विश्व में यत्र-तत्र अनाम अनगिनत अकूत अप्रत्याशित-प्रत्याशित,अलौकिक-लौकिक आचार-विचार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भरे पड़े है पर हमें दिखायी नहीं देते हैं,पर दिखायी दे भी जाते हैं।मैं ऐसे ही ऐसी बात की चर्चा कर रहा हूँ।पर इसमें भी सुधि समाज शोध कर ही लेगा।घर-परिवार से दूर अचानक एकाएक होने पर homesick का मरीज अक्सर बच्चे हो ही जाते हैं, जिसका प्रभाव हम पर भी पड़ना स्वाभाविक ही रहा।श्री नरेंद्र दुबे दिल दिमाग से दुरुस्त पर इसके मरीज।कारण मुझे 26 जनवरी 1987 को मालूम हुआ। इस दिन स्व अनुभूति का प्रत्यक्षीकरण समझदार होने की स्थिति में पहली बार हुआ।पूर्व की बातें तो इक खिलवाड़ की तरह खेलते हुवे मैं चल रहा था।पर आज का अनुभव अपने से हटकर दूसरे को निकट से अनुभव करने का दिन रहा।तब तक मैं अपनी दुनिया से बाहर नहीं निकला था।आज दूसरो की अति स्नेहमयी-ममतामयी दुनिया को निकट से देखने समझने परखने और अनुभव करने का शानदार अवसर मिला था।मानव मन अज्ञान या अनुभव की कमी से अपने आगे किसी को मानता ही नहीं।आज मेरी यह अज्ञानता कि मैं मेरा सबसे अच्छा है दूर हुआ।मुझे इसे दूर कराने वाला अनुभव मिला।वैसे हमारे साहित्य में सब कुछ पहले से ही लिखा गया है और हमारे अग्रज जीवट के परम धनी मेरे प्रेरणास्रोत भैया श्री कृष्ण शंकर तिवारी तो हमेशा कहते रहते और अब मैं भी कहता हूँ कि स्व अनुभव से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं।अब आप से यह अनुभव बाटना ही है।जनवरी 26 को हमारा गणतंत्र दिवस है।विश्व विद्यालय में नाम मात्र के ही कार्यक्रम हुवे।इधर-उधर घूमने के बाद दोपहरी कर शाम को श्री दुबे के साथ मैं घूम रहा था।वह बार-बार अपने परिवार के बारे में बात करता दूसरी बात करता ही नहीं।मैंने कहा चलो फिर आज तुम्हारे गाँव ही चलते हैं फिर क्या उसने न आव देखा न ताव झट तैयार।समय भागता जा रहा था लगभग 5 बज गया होगा,मुझे तो उसके गाँव के रास्ते आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं रही उसने ही इधर-उधर हिसाब लगाया कि यह रास्ता लम्बा है और यह रास्ता छोटा।छोटे रास्ते से यात्रा आरम्भ करने का निर्णय।बस्ती के लिए बस मिल गयी।हम सवार हो हए।गोरखपुर से बस्ती लगभग 75किमी है।हम जब बस्ती पहुँचे।दुबेजी की वांछित बस जा चुकी थी।अब 8 बजे बस थी।उसी का सहारा।सवार हुवे।बस 10 बजे के आस-पास कलवारी पहुँची।कलवारी से अब कोई साधन नहीं।ग्यारह नम्बर ही सहारा।उस रात गणेश चतुर्थी रही।अतः तब तक चाँदनी आसमान में अपनी छठा बिखेरना प्रारम्भ कर चुकी।कलवारी से सरयू तट टांडा तक की दूरी पक्की तो मुझे ध्यान नहीं पर दस किमी के आस-पास तो होगी ही पैदल तय करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं।दोनों नवयुवक जोश भरपूर यात्रा करनी ही थी।सरयू तट आते-आते आधी रात हो गयी।उस पार के लिए नाव आवश्यक।थोड़े समय पहले ही खेप उतारकर नाविक सोने जा रहा था जैसा की उसने हमें बताया।एक बार तो उसने मना ही कर दिया।पर दुबे ने जब अपने मामा का हवाला दिया तो नाविक ने हमे पार उतार दिया।किसी के नाम का प्रभाव का प्रत्यक्ष अनुभव।जो व्यक्ति साफ मना कर दिया था। झट तैयार हो फट पार उतरा।नाम का प्रताप।मैं जब बाबा तुलसी को कभी-कभी पढ़ता हूँ तो सहज ही असहज सोच में पड़ जाता हूँ कि इस महामुनि ने इन सब बातों को इतनी सरलता से कैसे कह दिया जो सर्व काल सत्य हैं।राम ते अधिक राम के नामा।हम पार हुवे।पर दुबे का गाँव अभी भी दूर को कौड़ी ही रहा।सरयू तट से टांडा शहर की दूरी भी ग्यारह नम्बर से ही तय करनी थी की गयी।टांडा से दुबे का गाँव ओबरा जो सूरापुर ममरेजपुर,अकबरपुर रोड पर पड़ने वाले चौराहे पर उतर कर पैदल चलने के बाद आने वाला था की दूरी अभी तो बाकी ही थी।खैर टांडा पहुँचते ही कपड़ो से भरा एक जीप अकबरपुर की ओर जाने के लिए निकल ही रही थी कि हम दौड़ कर लटक लिए।लटक लिए क्या पकड़ लिए और जीप ड्राइवर और व्यापारी के लाख मना करने पर भी लटके ही रहे तथा दुबे ने बता दिया कि हम क्यों लटके हैं कब तक और कहाँ तक लटकेगे।उन्हें भी जल्दी थी और वो भी दो ही थे व्यापारी बुढ्ढा था मजबूरी या सहानुभूति जो भी हो हमें उस जीप ने सुरापुर ममरेजपुर चौराहे पर छोड़ दिया।अब दुबे के जी में जी आया और उसने चैन की सास लिया।यहाँ से ओबरा दो पग पर ही है।पहुँच गये दो बजे रात को ही घर।
कूप मंडूक मैं अपने आप को और अपने माँ-बाप तथा परिवार को जो मान्यता दे रखा था वो आज हल्की न कहे तो भी हल्की और अधिकतम समानांतर दिखी।उस समय उस परिवार में हमारे माता-पिता या यो कहे पति-पत्नी ही मौजूद रहे।उनके अंदर वात्सल्य उछाले मार रहा था।पुत्र प्रेम पराकाष्ठा पर।चूँकि उस रात गणेश चतुर्थी का माताजी का व्रत था अतः पिताजी भी व्रत पर ही थे।भोजन पका ही नहीं था अतः थोडा बहुत बचने नहीं बचने का सवाल ही नहीं।हमने भी भोजन बावत मना कर दिया।लेकिन पिताजी ने तुरन्त उस समय के अनुरुप आवश्यकताओ की व्यवस्था किया कि माताजी ने चौथ का प्रसाद प्रस्तुत कर दिया। प्रसाद की व्याख्या बहुतो ने अपने-अपने ढंग से किया ही है जिसमे प्र से प्रभु सा से साक्षातऔर द से दर्शन की बात काफी कही और सुनी जाती है।अर्थात् प्रभु का साक्षात दर्शन ही प्रसाद होता ही है। वैसे माता-पिता ही प्रभु रुप हैGod can't reach everywhere so he creats parents.ईश्वर, माता-पिता को मान लेना आज के युग परिवेश में सहज सरल नहीं है।यह व्यक्तिशः मामला है क्योकिआज-कल तोभगवान पर भी सवाल उठाने वालो की जमात खड़ी हो गयी है।प्रसाद में गंजी जिसे शकरकंद भी कहते हैं, मिट्ठा अर्थात् गुड़ और तिल केलड्डू।प्रसाद पाया गया ही था कि तब तक गर्मागर्म भोजन भी सामने हाजिर।मैंने पिताजी से कहा कि आप ने इतना कष्ट क्यों किया तो जबाब तो सुने जरा अरे तिवारी अभी रात को पुलिस वाले आ जाय उनको खाना हर हाल में बना कर खिलाना ही पड़ेगा यहाँ तो मेरे बेटे आये हैं।पुलिस का भय बस स्वागत जब हम कर सकते हैं तो प्रेमाश्रय का प्रेम से क्यों नहीं।उस समय पिताजी की जुबान से पुलिस का आतंक सुन मैं बहुत दुःखी हुआ।मेरे मन में पुलिस,पुतरिया,पातकी के बारे
में पिताजी के अनुसार इनके निकृष्ट होने की धारणा बलवती हो गयी।पर समाज का बहुसंख्यक इनके बारे में क्या विचार,धारणा या भाव रखता हैं वही हम सबको मानना चाहिएऔर इनको भी समाज का सम्मान करते हुवे अपना व्यवहार ऐसा बनाना चाहिए कि समाज कही भी किसी रुप में इन पर अंगुली नहीं उठा सके वैसे समाज की अपनी सोच अपना पैमाना है अलग अलग वर्ग पर विचार व्यक्त करने का।मानव समाज का जातियों के साथ ही साथ धर्मो, सम्प्रदायों और इन सबसे ऊपर वर्गों के रुप में जो अप्रतिम वर्गीकरण हुआ है उसके बारे में कुछ भी कही भी स्पष्ट नहीं मिलता।हर जगह अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग ही दिखायी देता है।इन इन्सानों ने फिर नौकरी चाकरी वालों का वर्ग बनाया और अलग अलग वर्ग के बारे में अलग अलग विचार और धारणाओं को ऐसे थोप दिया जैसे ये सब ध्रुव सत्य हैं जबकि कोई भी धारणा या विचार कम से कम मानव के प्रति हमेशा के लिए कभी भी शत प्रतिशत सत नहीं हो सकता।खैर पिताजी का विचार अपनी जगह सत्य भी हो सकता है मैं उनके कथ्य को कहा जो सत्य असत्य कुछ भी हो सकता है साधु जन समाज की सुधी लेते हुवे इसमें सुधार करा ले तो अत्युत्तम।सारा आचार व्यवहार खुला अपनेपन से ओतप्रोत।झूठ-सत्य का विचित्र तर्क।दुबे ने मुझे रास्ते में कह दिया था कि हमारी स्थिति को पिताजी देखते ही पहचान जायेगे।हुआ ठीक वैसे ही।आप लोग कलवारी से सरयू तट तक पैदल चल के आ रहे है प्रश्न तिवारी से पर जबाब दुबे दे रहे है अरे नहीं बस पंचर हो गयी थी उसके बनने में बहुत समय लग गया।आगे बिना प्रश्न के सोने की व्यवस्था हुई और हम सो गये।
हमारा यह प्रवास दो दिन का रहा।इस दौरान भोजपुरी से अवधी का मिलान हुआ।मैं जब यदा-कदा जाने-अनजाने माताजी के सामने भोजपुरी बोल देता तो उन्हें समस्या हो जाती।उनकी अवधी जो ठेठ होती हमारे लिए समस्या हो जाती।हिन्दी सर्व ग्राह्य रही।भाषा का महत्त्व अतुलनीय है।वहाँ के आवास में भी हल्का-फुल्का अन्तर दिखा।सरयू से नजदीक होने के कारण पानी पवित्र खेत उपजाऊ।बाग-बगीचे हरे-भरे।चारों ओर हरियाली चादर।पर दुबेजी के गाँव में अंध-बिश्वास जो देखने को मिला वह चिन्तनीय।बीमार बच्चे के लिए सोखा-ओझा, ताबीज,भोपा का कारनामा देखने-सुनने को मिला।माननीय प्रधान मन्त्री श्रीमान नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता का वहाँ उस समय मुझे कोई स्थान नहीं दिखा।खैर मैं वहाँ के आज से उनतीस साल पहले की स्थिति बया कर रहा हूँ।आज 4जनवरी2015 को मैंने दुबे से मोबाईल पर बात किया तो ज्ञात हुआ कि आज-कल उस सरयू तट पर पुल बन गया है और बसें आ-जा रही हैं तथा यात्रा सुगम हो गयी है।time is great helder।समय सब दुःखों की चिकित्सा है।अतः मैं उम्मीद करता हूँ की वहाँ सफाई भी अब सुधार पर होगी।खान-पान भारतीय तौर-तरीके से जमीन पर बैठ कर।भोजन सामग्री द्वारा भोजपुरी-अवधी में कोई दर्शनीय अन्तर नहीं दिखा।पर चावल का स्वाद बहुत मीठा।चावल प्रिय भोजन।बचपन से आज तक यह मेरा प्रिय बना हुआ है।साग-सब्जी की प्रचुरता।दुसरे दिन मैंने वापस विश्व विद्यालय लौटने की बात दुबेजी के पिताजी के सामने कही तो पिताजी ने कहा अरे क्या बिष विद्यालय की बात तिवारीजी आप भी कहते है।मैंने कहा पिताजी बिष नहीं,विश्व।पिताजी का मजाकिया और खुशमिजाज स्वभाव मुझे देखने को मिला।उन्होंने जोर देकर समझाया अरे नहीं वह बिष विद्यालय ही है।मैंने कहा कैसे तो बताये कि इतनी बड़ी संस्थाओं का परिवेश-वातावरण बाहर से आने वाले नवयुवकों के लिए एकदम नया और हर अच्छाई-बुराई के लिए खुला होता है,जहाँ बुराई बिष के समान है जो सुरसा मुँह बनाये खड़ी रहती है अत्यधिक नवागन्तुक इस बिष के प्रभाव से ग्रस्त हो जाते हैं।मेरा ऐसा आप दोनों के समक्ष कहने का एक मात्र आशय यही है कि आप लोग इसके दुष्प्रभाव से बच कर रहे।पिताजी की इस बात का प्रभाव हमारे जीवन पर जीवन पर्यन्त बना रहे और मैं क्या दूसरे भी समाज में यत्र-तत्र संस्था आदि स्थानों में फैली इस बिष-बुराई से बच कर रहे।इस यात्रा ने दुबेजी से पारिवारिक तादात्म्य ला दिया जो आज तक कायम है।वास्तव में मुझे यह बात शत प्रतिशत सत्य प्रतीत होती है कि you have only one or two friends who are nearest, dearest and closest.इस तरह हमारी इस यात्रा ने एक नया अनुभव एवं अजीज दोस्त दिया।हम वापस गोरखपुर आ कर अपने-अपने पठन-पाठन में लग गए।
क्रमशः
बुधवार, 30 दिसंबर 2015
स्वानुभूति(एक आत्मकथा)गतांक से आगे।।6।।an autobiography self experience part 6
सोमवार, 28 दिसंबर 2015
ठोकर
जग रंगमंच पर उलझ खा जाता जन ठोकर।
जीवन ज्योति जले श्रम तेल लिप्त ही होकर।।
कर कल्याण करुणा कलित हृदय तू पाकर।
निज-पर से भी ज्ञान भरो वसुधा अपनाकर।1।
ठोकर गुरु से ले भान मान मन में महा मान।
ऐसे नहीं जिनसे दर्द छिपा दिल जला जान।।
संगम इनसे जीवन भर कदम तले ही हान।
अपना ही ठोकर देता है नित नव-नव ज्ञान।2।
कब कहाँ कैसे क्रोध-काम बस खाते ठोकर।
प्रेम-धर्म पथिक पाते पावन पान-मान सोकर।।
परम प्रीत मित हैं यह बड़े इन्हें गले लगाकर।
अद्भुत दे मानव को ये जग में खूब झेलाकर।3।
अप्रत्याशित होकर प्रत्याशित फल-फूल भरे।
अब-तब सब रूपों में इनकी नेह सम्मान झरे।।
हर ठोकर इक शिक्षा दे सद का ही मान करे।
आगे बढ़े बढ़ाये निज जीवन में सम्मान करे।4।
सोमवार, 14 दिसंबर 2015
रिश्ते
घर परिवार देश काल
हैं सम्बन्धों के महाजाल।
जन्म कर्म व्यवहार
से बना इंसा का संसार।।
पशु पंक्षी जीव जन्तु
भी रखते अपने महातन्तु।
अंडज स्वेदज पिंडज
में समाहित है यह जग।।
आइये देखे परखे
इन सब रिश्तों के लेखे ज़ोखे।
पारिवारिक व्यवहारिक
अगनित रिश्ते है सामाजिक।।
अविश्वास-विश्वास
से बधा हर रिश्ते का महारास।
तोड़ना-जोड़ना
स्वार्थ हित मुँह मोड़ना।।
पर सुधार अपेक्षा
निज कार्य-अकार्य है स्वेच्छा।
दोपहर के धूप
का अवसान होता ही है समीप।।
अरुणोदय सा उदय
विकास के उतुंग शिखर पहुँचे सहृदय।
दुःख-सुख धूप-छाँव
हर रंग को पाना ही है रिश्तों के ठाव।।
प्रेम-सेतु संयोजक
कदम कदम है आयोजक नियोजक।
ईर्ष्या-भीत बाधक
है निज-पर का बन सर्वकाल घालक।।
माँ-बाप
निज सुख शान्ति के त्याग स्वरूप।
नहीं हारे
पर से निज से है पग-पग पर हारे।।
भैया-बाबू
एक दूसरे पर निर्भर, नही बेकाबू।
नाना-नानी
मामा-मामी,काका-काकी की कहानी।
जब होनी
कद्र सबकी धर्म कर्म मर्म से जुबानी।।
धर्म-राह
इंसा-पशु को विलग दे हरदम साह।
विश्वास घात
जनक है यह इस जहा में महापात।।
रिश्ते हैं
अजर अमर पुण्य पुञ्ज समूह हैं।
बने रहे
मिल अवयव बहु जू रस अहे।।
रविवार, 13 दिसंबर 2015
दुःख-बदली बाद ही होता सुख-बरसात है।
चहु युग की व्यथा-कथा मिलती समान है।
जीव जन्तु जाति जमात जीता जू जहान है।।
रिश्तों की कलियां पुष्पित हो पाती मान है।
दुःख-बदली बाद ही होता सुख-बरसात है।।1
रिश्ता नैसर्गिक निष्कपट निश्छल निर्विकार।
अगनित अकूत अपेछित भावों का है सुमार।
पर हित पोषित लालसा-त्याग जहाँ भरमार।
सुख-शांति दिन-रात वहाँ करें स्वप्न साकार।।
जन्मजात रिश्ते परिवार-समाज के हैं आधार।
जननी-जन्मभूमि सत-असत सम्बन्ध सत्कार।
जगत सुत की कामना किंचित कहीं न दरार।
जग में आन-मान से भू-भाग भर भोगे भरमार।।
बनते-बिगड़ते इस जहां सम्बन्धअमिय-जहर।
प्रगाढ़ प्रेम विश्वास सूरज सा दे ज्योति लहर।
अनाम नाम अनगिनत सम्बन्ध हैं हर डगर पर।
जिनसे जीवन मंगल भागे भय सिहर सिहर।।
अब सोच समझ कर बनाये बने हिस्सेदार।
मैं हो शियार होते यहाँ रिश्ते में मैं हूँ सियार।
अपने वा अपना बन नहो गला घोटू रिश्तेदार।
अमर सम्बंध को नित नूतन बना हे धरा धार।।
रविवार, 15 नवंबर 2015
केवल इंसा बने पंचतत्त्व सिखा जा रहा है।
अजी इस जहां में आज गजब हो रहा है।
सम्बन्धों में नित नव दरार पड़ रहा है।।
कौरव-पांडव सा जग सर्वत्र लड़ रहा है।
रिश्तों का बन्धन तार-तार हो रहा है।।1।।
भीष्म भी भाग्य- बन्धन बधा जा रहा है।
कृष्ण भी कलि ग्रास अब बना जा रहा है।।
खुली आँखो कायनात धृतराष्ट्र बन रहा है।
शकुनी मामा नित नव भांजा फ़सा रहा है।।2।।
पुत्री-कुंती सरेआम चिर हरण हो रहा है।
शक्ति सुत दुर्योधन सुख मदी हो रहा है।।
शक्तिधारी माया-मोह से मोहित हो रहा है।
फेसबुक मित्रो का फेस ओपन कर रहा है।।3।।
आपस में फ्रेंड जाति-जहर से नहा रहा है।
नेट सद विचारों से हट फट भटक रहा है।।
कर्ण कामी दुःशासन का ब्रदर बन रहा है।
बेगाना अपना ही शहर हमें लग रहा है।4।
अजी एक हो देखों गर्व गला जा रहा है।
निराशा नाश नेह-रथ आशा-अर्क आ रहा है।।
केवल इंसा बने पंचतत्त्व सिखा जा रहा है।
पंचतत्त्व हमें सत्य ज्ञान दिया जा रहा है।5।
शनिवार, 14 नवंबर 2015
स्वानुभूति(एक आत्मकथा) गतांक से आगे||5||
जे जनमे कलिकाल कराला।करतब बायस बेष मराला।।चलत कुपंथ बेद मग छाड़े।कपट कलेवर कलि मल भाड़े।।बंचक भगत कहाइ राम के।किंकर कंचन कोह काम के।।इस कलियुग का अंग कलि अंगों के साथ जीवन पथ पर अग्रसर होने को लालायित सर्वहारा वर्गीय गिरिजा शंकर तिवारी अपने कर्म में रत विश्वविद्यालयीय शिक्षा में पदार्पण किया।खाने रहने की समस्या निराकरण हेतु हॉस्टल में आवेदन प्रस्तुत किया।सहज सरल हॉस्टल सुलभ पर रुमपार्टनर स्व अनुरुप की तलाश में कई दिन बित गये।कुपंथीय कलि काल में भी सुपंथी हैं,सुपंथीय श्री नरेंद्र दुबे भी अपने अनुरुप साथी की तलाश में रहे जो तलाश राजनीति विज्ञान की कक्षा में पूर्ण हो गयी।कक्षा से सीधे हम हॉस्टल आ सभी शेष औपचारिकताओं को पूर्ण कर "नाथ चंद्रावत"हॉस्टल में अपने लिये खाली पड़े एक मात्र रुम,रुम नम्बर चार को अपने नाम बुक कराकर रहना प्रारम्भ किया।नाथ चंद्रावत अर्थात् N C Hostel जिसे नक कटी या नक कटा हॉस्टल भी कहा जाता रहा।यहाँ हॉस्टल में रहने का अनुभव प्राप्त होना शुरु हुआ।प्रथमतः भोजन की समस्या शिर उठाये खड़ी,दूसरी रैंगिग।दोनों अप्रत्याशित व भयानक।दोनों का हल निकला पलायन।पर कब तक,कहाँ तक।जहाँ तक सम्भव। हमने निर्णय किया कि हम अपने-अपने पूर्व निवास स्थानों पर खाना खा लिया करेगे और रात्रि को कमरे पर सोया करेगे।कुछ दिन ही ऐसे बीते कि हॉस्टल में मैस शुरु हो गया,रैंगिग का समय समाप्त हो गया।उस समय तक हम लोग विश्वविद्यालय व हॉस्टल से काफी हद तक परिचित भी हो गये थे।श्री नरेंद्र दुबे के विषय राजनीति विज्ञान,मनो विज्ञान और भूगोल रहें जबकि उस समय मेरे विषय हिन्दी,अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान रहे।
इस प्रकार राजनीति विज्ञान हमे जोड़ने का कार्य कर रहा था वैसे संस्कार एवं व्यवहार हमें ज्यादा जोड़े रखे जिसके कारण हम बिच में बिछुड़ने के बाद भी आज भी जुड़े हुवे हैं।मैस का पहला-पहला अनुभव बालकपन की बेवकूफियों,नादानियों और हरकतों से भरपूर।सम्पूर्ण छात्रावासी नौजवानी की उस दहलीज पर जहाँ कलियुग सरलता से अपना आवास बना सकता।बनाया भी कुछ पर स्थायी रुप से बनाकर बर्बादी के दहलीज तक ला दिया।कुपंथ से सुपंथ पर आना,कुपंथ पर नहीं जाना दोनों में महत अंतर है।पता नहीं क्यों हम सांसारिक दूसरों के अनुभवों से कम पर अपनी गलतियों से ज्यादा सीखते हैं।गलतियाँ,बेवकुफ़ियाँ,नादानियाँ आदि मानवी कमजोरियाँ भी मानव की गुरु होती ही हैं।इन गुरुवों से सीखते,इन्हें नत मस्तक कराते कर्म- पथ पर पग भरते जीवन-ज्योति जगाते,जग में नित नव अनुभव पाते जन सामान्य की तरह जाति,धर्म,सम्प्रदाय,रुचि-अरुचि को कम-ज्यादा समझते अपने सहपाठी नरेंद्र दुबे ग्राम ओबरा पोस्ट सुरापुर ममरेजपुर बाया टांडा जिला फ़ैजाबाद अब अकबरपुर के साथ रहना प्रारम्भ किया।उस समय आज के हिसाब से कोई भी शुल्क नाम मात्र ही रही,विश्वविद्यालय शुल्क से मैं शुल्क मुक्त रहा,हॉस्टल की एक साल की दो सौ पच्चास और मैस को तीन सौ मासिक पुस्तके सेकेण्ड हैण्ड और पुस्तकालय में सर्व-सुलभ।फिर भी जो भी आर्थिक भार था वह सब सहज सरल वहनीय नही था।मैस में भोजन सही ही कहा जाय।सभी ने मैस ज्वाइन कर लिया था। बड़ा अच्छा चल रहा था।कुछ दिन बाद ही मैस मालिक ने अपने आदमी कम कर दिया।उसका हर्जाना उसी को भुगतना रहा।जब हम खाना खाने पहुँचते हमेशा समस्या मिलने लगी थी,सारी तो ठीक पर भोजन पर बैठने के बाद थाली में खाना पूरा न होना कहाँ भाये,जो थाली में आये वो सफाचट हो जाये,सबने ऐसा ही शुरु कर दिया,रोटी के साथ सब्जी का इंतजार नहीं,चावल के साथ दाल की तलाश नहीं,जो आया ओ गया,विचित्र दृश्य रोज की पहचान होने लगे।लूर,सहूर संस्कार गायब दिखने लगे।शिकायते बेअसर।मैस मालिक ऊब गया और मैस बंद ही कर दिया।इसके बाद हमारे विश्वविद्यालय में रहने तक किसी भी हॉस्टल में हमे मैस देखने तक को नहीं मिला।उन परिस्थितियों में मेरी नजर में मैस मालिक का निर्णय उस अराजकता,संस्कारहीनता और अनैतिकता पूर्ण वातावरण एकदम सही ही रहा।लेकिन उसका सही निर्णय और हमारा गलत व्यवहार हमारे लिये उस समय बहुत भारी पड़ा पर बाद में या यो कहे आज तक और आगे भी उस स्थिति के बाद जो स्वयं खाना बनाना सिख लिया उसका लाभ मिला मिल रहा है और मिलता भी रहेगा।तत्काल तो सब परेशान सबके सामने भोजन संकट।रोटी,कपड़ा,मकान में रोटी संकट है सबसे बड़ा संकट।वहाँ अब भोजन पकाने के सिवाय सबके सामने अब कोइ दूसरा विकल्प नहीं दिख रहा था,मेरे पास तो था बड़े भाईसाहब का सहारा पर साधन से जाय-आय तो बहुत महँगा या यो कहे बूते से बाहर पर भाई साहब है पाक कला महारथी।दुबेजी भी अपने चाचाश्री श्री ध्रुव नारायण दुबे जो गोरखपुर विश्वविद्यालय में ही गणित के प्रोफेसर रहे और जिनकी मकान लगभग पांच किलोमीटर दूर गोरखपुर में ही है जहाँ पहले रहा ही करते के यहाँ भोजन व्यवस्था कर सकते। अन्य विकल्प भी था, होटल।इस प्रकार मैस बंद होने के बाद भोजन पकाने के सिवाय कोई विकल्प था तो वह था होटल अथवा परिचित-अपरिचित का शरण।दुबेजी पता नहीं किन व्यक्तिगत-पारिवारिक कारणों से चाचाजी के यहाँ जाना नही चाहते और परेशानी मुझे भी भाई साहब के यहाँ सुबह-शाम जाने-आने में स्वाभाविक रुप से थी।लगभग सबने भोजन पकाने का ही निर्णय लिया था,हम दोनों ने भी यही निर्णय ले लिया,मैंने दो एक माह जो भैया के साथ बिताया था उसमे थोडा-बहुत,कच्चा-पक्का पाक कला सीखा था उसके दम पर भोजन पकाने के लिए हाँ कर दिया,अब क्या दुबे को दम मिल गया और तुरन्त निर्णय भी उसी ने कर दिया,भोजन तो तू पकायेगा और बर्तन दुबे साफ कर देगा,अपना-अपना जूठन स्वयं साफ कर लेगे।उसने कहा तू दो-एक दिन भैया की सेवा और ले तब तक मैं गाँव होकर आता हूँ।वो यो गया यो आ गया।दूसरे दिन ही चावल-दाल,आटा-स्टोव पाँच किलो देशी घी आवश्यक वर्तन आदि सहित।उसका गाँव वनस्पति मेरे गाँव से बहुत दूर,उसके पिछे मैं भी अपने गाँव आवश्यक सामग्री लाने निकल गया था पर आया उसके बाद।सभी सामग्रियाँ लगभग हो गयी।चावल पकाने के लिए पाँच किलो का कुकर।खाना पकाने के लिए ईंधन तो कभी समस्या रहा ही नही क्योंकि प्रायः बिजली चौबीस घंटे रहती और हम बेधड़क हीटर का प्रयोग करते।नरेंद्र खावो पियो मस्त रहो।ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।खूब खुशमिजाज,कम पढ़ना,पूरी नीद लेना और हमेशा मस्त रहना जानता।वह पारिवारिक रुप से भौतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत मजबूत,माँ-बाप की पहली संतान जो शादी के सोलह बरस बाद बड़ी मनौते,पूजा-पाठ और तपस्या से पैदा हुआ पूरे परिवार का लाडला और दुलारा रहा जो रहीसी जीवन जीने वाला,चिंतामुक्त,शारीरिक शैष्ठव सम्पन्न साढ़े छः फुट लम्बा और नेट वेट पच्चासी किलो का हट्टा-कट्ठा पहलवान लड़का था।पूरे हॉस्टल में ही उसका यह निक नेम रहा नेट वेट एट्टी फाइव केजी।मेरे बड़े भैया तो हमसे विश्वविद्यालय कैम्पस में मिल ही जाया करते और कभी कभार छोटे भैया ड्राइवर साहब की दी गयी मेरे लिए जेब खर्च की सौ रुपये की राशि को बीस रुपये कर देने के लिए हॉस्टल भी आ जाया करते थे।मझले भैया गाँव जाने पर निश्चित रुप से मिलते।छोटे भैया ड्राइवर साहब से मेरी मुलाकात कम होती।एक दिन वे मुझसे मिलने हॉस्टल आ गए उस समय मैं सब्जी लेने गया था,नरेंद्र भी रुम छोड़ लॉन में बैठा था। पूछते-पाछते रुम तक पहुँच गए जब उन्होंने मेरे बारे में पूछा तब पड़ोसी ने बताया कि तिवारी तो बाहर गया है देखिये उसका रुम पार्टनर नेट वेट एट्टी फाइव केजी वहाँ बैठा हैं।भैया ने सोचा कि यह मेरे पार्टनर का नाम है और वे उसके पास जाकर बोलते है कि आप नेट वेट एट्टी फाइव केजी है और आप गिरिजा शंकर के पार्टनर है।दुबे तो हक्का-बक्का।उसको उनके बारे में कुछ पता नही था।उसने पूछा भाई साब आप कौन हैं और किससे मिलना है। दोनों में परिचय हुआ।दोनों पुराने परिचितों की तरह हँसते रुम की ओर जा रहे थे तब तक मैं भी आ गया और उक्त बातों को उन लोगों ने मुझे बताकर मुझे भी खूब हँसाया।छोटे भाई साहब का हाथ हमारे परिवार के विकास में अप्रतिम है।मेरे ऊपर भी इनका हाथ हमेशा ही रहा।हॉस्टल में मेरा कोई अतिरिक्त खर्च ही नही रहा क्योंकि भोजन का कच्चा सामान एवं आलू तो हम घर से ही ला लेते रहे इस प्रकार खर्च कम ही करते।मैं अपनी पारिवारिक स्थिति को ठीक से समझता था अतः आज तक मैंने न तो किसी से कोई चीज माँगा और न ही किसी से कोई शिकायत किया और न ही मुझे आज भी किसी से कोई शिकायत है।मेरे जीवन विकास में अगनित लोगों का यथासमय यथास्थान यथोचित सहयोग और आशीर्वाद मिलता रहा है और आशा करता हूँ कि भावी जीवन में भी मिलता ही रहेगा अतः मैं उन सभी ज्ञात-अज्ञात शुभ चिंतकों,हितैषियों और सहयोगियों का आभारी हूँ और आभारी रहूँगा।मानव जीवन में सम्पूर्ण जीवन पर्यन्त ऐसी व्यवस्था करने वाले परात्पर ब्रह्म परमात्मा परम् पिता परमेश्वर,जगद्जननी जगदम्बा माँ विंध्यवासिनी,ईष्टदेव हनुमानजी सहित सभी देवी-देवताओँ और पूज्यपदों का जीवन पर्यन्त आभारी रहूँगा।इन सभी से मैं प्रार्थना करता हूँ कि सम्पूर्ण मानवता को इनका सहयोग,स्नेह और प्रेम हर पल मिलता रहे।जीवन पथ पर बाधा स्वरुप लोग भी हैं,जो मिले,मिलते हैं,मिलते रहेगें मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ।कारण स्पष्ट है कि ऐसे सत् सज्जनों से भी किसी न किसी रुप में जीवन विकास में हमें सांसारिक गुर सिखने को मिलते ही रहते हैं।मैं अपने शत्रु या बुरा करने वालों का भी बुरा नही चाहता बल्कि मैं तो ऐसे लोगों के बारे में यह सोचता हूँ कि ये अपनी इस कुत्सित विचारधारा को विकासधारा में जोड़े और ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ कि उनके मन से शत्रुता को मारे नष्ट करें।हमेशा मनुष्य के अंदर का कुभाव ही बुरा होता है कोई मनुष्य बुरा नही हो सकता अतः इन कुभावों का ही नष्ट होना अर्थात् मरना जरूरी है।कुभाव के स्थान पर सुभाव का आगमन हो प्रतिष्ठा हो इसी प्रार्थना के साथ मैं हर पल मानवता विकास की प्रार्थना करता हूँ।भाव चाहे जैसा भी हो जैसे भी आया हो यदि यह कुभाव बनकर हमारे अंदर समाहित हो जाता है तो यह दूसरों या जिसके प्रति है उसका बुरा करे या न करे लेकिन जिसके मन में आ जाता है उसका बुरा तो यह कर ही देता है और करता ही रहता है और करता ही रहना चाहिए।सुभाव स्व भाव को प्रगट करता है और स्व के साथ ही साथ पर का भी भला करता रहता है।अतः स्वभाव एवं विचार-व्यवहार का सार्वभौम रुप से सुभाव वाला होना सर्व कल्याणकारी है।मेरा मानना है कि बचपन से हम जैसा स्वभाव बनाते है हम वैसा ही बन जाते है और तो और स्वभाव या स्वचरित्र का निर्माण हर व्यक्ति स्वयं ही करता है इस पर किसी भी प्रकार से बाहरी प्रभाव नही पड़ सकता है हम जैसा सोचते हैं जैसा चाहते हैं वैसा ही स्वभाव हमारा बनता जाता है और उस स्वभाव से हमारे चरित्र का निर्माण हो जाता है।एक माँ-बाप दिन-रात लड़ते झगड़ते रहते हैं बाप शराबी है बुरी आदतों का शिकार है।हर प्रकार की बुराई है उसमे,उसके अंदर कतिपय अच्छाई भी हो सकती है पर है वह बुरा। दो पुत्र है उसके।अपने जनक के स्वभाव को अच्छा व अनुकरणीय मानकर बड़ा बेटा उनके नक्शे कदम पर चल अपना जीवन दोजख बना डाला।दूसरे बेटे ने उन सभी आदत,व्यवहार एवं स्वभाव को त्यागना या अपना स्वभाव नही बनाने का निश्चय करता है और अपने अंदर सु भावों को भरता है और एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व बन बैठता है।इस तथ्य को दृष्टिगत रख मैं भी अपने उपर किसी भी कु भाव को कभी भी हावी नहीं होने दिया।नित नियमित विश्वविद्यालयीय कक्षा का भरपूर आनन्द लेता।अचानक विषय परिवर्तन की अंतिम सूचना जारी हुई और ज्ञात हुवा कि हम तीन साहित्य भी एक साथ पढ़ सकते हैं इसकी प्रतिपुष्टि हमारे अंग्रेजी प्रोफेसर सर जे पी त्रिपाठी ने किया कि मैं स्वयं तीन साहित्य से स्नातक हूँ और तुम्हारी रुचि राजनीति में नहीं है तो संस्कृत ले लो,फिर क्या मैंने आनन-फानन में संस्कृत अंतिम दौर में ले लिया अर्थात् वार्षिक परीक्षा के समय राजनीति की जगह संस्कृत का अध्ययन शुरु किया और इस प्रकार इकलौता तीन साहित्य पढ़ने वाला उस सत्र का स्नातक विद्यार्थी बन गया।
समय की दौड़ और तत्काल प्रगति की भूख ने मेरे vision अर्थात् दूरदर्शिता को कम कर दिया या यो कहे कि बहुत अधिक आत्मविश्वास ने मुझे दूरदर्शी होने से रोक दिया।teenage को पार करते समय हमें नियंत्रण की महती आवश्यकता होती है।यहाँ सम्हलना परम आवश्यक।इसका अंतिम चरण इंसान को जीवन चुनने का सहज सरल अवसर देता है।खैर केवल एक ही पहलू से हमे सभी या पूर्ण निर्णय भी नहीं कर लेना चाहिए।मैं गोरखपुर आने के बाद से ही योग्यतानुरुप जॉब की तलाश शुरु कर दिया था।इसके पीछे ही मेरी दूरदर्शिता नष्ट हो गयी थी क्योंकि पारिवारिक स्थिति का अति कमजोर होना इस आर्थिक युग में एक अभिशाप ही है।मेरे मन में मेरे परिवार को गाँव-समाज के ठीक-ठाक लोगों के समकक्ष खड़ा करने-देखने की लालसा बचपन से ही घर कर गयी थी,जो उस समय तो ठीक लग रही थी लेकिन आज मुझे उस सोच पर हल्का हल्का अफ़सोस अवश्य ही कभी-कभी होता है कि उस लालसा ने मेरे दूर दृष्टि को समाप्त कर दिया था।कठिन कलि काल कराल का काम ही है सोच विवेक का हनन।मराल -बायस विविध रूपों में प्रगट हर समय यत्र तत्र सर्वत्र हो हो कर हर जन को दिग्भ्रमित पथभ्रमित होने को विवश करते रहते है जिनके कारण मुझ जैसे अदूरदर्शी सांसारिक जन पथच्युत हो ही जाते हैं।कलि प्रभाव किस अवस्था में किस पर पड़ जाता पता कोई नही पाता।कुपंथ स्वयं ही सुपंथ दिखने लगता है।कपट के अर्थ-व्यर्थ सार्थक निरर्थक विविध रुप हमे मोहित कर लेने को हर थल हर पल तैयार रहते हैं।बंचक अर्थात् ठग हमें ठगने हेतु आसन लगाये रहते है।अतः ठगी का शिकार होना भी स्वाभाविक ही हो जाता है।इसका एक जबरदस्त कारण है कि हम सब सांसारिक धन-दौलत,रुप-गुन सम्पदा और घमंड-क्रोध के क्रीत दास की तरह नित कार्य करते हैं।इस नश्वर शरीर को शाश्वत मान बैठते और तदनुरुप आचरण रत रह विस्मृत हो जाते हैं।इन्हीं में उलझा-बधा मैं भी जीवन पथ पर 1987 की दहलीज पर आ गया।
क्रमशः
रविवार, 8 नवंबर 2015
आओ दीवाली मनाये
आओ दीवाली मनाये,
खुशी ख़ुशी दीप जलाये।
मन मयूर सद पर फैलाये,
माता की यश गाथा गाये।।आओ दीवाली मनाये।।
सद संकल्प सदा हो पूरन,
असद विचार दूर भगाये।
दीप शिखा सम पवित्रता,
जन जन में भर जाये।।आओ दीवाली मनाये।।
नव चेतन नव भाव वाहक,
धरा का कण कण हो जाये।
कण कण क्षण क्षण का मान,
हम हर थल कर पाये।।आओ दीवाली मनाये।।
आन मान शान कर रक्षित,
धरती माँ का शाख बनाये।
तज निज स्वार्थ पशुता को,
थोडा परमार्थी बन जाये।।आओ दीवाली मनाये।।
उड़े पर पर रक्षित कर,
पर सहित न स्व पर कटाये।
अपना तो है ही अपना,
पर को अपना बनाये।।आओ दीवाली मनाये।।
तन सा ही मन को भी,
सद्कर्मो से झलकाये।
चहु दिशि आचार पुष्प,
पग-पग पर महकाए।।आओ दीवली मनाये।।
स्नेह दीप में त्याग वर्तिका,
मानवता का तेल मिलाये।
बरसों से जो बनी दूरिया,
उनको आज मिटाये।।आओ दीवली मनाये।।
जाति धर्म से पहले इंसा,
जल्दी सबको समझ में आये।
निज तन घर गाँव शहर सह,
पर रौनक पर भी इठलाये।।आओ दीवाली मनाये।।
यह दीवाली जन जन घर घर,
करुणा माया ममता लाये।
माता बेटी बहना धरा की गहना,
इन्हें न हम क्षति पहुचाये।।आओ दीवाली मनाये।।
सुख शांति सदा संग सोहे,
लालच मोह कोह भग जाये।
शुभ कामना मेरा सब तोहे,
जीवन पराग सा हो जाये।।आओ दीवाली मनाये।।
शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015
स्वानुभूति गतांक से आगे||4||
आज इक्कीस अक्टूबर,2015 अश्विन शुक्ल अष्टमी नवरात्रि के पावन पर्व पर वास्तव में उम्र के उस पड़ाव से अपनी आत्मकथा शुरु करने पर जहाँ से बालक सब कुछ भला-बुरा समझने की स्थिति में होता है और जिसे वास्तव में आत्मकथा विद्वत बन्धु कह सकते हैं,मुझे माँ दुर्गा की कृपा से इसकी सत्यता से सम्पूर्ण होने पर मेरा भरोसा दृढ़ है और सभी स्नेही जनों से सतत स्नेह-सुधा की प्रबल उम्मीद है।Infact "life is not bed of roses and a cup of tea."is always true on me and my family.अब मैं teenage में पहुँच गया।परिवार की आर्थिक स्थिति push start vehicles की तरह,जिसे सारे रीति-रिवाज,रस्म और दहेज-दानव के सुरसा-मुख मध्य बहन राजकुमारी की शादी करने की चुनौती पूर्ण करनी रही।योग्य घर-वर की तलाश परिवार-रिश्तेदार के अनवरत प्रयास एवं प्रभु-कृपा से शीघ्र ही पूर्ण हो गयी।योग्य-अयोग्य का निर्णय हम करें या परात्पर पर ब्रह्म या यो कहे"तुलसी जसि भवतव्यता तैसी मिलइ सहाइ।आपु नु आवइ ताहि पहि ताहि तहा लै जाय।।"उस समय हमारे परिवार की औकात से बाहर ही वह शादी रही पर तय हो गयी येन केन प्रकारेण समस्त सामाजिक,धार्मिक और लौकिक रीति-रिवाजों के मध्य तिलकोत्सव आदि सम्पन्न हो गये।मेरे बहनोई राजस्थान रोडवेज के बूँदी डिपो में उस समय ही परिचालक रहे।नौकरीसुदा वर एक बड़ी उपलब्धि जिससे पूरे जोश से शादी में परिवार के प्रत्येक सदस्य ने अपना पूरा योगदान दिया।बारात के दिन घराती-बाराती के खाने-पिलाने की सारी व्यवस्था करनी रही,तिलकोत्सव आदि के बाद ही आर्थिक तंगी आ गयी थी पर मेरे मझले भाई गजब आत्मविश्वास के धनी परम जीवट से सम्पन्न कभी हार न मानने की प्रवृत्ति से ओतप्रोत ठाकुरजी की कृपा पर अटूट विश्वास रख इस उम्मीद से कि बारात के दिन तक उनका स्वयं का तीन माह का रुका वेतन,छोटे भाई साहब से भरपूर सहयोग मिल ही जायेगा जिससे सब कुछ सहज-सरल सम्पन्न हो जायेगा विवाह उत्सव की तैयारी करते रहे और किसी के चेहरे पर सिकन नहीं आने दिये लेकिन बारात के दिन सुबह दस बजे तक कही से कोई उपलब्धि नही हुइ तब परेशानी की रेखा स्पष्ट उनके चेहरे पर दिखने लगी चूँकि मैं ही हर जगह भाग-दौड़ करने वाला पायक रहा इस लिए मुझे उनकी परेशानी समझते देर न लगी,मैंने उनसे सब कुछ जाना तो ज्ञात हुवा कि शादी में लगभग एक हजार लोगों का भोजन है सारी सामग्री पूर्व में आ चुकी है पर अत्यावश्यक एवं उसी दिन लाने वाली सामग्री नहीं आयी है कारण बड़े भाई साहब का गोरखपुर सेआर्थिक मदद या योगदान के साथ तबतक नहीँ पहुँचना छोटे भाई साहब का कोइ अता-पता नहीं खुद का वेतन जमा न होना।यह सच है "circumstances are touch stone of bravemind"यह एक बहुत बड़ी कसौटी रही क्योकि आज की तरह मोबाइल उस समय सर्व सुलभ नही रहे जिससे किसी की कही की खबर ली जा सके वास्तव में मोबाइल का यदि सही उपयोग किया जाय तो यह वरदान ही है,आज मेरी संचय प्रवृत्ति काम आयी मैंने जो कुछ भी सत्य नारायण कथा वाचन से संचय किया था वह सब लाकर भाई साहब को दे दिया,वे मुझे आश्चर्य से देखने लगे गदगद हो गये तात्कालिक समस्या हल हो गयी उस राशि से सब्जी आदि अत्यावश्यक सामग्री लेकर बाजार से हम घर आये कि ठाकुरजी की कृपा बरसने लगी,भाई साहब के स्कूल के बाबूजी ने आकर सूचना दिया कि वेतन जमा हो गया तबतक छोटे भाई साहब ट्रक सहित बड़े भाई साहब को लेकर आ गये।आनन्दमय वातावरण में सभी कार्यक्रम सम्पन्न होने लगे।मेरे समझदार होने पर यह परिवार में पहला बड़ा उत्सव रहा जिस समय मुझे परिस्थितियों को ठीक-ठाकसमझने,परखने,देखने,विचारने,सवारने,बिगड़ी या बिगड़ी को बनाने,बचाने आदि को सन्निकट से देखने-समझने का प्रथम जीवन्त अनुभव प्राप्त हुआ।सच कहू यह शादी मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना और अनुभव है।इस शादी में मित्र-अमित्र,सहयोगी-असहयोगी, दोस्त-रिश्तेदार, अपना-पराया आदि का अभूतपूर्व अनुभव प्राप्त हुआ।वर पक्ष के लोगों के बारे में उनकी सोच,मानसिकता आदि का भान हुआ।पट्टीदारी की पट्टीदारी और इनके आपसी घृणा-प्रेम का भी ज्ञान हुआ।एक भ्रम,एक क्रोध,एक घमण्ड,एक मै किस प्रकार एक ही झटके में सब कुछ बिगाड़-बना सकता है;यह सब कुछ मुझे यहाँ बिन मांगे,बिन सोचे, बिन मतलब और बिन कहे मिला।इस विवाह को मैं व्यथा-कथा कहूँ या एक भयंकर भूल या भावी।शादी समस्त लौकिक,वैदिक,सामाजिक,पारिवारिक रीति-रिवाज से सम्पन्न हो गयी।पारिवारिक और सभी स्नेही जनों ने भीगे-नयनों से बहन की बिदाई किया।
गोस्वामी तुलसी दास ने अपने महाकाव्य में कहा है"नहि दरिद्र सम दुःख जग माही।संत मिलन सम सुख जग नाही।।"इन पक्तियों की यथार्थता जग जाहिर है पर मेरे परिवार पर तो चरितार्थ ही है।परिवर्तन प्रकृति का नियम है।परिवर्तन हो रहा था पर नियति गति से हमारी अपेक्षाओं के अनुसार नहीं।बन्द नहीं होते कभी नियति नटी के कार्य यहाँ।हम दुःख सुख दोनों को साथ या बारी बारी से झेलते ही हैं।हमारे परिवार पर उक्त दोनों पक्तियो की बातें यतार्थ ही रही।दरिद्रता साथ छोड़ने का नाम नहीं ले रही लेकिन माता-पिता जैसे संत के होते सुख हमारे साथ स्थायी रुप से रहा।उन पाद पद्मो में जो सुख रहा वह अवर्णनीय एवं सतत स्मरणीय है।पिताजी परिवार के भरण-पोषण के लिए अपनी क्षमता-योग्यता के अनुसार खेती आदि कार्य करते और माताजी घर के कार्यो में अनवरत रत रहती।यद्यपि कि आवश्यकता अनुसार पूरा परिवार खेती कार्य में अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार सहयोग देता ही रहता पर पिताजी का कार्य एवं लगातार कार्य की समाप्ति तक कार्य में लगे रहना हमे आज भी प्रेरणा देता रहता है।माताजी के कार्यो में अंदर सभी भाभियाँ उनका पूर्ण सहयोग करती और बाहर के कार्यो के लिये मैं और मास्टर साहब मुस्तैद ही रहते थे।हम समाज के हर वर्गो के सहयोग के लिए हमेशा तत्पर रहते इसलिए समाज का हर वर्ग हमारे सहयोग हेतु प्रतिपल तैयार।ठाकुरजी की कृपा हमारे पर हर पल है वे हमारे सहायक हैं उनकी स्नेह सरिता सदा अपने प्रेमाम्बु से दुःख दावानल धोती रहेगी हमारा विश्वास है कि प्रभु,मेरे ईष्टदेव व माताश्री सहित सभी देवो की कृपा हमारे पर हमेशा-हमेशा रहेगी।हम दिन-रात परिश्रम कर सतकर्मो से स्थिति सुधारने में लगे रहे।सत्यमेव जयते के साथ ही साथ हम हमेशा श्रमेव जयते में विश्वास करते।सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जगना,कक्षा के पाठ कंठस्थ करना,पशु सेवा फिर पूर्ण क्षमता से खेत में श्रम करना दिनचर्या रही।हम हमेशा यही सोचते कि हमारी फसल सबसे अच्छी ही होनी चाहिए और फसल अच्छी होती भी रही।इस हेतु हम सुबह से लगभग नौ बजे तक खेत में पुरजोर परिश्रम करते फिर तैयार होकर स्कूल जाते।मैं भाई साहब के स्कूल में ही दसवीं तक पढ़ा। हम दोनों घर-परिवार,खेत-खलिहान में एक साथ काम करते।विद्यालय में गुरु-शिष्य।दसवीं बोर्ड परीक्षा सम्पन्न हो गयी। परीक्षा परिणाम का इंतजार।उन दिनों आज जैसी इंटरनेट,कम्प्यूटर,मोबाइलआदि की इतनी सुगम-सरल व्यवस्था नहीं रही।अख़बार ही एकलौता साधन।वह भी गाँव-गाँव,घर-घर नहीं पहुँचता।बड़े,छोटे-मोटे शहरों,कस्बों तक सीमित।परीक्षा परिणाम बताकर पैसे कमाने की लालसा से भी गिने चुने लोग यदा-कदा किसी गाँव स्कूल तक पहुँच जाते।अख़बार भी आज-कल की तरह सरल ढंग से परीक्षा-परिणाम नहीं बताते।इकट्ठे छापते।परिणाम जल्द से जल्द जानना जंग।मैं एक सहपाठी रामानुज दुबे के साथ साईकिल से बरहज बाजार गया।हमने परिणाम देखा।दिखाने वाले को एक-एक रुपये देकर हम घर न आकर अपने स्कूल गुरूजनों को प्रणाम करने की नियति से चले गये।हम तो खुश थे पर वहाँ विद्यालय भवन के सामने पीपल के नीचे कुर्सी में शिर निचे कर उदास,परेशान एवं क्रोधित बैठे थे मेरे भाईसाहब।उनके पास और कोई नही था हम सबसे पहले उनसे ही मिले हमने उनका पैर छूकर आशीर्वाद लिया।उन्होंने पूछा क्या हाल है मैंने बताया कि दुबे द्वितीय श्रेणी में और मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ हूँ।उन्होंने कहा अरे यहाँ तो तुम्हे थर्ड डिवीजन बता रहे हैं,तपाक प्रश्न तुम्हारा रोल नम्बर क्या है?मैंने बताया :-चार लाख तिरासी हजार पाँच सौ नौ। भाईसाहब को अचानक गुस्सा आ गया और बोले अरे तुम्हें सही सही याद तो है न मैंने कहा अरे यह भी कोइ भूलने वाली बात है क्या? तब भाई साहब बोले अरे यहाँ पता नही कैसे देखे हैं कि तुम्हें और अन्य प्रथम श्रेणी आने वाले बच्चों को थर्ड और सेकेण्ड बता रहे है और जो पास ही नही हो सकते उन्हें प्रथम श्रेणी बता रहे हैं।मैंने देखा,महसूस किया एक भाई का अपने भाई पर विश्वास,एक गुरु का अपने शिष्यों के प्रति अनूठा और गजब का विश्वास,विद्यार्थियो की पहचान।ज़ोर से नाम लेकर अपने पूरे स्टाफ को भाईसाहब ने बुला लिया।प्रिंसिपल साहब किसी काम से चले गए थे।भाईसाहब ने सभी को डपटते हुवे गुस्से से बोला देखा आप लोगों ने,सब हत्प्रद ।रोल नम्बर की छान-बिन हुइ।संस्था के रिकार्ड से अनुक्रमांक मिलाकर अब अख़बार वापस देखना शुरु किया गया तब पता चला कि हमारे पूर्व के देखने वाले गुरुजनों ने चार लाख चौरासी हजार से प्रारम्भ होने वाले अनुक्रमांक को देख लिया था।अब तक संस्था प्रधान श्री ओंकार दुबे भी आ गये और सभी बात को समझने के बाद उन्होंने कहा कि तिवारीजी वास्तव आप सही थे हमारा स्टाफ गलत था और आपको अपने विद्यार्थियों की योग्यता पर जो विश्वास है वह भी सराहनीय है और आप काबिले तारीफ है।इसे भाईसाहब का प्रेम,स्नेह एवं उनका तजुर्बा भी कह सकते हैं।यह एक घटना हमे हमेशा भविष्य में प्रेरणा देती रहेगी।आत्म ज्ञान,आत्म विश्वास,आत्म प्रेम और आत्म संयम आत्म अनुशासन जब हमे जिज्ञासु बनाकर सतपथ पर चलाते है तब स्वमेव ही हमारी सोच सही हो जाती है और हम विकास पथ पर अग्रसर होते रहते हैं।स्वामी रामतीर्थ परमहंस ने सही ही कहा है"हमारे छोटे-छोटे अनुभवों में मानवता का सारा इतिहास छिपा रहता है।"यह अनुभव ही तो मेरी स्वानुभूति का प्रारम्भ बिंदु है।इस प्रकार बाबा इन्द्र मणि जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मेरी पढ़ाई पूर्ण हुइ।यह संस्था भी उस समय दसवीं तक ही रही अतः अध्ययन जारी रखने के क्रम में अन्यत्र प्रवेश लेना ही था।अगली संस्था श्री कृष्ण इण्टर कालेज बरहज बाजार।ग्यारहवीं में यहाँ प्रवेश लिया,गृह कार्य में पूर्ण सहयोग के साथ अनवरत अध्ययन जारी रखा।यह संस्था हमारे क्षेत्र की जानी-मानी संस्था।यहाँ आते -आते मैं भी कुछ परिपक्व हो रहा था सिखने की लालसा सिखाती जा रही थी।समय पालन-अनुशासन को निकट से देखने समझने का सुअवसर यही मिला।प्रधानाचार्य श्री विष्णु देव तिवारी का रौद्र और स्नेहिल रुप समरसता के लिए अपने आप सब कुछ कर जाता था।समय की पाबन्दी इतने बड़े स्कूल जहाँ लगभग तीन हजार विद्यार्थी और अस्सी अध्यापक रहे सब पर समान लागू थी।संस्था प्रधान कब आते मैंने देखा ही नहीं क्योकि मैं उन्हेँ जब भी देखा संस्था में ही देखा।उनकी एक बात कि जो विद्यार्थी अपने विद्यार्थी जीवन में समय पालन नही करता वह भावी जीवन में कभी नही कर सकता उनकी यह बात मुझे आजीवन समय पालन हेतु प्रेरित करती रहती है।वैसे मैं पारिवारिक और व्यक्तिगत रुप से भी पूर्व से ही इस सत्य तथ्य का पालन कर रहा था।स्व अनुभव इस संस्था का मेरा है कि यही इस संस्था विकास का राज भी रहा।यहाँ दोनों पारियों में हाजिरी तो होती ही थी अलग से हर विषयाध्यापक भी अपनी अपनी कक्षा में उपस्थिति लेता था। मेरी शिक्षण शुल्क इस संस्था में माफ़ रही पर अन्य शुल्क दो रुपये पच्चास पैसे हर महिने लगते थे जिसे मैं प्रथम निर्धारित तिथि हर माह की पंद्रह तारीख को हर हाल में दे देता था,यदि कोई इस तिथि पर शुल्क जमा नही करवाता तो उसे तीन पैसे रोज फ़ाईन भरनी पड़ती इसके साथ ही एक मीटिंग अनुपस्थिति की भी फाइन तीन पैसे रही।वैसे मैं इन फाइनो से परे था पर एक दिन बरसात में प्रथम पारी में कुछ ही विद्यार्थी आये थे,कक्षाध्यापक श्री सुग्रीव पाण्डेय ने हाजिरी भरने के बाद यह कह दिया कि आज आप की संख्या कम है और मौसम भी ख़राब है तो आप घर जा सकते हो,मैं घर आ गया,इस बीच मौसम ठीक हो गया और लोकल स्टूडेंट्स आ धमके,जब श्रीमान प्रधानाचार्य महोदय ने हाजिरी लिया तो मुझे ऐब्सेंट लगा दिया।शुल्क जमा करते समय जब फाइन की बात आयी तब श्री पाण्डेय ने आश्चर्य से कहा तिवारी तुम्हारी फाइन कैसे?मुझे भी आश्चर्य!रजिस्टर देखने के बाद सारा माजरा हमे समझ में आया। इस संस्था से बारहवीं उत्तीर्ण कर अन्यत्र जाना ही था।यद्यपि उच्च शिक्षा हेतु बरहज में संसथान उपलब्ध है पर मैं एक अच्छे संस्थान से अब शिक्षा प्राप्त करना चाहता था इसलिए पारिवारिक औकात के अनुसार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रथम प्रयास किया।उस समय गोरखपुर को छोड़कर शेष जगह प्रवेश पूर्व परीक्षा शुरु हुई थी।इलाहाबाद सबसे नजदीक का प्रख्यात विश्वविद्यालय है।अतः उसके अन्य कॉलेजों में भी आवेदन किया।बनारस हिंदू विश्वविद्यालय BHU में भी आवेदन किया।गोरखपुर में अंक के आधार पर प्रवेश हो रहा था लिस्ट निकली मेरा चयन हो गया,अब दूसरे जगह का था इन्तजार पर यहाँ अंतिम तिथि निकली जा रही थी अतः मन मसोजकर प्रवेश ले लिया।रहने की व्यवस्था फ़िलहाल बड़े भाईसाहब के साथ जो अपने बुढ़ापे में वापस पढ़ाई शुरु कर स्नातक, शिक्षा स्नातक के पश्चात संस्कृत से परास्नातक कर रहे थे जिनकी वापस पढ़ाई शुरु करवाने का एकमात्र श्रेय दूसरे भाईसाहब का रहा क्योकि इनकी पान की दुकान बंद हो गयी थीऔर परिवार को उम्मीद रही की पढ़ लेंगे तो कही न कही नौकरी प्राप्त ही कर लेगे,मेरे छोटे भाई वहाँ ट्रक चलाते थे जो कभी-कभी इनके क्वार्टर पर रुका करते थे वही इनके रहने खाने पढ़ने आदि का खर्च वहन करते रहे,प्रायः मेरे समस्त खर्च भी यही उठाते जो कि नही के बराबर था क्योकि मैं स्वभावतःमितव्ययी बचपन से ही रहा।इस प्रकार उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय में 1986 में प्रारम्भ हो गयी।
क्रमशः