शनिवार, 19 नवंबर 2022

✓ ।।उभयालंकार(संकर-संसृष्टि)।।

             ।।उभयालंकार।।

  जब काव्य में चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित हो तब उभयालंकार होता है।

    दूसरे शब्दों में जब एक ही जगह शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों हो तब उभयालंकार होता है।

उभयालंकार के  दो भेद हैं:-

1-संकर अलंकार और 

2-संसृष्टि अलंकार।

1-संकर अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार दूध और पानी की तरह (नीर-क्षीर वत) मिले हुवे हो तब संकर अलंकार होता है।

    यहाँ दूध और पानी की तरह ही अलंकारों अलग करना कठिन होता है।

उदाहरण:-

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।

सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

यहाँ पद पदुम  में छेकानुप्रास और रुपक दोनों नीर-क्षीर की तरह ऐसे मिले है कि दोनों को अलग करना कठिन है इसलिए यहाँ  संकर अलंकार है।

2:संसृष्टि  अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार तिल और चावल की तरह (तिल-तण्डुल वत)मिले हुवे होतब संसृष्टि अलंकार होता है। 

यहाँ तिल और चावल की तरह ही अलंकारों को अलग किया जा  सकता है।

उदाहरण:

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।रामकरौ केहिभाँति प्रसंसा।मुनि महेस मन मानसहंसा।।

यहाँ पंकरुह पानि में उपमा,प्रेम जनु जाए में उत्प्रेक्षा,मुनि-महेस और मन-मानस में रुपक तथा पंक्तियों के अन्तिम पदवर्ण समान होने के कारण अन्त्यानुप्रास अलंकार तिल-तंडुल की तरह मिले हुवे हैं जिनको अलग किया जा सकता है इसलिए यहाँ  संसृष्टिअलंकार है।

                   ।।धन्यवाद।।

शनिवार, 12 नवंबर 2022

।।पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश,पुनरुक्तिवदाभास और विप्सा अलंकार।।

पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश पुनरुक्तिवदाभासऔर विप्सा अलंकार(आवृत्ति मूलक अलंकार)

1-पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार

पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार दोनों को विद्वानों ने एक ही माना है।हम इन्हें विस्तार से समझते है।

 जब काव्य  में प्रभाव लाने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति एक ही अर्थ में की जाय तब वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

 पुनरुक्ति,पुनः+उक्ति से बना है । इसका अर्थ होता है आवृति, पुनरावृति या दोहराना। एक ही शब्द की जब पुनरावृति की जाती है, तो उसे पुनरुक्ति या द्विरुक्ति कहते हैं। पुनरुक्त शब्दों की रचना मुख्यतः सार्थक शब्द की पुनरावृत्ति से होती है। इसमें संज्ञा,सर्वनाम,क्रिया विशेषण आदि की पुनः उक्ति की जाती है।

ध्यान रखें जब शब्दों के अर्थ भिन्न होते हैं तब यमक अलंकार होता है और जब शब्दों के अर्थ एक समान रहते है तब पुनरुक्ति अलंकार होता है।

उदाहरण:-

1-मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।

जनम सिराने अटके-अटके।।

2-विहग-विहग,फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज।

3-मधुर वचन कहि-कहि परितोषी।

4-झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघोर।

5-पुनि-पुनि मोहि दिखाव कुठारू।

  चहत उड़ावन फूँक पहारू।।

6-राम-राम कहु बारम्बारा।

चक्र सुदर्शन है रखवारा।

7-राम-राम कहि राम कहि राम-राम कहि राम।

तनु परिहरि रघुपति बिरह रावु गयउ सुरधाम।।

8-पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात।

2-पुनरुक्ति-प्रकाश अलंकार

"जहाँ काव्य में प्रभाव लाया जाय शब्दों को दोहराकर।

हो वह पूर्ण अपूर्ण या अनुकरण वाचक।

सभी शब्द भेदों संज्ञा से विस्मयादिबोधक तक

विभक्ति सहित शब्दों से भी बनता पुनरुक्ति प्रकाशक।"


 जब विषय को प्रकाशित करने,अर्थ में रोचकता लाने अथवा उक्ति को परिपुष्ट करने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति की जाय तब वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है।

अंग्रेज़ी में इन अलंकारों को 'टॉटोलोजी' (Tautology) कहा जाता है । फारसी तथा उर्दू में 'तजनीस मुकर्ररकहते हैं।

उदाहरण:-

1-ठौर-ठौर विहार करती सुन्दरी सुर नारियाँ

2-हमारा जन्मों जन्मों का साथ है

  जो हमेशा-हमेशा रहेगा।

3-बनि-बनि-बनि बनिता चलींगनि-गनि-गनि डगदेत ।

धनि-धनि-धनिअखियाँ,सुछवि सनि-सनि -सनि सुख लेत।।

4-भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।

मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।

5-तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।

महा महा जोधा संघारे।।

6-यह बृतांत दसानन सुनेऊ।

अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।

3-पुनरुक्तवदाभास अलंकार

"पुनः उक्ति होने का केवल होता है आभास जहाँ।

पुनरुक्ति व पर्याय नहीं होता पुनरुक्तवदाभास वहाँ।।"

पुनः उक्त वद आभास

जब काव्य में शब्दों की पुनरुक्ति नहीं होती है केवल पुनरुक्ति का आभास होता है तब वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।  यहाँ आभासित शब्दों के अर्थअलग होते हैं।

उदाहरण:-

1-अली भौर गुंजन लगे,होन लगे दल-पात

जहँ तहँ फूले रुख तरु, प्रिय प्रियतम कहँ जात।।

अली का आभासित अर्थ भौरा पर यहाँ सखी।

पात का आभासित अर्थ दल अर्थात पत्ता पर यहाँ गिरना।

रुख का आभासित अर्थ तरु परन्तु यहाँ सूखा हुआ।

प्रिय का आभासित अर्थ प्रियतम परन्तु यहाँ प्यारे।

2-जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता।

कनक का आभासित अर्थ सुवर्ण पर यहाँ धतूरा।

3-दुल्हा बना बसंत बनी दुल्हन मन भायी।

बना का आभासित अर्थ दुल्हा पर यहाँ बनना।

बनी काआभासित अर्थ दुल्हन पर यहाँ बनना।

4-सुमन फूल खिल उठे, लखों मानस मन में।

सुमन=पुष्प  ,फूल काआभासित अर्थ पुष्प लेकिन यहाँ प्रसन्न।

मानसकाआभासित अर्थ मन लेकिन यहाँ मानसरोवर मन=अन्तर्मन

5-निर्मल कीरति जगत जहान

जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ  जागृत  जहान=संसार

6-वंदनीय केहि के नहीं, वे कविन्द मति मान।

स्वर्ग गये हूँ काव्य रस, जिनको जगत जहान।।

जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ  जानना,जहान=संसार

7-पुनि फिरि राम निकट सो आई।

फिरि का आभासित अर्थ पुनि लेकिन यहाँ लौटकर।

4-वीप्सा अलंकार

"आदर घृणा विस्मय शोक हर्ष युत शब्दों को दोहराये।

अथवा विस्मयादिबोधक चिह्नों से भाव जताये।

शब्द वा शब्द समूहों से विरक्ति घृणादि दर्शाये।

तह वीप्सा अलंकार बन जन जन को लुभाये।।"

जब काव्य में घृणा,विरक्ति, दुःख, आश्चर्य, आदर, हर्ष, शोक, इत्यादि  विस्मयादिबोधक भावों को व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति की जाए तब वीप्सा अलंकार होता है।

वीप्सा का अर्थ होता है –  दोहराना और पुनरुक्ति का भी अर्थ है द्विरुक्ति, आवृत्ति या दोहराना होता है इस भ्रम के कारण अनेक विद्वान दोनों को एक मान लेते हैं।लेकिन दोनो अलग-अलग हैं और दोनों में अन्तर है।

उल्लेखनीय है कि हिन्‍दी साहित्‍य में सर्वप्रथम भिखारीदास ने ‘वीप्सालङ्कार’ के नाम से इसे ग्रहण किया है।

 वीप्सा द्वारा मन का आकस्मिक भाव स्पष्ट होता है। 

हम अपने मनोभावों ( आश्चर्य,घृणा,हर्ष,शोक आदि)  को व्यक्त करने के लिए विभिन्न तरह के शब्दों ( छि-छि , राम-राम शिव-शिव, चुप-चुप, हा-हा,ओह-ओह आदि) का प्रयोग करते है। अतः काव्य में जहाँ इन शब्दों का  प्रयोग किया जाता है वहां वीप्सा अलंकार होता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना है कि जब भी काव्य में किसी शब्द के बाद विस्मयादिबोधक चिह्न(!) पाया जाय वहाँ वीप्सा अलंकार होगा।

उदाहरण :-

1-चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन!

नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन!

2-शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
3-राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
4-उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया।
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?’
5-मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला…
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे

6-अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो

प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो -बढ़े चलो !

7-हाय ! क्या तुमने खूब दिया मोहब्बत का सिला।

8-धिक ! जीवन को जो पाता ही आया विरोध।

धिक ! साधन जिसके लिए सदा ही किया सोध।

9-रीझि-रीझि रहसि-रहसि हँसी-हँसी उठे।

साँसे भरि आँसू भरि कहत दई-दई।।

उक्त उदाहरणों से एक और बात स्पष्ट होती है कि वीप्सा अलंकार में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता प्रगट होती है।

                      ।।धन्यवाद।।  

सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

।।प्रतीप अलंकार।।

                प्रतीप अलंकार

   प्रतीप का अर्थ है - विपरीत अथवा उल्टा।

       जहाँ उपमेय का कथन उपमान के रूप में तथा उपमान का कथन उपमेय के रूप में कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।अर्थात जहाँ उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है, तब वहाँ  प्रतीप अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में --"जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय की तुलना में अपकर्ष प्रकट  होता है, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।"यह उपमा अलंकार का उल्टा होता है क्योंकि इस अलंकार में उपमान को लज्जित, पराजित या नीचा दिखाया जाता है और उपमेय को श्रेष्ट बताया जाता है।प्रतीप अलंकार के पाँच भेद हैं:-

(1)- जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान की तरह प्रयुक्त किया जाता है:-

जैसे:-

1-सखि! मयंक तव मुख सम सुन्दर।

2-बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।

  उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम।।

3-लोचन से अंबुज बने मुख सो चंद्र बखानु

(2)-जहाँ उपमान को उपमेय की उपमा के अयोग्य बताया जाता है:- 

जैसे:-

1-अति उत्तम दृग मीन से कहे कौन विधि जाहि।

(3)-जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के द्वारा निरादर किया जाता है अर्थात उपमेय के सामने उपमान को हीन दिखाया जाता  है, 

जैसे:-

1-तीछन नैन कटाच्छ तें मंद काम के बान।

2- बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।

     सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥

(4)-जहाँ पहले उपमेय की उपमान के साथ समानता बताई जाय अथवा समानता की सम्भावना प्रगट की जाय तथा बाद में उसका खण्डन किया जाता है:-

जैसे:-

1-प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा।

सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।

 सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥

(5)-जहाँउपमेय के होने की स्थिति में उपमान को व्यर्थ बताया जाता है:- 

जैसे:-

1-मुख आलोकित जग करे,कहो चन्द केहि काम।

2-दृग आगे मृग कछु न ये।

अन्य  प्रसिद्ध उदाहरण:-

1. चन्द्रमा मुख के समान सुंदर है।

 2. गर्व करउ रघुनंदन घिन मन माँहा।

  देखउ आपन मूरति सिय के छाँहा।।

3. जग प्रकाश तब जस करै। 

बृथा भानु यह देख।। 

4 .उसी तपस्वी से लंबे थे, 

देवदार दो चार खड़े ।“

5. जिन्ह के जस प्रताप के आगे।

ससि  मलीन रवि सीतल लागे।  

 6.नेत्र के समान कमल है।  

7.इन दशनों अधरों के आगे क्या मुक्ता है, विद्रुम क्या?

8. नाघहिं खग अनेक बारीसा। 

 सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।

9.भूपति भवन सुभायँ सुहावा।

 सुरपति सदनु न पटतर पावा॥

10-गरब करति मुख को कहा चंदहि नीकै जोई।

              ।।धन्यवाद।।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

।।अलंकार परिचय।।


अलंकरोति इति अलंकारः अर्थात् जो विभूषित करता हो वह अलंकार है। अलं  क्रियते अनेन इति अलंकारः अर्थात्  जिसके द्वारा किसी की शोभा होती है वह अलंकार है।
आचार्य जयदेव ने ‘‘चन्द्रालोक’’ में अलंकार को काव्य का नित्यधर्म माना है।
"अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।।"
अर्थात् जो व्यक्ति काव्य को अलंकार से रहित स्वीकार करता है, वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं कहता। तात्पर्य यह कि अलंकार काव्य का आधारभूत गुण है।
आचार्य दंडी  ने ‘‘काव्यादर्श’’ में अलंकार को काव्य
की शोभा को बढ़ाने वाला धर्म माना है।
"काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।"
अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं
आचार्य भामह के अनुसार -“न कान्तम् अपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्”।  अर्थात् आभूषणों के बिना जिस प्रकार नारी की शोभा नहीं होती उसी प्रकार बिना अलंकार के काव्य सुशोभित नहीं होता।
    इन्हीं बातों को आचार्य केशव ने भी इस प्रकार कहा है:
'जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरल सुवृत्त ।   भूषण बिनु न विराजई, कविता वनिता मित्त ।'
    अर्थात्  श्रेष्ठ गुणी होने पर भी कविता और बनिता(स्त्री) आभूषणों(अलंकारों) के बिना शोभा नहीं देते हैं।
आचार्य चिन्तामणि के अनुसार:
"सगुण अलंकार न सहित, दोष-रहित जो होई।
शब्द अर्थ बारौ कवित, बिवुध कहत सब कोई॥"

प्रसिद्ध समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
“भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप-गुण क्रिया का अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराने में सहायक उक्ति को अलंकार कहते हैं।" 
इस प्रकार हम पाते हैं कि अलंकार काव्य की शोभा में चार चाँद लगाने वाले कारक होते हैं। इसके
मुख्यत:  तीन भेद माने जाते हैं-- शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार। 
1. शब्दालंकार- शब्द के दो रूप होते हैं- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मक्ता होती है अर्थ का चमत्कार नहीं। इसीलिए जब शब्दालंकार में  किसी शब्द को हटाकर उसके स्थान पर उसका समानार्थी अथवा पर्यायवाची शब्द रख दिया जाय तो अर्थ में अन्तर न होने पर भी उसका आलंकारिक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है।
शब्दालंकार कुछ वर्णगत होते हैं कुछ शब्दगत और कुछ वाक्यगत होते हैं।अर्थात् 
"जहाँ शब्द के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ  शब्दालंकार होता है ।"
शब्दालंकार के निम्न भेद माने गए हैं :अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार, पुनरुक्तिअलंकार, वक्रोक्ति अलंकार, श्लेष अलंकार, विप्सा अलंकारआदि।

2. अर्थालंकार-अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करने वाले अलंकार अर्थालंकार कहलाते हैं। यहाँ  जिस शब्द से जो अलंकार सिद्ध होता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी वही अलंकार सिद्ध होताा है  क्योंकि अर्थालंकारों का संबंध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। अर्थात्

 "जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है ।"

अर्थालंकार पाँच प्रकार के होते हैं –

  1. सादृश्यमूलक अर्थालंकार
  2. विरोधमूलक अर्थालंकार
  3. शृंखलामूलक अर्थालंकार
  4. न्यायमूलक अर्थालंकार
  5. गूढार्थमूलक अर्थालंकार 

 इन पांचों के आधार अर्थालंकार के निम्नभेद हैं:उपमा अलंकार रूपक अलंकार उत्प्रेक्षा अलंकार दृष्टांत अलंकार संदेह अलंकार अतिश्योक्ति अलंकार उपमेयोपमा अलंकार प्रतीप अलंकार अनन्वय अलंकार भ्रांतिमान अलंकार दीपक अलंकार अपह्नुति अलंकार  व्यतिरेक अलंकार  विभावना अलंकार विशेषोक्ति अलंकार अर्थान्तरन्यास अलंकार उल्लेख अलंकार विरोधाभाष अलंकार असंगति अलंकार मानवीकरण अलंकार अन्योक्ति अलंकार काव्यलिंग अलंकार स्वभावोक्ति अलंकार आदि।

3.उभयालंकर:जहाँ चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित रहता है वहाँ उभयालंकार माना जाता है।

उभयालंकार के निम्न भेद माने गए हैं: संकर अलंकार और संसृष्टि अलंकार।

तीनों अलंकारों के विभिन्न भेदों को हम आगे विस्तार से पढ़ेंगे। 

                         ।। इति ।।



सोमवार, 8 अगस्त 2022

संस्कृत सूक्ति सुधा


श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन, 
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन।।1
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।3।।
यानि कानी च मित्राणि कर्तव्यानि शतानि च ।
पश्य मूषिकमित्रेण कपोताः मुक्तबन्धनाः ।।4।।
उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः ।
श्रृगालेन हतो हस्ती गच्छता पंक्ङवर्त्मना ।।5।। 
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवाणि नष्टमेव हि॥6।।
नखीनां च नदीनां श्रृंगीणां शस्त्रपाणीनाम्। 
विश्वासो नैव कर्तव्य: स्त्रीषु राजकुलेषु च।।7।।
वरयेत कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम् । 
रूपशीलां न नीचस्य विवाहः सदृशे कुलो।।8।।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रु-संकटे।
 राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।।9।।
अवश्यमेव  भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।।10।।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥11।।
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।12।।

षड् दोषा: पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता॥13।।

विद्या ददाति विनयं,विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,धनात् धर्मं ततः सुखम्॥14।।

परोपि हितवान् बन्धुर्बन्धु अपि अहितः पर: ।
अहितो देहजो व्याधि हितमारण्यमौषधम ।।15।।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् ।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् ।
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दॄढां शिलाम् ।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।18।।

सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं अप्रियम।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।19।।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥20।।

मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः।।21।।

पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।22।।

देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।23।।

चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।24।।
वनानी दहतो वन्हे: सखा भवति मारुतः।
स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम।।25।।
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ।।26।।

न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्।
कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत् ।।27।।

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।28।।

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य ।।29।।
व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणाङ्गणे भवति।
विनये भॄत्यपरीक्षा दानपरीक्षाच दुर्भिक्षे।।30।।
महाजनस्य संसर्ग: कस्य नोन्नतिकारक:।
पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ।।31।।
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रतयं हितम् ।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धय:।।32।।
येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । 
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।33।।
अन्यायोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।34।।

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।35।।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।36।।

काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।37।।

ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।।38।।

अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।39।।

वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं।।40।।

श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वान्हे चापरान्हिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।।41।।

यस्तु संचरते देशान् यस्तु सेवेत पण्डितान्।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।।42।।

प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।43।।

प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता।।44।।
कृते प्रतिकृतं कुर्यात्ताडिते प्रतिताडितम्।
करणेन च तेनैव चुम्बिते प्रतिचुम्बितम्।।45।।

परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम्।
सचह्रदामतिशङ्का च त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।46।।

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।।47।।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।48।।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।।49।।

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।50।।

दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।51।।

हस्तस्य भूषणं दानं, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रमं,भूषनै:किं प्रयोजनम।।52।।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।53।।

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।54।।

अपि मेरुसमं प्राज्ञमपि शुरमपि स्थिरम्।
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमम्।।55।।

अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्।।56।।

न कश्चित कस्यचित मित्रं न कश्चित कस्यचित रिपु:।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा।।57।।

न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।58।।

मातृवत परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः।।59।।

धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।60

शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा।।61।।

काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम_।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।62।।

पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितम_।
मूढ़े: पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।63।।

उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम्।।64।।

न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान् नरः।
एतदेवातिपाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम्।।65।।

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।66।।

भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी।।67।।

अग्निना सिच्यमानोऽपि वृक्षो वृद्धिं न चाप्नुयात्।
तथा सत्यं विना धर्मः पुष्टिं नायाति कर्हिचित्।।68।।

शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिं न गजे गजे।
साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने।।69।।

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।70।।

सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।71।।
न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।
काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यं न तृप्यति।।72।। प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।73।।
नन प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥74।।सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।75।।
आयुर्वित्तं गृहच्छिद्रं मन्त्रमैथुनभेषजम्।दानमानापमानं च नवैतानि सुगोपयेत्।।76।।
मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम्।
दंपत्यो कलहं नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागतः।।77।।नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यं त्वं एव तनुषे चेत।विश्वस्मिन अधुना अन्य:कुलव्रतम पालयिष्यति क:।।
अबन्धुर्बन्धुतामेति नैकट्याभ्यासयोगतः।यात्यनभ्यासतो दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम्।।79।।यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।80।।
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।81।।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्।।82।।ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।83।।
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं सहायकृत्।।84।।
अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।85।।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।86।।
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः।
यत्रतास्तु न पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः।।87।।अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्।अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।88।।अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।89।।
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते।।90।।दशकूपसमा वापी दशवापीसमा हृदः।
दशहृसमः पुत्रों दशपुत्रसमो द्रुमः ।।91।।
कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य न सिद्धति।
उत्तीर्णे च परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।।92।।अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ।।93।।आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण,
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध भिन्ना ,
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।।94।।
चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः ।चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।95।।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति,
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।
आस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः ,
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया  ।।96।।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु,
हंसा महीमण्डलमण्डनाय ।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां ,
 येषां  मरालैः सह विप्रयोग।।97।।
क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत् ।
 क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ।।98।।वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः ।।99।।आहारनिद्राभयमैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो 
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥100।।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।101।।दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
 उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम॥102।।पिबन्ति नद्याः स्वयमेव नाम्भः,
स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षा ।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः ,
परोपकाराय सतां विभूतयः ।।103।।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति तोषान्न परमं सुखम्।
नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥104।।अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम्।
अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥105।।गुणवन्तः क्लिश्यन्ते प्रायेण_ भवन्ति निर्गुणाः  सुखिनः। 
बन्धनमायान्ति शुकाःयथेष्टसंचारिणः काकाः।106।नास्ति विद्यासमं चक्षुः नास्ति सत्यसमं तपः।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्।107।।अपूर्वः कोऽपि कोशोड्यं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धि मायाति क्षयमायाति सञ्चयात्।108।।न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्ययेकृतेवर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशु:।।
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिं
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥111।।

गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो,
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः ।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:,
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥112।।

सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः ।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन_निवार्यते ॥113।।

संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ।
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ॥114।।

विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चिन्निरर्थकम् ।
अश्वश्चेद् धावने वीरः भारस्य वहने खरः ॥115।।

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ।।116।।

सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।।117।।

पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ।।

अकीर्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।।119

सर्वं परवशं दु:खं  सर्वं आत्मवशं सुखम_।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख-दु:खयो:।।120

कलहान्तानि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौहृदम् ।
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशोनॄणाम्।।121

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥122।।

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।।123।।

खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥124।।

दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति॥125

यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते ।
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥126।।

पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति ।
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ॥127।।

सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निवॄति: ।
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते ॥128।।

आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे:।।129।।

आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते ।
नीयते तद् वॄथा येन प्रमाद: सुमहानहो ॥130।।

योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥131।।

आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् ॥132।

परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम्।

 धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:।।133।।

उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा: ।

परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि:।।134।।

ऊँटों के विवाह में गधे गाना गा रहे हैं। दोनों एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं।गधा ऊँट  की प्रशंसा में कहता है वाह ! क्या रुप है?ऊँट गधे की प्रशंसा में कहता है वाह! क्या आवाज है?वास्तव मे देखा जाए तो ऊँटों में  सौंदर्य के कोई लक्षण नहीं होते हैं और न  ही  गधों में अच्छी आवाज के। परन्तु कुछ लोग  उत्तम क्या है ? जानते ही नहीं और जो प्रशंसा करने योग्य नहीं है उसकी प्रशंसा करते हैं उन्हीं पर यह बहुत ही सटीक सूक्ति है।

आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं

 समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे

 स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥135।।

न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥136।।

हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् ॥137।।

एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम॥138

दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम् ।
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् ॥139।

अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।

स्वावलम्बः दृढाभ्यासः षडेते छात्र सद्गुणाः ॥140।।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।

अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ।।141।।

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।

विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥142।।

मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।

जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥143।।

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥144।।


                     ।।धन्यवाद।।

मंगलवार, 2 अगस्त 2022

मृत्युंज्यस्तोत्रं/भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी

                    ।।विनियोग।।

ॐ अस्य श्री सदाशिवस्तोत्र मन्त्रस्य मार्कंडेय ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः श्री साम्ब सदाशिवो देवता गौरी शक्ति: मम सर्वारिष्ट निवृत्ति पूर्वक शरीरारोग्य सिद्धयर्थे मृत्युंज्यप्रीत्यर्थे च पाठे विनियोग:॥

              ॥ अथ ध्यानम्‌ ॥
चंद्रार्काग्नि विलॊचनं स्मितमुखं पद्मद्वयांत: स्थितं
मुद्रापाशमृगाक्ष सूत्रविलसत्पाणिं हिमांशुप्रभम्‌ ।
कॊटींदुप्रगलत्‌ सुधाप्लुततनुं हारातिभूषॊज्वलं
कांतां विश्वविमॊहनं पशुपतिं मृत्युंजयं भावयॆत्‌।।
                 ।।पाठ।।
ॐरत्नसानुशरासनं रजताद्रिश्रृंगनिकेतनं शिण्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
पंचपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजव्दयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम्।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं पंकजासनपद्मलोचनपूजिताड़् घ्रिसरोरुहम्।
देवसिद्धतरंगिणीकरसिक्तशीतजटाधरं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वर कुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम्।
अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजंगविभूषणं शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम्।
भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृतिं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं संहरन्तमथ प्रपंचमशेषलोकनिवासिनम्।
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।

ॐ रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥नीलकण्ठं विरुपाक्षं निर्मलं निर्भयं प्रभुम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥कालकण्ठं कालमूर्तिं कालज्ञं कालनाशनम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥वामदेवं महादेवं शंकरं शूलपाणिनम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥
देव देवं जगन्नाथं देवेशं वृषभध्वजम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥गंगाधरं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥
भस्म धूलित सर्वांगं नागाभरण भूषितम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥आनन्दं परमानन्दं कैवल्य पद दायकम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो  मृत्यु: करिष्यति॥स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टि स्थित्यंत कारणम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥प्रलय स्थिति कर्तारमादि कर्तारमीश्वरम्।
नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥
           ।।।फलश्रुति।।
मार्कंडॆय कृतं स्तॊत्रं य: पठॆत्‌ शिवसन्निधौ ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति न अग्निचॊरभयं क्वचित्‌ ॥ शतावृतं प्रकर्तव्यं संकटॆ कष्टनाशनम्‌ ।
शुचिर्भूत्वा पठॆत्‌ स्तॊत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम्‌ ॥ 
मृत्युंजय महादॆव त्राहि मां शरणागतम्‌ ।
जन्ममृत्यु जरारॊगै: पीडितं कर्मबंधनै: ॥ 
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्व च्चित्तॊऽहं सदा मृड ।
इति विज्ञाप्य दॆवॆशं त्र्यंबकाख्यममं जपॆत्‌ ॥ 
नम: शिवाय सांबाय हरयॆ परमात्मनॆ ।
प्रणतक्लॆशनाशाय यॊगिनां पतयॆ नम: ॥ 
मार्कण्डेय कृतंस्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥सत्यं सत्यं पुन: सत्यं सत्यमेतदि होच्यते।
प्रथमं तु महादेवं द्वितीयं तु महेश्वरम॥
तृतीयं शंकरं देवं चतुर्थं वृषभध्वजम्।
पंचमं शूलपाणिंच षष्ठं कामाग्निनाशनम्॥
सप्तमं देवदेवेशं श्रीकण्ठं च तथाष्टमम्।नवममीश्वरं चैव दशमं पार्वतीश्वरम्॥
रुद्रं एकादशं चैव द्वादशं शिवमेव च।
एतद् द्वादश नामानि त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नरः॥ब्रह्मघ्नश्च कृतघ्नश्च भ्रूणहा गुरुतल्पग:।
सुरापानं कृतघन्श्च आततायी च मुच्यते॥
बालस्य घातकश्चैव स्तौति च वृषभ ध्वजम्।मुच्यते सर्व पापेभ्यो शिवलोकं च गच्छति।।
         ।।इति श्री मार्कण्डेयकृतं             मृत्युंज्यस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
  ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।

     शिवजी की ये  मंत्र प्रसिद्ध हैं पहला पंचाक्षर मन्त्र ।।ॐ नम: शिवाय।। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ।।ॐ ह्रौं जू सः ॐ भूः भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌ उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जू ह्रौं ॐ ॥  इनके अलावा शिवजी केअन्य तंत्र- मंत्र भी हैं।

                         ।।धन्यवाद।।

श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र/पुत्र प्राप्ति एवं सर्व कार्य प्रदाता शिव अभिलाष्टक स्तोत्र

श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र

इस अभिलाषाष्टक नामक पवित्र स्तोत्र को तीनों समय भगवान शिव के समीप यदि पढ़ा जाय तो यह सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला है । इस स्तोत्र का पाठ पुत्र,पौत्र और धन देनेवाला, सब प्रकार की शान्ति करनेवाला और सम्पूर्ण आपत्तियों का नाशक है । इतना ही नहींयह स्वर्गमोक्ष तथा सम्पत्ति देनेवाला भी है । एक वर्ष तक पाठ करने पर यह स्तोत्र पुत्रदान करनेवाला है, इसमें संदेह नहीं है। ऐसा स्वयं महादेवजी का कथन है ।

एकं ब्रह्मैवाद्वितीयं समस्तं
सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित्।
एको रुद्रो न द्वितीयोsवतस्थे
तस्मादेकं त्वां प्रपद्ये महेशम् ॥१॥
एकः कर्ता त्वं हि सर्वस्य शम्भो
नाना रूपेष्वेकरूपोsस्यरूपः ।
यद्वत्प्रत्यस्वर्क एकोsप्यनेकस्
तस्मान्नान्यं त्वां विनेशं प्रपद्ये ॥२॥
रज्जौ सर्पः शुक्तिकायां च रूप्यं
नीरः पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ।
यद्वत्तद्वत् विश्वगेष प्रपञ्चौ,
यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ॥३॥
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्नौ
तापो भानौ शीत भानौ प्रसादः ।
पुष्पे गन्धो दुग्धमध्ये च सर्पिः
यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां प्रपद्ये ॥४॥
शब्दं गृहणास्यश्रवास्त्वं हि जिघ्रेः
घ्राणस्त्वं व्यंघ्रिः आयासि दूरात् ।
व्यक्षः पश्येस्त्वं रसज्ञोऽप्यजिह्वः
कस्त्वां सम्यग् वेत्त्यतस्त्वां प्रपद्ये ॥५॥
नो वेदस्त्वां ईश साक्षाद्धि वेद
नो वा विष्णुर्नो विधाताखिलस्य ।
नो योगीन्द्रा नेन्द्र मुख्याश्च देवा
भक्तो वेद त्वामतस्त्वां प्रपद्ये ॥६॥
नो ते गोत्रं नेश जन्मापि नाख्या
नो वा रूपं नैव शीलं न तेजः ।
इत्थं भूतोsपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्याः
सर्वान् कामान् पूरयेस्तद् भजे त्वाम्॥७॥
त्वत्तः सर्वं त्वं हि सर्वं स्मरारे
त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोsतिशान्तः ।
त्वं वै वृद्धः त्वं युवा त्वं च बालः
तत्किं यत्त्वं नास्यतस्त्वां नतोsस्मि ॥८॥

"इति श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र संपूर्ण:"
नोट:-अतः संतान इच्छुक मनुष्य को विधिवत् यम नियमों का पालन करते हुए आठ श्लोकों वाले स्तोत्र के नित्य 108 पाठ एक वर्ष तक करने चाहिये। माता-पिता दोनों संयुक्त साधना करें तो शीघ्र कार्य सिद्ध होता है।
                 ।। धन्यवाद।।