सोमवार, 26 दिसंबर 2022
।।अन्योक्ति अलंकार।।
।।अन्योक्ति अलंकार।।
शनिवार, 10 दिसंबर 2022
।।अनुपम का पर्याय।।
रविवार, 4 दिसंबर 2022
अमृत के पर्यायवाची
मंगलवार, 29 नवंबर 2022
√कौवा/कौआ के पर्यायवाची शब्द
शनिवार, 26 नवंबर 2022
छन्द-Verse,Poem,Metre(Poetic Meter)
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोऽपि वा ॥
। ऽ ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ
य मा ता रा ज भा न स ल गा
को समझने के लिए यह श्लोक है।
"आदिमध्यावसानेषु
यरता यान्ति लाघवम् ।
भजसा गौरवं यान्ति
मनौ तु गुरुलाघवम् ॥"
इसी बात को हिंदी के इस दोहे
में देखते हैं ।
"आदि मध्य अन्तिम गुरु,
भजस गणन में होय।
यरत गणन त्यौं लघु रहै,
मन गुरु लघु सब कोय॥"
अर्थात् भगण जगण और सगण में
क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम वर्ण
गुरु होते हैं तथा शेष लघु जैसे:
भगण SII जगण ISI सगण IIS
इसी प्रकार यगण रगण तगण में
क्रमशः पहला दूसरा और अंतिम
वर्ण लघु होते हैं तथा शेष गुरु जैसे:
यगण ISS रगण SIS तगण SSI
तथा मगण में सारे वर्ण गुरु एवं
नगण में सारे वर्ण लघु होते हैं।
शुभा अशुभ विचार –काव्य के प्रारम्भ
में ‘अगण’ अर्थात ‘अशुभ गण’
नहीं आना चाहिए।
मनभय शुभ तथा शेष जरसत
अशुभ माने जाते हैं।
वर्णवृत्त छन्दों की रचना में शुभ-
अशुभ का विचार नहीं किया जाता
किन्तु मात्रिक छन्दों की रचना में शुभ-
अशुभ गणों का ध्यान रखा जाता है।
आइए हम गणों के बारे में विस्तार से
जानते हैं:
गण चिह्न उदाहरण प्रभाव
यगण(य) ISS नहाना शुभ
मगण (मा) SSS आजादी शुभ
तगण(ता) SSI चालाक अशुभ
रगण(रा) SIS पालना अशुभ
जगण(ज) ISI वकील अशुभ
भगण(भा) SII रासभ शुभ
नगण(न) III विमल शुभ
सगण(स) IIS विमला अशुभ
8-चरण(पद/पाद)-प्रत्येक पदों के मध्य एक
या एक से अधिक यति आता है । यति से
विभाजित पद को ही चरण कहते हैं ।
प्रत्येक छंद/पद्य में कम से कम
दो चरण होतें हैं ।
शनिवार, 19 नवंबर 2022
√।।वक्रोक्ति अलंकार।।
💐वक्रोक्ति अलंकार💐
√।। स्वभावोक्ति अलंकार।।
।।स्वभावोक्ति अलंकार।।
जब काव्य में किसी वस्तु,व्यक्ति या
स्थिति का स्वाभाविक वर्णन हो तब
वहाँ स्वभावोक्ति अलंकार होता है।
इस अर्थालंकार की सादगी में ही
चमत्कार रहता है।
उदाहरण :
1. सीस मुकुट कटी काछनी
कर मुरली उर माल।
इहि बानिक मो मन बसौ
सेदा बिहारीलाल।।
2. चितवनि भोरे भाय की
गोरे मुख मुसकानि।
लगनि लटकि आली गरे
चित खटकति नित आनि।।
।।धन्यवाद।।
✓ ।।उभयालंकार(संकर-संसृष्टि)।।
।।उभयालंकार।।
जब काव्य में चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित हो तब उभयालंकार होता है।
दूसरे शब्दों में जब एक ही जगह शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों हो तब उभयालंकार होता है।
उभयालंकार के दो भेद हैं:-
1-संकर अलंकार और
2-संसृष्टि अलंकार।
1-संकर अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार दूध और पानी की तरह (नीर-क्षीर वत) मिले हुवे हो तब संकर अलंकार होता है।
यहाँ दूध और पानी की तरह ही अलंकारों अलग करना कठिन होता है।
उदाहरण:-
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
यहाँ पद पदुम में छेकानुप्रास और रुपक दोनों नीर-क्षीर की तरह ऐसे मिले है कि दोनों को अलग करना कठिन है इसलिए यहाँ संकर अलंकार है।
2:संसृष्टि अलंकार-जब काव्य में अनेक अलंकार तिल और चावल की तरह (तिल-तण्डुल वत)मिले हुवे होतब संसृष्टि अलंकार होता है।
यहाँ तिल और चावल की तरह ही अलंकारों को अलग किया जा सकता है।
उदाहरण:
जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।रामकरौ केहिभाँति प्रसंसा।मुनि महेस मन मानसहंसा।।
यहाँ पंकरुह पानि में उपमा,प्रेम जनु जाए में उत्प्रेक्षा,मुनि-महेस और मन-मानस में रुपक तथा पंक्तियों के अन्तिम पदवर्ण समान होने के कारण अन्त्यानुप्रास अलंकार तिल-तंडुल की तरह मिले हुवे हैं जिनको अलग किया जा सकता है इसलिए यहाँ संसृष्टिअलंकार है।
।।धन्यवाद।।
शनिवार, 12 नवंबर 2022
।।पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश,पुनरुक्तिवदाभास और विप्सा अलंकार।।
पुनरुक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश पुनरुक्तिवदाभासऔर विप्सा अलंकार(आवृत्ति मूलक अलंकार)
1-पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार
पुनरुक्तिअलंकार और पुनरुक्तिप्रकाशअलंकार दोनों को विद्वानों ने एक ही माना है।हम इन्हें विस्तार से अलग-अलग करके भी समझ लेते हैं।
जब काव्य में प्रभाव लाने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति एक ही अर्थ में की जाय तब वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।
पुनरुक्ति,पुनः+उक्ति से बना है । इसका अर्थ होता है आवृति, पुनरावृति या दोहराना। एक ही शब्द की जब पुनरावृति की जाती है, तो उसे पुनरुक्ति या द्विरुक्ति कहते हैं। पुनरुक्त शब्दों की रचना मुख्यतः सार्थक शब्द की पुनरावृत्ति से होती है। इसमें संज्ञा,सर्वनाम,क्रिया विशेषण आदि की पुनः उक्ति की जाती है।
ध्यान रखें जब पुनः कहे गए शब्दों के अर्थ भिन्न होते हैं तब यमक अलंकार होता है और जब शब्दों के अर्थ एक समान रहते है तब पुनरुक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण:-
1-मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
जनम सिराने अटके-अटके।।
2-विहग-विहग,फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज।
3-मधुर वचन कहि-कहि परितोषी।
4-झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघोर।
5-पुनि-पुनि मोहि दिखाव कुठारू।
चहत उड़ावन फूँक पहारू।।
6-राम-राम कहु बारम्बारा।
चक्र सुदर्शन है रखवारा।
7-राम-राम कहि राम कहि राम-राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुपति बिरह रावु गयउ सुरधाम।।
8-पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात।
2-पुनरुक्ति-प्रकाश अलंकार
"जहाँ काव्य में प्रभाव लाया जाय शब्दों को दोहराकर।
हो वह पूर्ण अपूर्ण या अनुकरण वाचक।
सभी शब्द भेदों संज्ञा से विस्मयादिबोधक तक
विभक्ति सहित शब्दों से भी बनता पुनरुक्ति प्रकाशक।"
जब विषय को प्रकाशित करने,अर्थ में रोचकता लाने अथवा उक्ति को परिपुष्ट करने के लिए किसी शब्द की आवृत्ति की जाय तब वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है।
अंग्रेज़ी में इन दोनों अलंकारों को 'टॉटोलोजी' (Tautology) कहा जाता है । फारसी तथा उर्दू में 'तजनीस मुकर्रर' कहते हैं। अधिकतर विद्वान दोनों अलंकारों को एक ही मानते हैं। अतः परीक्षा में इन दोनों में से जो नाम आए आप उसका प्रयोग करें हमभी अधिकतर विद्वानों के साथ हैं।
उदाहरण:-
1-ठौर-ठौर विहार करती सुन्दरी सुर नारियाँ।
2-हमारा जन्मों जन्मों का साथ है।
जो हमेशा-हमेशा रहेगा।
3-बनि-बनि-बनि बनिता चलीं, गनि-गनि-गनि डगदेत ।
धनि-धनि-धनिअखियाँ,सुछवि सनि-सनि -सनि सुख लेत।।
4-भरत बाहु बल सील गुन, प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत ,पुनि पुनि पवनकुमार।।
5-तात कपिन्ह सब निसिचर मारे।
महा महा जोधा संघारे।।
6-यह बृतांत दसानन सुनेऊ।
अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।
3-पुनरुक्तवदाभास अलंकार
"पुनः उक्ति होने का केवल होता है आभास जहाँ।
पुनरुक्ति व पर्याय नहीं होता पुनरुक्तवदाभास वहाँ।।"
सीधी सी बात है --पुनः उक्त वद आभास अर्थात्
जब काव्य में शब्दों की पुनरुक्ति नहीं होती है केवल पुनरुक्ति का आभास होता है,तब वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है। यहाँ आभासित शब्दों के अर्थ अलग होते हैं।
उदाहरण:-
1-अली भौर गुंजन लगे,होन लगे दल-पात।
जहँ तहँ फूले रुख तरु, प्रिय प्रियतम कहँ जात।।
अली का आभासित अर्थ भौरा पर यहाँ सखी।
पात का आभासित अर्थ दल अर्थात पत्ता पर यहाँ गिरना।
रुख का आभासित अर्थ तरु परन्तु यहाँ सूखा हुआ।
प्रिय का आभासित अर्थ प्रियतम परन्तु यहाँ प्यारे।
2-जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता।
कनक का आभासित अर्थ सुवर्ण पर यहाँ धतूरा।
3-दुल्हा बना बसंत बनी दुल्हन मन भायी।
बना का आभासित अर्थ दुल्हा पर यहाँ बनना।
बनी का आभासित अर्थ दुल्हन पर यहाँ बननाअर्थात तैयार होना।
4-सुमन फूल खिल उठे, लखों मानस मन में।
सुमन=पुष्प ,फूल काआभासित अर्थ पुष्प लेकिन यहाँ प्रसन्न और मानस का आभासित अर्थ मन लेकिन यहाँ मानसरोवर ।
5-निर्मल कीरति जगत जहान।
जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ जागृत और जहान का संसार ।
6-वंदनीय केहि के नहीं, वे कविन्द मति मान।
स्वर्ग गये हूँ काव्य रस, जिनको जगत जहान।।
जगत काआभासित अर्थ संसार लेकिन यहाँ जानना और जहान अर्थात् संसार।
7-पुनि फिरि राम निकट सो आई।
फिरि का आभासित अर्थ पुनि लेकिन यहाँ लौटकर ।
4-वीप्सा अलंकार
"आदर घृणा विस्मय शोक हर्ष युत शब्दों को दोहराये।
अथवा विस्मयादिबोधक चिह्नों से भाव जताये।
शब्द वा शब्द समूहों से विरक्ति घृणादि दर्शाये।
तह वीप्सा अलंकार बन जन जन को लुभाये।।"
अर्थात् जब काव्य में घृणा,विरक्ति, दुःख, आश्चर्य, आदर, हर्ष, शोक, इत्यादि विस्मयादिबोधक भावों को व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति की जाए तब वीप्सा अलंकार होता है।
वीप्सा का अर्थ होता है – दोहराना और पुनरुक्ति का भी अर्थ द्विरुक्ति, आवृत्ति या दोहराना होता है, इस भ्रम के कारण अनेक विद्वान दोनों को एक मान लेते हैं।लेकिन दोनो अलग-अलग हैं और दोनों में अन्तर है।
उल्लेखनीय है कि हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम भिखारीदास ने ‘वीप्सालङ्कार’ के नाम से इसे ग्रहण किया है।
वीप्सा द्वारा मन का आकस्मिक भाव स्पष्ट होता है। हम अपने मनोभावों ( आश्चर्य,घृणा,हर्ष,शोक आदि) को व्यक्त करने के लिए विभिन्न तरह के शब्दों ( छि-छि , राम-राम शिव-शिव, चुप-चुप, हा-हा,ओह-ओह आदि) का प्रयोग करते है। अतः काव्य में जहाँ इन शब्दों का प्रयोग किया जाता है वहां वीप्सा अलंकार होता है। साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना है कि जब भी काव्य में किसी शब्द के बाद विस्मयादिबोधक चिह्न(!) पाया जाय वहाँ वीप्सा अलंकार होगा।
उदाहरण :-
1-चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन!
नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन!
2-शिव शिव शिव ! कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
3-राम राम ! यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
4-उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया।
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है!
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है!
5-मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला…
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे!
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे!
6-अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो -बढ़े चलो !
7-हाय ! क्या तुमने खूब दिया मोहब्बत का सिला।
8-धिक ! जीवन को जो पाता ही आया विरोध।
धिक ! साधन जिसके लिए सदा ही किया सोध।
9-रीझि-रीझि रहसि-रहसि हँसी-हँसी उठे!
साँसे भरि आँसू भरि कहत दई-दई!
उक्त उदाहरणों से एक और बात स्पष्ट होती है कि वीप्सा अलंकार में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता प्रगट होती है।
।।धन्यवाद।।
सोमवार, 31 अक्तूबर 2022
।।प्रतीप अलंकार।।
प्रतीप अलंकार
प्रतीप का अर्थ है - विपरीत अथवा उल्टा।
जहाँ उपमेय का कथन उपमान के रूप में तथा उपमान का कथन उपमेय के रूप में कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।अर्थात जहाँ उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है, तब वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। दूसरे शब्दों में --"जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय की तुलना में अपकर्ष प्रकट होता है, वहाँ प्रतीप अलंकार होता है।"यह उपमा अलंकार का उल्टा होता है क्योंकि इस अलंकार में उपमान को लज्जित, पराजित या नीचा दिखाया जाता है और उपमेय को श्रेष्ट बताया जाता है।प्रतीप अलंकार के पाँच भेद हैं:-
(1)- जहाँ प्रसिद्ध उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान की तरह प्रयुक्त किया जाता है:-
जैसे:-
1-सखि! मयंक तव मुख सम सुन्दर।
2-बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम।।
3-लोचन से अंबुज बने मुख सो चंद्र बखानु
(2)-जहाँ उपमान को उपमेय की उपमा के अयोग्य बताया जाता है:-
जैसे:-
1-अति उत्तम दृग मीन से कहे कौन विधि जाहि।
(3)-जहाँ प्रसिद्ध उपमान का उपमेय के द्वारा निरादर किया जाता है अर्थात उपमेय के सामने उपमान को हीन दिखाया जाता है,
जैसे:-
1-तीछन नैन कटाच्छ तें मंद काम के बान।
2- बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।
सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
(4)-जहाँ पहले उपमेय की उपमान के साथ समानता बताई जाय अथवा समानता की सम्भावना प्रगट की जाय तथा बाद में उसका खण्डन किया जाता है:-
जैसे:-
1-प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा।
सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।
सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥
(5)-जहाँउपमेय के होने की स्थिति में उपमान को व्यर्थ बताया जाता है:-
जैसे:-
1-मुख आलोकित जग करे,कहो चन्द केहि काम।
2-दृग आगे मृग कछु न ये।
अन्य प्रसिद्ध उदाहरण:-
1. चन्द्रमा मुख के समान सुंदर है।
2. गर्व करउ रघुनंदन घिन मन माँहा।
देखउ आपन मूरति सिय के छाँहा।।
3. जग प्रकाश तब जस करै।
बृथा भानु यह देख।।
4 .उसी तपस्वी से लंबे थे,
देवदार दो चार खड़े ।“
5. जिन्ह के जस प्रताप के आगे।
ससि मलीन रवि सीतल लागे।
6.नेत्र के समान कमल है।
7.इन दशनों अधरों के आगे क्या मुक्ता है, विद्रुम क्या?
8. नाघहिं खग अनेक बारीसा।
सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।।
9.भूपति भवन सुभायँ सुहावा।
सुरपति सदनु न पटतर पावा॥
10-गरब करति मुख को कहा चंदहि नीकै जोई।
।।धन्यवाद।।
शनिवार, 8 अक्तूबर 2022
।।अलंकार परिचय।।
"अलंकार" |
शब्द अर्थ बारौ कवित, बिवुध कहत सब कोई॥"
2. अर्थालंकार-अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करने वाले अलंकार अर्थालंकार कहलाते हैं। यहाँ जिस शब्द से जो अलंकार सिद्ध होता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी वही अलंकार सिद्ध होताा है क्योंकि अर्थालंकारों का संबंध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। अर्थात्
"जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है ।"
अर्थालंकार पाँच प्रकार के होते हैं –
- सादृश्यमूलक अर्थालंकार
- विरोधमूलक अर्थालंकार
- शृंखलामूलक अर्थालंकार
- न्यायमूलक अर्थालंकार
- गूढार्थमूलक अर्थालंकार
इन पांचों के आधार अर्थालंकार के निम्नभेद हैं:उपमा अलंकार रूपक अलंकार उत्प्रेक्षा अलंकार दृष्टांत अलंकार संदेह अलंकार अतिश्योक्ति अलंकार उपमेयोपमा अलंकार प्रतीप अलंकार अनन्वय अलंकार भ्रांतिमान अलंकार दीपक अलंकार अपह्नुति अलंकार व्यतिरेक अलंकार विभावना अलंकार विशेषोक्ति अलंकार अर्थान्तरन्यास अलंकार उल्लेख अलंकार विरोधाभाष अलंकार असंगति अलंकार मानवीकरण अलंकार अन्योक्ति अलंकार काव्यलिंग अलंकार स्वभावोक्ति अलंकार आदि।
3.उभयालंकर:जहाँ चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित रहता है वहाँ उभयालंकार माना जाता है।
उभयालंकार के निम्न भेद माने गए हैं: संकर अलंकार और संसृष्टि अलंकार।
तीनों अलंकारों के विभिन्न भेदों को हम आगे विस्तार से पढ़ेंगे।
।। इति ।।
सोमवार, 8 अगस्त 2022
संस्कृत सूक्ति सुधा
पश्य मूषिकमित्रेण कपोताः मुक्तबन्धनाः ।।4।।
श्रृगालेन हतो हस्ती गच्छता पंक्ङवर्त्मना ।।5।।
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ।।12।।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता॥13।।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,धनात् धर्मं ततः सुखम्॥14।।
अहितो देहजो व्याधि हितमारण्यमौषधम ।।15।।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् ।
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् ।।18।।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।19।।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥20।।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः।।21।।
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।22।।
गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।23।।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ।।24।।
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ।।26।।
कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत् ।।27।।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।28।।
विनये भॄत्यपरीक्षा दानपरीक्षाच दुर्भिक्षे।।30।।
पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम् ।।31।।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धय:।।32।।
प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।34।।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।35।।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।36।।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।37।।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।।38।।
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।39।।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं।।40।।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।।41।।
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।।42।।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।43।।
करणेन च तेनैव चुम्बिते प्रतिचुम्बितम्।।45।।
सचह्रदामतिशङ्का च त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।46।।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत्।।47।।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।।49।।
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति।।50।।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।51।।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।53।।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।54।।
तृणीकरोति तृष्णैका निमेषेण नरोत्तमम्।।55।।
उत्तमाः मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम्।।56।।
व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिप्वस्तथा।।57।।
व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।58।।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पण्डितः।।59।।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।60
वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा।।61।।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।62।।
मूढ़े: पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।63।।
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम्।।64।।
एतदेवातिपाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम्।।65।।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।66।।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात अपि गरीयसी।।67।।
तथा सत्यं विना धर्मः पुष्टिं नायाति कर्हिचित्।।68।।
साधवो नहि सर्वत्र,चंदन न वने वने।।69।।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।70।।
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो,
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः ।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायस:,
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥112।।
सेवितव्यो महावृक्षः फलच्छायासमन्वितः ।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन_निवार्यते ॥113।।
संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ।
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा ॥114।।
विचित्रे खलु संसारे नास्ति किञ्चिन्निरर्थकम् ।
अश्वश्चेद् धावने वीरः भारस्य वहने खरः ॥115।।
सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ।।116।।
सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।।117।।
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।
स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ।।
अकीर्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः ।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।।119
सर्वं परवशं दु:खं सर्वं आत्मवशं सुखम_।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख-दु:खयो:।।120
कलहान्तानि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौहृदम् ।
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशोनॄणाम्।।121
दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥122।।
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्।।123।।
खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥124।।
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति॥125
यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते ।
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥126।।
पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति ।
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ॥127।।
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निवॄति: ।
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते ॥128।।
आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे:।।129।।
आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते ।
नीयते तद् वॄथा येन प्रमाद: सुमहानहो ॥130।।
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥131।।
आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् ॥132।
परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम्।
धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:।।133।।
उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा: ।
परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि:।।134।।
ऊँटों के विवाह में गधे गाना गा रहे हैं। दोनों एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं।गधा ऊँट की प्रशंसा में कहता है वाह ! क्या रुप है?ऊँट गधे की प्रशंसा में कहता है वाह! क्या आवाज है?वास्तव मे देखा जाए तो ऊँटों में सौंदर्य के कोई लक्षण नहीं होते हैं और न ही गधों में अच्छी आवाज के। परन्तु कुछ लोग उत्तम क्या है ? जानते ही नहीं और जो प्रशंसा करने योग्य नहीं है उसकी प्रशंसा करते हैं उन्हीं पर यह बहुत ही सटीक सूक्ति है।
आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं
समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥135।।
न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥136।।
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् ॥137।।
एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम॥138
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम् ।
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् ॥139।
अनालस्यं ब्रह्मचर्यं शीलं गुरुजनादरः ।
स्वावलम्बः दृढाभ्यासः षडेते छात्र सद्गुणाः ॥140।।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ।।141।।
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥142।।
मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥143।।
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥144।।
।।धन्यवाद।।
मंगलवार, 2 अगस्त 2022
मृत्युंज्यस्तोत्रं/भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी
।।विनियोग।।
ॐ अस्य श्री सदाशिवस्तोत्र मन्त्रस्य मार्कंडेय ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः श्री साम्ब सदाशिवो देवता गौरी शक्ति: मम सर्वारिष्ट निवृत्ति पूर्वक शरीरारोग्य सिद्धयर्थे मृत्युंज्यप्रीत्यर्थे च पाठे विनियोग:॥
॥ अथ ध्यानम् ॥चंद्रार्काग्नि विलॊचनं स्मितमुखं पद्मद्वयांत: स्थितं
मुद्रापाशमृगाक्ष सूत्रविलसत्पाणिं हिमांशुप्रभम् ।कॊटींदुप्रगलत् सुधाप्लुततनुं हारातिभूषॊज्वलंकांतां विश्वविमॊहनं पशुपतिं मृत्युंजयं भावयॆत्।। ।।पाठ।।ॐरत्नसानुशरासनं रजताद्रिश्रृंगनिकेतनं शिण्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम्।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
पंचपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजव्दयशोभितं भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम्।
भस्मदिग्धकलेवरं भवनाशिनं भवमव्ययं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोहरं पंकजासनपद्मलोचनपूजिताड़् घ्रिसरोरुहम्।देवसिद्धतरंगिणीकरसिक्तशीतजटाधरं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम: ।।
कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वर कुण्डलं वृषवाहनं नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम्।
अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजंगविभूषणं शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम्।
क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम्।
भुक्तिमुक्तिफलप्रदं निखिलाघसंघनिबर्हणं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम्।
भूमिवारिनभोहुताशनसोमपालितस्वाकृतिं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं संहरन्तमथ प्रपंचमशेषलोकनिवासिनम्।
क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यम:।।
ॐ रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥नीलकण्ठं विरुपाक्षं निर्मलं निर्भयं प्रभुम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥कालकण्ठं कालमूर्तिं कालज्ञं कालनाशनम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥वामदेवं महादेवं शंकरं शूलपाणिनम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥देव देवं जगन्नाथं देवेशं वृषभध्वजम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥गंगाधरं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥भस्म धूलित सर्वांगं नागाभरण भूषितम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥आनन्दं परमानन्दं कैवल्य पद दायकम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टि स्थित्यंत कारणम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥प्रलय स्थिति कर्तारमादि कर्तारमीश्वरम्।नमामि शिरसा देवं किन्नो मृत्यु: करिष्यति॥ ।।।फलश्रुति।।मार्कंडॆय कृतं स्तॊत्रं य: पठॆत् शिवसन्निधौ ।तस्य मृत्युभयं नास्ति न अग्निचॊरभयं क्वचित् ॥ शतावृतं प्रकर्तव्यं संकटॆ कष्टनाशनम् ।शुचिर्भूत्वा पठॆत् स्तॊत्रं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ॥ मृत्युंजय महादॆव त्राहि मां शरणागतम् ।
जन्ममृत्यु जरारॊगै: पीडितं कर्मबंधनै: ॥ तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्व च्चित्तॊऽहं सदा मृड ।
इति विज्ञाप्य दॆवॆशं त्र्यंबकाख्यममं जपॆत् ॥ नम: शिवाय सांबाय हरयॆ परमात्मनॆ ।
प्रणतक्लॆशनाशाय यॊगिनां पतयॆ नम: ॥ मार्कण्डेय कृतंस्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ।तस्य मृत्युभयं नास्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥सत्यं सत्यं पुन: सत्यं सत्यमेतदि होच्यते।प्रथमं तु महादेवं द्वितीयं तु महेश्वरम॥तृतीयं शंकरं देवं चतुर्थं वृषभध्वजम्।पंचमं शूलपाणिंच षष्ठं कामाग्निनाशनम्॥सप्तमं देवदेवेशं श्रीकण्ठं च तथाष्टमम्।नवममीश्वरं चैव दशमं पार्वतीश्वरम्॥रुद्रं एकादशं चैव द्वादशं शिवमेव च।एतद् द्वादश नामानि त्रिसन्ध्यं य: पठेन्नरः॥ब्रह्मघ्नश्च कृतघ्नश्च भ्रूणहा गुरुतल्पग:।सुरापानं कृतघन्श्च आततायी च मुच्यते॥बालस्य घातकश्चैव स्तौति च वृषभ ध्वजम्।मुच्यते सर्व पापेभ्यो शिवलोकं च गच्छति।। ।।इति श्री मार्कण्डेयकृतं मृत्युंज्यस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।
शिवजी की ये मंत्र प्रसिद्ध हैं पहला पंचाक्षर मन्त्र ।।ॐ नम: शिवाय।। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ।।ॐ ह्रौं जू सः ॐ भूः भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जू ह्रौं ॐ ॥ इनके अलावा शिवजी केअन्य तंत्र- मंत्र भी हैं।
।।धन्यवाद।।
श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र/पुत्र प्राप्ति एवं सर्व कार्य प्रदाता शिव अभिलाष्टक स्तोत्र
श्री शिव अभिलाषाष्टक स्त्रोत्र
इस अभिलाषाष्टक नामक पवित्र स्तोत्र को तीनों समय भगवान शिव के समीप यदि पढ़ा जाय तो यह सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला है । इस स्तोत्र का पाठ पुत्र,पौत्र और धन देनेवाला, सब प्रकार की शान्ति करनेवाला और सम्पूर्ण आपत्तियों का नाशक है । इतना ही नहीं, यह स्वर्ग, मोक्ष तथा सम्पत्ति देनेवाला भी है । एक वर्ष तक पाठ करने पर यह स्तोत्र पुत्रदान करनेवाला है, इसमें संदेह नहीं है। ऐसा स्वयं महादेवजी का कथन है ।
बुधवार, 20 जुलाई 2022
√।।मैना के पर्यायवाची शब्द।।
मंगलवार, 19 जुलाई 2022
।।गुरु के पर्यायवाची शब्द।।
ज्ञानी बुध मुदर्रिस ,उपाध्याय कथावाचक। शास्त्रवेत्ता शास्त्रज्ञ,कोविद धीर अध्यापक।। सुधी मनीषी श्रेष्ठ ,व्याख्याता और पंडित। गुरु द्विज उस्ताद सब, करें सदा हमें मंडित।। ।।धन्यवाद।। |
रविवार, 26 जून 2022
।।गोस्वामी तुलसीदास समग्र विवेचन।।
प्रारम्भिक जीवनः-
आप पधारे रंगे हुवे श्रीराम भक्ति के रंग में।खुली आपकी वाणी पहली बार जन्म के संग में।मुख से भई मधुर धुनि राम-राम कोकिल सी।गुन गायक सीता रामजी के।।
आँख दिखाकर दुष्ट विधर्मी भक्त जनों को डाटे।किसके मुँह में दाँत जो बात हमारी काटे।
प्रगटे दाँत लेकर बत्तीस मची हलचल सी।
गुन गायक सीता रामजी के।।
गुरुदेव राजेश्वरानंदजी के उक्त विचार और प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में बत्तीस दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला रखा गया। रामबोला के जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ/ मुनिया नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
स्वयं तुलसी ने लिखा है कि वे बाल्यकाल से ही माता-पिता द्वारा परित्यक्त कर दिये गये तथा संतत्प एवं अभिशप्त की तरह इधर-उधर घूमा करते थे—
मातु पिता जग जायि तज्यो, विधि हूँ न लिख्यो कछु भाल भलाई।
बारे ते ललात बिलतात द्वार द्वार दीन, चाहत हौं चारि फल चारि ही चनक कौं।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥
समय करवट लेता रहा ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। एक बार तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे।
पहुँच प्रिया के सन्मुख तुलसी खड़े थे खोये-खोये।
रत्ना बोली मैं तो जागी आप अभी तक सोये।
त्यागो काम राम की भक्ति करो मेरे मनसी।
गुन गायक सीता रामजी के।।
सदगुरू चक्रवर्ति सुचि सरल संत श्री तुलसी।
सुनकर शुभ संदेश आपके मन में भाव भर आया।
प्रभु पद प्रीति प्रेरणादायिनी देवी को शीश नवाया।
चल दिये राम दरस हित लगन बड़ी आकुल सी।
गुन गायक सीता रामजी के।
रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लाज के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:
धिक – धिक ऐसे प्रेम को, कहाँ कहौं मैं नाथ।।
अस्थि चर्म मय देह मम, तामें ऎसी प्रीति।
तैसी जो श्री राम में, होति न तब भवभीति ।।
देवी रत्नावली की बातों को सुनते ही उन्होंने उसी समय पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड़ दिया और राम में लीन हो गये।लगभग 20 वर्षों तक इन्होंने समस्त भारत का व्यापक भ्रमण किया, जिससे इन्हें समाज को निकट से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ये कभी काशी, कभी अयोध्या और कभी चित्रकूट में निवास करते रहे। अधिकांश समय इन्होंने काशी में ही बिताया।इसी बीच गोस्वामी तुलसीदास जी ने पूज्य गुरु नरहरिदास से सुनी कथा को मानव कल्याण हेतु महाकव्य रामचरितमानस का रुप दिया। काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित ने रामचरितमानस पर बड़ी प्रसन्नता प्रकट किया और मानस के बारे में यह अद्भुत विचार व्यक्त किया--
श्री हनुमानजी से भेट
गोस्वामीजी काशी में रहकर जनता को राम-कथा सुनाने लगे। ऐसी प्रसिद्ध किंवदंती है कि कथा के दिनों रात्रि को शौच के बाद जब तुलसीदासजी लौटते थे उस समय उनके रास्ते में एक पेड़ था वहाँ किंचित ठहरते और लोटे के बचे जल को उस पेड़ के जड़ पर डाल देते ,उस पेड़ पर एक प्रेत रहता था, एक दिन मनुष्य की आवाज में प्रेत ने अपनी व्यथा कथा कहा और तुलसीदासजी से वरदान माँगने को कहा। गोस्वामीजी ने उससे राम से मिलाने का आग्रह किया तो उसने अपनी मजबूरी बतायी ।लेकिन राम से जो उन्हें मिलवा सकता है उनके बारे में बताने की ने बात की। ओ कौन हनुमानजी। हनुमानजी कहाँ मिलेगें उसने पता बतलाया।
यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनं
तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं
मारुतिं नमत राक्षसान्तकम्॥
।।राम चरित सुनिबे को रसिया।।
अगला प्रश्न हम पहचानेगे कैसे- प्रेत ने बताया जो कथा में सबसे पहले आये सबसे बाद में जाये वही हनुमानजी हैं।एक स्थान पर कथा शुरु होने वाली रही गोस्वामी जी पहुँचे,वहाँ पहले से एक कोढ़ी बैठा हुवा था ,कथा समाप्ति तक वह वही रहा ,सभी चले गये दो नहीं।गोस्वामी जी से कोढ़ीने जाने का निवेदन किया पर गोस्वामीजी ने उनसे निवेदन किया ,दोनों एक दूसरे से निवेदन करते रहें अचानक गोस्वामी जी कोढ़ी के पैरों पर गिर गये कोढ़ी उन्हें हटाने लगा तब गोस्वामीजी ने निवेदन किया मैं आपको पहचान गया हूँ कृपया आप अपने मूल रुप का दर्शन देवें--फिर क्या-/
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुण्डल कुंचित केसा।
हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजे।।
हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्री राम का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
भगवान श्री राम से भेट
चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि एकाएक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमानजी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् 1607 की मौनी अमावश्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?"
मंदाकिनी तट रामघाट पर प्रगटे दशरथ नंदन।
बोले मधुर वाणी में धनुर्धर बाबा दे दे चंदन।
सुनकर दशा आपकी भई बहुत विह्वल सी।
सदगुरू चक्रवर्ति सुचि सरल संत श्री तुलसी।
श्री रघुवीर खड़े है सन्मुख तुलसी क्यों है रोता।
सफल करो दृग हनुमानजी बोले बनकर तोता।
शोभा रामचन्द्र की देखो नित्य नवल सी।
हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।। इस प्रकार बाबा को भगवान के दर्शन हुवे।चित्रकूट में राम घाट पर तोतामुखी हनुमानजी का मन्दिर और तुलसीदासजी का मन्दिर इस घटना के साक्षी हैं।
रचनाएँ
नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित निम्न ग्रन्थ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित बताये जाते हैं--
1-रामचरितमानस 2-रामलला नहछू 3-वैराग्य-संदीपनी 4-बरवै रामायण 5-पार्वती-मंगल 6-जानकी-मंगल 7-रामाज्ञाप्रश्न 8-दोहावली 9-कवितावली 10-गीतावली 11-श्री कृष्ण गीतावली 12-विनय पत्रिका 13-सतसई 14-छंदवाली 15-हनुमान बाहुक 16-हनुमान चालीसा आदि।
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स' में ग्रियर्सन ने भी उपर्युक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
सैकड़ो वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्णयति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।
वास्तव में तुलसीदासजी हिंदी – साहित्य की महान विभूति है ।उन्होंने रामभक्ति की मंदाकिनी प्रवाहित करके जन – जन का जीवन कृतार्थ कर दिया | रस,भाषा, छन्द, अलंकार, नाटकीयता , संवाद – कौशल आदि सभी दृष्टियों से तुलसी का काव्य अद्वितीय है ।उनके साहित्य में रामगुणगान , भक्ति – भावना , समन्वय , शिवम् की भावना आदि अनेक ऐसी विशेषताएं देखने को मिलती है , जो उन्हें महाकवि के आसन पर प्रतिष्ठित करती है ।इनका सम्पूर्ण काव्य समन्वयवाद की विराट चेष्ठा है । ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का राजपथ ही इन्हें अधिक रुचिकर लगता है।
तभी तो श्रीबेनीमाधव ने लिखा है---
बेदमत सोधि-सोधि कै पुरान सबै , संत औ असंतन को भेद को बतावतो ।
कपटी कुराही कूर कलिके कुचाली जीव, कौन रामनामहू की चरचा चलावतो ॥
बेनी कवि कहै मानो-मानो हो प्रतीति यह , पाहन-हिये में कौन प्रेम उपजावतो ।
भारी भवसागर उतारतो कवन पार, जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो ॥
गोस्वामी तुलसीदास जी एक ऐसी महान विभूति जिनको पाकर कविता-कामिनी धन्य हो गयी तभी तो महाकवि हरिऔधजी ने लिखा है---
कविता करके तुलसी न लेस ।
कविता लसी पा तुलसी की कला ।।
हिंदी साहित्य के कवियों के नाम आते हैं तो श्रेष्ठता का एक प्रश्न भी उठ खड़ा होता है. इस श्रेष्ठता के प्रश्न को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक दोहे से दूर करने की कोशिश की थी.
सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम जह-तह करत प्रकाश॥
मृत्यु
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। यह तथ्य सर्वमान्य है कि संवत् 1680 (सन् 1623 ई०) में सावन कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में निम्न दोहा भी प्रचलित है –
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर ।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।।
इस प्रकार मानवता और समरसता का पुजारी हिन्दी साहित्य गगन का मार्तण्ड सदा सदा के लिए गोलोक अस्ताचल को अपना निवास बना लिया।
।।जय श्री राम।।
शुक्रवार, 24 जून 2022
√।।जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना पर सत्सङ्ग का प्रभाव।।।
हम तो मनुष्य है यहाँ तो जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।अर्थात सबकी बात ही कह दी गयी है- इन सभी को जानने के बाद हम मूल प्रश्न का जबाब स्वयं ही पा जायेगे देखते है--
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥
सतसंगत मुद मंगल मूला।