मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग अठ्ठाईस।।भगवान् के प्रिय।।
पाँच क्लेश होते हैं और छह विकार होते हैं। कलेश मानसिक होते हैं, विकार शारीरिक होते हैं। पहले विकार मन में आता है तन में उसका प्रदर्शन बाद में होता है।पहले दोष, दुर्गुण मन में आते हैं। चाट खानी है।यह मन मेंआया, पेट में विकार उसके बाद आता है। मदिरा पीनी है मन में विकार पहले आएगा, शरीर नाली में गिरा है विकार बाद में दिखाई देता है। तो यह कलेश है, विकार है, जो मन को मैला करते हैं, तन को रुलाते हैं। वें विकार है और ये दोनों साथ-साथ रहते हैं तन में यदि विकार है तो इसका अर्थ है पहले मन में कोई न कोई विकार अवश्य आया होगा जिसका आपने पालन किया है। परिणाम उसका तन भोग रहा है। इनको यदि कोई दूर कर सकता है तो बल, बुद्धि, विद्या, संकल्प का बल, विचार की शक्ति और अज्ञान के मार्ग से विरक्ति ये तीनों ही आपको अन्याय से, अधर्म से बचा सकते हैं। गोस्वामीजी ने हनुमानजी से विनय की है कि-
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥
श्रीहनुमानचालीसा का शुभारम्भ भी हुआ जय हनुमान् से और समापन भी जय हनुमान् से हो रहा है।
जै जै जै हनुमान गोसाईं ।
कृपा करहु गुरुदेव की नाई ॥
जय संकल्प का प्रतीक है। हनुमानजी संकल्प के प्रतीक हैं जो संकल्प लेते हैं वो पूर्ण होता है और जय-विजय का प्रतीक है जय-जय का प्रतीक है। श्रीहनुमानजी की सदा जय होती है। कभी भी हनुमानजी परास्त नहीं होते और केवल गोस्वामीजी कहते हैं जो सदैव हनुमानजी की शरण में रहते हैं उनकी भी हमेशा जय होती है और यह नियम है कि संकल्पवान हमेशा विजयी होता है जो संशय में डूबा है,सन्देह में डूबा है, होगा कि नहीं होगा,वो पराजित होगा।होगा कैसे नहीं हनुमानजी मेरे साथ है इस संकल्प के साथ हम कार्य करेगें तो वह कार्य अवश्य होगा। जय हनुमान् गोस्वामीजी ने हनुमान् शब्द का प्रयोग किया है। हनुमान् का अर्थ है जिन्होंने अपने मान का हनन कर दिया हो जिन्होंने अपने सभी प्रकार के अहं का हनन कर दिया हो, वो हनुमान् है। इनकी बचपन की कथा है जब इनका जन्म हुआ तो अंजनी माता फल लेने के लिए इनको पालने में छोड़कर जंगल में गयी हैं। उस दिन प्रातःकाल आकाश में सूर्य उदित हो रहे थे लाल-लाल रसीला कोई फल।प्रकट हुआ है, ऐसा हनुमानजी को लगा और वहां से उछाल मार दी और उन्होंने सूर्य को पकड़कर मुंह में ले लिया। सारी सृष्टि में अंधकार छा गया। बाद में इन्द्र ने आकर अपने वज्र का प्रहार किया जिससे इनकी ठोढ़ी थोड़ी टेढ़ी हो गई हनुमानजी की तो थोड़ी सी ठोढ़ी टेढ़ी हुई थी परन्तु हनुमानजी से टकराकर इन्द्र का जो वज्र था उसकी धार सदा-सदा के लिए समाप्त हो गई। तबसे इनका नाम हनुमान् पड़ गया। हनु जिनकी थोड़ी सी ठोढ़ी टेढ़ी है उसको हनुमान् कहते हैं। लेकिन हनुमान् के अनेक अर्थ हैं। मूल में हम जिनकी चर्चा करेंगे जिन्होंने अपने मान का हनन कर लिया है। भगवान् की आप झाँकी देखिए इसमें आप हमेशा लक्ष्मणजी को साथ में नहीं देखेंगे। आप हमेशा भरत, शत्रुघ्न जानकीजी को भी साथ नहीं देखेंगे। लेकिन प्रभु की प्रत्येक झाँकी में हनुमानजी को सदा साथ में देखेंगे। हनुमानजी को भगवान सदैव अपने पास रखते हैं क्योंकि इन्होंने अपने मान को छोड़ दिया। इन्होंने तीन चीजें छोड़ीं और जिन्होंने तीन चीजें छोड़ देता है भगवान उन्हें हमेशा अपने।साथ रखतें है। एक तो हनुमानजी ने अपना नाम छोड़ा आज तक कोई हनुमानजी का नाम ही नहीं बता पाया। ये जो हनुमानजी के नाम हैं वे उनके नाम नहीं हैं, गुण हैं। पवनपुत्र, अंजनीसुत, बजरंगबली, वायुपुत्र, महाबली, रामेष्ट, पिंगाक्ष, सीताशोक विनाषन: लक्ष्मणप्राणदाता, ये सब हनुमानजी के नाम नहीं हैं ये तो उनके गुण है।और हम सब नाम के पीछे हैं। हनुमानजी ने जानबूझकर अपना नाम नहीं रखा। हनुमानजी से जब कोई नाम पूछता है तो हनुमानजी कहते हैं अरे, बन्दर का नाम क्या पूछते हो। नाम बन्दर का मत लो नाम तो किसी
सुन्दर का लो। पूछा सुन्दर कौन है, हनुमानजी ने कहा सुन्दर तो केवल दो ही हैं-
जग में सुन्दर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम ।
बोलो राम राम राम, बोलो श्याम श्याम श्याम ||
जो भी कोई नाम पूछता है, हनुमानजी नाम तो नहीं बताते उसको रामकथा सुनाने लग जाते हैं। विभीषणजी के यहाँ हनुमानजी आए पूरी रामकथा सुना दी, तब हनुमंत कही सब राम कथा । तो विभीषण ने कहा महाराज कथा तो बहुत सुन्दर सुनाई आप अपना नाम तो बताइए। हनुमानजी बोले नाम का क्या करोगे? अरे भई जिसने इतनी सुन्दर कथा सुनाई उसका नाम तो मालूम होना चाहिए। हनुमानजी ने कहा नाम तो बता देंगे लेकिन नाम सुनने से पहले नाम का महात्म्य सुन लीजिए। नाम का महात्म्य क्या है बोले-
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।
हनुमानजी ने कहा हमारे नाम का ये महात्म्य है कि अगर प्रातःकाल हमारा नाम ले लोगे तो उस दिन आपको भोजन नहीं मिलेगा, बोले नाम बताएं तो विभीषण जी बोले रहने दो जब भोजन ही न मिले तो नाम का फायदा ही क्या। हनुमानजी अपना नाम छुपाते हैं भगवान की कथा को प्रकट करने के लिए। और हमारे जैसे तो पहले अपना नाम छपवाते हैं, कथा उसके बाद आती है। हनुमानजी अपने नाम को छुपाते हैं कथा को पहले प्रकट करते हैं।
तब हनुमन्त कही सब राम कथा निज नाम ।
हनुमानजी नाम को छुपाते हैं। कथा को छापते हैं तो हनुमानजी ने अपने नाम को छुपा लिया हम अपना नाम प्रकट करने के लिए लालायित हैं। कई तो पत्थर पर खुदवाते हैं। भले ही हम दुनियां से चले जाएं लेकिन हमारा नाम रहना चाहिए। काम दिखाई दे न दे उसकी चिंता नहीं है। लेकिन नामदिखाई देना चाहिए, इसकी चिंता है। हनुमानजी का जगत में काम दिखाई देता है लेकिन हनुमानजी का कोई नाम नहीं पता लगा पाया। एक तो हनुमानजी ने अपना नाम मिटाया दूसरे रूप आपको मालूम है कि कुरूप कोई होता है तो बन्दर होता है और इसके पीछे भी कारण होगा कि हनुमानजी चाहते हैं कि लोग मुझे देख कर मुंह फेर लें, मेरे प्रभु का सब लोग दर्शन कर लें। मेरे प्रभु सुन्दर लगें, मैं तो बन्दर ही ठीक हूँ। हम सब अपने नाम, रूप व यश के लिए रोते हैं। आप किसी भी परिवार में जाइए, कोई न कोई यह शिकायत करते
मिलेगा कि हम कितना भी कर दें, कितनी भी मेहनत करें, कितना भी काम कर दें, सबके लिए कितना भी कर दें, लेकिन हमें हमेशा अपयश ही मिलता है। हमको केवल बुराई ही बुराई मिलती है। कोई हमारे लिए यश की कोई बात ही नहीं बोलता है। सारा रोना यश का हर घर में परंतु हनुमानजी भगवानजी का यश चाहते हैं। जब लंका में हनुमानजी जानकीजी के पास बैठे थे और जानकी माँ स्वयं रो रहीं थीं तब हनुमानजी ने कहा माँ वैसे तो मैं आपको अभी ले जा सकता था।
अबहि मातु मैं जाउँ लैवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दुहाई ||
कछुक दिवस जननी धरु धीरा ।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि ले जैहहिं ।
तिहुं पुर नारदादि जस गैहहिं ॥
वैसे तो माँ मैं आपको अभी ले जा सकता हूँ परन्तु मैं चाहता हूँ कि सारा जगत्, तीनों लोक मेरे प्रभु का यशगान करें,और बन्धुओं जो यश का त्याग कर देता है उनका यश हमेशा भगवान् गातें है।
महाबीर विनवउँ हनुमाना।
राम जासु जस आपु बखाना ।।
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई।
बार-बार प्रभु निज मुख गाई ॥
भगवान बोलते है कि रघुवंश की इकहत्तर पीढ़ियां भी हनुमान् की सेवा में लग जायेंगी,तो भी हे भरत! रघुवंशी हनुमान के इस ऋण से उऋण नहीं होंगे। भगवान् कहते हैं कि हनुमान् तूने अपना यश त्याग दिया है तो मेरा आशीर्वाद है तेरा यश केवल मैं ही नहीं अपितु-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥
हजारों मुखों से शेषनाग भी तुम्हारे यश का गान करेंगे। श्रीहनुमानजी को देखो यश से कितनी दूर हैं, मनुष्य जरा सा भी काम करता है, उसको भी छपवाना चाहता है। हनुमानजी कितना बड़ा काम करके आए तो भी छुपाते रहे। आपने घटना सुनी होगी कि वानरों के बीच में भगवान् बैठे हैं तो भगवान चाहते हैं कि हनुमानजी के गुण वानरों के सामने आएं। भगवान बोले हनुमान् 400 कोस का सागर कोई वानर पार नहीं कर पाया मैंने सुना तुम बड़े आराम से पार करके चले गए। कैसे चले गए? हनुमानजी ने कहा महाराज बन्दर की क्या क्षमता थी। शाखा से शाखा पर जाई, बन्दर तो इस टहनी से उस टहनी पर उछल कूद करता है यह तो प्रभु आपकी कृपा से हुआ। प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं ॥
अवधी भाषा में हनुमान जी बोले- तोय मुद्रका उस पार किये। भगवान् से कहा यह तो आपकी मुद्रिका थी जिस के कारण।मैं सागर पार कर गया। भगवान् ने कहा अच्छा मेरी मुद्रिका से सागर पार किया परन्तु मुद्रिका तो आप सीता। जानकीजी को दे आए थे। तो ठीक है। लेकिन जब लौट कर आए तो सागर थोड़ा सिकुड़ गया था या गहराई
थोड़ी घट गई थी क्या? हनुमानजी बोले सागर तो उतना ही रहा। भगवान् ने पूछा जब तुम मेरी मुद्रिका से सागर पार गए और लौटते समय मुद्रिका तुम्हारे पास थी नहीं तो तुम इस पार कैसे आए। हनुमानजी ने बहुत
सुन्दर उत्तर दिया कि- तोय मुदरी उस पार किये और चूड़ामणि इस पार । आपकी कृपा ने तो माँ के चरणों तक पहुंचा दिया और माँ के आशीर्वाद ने आपके चरणों तक पहुंचा दिया।
तोय मुदरी उस पार किया। चूडामणि इस पार ।।
भगवान् ने कहा कि अच्छा चलो सागर तो तुमने कृपा से पार कर लिया। यह बताओ कि लंका कैसे जलाई?
केहि विधि दहेउ दुर्ग अति बंका।हनुमानजी ने कहा कि मेरा नाम गलत लगा है। अखबार वालों ने गलत छापा है। मैंने नहीं जलाई। तो किसने जलाई ? श्री हनुमानजी बोले-
सीय विरह लंका जरी, सकल प्रताप तुम्हार ॥
हनुमानजी ने कहा कि प्रभु लंका तो जानकी माँ के विरह के ताप ने जलाई। लंका तो आपके प्रताप ने जलाई है। बताऊं भगवन्, किसने जलाई। एक व्यक्ति ने नहीं जलाई, इसमें बहुत लोगों का हाथ था।भगवान् ने पूछा बहुत लोगों का जलाने में हाथ था। किस-किस का हाथ था? बोले जानकीजी के विरह के ताप ने जलाई, आपके प्रताप ने जलाई, रावण के पाप ने जलाई, ब्राह्मणों के शाप ने जलाई और हमारे बाप ने जलाई।चूंकि पवन बहुत तेज चल रही थी।
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उन्चास ॥
श्रीहनुमानजी, यश से बहुत दूर हैं। अरे सामान्य व्यक्ति की बात छोड़ दीजिए रावण कभी किसी की प्रशंसा नहीं करता पूरी रामायण में अगर रावण ने प्रशंसा की है तो केवल एक हनुमानजी की। लेकिन वह भी हनुमानजी का नाम नहीं बता पाया। वह भी हनुमानजी का नाम नहीं जानता। जब अंगदजी गए हैं, तब रावण ने कहा कि अंगद तुम किसके साथ खड़े हो जो तुम्हारा स्वामी है वो तो नारी विरह में रो रहा उसका छोटा भाई तो रोते-रोते और ज्यादा कमजोर हो गया है।अब कौन लड़ेगा मेरे साथ,अब तुम्हारी सेना में है कौन जो मुझसे लड़ेगा? सुग्रीव कमजोर है, विभीषण की कोई हिम्मत नहीं है, नल और नील केवल शिल्पी हैं उनको युद्ध करना क्या आएगा, जामवंत मंत्री अति बूढ़ा, वो बूढ़ा हो चुका है। हाँ हाँ हाँ लेकिन एक वानर तुम्हारी सेना में बहुत ताकतवर है, वह थोड़ी हिम्मत कर सकता है। अंगदजी ने पूछा कौन? वह बोला नाम तो कुछ
मुझे मालूम नहीं है लेकिन काम उसका मालूम है। काम? क्या काम करता है? बोले हमारी लंका में आया था,हमारे नगर को जलाकर राख कर गया।आवा प्रथम नगरु जेहि जारा।। जो पहली बार नगर में तुमसे पहले आया था उसने लंका को जलाया। अंगदजी मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं। बोला,हमारे लड़के को भी मार गयाऔर बोले सारी अशोक वाटिका उजाड़ कर उसने ध्वस्त कर दी। अंगदजी ने पूछा उसका कुछ नाम भी तो होगा बोले नाम हमें पता नहीं कि नाम क्या है। हनुमानजी नाम से बिल्कुल दूर हैं, देखिए मान व अपमान से हनुमानजी बिल्कुल ऊपर उठे हुए हैं। लंका के राक्षस हनुमानजी का कितना अपमान करते हैं।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥ हनुमानजी का जुलूस निकालते हैं। लातों से, थप्पड़ों से मारने पर भी हनुमानजी मुस्कुरा रहे हैं। हनुमानजी सोच रहे हैं कोई बात नहीं थोड़ा मजा ले लो। हनुमानजी सोचते हैं कि मैंने इनको जितना पीटा है, इसके बदले में यह कुछ भी नहीं है। थोड़ा बहुत मेरे शरीर को खुजा रहे हैं। खुजा लेने दो, रावण ने हनुमानजी को बंधवाकर लाने को कहा। बांध कर लाओ। हनुमान जी बंध गए। अब आप रावण की भाषा देखो बंधने के बाद भी हनुमानजी शांत खड़े हैं। हनुमानजी आपको बधने में शर्म नहीं लगी किसी ने कहा वे बोले-
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा ।कीन्ह चहहुँ निज प्रभु कर काजा ॥ मुझे बंधने में कोई शर्म नहीं है मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ और प्रभु का कार्य अगर बंधकर
भी होता हो तो मुझे बंधकर भी आनन्द का अनुभव होगा। हनुमानजी न अपमान से कभी व्याकुल होते हैं और न
सम्मान से कभी फूलते हैं। जिस समय सागर पार करना था और सागर के किनारे बैठे सभी वानर चिंता में डूबे
थे तो जामवंतजी हनुमानजी को ललकारते हैं कि हे हनुमानजी! का चुप साधि रहे बलवाना और पुरानी पुरानी
घटनाओं को सुनाकर उनके पौरुष को जगाने की कोशिश करते हैं। अरे हनुमानजी जरा याद तो करो-
बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अंधियारो । ताही सों त्रास भयो जग को यह संकट काहू सों जात न टारो ॥ देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रवि कष्ट निवारो । को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो॥
हे हनुमानजी, तुमने बालपन में कितने-कितने बड़े पौरुष पराक्रम दिखाए थे अब कैसे चुप बैठे हो । का चुप साधि रहा बलवाना। हनुमानजी को कोई फर्क नहीं पड़ता, हनुमानजी धरती कुरेद रहे हैं। प्रशंसा से फूले नहीं लेकिन जैसे ही कहा कि राम काज लगि तब अवतारा ॥
अरे हनुमानजी, आपका जन्म रामकाज को हुआ है- सुनतहि भयउ पर्वताकारा ।।।एकदम पर्वताकार हो गए। बोलो जामवंतजी ! अगर ऐसा है तो क्या करूं? न प्रशंसा से फूलते हैं, न।अपमान से झुंझलाते हैं। हमारी कोई जरा सी प्रशंसा कर दे तो फूल जाते हैं। कोई जरा सी दो बात बोल दे तो फिर बुझ जाते हैं। आप रावण की भाषा देखें। रावण कैसी भाषा बोलता है। हनुमानजी शंकर जी के अवतार हैं लेकिन रावण बोल क्या रहा है।
कह लंकेश कवन तैं कीसा।
केहि के बल घालेहु बन खीसा ।।
की धौं भवन सुनेहि नहिं मोही।
देखेउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारेहि निसिचर केहि अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कउँ बाधा ।।
रावण की भाषा कितनी अशिष्ट है। क्या बोलता है? अरे बन्दर तू कौन है किसके बल पर तूने हमारा।वन उजाड़ा, तूने राक्षसों को मारा, क्या तूने मेरा नाम नहीं सुना कीधौं श्रवण सुनेहि नहिं मोही। क्या तूने मेरा नाम अखबारों व टीवी में नहीं सुना? क्या तू मुझे जानता नहीं? ऐ सठ तुझे अपने प्राणों का भी भय नहीं? अधम निर्लज्ज देखो इसके शब्दों को यह शास्त्रों का पण्डित है। और हमने देखा भी है, बड़े-बड़े शास्त्री लोग भी भाषा जब बोलते हैं बहुत गिरी हुई भाषा बोलते हैं। शास्त्र मस्तिष्क में भरे हुए और मुख में गालियां भरी हुई हैं, अरे मूर्ख, अरे सठ, ऐ अधम, ऐ निर्लज्ज ये भाषा है और ये भाषा किससे बोल रहा है रावण-
महावीर विक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी॥
हनुमानजी जैसे महावीर विक्रम बजरंगी उनसे बोल रहा था, ये भाषा, अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं से बोल रहा है। चाहते तो हनुमानजी यहीं मसल सकते थे, लेकिन हनुमानजी अपने मान और अपमान के लिए।अपने बल का प्रयोग नहीं करते। जब हनुमानजी ने रावण को उत्तर दिया तो सब बैठे सभासद सोच रहे थे कि जिस भाषा में इसको गालियां दी गयी हैं। अब यह उत्तर किस भाषा में देगा। यह भारत का बन्दर है, यह राम का दूत है, यह भारत की गौरव गाथा है, भारत का व्यक्ति भाषा कभी अशिष्ट नहीं बोलता । हनुमानजी की भाषा भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है। आप हनुमानजी की भाषा सुनिए-
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन ।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
श्रीहनुमानजी की विनम्रता देखिए, इनका शील स्वभाव देखिए रावण को हाथ जोड़कर विनय के स्वभाव में बोले है- देखिए । विनती करूऊँ जोर करि रावण । स्वामी शब्द बोला है-
सबके देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा तें मैं मारे ।
तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कई लाजा ।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
अरे हनुमानजी तो कितने नीचे उतर आए प्रभु कहकर पुकार दिया, खायहुँ फल प्रभु लागी भूखा। अशिष्टता का उत्तर भी हनुमान जी ने शिष्टता से दिया क्योंकि हनुमानजी के भीतर स्वयं के प्रति किसी।प्रकार का मान-अपमान का भाव ही नहीं है। अभिमानशून्य और जो अभिमानशून्य होता है वो हमेशा भगवान् को प्रिय होता है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।