शनिवार, 14 नवंबर 2015

स्वानुभूति(एक आत्मकथा) गतांक से आगे||5||

जे जनमे कलिकाल कराला।करतब बायस बेष मराला।।चलत कुपंथ बेद मग छाड़े।कपट कलेवर कलि मल भाड़े।।बंचक भगत कहाइ राम के।किंकर कंचन कोह काम के।।इस कलियुग का अंग कलि अंगों के साथ जीवन पथ पर अग्रसर होने को लालायित सर्वहारा वर्गीय गिरिजा शंकर तिवारी अपने कर्म में रत विश्वविद्यालयीय शिक्षा में पदार्पण किया।खाने रहने की समस्या निराकरण हेतु हॉस्टल में आवेदन प्रस्तुत किया।सहज सरल हॉस्टल सुलभ पर रुमपार्टनर स्व अनुरुप की तलाश में कई दिन बित गये।कुपंथीय कलि काल में भी सुपंथी हैं,सुपंथीय श्री नरेंद्र दुबे भी अपने अनुरुप साथी की तलाश में रहे जो तलाश राजनीति विज्ञान की कक्षा में पूर्ण हो गयी।कक्षा से सीधे हम हॉस्टल आ सभी शेष औपचारिकताओं को पूर्ण कर "नाथ चंद्रावत"हॉस्टल में अपने लिये खाली पड़े एक मात्र रुम,रुम नम्बर चार को अपने नाम बुक कराकर रहना प्रारम्भ किया।नाथ चंद्रावत अर्थात् N C Hostel जिसे नक कटी या नक कटा हॉस्टल भी कहा जाता रहा।यहाँ हॉस्टल में रहने का अनुभव प्राप्त होना शुरु हुआ।प्रथमतः भोजन की समस्या शिर उठाये खड़ी,दूसरी रैंगिग।दोनों अप्रत्याशित व भयानक।दोनों का हल निकला पलायन।पर कब तक,कहाँ तक।जहाँ तक सम्भव। हमने निर्णय किया कि हम अपने-अपने पूर्व निवास स्थानों पर खाना खा लिया करेगे और रात्रि को कमरे पर सोया करेगे।कुछ दिन ही ऐसे बीते कि हॉस्टल में मैस शुरु हो गया,रैंगिग का समय समाप्त हो गया।उस समय तक हम लोग विश्वविद्यालय व हॉस्टल से काफी हद तक परिचित भी हो गये थे।श्री नरेंद्र दुबे के विषय राजनीति विज्ञान,मनो विज्ञान और भूगोल रहें जबकि उस समय मेरे विषय हिन्दी,अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान रहे।
इस प्रकार राजनीति विज्ञान हमे जोड़ने का कार्य कर रहा था वैसे संस्कार एवं व्यवहार हमें ज्यादा जोड़े रखे जिसके कारण हम बिच में बिछुड़ने के बाद भी आज भी जुड़े हुवे हैं।मैस का पहला-पहला अनुभव बालकपन की बेवकूफियों,नादानियों और हरकतों से भरपूर।सम्पूर्ण छात्रावासी नौजवानी की उस दहलीज पर जहाँ कलियुग सरलता से अपना आवास बना सकता।बनाया भी कुछ पर स्थायी रुप से  बनाकर बर्बादी के दहलीज तक ला दिया।कुपंथ से सुपंथ पर आना,कुपंथ पर नहीं जाना दोनों में महत अंतर है।पता नहीं क्यों हम सांसारिक दूसरों के अनुभवों से कम पर अपनी गलतियों से ज्यादा सीखते हैं।गलतियाँ,बेवकुफ़ियाँ,नादानियाँ आदि मानवी कमजोरियाँ भी मानव की गुरु होती ही हैं।इन गुरुवों से सीखते,इन्हें नत मस्तक कराते कर्म- पथ पर पग भरते जीवन-ज्योति जगाते,जग में नित नव अनुभव पाते जन सामान्य की तरह जाति,धर्म,सम्प्रदाय,रुचि-अरुचि को कम-ज्यादा समझते अपने सहपाठी नरेंद्र दुबे ग्राम ओबरा पोस्ट सुरापुर ममरेजपुर बाया टांडा जिला फ़ैजाबाद अब अकबरपुर के साथ रहना प्रारम्भ किया।उस समय आज के हिसाब से कोई भी शुल्क नाम मात्र ही रही,विश्वविद्यालय शुल्क से मैं शुल्क मुक्त रहा,हॉस्टल की एक साल की दो सौ पच्चास और मैस को तीन सौ मासिक पुस्तके सेकेण्ड हैण्ड और पुस्तकालय में सर्व-सुलभ।फिर भी जो भी आर्थिक भार था वह सब सहज सरल वहनीय नही था।मैस में भोजन सही ही कहा जाय।सभी ने मैस ज्वाइन कर लिया था। बड़ा अच्छा चल रहा था।कुछ दिन बाद ही मैस मालिक ने अपने आदमी कम कर दिया।उसका हर्जाना उसी को भुगतना रहा।जब हम खाना खाने पहुँचते हमेशा समस्या मिलने लगी थी,सारी तो ठीक पर भोजन पर बैठने के बाद थाली में खाना पूरा न होना कहाँ भाये,जो थाली में आये वो सफाचट हो जाये,सबने ऐसा ही शुरु कर दिया,रोटी के साथ सब्जी का इंतजार नहीं,चावल के साथ दाल की तलाश नहीं,जो आया ओ गया,विचित्र दृश्य रोज की पहचान होने लगे।लूर,सहूर संस्कार गायब दिखने लगे।शिकायते बेअसर।मैस मालिक ऊब गया और मैस बंद ही कर दिया।इसके बाद हमारे विश्वविद्यालय में रहने तक किसी भी हॉस्टल में हमे मैस देखने तक को नहीं मिला।उन परिस्थितियों में मेरी नजर में मैस मालिक का निर्णय उस अराजकता,संस्कारहीनता और अनैतिकता पूर्ण वातावरण एकदम सही ही रहा।लेकिन उसका सही निर्णय और हमारा गलत व्यवहार हमारे लिये उस समय बहुत भारी पड़ा पर बाद में या यो कहे आज तक  और आगे भी उस स्थिति के बाद जो स्वयं खाना बनाना सिख लिया उसका लाभ मिला मिल रहा है और मिलता भी रहेगा।तत्काल तो सब परेशान सबके सामने भोजन संकट।रोटी,कपड़ा,मकान में रोटी संकट है सबसे बड़ा संकट।वहाँ अब भोजन पकाने के सिवाय सबके सामने अब कोइ दूसरा विकल्प नहीं दिख रहा था,मेरे पास तो था बड़े भाईसाहब का सहारा पर साधन से जाय-आय तो बहुत महँगा या यो कहे बूते से बाहर पर भाई साहब है पाक कला महारथी।दुबेजी भी अपने चाचाश्री श्री ध्रुव नारायण दुबे जो गोरखपुर विश्वविद्यालय में ही गणित के प्रोफेसर रहे और जिनकी मकान लगभग पांच किलोमीटर दूर गोरखपुर में ही है जहाँ पहले रहा ही करते के यहाँ भोजन व्यवस्था कर सकते। अन्य विकल्प भी था, होटल।इस प्रकार मैस बंद होने के बाद भोजन पकाने के सिवाय कोई विकल्प था तो वह  था होटल अथवा परिचित-अपरिचित का शरण।दुबेजी पता नहीं किन व्यक्तिगत-पारिवारिक कारणों से चाचाजी के यहाँ जाना नही चाहते और परेशानी मुझे भी भाई साहब के यहाँ सुबह-शाम जाने-आने में स्वाभाविक रुप से थी।लगभग सबने भोजन पकाने का ही निर्णय लिया था,हम दोनों ने भी यही निर्णय ले लिया,मैंने दो एक माह जो भैया के साथ बिताया था उसमे थोडा-बहुत,कच्चा-पक्का पाक कला सीखा था उसके दम पर भोजन पकाने के लिए हाँ कर दिया,अब क्या दुबे को दम मिल गया और तुरन्त निर्णय भी उसी ने कर दिया,भोजन तो तू पकायेगा और बर्तन दुबे साफ कर देगा,अपना-अपना जूठन स्वयं साफ कर लेगे।उसने कहा तू दो-एक दिन भैया की सेवा और ले तब तक मैं गाँव होकर आता हूँ।वो यो गया यो आ गया।दूसरे दिन ही चावल-दाल,आटा-स्टोव पाँच किलो देशी घी आवश्यक वर्तन आदि सहित।उसका गाँव वनस्पति मेरे गाँव से बहुत दूर,उसके पिछे मैं भी अपने गाँव आवश्यक सामग्री लाने निकल गया था पर आया उसके बाद।सभी सामग्रियाँ लगभग हो गयी।चावल पकाने के लिए पाँच किलो का कुकर।खाना पकाने के लिए ईंधन तो कभी समस्या रहा ही नही क्योंकि प्रायः बिजली चौबीस घंटे रहती और हम बेधड़क हीटर का प्रयोग करते।नरेंद्र खावो पियो मस्त रहो।ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।खूब खुशमिजाज,कम पढ़ना,पूरी नीद लेना और हमेशा मस्त रहना जानता।वह पारिवारिक रुप से भौतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत मजबूत,माँ-बाप की पहली संतान जो शादी के सोलह बरस बाद बड़ी मनौते,पूजा-पाठ और तपस्या से पैदा हुआ पूरे परिवार का लाडला और दुलारा रहा जो रहीसी जीवन जीने वाला,चिंतामुक्त,शारीरिक शैष्ठव सम्पन्न साढ़े छः फुट लम्बा और नेट वेट पच्चासी किलो का हट्टा-कट्ठा पहलवान लड़का था।पूरे हॉस्टल में ही उसका यह निक नेम रहा नेट वेट एट्टी फाइव केजी।मेरे बड़े भैया तो हमसे विश्वविद्यालय कैम्पस में मिल ही जाया करते  और कभी कभार छोटे भैया ड्राइवर साहब की दी गयी मेरे लिए जेब खर्च की सौ रुपये की राशि को बीस रुपये कर देने के लिए हॉस्टल भी आ जाया करते थे।मझले भैया गाँव जाने पर निश्चित रुप से मिलते।छोटे भैया ड्राइवर साहब से मेरी मुलाकात कम होती।एक दिन वे मुझसे मिलने हॉस्टल आ गए उस समय मैं सब्जी लेने गया था,नरेंद्र भी रुम छोड़ लॉन में बैठा था। पूछते-पाछते रुम तक पहुँच गए जब उन्होंने मेरे बारे में पूछा तब पड़ोसी ने बताया कि तिवारी तो बाहर गया है देखिये उसका रुम पार्टनर नेट वेट एट्टी फाइव केजी वहाँ बैठा हैं।भैया ने सोचा कि यह मेरे पार्टनर का नाम है और वे उसके पास जाकर बोलते है कि आप नेट वेट एट्टी फाइव केजी है और आप गिरिजा शंकर के पार्टनर है।दुबे तो हक्का-बक्का।उसको उनके बारे में कुछ पता नही था।उसने पूछा भाई साब आप कौन हैं और किससे मिलना है। दोनों में परिचय हुआ।दोनों पुराने परिचितों की तरह हँसते रुम की ओर जा रहे थे तब तक मैं भी आ गया और उक्त बातों को उन लोगों ने मुझे बताकर मुझे भी खूब हँसाया।छोटे भाई साहब का हाथ हमारे परिवार के विकास में अप्रतिम है।मेरे ऊपर भी इनका हाथ हमेशा ही रहा।हॉस्टल में मेरा कोई अतिरिक्त खर्च ही नही रहा क्योंकि भोजन का कच्चा सामान एवं आलू तो हम घर से ही ला लेते रहे इस प्रकार खर्च कम ही करते।मैं अपनी पारिवारिक स्थिति को ठीक से समझता था अतः आज तक मैंने  न तो किसी से कोई चीज माँगा और न ही किसी से कोई शिकायत किया और न ही मुझे आज भी किसी से कोई शिकायत है।मेरे जीवन विकास में अगनित लोगों का यथासमय यथास्थान यथोचित सहयोग और आशीर्वाद मिलता रहा है और आशा करता हूँ कि भावी जीवन में भी मिलता ही रहेगा अतः मैं उन सभी ज्ञात-अज्ञात  शुभ चिंतकों,हितैषियों और सहयोगियों का आभारी हूँ और आभारी रहूँगा।मानव जीवन में सम्पूर्ण जीवन पर्यन्त ऐसी व्यवस्था करने वाले परात्पर ब्रह्म परमात्मा परम् पिता परमेश्वर,जगद्जननी जगदम्बा माँ विंध्यवासिनी,ईष्टदेव हनुमानजी सहित सभी देवी-देवताओँ और पूज्यपदों का जीवन पर्यन्त आभारी रहूँगा।इन सभी से मैं प्रार्थना करता हूँ कि सम्पूर्ण मानवता को इनका सहयोग,स्नेह और प्रेम हर पल मिलता रहे।जीवन पथ पर बाधा स्वरुप लोग भी हैं,जो मिले,मिलते हैं,मिलते रहेगें मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ।कारण स्पष्ट है कि ऐसे सत् सज्जनों से भी किसी न किसी रुप में जीवन विकास में हमें सांसारिक गुर सिखने को मिलते ही रहते हैं।मैं अपने शत्रु या बुरा करने वालों का भी बुरा नही चाहता बल्कि मैं तो ऐसे लोगों के बारे में यह सोचता हूँ कि ये अपनी इस कुत्सित विचारधारा को विकासधारा में जोड़े और ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ कि उनके मन से शत्रुता को मारे नष्ट करें।हमेशा मनुष्य के अंदर का कुभाव ही बुरा होता है कोई मनुष्य बुरा नही हो सकता अतः इन कुभावों का ही नष्ट होना अर्थात् मरना जरूरी है।कुभाव के स्थान पर सुभाव का आगमन हो प्रतिष्ठा हो इसी प्रार्थना के साथ मैं हर पल मानवता विकास की प्रार्थना करता हूँ।भाव चाहे जैसा भी हो जैसे भी आया हो यदि यह कुभाव बनकर हमारे अंदर समाहित हो जाता है तो यह दूसरों या जिसके प्रति है उसका बुरा करे या न करे लेकिन जिसके मन में आ जाता है उसका बुरा तो यह कर ही देता है और करता ही रहता है और करता ही रहना चाहिए।सुभाव स्व भाव को प्रगट करता है और स्व के साथ ही साथ पर का भी भला करता रहता है।अतः स्वभाव एवं विचार-व्यवहार का सार्वभौम रुप से सुभाव वाला होना सर्व कल्याणकारी है।मेरा मानना है कि बचपन से हम जैसा स्वभाव बनाते है हम वैसा ही बन जाते है और तो और स्वभाव या स्वचरित्र का निर्माण हर व्यक्ति स्वयं ही करता है इस पर किसी भी प्रकार से बाहरी प्रभाव नही पड़ सकता है हम जैसा सोचते हैं जैसा चाहते हैं वैसा ही स्वभाव हमारा बनता जाता है और उस स्वभाव से हमारे चरित्र का निर्माण हो जाता है।एक माँ-बाप दिन-रात लड़ते झगड़ते रहते हैं बाप शराबी है बुरी आदतों का शिकार है।हर प्रकार की बुराई है उसमे,उसके अंदर कतिपय अच्छाई भी हो सकती है पर है वह बुरा। दो पुत्र है उसके।अपने जनक के स्वभाव को अच्छा व अनुकरणीय मानकर बड़ा बेटा उके नक्शे कदम पर चल अपना जीवन दोजख बना डाला।दूसरे बेटे ने उन सभी आदत,व्यवहार एवं स्वभाव को त्यागना या अपना स्वभाव नही बनाने का निश्चय करता है और अपने अंदर सु भावों को भरता है और एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व बन बैठता है।इस तथ्य को दृष्टिगत रख मैं भी अपने उपर किसी भी कु भाव को कभी भी हावी नहीं होने दिया।नित नियमित विश्वविद्यालयीय कक्षा का भरपूर आनन्द लेता।अचानक विषय परिवर्तन की अंतिम सूचना जारी हुई और ज्ञात हुवा कि हम तीन साहित्य भी एक साथ पढ़ सकते हैं इसकी प्रतिपुष्टि हमारे अंग्रेजी प्रोफेसर सर जे पी त्रिपाठी ने किया कि मैं स्वयं तीन साहित्य से स्नातक हूँ और तुम्हारी रुचि राजनीति में नहीं है तो संस्कृत ले लो,फिर क्या मैंने आनन-फानन में संस्कृत अंतिम दौर में ले लिया अर्थात् वार्षिक परीक्षा के समय राजनीति की जगह संस्कृत का अध्ययन शुरु किया और इस प्रकार इकलौता तीन साहित्य पढ़ने वाला उस सत्र का स्नातक विद्यार्थी बन गया।
    समय की दौड़ और तत्काल प्रगति की भूख ने मेरे vision अर्थात् दूरदर्शिता को कम कर दिया या यो कहे कि बहुत अधिक आत्मविश्वास ने मुझे दूरदर्शी होने से रोक दिया।teenage को पार करते समय हमें नियंत्रण की महती आवश्यकता होती है।यहाँ सम्हलना परम आवश्यक।इसका अंतिम चरण इंसान को जीवन चुनने का सहज सरल अवसर देता है।खैर केवल एक ही पहलू से हमे सभी या पूर्ण निर्णय भी नहीं कर लेना चाहिए।मैं गोरखपुर आने के बाद से ही योग्यतानुरुप जॉब की तलाश शुरु कर दिया था।इसके पीछे ही मेरी दूरदर्शिता नष्ट हो गयी थी क्योंकि पारिवारिक स्थिति का अति कमजोर होना इस आर्थिक युग में एक अभिशाप ही है।मेरे मन में मेरे परिवार को गाँव-समाज के ठीक-ठाक लोगों के समकक्ष खड़ा करने-देखने की लालसा बचपन से ही घर कर गयी थी,जो उस समय तो ठीक लग रही थी लेकिन आज मुझे उस सोच पर हल्का हल्का अफ़सोस अवश्य ही कभी-कभी होता है कि उस लालसा ने मेरे दूर दृष्टि को समाप्त कर दिया था।कठिन कलि काल कराल का काम ही है सोच विवेक का हनन।मराल -बायस विविध रूपों में प्रगट हर समय यत्र तत्र सर्वत्र हो हो कर हर जन को दिग्भ्रमित पथभ्रमित होने को विवश करते रहते है जिनके कारण मुझ जैसे अदूरदर्शी सांसारिक जन पथच्युत हो ही जाते हैं।कलि प्रभाव किस अवस्था में किस पर पड़ जाता पता कोई नही पाता।कुपंथ स्वयं ही सुपंथ दिखने लगता है।कपट के अर्थ-व्यर्थ सार्थक निरर्थक विविध रुप हमे मोहित कर लेने को हर थल हर पल तैयार रहते हैं।बंचक अर्थात् ठग हमें ठगने हेतु आसन लगाये रहते है।अतः ठगी का शिकार होना भी स्वाभाविक ही हो जाता है।इसका एक जबरदस्त कारण है कि हम सब सांसारिक धन-दौलत,रुप-गुन सम्पदा और घमंड-क्रोध के क्रीत दास की तरह नित कार्य करते हैं।इस नश्वर शरीर को शाश्वत मान बैठते और तदनुरुप आचरण रत रह विस्मृत हो जाते हैं।इन्हीं में उलझा-बधा मैं भी जीवन पथ पर 1987 की दहलीज पर आ गया।
                     क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें