सोमवार, 23 दिसंबर 2024

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग उनतीस।।अतुलित बलके धाम।।

मानसचर्चा।। श्रीहनुमानजी भाग उनतीस।।अतुलित बलके धाम।।
अतुलित बलधामं स्वर्ण शैलाभदेहं,
दनुजवनकृसानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम |
सकल गुणनिधानं वानराणामधीशं,
रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ॥
श्रीहनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं, धाम माने क्या हुआ जैसे श्री वृन्दावनधाम है। अयोध्याधाम,
चित्रकूटधाम धाम का अर्थ होता है- जहाँ देव निवास करते हैं। वृन्दावनधाम है जहाँ की सीमा के बाहर प्रभु एक कदम भी निकले नहीं, चित्रकूटधाम है भगवान् ने जिसका कभी त्याग नहीं किया। बलधाम माने जहाँ बल निवास करता है। हनुमानजी में अपना बल नहीं है। हनुमानजी में भगवान का बल निवास करता है। श्री हनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं। अतुलित बलधामा हैं। शस्त्रागार का मालिक मकान नहीं होता जिस कमरे में जिस मकान में शस्त्र रखे हैं, वो मकान मालिक नहीं होता मालिक कोई और होता है। जिसने रखे हैं। जैसे किसी के घर में सोना रखा है। सोने का मालिक मकान नहीं है बल्कि वह है जिसने सोना रखा है तो हनुमान जी कहते हैं कि हम तो केवल धाम हैं बल तो हमारे भगवानजी का है। अतुलित बल अतुलित प्रभुताई, मैं मतिमन्द जान नही पायी। यह इन्द्र का लड़का जयंत बोला है। जयंत ने इसका प्रमाण पत्र दिया है। जयंत की घटना भगवान् के बल का दर्शन कराती है। जयंत इन्द्र का लड़का बोला है। एक बार जयंत भगवान् के बल की परीक्षा लेने आए। गोस्वामीजी ने कहा- सठ चाहत रघुपति बल देखा - अतुलित बल को तौलने के लिए आ रहा है। चित्रकूट का चित्र है- एक बगीचे में भगवान् पुष्प चुनने गए, बहुत सुन्दर-सुन्दर पुष्प हैं। भगवान् आज श्रृंगार के भाव में हैं।
एक बार चुनि कुसुम सुहाये। निज कर भूषन राम बनाये ।।
सीतहि पहिराये प्रभु सादर बैठे फटिक सिला पर सुन्दर ।।
सुरपति सुत घरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा।जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चोंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा ।।
भगवान् एक बार जानकी जी का फूलों से श्रृंगार कर रहे थे। अब इसमें किसी भी प्रकार की मर्यादा।का उल्लंघन का तो प्रश्न ही नहीं है। जब वो स्वयं मर्यादापुरुषोत्तम हैं तो वो मर्यादा का उल्लंघन कैसे करेंगे?
पति और पत्नी दो देह और एक प्राण है। पति-पत्नी का श्रृंगार करेगा, पत्नी पति को श्रृंगार करेगी इसमें कोई
मर्यादा के उल्लंघन की तो बात ही नहीं है। जयंत ने जब देखा कल तो स्वर्गलोक में चर्चा हो रही थी कि आजकल तो चित्रकूट में ब्रह्म का निवास है भगवान् प्रवास पर हैं और ये ब्रह्म हैं? ये तो सामान्य पुरुष की तरह स्त्री के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। भगवान् की लीला को देखकर भ्रम में पड़ गए। और मेरा  निवेदन है कि जब भी आप भगवान् की लीला का चिन्तन बुद्धि से करेंगे आप गढ्ढे में गिरेंगे। और यह जयंत उसी रास्ते पर जा रहा है। सुमिरन को छोड़कर मरण के रास्ते पर जा रहा है, और भगवान् के बल का परीक्षण करने का कि इनमें बल कितना है षठ चाहत रघुपति बल देखा ।। कौवे का वेश बनाकर आया और जानकीजी के चरणों पर चञ्चु प्रहार करके उड़ गया। एक संत  बहुत अच्छा यहाँ पर कहते हैं कि जो किसी के दाम्पत्य के हंसते-खेलते जीवन में चञ्चु प्रहार कर अपनी कटु वाणी से, अपने शब्दों से खटास पैदा करे वह कौवा ही हो सकता है, वह हंस नहीं हो सकता। हंस तो विवेकी होता है वह विवेक का व्यवहार करता है। कौवा हमेशा विष्ठा के ऊपर मुँह मारता है। इसकी चोंच हमेशा विष्ठा पर रहती है। कई लोगों की वाणी ऐसी होती है जब भी बोलेंगे विष्ठा जैसी, दुर्गन्ध जैसी बातें। निकृष्ट बातें, अविवेक कहिए, दुर्देव कहिए, कोई भी कारण हो सकता है। अनेक माता-पिता ऐसे हैं जो अपने बच्चों के दाम्पत्य जीवन को अपने ही चञ्चु प्रहार से तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अगर कुछ गलतफहमी है बालकों के जीवन में समझाकर, बुझाकर अपने विवेक से प्रेम से उस टूटे हुए सूत्र को जोड़ना चाहिए। जो डोर कमजोर हो रही है उसको मजबूत करना चाहिए। परिवार में जो आजकल तलाक हो रहे हैं उसकाnऔर कोई बड़ा कारण नहीं है केवल परिवार में वाणी का जो व्यवहार है, दुरुपयोग है वाणी कैसी चाहिए,
कब बोलें, कैसे बोलें, कब न बोलें, कहाँ बोलें, कहाँ न बोलें, इसका विवेक न रहने के कारण अच्छे-अच्छे
परिवारों के बेटे और बहुओं के दाम्पत्य जीवन में तनाव है, खिंचाव है, उदासी है, उबासी है अथवा टूटने की कगार पर है। जो कार्य जयंत ने किया कई बार हम करने लग जाते हैं। उधर जयंत जैसे ही चञ्चु प्रहार करके उड़ा और जानकीजी के पैरों से रुधिर की धारा बही, प्रभु ने पूछा यह रक्त कैसा? जानकीजी ने कहा प्रभु एक कौवा चोंच मार के गया। प्रभु के पास उस वक्त धनुष बाण तो था नहीं, सींक के तिनके पड़े थे।
चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना ।।
भगवान् ने सींक का धनुष बाण बनाकर उसको अभिमन्त्रित किया और छोड़ दिया जयंत के पीछे।
आगे-आगे जयंत और पीछे-पीछे भगवान् के काल का बाण दौड़े चले जा रहा था। इन्द्रलोक गया, वरुणलोक
गया, कुबेरलोक गया लेकिन किसी ने बात नहीं सुनी-
काहुँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकई राम कर दोही ।।सबने कह दिया भैया रामद्रोही को कौन शरण देगा, बाप तक ने फटकार दिया। दौड़े जा रहा था तभी
एक घटना घटित हो गयी-
नारद देखा बिकल जयन्ता लागि दया कोमल चित संता ॥
नारदजी ने देखा जयंत विकल होकर भाग रहा है। नारदजी ने पुकारा ओ! जयंत! गोस्वामीजी ने यहाँ नाम
का उल्लेख किया है पहले नहीं किया था। एक ने गोस्वामीजी से पूछा पहले तो आपने इन्द्र का बेटा कहकर
लिखा था अब यहाँ नाम का उल्लेख क्यों किया। गोस्वामीजी ने लिखा अब इसको संत का दर्शन हो गया है
और संत दरस जिमि पातक टरहीं।
संत दर्शन से पाप कट जाते हैं अब इसको संत का दर्शन हो गया। इसका अर्थ है अब इसके ऊपर भगवान की कृपा हो रही है। एक सिद्धांत है अगर कोई संत मिले, मिलते तो हमें रोज हैं साधु-संत का रोज दर्शन करते हैं लेकिन जीवन वैसा का वैसा रहता है जीवन में कोई पुष्प तो नहीं खिलते, कोई सुगन्ध तो नहीं आती तो संत मिलन का अर्थ आँखों से मिलना नहीं, आँखों से देखना नहीं, संत मिलन का अर्थ है कोई संत हमारे जीवन में प्रवेश करे, किसी संत के भीतर हमने प्रवेश पा लिया। एकांत में भी जिनकी याद सताती हो और मन पवित्र हो जाता है। मन जिनसे बार-बार दर्शन की लालसा करता हो वो संत मिलन है। एक सूत्र समझिए कि अगर किसी संत से हमारा मिलन हो गया है तो इसका अर्थ है भगवान् हमसे मिलना चाह रहे हैं। भगवान् से हमारा मिलन होने जा रहा है। जब तक हमसे भगवान् मिलने की इच्छा नहीं करते तब तक हमारा
संत से मिलन नहीं हो सकता। भगवंत को प्रेरणा से ही संत का आगमन हमारे जीवन हुआ करता है।
आपने देखा होगा कि आपके गांव या मौहल्ले में कोई बड़े सज्जन आनेवाले होते हैं उससे पहले पुलिस आ जाती है और मौहल्ले के लोग पूछने लगते हैं कि कौन आ रहा है? पुलिस क्यों आ रही है? पुलिस आने का अर्थ है कि पीछे-पीछे अधिकारी, मंत्री आ रहे हैं। साधु संत ये भगवान् की पुलिस है, ये भगवान् के संदेशवाहक हैं। अगर हमारे जीवन में भगवान् का कोई सिपाही आ गया तो इसका अर्थ है कि पीछे-पीछे भगवान् भी आने वाले है। बिना भगवत् कृपा के संत का आगमन हमारे जीवन में हो ही नहीं सकता और इसका प्रमाण दिया हैं सुन्दरकाण्ड में जब विभीषणजी व हनुमानजी में वार्ता हो रही थी तो विभीषण नाचने लगे। हनुमानजी ने पूछा क्या हुआ, इतने आनन्द में कैसे आ गए? बोले- अब मुझे भरोसा हुआ, बोले कैसा भरोसा? तब विभीषण बोले हैं-
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
विभीषणजी बोले अब मुझे भरोसा हुआ है। हनुमानजी ने कहा, भरोसा कैसे हो गया? आप जो मिल
गये सो, क्योंकि संत भगवंत की कृपा के बिना मिल ही नहीं सकते। संतों की कृपा से भगवंत मिलते हैं और
भगवंत की इच्छा से संत मिलते हैं। अगर संत मिलन हुआ है इसका मतलब भगवंत पीछे-पीछे आ रहे हैं।
गोस्वामीजी ने जयंत का नाम उल्लेख कर दिया नारद देखा विकल जयंता ।
क्योंकि अब थोड़ी देर में भगवंत की कृपा मिलने जा रही है। तो नारदजी ने पूछा क्या बात है? तो जयंत
बोला कि भगवान् के काल का बाण मेरे पीछे लगा है। शरीर मेरा झुलस रहा है जलाने को तैयार है। हो क्या
गया? बोला भगवानजी का एक अपराध कर दिया मैंने। कहाँ-कहाँ गया बोला पिताजी के पास गया, ब्रह्मलोक
गया, शिवलोक गया पर किसी ने मुझे पूछा नहीं सबने फटकारा तो नारदजी ने कहा अरे बावले अपराध तो
भगवानजी का किया है और क्षमा औरों के पास जाकर माँग रहा है वो क्षमा कैसे कर देंगे? यह तो नियम है
कि जिसका अपराध किया जाता है, क्षमा उसको ही करने का अधिकार है। न्यायालय भी अपराधी को क्षमा
नहीं कर सकता, दण्डित तो कर सकता है लेकिन क्षमा करने का अधिकार न्यायालय को भी नहीं है। अपराध
यहाँ कर रहे हैं और क्षमा वहाँ माँग रहे हैं। अपराध पड़ोस में किया है, क्षमा मन्दिर में जाकर माथा टेककर
मांगते हैं। नारदजी ने कहा अब तक बाण ने तुमको मारा क्यों नहीं यह विचार किया? तीनों लोकों में तुम दौड़े
हो बाण मारना चाहता तो मारता नहीं, मार भी सकता था। इसका अर्थ हैं कि भगवान् ने काल का बाण तो
उसके पीछे लगाया है। प्रभु कहना चाहते हैं कि तीनों लोकों में तुम कहीं भी जाओ, काल के बाण से तुम
बच नहीं सकते। लेकिन मेरे चरणों में अगर आना चाहते हो तो किसी संत की वाणी का सहारा लेकर आ
सकते हो। कोई संत की वाणी तुम्हें प्रभु के चरणों तक ले आएगी। इसलिए प्रभु ने मुझे भेजा है, बोल क्या
चाहता है। मेरे साथ आप चलें ऐसा उसने कहा । नारदजी ने कहा नहीं तुम सीधे जाओ और प्रभु से क्षमा माँगो,
नारदजी ने कहा तुम भगवान् के स्वभाव को नहीं जानते हो-
अति कोमल रघुवीर सुभाऊ । यद्यपि अखिल लोक कर राऊ ।।
नारदजी ने कहा जयन्त! भगवान् अति कोमल हैं, तुम जाओ। आप चलो। नारदजी ने कहा तेरा तो कोई
बड़ा अपराध ही नहीं, तूने तो केवल चरणों को ही स्पर्श किया है। मैंने तो उनकी घरवाली से विवाह करने की
ठानी थी। जब मुझे क्षमा कर सकते हैं तो तुझे क्यों नहीं क्षमा करेंगे? तो जयन्त ने कहा मैं जाऊं तो प्रभु पूछेंगे
कि पहले तुमने क्षमा क्यों नहीं माँगी ? भाग क्यों गया? तो नारदजी ने बोला कि कह देना पहले मैं आपका
प्रभाव देखने चला गया था कि कहाँ-कहाँ तक आपका प्रभाव है, ठीक है यह तो बोल दूँगा, परन्तु प्रभु जी
बोलेंगे कि अब क्यों आए हो? तो नारद जी बोले, बोल देना कि आपका प्रभाव देख लिया कि आपका प्रभाव
कैसा है। अब आपका स्वभाव देखने आया हूँ कि आपका स्वभाव कैसा है। भगवान् का स्वभाव अति कोमल
रघुवीर स्वभाव- कोमल चित कृपालु रघुराई ! जिनको अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं आया। ऐसे हमारे प्रभु
हैं। जिनकी अपराधी पर अपनी कृपा दृष्टि हो और करुणा का हाथ हो तो ऐसे प्रभु श्री राम से जाकर जयन्त
ने जब क्षमा माँगी है तो यही बात बोली है।
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जान नहिं पाई ।।
श्रीहनुमानजी अतुलित बल के धाम हैं। हनुमानजी में अपना बल नहीं है। भगवान् का बल विराजमान
है। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर । धनुष-बाण लेकर भगवान जिनके हृदय में विराजमान हैं।
भगवान् का बल भी उनके साथ विराजमान होगा कि नहीं? और अपना स्वभाव देखिए! हम हमेशा अपने बल
पर गर्व करते हैं। और श्रीहनुमानजी हमेशा भगवान् के बल का गर्व करते हैं। सो सब तब प्रताप रघुराई नाथ
ना कछु मोर प्रभुताई। हनुमानजी जब भी बोलते हैं तो यही बोलते हैं कि प्रभु मेरा क्या है। मैं तो बन्दर हूँ,
कामुक पशु हूँ। कपि चंचल सबही विधि हीना । यह तो प्रभु आपकी कृपा हो गयी तो लोग बन्दरों को भी
आदर देने लगे। ऐसे अतुलित बलधाम श्रीहनुमानजी अंजनि माँ के पुत्र हैं।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

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