मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

,✓मानस चर्चा ।।निमी की पलको पर निवास की कथा।।

,✓मानस चर्चा ।।निमी  की पलको पर निवास की कथा।।
अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा । सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ॥ भये बिलोचन चारु अचंचल । मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥श्रीसीताजीके मुखचन्द्रपर ( श्रीरामजीके)नेत्र चकोर हो गये। अर्थात् उनके मुखचन्द्रको टकटकी लगाये देखते रह गये ॥ सुन्दर दोनों नेत्र स्थिरहो गये, मानो निमिमहाराजने संकोचवश हो पलकों परके निवासको छोड़ दिया ।'फिरि चितये तेहि ओरा' । 'फिरि चितये'अर्थात् फिरकर देखा – इस कथनसे पाया गया कि सखी पीछेसे आयी । श्रीरामजी लताकी ओटमें हैं, इसीसेश्रीसीताजीने श्रीरामजीको नहीं देखा और श्रीरामजीने सीताजीको देख लिया । चन्द्र चकोरको नहीं देखता, चकोर ही चन्द्रको देखता है।  'सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ' । 'भये चकोरा' अर्थात् चकोरकी तरह एकटक देखते रह गये । यथा - 'एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचंद्र मुखचंद्र चकोरा ॥ ' यही बात आगे कहते हैं- 'भये बिलोचन चारु अचंचल'। चकोर पूर्णचन्द्रपर लुब्ध रहता है, यथा- 'भये मगन देखत मुख सोभा । जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥' नेत्रोंको चकोर कहकर जनाया कि नेत्र शोभापर लुभा गये ।'सिय मुख' को पूर्णचन्द्र कहनेका भाव कि श्रीकिशोरीजीके नेत्र और मुखकी ज्योति पूर्ववत्
जैसी-की-तैसी ही बनी रही और श्रीरामजीमें सात्त्विक भाव हो आया। अतएव ये ही आसक्त हुए, जैसे
चकोर चन्द्रमापर आसक्त होता है, चन्द्रमा चकोरपर नहीं । 
श्रीरघुनाथजीके नेत्र  श्रीसीताजीकी छबिपर
अचंचल हो गये; इससे यहाँ कोई कारण विशेष जान पड़ता है। कारण क्या है?मनहु सकुचि निमि तजे दिगंचल' 
। निमि राजाका वास सबकी पलकोंपर है। श्रीसीताजी
निमि कुलकी कन्या हैं और श्रीरामजी उनके पति हैं। लड़का-लड़की (दामाद और कन्या) दोनों वाटिकामें एकत्र हुए, इसीसे मानो राजा निमि सकुचाकर पलकोंको छोड़कर चले गये कि अब यहाँ रहना उचित नहीं। पलक छोड़कर चले गये, इससे पलक खुले रह गये।  निमि यह सोचकर चले गये कि यहाँ हमारे रहनेसे इनको संकोच
होगा, जिससे इनके उपस्थित कार्यमें विघ्न होगा। अपनी संतानका शृंगार कुतूहल देखना मना है। पलकोंपर वास रहनेसे उनका खुलना और बंद होना अपने अधिकारमें था। जब वास हट गया तब तो वे खुले ही रह गये। आइए हम निमी महाराज के पलको पर वास करने की कथा का भी आनंद ले। कथा इस प्रकार है।
मनुजीके पुत्र इक्ष्वाकुजीके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड तीन पुत्र प्रधान हुए । इस तरह राजा निमि भी रघुवंशी थे । सत्योपाख्यानमें भी यही कहा है।महर्षि गौतमके आश्रमके समीप वैजयन्तनामका नगर बसाकर ये वहाँका राज्य करते थे । निमिने एक सहस्र वर्षमें समाप्त होनेवाले एक यज्ञका आरम्भ किया और उसमें वसिष्ठजीको होताअर्थात् ऋत्विज्के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि पाँच सौ वर्षके यज्ञके लिये इन्द्रने मुझे पहले ही वरण कर लिया है। अतः इतने समय तुम ठहर जाओ । राजाने कुछ उत्तर नहीं दिया, इससे वसिष्ठजीने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है, इन्द्रका यज्ञ आरम्भ कर दिया, इधर राजा निमिने भी उसी समय महर्षि गौतमादि अन्य होताओं द्वारा यज्ञ प्रारम्भ कर दिया । इन्द्रका यज्ञ समाप्त होते ही 'मुझे निमिका यज्ञ कराना है' इस विचारसे वसिष्ठजी तुरंत ही आ गये। राजा उस समय सो रहे थे । यज्ञमें अपने स्थानपर गौतमको होताका कर्म करते देख वसिष्ठजीने सोते
हुए राजाको शाप दिया कि 'इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्मका भार गौतमको सौंपा है, इसलिये
यह देहहीन हो जाय।श्रीमद्भागवतमें शापके वचन ये हैं— 'निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमण्ड है, इसलिये इसका शरीर पात हो जाय । 
वसिष्ठजीने शाप दिया है, यह जानकर राजा निमिने भी उनको शाप दिया कि इस दुष्ट गुरुने मुझसे बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुएको शाप दिया है, इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा। इस प्रकार शाप देकर राजाने अपना शरीर छोड़ दिया। श्रीमद्भागवतमें
शुकदेवजीने कहा है कि निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका शाप धर्मके प्रतिकूल था, इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि 'आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी पात हो जाय - अब  महर्षि गौतम आदिने निमिके शरीरको तेल आदिमें रखकर उसे यज्ञकी समाप्तितक सुरक्षित रखा । यज्ञकी समाप्तिपर जब देवता लोग अपना भाग ग्रहण करनेके लिये आये तब ऋत्विजोंने कहा कि यजमानको वर दीजिये । देवताओंके पूछनेपर
कि क्या वर चाहते हो, निमिने सूक्ष्म शरीरके द्वारा कहा कि देह धारण करनेपर उससे वियोग होनेमें बहुत दुःख होता है, इसलिये मैं देह नहीं चाहता। समस्त प्राणियोंके लोचनोंपर हमारा निवास हो । देवताओंने यही
वर दिया। तभी से लोगोंकी पलकें गिरने लगीं। 
देवताओंने आशीर्वाद दिया कि राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंपर अपनी इच्छाके अनुसार
निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीरसे भगवान्‌का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके
अस्तित्वका पता चलता रहेगा ।  उसी समयसे पलकोंका नाम निमेष हुआ। इस कुल में उत्पन्न राजा इसी समयसे रघुकुल से पृथक हो गए और वैजयन्त का नाम मिथिला पड़ा।निमी महाराज की विस्तृत कथा आप हमारे मिथिलेश/मिथिलापति की कथा को देखकर/सुनकर
अवश्य जाने और समझे।आप सब पर सदा प्रभु कृपा बनी रहे।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।


✓मानस चर्चा।।सर्वस्व दान के बाद भी सर्वस्व अपना।।

मानस चर्चा।।सर्वस्व दान के  बाद भी सर्वस्व अपना।। 
सर्बस दान दीन्ह सब काहूँ । जेहिं पावा राखा नहिं ताहूँ ॥ 
- सबने सर्वस्वदान दिया, जिसने पाया उसने भी नहीं रखा। इस भाँति सम्पत्तिका हेर-फेर अवध में हो गया। किसी समय सोमवती अमावस्या लगी, सब मुनियोंकी इच्छा हुई कि गोदान करें। मुनि सौ थे और एक ही के पास गौ थी। जिसके पास गौ थी उसने किसीको दान दिया, उसने भी दान कर दिया । इस भाँति वह गौ दान होती
गयी । अन्तमें फिर वह उसी मुनिके पास पहुँच गयी जिसकी पहले थी और गोदानका फल सबको हो गया। लालच किसीको नहीं और देनेकी इच्छा सबको। ऐसी अवस्थामें सम्पत्ति घूम-फिरकर जहाँ-की-तहाँ आ जाती है
और सर्वस्व दान के  बाद भी सर्वस्व अपना ही रहता है।
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

✓आज एकादशी है

आज एकादशी है
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भगवान राम सुग्रीवजी से कहते हैं  कि जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। अर्थात् सरल मन मनुष्य ही मुझे पाता है। इस संदर्भ में मुझे एक सच्चे भक्त की कहानी, श्री राजेश्वरानंदजी रामायणी के  द्वारा कही हुई याद आ रही है,इस कथा में  भगवान की बड़ी विलक्षण महिमा है,
असल में भगवान का मिलना उतना कठिन नहीं है, जितना व्यक्ति का निर्मल  होना,सरल होना ।सुंदर सरल स्वभाव सबसे कठिन है, इतना सरल की सरलता से विश्वास कर ले ।आइए हम आदरणीय गुरु श्रेष्ठ राजेश्वरानंदजी रामायणी  की इस कथा का आनंद लेते हैं और निर्मल मन जन सो मोहि पावा को , सरल के अर्थ एवं भाव दोनों के साथ  हृदयंगम  करते हैं।
एक व्यक्ति था खाता खूब था और काम कुछ ना करे, कैसे
करें इतना ज्यादा खा लेता कि जहां खाए वही लुढ़क जाए,घर वाले परेशान  हो गए । एक दिन घर वालों ने कहा जाओ घर से ,निकल जाओ खाते दो-तीन शेर हो और काम कुछ नहीं करते, तो वह भक्त निकल गया घर से ,बिचारा अब जाए कहां तो एक महात्मा दिखे मंदिर के बाहर, महात्मा बढ़िया मोटे ताजे तंदुरुस्त थे सोचा ए खूब खाते होंगे तभी तो बढ़िया हैं वह महात्मा जी के पास आया तब तक महात्मा जी के दो चार शिष्य और आ गए वह भी बढ़िया हट्टे कट्टे थे, अब तो यह सरल भक्त गदगद हो गया | महात्मा जी के चरणों में गिर गया कहा गुरु जी मुझे अपना चेला बना लीजिए महात्मा ने कहा ठीक है बन जाओ तुम भी, यही रहो भजन करो भक्त ने कहा गुरु जी भोजन महात्मा जी ने कहा हां भोजन वह तो बढ़िया दोनों टाइम पंगत में बैठकर पावो प्रेम से । भक्त ने कहा गुरु जी दो टाइम बस, महात्मा जी ने कहा अरे भाई चार टाइम पंगत  चलती है, तुम चारों में बैठ कर खाओ कोई दिक्कत नहीं है । भक्त ने कहा गुरु जी काम क्या करना पड़ेगा ? गुरुजी मुस्कुराए बोले बेटा केवल भगवान की आरती पूजा पाठ में शाम सुबह खड़े रहना है और कोई काम नहीं है ।
अब तो भक्त प्रसन्न हो गया कि काम कुछ करना नहीं और
खाना पेट भर,खाने  लगा ,रहने लगा अब उसे क्या पता कि मुसीबत यहां भी आ पड़ेगी ।
एक दिन मंदिर में सुबह से चूल्हे आदि कुछ नहीं सुलगे,
भंडारे में सब बर्तन ऐसे ही पड़े हुए हैं, वह सीधा भक्त,अब तो घबरा गया,  सीधे महात्माजी के पास पहुंचा कहा गुरु जी क्या बात है- आज भंडार में कुछ नहीं बन रहा ?
तो महात्मा जी ने कहा हां तुम्हें नहीं पता क्या ?आज
एकादशी है और इस दिन मंदिर में कुछ नहीं बनता सब
निर्जला व्रत रहते हैं, भक्त ने कहा गुरु जी मैं भी रहूं! महात्मा ने कहा वह तो सबको रहना पड़ेगा क्योंकि ना कुछ बनेगा और ना मिलेगा |
भक्त ने कहा गुरु जी अगर आज हमने एकादशी का व्रत कर लिया तो कल हम द्वादशी देख ही नहीं पाएंगे, आपके इतने चेले हैं उनसे कराओ एकादशी | महात्मा जी भी उदार व्यक्ति थे उन्हें दया आ गई, कहने लगे बेटा यहां मंदिर में तो कुछ बनेगा नहीं हां तुम कच्चा सीधा लेकर नदी के किनारे पेड़ के नीचे बना कर खा लो, बना लो
लोगे, आता है भोजन बनाना ।भक्त ने कहा मरता क्या न करता, बना लेगें । महात्मा जी ने कहा जाओ भंडार में से सामान ले लो उसने ढाई सेर आटा,नमक ,आलू सब बांधा और जाने लगा, गुरु जी ने कहा बेटा अब तुम वैष्णव हो गए हो, भगवान को बिना भोग लगाए मत खाना।वह वहां पहुंचकर नदी से जल भर लाया और जैसे ही भोजन बना उसे गुरु जी की बात याद आ गई ,बिना भगवान को भोग लगाए मत खाना, बिचारा सच्चा सरल भक्त ।बुलाने लगा प्रभु को --
राजा राम आइए प्रभु राम आइए, मेरे भोजन का भोग
लगाइए।
नहीं आए भगवान ! फिर भक्त कहने लगा--
आचमनी अरघा ना आरती यहां यही मेहमानी।
सूखी रोटी पावो प्रेम से पियो नदी का पानी । फिर वही धुन शुरू किया
राजा राम आइए, प्रभु राम आइए, मेरे भोजन का, भोग
लगाइए ।
लेकिन भगवान  फिर भी नहीं आए !  तब वह बोला-
पूरी और पकौड़ी भगवन सेवक ने नही बनाई।
और मिठाई तो है ही नहीं, फिर भी भोग लगाओ  भाई।
इतने पर भी जब प्रभु ना आए तो वह सच्चा सरल भक्त, एक ऐसी बात बोल दी कि ठाकुर जी प्रसन्न हो गए, उसने कहा-मैं समझ गया भगवान आप क्यों नहीं आ रहे हैं ।
आप सोच रहे होंगे कि यह रुखा सुखा भोजन और नदी का पानी कौन पिए, मंदिर में छप्पन भोग मिलेगा तो इस धोखे में मत रहना प्रभु, वहां से तो जान बचाकर हम ही आए हैं। ध्यान रखना - भूल करोगे यदि तज दोगे भोजन रूखे सूखे। एकादशी आज मंदिर में बैठे रहोगे भूखे ।
राजा राम आइए प्रभु राम आइए मेरे भोजन का भोग
लगाइए ।
इस सरलता से भगवान प्रकट हो गए और वह भी बड़े
कौतुकी अकेले नहीं आए ।
सीता समारोपित वाम भागम ।
सीता जी के साथ प्रकट हुए अब तो भक्त हैरान, दो भगवान को देखकर एक बार उनकी तरफ देखता तो दूसरी तरफ रोटियों की तरफ, भगवान श्रीराम मुस्कुराए बोले क्या हुआ ? भक्त ने कहा कुछ नहीं प्रभु आइए आप आसन ग्रहण कीजिए, आप आज हमारी थोड़ी बहुत तो एकादशी करा ही दोगे,प्रेम से प्रभु को प्रसाद खिलाया स्वयं पाया और बार-बार प्रभु को  प्रणाम करे और कहे भगवान आप लगते बड़े सुंदर हो लेकिन बुलाने पर जल्दी आ जाया करो देरी मत किया करो |
प्रभु ने कहा ठीक है ।अब प्रभु अंतर्ध्यान हो गए, यहां जब
दूसरी एकादशी आई भक्त ने कहा गुरु जी वहां तो दो
भगवान आते हैं, इतने सीधा में काम नहीं बनेगा और बढ़वा दो गुरुजी ने सोचा बिचारा भूखा रहा होगा उस बार और बढ़वा दिया आज तीन सेर आटा ,नमक, आलू  आदि लिया ,जंगल में प्रसाद बना, भक्त ने पुकारा ।
प्रभु राम आइए, सीता राम आइए, मेरे भोजन का भोग
लगाइए ।
जो भक्त ने पुकारा भगवान तुरंत प्रकट हो गए जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे लेकिन--
राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर ।
भगवान श्री राम सीता और लक्ष्मण प्रकट हुए, जो इसने
देखा तीनों को प्रणाम तो कर लिया, लेकिन फिर देखे रोटी
की तरफ फिर इनकी तरफ, फिर माथा में हाथ रखा ।
भगवान ने कहा क्या हुआ ? भक्त ने कहा कुछ नहीं कुछ नहीं, अब जो होगा सो होगा आप तो प्रसाद पावो, भगवान ने कहा बात क्या है- बोला कुछ नहीं पहले दिन हमने सोचा कि एक भगवान आएंगे, तो दो आ गए ,अब दो का इंतजाम किया तो आज तीन आ गए ।
एक बात पूछूं भगवान ,भगवान ने कहा पूंछो उसने कहा यह आपके साथ कौन हैं, भगवान ने कहा यह हमारे भाई हैं छोटे भाई हैं, भक्त ने कहा अच्छा भाई हैं, सगे भाई हैं या ऐसे लाए, जोरे के, भगवान ने कहा नहीं नहीं यह हमारे सगे भाई हैं । भक्त ने कहा अच्छा सगे भाई हैं ठीक है लेकिन नाराज ना होना प्रभु, एक बात कहूं हमने ठाकुर जी के भोग का ठेका लिया है कि ठाकुर जी के खानदान भर का ।
भगवान खिलखिला कर हंसे, सीता जी भी मुस्कुरायी,
लक्ष्मण जी सोचने लगे भगवान अच्छी जगह ले आए हैं।
आते ही क्या स्वागत हो रहा है।
भक्त ने कहा कोई बात नहीं आप हमें अच्छे बहुत लगते हैं। आप प्रसाद पायें, तीनों को पवाया जो बचा खुद पाया।
भगवान जब जाने लगे बोला एक बात बताओ, बोले क्या,
अगली एकादशी को कितने  आओगे अभी से बता दो ।
भगवान ने कहा आ जाएंगे और अंतर्ध्यान हो गए अब भक्त परेशान, आश्रम लौटा दिन गुजरे फिर एकादशी आई। महंत जी बोले जाओ उसने कहा जाना ही पड़ेगा यहां तो कुछ नहीं मिलेगा, वहां अलग परेशानी |
गुरुजी ने कहा वहां क्या परेशानी हो गई गुरु जी से बोला
आपने बोला था एक भगवान आएंगे वहां तो दिन प्रतिदिन
बढ़ते ही जाते हैं और आज पता नहीं कितने आएंगे कम से कम तेरह शेर आटा दो और उसी के हिसाब से गुड, आलू ,मिर्च ,मसाला, रामरस ,घी सब दो गुरुजी।
गुरु जी  सोचने लगे कि इतने आटे का क्या करेगा खा तो नहीं , पाएगा जरूर बेंचता होगा, हम पीछे से जाकर पता लगाएंगे। गुरुजी ने समान दिला दिया ,बोले जाओ वह गया पूरी गठरी सिर पर लादकर ले गया। रखा पेड़ के नीचे गठरी और समान। आज उसने चतुराई की भोजन बनाया ही नहीं, सोचने लगा,पहले बुला कर देख लूं कितने लोग आएंगे, अब भोजन बिना बनाए लगा पुकारने--
राजा राम आइए ,सीता राम आइए, लक्ष्मण राम आइए,
मेरे भोजन का भोग लगाइए ।
जो प्रार्थना की भक्त ने ,मानो भगवान प्रतीक्षा ही कर रहे थे ।
बैठ बिपिन में भक्त ने, जब कीन्हीं प्रेम पुकार।
तो कांछन में प्रगट भयो, दिव्य राम दरबार ।
राम जी का पूरा का पूरा  दरबार ही  प्रगट हुआ- श्री सीताराम जी,भरतजी,लक्ष्मणजी, शत्रुघ्नजी, हनुमानजी।
इतने जनों को देखा, चरणों में प्रणाम किया, कहा जय हो, जय हो आपकी, आज तो हद हो गई इतने, हर एकादशी को एक-एक बढ़ते थे आज इतने ।लेकिन मेरी भी एक प्रार्थना सुनो !
बोले क्या ? उसने बोला मैंने भोजन ही नहीं बनाया। वह रखा है समान,अपना बनाओ और पाओ, तो तुम क्यों नहीं बना रहे हो, तो बोला जब हमें मिलना ही नहीं, तो काहे को भोजन बनायें ।
मोते नहीं बनत बनावत भोजन-मोते नहीं बनत बनावत भोजन।आप बनाबहू अपने ,बहुत लोगन संग आयो। बनाओ और पावों।मोते नहीं बनत बनावत भोजन।
यह भोजन मुझसे नहीं बनता आप बनाओ-- और बोला_
प्रथम दिवस भोजन के हित आसन जब मैंने लगाई,
उदर ना मैं भर सक्यो सीय जब सन्मुख आई।
फिर बिनीत आए भाई पर भाई।
निराहार ही रहत आज मोहीं परत दिखाई |
अब तो भूखे ही रहना पड़ेगा-- और बोला_
तुम नहीं तजत सुबान आपनी, हम केते समझाएं ।
श्री हनुमान जी की ओर देखकर बोला--
नर नारिन की कौन कहे, एक बानरहूं संग लाए। मोतें
नहीं बनत बनाए भोजन , इसलिए आप बनाओ । भगवान ने कहा बनाओ भोजन, भक्त नाराज है तो क्या करोगे ।
श्री भरत जी भंडारी बनाने लगे।
चुन के लकड़ी लखनलाल लाने लगे,
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
पोंछते पूंछ से आञ्जनेय चौका को,
पीछे हाथों से चौका लगाने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
चौक, चूल्हे इधर-उधर, शत्रुघ्न साग भाजी ,अमनिया कराने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
भरत जी भंडारे बनाने लगे, लक्ष्मण जी लकडी लाने लगे,
अमनिया शत्रुघ्न जी करने लगे, हनुमान जी चौका साफ
सफाई करने लगे । भक्त पेड़ के नीचे आंख बंद करके बैठा हुआ है, भगवान ने कहा आंख बंद काहे को किए हो खोलो, तो बोला काहे को खोले जब हमें खाने को मिलेगा ही नहीं तो दूसरे को खाते हुए भी तो नहीं देख सकते ।
अब जिस रसोई में सीता मैया बैठी हों वहां बड़े-बड़े सिद्ध
संत प्रकट होने लगे, मैया हमको भी प्रसाद हमको भी प्रसाद मिले । सब प्रगट होने लगे उनकी आवाज सुनी आंख खोली जो देखा इधर भी महात्मा उधर भी सो माथा पीट कर बोला थोड़ा बहुत मिलता भी तो यह नहीं मिलने देंगे ।
पा के संकेत शक्ति ,जत्थे वहां अष्ट सिद्धि नव निधि
आने लगे ।
श्री भरत जी भंडारे बनाने लगे ।
अब गुरुदेव आए कि कर क्या रहा है चेला, तो देखा कि चेला आंख बंद किए बैठा है और सामने सामग्री रखी है, आंसू आंख से बह रहे हैं ।
गुरु जी ने कहा बेटा भोजन नहीं बनाया वह चरणों में गिर
गया बोला आ गए गुरु जी देखो आपने कितने भगवान लगा दिए मेरे पीछे, मंदिर में तो नहीं हुई पर यहां एकादशी पूरी हो रही है। और गुरु जी को कोई दिखे नहीं तो भगवान से बोला_
हमारे गुरु जी को भी दिखो नहीं  तो यह सब हमें झूठा मानेंगे, भगवान बोले उन्हें नहीं दिखेंगे,बोला क्यों हमारे गुरुदेव तो हमसे अधिक योग्य हैं,भगवान बोले तुम्हारे गुरुदेव तुमसे भी योग्य हैं, लेकिन तुम्हारे जैसे सरल नहीं हैं। और हम सरल को मिलते हैं ।गुरुजी ने पूछा क्या कह रहे हैं ,भक्त ने कहा भगवान कहते हैं सरल को मिलते हैं आप सरल नहीं हो ! गुरुजी रोने लगे,गुरुजी सरल तो नहीं थे तरल हो गए, आंसू बरसने लगे और जब तरल होकर रोने लगे, तो भगवान प्रकट हो गए गुरु जी ने दर्शन किए।
गुरु जी ने एक ही बात कही कि हम सदा से एक ही बात
सुनते आए हैं,  वह यह कि गुरु के कारण शिष्य कों भगवान मिलते हैं और आज शिष्य के कारण गुरु को भगवान मिले हैं।
तो यह है सरलता, सरल शब्द की महिमा।वास्तव में अगर हम माने तो सरल शब्द के अक्षरों का अर्थ भी है,
स- माने सीता जी |
र-माने रामजी |
ल-माने लक्ष्मण जी ।
ये तीनों जिसके हृदय में बसे हैं वही सरल है ,वही निर्मल है और उसी को ही भगवान मिलते हैं ,इसी आशा से कि हमें भी भगवान मिलेंगे ही हम प्रार्थना करते हैं कि _
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम॥
जय श्री राम जय हनुमान