सोमवार, 23 दिसंबर 2024

मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग छः।।पवनसुत।।

मानस चर्चा ।।हनुमानजी भाग छः।। पवनसुत।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार।
गोस्वामीजी ईश्वर के मनुज रूप धारण करने के कारणों पर कहते है-बिप्र धेनु सुर संत हित।लीन्ह मनुज अवतार। भगवान का जन्म ये चार कारणों से हुआ था। सुर, संत, विप्र, धेनु का हित। विप्र माने ब्राह्मण, विप्र कोई जाति वाचक शब्द नहीं है, अपितु गुणवाचक शब्द है। कोई सोच सकता है कि क्या भगवान् बाकी जातियों के लिए नहीं आए, नहीं भगवान सर्वत्र हैं और सबके लिए समर्पित हैं। विप्र माने जो धर्म, शास्त्र, भगवान, धर्म की रक्षा के लिए कार्य करे ।
जब-जब होई धरम कै हानी। 
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। 
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा ।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ।।
धेनु माने गाय अर्थ के रूप में, गाय इस जगत का अर्थ है। गाय इस भारत की समृद्धि है, भारत की सम्पत्ति है, भारत का वैभव है, गाय से ही गौरव शब्द बना है। जब तक इस देश में गाय रहेगी तब तक इस देश का समस्त विश्व में गौरव रहेगा, जब तक गाय रहेगी तब तक भारत सुखी और समृद्ध रहेगा, वैभव सम्पन्न रहेगा। जब से हमारे देश में गाय की दुर्दशा हुई है तब से देश का गौरव भी गया, समृद्धि व सम्पत्ति भी चली गयी, देश भिखारी हो गया, कर्जदार हो गया।इसलिए इस देश की गाय बचनीचाहिए। गाय समृद्धि का प्रतीक है। धेनु माने-
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई ॥
इस देश का जो प्राण है वो सात्विक श्रद्धा है। श्रद्धा के आधार पर ही भारत जीवित है। तो भगवान् धर्म की रक्षा के लिए आते हैं। अर्थ की रक्षा के लिए आते हैं। देवता कामना पूरी करते हैं। काम के लिए, कामना पूर्ति के लिए, देवता मनुष्य की कामना को पूरा किया करते हैं और देवता यज्ञ से प्रसन्न होते हैं। इसलिए हम यज्ञ का आग्रह करते हैं।घर में जरूर महिने में दो बार पूर्णिमा और अमावस्या को हम यज्ञ का आग्रह करते हैं। घर में जरूर यज्ञ होना चाहिए। मनुष्य का जीवन देवताओं के अधीन है। देवताओं के द्वारा ही मनुष्य को सारी की सारी वस्तुएं मिलती हैं जल है, अग्नि है, वायु है, प्राण है, समृद्धि है, सम्पत्ति है। देवता यज्ञ से प्रसन्न होते हैं। विप्र, धेनु, सुर, संत व मोक्ष संतों के आशीर्वाद से मिलता हैं, मोक्ष संतों की कृपा से मिलता है और इसलिए भगवान चार रूप में आए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लक्ष्मणजी धर्म के प्रतीक हैं, शत्रुघ्नजी अर्थ के प्रतीक हैं, भरतजी काम के प्रतीक हैं और भगवान् साक्षात् मोक्ष के प्रतीक हैं। धर्म की मर्यादा में,धर्म संरक्षण में अर्थोपार्जनऔर मोक्ष की परिधि में काम का सदुपयोग करें! काम हमको अन्धा न कर दे। आदमी मोक्ष के मार्ग पर बढ़ जाए, और अर्थ हमको धर्म से विरक्त न कर दे, विमुख न कर दे। अन्यथा अर्थ अनर्थकारी होता है। इसलिए अर्थ को धर्म के साथ जोड़ा और काम को मोक्ष के साथ जोड़ा। भगवान् चार रूप लेकर प्रकट हुए-
प्रकट भये चारों भैया । अबधपुर बाजे बधैया ॥।
तो संयमित काम चाहिए। हनुमान चालीसा में बाबाजी लिखते है -
बरनउँ रघुवर बिमलजसु जो दायकु फल चारि ॥
आगे और भी सुन्दर शब्दों में लिखा है-
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार ।
सबसे बड़ी समझ यही है कि मनुष्य यह मान ले कि मैं नासमझ हूँ, मैं बुद्धिहीन हूँ। हर व्यक्ति अपने को बुद्धिमान समझता है। एक संत कहते हैं कि आँखवाला तो वह है जिसे अपना अंधेरा दिखाई दे। कैसी विचित्र बात है कि व्यक्ति धन कम बताएगा लेकिन बुद्धि कभी कम नहीं बताएगा। अगर आपने कह दिया कि आप बुद्धि से बहुत कम हैं तो वह आपसे लड़ पड़ेगा। आप किसी के बारे में कहें कि वह आपसे ज्यादा धनवान हैं तो वह मान लेगा, आप किसी के बारे में कहें कि वह आपसे ज्यादा स्वस्थ है वह मान लेगा लेकिन यदि आप कहें कि वह आपसे कम बुद्धिमान है तो वह आपको अपने घर से उठा देगा। बुद्धि-अहंकार का प्रतीक हैऔर अहंकारी कभी दूसरे को अपने से बड़ा देखना ही नहीं चाहता है, सुनना ही नहीं चाहता है। दूसरे का धन और अपनी बुद्धि हमेशा ज्यादा लगती है और मूर्ख की पहचान भी यही है जो अपने को सर्वाधिक बुद्धिमान समझे, समझो सर्वाधिक मूर्ख है और ऐसा व्यक्ति आपको हमेशा शिकायत करता दिखाई देगा। हमारी तो कोई सुनता ही नहीं, हमारी तो कोई मानता ही नहीं, हमसे कोई सलाह ही नहीं लेता। इस देश में अगर कुछ मुफ्त में मिलता है तो वह सलाह ही है और जिसे कोई नहीं लेता है वह भी सलाह है। दुनिया सलाह देने को तैयार है लेकिन कोई लेने को तैयार नहीं। बाप सलाह देने को तैयार बैठा है लेकिन बेटा लेने को दूर सुनने को भी तैयार नहीं। मूर्ख का मतलब जो अपने को अकलमंद समझे, विनम्रतापूर्वक अपनी अज्ञानता यदि स्वीकार कर लो तो इससे बड़ा साहस का कार्य कुछ नहीं, इससे बड़ा कोई साहस नहीं है, मैं अज्ञानी हूँ, क्या दिक्कत है इसमें।
एक अध्यापक ने अपनी कक्षा में पूछा आपमें से जो सबसे ज्यादा मूर्ख है वह खड़ा हो जाए, अब अपने को कौन मूर्ख माने। एक-दूसरे को बालक देखने लगे तू खड़ा हो जा, तू खड़ा हो जा, कोई खड़ा नहीं हुआ। अध्यापक ने निगाह घुमायी, एक विद्यार्थी पीछे खड़ा हुआ।अध्यापक को थोड़ा संतोष हुआ कि चलो मेरी क्लास में एक तो सत्यवादी बालक है जिसने अपने को मूर्ख स्वीकार कर लिया। बहुत अच्छा बेटे आगे आओ, विद्यार्थी ने वहाँ से कहा सर मैं इसलिए नहीं खड़ा हुआ हूँ तो क्यों खड़े हुए हो? बोला सर आप अकेले खड़े हुए थे अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए सोचा आपका साथ दे दूँ। हम सब अपने को बुद्धिमान् मानते हैं। गोस्वामीजी जैसे महापुरुष कह रहे हैं-
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेस बिकार ॥
और इसका एक दूसरा भी अर्थ हो सकता है जिसने अपने तन को ही सब कुछ मान लिया वही बुद्धिहीन
है। मनुष्य केवल शरीर नहीं है, मनुष्य केवल देह नहीं है, मनुष्य तो ईश्वर का अंश है।
ईस्वर अंस जीव अविनासी । 
चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
सो मायावस भयउ गोसाईं ।
बंध्यो कीर मरकट की नाई ।
श्री हनुमानजी बुद्धिमताम् वरिष्ठम् हैं।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । क्योंकि जो जितेन्द्रिय हैं वे ही बुद्धिमताम् वरिष्ठम् हो सकते हैं। जितेन्द्रिय के पास ही बल, बुद्धि और विद्या
होती है। अजितेन्द्रिय की ये तीनों ही नष्ट हो जाती हैं। जितेन्द्रिय माने क्या? इसका अर्थ है जिसका मन शुद्ध
हो वह जितेन्द्रिय है और अशुद्ध मन ही हमसे अशुद्ध कार्य कराता है। श्रीहनुमानजी 
कुमति निवार सुमति के संगी हैं।
जिसका मन शुद्ध हो गया वही जितेन्द्रिय है। मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, विकार, वासना की जब अशुद्धता आती है तब मनुष्य की इन्द्रियां पाप करती हैं, वह अजितेन्द्रियम् हो गया और जिसका मन शुद्ध हो गया वह जितेन्द्रिय हो गया और जो जितेन्द्रिय हो गया उसके पास बल, बुद्धि और विद्या ये तीनों आती हैं। साधना के लिए ये तीनों चाहिए, जिसको साधना करनी है उनको बल भी चाहिए, संकल्प का बल, त्याग का बल, साधना का बल, वैराग्य का बल, संयम का बल, आत्मा का बल। साधना में कायर और कमजोर नहीं जाते, साधना व्यवहार नहीं है, साधना व्यापार नहीं है, साधना तो सीधा जुआ है। साधना में तो दाँव लगाना पड़ता है, प्राणों की बाजी लगानी पड़ती है, जीवन लगाना पड़ता है, हम जीवन का हिसाब लगाते हैं, लाभ होगा या हानि होगी, यह व्यापार नहीं है, यह तो पूरा दांव है। साधना का बल चाहिए, बुद्धि भी चाहिए चूंकि
क्रिया शक्ति के पहले विचार शक्ति चाहिए। बुद्धि माने विचारशक्ति । हनुमानजी जो कुछ करते हैं उससे पहले
विचार करते हैं।
तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई।करौं बिचार करइ का भाई ।। श्रीहनुमानजी पहले विचार करते हैं क्रिया बाद में करते हैं। पुर रखवारे देखि बहु, कपि मन कीन्ह विचार।
हम क्रिया पहले करते हैं पश्चाताप का विचार-विमर्श बाद में करते हैं। अरे राम! ऐसा कैसे हो गया,अरे बुद्धि पर कैसे पत्थर पड़ गए। हनुमानजी पहले विचार करते हैं। फिर कार्य करते हैं। हम कार्य पहले करते हैं विचार बाद में करते हैं, इसलिए ठोकर खाते हैं। विद्या माने ज्ञान, विद्या माने विज्ञान, जो हमको दुर्गुण- दुर्विचारों से बचाती है, वासनाओं से मुक्त रखे वही विद्या है, वही ज्ञान है। हम सब अज्ञानी हैं, हम सब अंधेरे के कारणों में डूबे हैं। श्रीहनुमानजी जब भी उड़ान भरते हैं प्रकाश की ओर, जन्म लेते ही सूर्य की ओर उड़ गए थे। हम सब अंधेरे की ओर जाने की कोशिश करते हैं। श्रीहनुमानजी ज्ञान की ओर प्रकाश की ओर तमसोमाज्योर्तिगमय गमन करते हैं। यह ज्ञान हमें प्रकाश की ओर भगवान् की ओर ले जाएगा। जो शिखर की ओर मुक्ति की ओर ले जाए, वासनाओं से मुक्त कर दें, विरक्त कर दे, उसको ज्ञान (विद्या) कहते हैं-सा विद्या या विमुक्तये । बाल्मीकिजी के आश्रम में जब भगवान् पहुँचे हैं तब गोस्वामीजी ने लिखा है कि जब प्रभु वन मार्ग से जा रहे थे बाल्मीकिजी के आश्रम की ओर तो क्या देखते - देखते जा रहे थे वो सब लिखा है- देखत बन सर सैल सुहाये।  बालमीकि आश्रम प्रभु आये ॥ गोस्वामीजी लिखते हैं कि प्रभु वन की शोभा निहारते आ रहे हैं। सरोवरों का दर्शन करते आ रहे हैं। पर्वत शिखरों को देखते आ रहे हैं। वन, बाग, उपवन, वाटिका यें सभी साधना की सीढ़ियां है श्रेणियाँ हैं। साधना की पहली सीढ़ी है वाटिका जहाँ प्रेम के पौधे रोपे जाते हैं तो वाटिका यह साधना की प्रथम सीढ़ी है क्योंकि इसकी रक्षा बहुत करनी पड़ती है कभी पौधा मुरझा सकता है। वाटिका से थोड़ा बड़ा उपवन साधना की दूसरी सीढ़ी फिर तीसरी सीढ़ी है बाग। बाग घना होता है, बड़ा होता है, समर्थ होता है लेकिन लगाया जाता है चौथी जो अन्तिम सिद्धावस्था है वो है वन, वन लगाया नहीं जाता, बल्कि वन स्वयं पैदा होता है, वन स्वयं बन जाता है और वन की रक्षा भी नहीं की जाती है वन वह है जिसमें साधक भी बैठते हैं, जीव, जानवर, ऋषि-मुनि, राक्षस सब जहाँ आश्रय पाते हैं। सिद्धावस्था जिसके चरणों में सबको बैठने का अधिकार।हो और जो किसी के बैठने से प्रभावित न होता हो वह वन की अवस्था है वो साधना की पराकाष्ठा है वन । हरा-भरा, गहन, प्रफुल्लित, पक्षियों के कलरव से भरा हुआ, सब प्रकार से वन प्रेम की पराकाष्ठा का प्रतीक है, वन के समान घना, गहन, छायादार ज्ञान चाहिए और सर माने सरोवर, सरोवर के समान शान्त, निर्मल, शीतल, शान्त यह बुद्धि चाहिए-
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै आपहुँ शीतल होय।
पर हमारी वाणी आज कल  ऐसी होती जा रही  है कि शीतल में भी जलन पैदा कर देती है। सरोवर वो अच्छा माना जाता है जो प्यास को भी शान्त कर दे और हमारे मन को भी शीतल कर दे। शैल  पर्वत के शिखर का प्रतीक है। हमारे अन्दर अडिग बल चाहिए परन्तु हमको थोड़ा सा बल मिलता है, चाहे धन का बल मिले, पद का बल मिले, वैभव का बल मिले, यश का बल मिले हम डगमगाने कपकपाने लगते हैं। हम दुरुपयोग करने लगते हैं जैसे हिमालय का शिखर अडिग है, बड़े-बड़े भूचाल, झंझावत, भूकम्प, तूफान उसको हिला नहीं पाते। कोई भी बाहर की परिस्थिति हमारे भीतर के बल को हिला न पाए वो शैल के समान है और ये तीनों ही परोपकारी स्वभाववाले हैं और एक सिद्धान्त और है-
निर्बल को कोई आदर नहीं देता जो भी दुनियाँ में कमजोर देश है इनका कभी सम्मान नहीं हुआ और जो भी कमजोर व कायर हैं समाज में, उसको कोई आदर नहीं मिलता दुत्कार मिलती है, उसको हम फटकार।देते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि बुद्धि के लिए चरित्र बल चाहिए जिसका उपयोग हो सके। ऐसा नहीं है कि सबकी बुद्धि खराब है सबकी बुद्धि अच्छी होती लेकिन अच्छी बुद्धि होने के बाद भी हम गलत कार्य क्यों करते हैं इसका चिन्तन इसका  करना चाहिए। चोर भी कहाँ चाहता है कि मेरा बालक चोर बने, शराबी भी कहाँ चाहता है कि मेरा बालक शराबी बने, लेकिन शराबी जानने के बाद भी कि मुझे शराब नहीं पीनी चाहिए फिर भी पीता है कारण क्या है? उसके भीतर संकल्प का बल नहीं है भीतर से वह निर्बल है बुद्धि तो उसकी अच्छी है लेकिन भीतर चरित्र का बल, संकल्प का बल नहीं है जिस कारण वह गलत मार्ग से हट नहीं सकता। मनुष्य तो क्या, सही या गलत तो कुत्ते भी जानते हैं। एक महात्मा सुना रहे थे कि आप एक कुत्ते को रोटी का टुकड़ा डाल दें तो जहाँ आप डालते हैं तो कुत्ता
रोटी के टुकड़े को वहीं बैठकर खाने लगता है लेकिन जो कुत्ता रोटी चुराकर ले जाता है वो वहाँ नहीं खाता जहाँ
से चुराया, दूर छुपकर गली में खाता है। तो जब कुत्ता इस बात को जानता है कि मैं चोरी करके लाया हूँ इसलिए
छुपकर खाना चाहिए तो क्या मनुष्य नहीं जानता है कि क्या शुभ है और क्या अशुभ ? लेकिन जिसके भीतर संकल्प का बल,आत्मा का बल नहीं है इसलिए अच्छी बुद्धि भी उससे गलत काम कराती है। बल विवेक दम परिहित घोरे । बल के साथ विवेक चाहिए और विवेक के साथ आत्मा का बल चाहिए तब जीवन का रथ चलता है, नहीं तो घिसटता है। विवेक मिलता है सत्संग से। बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।
सतसंगति मुद मंगल मूला ।Mसोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥ विवेक माने बिल्कुल स्पष्ट ज्ञान, बेबाक किसी प्रकार की कोई धुंधलाहट नहीं, स्पष्ट ज्ञान, क्या करना, क्या नही करना, क्या शुभ है, क्या अशुभ है, क्या करना है क्या नहीं करना इसमें किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं इसको विवेक कहते हैं बिना लाग लपेट के और गोस्वामी जी ने पवनकुमार शब्द प्रयोग किया है-
बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल, बुद्धि, विद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥
पवनकुमार का सुमिरन किया गया है। बाकी देवताओं के तो पास जाना पड़ता है लेकिन पवन कुमार क्यों बोला इसलिए बोला? क्योंकि पवन स्वयं चलकर तुम्हारे पास आती है। और जैसे पवन स्वयं चलकर तुम्हारे पास आती है ऐसे ही पवन कुमार हैं जो स्वयं चलकर तुम्हारे पास आते हैं। उनके पास जाने की आवश्यकता नहीं बस केवल उनका सुमिरन करो, उनकी याद करो, उनकी पुकार करो- हे दुख भंजन मारुति नन्दन, सुन लो मेरी पुकार । पवनसुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।। अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता, दुखियों के तुम भाग्य विधाता ॥ सियाराम के काज संवारे, मेरा कर उद्धार ।।पवन सुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।। अपरम्पार है शक्ति तुम्हारी, तुम पर रीझे अवध बिहारी । भक्तिभाव से ध्याऊं तोहे कर दुखों से पार। पवन सुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।। जपें निरन्तर नाम तिहारा, अब नही छोडूं तेरा द्वारा । रामभक्त मोहे शरण में लीजै, कर भव सागर से पार। पवन सुत विनती बारम्बार, पवनसुत विनती बारम्बार ।भक्तों की पुकार पर वे तुरन्त चले आते हैं और उनके कष्ट क्लेशों को पल भर में दूर कर देते हैं।पवन तो बहुत सुलभ है इसलिए लोग बहुत कम याद करते हैं। दुर्लभ की याद बहुत लोग करते हैं।हीरा दुर्लभ है बड़ा कीमती।उससे सस्ते गेहूँ आदि अनाज लेकिन उनकी भी कीमत है। उनसे सस्ता जल सुलभ है कम कीमत है और जिसकी कोई कीमत नहीं वो पवन है क्योंकि सर्व सुलभ है बिना माँगे मिलता है।लोग बिजली पानी के लिए तो आन्दोलन करते हैं किसी ने हवा के लिए आन्दोलन किया, हवा नहीं चल रही आन्दोलन करो, प्रदर्शन करो, जिसको बल, बुद्धि और विद्या आ गई उसी के क्लेश का हरण होता है। पवनसुत पवन की तरह सबसे लिए सर्वत्र सुलभ हैं। ऐसे पवनसुत श्री हनुमानजी की हम आराधना कर उनकी कृपा प्राप्त करें ।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

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