।।उभयालंकार।।
जब काव्य में चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित हो तब उभयालंकार होता है।
दूसरे शब्दों में जब एक ही जगह शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों हो तब उभयालंकार होता है।
उभयालंकार के दो भेद हैं:-
1-संकर अलंकार और
2-संसृष्टि अलंकार।
1-संकर अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार दूध और पानी की तरह (नीर-क्षीर वत) मिले हुवे हो तब संकर अलंकार होता है।
यहाँ दूध और पानी की तरह ही अलंकारों अलग करना कठिन होता है।
उदाहरण:-
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
यहाँ पद पदुम में छेकानुप्रास और रुपक दोनों नीर-क्षीर की तरह ऐसे मिले है कि दोनों को अलग करना कठिन है इसलिए यहाँ संकर अलंकार है।
2:संसृष्टि अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार तिल और चावल की तरह (तिल-तण्डुल वत)मिले हुवे होतब संसृष्टि अलंकार होता है।
यहाँ तिल और चावल की तरह ही अलंकारों को अलग किया जा सकता है।
उदाहरण:
जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।रामकरौ केहिभाँति प्रसंसा।मुनि महेस मन मानसहंसा।।
यहाँ पंकरुह पानि में उपमा,प्रेम जनु जाए में उत्प्रेक्षा,मुनि-महेस और मन-मानस में रुपक तथा पंक्तियों के अन्तिम पदवर्ण समान होने के कारण अन्त्यानुप्रास अलंकार तिल-तंडुल की तरह मिले हुवे हैं जिनको अलग किया जा सकता है इसलिए यहाँ संसृष्टिअलंकार है।
।।धन्यवाद।।
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