसलिए हनुमानजी की पूँछ का बाल भी बांका नहीं हुआ।इस प्रकरण में यह भी हमें याद रखना चाहिए कि-
उलंघ्यसिन्धों: सलिलं सलिलं 
य: शोकवह्नींजनकात्मजाया:।
आदाय तैनेव ददाहलंका
नमामि तं प्राञ्जलिंराञ्नेयम।
अब आप विचार करें  कि शास्त्रों में पावक किसे कहते हैं? पावक कहते हैं भगवान के क्रोध को गोस्वामीजी  ने तो कहा ही है कि राम रोष पावक सौं जरहीं । भक्त के अपमान के समय भगवान् को जो रोष आता है उसको पावक कहते हैं। भगवान् सब कुछ सहन कर सकते हैं लेकिन अपने भक्त का अपमान सहन नहीं करते हैं। राम रोष पावक सो जरहीं, प्रभु राम तो कहते हैं कि मैं तो संतों का दास हूँ, संत तो मेरे शीश पर रहते हैं।
मैं तो हूँ संतन को दास संत मेरे मुकुटमणि ॥
पग चायूँ और सेज बिछाऊँ नौकर बनूँ हजाम।
हाँक बैल बनूँ  गड़वारौ बिनु तनुख्वा रथवान।
अलख की लखता बनी ॥
मैं तो हूँ संतन को दास संत मेरे मुकुटमणि ॥
श्रीहनुमानजी इतने अभिमान शून्य हैं। अपने बल का उपयोग अपने मान-अपमान के लिए नहीं करते।बल का उपयोग भगवान् प्रभु के कार्य के लिए करते हैं। और चूंकि हनुमानाजी अभिमान शून्य  हैं इसलिए हनुमानजी
भगवान् के प्रिय हैं। आप प्रभु राम  कोई झांकी ऐसी नहीं देखेंगे जो बिना हनुमानजी के हो। इसलिए किसी ने अच्छा गाया है कि 'दुनिया चले न श्रीराम के बिना, राम जी चले ना हनुमान के बिना' भगवान् , बिना हनुमानजी के एक कदम भी नहीं चलते। ऐसे “जय हनुमान ज्ञान गुन सागर" श्रीहनुमानजी ज्ञान और गुण के सागर हैं।
सिन्धु हैं, समुद्र हैं, ज्ञानिनाम् अग्रगण्यम् इतना बल व ज्ञान होने के बावजूद भी श्रीहनुमानजी अभिमानशून्य हैं।
इसीलिए हनुमानजी की पूँछ सबसे लम्बी  है इसलिए हनुमानजी की सदैव जय होती है।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग छः।।पवनसुत।।

मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग छः।। पवनसुत।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार।
गोस्वामीजी ईश्वर के मनुज रूप धारण करने के कारणों पर कहते है-बिप्र धेनु सुर संत हित।लीन्ह मनुज अवतार। भगवान का जन्म ये चार कारणों से हुआ था। सुर, संत, विप्र, धेनु का हित। विप्र माने ब्राह्मण, विप्र कोई जाति वाचक शब्द नहीं है, अपितु गुणवाचक शब्द है। कोई सोच सकता है कि क्या भगवान् बाकी जातियों के लिए नहीं आए, नहीं भगवान सर्वत्र हैं और सबके लिए समर्पित हैं। विप्र माने जो धर्म, शास्त्र, भगवान, धर्म की रक्षा के लिए कार्य करे ।
जब-जब होई धरम कै हानी। 
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। 
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा ।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।
धेनु माने गाय अर्थ के रूप में, गाय इस जगत का अर्थ है। गाय इस भारत की समृद्धि है, भारत की सम्पत्ति है, भारत का वैभव है, गाय से ही गौरव शब्द बना है। जब तक इस देश में गाय रहेगी तब तक इस देश का समस्त विश्व में गौरव रहेगा, जब तक गाय रहेगी तब तक भारत सुखी और समृद्ध रहेगा, वैभव सम्पन्न रहेगा। जब से हमारे देश में गाय की दुर्दशा हुई है तब से देश का गौरव भी गया, समृद्धि व सम्पत्ति भी चली गयी, देश भिखारी हो गया, कर्जदार हो गया।इसलिए इस देश की गाय बचनीचाहिए। गाय समृद्धि का प्रतीक है। धेनु माने-
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई ॥
इस देश का जो प्राण है वो सात्विक श्रद्धा है। श्रद्धा के आधार पर ही भारत जीवित है। तो भगवान् धर्म की रक्षा के लिए आते हैं। अर्थ की रक्षा के लिए आते हैं। देवता कामना पूरी करते हैं। काम के लिए, कामना पूर्ति के लिए, देवता मनुष्य की कामना को पूरा किया करते हैं और देवता यज्ञ से प्रसन्न होते हैं। इसलिए हम यज्ञ का आग्रह करते हैं।घर में जरूर महिने में दो बार पूर्णिमा और अमावस्या को हम यज्ञ का आग्रह करते हैं। घर में जरूर यज्ञ होना चाहिए। मनुष्य का जीवन देवताओं के अधीन है। देवताओं के द्वारा ही मनुष्य को सारी की सारी वस्तुएं मिलती हैं जल है, अग्नि है, वायु है, प्राण है, समृद्धि है, सम्पत्ति है। देवता यज्ञ से प्रसन्न होते हैं। विप्र, धेनु, सुर, संत व मोक्ष संतों के आशीर्वाद से मिलता हैं, मोक्ष संतों की कृपा से मिलता है और इसलिए भगवान चार रूप में आए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लक्ष्मणजी धर्म के प्रतीक हैं, शत्रुघ्नजी अर्थ के प्रतीक हैं, भरतजी काम के प्रतीक हैं और भगवान् साक्षात् मोक्ष के प्रतीक हैं। धर्म की मर्यादा में,धर्म संरक्षण में अर्थोपार्जनऔर मोक्ष की परिधि में काम का सदुपयोग करें! काम हमको अन्धा न कर दे। आदमी मोक्ष के मार्ग पर बढ़ जाए, और अर्थ हमको धर्म से विरक्त न कर दे, विमुख न कर दे। अन्यथा अर्थ अनर्थकारी होता है। इसलिए अर्थ को धर्म के साथ जोड़ा और काम को मोक्ष के साथ जोड़ा। भगवान् चार रूप लेकर प्रकट हुए-
प्रकट भये चारों भैया । अबधपुर बाजे बधैया ॥।
तो संयमित काम चाहिए। हनुमान चालीसा में बाबाजी लिखते है -
बरनउँ रघुवर बिमलजसु जो दायकु फल चारि ॥
आगे और भी सुन्दर शब्दों में लिखा है-
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार ।
सबसे बड़ी समझ यही है कि मनुष्य यह मान ले कि मैं नासमझ हूँ, मैं बुद्धिहीन हूँ। हर व्यक्ति अपने को बुद्धिमान समझता है। एक संत कहते हैं कि आँखवाला तो वह है जिसे अपना अंधेरा दिखाई दे। कैसी विचित्र बात है कि व्यक्ति धन कम बताएगा लेकिन बुद्धि कभी कम नहीं बताएगा। अगर आपने कह दिया कि आप बुद्धि से बहुत कम हैं तो वह आपसे लड़ पड़ेगा। आप किसी के बारे में कहें कि वह आपसे ज्यादा धनवान हैं तो वह मान लेगा, आप किसी के बारे में कहें कि वह आपसे ज्यादा स्वस्थ है वह मान लेगा लेकिन यदि आप कहें कि वह आपसे कम बुद्धिमान है तो वह आपको अपने घर से उठा देगा। बुद्धि-अहंकार का प्रतीक हैऔर अहंकारी कभी दूसरे को अपने से बड़ा देखना ही नहीं चाहता है, सुनना ही नहीं चाहता है। दूसरे का धन और अपनी बुद्धि हमेशा ज्यादा लगती है और मूर्ख की पहचान भी यही है जो अपने को सर्वाधिक बुद्धिमान समझे, समझो सर्वाधिक मूर्ख है और ऐसा व्यक्ति आपको हमेशा शिकायत करता दिखाई देगा। हमारी तो कोई सुनता ही नहीं, हमारी तो कोई मानता ही नहीं, हमसे कोई सलाह ही नहीं लेता। इस देश में अगर कुछ मुफ्त में मिलता है तो वह सलाह ही है और जिसे कोई नहीं लेता है वह भी सलाह है। दुनिया सलाह देने को तैयार है लेकिन कोई लेने को तैयार नहीं। बाप सलाह देने को तैयार बैठा है लेकिन बेटा लेने को दूर सुनने को भी तैयार नहीं। मूर्ख का मतलब जो अपने को अकलमंद समझे, विनम्रतापूर्वक अपनी अज्ञानता यदि स्वीकार कर लो तो इससे बड़ा साहस का कार्य कुछ नहीं, इससे बड़ा कोई साहस नहीं है, मैं अज्ञानी हूँ, क्या दिक्कत है इसमें।
एक अध्यापक ने अपनी कक्षा में पूछा आपमें से जो सबसे ज्यादा मूर्ख है वह खड़ा हो जाए, अब अपने को कौन मूर्ख माने। एक-दूसरे को बालक देखने लगे तू खड़ा हो जा, तू खड़ा हो जा, कोई खड़ा नहीं हुआ। अध्यापक ने निगाह घुमायी, एक विद्यार्थी पीछे खड़ा हुआ।अध्यापक को थोड़ा संतोष हुआ कि चलो मेरी क्लास में एक तो सत्यवादी बालक है जिसने अपने को मूर्ख स्वीकार कर लिया। बहुत अच्छा बेटे आगे आओ, विद्यार्थी ने वहाँ से कहा सर मैं इसलिए नहीं खड़ा हुआ हूँ तो क्यों खड़े हुए हो? बोला सर आप अकेले खड़े हुए थे अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए सोचा आपका साथ दे दूँ। हम सब अपने को बुद्धिमान् मानते हैं। गोस्वामीजी जैसे महापुरुष कह रहे हैं-
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेस बिकार ॥
और इसका एक दूसरा भी अर्थ हो सकता है जिसने अपने तन को ही सब कुछ मान लिया वही बुद्धिहीन
है। मनुष्य केवल शरीर नहीं है, मनुष्य केवल देह नहीं है, मनुष्य तो ईश्वर का अंश है।
ईस्वर अंस जीव अविनासी । 
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
सो मायावस भयउ गोसाईं ।
बंध्यो कीर मरकट की नाई ।
श्री हनुमानजी बुद्धिमताम् वरिष्ठम् हैं।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । क्योंकि जो जितेन्द्रिय हैं वे ही बुद्धिमताम् वरिष्ठम् हो सकते हैं। जितेन्द्रिय के पास ही बल, बुद्धि और विद्या
होती है। अजितेन्द्रिय की ये तीनों ही नष्ट हो जाती हैं। जितेन्द्रिय माने क्या? इसका अर्थ है जिसका मन शुद्ध
हो वह जितेन्द्रिय है और अशुद्ध मन ही हमसे अशुद्ध कार्य कराता है। श्रीहनुमानजी 
कुमति निवार सुमति के संगी हैं।
जिसका मन शुद्ध हो गया वही जितेन्द्रिय है। मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, विकार, वासना की जब अशुद्धता आती है तब मनुष्य की इन्द्रियां पाप करती हैं, वह अजितेन्द्रियम् हो गया और जिसका मन शुद्ध हो गया वह जितेन्द्रिय हो गया और जो जितेन्द्रिय हो गया उसके पास बल, बुद्धि और विद्या ये तीनों आती हैं। साधना के लिए ये तीनों चाहिए, जिसको साधना करनी है उनको बल भी चाहिए, संकल्प का बल, त्याग का बल, साधना का बल, वैराग्य का बल, संयम का बल, आत्मा का बल। साधना में कायर और कमजोर नहीं जाते, साधना व्यवहार नहीं है, साधना व्यापार नहीं है, साधना तो सीधा जुआ है। साधना में तो दाँव लगाना पड़ता है, प्राणों की बाजी लगानी पड़ती है, जीवन लगाना पड़ता है, हम जीवन का हिसाब लगाते हैं, लाभ होगा या हानि होगी, यह व्यापार नहीं है, यह तो पूरा दांव है। साधना का बल चाहिए, बुद्धि भी चाहिए चूंकि
क्रिया शक्ति के पहले विचार शक्ति चाहिए। बुद्धि माने विचारशक्ति । हनुमानजी जो कुछ करते हैं उससे पहले
विचार करते हैं।
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।करौं बिचार करइ का भाई ।। श्रीहनुमानजी पहले विचार करते हैं क्रिया बाद में करते हैं। पुर रखवारे देखि बहु, कपि मन कीन्ह विचार।
हम क्रिया पहले करते हैं पश्चाताप का विचार-विमर्श बाद में करते हैं। अरे राम! ऐसा कैसे हो गया,अरे बुद्धि पर कैसे पत्थर पड़ गए। हनुमानजी पहले विचार करते हैं। फिर कार्य करते हैं। हम कार्य पहले करते हैं विचार बाद में करते हैं, इसलिए ठोकर खाते हैं। विद्या माने ज्ञान, विद्या माने विज्ञान, जो हमको दुर्गुण- दुर्विचारों से बचाती है, वासनाओं से मुक्त रखे वही विद्या है, वही ज्ञान है। हम सब अज्ञानी हैं, हम सब अंधेरे के कारणों में डूबे हैं। श्रीहनुमानजी जब भी उड़ान भरते हैं प्रकाश की ओर, जन्म लेते ही सूर्य की ओर उड़ गए थे। हम सब अंधेरे की ओर जाने की कोशिश करते हैं। श्रीहनुमानजी ज्ञान की ओर प्रकाश की ओर तमसोमाज्योर्तिगमय गमन करते हैं। यह ज्ञान हमें प्रकाश की ओर भगवान् की ओर ले जाएगा। जो शिखर की ओर मुक्ति की ओर ले जाए, वासनाओं से मुक्त कर दें, विरक्त कर दे, उसको ज्ञान (विद्या) कहते हैं-सा विद्या या विमुक्तये । बाल्मीकिजी के आश्रम में जब भगवान् पहुँचे हैं तब गोस्वामीजी ने लिखा है कि जब प्रभु वन मार्ग से जा रहे थे बाल्मीकिजी के आश्रम की ओर तो क्या देखते - देखते जा रहे थे वो सब लिखा है- देखत बन सर सैल सुहाये।  बालमीकि आश्रम प्रभु आये ॥ गोस्वामीजी लिखते हैं कि प्रभु वन की शोभा निहारते आ रहे हैं। सरोवरों का दर्शन करते आ रहे हैं। पर्वत शिखरों को देखते आ रहे हैं। वन, बाग, उपवन, वाटिका यें सभी साधना की सीढ़ियां है श्रेणियाँ हैं। साधना की पहली सीढ़ी है वाटिका जहाँ प्रेम के पौधे रोपे जाते हैं तो वाटिका यह साधना की प्रथम सीढ़ी है क्योंकि इसकी रक्षा बहुत करनी पड़ती है कभी पौधा मुरझा सकता है। वाटिका से थोड़ा बड़ा उपवन साधना की दूसरी सीढ़ी फिर तीसरी सीढ़ी है बाग। बाग घना होता है, बड़ा होता है, समर्थ होता है लेकिन लगाया जाता है चौथी जो अन्तिम सिद्धावस्था है वो है वन, वन लगाया नहीं जाता, बल्कि वन स्वयं पैदा होता है, वन स्वयं बन जाता है और वन की रक्षा भी नहीं की जाती है वन वह है जिसमें साधक भी बैठते हैं, जीव, जानवर, ऋषि-मुनि, राक्षस सब जहाँ आश्रय पाते हैं। सिद्धावस्था जिसके चरणों में सबको बैठने का अधिकार।हो और जो किसी के बैठने से प्रभावित न होता हो वह वन की अवस्था है वो साधना की पराकाष्ठा है वन । हरा-भरा, गहन, प्रफुल्लित, पक्षियों के कलरव से भरा हुआ, सब प्रकार से वन प्रेम की पराकाष्ठा का प्रतीक है, वन के समान घना, गहन, छायादार ज्ञान चाहिए और सर माने सरोवर, सरोवर के समान शान्त, निर्मल, शीतल, शान्त यह बुद्धि चाहिए-
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै आपहुँ शीतल होय।
पर हमारी वाणी आज कल  ऐसी होती जा रही  है कि शीतल में भी जलन पैदा कर देती है। सरोवर वो अच्छा माना जाता है जो प्यास को भी शान्त कर दे और हमारे मन को भी शीतल कर दे। शैल  पर्वत के शिखर का प्रतीक है। हमारे अन्दर अडिग बल चाहिए परन्तु हमको थोड़ा सा बल मिलता है, चाहे धन का बल मिले, पद का बल मिले, वैभव का बल मिले, यश का बल मिले हम डगमगाने कपकपाने लगते हैं। हम दुरुपयोग करने लगते हैं जैसे हिमालय का शिखर अडिग है, बड़े-बड़े भूचाल, झंझावत, भूकम्प, तूफान उसको हिला नहीं पाते। कोई भी बाहर की परिस्थिति हमारे भीतर के बल को हिला न पाए वो शैल के समान है और ये तीनों ही परोपकारी स्वभाववाले हैं और एक सिद्धान्त और है-
निर्बल को कोई आदर नहीं देता जो भी दुनियाँ में कमजोर देश है इनका कभी सम्मान नहीं हुआ और जो भी कमजोर व कायर हैं समाज में, उसको कोई आदर नहीं मिलता दुत्कार मिलती है, उसको हम फटकार।देते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि बुद्धि के लिए चरित्र बल चाहिए जिसका उपयोग हो सके। ऐसा नहीं है कि सबकी बुद्धि खराब है सबकी बुद्धि अच्छी होती लेकिन अच्छी बुद्धि होने के बाद भी हम गलत कार्य क्यों करते हैं इसका चिन्तन इसका  करना चाहिए। चोर भी कहाँ चाहता है कि मेरा बालक चोर बने, शराबी भी कहाँ चाहता है कि मेरा बालक शराबी बने, लेकिन शराबी जानने के बाद भी कि मुझे शराब नहीं पीनी चाहिए फिर भी पीता है कारण क्या है? उसके भीतर संकल्प का बल नहीं है भीतर से वह निर्बल है बुद्धि तो उसकी अच्छी है लेकिन भीतर चरित्र का बल, संकल्प का बल नहीं है जिस कारण वह गलत मार्ग से हट नहीं सकता। मनुष्य तो क्या, सही या गलत तो कुत्ते भी जानते हैं। एक महात्मा सुना रहे थे कि आप एक कुत्ते को रोटी का टुकड़ा डाल दें तो जहाँ आप डालते हैं तो कुत्ता
रोटी के टुकड़े को वहीं बैठकर खाने लगता है लेकिन जो कुत्ता रोटी चुराकर ले जाता है वो वहाँ नहीं खाता जहाँ
से चुराया, दूर छुपकर गली में खाता है। तो जब कुत्ता इस बात को जानता है कि मैं चोरी करके लाया हूँ इसलिए
छुपकर खाना चाहिए तो क्या मनुष्य नहीं जानता है कि क्या शुभ है और क्या अशुभ ? लेकिन जिसके भीतर संकल्प का बल,आत्मा का बल नहीं है इसलिए अच्छी बुद्धि भी उससे गलत काम कराती है। बल विवेक दम परिहित घोरे । बल के साथ विवेक चाहिए और विवेक के साथ आत्मा का बल चाहिए तब जीवन का रथ चलता है, नहीं तो घिसटता है। विवेक मिलता है सत्संग से। बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।
सतसंगति मुद मंगल मूला ।Mसोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥ विवेक माने बिल्कुल स्पष्ट ज्ञान, बेबाक किसी प्रकार की कोई धुंधलाहट नहीं, स्पष्ट ज्ञान, क्या करना, क्या नही करना, क्या शुभ है, क्या अशुभ है, क्या करना है क्या नहीं करना इसमें किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं इसको विवेक कहते हैं बिना लाग लपेट के और गोस्वामी जी ने पवनकुमार शब्द प्रयोग किया है-
बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल, बुद्धि, विद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥
पवनकुमार का सुमिरन किया गया है। बाकी देवताओं के तो पास जाना पड़ता है लेकिन पवन कुमार क्यों बोला इसलिए बोला? क्योंकि पवन स्वयं चलकर तुम्हारे पास आती है। और जैसे पवन स्वयं चलकर तुम्हारे पास आती है ऐसे ही पवन कुमार हैं जो स्वयं चलकर तुम्हारे पास आते हैं। उनके पास जाने की आवश्यकता नहीं बस केवल उनका सुमिरन करो, उनकी याद करो, उनकी पुकार करो- हे दुख भंजन मारुति नन्दन, सुन लो मेरी पुकार । पवनसुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।। अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता, दुखियों के तुम भाग्य विधाता ॥ सियाराम के काज संवारे, मेरा कर उद्धार ।।पवन सुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।। अपरम्पार है शक्ति तुम्हारी, तुम पर रीझे अवध बिहारी । भक्तिभाव से ध्याऊं तोहे कर दुखों से पार। पवन सुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।। जपें निरन्तर नाम तिहारा, अब नही छोडूं तेरा द्वारा । रामभक्त मोहे शरण में लीजै, कर भव सागर से पार। पवन सुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।भक्तों की पुकार पर वे तुरन्त चले आते हैं और उनके कष्ट क्लेशों को पल भर में दूर कर देते हैं।पवन तो बहुत सुलभ है इसलिए लोग बहुत कम याद करते हैं। दुर्लभ की याद बहुत लोग करते हैं।हीरा दुर्लभ है बड़ा कीमती।उससे सस्ते गेहूँ आदि अनाज लेकिन उनकी भी कीमत है। उनसे सस्ता जल सुलभ है कम कीमत है और जिसकी कोई कीमत नहीं वो पवन है क्योंकि सर्व सुलभ है बिना माँगे मिलता है।लोग बिजली पानी के लिए तो आन्दोलन करते हैं किसी ने हवा के लिए आन्दोलन किया, हवा नहीं चल रही आन्दोलन करो, प्रदर्शन करो, जिसको बल, बुद्धि और विद्या आ गई उसी के क्लेश का हरण होता है। पवनसुत पवन की तरह सबसे लिए सर्वत्र सुलभ हैं। ऐसे पवनसुत श्री हनुमानजी की हम आराधना कर उनकी कृपा प्राप्त करें ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।