शुक्रवार, 27 मई 2022

√।।मोर के पर्यायवाची।।

           ।।मोर के पर्यायवाची।।
          {दो दोहों में बीस पर्याय}
शिखी शिखण्डी शिखावल,बर्हि हरि सितापांग।
शिवसुतवाहन कलापी, नीलकंठ   सारंग।।1।।
केकी मोर मेहप्रिय, सर्पकाल भुजगारि।
ध्वजी मयूर नर्तकप्रिय,पीकॉक(peacock)पन्नगारि।2।
इन दोनों दोहो के सभी बीस पद मोर के पर्याय हैं।
               ।। धन्यवाद।।   

बुधवार, 11 मई 2022

।।या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते॥

काकः पद्म वने रतिं न कुरुते हंसो न कूपोदके।
मूर्ख: पंडितसङ्गमे न रमते दासो न सिंहासने।।
दुष्टः सज्जनसङ्गमं न सहते नीचं जनं सेवते।या
कुस्त्री सज्जनसङ्गमे न रमते नीचं जनं सेवते।
या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते॥
              ।। धन्यवाद।।

√मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
संत समाज  मुद मंगलमय है, जो जग में चलता-फिरता तीर्थराज प्रयाग है।
   ध्यान रहे साधु समाज नहीं संत समाज,साधु वह जो भगवान को प्राप्त करने का साधन करता है भगवान को अभी प्राप्त नहीं किया है, संत वह जो भगवान को प्राप्त कर चुका है। कहीं- कहीं साधु - संत पर्याय भी होते है।मूलतः दोनों भगवद्भक्त ही है।
मुद= मानसिक आनन्द।
मंगल= बाहरी आनन्द,प्रसिद्ध उत्सव आदि का आनन्द।
जंगम तीरथराजू=तीर्थ राज प्रयाग जंगम है अचल है जहाँ पर जाने के बाद मुद-मंगल मिलता है लेकिन संत समाज चल है जो लोगों के पास जा जाकर उन्हें सभी प्रकार का आनन्द देता है लोगों का कल्याण करता है। तीर्थराज प्रयाग की जो-जो विशेषताएं है वे सभी संत समागम में हैं।गोस्वामी तुलसीदासजी ने कितना  सुंदर चित्रण सांग रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है --
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा(गंगा)
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥ ( सरस्वती)
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। 
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥ (यमुना)
हरि हर कथा बिराजति बेनी।  (त्रिबेनी)
सुनत सकल मुद मंगल देनी॥ (मुद मंगल )
बटु बिस्वास अचल निज धरमा।( अक्षय वट)
तीरथराज समाज सुकरमा॥ (तीर्थ राज प्रयाग)
 अतः ऐसे संतो का हमे हमेशा आदर-सम्मान करना चाहिए और इनके सत्सङ्ग से तीर्थराज प्रयाग सा सारा आनन्द-कल्याण प्राप्त चाहिए।जय श्रीराम जय हनुमान।
                   ।।धन्यवाद।।

√कामदेव के पर्यायवाची

        ।।  कामदेव के पर्यायवाची ।।
         { 6 सोरठों में 58 पर्याय } 
वसंतबंधु झषांक ,झषकेतु रतिनाथ मदन।
रतिनायक रतिकांत , रतिनाह रतिराज मयन।।1।।
अनन्यज अंगहीन , वसंतसखा आत्मजात।
मनोभू मकरध्वज,  मधुसख मनसिज मनजात।।2।।
दर्पक काम मनोज, पुष्पधनु शंबरारि स्मर।
आत्मज अतनु अदेह ,क्यूपिड(cupid)रतिप्रिय रतिवर।।3।
अशरीर  कुसुमबाण ,रतिपति मन्मथ पंचशर।
आत्मभू पुष्पायुध, रतिरमण मार पुष्पशर।।4।।
प्रेमदेव प्रद्युम्न, पुष्पधन्वा पुष्पकेतु
पुष्पेषु पुष्पचाप , मीनकेतन मीनकेतु।।5।।
कुसुमायुध कंदर्प, अनंग अंगज असमशर।।
अनंगी कामदेव, कुसुमधन्वा व कुसुमशर।।6।।
                 ।।। धन्यवाद ।।। 

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

Who is Brahman,ब्राह्मण कौन राम से परशुराम श्रेष्ठ कैसे मानस चर्चा

।।Who is Brahman,ब्राह्मण कौन? राम से परशुराम श्रेष्ठ कैसे, मानस चर्चा " देव   एकु   गुनु  धनुष हमारें।
नव गुन  परम पुनीत तुम्हारें"॥
     ब्राह्मण और ब्राह्मण के गुणों  को जानने के लिए  हम 
मानस में प्रभु श्रीरामजी ने जो भगवान श्रीपरशुराम जी से कहा उन पंक्तियों पर चर्चा करते हैं जो बहुत ही प्रसिद्ध हैं।
देव   एकु   गुनु  धनुष हमारें।
नव गुन  परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। 
छमहु   बिप्र  अपराध  हमारे॥
      हे देव ! हम क्षत्रिय हैं हमारे पास एक ही गुण अर्थात धनुष ही है  धनुष की एक ढोरी/सूत्र की ओर संकेत जो पुनीत है पर ,आप ब्राह्मण हैं आप में परम पवित्र 9 गुण हैं।यहाँ यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों की ओर संकेत जो परम पुनीत हैं क्यो, क्योंकि इसके हर सूत्र में एक-एक देवता वास करते हैं और तो और जो तीन  सूत्र/धागें साफ-साफ दिखते हैं वे त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं और इनके अंतर निहित 3×3=9 सूत्रों में जो 9 देव वास करते हैं उन्हें देखें-
ओंकारः प्रथमे सूत्रे द्वितीयेअग्निः प्रकीर्तितः।
तृतीये कश्यपश्चैव चतुर्थे सोम एव च।
पञ्चमे पितृदेवाश्च षष्ठे चैव प्रजापतिः।
सप्तमे वासुदेवः स्यादष्टमे रविरेव च।
नवमे सर्व देवास्तु  इत्यादि संयोगात्।।
अतः हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए। यहाँ हमें प्रसंगवश 
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।
और यज्ञोपवीत उतारने का मंत्र
एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।।
को भी अपने जीवन मे उतार लेना चाहिए।
आखिर ये नव गुन जो परम पुनीत हैं वे कौन-कौन हैं उनको तो हमें जानना ही चाहिए।आइये इस श्लोक को देखते हैं-
ऋजुस्तपस्वी संतुष्टः शुचिः दान्तो जितेन्द्रियः।
दाता विद्वान दयालुश्च ब्राह्मणो  नवभिर्गुणैः   ।। 
ब्राह्मण
1-ऋजु: = सरल हो ।
2-तपस्वी = तप करनेवाला हो। 
3-संतुष्ट:= मेहनत की कमाई पर  सन्तुष्ट रहनेवाला हो ।
4-शुचिः=शुद्ध,पवित्र,उज्ज्वल, योग्य हो।
5-दान्तो=संयमी, मन को वश में रखने वाला हो।
6-जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में रखनेवाला हो।
7-दाता= दान करनेवाला हो।
8-विद्वान= विद्या वान हो, अपने विषय में पारंगत हो, पांडित्य हासिल किया हो। 
9-दयालुश्च= सब पर दया करनेवाला हो।     
  श्रीमद् भगवतगीता  में भी ब्राह्मण के 9 गुण/कर्म इस प्रकार बताए गये हैं-
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
(1)  शमः– शान्तिप्रियता    (2)   दमः– आत्मसंय
 (3)   तपः– तपस्या;  तप- तपस्या-श्रम करना तपस्या करना किसके लिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए जो हमारा सबसे ताकतवर पक्ष है तभी तो गोस्वामीजी ने लिखा- तपबल बिप्र सदा बरिआरा। और भी देखें- तप अधार सब सृष्टि भवानी।  (4)शौचं - शुद्धता- पवित्रता-बाहर और भीतर से शुद्ध रहना, (5)  क्षान्तिः– सहिष्णुता (6) आर्जवम्- सत्यनिष्ठा-शरीर, मन आदि में सरलता रखना,(7) ज्ञानं-ज्ञान- वेद शास्त्र आदि का ज्ञान होना,(8) विज्ञानं-विज्ञान- विशेष ज्ञान भी अलग से होना ही चाहिये (9)  आस्तिक्यम्– धार्मिकता-   आस्तिकता - परमात्मा वेद आदि में आस्था रखना यह सब ब्राह्मणों के स्वभाविक कर्म हैं।
 श्लोक में आये "ब्रह्म कर्म स्वभावजम्" के अनुसार ये सब ब्राह्मण के स्वभाव से उत्पन्न   स्वाभाविक कर्म हैं ।  स्वभाव के कर्म हमारे गुण बन जाते हैं। अतः हमें अपने कर्म पथ पर ही रहना है क्योंकि work is worship -कर्म ही पूजा है।
यहाँ हमारे एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण गुण की बात भी प्रभु श्रीराम करते है-छमहु   बिप्र  अपराध  हमारे- वह है हमारा दसवाँ और सबसे महत्त्वपूर्ण गुण क्षमा, क्षमा कौन कर सकता है? देखें राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकरजी की पंक्तियों को-
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।

  हमें यह भी सदा ध्यान रखना है कि-
देवाधीनाजगत सर्वं , मन्त्राधीनाश्च  देवता:। 
ते मंत्रा: ब्राह्मणाधीना: , तस्माद्  ब्राह्मण देवता:।। 
अर्थात देवताओं के अधीन संसार, मंत्रों के अधीन देवता और ब्राह्मणों के अधीन मंत्र  होते हैं।अतः मन्त्रों को जानने वाले ब्राह्मण देवता ही हैं। तभी तो-
विश्वामित्रजी को वशिष्ठजी से हारने के बाद स्वीकार ही करना पड़ा  कि-
धिग्बलं क्षत्रिय बलं ,  ब्रह्म तेजो बलम बलम् ।
एकेन ब्रह्म दण्डेन  ,   सर्वास्त्राणि   हतानि मे ।। 
इस श्लोक में भी गुण से हारे ; त्याग, तपस्या, गायत्री  के बल से  हारे और आज  हम  उसी को त्यागते जा रहे हैं। यह बात हमें जानना ही चाहिए कि- 
 विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या।
 वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् l।
 तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं।
 छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ll
अर्थात ब्राह्मण एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल (जड़), सन्ध्या (गायत्री मन्त्र का जाप) करना है, चारों वेद उसकी शाखायें हैं, तथा  वैदिक धर्म के  आचार विचार का पालन करना उसके पत्तों के समान हैं । अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि वह सन्ध्या रूपी मूल गायत्री मन्त्र'ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' का नित्य जाप करे जिससे उसका मूल सुरक्षित रहे तो स्वयं ब्राह्मण-वृक्ष सुरक्षित रहेगा इस हेतु सभी ब्राह्मण बंधुओं को रहीम का दोहा
 एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।
 रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥ 
को ध्यान में रखते हुवे अपने लिए ही सही गायत्री मंत्र का जाप तो करना ही चाहिये जिससे स्वयं के साथ-साथ,अपनो की,सबकी रक्षा हो। इसके साथ ही साथ हमें भगवान परशुराम को सच्ची श्रद्धांजलि देते हुवे प्रभु श्रीराम के इस कथन -
 देव   एकु   गुनु  धनुष हमारें।
नव गुन  परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। 
छमहु   बिप्र  अपराध  हमारे॥  को  चरितार्थ करना चाहिए। आप सभी को धन्यवाद।
।।जय श्रीराम जय हनुमान संकटमोचन कृपानिधान।।


मंगलवार, 22 मार्च 2022

।।अद्भुत श्लोक मानस का प्रथम श्लोक।।

   ।।अद्भुत श्लोक मानस का प्रथम श्लोक।। 
 मानस चर्चा में आप का स्वागत है। आज हम मानस के एक ऐसे  अदभुत  श्लोक के बारे में चर्चा करेगें जिसके नित्य स्मरण ,पाठ करने से हमें प्रथम पूज्य श्री गणेश, माँ सरस्वती, माँ सीता, प्रभु श्रीराम, श्रीवरुणदेव और माँ वसुन्धरा  इन छः शक्तियों की कृपा प्राप्त होती ही है ।वह अद्भुत श्लोक है मानस का प्रथम श्लोक:-
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।
 हम चर्चा में छः शक्तियों के साथ ही साथ इस श्लोक की अन्य विशेषताओं पर भी विचार करेगें। आइए हम पहले  यह जानते है कि यह दिव्य श्लोक कैसे छः शक्तियों की कृपा प्राप्ति का दिव्य श्रोत है।
    यहाँ  पद के अंत में जो वन्दे वाणीविनायकौ आया  है उससे स्पष्ट ही है कि ज्ञान दात्री माँ सरस्वती और प्रथम पूज्य गणेशजी की वन्दना की गयी है।
लेकिन यहाँ विचारने योग्य यह है कि वाwणी पहले, विनायक बाद में क्यों?
जबकि विनायक प्रथम पूज्य हैं।
शंका समाधान के रुप में कबीरदास जी का दोहा देखें-
गुरू गोविन्द दोउ खड़े, काको लागूं पांय।
बलिहारी गुरू आपणे, गोविन्द दियो बताय।।
अर्थात जिसने ज्ञान दिया उनका स्थान प्रथम,उनकी वन्दना पहले उनको धन्यवाद पहले।इसीलिए तो यहाँ
वाणीविनायकौ कहा गया क्योंकि देवी सरस्वती की कृपा से ही हम गणेशजी के बारे में विस्तार से जानते हैं।
इस प्रकार अद्वितीय ढंग से माँ सरस्वती और प्रथम पूज्य गणेश की वन्दना स्पष्ट हो रही है।
       जब हम प्रथम पद वर्णानामर्थसंघानां पर विचार करते है तो मानस का यह दोहा बरबस ही  हमारा ध्यानअपनी ओर खीच लेता है।
 गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
 बंदउँ सीता राम पद   जिन्हहि  परम  प्रिय   खिन्न॥ 
   यहाँ गिरा अर्थात वर्ण  कौन, अरथ अर्थात अर्थ  कौन,सीधी सी बात है माँ सीता और प्रभु श्रीराम ही है जिनकी वन्दना की जा रही है और तो और सम्पूर्ण मानस में यही तो हैं।
   वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि  स्पष्ट कर ही देता है कि  :-
आखर अरथ अलंकृत नाना। 
छंद  प्रबंध  अनेक  बिधाना।। 
भाव  भेद  रस   भेद    अपारा। 
कबित दोष गुण बिबिध प्रकारा।।  
       इनका हमारे जीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।
 हमें इनको जिन्होंने सुलभ कराया हमें उनकी वन्दना करनी ही है। 
अब बात आती है वर्णानां पद की 
जो मगण SSS गण का है जिसमे सभी वर्ण गुरू अर्थात दीर्घ होते हैं।जो हमें बताता है कि हम अपने जीवन- पथ की सभी बाधाओं पर भारी पढ़ेगें।
औऱ मगण के देवता हैं भूमि अर्थात वसुंधरा जो दिव्य गुणों को उपजाती हैं,मंगलश्री का विस्तार करती हैंऔर सदा के लिए जीव मात्र पर कृपालु हैं। इस प्रकार यहाँ माँ वसुंधरा की वन्दना भी की जा रही है जिनकी कृपा प्राणियों पर हमेशा ही रहती है।और तो और हम प्रार्थना भी करते हैं-
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ।।
जब हम भूमि की वन्दना करेगें तो भूमि सुता  किशोरीजी की कृपा मिलेगी ही।
एक और बात 
रामचरितमानस के प्रत्येक सोपान के प्रथम श्लोक मगण से ही प्रारम्भ हैं।प्रथम सोपान का यह श्लोक हमारे सामने ही है। 
यही नहीं 
यह श्लोक  सातों सोपानों/काण्डों की भी स्पष्ट भूमिका भी है 
वर्णानां  बालकांड की 
अर्थसंघानां  अयोध्या कांड की
रसानां  अरण्यकांड की
छन्दसां किष्किंधा कांड की
अपि  निश्चित रूप से जो सुन्दर है उस सुंदरकांड की मंगलानां राक्षसों को मुक्ति दिलाकर जो सर्वत्र मंगल करने वाला है  उस लंकाकांड की 
और कर्तारौ  जहाँ प्रभु श्रीराम चक्रवर्ती राजा बने उस उत्तरकांड की ।
      इस श्लोक/मंत्र का छन्द  संस्कृत साहित्य का प्रथम छन्द अनुष्टुप छन्द है  जिसके सभी चरण सम होकर हमें हर स्थिति में सम रहना सिखाते हैं, हर चरण  आठ-आठ वर्ण में  सभी पूज्य जनों ,देवों को अष्टांग/साष्टांग प्रणाम निवेदित करना बताते हैं।
इसके बत्तीस वर्ण सीताराम के 16+16 = 32 गुणों को धारण करने के लिए हमें प्रेरित करते हैं।
     आगे हम पाते हैं कि वाणी विनायकौ का व वर्ण जीवन देव जल अर्थात वरुण देव के मंत्र. ॐ वं   वरुणाय नमः में बीज मंत्र है और इस प्रकार यहाँ वरुण देव की भी वन्दना की जा रही है। 
तीनों लोकों में  वरुण देव अपना प्रभाव सर्वत्र रखते ही हैं।तभी तो इनके बीज मन्त्र के वर्ण ( व )से ग्रन्थ को सम्पुट करने के लिए 
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।   
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।
से ग्रंथ का शुभारम्भ और
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥
से ग्रंथ का अवसान कर  वरुण देव के बीज मंत्र व से ग्रंथ को सम्पुटित किया गया है। बीज से प्रारम्भ बीज से समापन ।
हम पाते है कि इस मंत्र/श्लोक में प्रयुक्त कारक सम्बन्ध कारक  है अर्थात् षष्टी विभक्ति है । यह कारक भी छः की और संकेत  कर रहा है।अतः  हर प्रकार से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस श्लोक द्वारा  छः शक्तियों देवी सरस्वतीजी, प्रथम पूज्य गणेशजी,माँ जनक सुता जग जननी जानकी,प्रभु श्रीराम, भूमि और वरुण देव की वन्दना की गयी है फलतः इस श्लोक/मंत्र के पाठ मात्र,  स्मरण मात्र  से  आप सभी छः देवों  की कृपा हमें प्राप्त होती ही  है।
वास्तव में ये सभी मङ्गलानां च कर्त्तारौ  हमारे जीवन में  हर पग हमारा मंगल करते रहे इसी शुभकामनाओं के साथ आप सभी का गिरिजा शंकर तिवारी।
।।जय श्रीराम जय हनुमान संकटमोचन कृपानिधान।।
                     ।।धन्यवाद।।

सोमवार, 21 मार्च 2022

√अनुष्टुप्छन्दः/अनुष्टुप छन्द (संस्कृत-हिन्दी में एक साथ)

         ।।अनुष्टुप छन्द।।
संस्कृत में लक्षण:-
श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।
द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥
हिन्दी में लक्षण :-
हो अनुष्टुप बत्तीसा,चरण आठ वर्ण से।
हो पाँचवाँ सदा छोटा, विषम-सम मार से।।
 अर्थात
अनुष्टुप छन्द बत्तीस वर्णों का वर्णवृत्त छन्द है।इसके चारों चरणों में आठ-आठ वर्ण होते हैं।सभी चरणों का पाँचवां वर्ण हमेशा लघु ही रहता है। विषम चरण अर्थात पहले और तीसरे चरण मगण SSS से समाप्त होतें हैं।
सम चरण अर्थात दूसरे और चौथे चरण रगण SIS से समाप्त होते हैं।अन्य वर्णों के साथ नियम की बाध्यता नहीं होती।
नोट:-  मार= मगण और रगण ,मा विषम चरणों के लिए और र सम चरणों के लिए आया है।
उदाहरण:-संस्कृत में
1-मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।         यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
2-उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
   षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत्।।
3-वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
 मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥
 उदाहरण:-  हिन्दी में
1-राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
 मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये।
2-हो पत्नी तब सीता सी, हो पति जब राम सा।
हो ज्ञान तब गीता सा, हो श्रोता जब पार्थ सा।।
                   ।। धन्यवाद ।।
।। अनुष्टुप छंद।।
अनुष्टुप छंदआठ अक्षरों वाला समवृत्त छंद है।
लक्षण-----
पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयोः।
गुरु षष्ठं च पादानां शेषेष्वनियमो मतः।।
 या
श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् । 
द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥


यहाँ ध्यान रखें कि दूसरा लक्षण अधिक
प्रसिद्ध है लेकिन दोनों का हिन्दी अर्थ 
एक ही है जो निम्नलिखित है...और यही
अनुष्टुप छंद की परिभाषा भी है।

परिभाषा:-

       अनुष्टुप छंद में चार चरण होते हैं। 
इन चारों चरणों में पाँचवाँ अक्षर लघु और 
छठा अक्षर गुरु होता है। दूसरे और चौथे
इन दोनों सम चरणों में सातवाँ अक्षर लघु
तथा अन्य में अर्थात् पहले और तीसरे इन 
दोनों विषम चरणों में सातवाँ अक्षर गुरु
होता है । बाकी के अक्षरों के लिए 
लघु-गुरु का कोई नियम निश्चित नहीं है। 
इन लक्षणों से युक्त छंद अनुष्टुप् छन्द 
कहलाता है।

संस्कृत में इस छंद का नाम अनुष्टुभ् भी
है।लेकिन हिन्दी में यह केवल अनुष्टुप के
रूप में ही लिखा-पढ़ा जाता है। 

विशेषः-
उक्त दोनों लक्षण वाले श्लोक 
लक्षण के साथ ही साथ उदाहरण भी हैं।

अलग से भी उदाहरणों को देखते हैं...

उदाहरण –

1.उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
   षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देव सहायकृत्।।

अर्थात् उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और
पराक्रम जहाँ ये छः होते हैं, वहाँ देवता
सहायता करते हैं। यहाँ चार चरण हैं।
प्रत्येक में आठ-आठ अक्षर हैं।
प्रथम चरण का पाँचवाँ अक्षर ‘ह’ और
छठा अक्षर ‘सं’ क्रम से लघु और गुरु हैं।
इसी प्रकार बाकी के तीनों चरणों में
पाँचवाँ और छठा अक्षर क्रमशः लघु
और गुरु हैं। दूसरे और चौथे चरण में
सातवाँ अक्षर (क्र और य) लघु हैं
और पहले तथा तीसरे चरण के
सातवें वर्ण क्रमशः धै और तन् गुरु हैं। 
इस प्रकार उपर्युक्त श्लोक में अनुष्टुप
के सभी लक्षण बिलकुल सही हैं और 
इस श्लोक में अनुष्टुप छंद है।

इसी प्रकार का वर्ण संयोजन हम
सभी अनुष्टुप छंद के श्लोकों/पद्यों 
में पाते हैं।अन्य उदाहरण भी देखें 
और याद कर लेवें

2.पतितैः पतमानैश्च, पादपस्थैश्च मारुतः ।
  कुसुमैः पश्य सौमित्रे ! क्रीडन्निव समन्ततः ॥

3.संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
   देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥

4.ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
   तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥

5.वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
  मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।

6.मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
  यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।

श्रीमद्भगवद्गीता इन प्रसिद्ध श्लोकों को
आप जरूर देखें....और याद करें...
 
7.यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
  अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ 

8.परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
    धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 

मृत्युंजय मंत्र को भी जरूर देखें.

9.ॐ त्र्यम्बकं यजामहे 
 सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । 
 उर्वारुकमिव बन्धनान् 
 मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥

हिन्दी:

हिन्दी में भी इस छंद के लक्षण
एवं परिभाषा संस्कृत की तरह ही हैं।

उदाहरण:

राष्ट्रधर्म कहावे क्या, पहले आप जानिये ।
 मेरा देश धरा मेरी, मन से आप मानिये ।।

यहाँ आप पायेंगे कि इस पद्य के सभी 
चरणों के पांचवें वर्ण लघु हैं और छठें वर्ण 
गुरु हैं। सम चरणों अर्थात् द्वितीय और
चतुर्थ चरणों के सातवें वर्ण लघु हैं और 
विषम चरणों अर्थात् प्रथम एवं तृतीय 
चरणों के सातवें वर्ण गुरु हैं। इसलिए 
इस पद्य में अनुष्टुप छंद है।

।। धन्यवाद ।।