।।छन्द के सम्बन्ध में संपूर्ण जानकारी।।
सामान्य परिचय:-
छन्द पर चर्चा सर्वप्रथम ऋग्वेद
में हुई है।
छन्द के दो अर्थ हैं.
एक तो आच्छादनऔर
दूसरा आह्लादन ।
छन्द की व्युत्पत्ति -
छदि संवरणे और चदि
आह्लादने से मानी जाती है।
इस प्रकार विद्वानों के अनुसार छन्द
शब्द के मूल में 'चद्' धातु है जिसका
अर्थ है 'आह्लादित करना',
'खुश करना','प्रसन्न करना',
'मनोरञ्जन करना'।
चद् से छद् और अन्त में छन्द बना।
"यः छंदयतिआह्लादयति च सः छन्दः।"
इसका धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है -
'जो अपनी इच्छा से चलता है'।
इसी मूल से स्वच्छंद
जैसे शब्द आए हैं। अत: छंद शब्द के
मूल में गति का भाव है।
छ्न्द का हिन्दी में पर्याय पद्य,कविता
और अंग्रेजी में (Verse,Poem,Metre
Poetic Meter) हैं।
आचार्य पिंगल द्वारा रचित छन्द शास्त्र
(छन्दःसूत्र)
सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है जिसे
'पिंगलशास्त्र' भी कहा जाता है।
वास्तव में यही छन्द शास्त्र का
मूल ग्रन्थ है।
यदि गद्य की कसौटी व्याकरण है तो
कविता की कसौटी ‘छन्द’ है।
पद्यरचना का समुचित ज्ञान
छन्दशास्त्र की जानकारी
के बिना नहीं होता है।
किसी वाङमय की समग्र सामग्री का
नाम साहित्य है। संसार में जितना
साहित्य मिलता है ’ ऋग्वेद’
उनमें प्राचीनतम है। ऋग्वेद
छंदोबद्ध ग्रंथ है।
अब हम देखते हैं की हिन्दी में
छंद की परिभाषा ...
परिभाषा:-वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की
संख्या एवं क्रम, मात्रा-गणना तथा
यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से
नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है।
छन्द के अंग:-किसी भी छंद में गति, यति,
मात्रा, वर्ण, तुक, लय , गण, और चरण
ये 8 अंग होते हैं ।
1-गति - पद्य के पाठ में जो बहाव होता है
उसे गति कहते हैं।
2-यति - पद्य पाठ करते समय गति को
तोड़कर जो विश्राम दिया जाता है
उसे यति कहते हैं।
3-मात्रा - वर्ण के उच्चारण में जो समय
लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रा 2
प्रकार की होती है लघु और गुरु।
ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा
लघु होती है तथा दीर्घ उच्चारण
वाले वर्णों की मात्रा गुरु होती है।
लघु मात्रा का मान 1 होता है और उसे
(।) चिह्न से प्रदर्शित किया जाता है।
इसी प्रकार गुरु मात्रा का मान मान
2 होता है और उसे (ऽ)चिह्न से प्रदर्शित
किया जाता है।
सामान्यतः सभी व्यञ्जन वर्ण और स्वर
वर्णों में अ, इ, उ ऋ लृ लघु माने गये हैं।
आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं और अ: दीर्घ हैं।
दीर्घ वर्णों की पहचान हेतु यह
श्लोक स्मरणीय है--
सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥
4-वर्ण (अक्षर)-ध्वनि की छोटी से छोटी
इकाई जिसे लिपि से व्यक्त किया जाता है,
उन्हें वर्ण कहते हैं।मुँह से निकलने वाले
किसी भी ध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रत्येक
भाषा की अपनी लिपि होती है । इस लिपि
के माध्यम से ही ध्वनि को व्यक्त किया
जाता है, इसे ही वर्ण कहते हैं ।
5-तुक - समान उच्चारण वाले शब्दों के
प्रयोग को तुक कहा जाता है। पद्य प्रायः
तुकान्त होते हैं।
6.लय-गति, यति के मेल को लय कहते है।
गति,यति को ध्यान में रखते हुये शब्द
बोलने के प्रवाह को अथवा सुर
(सा रे ग म प ध नी) के साथ तारतम्य
बैठाते हुये संगत करना (गेयता का ढंग)
लय कहलाता है ।
7-गण - मात्राओं और वर्णों की संख्या और
क्रम की सुविधा के लिये तीन वर्णों के समूह
को एक गण माना जाता है, जिनकी
संख्या 8 हैं - यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ)
, तगण (ऽऽ।), रगण (ऽ।ऽ), जगण (।ऽ।)
, भगण (ऽ।।), नगण (।।।) और सगण
(।।ऽ)।गणों को आसानी से याद करने का
सूत्र है- यमाताराजभानसलगा।
सूत्र के पहले आठ वर्णों में आठ गणों
के नाम हैं। अन्तिम दो वर्ण ‘ल’ और ‘ग’
लघु और गुरू मात्राओं के सूचक हैं।
जिस गण की मात्राओं का स्वरूप जानना
हो उसके आगे के दो अक्षरों को इस सूत्र
से ले लें जैसे ‘मगण’ का स्वरूप जानने
के लिए ‘मा’ तथा उसके आगे के दो
अक्षर- ‘ता रा’ = मातारा (ऽऽऽ)।
‘गण’ का विचार केवल वर्ण वृत्त में होता
है मात्रिक छन्द इस बंधन से मुक्त होते हैं।
अब हम गणविधायक सूत्र को समझते हैं:
। ऽ ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
को समझने के लिए यह श्लोक है।
"आदिमध्यावसानेषु
यरता यान्ति लाघवम् ।
भजसा गौरवं यान्ति
मनौ तु गुरुलाघवम् ॥"
इसी बात को हिंदी के इस दोहे
में देखते हैं ।
"आदि मध्य अन्तिम गुरु,
भजस गणन में होय।
यरत गणन त्यौं लघु रहै,
मन गुरु लघु सब कोय॥"
अर्थात् भगण जगण और सगण में
क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम वर्ण
गुरु होते हैं तथा शेष लघु जैसे:
भगण SII जगण ISI सगण IIS
इसी प्रकार यगण रगण तगण में
क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम
वर्ण लघु होते हैं तथा शेष गुरु जैसे:
यगण ISS रगण SIS तगण SSI
तथा मगण में सारे वर्ण गुरु एवं
नगण में सारे वर्ण लघु होते हैं।
शुभा अशुभ विचार –काव्य के प्रारम्भ
में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’
नहीं आना चाहिए।
मनभय शुभ तथा शेष जरसत
अशुभ माने जाते हैं।
वर्णवृत्त छन्दों की रचना में शुभ-
अशुभ का विचार नहीं किया जाता
किन्तु मात्रिक छन्दों की रचना में शुभ-
अशुभ गणों का ध्यान रखा जाता है।
आइए हम गणों के बारे में विस्तार से
जानते हैं:
गण चिह्न उदाहरण प्रभाव
यगण(य) ISS नहाना शुभ
मगण (मा) SSS आजादी शुभ
तगण(ता) SSI चालाक अशुभ
रगण(रा) SIS पालना अशुभ
जगण(ज) ISI वकील अशुभ
भगण(भा) SII रासभ शुभ
नगण(न) III विमल शुभ
सगण(स) IIS विमला अशुभ
8-चरण(पद/पाद)-प्रत्येक पदों के मध्य एक
या एक से अधिक यति आता है । यति से
विभाजित पद को ही चरण कहते हैं ।
प्रत्येक छंद/पद्य में कम से कम
दो चरण होतें हैं ।
छन्द के प्रकार-
1-
मात्रिक छंद -मात्रा की गणना के आधार
पर रचित छन्द ‘मात्रिक छन्द’ कहलाता है।
मात्रिक छंद तीन प्रकार के होते हैं : -
(अ) सम (ब) अर्द्धसम और (स )विषम ।
(अ)सम मात्रिक छंद:-जिस मात्रिक छंद के
सभी चरणों में एक समान मात्रा होती है उसे
सम मात्रिक छंद कहते हैं जैसे:- अहीर
(11 मात्रा) तोमर (12 मात्रा) मानव
(14 मात्रा) अरिल्ल,पद्धरि/पद्धटिका,
चौपाई (सभी 16 मात्रा)पीयूषवर्ष,
सुमेरु (दोनों 19 मात्रा) राधिका (22 मात्रा)
रोला, दिक्पाल, रूपमाला (सभी 24 मात्रा)
गीतिका (26 मात्रा) सरसी (27 मात्रा)
सार (28 मात्रा) हरिगीतिका (28 मात्रा)
ताटंक (30 मात्रा) वीर या आल्हा
(31 मात्रा) आदि।
(ब)अर्द्धसम मात्रिक छंद:- जिस मात्रिक छंद
के विषम चरणों में अलग और सम चरणों
में अलग मात्रा हो उसे
अर्द्धसम मात्रिक छंद कहते हैं
जैसे:- बरवै (विषम चरण में- 12 मात्रा,
सम चरण में- 7 मात्रा) दोहा
(विषम- 13, सम- 11) सोरठा
(विषम -11 तथा सम में 13 ,दोहा का उल्टा)
उल्लाला (विषम-15, सम-13) आदि।
(स)विषम मात्रिक छंद:- जिस मात्रिक छंद
में चार से अधिक चरण हो (6 चरण हो) और
वे एक समान नहीं हो उसे विषम मात्रिक
छंद कहते हैं जैसे :- कुण्डलिया
(दोहा + रोला) छप्पय (रोला + उल्लाला)।
2-वर्णिक/ वर्णवृत्त छंद ː वर्णों की गणना पर
आधारित छंद वर्णिक/वर्णवृत्त छंद
कहलाते हैं।वर्णिक छंद के सभी चरणों में
वर्णो की संख्या समान होती हैं।
जैसे - प्रमाणिका; स्वागता, भुजंगी, शालिनी,
इन्द्रवज्रा, दोधक; वंशस्थ, भुजंगप्रयाग,
द्रुतविलम्बित, तोटक; वसंततिलका;
मालिनी; पंचचामर, चंचला; मन्दाक्रान्ता,
शिखरिणी, शार्दूल विक्रीडित, स्त्रग्धरा,
सवैया, घनाक्षरी, रूपघनाक्षरी,
देवघनाक्षरी, कवित्त/मनहरण।
इसके दो प्रकार हैं-
(i) साधारण वार्णिक छंद-जिस छंद रचना
के प्रत्येक चरण में अधिकतम 26 वर्ण तक
होते हैं वे साधारण वार्णिक छंद कहलाते हैं।
प्रसिद्ध छन्दों के नाम और उनकी
मात्रा आदि को इन दोहों के माध्यम
से जानते हैं-
"अष्टाक्षरी प्रमाणिका, छंद अकेला भाय।
गेय छंद यही अद्भुत,लघु गुरु बना सुहाय।।"
"वर्ण ग्यारह के वर्णिक, गिनती में है सात।
इंद्रवज्रा है प्रथम, सहज शालिनी मात।।
उपेन्द्रवज्रा स्वागता,रथोद्धता है साथ।
उपजाति भुजंगी युगल,अपनी गाते गाथ।।"
"वंशस्थ भुजंगप्रयात, बारह के हैं तात।
द्रुतविलंबित व तोटक, मिलकर करते बात।।"
"एक मात्र छंद चौदह, वसंततिलका वरन।
कवियों को सदा प्रिय यह,मानो मेरा कहन।।"
"मालिनी है पन्द्रह की, सोलह पंच चामर।
चंचला भी सोलह की, चंचल नहीं पामर।।"
"मेघदूते मंद मंद मंदाक्रांता कहत।
मैं और शिखरिणी सत्रह युगल जोड़ी अभवत।।"
"शार्दूलविक्रीडित है एक उन्नीस लाल।
स्रग्धरा धरा इक्कीस, आर्या का बहू भाल।।"
(ii)दण्डक वार्णिक छंद -जिस छंद रचना में
प्रत्येक चरण में 26 से अधिक वर्ण होते हैं
उसे दण्डक वर्णिक छंद कहा जाता है ।
3-मुक्तछन्द(Free verseयाvers libre)
कविता का वह रूप है जो किसी छन्दविशेष
के नियमों से नहीं बधा हो उसे मुक्त छन्द
कहते हैं।
मुक्तछन्द की कविता सहज भाषण जैसी
प्रतीत होती है। हिन्दी में मुक्तछन्द की
परम्परा श्री सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला
ने आरम्भ हुई।हिन्दी का मुक्त छन्द या
मुक्त काव्य ,फ्रेंच का 'वर्सलिब्र',या ‘वर्स लिबेरे',
अंग्रेजी का 'फ्री वर्स' या 'ब्लैकवर्स' के
पर्यायवाची शब्द हैं। 'मुक्त काव्य' और
'स्वच्छन्द काव्य' प्रयोगकालीन कविता के
महत्त्वपूर्ण भेद हैं। ‘वर्स लिबेरे', को हम
स्वच्छन्द काव्य कह सकते हैं।इसे रबर
या केंचुआ छंद भी कहते हैं। इसमे न
तो वर्णों की गिनती और न ही मात्राओं की
गिनती होती है।
जैसे :-वह आता दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक ,
चल रहा लकुटिया टेक ,
मुट्ठी भर दाने को
भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलता
दो टूक कलेजे को करता
पछताता पथ पर आता।
छंदो से संबंधित अति विशेष जानकारी:
1-वाचिक भार अर्थात लय को ध्यान में रखते
हुए मापनी के किसी भी गुरु 2 के स्थान पर
दो लघु 11 का प्रयोग किया जाना।
2-पिंगल के अनुसार झ, ह, र, भ, और ष इन
पाँचों अक्षरों को छंद के आरंभ में रखना
वर्जित है, इन पाँचों को दग्धाक्षर कहते हैं।
दग्धाक्षरों की कुल संख्या 19 है परंतु उपर्युक्त
पाँच विशेष हैं। वे 19 इस प्रकार हैं:- ट, ठ, ढ, ण, प, फ़, ब, भ, म, ङ्, ञ,
त, थ, झ, र, ल, व, ष, ह।
3-परिहार-
कई विशेष स्थितियों में अशुभ गणों अथवा
दग्धाक्षरों का प्रयोग त्याज्य नहीं रहता।
यदि मंगलसूचक अथवा देवतावाचक शब्द से
किसी पद्य का आरम्भ हो तो दोष-परिहार
हो जाता है।
उदाहरण :
गणेश जी का ध्यान कर, अर्चन कर लो आज।
निष्कंटक सब मिलेगा, मूल साथ में ब्याज।।
उपर्युक्त दोहे के प्रारंभ में जगण है जिसे
अशुभ माना गया है परंतु देव-वंदना के
कारण उसका दोष-परिहार हो गया है।
4-द्विकल का अर्थ है दो मात्राओं का समूह
जैसे 2 या 1/1मात्रा या वर्णों वाले शब्द
जैसे - खा, जा, ला, आ, का ,जल, चल,
बन, धन इत्यादि।
त्रिकल का अर्थ है
तीन मात्राओं का समूह जैसे- 2+1 या
1+2 या 1+1+1 मात्रा वाले शब्द।
चौकल का अर्थ चार मात्राओं का
समूह जैसे- है 2,+2 या 2+1+1 या 1+1+2 या 1+2+1 या 1+1+1+1 मात्रा वाले शब्द ।
5-ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के नवम् छन्द
में ‘छन्द’ की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है।
6-लौकिक संस्कृत के छन्दों का जन्मदाता
वाल्मीकि को माना गया है।
7-आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छन्द का
सुसम्बद्ध वर्णन किया है, अत: इसे
छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है।
8-छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है।
9-हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से
प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है।
10- ऋग्वेद में 13 यजुर्वेद में 8 और
अथर्ववेद में 5 छन्दों का प्रयोग मिलता है।
ऋग्वेद के प्रमुख 8 छन्द महत्त्वपूर्ण हैं
जिनके कुल के छन्द प्रायः संस्कृत और
हिन्दी में पाये जाते है जिन्हें
अधोलिखित तालिका द्वारा सरलता
से समझा जा सकता है -
क्रम छन्दनाम वर्ण×चरण अक्षर संख्या
1- गायत्री 8×3 24
2- उष्णिक् 7×4 28
3- अनुष्टुप 8×4 32
4- बृहती 9×4 36
5- पड़क्तिः 10×4 40
6- त्रिष्टुप 11×4 44
7- जगती 12×4 48
8- अतिजगति 13×4 52
विशेष:- शिव ताण्डव स्तोत्र,
स्त्रोत्र काव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है।
यह पंचचामर छन्द में आबद्ध है।
।।।धन्यवाद।।।
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