सोमवार, 7 दिसंबर 2020

हे लाल देह अंजनी लाल हनुमाना

हे लाल देह अंजनी लाल हनुमाना,
रौद्र रुप राम दूत राखे लखन प्राना ।
रोग-शोक चिन्ता भय भेद भावना,
नाश करें पल में भरें भक्ति भावना।।1।।
वीर बजरंगी बन्धु-बान्धव तात-मात,
कोरोना महामारी पड़े जन-जन गात।
लंकिनी कोरोना पर करें मुष्टिका घात,
सिंहिका जू मारि मानवता बचाओ तात।।2।।

।।। आनन्द-क्रन्दन ।।।

एक कथा जिसमें है जीवन का आनन्द-क्रन्दन।
सुना रहा है आपको जगत तनय मेवाती नन्दन।।
बैठा था महुआ के नीचे तिलौली तालाब तट पर।
मौत मौसम मच्छर मंत्री का चिंतन था सिर पर।।1।।
मौत कही भी बिन बुलाए मेहमान सा घुस जाती।
गिरगिट सा मौसम-मानव की चमक बदल जाती।।
मच्छर सा छली माया निज दंस सार छोड़ जाती।
मंत्री की जिह्वा जन मध्य कुछ का कुछ कर जाती।।2।।
कुछ नहीं मैं तो इन अपने ख़यालों में था तल्लीन।
बचपन की है बात बच्चा-मन था गभ्भीर  गमगीन।।
सोच रहा भूत-भविष्य को हो इनकी साया में लीन।
वर्तमान मेरा जानते तिलौली-तालाब के नर- मीन।।3।।
महुआ जड़-तालाब जल आँख-मिचौनी खेले जहाँ।
मैं मति मंद महुआ जड़ सा जड़ बन कर बैठा वहाँ।। 
अचानक जगत सुत जगत का दुःख-सुख देखा तहाँ।
आनन्द-क्रन्दन मेल ने खेल खेला था जो वहाँ महाँ।।4।।उड़ता कौवा तालाब ऊपर कांव-कांव कर रहा था।
मैंने सोचा पेट हित मछलियों को वो ढूढ़ रहा था।।
पर मेरा चिंतन तो सदा के लिए झूठा हो रहा था।
कौवा आनन्द के क्रन्दन हेतु क्रन्दन कर रहा था।।5।।
एक चिड़िया अण्डे से बाहर आते बच्चे की खुशी में।
आनन्द से झूम रही थी वह वहाँ की निज मस्ती में।।
 काग की दुष्ट दृष्टि दुष्ट दृष्टि सी झूम रही आनन्द में।
देख काग-चिड़ी आनन्द-क्रन्दन देव पेशमपेश में।।6।।
दृश्य अद्भुत आनन्द मय चिड़िया नवजात हेतु था।
सरोवर तट वसन्त का मौसम आनन्द हर ओर था।। 
 हर पेड़-पौधों के किसलय से सतरंगी परिदृश्य था।
प्रकृति के श्रृंगार में डूबा मैं अति आनन्द विभोर था।।7।
कौवे का सर मध्य ऊपर उड़ना बोलना आम ही था।
बगुले सा सूक्ष्म जीव निगलना उसका काम ही था।।
पर आज उसकी नजर अण्डे के चूज्जे पर टिकी थी।
मेरी नजर इन सबसे दूर निज चिंतन में खूब डूबी थी।।8
अचानक कौवा झपटा अड्डे सहित चूज्जे को निगला।
चिड़ी रोई चिल्लाई मुझे जगाई कह बार-बार पगला।।
मेरी दृष्टि कौवे पर पड़ी उठाया छड़ी पीछे-पीछे दौड़ा।
सोच लिया मैंने अब तो मुझे करना है कौवे को चौड़ा।।9
कौवा चतुर-चालक पंछी लाला से रोटी ले भागा था।
लाला से पाला पड़ा कौवे पर लाला भारी ही पड़ा था।।
काँव- काँव कर कौवा कर आयी रोटी गवा चुका था।
कायस्थ कौवे की कहानी कई-कई बार मैं सुना था।।10
जाको राखे साईंया मार सके ना कोय कथा सुना था।
दौड़ा लिया था कौवे को देखा टहनी आड़ में बैठा था।।
जैसे ही चोंच खोल अड्डे को रखा मैं नीचे पहुँचा था।
पत्थर मारा चूज्जा गिरा मैंने हाथों में लोक लिया था।11
हर पल नव आश नव विश्वास हार-जीत दिखा रहा।
मौत के मुँह से चूज्जे सा बचता जीवन सिखा रहा।।
मौसम का करवट मच्छर सा शामिल बाजा बजा रहा।
मंत्री-सन्तरी कहाँ कायर कागा करतब दिखा रहा।।12।
चूज्जे संग मैं हताश आँखे चिड़ी को ढूढ़ रही थी।
क्या करूँ मैं चूज्जे का सोच काया अधीर हो रही थी।।
ओ चिड़ियाँ समूह में आनन्द स्वर साथ आ रही थी।
अरे मुझे धन्यवाद दे बच्चे को ले ओ जा रही थी।।13।।
कौवे का क्रन्दन काँव काँव करना क्या कहता।
आनन्द-क्रन्दन बीच मैं तालाब तट क्या करता।।
कहीं खुशी कहीं गम अद्भुत ढंग से प्रभु भरता।
उस घटना की याद में मेरे आखों से आँसू झरता।।14।।
             ।।धन्यवाद।।







रविवार, 29 नवंबर 2020

|| CAUSATIVE VERBS. ||

The causative verb is a verb used to indicate that some person or thing makes or helps to make something happen .Have,get ,make and let are main.cause,help ,put and other are also causal or causative verbs.
Have:-to authorize someone to do something.
Get:-to convince or encourage someone to do something
Make:-force or require someone to take an action.
Let:-allow or permite someone to do something.
जब काम करने वाले का पता नहीं हो:-
Sub+causative+obj+v3 etc.
Example:-I had my house cleaned.
जब काम करने वाले का पता हो:-
Sub+causative+person+to v1 or without to v1 +etc.
Example:-
She gets her son to solve the question.
I had electrician look at my broken light.
The elder sister put the child to sleep crying.
I made the boy run.
The nurse caused the patient to drink the medicine lying.
Mother made the servant make the beds carefully.

बुधवार, 18 नवंबर 2020

√पर्यायवाची(शरीर के अंगों के)

तन:- कलेवर तनु काया वपु, लिम्ब गात जिस्म तन।
       देह के बहु नाम ये, अंग ऑर्गन बॉडी कथन।।1।।

बाल:-केश कच कुंतल कहते,अलक शिरोरुह चूल।
       जुल्फ जुल्फी चिकुर बाल, हेयर पर हो फूल।।2।।

पैर:-पद पद्म पद्माकर पग,परम पावन पूजित।
      पैर पाद पद चरण सब,फुट लेग अतिरंजित।।3।।

पेट:-पेट उदर स्टोमच कुक्ष, बेल्ली अंतः भाग।
      जठर अमाशय अंतरे, मध्य भाग का राग।।4।।

हाथ:-हाथ हैंड हस्त हरदम,स्वच्छ रखे कर पात्र।
       पाणी पंजा बाहु भुज,भुजा सवारें गात्र।।5।।

दाँत:-दाँत टूथ टीथ भावन, रदन दशन लुभावन।
       रद द्विज दन्त बदन खुर,मुख खुर रखें पावन।।6।।

जीभ:-जिह्वा रसना रसिका जु,जीभ बानी जुबान।
         वाचा वाणी रस देव,रसज्ञा टंग बखान।।7।।

कान:-कान श्रुतिपट श्रुति सब, श्रवणेन्द्रिय महान।
      श्रोत्र कर्ण एअर श्रवण,शब्दग्रह सब जान।।8।।

पसीना:-पसीना स्वेद प्रस्वेद,स्वेट श्रमकन बखान।
          श्रमसीकर श्रमविंदु, श्रमवारि हैं महान।।8।।

आँख:-आँखें जीवों की जान,लोचन अम्बक नयन।
         नेत्र चक्षु अक्षि दृग मह,ऑय नैन का चयन।।9।।

आँसू:-आँसू टेअर नयन जल,टसुआ असुआ अश्क।
         लोचन वारि अश्रु दृगजल,दृगम्ब का है मश्क़।10

गला:-गला शिरोधरा गरदन, थ्रोट टेंटुआ हलक।
        सु कण्ठ ग्रीव गलई जन,ग्रीवा होवे फलक।।11।।

गाल:-टमाटर सा लाल गाल,कपोल चीक रुखसार।
        गण्ड गलवा गण्ड स्थल,महिमा रखे अपार।।12।।

सीना:-छाती सीना वक्षस्थल,चेस्ट हिया का हार।
        वक्ष रक्ष में रत कवच,हिय का करें सम्भार।।13।।

जंघा:-जांघ जंघा जघन रान,थइ अंग्रेजी बखान।
       उरु जंघ विशाल विस्तृत,नलकिनि हंच महान।14

हथेली:-हथेली पाणितल हाथ,पंजा पाम प्रहस्त।
          करतल हस्ततल जानें,अंजलि अंजुली मस्त।15

दिमाग:-दिमाग मस्तिष्क विवेक,बुद्धि प्रज्ञा मगज।
           ब्रेन मेध भेजा अकल,मति धी राखे सजग।16

नाक:-नाक की है अद्भुत बात, जो दिखाती  जन्नत।
        नोज घ्राणेन्द्रिय घ्राण,नासिका के मन्नत।।17।।

दिल'-दिल हिय हृदय हार्ट उर, जाता जल्दी टूट।
        अन्तः करन हो मजबूत,भरोसा भी अटूट।।18।।

कमर:-कमर कमरिया लपालप, वेस्ट कही कटिभाग।
        लंका कटि मध्यप्रदेश,कॅरिहाव ह मध्यांग।।19।।

पुतली:-एप्पल ऑफ आई कौन आँखो का तारा।
          पुतली प्यूपिल कनीनी, कनीनिकान प्यारा।।20

कोहनी:-कोहनी कफोड़ि कूर्पर,एल्बो कुहनी कोहन।
            इरकोनी टिहुनी पर,रिझे राधा मोहन।।21।।

बुद्धि:-बुद्धि धिषणा प्रज्ञा मति,हर प्राणी में अक्ल।
        विजडम विवेक मनीषा,मेधा धी की शक्ल।।22।।

हाथ'-कर पाणि जोरि कर विनय, भुजा भुज बाहू बाँह।
        बाजू हस्त हाथ पाणि, आर्म ना कहे आह।।23।।

कलाई:-कलाई गट्टा प्रकोष्ठ,है पहुँचा करमूल।
         मणिबन्ध व्रिस्ट भी यही,यही है पाणिमूल।।24।।

माथा'-माथा ललाट की चमक,सोहै मस्तक भाल।
        पेशानी फोरहेड न, शीश सिर ही कपाल।।25।।

कंधा:-कन्धा काँधा ही स्कन्ध,मोढ़ा खावा अंश।
        शोल्डर सोलिडेर सदा,रखते ऊँचा अंस।।26।।

स्तन:-स्तन कुच पयोधर चूची,ब्रैस्ट सीना वक्षोज।
        वक्ष उरोरुह और उरस, स्तन्य ही है उरोज।।27।।

होठ:-होठ हमारा विरलतम,कहलाता है अधर।
       ओठ लिप्स अपर लोवर,ओष्ठ लब मुरली धर।28

चेहरा:-चेहरा मुखड़ा आनन,शक्ल फेस स्वरूप।
        अद्भुत रचना मुँह मुँख, दिखा देता सब रूप।।29।

एड़ी:-हील एड़ी ही कहावत,गोहिरा पगमूल।
       देववाणी में पर्ष्णि, पदमूल चरणमूल।।30।।

नाभि:-नवेल कस्तूरी नाह,नाभि तुन्दी  तुन्नी।
         तुन्दकुपी बेलीबटन,ढोढ़ी कहे धुन्नी।।31।।

          ।।     इति    ।।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

राम चरित मानस के सिद्ध मंत्रsiddha mantras of ramcharitmanas

१॰ विपत्ति-नाश के लिये
“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।”
२॰ संकट-नाश के लिये
“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।”
३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
“हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”
४॰ विघ्न शांति के लिये
“सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”
५॰ खेद नाश के लिये
“जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥”
६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
“जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”
७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
“दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥”
८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
“हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”
९॰ विष नाश के लिये
“नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।”
१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
“नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”
११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
“प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”
१२॰ नजर झाड़ने के लिये
“स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”
१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
“गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।”
१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”
१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
“अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।”
१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
“जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”
१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
“प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’
१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
“जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।”
१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
“साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”
२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।
२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
“भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”
२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
“भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”
२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
“पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”
२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
“कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”
२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
“गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”
२६॰ शत्रुतानाश के लिये
“बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”
२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
“तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”
२८॰ विवाह के लिये
“तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”
२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
“प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”
३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
“जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”
३१॰ आकर्षण के लिये
“जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”
३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
“सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”
३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
“राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।
३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥
३५॰ उत्सव होने के लिये
“सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”
३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
“जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”
३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
३८॰ कातर की रक्षा के लिये
“मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”
३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग । 
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥
४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
“ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।”
४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
“राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”
४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
” अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”
४३॰ विरक्ति के लिये
“भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”
४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”
४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
“भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”
४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
“सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”
४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
“सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”
४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
“नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम । 
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”
४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
“जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”
५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
“केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”
५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
“भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”

 

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

।।मित्रता -खण्ड काव्य।।।

       ।।।मित्रता -खण्ड काव्य।।।         
          ।।   प्रथम भाग   ।।
बन्दउँ बन्धु बजरंगी,सखा सुग्रीव निःकाम।
हे राम बन्धु कृपालु, पूरो सब मन काम।।एक।।
मित्रता नहीं, दासता 
यह है मनुष्यता,सहृदयता,पवित्रता।
शुभ चिन्तक की चिन्ता
हमदर्द मनमीत की सहभागिता।।1।।
रामायण  से आज-तक
महाभारत से सद्ग्रन्थ तक।
इतिहास से वर्तमान तक
काल से महाकाल तक।।2।।
हर काल ग्रन्थ गढ़े गये
पाठकों द्वारा पढ़े गये।
देव-दानव मानव बनाये गये
मानवेतर भी मानव- मित्र पाये गये।।3।।
जगत तनय मेवाती नन्दन गिरिजा
निज बन्धु शंकर सुवन संग तिरिजा।
मित्रता काव्य सृजन विचार सिरिजा
अजर अमर गुननिधि भव-भाव बिरिजा।।4।।
कृत से कलि तक
इस धरा पर अरि मित्र  रहे।
भूत से भविष्य तक
भूत अस्तित्व बहु भाँति बहे।।5।।
निज बन्धु कृपा तक
निज अस्तित्व रहे ही रहे।
बन्धु हीन बन्धु एक
कबन्ध सा शापित जीवन जी रहे।।6।।
बन्धु युक्त बन्धु एक
यति निर्वासित भी राजा बन जी रहे।
सुकाल से दुकाल तक
सर्वत्र सूर्य सा दस दिसि दमक रहे।।7।।
देव दनुज मनुज तक
बन्धुत्व का हर पाठ हैं पढा रहे।
निजता से समर्पण तक
सब भूतों में अपनी गाथा फैला रहे।।8।।
उनकी कृपा गिरिजा आज
मित्रता पर लेखनी चला रहे।
सुकंठ विभीषण राम आज
मर्यादित मित्र बने रहे बता रहे।।9।।
त्याग समर्पण भेद
मिटा देते सब खेद।
मित्रता न देखे छेद
रक्त भले जो जाय स्वेद।।10।।
परिवार से मिला पाठ
देता सब खाई पाट।
तात तात हा तात तात
सब रिश्तों की कहता बात।।11
तात अनुपम अद्वितीय है
सब रिश्तों का  सम्बोधन है।
मित्र का भी अवबोधन है
निज का मन-मोहन है।।12।।
तात सब गात चले
निजता भूला चले।
मानवता लगा गले
मित्रता हो बल्ले बल्ले।।13।।
बैर खैर खाँसी खुशी कहाँ
छिपती कभी इस जहाँ।
मित्रता को देखे यहाँ
आँख फाड़ सब जहाँ।।14।।
घर-बाहर जग में पग-पग,
मित्र-शत्रु हैं भरे पड़े।
कौन पराया कौन अपने संग,
जान न जाये खड़े-खड़े।।15।।
जननी-जनक सम बन्धु न कोई,
सहोदर-सहोदरा भी बन्धु होई।
गुरु सम बन्धु जग मह बिरले कोई,
ईष्ट देव सा बन्धु कतहु कोई कबहु न होई।।16।।
अर्थातुर संसार में अर्थ सगा हो जाय जब,
सारे रिश्ते खाक मिला हर पल नर रोये तब।
भाई बन कसाई रिश्तों की लाश जलाये जब,
विश्वास करें कैसे मर्यादा मर जाये जब।।17।।
मर्यादा पुरुषोत्तम की धरती का कण-कण,
राजस्थान के विरों ने लड़ा है यहाँ महारण।
द्वापर राम कलि पृथ्वीराज ने दिया शरण,
मलेक्ष-बिच्छू विषधर बन लाया मरण।।18।।
विश्वास मित्र पर पग-पग राम ने किया,
हनुमान जटायु सुकंठ बिभीषण को अपना लिया।
कथा अलौकिक मित्रता की हमको बतला दिया,
रत्ती भर सन्देह कहाँ इस रिश्ते में समझा दिया।।19।।
पति-पत्नी सखा धर्म निभाया कैलासी ने,
सती पति यति बन बैठे साथ निभाया काशी ने।
रिबर्थ सती का साथ दिया मैना तात हिमालय ने, 
जगत करे बन्दन तभी सदा ईश शम्भु भवानी ने।।20।।
सखा धर्म की अद्भुत गाथा से भरा यह देश,
रामायण में मानव ही क्या हर भूतों का सन्देश।
मित्रता रक्षा हेतु मित्रों में धरा जहाँ है बहु वेश,
मित्र हित सर्वोपरि देते जन-जन को संदेश।।21।।
जल थल नभ  चारी जड़-चेतन जीव धारी,
मित्रता की मिशाल मिलते भारी-भारी।
काग-विहगेश बजाते खूब मिलकर तारी,
कोई न बचे जो करे कर्म यहाँ कारी-कारी।।25।।
राम चरित भरा  पड़ा है सखा धर्म के कर्मों से,
मेरे बन्धु महाबली की रोमावली भरी है मर्मों से।
राधा-कृष्ण की सब लीला हैं ऊपर सब धर्मों से,
नर-नारायण रथी-सारथी हैं दूर जहाँ के शर्तों से।।26।।
कौन्तेय कर्ण का कवच काफी कुछ कहता,
राधेय सूत पुत्र बन है जग में जग का सहता।
मित्रता कीअद्भुत मिशाल जो कृष्ण सम रचता,
कलम अवरुद्ध हो जाती पूर्ण चरित कौन कहता।।27।।
कृष्ण-सुदामा श्रीदामा की दाउ से तकरार,
प्रेम भरा रस से सना मित्रता का भरमार।
निःस्वार्थ करते मित्रता न करते तकरार,
विश्वास अनूपम अनूठा है जीवन का सार।।28।।
कपोल-कल्पित कामी कथा क्यों कहना,
खर-श्वान सुकर बन अब किसे है रहना।
कांत कान्ता बनें परा संगी क्यों बनना,
सखा ही नहीं स्वामी सेवक भी है बनना।।29।।
मित्रता की जग-कथा को हम गाना चाहते हैं,
भूत सिख वर्तमान भविष्य सँवारना जानते हैं।
वर्तमान-नीव पर भविष्य-महल ढालते हैं,
जो भूत त्रुटि को निज गुरु-सखा मानते हैं।।30।।

           ।।     द्वितीय भाग   ।।
राम बन्धु हर प्राणी के, मेरे बन्धु तुम ईश।
बंधुत्त्व की डोरी में, बाँधो  मेरे शीश।। दो।।

मैं उलझू कभी न सुलझू रहू तेरे साथ,
नदी सागर सा रिश्ता बने नाउ मैं माथ।
गाऊ मैं सदा यहाँ सखा धर्म का गाथ,
हे नाथ डूबने से बचाना पकड़ मेरा हाथ।।1।।
मित्रता में स्वार्थ कितना साग में नमक जितना,
निज का त्याग उतना बरगद के छाँव जितना।
विश्वास भी हो उतना खुद पर करते जितना,
तड़प  हो अपनों जैसा तो मित्रता बनाये रखना।।2।।
आज इन गाथाओं से सबक तो ले मन,
मारुत नन्दन-रघुनन्दन का मान तो जन।
मिशाल हैं ये मानव को सिख देते प्रति क्षन,
इनको माने जाने इस धरा का कन-कन।।3।।
सखा राम के बहुतायत मिलते हैं,
राम सखा जीवन में सुख भरते हैं।
कोल किरात भील वनवासी रहते हैं,
सब सबकी मर्यादा हर पल रखते हैं।।4।।
मर्यादा सखा धर्म का आन है,
यह सद  मानव की पहचान है।
कमल नाल सा कोमल ज़हान है,
बनाता हर सखा को महान है।।5।।
राम सखा के सब सखा हो जाते,
राम सखा हैं जन -जन को भाते।
निषाद राज को मुनि गले लगाते,
भेद-भाव को सखा जड़ से मिटाते।।6।।
भेद जहाँ फिर सखा कहाँ,
आते जाते  सबक सिखाते तहाँ।
एक नहीं अनेक हैं सखा धर्म महाँ,
अनुज अग्रज तात मात सा रिश्ता यहाँ।।7।।
राम युग से कृष्ण युग तक मित्र मिले, 
कोई गले कोई अवनि तले मिले।
कोई पलाये तो कोई हैं पले,
कोई बुरे हुवे तो कोई भले भले।।8।।
मित्र तो एक-दो ही भले,
जो प्रति पल के हिय में ढले।
जिस सा न प्रिय कोई महि तले,
निज स्नेह-सुधा न्यौछावर कर चले।।9।।
त्रेता राम  द्वापर कृष्ण की कहे,
सुकंठ बिभीषण भी मित्र रहे।
हनुमान सखा की कौन कहे,
रज कन सा सब त्याग सब सहे।।10।।
सखा सहोदर सा सगा सदा,
दूना भी अपनों से यदा-कदा।
प्रिय प्राणों सा हरे सब विपदा,
सखा सखा की ओढ़े हर आपदा।।11।।
सखा सोच निज सोच बने,
निज बिपत्ति को छोड़ चले।
दोस्त हित निज को तले,
हो दोस्त का हित हो न अपना भले।।12।।
सुग्रीव राम मिताई है जग में छाई,
ब्रह्म बानर बरबस बाधे बजंरगी भाई।
अग्नि सम्मुख जो शपथ दिलाई,
दोनों ने प्राणपण से इसे निभाई।।13।।
आज भी तो होती हैं अग्नि सम्मुख सगाई,
शंकर पार्वती ने शायद प्रथम रस्म निभाई।
सेवक स्वामि सखा धर्म जगदीश ने बनाई,
हर ने हर पल है अपनी रीति खूब निभाई।।14।।
पर कब जाती टूट झट-पट सब सगाई,
सखा धर्म की ज्योति है जब नहीं जलाई।
विवाह दो अनजानों मध्य सखा धर्म सा भाई,
जिसने जाना उसने ही है खूब निभाई।।15।।
हर की तरह रिश्तों में मित्रता होनी चाहिए,
सबको अपनी मित्रता निभानी चाहिए।
नाम भेद से भेद भी रखना चाहिए,
जो हैं स्वजन उनसे रिश्ता निभाना चाहिए।।16।।
इन्सान को इन्सान से ही नहीं सबसे बनानी चाहिए,
प्राणी-पादप पर प्रीति परखनी चाहिए।
सभी मित्र है इक दूजै के ऐसा समझना चाहिए,
हो जाय सभी सबके कुछ ऐसा करना चाहिए।।17।।
ऐसा किया राम ने ,
मंगल मनाया जंगल में।
भालू कीस की मिताई ने,
साथ दिया हर दंगल में।।18।।
जब सखा दुःख में होता है,
बन्धु मित्र कब सोता है।
हर एक पल मित्र मित्र रोता है,
मित्र हित मित्र भले अपना सब खोता है।।19।।
भौतिक दिखता लौकिक दिखता,
परलोक अलौकिक मिलता।
आँखों देखी ही सब कहता,
मित्रता तो सब काल रहता।।20।।
पिता की जूती पुत्र पाव आ जाती जब,
सब कहते पुत्र मित्र हो जाता तब।
सच है हम कहतें पर माने कब,
बहुत देर हो जाती जब।।21।।
मित्र मित्र ही नहीं जब तक न  बन जाय भाई,
छोटे-बड़े से परे सुख-दुःख की परछाई।
मित्र-मिरर झूठ न बोले बने कसाई,
हर पीड़ा हरन है सब रिश्ता निभाई।।22।।
आईना-सखा आईना साफ़-साफ़ दिखाई,
साथ न छोड़े बना रहे परछाई।
काम करे कथन कहे मित्र हित रत भाई,
सब तज सच्चा दोस्त बृक्ष बन जाई।।23।। 
विद्या जू सदा सर्वदा सच्चे मित्र होते,
देश ग्राम परदेश शहर न वें खोते।
पद मान आन शान के वश न होते,
बीज सदा मित्रता का ही बोते।।24।।
लग जाय लगन इक तरफा भी कभी-कभी,
जग में बहुत हैं रिश्ते निभाते पर न सभी।
कांच और हीरा सम मित्रता मानो अभी,
गुन जानो अवगुन पहचानो करौ मित्रता तभी।।25।।
हाई टेक जमाना है हाई टेक हो जाना,
अपडेट सदा ही रहना भेद नहीं कहना।
व्हाट्सएप चैट मित्रों को भी है सहना,
फेसबुक पर बिना फेस के मित्रों से है बचना।।26।।
सहना बचना कहना मित्रता का गहना,
हर रिश्तों में ही इन्हें पहनें रहना।
दूर न करना इन्हें भले विपदा हो बहना,
विपदा-बहना घर छोड़ेगी एक मित्र का कहना।।27।।
धर्म रथ सवार धर्म को दोस्त जान,
धर्म-मित्र का जो करता  सम्मान।
धर्म ध्वजा उसकी फहराये इस ज़हान,
कोई न कर सके कही तेरा अपमान।।28।।
बात मित्रों की चल पड़ी है अब,
मित्रता अनमोल को माने कब।
उसूलों में बध जाते हैं हम जब,
तोड़ सभी बन्धन मित्र आगे आ जाते तब।।29।।
शिव-शिवा की मित्रता से सिख ले चले,
राम-शंकर दोस्ती  को हम अपनाये भले।
रामेश्वर में दोनों पूजित बले बले,
करते हैं जन जन का हरदम भले भले।।30।।


        ।।।    तृतीय भाग   ।।।

 मेरे सखा बजरंगी,पुकारू बार बार।
मित्र का हर भाँति तुम्हें,करना है उद्धार।।तीन।।

राम सखा को सबने भेंटा,
छोटा हो या हो वह मोटा।
मारे-मारे फिरता छोटा,
मिलत मित्र हो गया मोटा।।1।।
सुकंठ की अद्भुत गाथा है,
बाली जिनका भ्राता है।
हक इनका सब छीना है,
किष्किंधा वास दीना है।।2।।
बन्धु बजरंगी रहते साथ,
जाम्बवन्त मंत्री का हाथ।
बन बाभन नाइ कर माथ,
राम-लखन को लाये साथ।।3।।
कथा सकल जग जाना है,
सबका आशिर्वाद पाना है।
गिरिजा शंकर ने ठाना है,
इनकी कथा को गाना है।।4।।
मित्रता में भी बहु बात छिपा है,
काम क्रोध लोभ माया मोह छिपा है।
आस विश्वास परिहास बहु घात छिपा है,
स्वार्थ परमार्थ विश्वासघात छिपा है।।5।।
विकाश छिपा विनाश छिपा राज छिपा है,
इस ज़हान जन-जन मध्य एक काज छिपा है।
मित्र रूप में कौन जाने अमित्र छिपा है,
कपट दम्भ पाखण्ड द्वेष साकार छिपा है।।6।।
हर पग देख दिखा कर रखना है,
इस समय के ठगों से बचना है।
ऑन लाइन ऑफ लाइन से सम्हलना है,
मौकापरस्तों से दूर रहना है।।7।।
मित्रता की कसौटी विचित्र हो गई है,
मित्रों की लालसा सुरसा मुख हो रही है।
कालनेमी कपट मुनि का रूप ले रही है,
ऐसे में हनु मान पर आस्था सम्बल दे रही है।।8।।
त्याग तपस्या निःस्वार्थ सेवा देती मेवा है,
स्वार्थ दोनों का श्रम साध्य कलेवा है।
देव दनुज नर-नारी का यह टेवा है,
प्रीति प्रेम मित्रता का परेवा है।।9।।
रीति नीति बीच स्वार्थ प्रीति कराता है,
मानव दानव साधु सुर एक सुर गाता है।
हर अंश इस सत्य को अपनाता है,
नहीं अपनाया तो एकला ही रह जाता है।।10।।
कथा सखा की सखा धर्म की,
कृपासिन्धु रघुनाथ की।
हनुमान तात सुकंठ की,
मारूति की रचाई सखाई की।।11।।
भयाक्रांत सुग्रीव देखा दो रघुवीर,
आश्चर्य चकित मुँह फाड़े शोच पड़ा था धीर।
ऋक्ष पति जाम्बवान थे बड़े गम्भीर,
हनुमान निश्चिंत कि हर जायेगी सब पीर।।12।।
सब सन बड़ाई प्रीति नीति रीति सब राखी,
सुग्रीव-राम मिताई के बन्धु हमारे साखी,
शंका सुग्रीव की निकाली दूध ज्यो माखी,
आज सभी ने है दया रस ठीक से चाखी।।13।।
एक हाथ से ताली नहीं बजा करती,
एकतरफा मित्रता क्या शत्रुता भी न हुआ करती।
स्वार्थ बिंदु सब रिश्तों में मिठास भरा करती,
कोई अछूता न न लेखनी झूठा लिखा करती।।14।। 
सच्ची मित्रता केवल परवान चढ़ा करती,
एकतरफा ही नहीं द्वितराफ़ा हुआ करती।
खाई नहीं खोदती पुल बनाया करती,
दान-प्रान नहीं देती-लेती मान दिलाया करती।।15।।
यहीं बात घर-परिवार पर भी घटती है,
परस्पर प्रेम आत्मीयता बढ़ाया करती है।
आपस की होड़ सुख शान्ति गवाया करती है,
मित्रवत भावना कटुता मिटाया करती है।।16।।
भाई-भाई का जहाँ नहीं होता,
वहाँ मित्र-मित्र का होता।
भाई संग भाई भले रोता,
पर मित्र संग मित्र निश्चिंत हो सोता।।16।।
खुद को हर तरह से बड़ा समझे जब भाई,
बाली की हाल होती उस भाई की भाई।
त्यागे भाई की हनुमान करें भरपाई,
उसकी रक्षा में रघुराई भी आ ही जाई।।17।।
सब कुछ पाकर सुग्रीव निश्चिंत हुआ आज,
मित्र पर इतना भरोसा छोड़ दिया सब काज।
भौतिक सुख में डूबा छोड़ मंत्रियों पर राज,
मित्र का सब मित्र का मानने में क्यों लाज।।18।।
गिरि प्रवर्षण राम मन नहीं पाता विश्राम,
मित्र-बन्धु आनन्द में नहीं खलल का काम।
बन्धु-सखा एकसे मानें पुरुष उत्तम राम,
बन्धु को भेजा सखा पास याद दिलाने काम।।19।।
हनुमान तात  बनाते बिगड़ी सब बात, जी
संवारते सगरी रहते हर डाल-पात।
सखा सखा मन की जान लेता हर बात,
प्रतिपल सावधान चूकते नहीं दिन हो या रात।।20।।
निज राज तृन सा त्याग बन्धु काज रत रहना,
रीति सखा हनुमान की अद्भुत है क्या कहना।
बन्धु बान्धव करें अनुकरण माने सब कहना,
सबके संग प्रीति एक सी रखे जब श्रेष्ट नयना।।21।।
कपि ऋक्ष भालू सब बुला लिये,
सुग्रीव संग खुद हो लिये।
रामानुज संग बहु वीर किये,
राम से आज सब मिले आकर हिये।।22।।
मित्र ने मित्र पर सब कुछ वार दिया,
मित्र ने मित्र का कुछ भी नहीं लिया।
लक्ष्य पाने दस दिसि विरों को दौड़ा दिया,
सुलझे वीरों को एक साथ किया।।22।।
जहाँ  सखा हनुमान सुलझें उलझें काम,
लेकर प्रभु का नाम कूद पड़े संग्राम।
जानत आप सब सब परिणाम,
बार-बार कहने-सुनने से मन लेता विश्राम।।23।।
पूरी कथा राम हनुमान सुकंठ की,
त्याग समर्पण आस-विश्वास  की।
करने योग्य सब कुछ करने की,
न करने योग्य को न परखने की।।24।।
झूठी दिलासा मक्कारी से दूर,
मित्रता निभाये भरपूर।
शत्रु स्वप्न करें चकनाचूर,
मित्र बढ़ा सखा धर्म निभाने को आतुर।।25।।
सखा बना विभीषण को विस्तार किया,
सबने मिलकर सद कर्म लो रफ्तार दिया।
सद के साथ सद मित्रों ने हाथ थाम लिया,
मित्रों ने त्रिलोक बिजेता का काम तमाम किया।।26।।
समान गुण-धर्म मित्रता निभा करती,
असमान रुप-रंग मित्रता नहीं देखती।
जाति-पाति वर्ण योनि से मुक्त रहा करती,
प्रकृति मित्रता की प्रकृति बनाया करती।।27।।
स्वभाव का स्थान बहुत है इसमें,
हंस-काग सा विभाग बहुत हैं इनमें।
हंस-मित्र निज गुन भरता है सबमें,
कौआ निज छबि दिखाता है जग में।।28।।
जीवों बीच अद्भुत मित्रता देखी,
आप सबने बहु बार है यह पेखी।
मित्रता नहीं है करना देखा-देखी,
यह तो जगत में है एक गुण विशेषी।।29।।
बन्धु-सखा संग मिलते मोती,
सखा शत्रु जब हो जाये तो फटती धोती।
विश्वासघाती मित्र हरते जोती,
धर्मधारी मित्र संग धरा चैन से सोती।।30।।

        ।।चतुर्थ भाग।।

मंगलमय अभिमत दाता,बन्धु-सखा मम राम।
जिनकी कृपा लवलेश, बन जायें सब काम।।चार।।

मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
रक्षा में इसकी न करना पड़े जतन।
मनुज को रखना है बंधुत्त्व भाव धरन,
अन्यथा सूखे पात सा बेमौसम  पतन।।1।।
सखा धर्म की कथा में नाम कृष्ण का आता,
नर-नारायण मध्य जिसने बनाया अद्भुत नाता।
रथी-सारथी रुप भी जिन्हें खूब है भाता,
कैसे भी शत्रु को इन्हें है धूल चटाना आता।।2।।
इनको जाने इस धरा का हर नर-नारी,
इनकी व्यथा-कथा भी जग में न्यारी।
राम सा जिनको पूजें नित त्रिपुरारी,
गुन गाहक वाहक अद्भुत बाँटे विचार भी भारी।।3।।
राधा-कृष्ण का सखा प्रेम पूजे दुनिया सारी,
प्रेममूर्ति से प्रेम आज भी कण-कण का है जारी।
मीरा ने विष, कृष्ण प्रेम में अमृत सा पी डारी,
वृंदा वन में कान्हा की साख सदा है भारी।।4।।
गोकुल-बरसाना के पेड़ पात सखा भाव से रहते,
ग्वाल-बाल संग गाय-बछड़े  प्रीति यहाँ पर करते।
पाथर मिट्टी जल वायु मृग कृष्ण-कृष्ण जह रटते,
ग्वाल बालाओं के रोम-रोम जह सखा प्रेम में रमते।।5।।
सखा भाव की प्रेम सरिता हर मन में है बहती,
कालिन्दी भी जिन्ह पायन्ह हेतु दिन-रात तरसती।
जगत तनय मेवाती नन्दन की अखियाँ भी कहती,
कृष्ण प्रेम रस रुप माधुरी को सदा हम चखती।।6।।
प्रेम-वारि से सखा-बाग के बंधुत्त्व-पुष्प हो सिंचित,
पंखुड़ी सखा स्नेह की मुरझाये कभी न किंचित।।
देख मित्र राग बाग को शत्रु सदा हो जाये मूर्च्छित,
है सबका मन व्याकुल करने सखा भाव अर्जित।।7।।
मित्रता का पाठ भाव अर्थ ज्ञान मान के रुप,
श्री कृष्ण का तन मन सखा प्रेम का स्वरुप।
नर-नारी का भेद नहीं त्रिभंगी देखें सदा प्रतिरुप,
प्रेम भाव में माता-सखा प्रेमी को दिखायें विश्वरुप।।8।।
राधा के सखा सखियन्ह के सखा,
सखा के सखा भारत भूमि ने परखा।
दीन हीन जन के सखा है सबने लखा,
मित्र-शत्रु  सबके सखा सब ग्रंथन ने लिखा।।9।।
सुदामा के साथ सखा का अप्रतिम रुप दिखा,
सम्पूर्ण विश्व में अनुकरणीय कथा लिखा।
कृष्ण-सुदामा ने  मित्रता का अद्भुत रुप रखा,
राजा रंक को अंक लगा बनाया पूजित सखा।।10।।
मित्रता करना सरल प्रण सा है,
बातों बातों में खाते कसम सा है।
बेईमानों के निःसार वचन सा है,
नहीं हरगिज नहीं यह स्वधर्म सा है।।11।।
मेरे सखा की आओ करे इस समय की बात,
जब द्वापर में श्रीकृष्ण बने द्वारिका नाथ।
सत्यभामा भामिनि मानिनी का साथ,
चक्र सुदर्शन दाऊ गरुण करतें परमार्थ।।12।।
कर्ण-सुयोदन संग जहाँ गाते नित नव गाथ,
भीम-हनु भी रचते अपनी-अपनी हों साथ।
दीन जन ऊपर रहता सदा सर्वदा बन्धु हाथ,
त्रेता से द्वापर तक मेरे सखा नवाते माथ।।13।।
श्रेष्ठ कौन कहाँ अपने को समझ बैठें,
अपने रुआब में आकर अकड़ में ऐंठे।
निज को पर से हेकड़ी में दूर कर तने बैठें,
टूटता भ्रम जब समय-कसौटी उठ बैठें।।14।।
समय बड़ा बलवान है वही पहलवान,
रखता जो कृष्ण सा सब जन का मान।
मेरे सखा सा मेरे सखा महिमावान,
तोड़ते जो भ्रम पल में पकड़ कर कान।।15।।
मित्र मित्रों का भ्रम तोड़ मित्रता निभाता,
कागा ने तोड़ा गरुड़ भ्रम जग गाता।
तोड़ भ्रम निज बन्धु का बन्धु ने निभाया नाता,
भीम दाऊ अर्जुन कथा है जग गाता।।16।।
सखा सत्यभामा सुदर्शन सरकार,
गरुण गति गर्व तोड़े भरे दरबार।
मित्रता सबसे निभाई सिखाई सरकार,
दिखाई रास्ता तोड़ गर्व सबका एकेबार।।17।।
मान मन सम्मान सह रास्ता दिखाये जो,
सद सखा सदा वही आन मान बढ़ाये जो।
सुख में नहीं दुःख में दामन थामे जो,
सबके सामने खुलेआम काम आवे जो।।18।।
मेरे सखा सर्वकाल सदा सबके काम आये हैं,
मुझसे भी पग-पग सखा धर्म निभाये हैं।
निभायेंगे सर्वदा सखा साथ बात सत्य कहाये हैं,
मित्रता पर उनकी कृपा ही लेखनी चलाये हैं।।19।।
अर्जुन-कृष्ण है सखा सब जानते हैं,
कृष्णा-कृष्ण भी सखा पाण्डव जानते हैं।
प्रेम पथ असि धारा पर बन्धु चलना जानते हैं,
निंदा-स्तुति त्यागी ही मित्रता निभाना जानते हैं।।20।।
बनी बात बिगरे सिगरे सखा संग सँवरे,
जहाँ गिद्ध सा आँख जमाये नर भँवरे।
हताश निराशा में डूबे को राह नहीं जब रे,
द्रोपदी चीर सा लाज बचाये मित्र ही तब रे।।21।।
समय धार को पार  कराये बेड़ा सा,
निशि निराशा नाश करे रवि कर सा।
जीवन समर में लड़ना सिखाये पार्थ सा,
धर्म ध्वजा को फहराये पन राखे राम सा।।22।।
मित्रता पर मरना नहीं जीना चाहिए,
रब ने बनायी सब सबको समझना चाहिए।
कुमार्गी मित्र को सन्मार्ग बताना चाहिए,
जीवन में मिले हर रिश्ते को सँवारना चाहिए।।23।।
अपनी तरफ से न हो ग़लती,
माफ़ करो उसकी ग़लती।
जब तक न दुहराई जाय गलती,
बन्धु मित्रता में माया नहीं चला करती।।24।।
माया कृष्ण की दासी दौलत बरसाती,
खोज लो इनमे घमंड ले दिया बाती।
सुदामा से अकिंचन को बनाया साथी,
विनम्रता की मूर्ति पूजित सारथी।।25।।
ल द से दूर कर्म कराये भरपूर,
धर्म असि धार पर दौड़ाये भरपूर।
धर्म हेतु त्यागी बनावे भरपूर,
पर हित रत रहना सिखाये भरपूर।।26।।
सखा हो या भाई-बन्धु साई,
जो जैसा उससे वैसा निभाई।
रिश्तों को निभाने में कैसी कोतहाई,
संग माँगे जो तो संग खूब निभाई।।27।।
संसार मह मित्र सह खूब रिश्ते हुवा करते,
जो अपने-अपने मर्यादा पर पलते।
मर्यादा भंगी से रिश्ते नहीं निभा करते,
दुर्योधन से भी तो हीत-मीत हुवा करते।।28।।
सुयोधन था दुर्योधन बन बैठा,
रीति-नीति की बातों को भूला बैठा।
रिश्तों की मर्यादा तोड़ बैठा ,
अपनों को पराया मान बैठा ।।29।।
ऐसे में मित्रता-बन्धुता कहाँ,
सोच नहीं निज से इतर जहाँ।
प्रारब्ध तो देता है सब सुख यहाँ,
निज कर्म से खो देतें सब कुछ तहाँ।।30।।

        ।।पञ्चम भाग।।

दीन-हीन सह मम सखा, पूरे सब मन काम।
प्रेम मूरति बन हिय में,करें सदा निज धाम।।पंचम।।

मित्रता की बात करना मेरे बस में नहीं,
सदगुरु बन बन्धु मम मार्ग दिखाते वहीं।
वायु पुत्र वायु सा चलना सिखाते महीं,
मित्र हैं मित्र धर्म सदा निभाते  सही।।1।।
जहाँ कहीं भी बात चलती मित्रता की,
वहाँ छाती कथा कौन्तेय कर्ण रवि पुत्र की।
यश कीर्ति फैली है रवि किरन सा राधेय की,
निज धर्म के धनी दानी अपमानी वीर की।।2।।
जन्म से मरण तक इनकी कथा जग जानता है,
जगत तनय मेवाती नन्दन यह मानता है।
मित्रता इनकी अद्भुत अतुलनीय जग जानता है,
प्रेरणा हैं स्वयं कर्ण मित्रों की मित्र मानता है।।3।।
भूल-चूक हर नर से हो ही जाती,
नारी की मति भी तो कभी फिर ही जाती।
विधि वश संग कुसंग सदसंग हो ही जाती,
रत्नाकर को बाल्मीकि की गति मिल ही जाती।।4।।
आहूत मन्त्र का सफल परीक्षण का फल,
रवि प्रसाद बना कुन्ती के लिए मल।
प्रसाद दिया बहा माता ने बहते जल,
राधा ने दिया तब इस फल को जीवन-जल।।5।।
रवि सा तेज दिव्य कवच-कुण्डल धारी,
जीने को बाध्य यहाँ जीवन भारी।
समय-पंछी बैठे कभी इस कभी उस डारी,
देखे दिखाये कभी उजला कभी कारी।।6।।
दुर्योधन का संग मिला जाने दुनिया सारी,
काल चक्र के चक्र में कर्ण फ़सा अब भारी।
एहसान तले वीर दबा जैसे बादल से दिनचारी,
दबा दबकर रह गया उबर न पाया जीवन सारी।।7।।
विधि बस सुजन दुर्जन का हाथ पकड़ा,
नहीं दुर्जन ने सुजन का हाथ जकड़ा।
मिला आज उसे बलि-पशु तगड़ा,
निपटाना चाहता जो था अपना झगड़ा।।8।।
कुछ भी हो मित्रता हुई आज ,
आतुर था दुर्योधन बनाने को निज काज,
 मित्र को तो रखना है वचन की लाज,
माया वशअपनाया अंग आज।।9।।
अंगराज का राज बना गले का फ़ास,
पर मित्रता का नहीं होने दिया उपहास।
संयम धैर्य तप ज्ञान मान का ह्रास विकास,
वार दिया जीवन निज तन बना लास।।10।।
सत्संग सदा मुद मंगलकारी,
कुसंग नसावै जीवन सारी।
सज्जन संग कुसंग बजावै तारी,
कुसंग प्रभाव फैले ज्यों महामारी।।11।।
काजल की कोठरी होती कारी-कारी,
काजल-कलंक की लीक भी बिगाड़े सारी-सारी।
कैसो भी सयानो को न छोड़े काजल कारी,
बन्धु हाथ माथ धर कलंक सारी धो डारी।।12।।
बन्धु का साथ ईश का वरदान है,
मित्रता निभाना मित्र की शान है।
कर साथ एक बार रखना मान है,
अमिय हो गरल हो करना पान है।।13।।
एक बार ही जीवन धन्य हुवा करता,
एक बार ही तन प्राणों को तजा करता।
एक बार ही व्रती प्रण लिया करता,
एक बार ही समय अवसर दिया करता।।14।।
शंकर सा रहा अवढरदानी आजीवन,
अपमान-कालकूट को पिया आजीवन।
निज मित्र को बचाता रहा आजीवन,
सखा धर्म की प्रतिमूर्ति रहा आजीवन।।15।।
निश्छल मित्र ने ही मित्रता को नाम दिया,
मोह पाश में बधा मित्र मित्रता को बदनाम किया।
सोच हमारी जैसी वैसा ही हमने काम किया,
एक मात्र स्वार्थ ने है किसका कल्याण किया।।16।।
सच्चा मित्र सभी का मित्र शत्रु को भी सम्मान देता,
गुण पारखी धर्म धारी को अवसर बारम्बार देता।
सहमत भले न कोई सच सबसे कह ही देता,
उचित-अनुचित मध्य रेखा खींच ही देता।।17।।
आँख बंद कर एकनिष्ठ अंधा भक्त कहलाता,
सच्चा मित्र वही जो मित्र को सन्मार्ग पर लाता।
मित्रता निभाता पर मित्र को मानव धर्म सिखाता,
पर वचन वद्ध निज वचन उत्सर्ग हो जाता।।18।।
मित्र बनों तो मित्र बनों,जग में सबका हित करो,
सद-असद के मध्य अन्तर की खाई को भरो।
असद का साथ पहचानो क्षण में दूर करो,
सत्य संकल्प सदा आचरण में धरो।।19।।
अश्वसेन बन बदले की आग में मत जलो,
शत्रु के शत्रु से जाकर मत मिलो।
क्षमा शील बन भला मानुष बने चलो,
विवेकानन्द बन मानवता को कुछ देते चलो।।20।।
मित्रता मानव दानव पशु पंछी की भी होती है,
सजीव निर्जीव सगुन निर्गुण की भी होती है।
समानवर्ग असमानवर्ग विषम वर्ग की भी होती है,
मित्रता बनानी ही नहीं निभानी भी होती है।।21।।
मित्रता-शत्रुता स्वार्थ सिद्धि का श्रोत नहीं,
विचार हैं उत्तम-निम्न पर सोच नहीं।
जहर फैलाना है सरल पर अमृत नहीं,
मित्रता ही है जीवन धन शत्रुता नही।।22।।
पर बिना शत्रुता मित्रता की पहचान नहीं होती,
बिना आग धुँवा बिना पानी कीचड़ नहीं होती।
एक हाथ से चुटकी पर ताली नहीं बजती,
एक को मिटा कर दूसरी सत्ता सजा करती।।23।।
आज-कल भी मित्रता हर जगह मिला करती,
कुछ निज हित कुछ पर हित भी किया करती।
कुछ निःस्वार्थ कुछ स्वार्थ भाव से हुआ करती,
कुछ विश्वासपूर्ति कुछ विश्वासघात किया करती।।24।।
मित्रता कैसी जैसी मित्र को लगे अच्छी,
पर  काटों साथ नहीं निगली जाती मच्छी।
केवल अच्छी नहीं होनी चाहिये सच्ची,
जिसके कारण न करे कोई माथा पच्ची।।25।।
स्वयं तक सीमित मित्रता मित्र का अहित करती,
क्यों क्या अपना हित कर लेती अपने को सुख देती।
नहीं किसी हाल में यह केवल दुःख देती,
राम नाम सत्य करा जीवन सार हर लेती।।26।।
स्वयं से ऊपर हट दोनों का जो सोचता है,
ऐसे मित्रों को यह संसार सदा खोजता है।
सद बन्धु सखा तात को कोई नहीं भूलता है,
मित्रता अनमोल रतन कोई नहीं छोड़ता है।।27।।
मित्रता बिन जीवन अधूरा है,
मित्रता करो यदि करना इसे पूरा।
जीवन मित्रों संग नहीं है घूरा,
मित्रों बन्धु-बान्धव से भी न हो कभी दूरा।।28।।
तात-मात भी सखा हमारे मित्रता बनाओ,
निज आस-पास भी सद्भावना फैलाओ।
सहकर्मी सहगामी संग प्रेम सदा निभाओ,
ऐसा कर्म करो यादगार बन जाओ।।29।।
कुख्याति न्यारी है एक मित्र की मान जाओ,
मित्रता की चासनी में एक बार तो डूब जाओ।
चाल-चलन मित्र घर अपनों सा ही निभाओ,
मित्र बनों मित्रों संग जीवन सरस कर जाओ।।30।।

पूरन हो सद भावना, हो मित्रता का साथ।
कृपासिन्धु मम बन्धु की, बन्धु शिर पर हाथ।।

       ।।      इति --हनुमते नमः   ।।





















 
























मंगलवार, 1 सितंबर 2020

।।फेसबुक मुखपोथी।। face book hindi poem

बहुत ही परिचित है जन-जन द्वारा संचित है।
अद्भुत है अनूठा है कबका है सर्वत्र सबका है।।
मुखपोथी पर निज मुख दिखे तो सही-सही है।
अमुख-परमुख वाली फेसबुक सदा ही मैली है।।1।।
मान ज्ञान शान बखान का प्लेटफॉर्म मानते हैं।
निज का निज जन सम्पर्क स्थान पहचानते हैं।।
पर पर वश हो निंदनीयभी लोग पोस्ट डालते है।
हम नहीं ऐसों को अपना कभी दोस्त मानते है।।2।।
चाहता हूँ ऐसे मित्र मित्रता से निज नाम हटा लें।
सुधर जाये अथवा उधड़ने वालों में नाम जुड़ा लें।।
सुधड़ो वा उधडों प्रकृति की प्रकृति पहचान लें।
मेरा क्या मैंने कह दिया उचित लगे तो मान लें।।3।।
मित्र हो एक या दो पर मित्र कर्ण-कृष्ण सा हो।
चलो फेसबुकी तो हजारों हो पर निष्प्राण ना हो।।
निज तक संकुचित दूजा के लिए बेकार ना हो।
सब लाइक शेयर सब्क्राइव करें उदास ना हो।।4।।
लाइक शेयर सब्क्राइव से ही पहचान बढ़ती है।
फेसबुकी मित्रों की मित्रता भी परवान चढ़ती है।।
अशिष्ट उच्छिष्ट पोस्ट आप को बदनाम करती है।
मित्रों निज मुख दिखाओ इससे पहचान बढती है।।5।।
       ।।    जय हिन्द जय भारत   ।।