बुधवार, 25 सितंबर 2024

19 ऊँट


एक गांव में एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता था।उसके पास 19 ऊँट थे, एक दिन उसकी मृत्यु हो गई मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गई जिसमें लिखा था कि मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को,उसका एक चौथाई मेरी बेटी को और उसका पांचवा हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएं।सब लोग चक्कर में पड़ गए कि यह बंटवारा कैसे हो 19 ऊँटों का आधा अर्थात एक ऊंट काटना पड़ेगा फिर तो ऊँट ही मर जाएगा ? चलो एक को काट दिया जाए या हटा दिया जाय तो बचे 18, उनका एक चौथाई साढे चार - साढे चार फिर भी वही मुश्किल।  फिर पांचवां  हिस्सा । सब बड़ी उलझन में थे ।फिर पड़ोस के गांव में से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़कर आया समस्या सुनी थोड़ा दिमाग लगाया फिर बोला इन
19 ऊँटो में मेरा भी ऊँट मिलाकर बांट दो ।सब ने पहले तो सोचा कि एक वह पागल था जो ऐसी वसीयत करके चला गया और एक यह पागल दूसरा आ गया जो बोलता है कि इसमे मेरा भी ऊँट मिलाकर बांट दो | फिर भी सबने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है। उसने अपना ऊंट मिलाया तो 19+1=20  हुए। 20 का आधा 10 बेटे को दिए गए।20 का चौथाई 5 बेटी को दिए गए।20 कापांचवा हिस्सा चार नौकर को दिए गए 10+5+4= उन्नीस हो गए, बच गया 1 ऊँट  जो बुद्धिमान व्यक्ति का था वह उसे लेकर अपने गांव लौट आया ।बटवारा संपन्न हुआ।इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हम सबके जीवन में पांच ज्ञानेंद्रियां ( आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा), पांच कर्मेन्द्रियां (हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग),पांच प्राण ( प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान) और चार अंतःकरण चतुष्टय( मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ये कुल 19 ऊँट होते हैं ।सारा जीवन मनुष्य इन्हीं के बंटवारे में अर्थात् उलझनों में उलझा रहता है और जब तक उसमें आत्मा रूपी ऊँट को नहीं मिलाया जाता यानी- कि आध्यात्मिक जीवन 
नहीं मिलाया जाता तब तक जीवन में सुख शांति संतोष  और आनंद की प्राप्ति नहीं होती हैं।

✓जीयुतपुत्रिका

भोजपुरी में कुछ यूं कहा  जाता है कि - ए अरियार त का बरियार, श्री राम चंद्र जी से कहिए नू कि लइका के माई खर जीयूतिया भूखल बाड़ी।
सवाल यही है कि आखिर ये बरियार है कौन? तो बरियार एक ऐसा पौधा है जिसे भगवान राम का दूत माना जाता है।कहा जाता है कि यह छोटा सा बरियार (बलवान पेड़) भगवान राम तक हमारी बात दूत बनकर पहुंचाता है। अर्थात मां को अपनी संतान के जीवन के लिए कहे हुए वचनों को भगवान राम से जाकर सुनाता है और इस तरह श्री राम चंद्र तक उसके दिल की इच्छा पहुंच जाती है। संतान और घर परिवार का कल्याण हो जाता है।
मान्यता है कि इस व्रत को करने से संतान दीर्घायु होती है। निरोगी काया का आशीर्वाद प्राप्त होता है और भगवान संतान की सदैव रक्षा करते हैं। व्रत की शुरुआत नहाय खाय संग होती है और समापन पारण संग होता है।यह तो स्पष्ट है कि ज‍ित‍िया पर्व संतान की सुख-समृद्ध‍ि के ल‍िए रखा जाने वाला व्रत है। इस व्रत में पूरे दिन न‍िर्जला यानी क‍ि (बिना जल ग्रहण क‍िए ) व्रत रखा जाता है। यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल के मिथिला और थरुहट तथा अन्य राज्यो में आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस अर्थात् तीन द‍िनों तक मनाया जाता है।जितिया व्रत के पहले दिन महिलाएं सूर्योदय से पहले जागकर स्‍नान करके पूजा करती हैं और फिर एक बार भोजन ग्रहण करती हैं और उसके बाद पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। इसके बाद दूसरे दिन सुबह-सवेरे स्‍नान के बाद महिलाएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पूरा दिन निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के तीसरे दिन महिलाएं पारण करती हैं। सूर्य को अर्घ्‍य देने के बाद ही महिलाएं अन्‍न ग्रहण करती हैं। मुख्‍य रूप से पर्व के तीसरे दिन झोल भात, मरुवा की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है। अष्टमी को प्रदोषकाल में महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती है। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत, पुष्प, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजन समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है।
इस दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के साथ जियुतिया से सम्बन्धित इन  कथायों को सुनने की भी परम्परा है।
इस पावन व्रत की तीन कहानियां हैं, पहली चिल्हो और  सियारो की, दूसरी  राजा जीमूतवाहन की और तीसरी भगवान श्री कृष्ण की  है। आइए हम इन तीनों कहानियों का आनंद पूर्वक श्रवण करते हैं।
(१) चिल्हो और  सियारो की कथा।।
जीवित पुत्रिका व्रत की सबसे प्रसिद्ध चिल्हो और  सियारो की  कथा  इस प्रकार से है-एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी। पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी, दोनों में खूब पटती थी। चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती।इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे। एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ।
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी।सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा, बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करते हुवे व्रत में रखीं मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी।जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया।चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है।सियारिन ने कह दिया- बहन भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है और दांत कड़कड़ा रहे हैं यह उन्हीं की आवाज है, मगर चिल्हो को सत्य पता चल गया।उसने सियारिन को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था।सियारीन लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था।चिल्हो रात भर भूखे प्यासे रहकर ब्रत पूरा की।
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं। सियारिन बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई। चिल्हो छोटी बहन हुई उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई।
बाद में दोनों राजा और मंत्री बने।सियारिन रानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते। इससे उसे जलन होती थी।
उसने लड़को का सर कटवाकर डब्बे में बंद करवा दिया करती पर वह शीश मिठाई बन जाते और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई। आखिरकार दैव योग से उसे भूल का आभास हुआ। उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित पुत्रिका व्रत विधि विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे।
(२)गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन को एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंप देगें। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे। जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंच का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं 
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य मैं तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। तभी से  जीवित पुत्रिका के दिन इस कथा को सुनने की परम्परा है 
(३)भगवान श्री कृष्ण कथा
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं. महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थी उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक था, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया।गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना।तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं।
(४)चील और सियारिन से जुड़ी जितिया व्रत की अन्य  कथा भी काफी प्रसिद्ध है-
धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उस पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थी। दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया और भगवान जीमूतवाहन के  पूजा करने का प्रण लिया। लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी का निधन हो गया और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने लगी थी। मृत्यु देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और भक्ति-भाव व नियमपूर्वक व्रत करने के बाद अगले दिन व्रत पारण किया।
अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील बड़ी बहन बनी और सियारिन छोटी बहन के रूप में जन्मीं थी। चील का नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन का नाम  कपुरावती रखा गया और उसका विवाह उस नगर के राजा मलायकेतु के साथ हुआ।
भगवान जीमूतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देखकर जलन की भावना आ गई, उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए।
उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिए और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिए। यह देखकर भगवान जीमूतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए और सभी के सिरों को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया और उनमें जान आ गई।
सातों युवक जिंदा होकर घर लौट आए, जो कटे सिर रानी ने भेजे थे वह फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर तक सूचना नहीं आई तो कपुरावती खुद बड़ी बहन के घर गई। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गई, जब उसे होश आया तो उसने सारी बात अपनी बहन को बताई। कपुरावती को अपने किए पर पछतावा हुआ, भगवान जीमूतवाहन की कृपा से शीलवती को पिछले जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को उसी पाकड़ के पेड़ के पास ले गई और उसे पूर्व जन्म की  सारी बात बताई फिर कपूरवती से  शिलवती ने कहा कि ओ राजरानी! अब भी तुम उस जीवित्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच-सच कह रही हूँ। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुन्दर और दीर्घायु होकर बड़े-बड़े राजा हुए।हरि अनंत हरि कथा अनंता के अनुसार ये कथाएं विभिन्न रूपों में भी प्राप्त होती है।सभी का सारांश यही है कि जो स्त्रियाँ चिरंजीवी सन्तान चाहती हैं  वे  विधिपूर्वक इस व्रत को करती हैं और अपने अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की कृपा प्राप्त करती हैं।
।।जय जीयुतपुत्रिका।।



सोमवार, 23 सितंबर 2024

✓सहसबाहु सन परी लराई

श्री हनुमानजी रावण से कहते है कि तुम पूछते हो कि मैंने तुम्हारा नाम और यश सुना है कि नहीं, उसपर मेरा उत्तर यह है कि तुम्हारी प्रभुता सुननेकी तो बात ही क्या है, मैं तो उसे भलीभाँति जानता भी हूँ कि वह कैसी है। उस प्रभुताको जानकर मैंने यह सब किया है।  'सहसबाहु सन परी लराई' अर्थात् तुम लड़ने गये, पर कुछ लड़ाई न हुई; उसने तुमको दौड़कर पकड़ लिया। सहस्रबाहुसे हारना कहकर जनाया कि तू सहस्रार्जुनसे हारा, वह परशुरामसे हारा और परशुराम श्रीरामजीसे हारे । प्रमाण देखें 'एक बहोरि सहसभुज देखा । धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाड़छोड़ावा॥'  (इसमें अंगदजीने सहस्रार्जुनसे रावणका पराजय कहा है और) 'सहसबाहु भुज गहन अपारा।दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नृप अगनित बहु बारा । तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा। ( इसमें सहस्रार्जुन का परशुरामजी द्वारा पराजय भुजछेदन और वध कहकरपरशुरामजीका बिना युद्ध ही श्रीरामजीके सम्मुख गर्व चूर हो जाना कहा है। इस प्रकार जनाया कि तब तू किस बलपर घमण्डकर उन श्रीरामजीसे विरोध कर रहा है ? उनके आगे तू क्या चीज है जब कि  वे तो तेरे जीतनेवाले के जीतने वाले भी है। श्री परशुरामजी ने तो उनको देखते ही उनसे  हार मान गये। 'परी लराई' में भाव यह भी है कि लड़ाईका अवसर आया था, तुम लड़ने गये थे, परथोड़ी ही लड़ाई में तुम हार गये। इसमें ऊपरसे प्रशंसा यह है कि बीस ही भुज होनेपर भी हजार भुजवालेसे लड़ाई ठानी थी और व्यंगसे अपयश होना प्रकट किया है। आइए हम सहस्रबाहु और रावणकी कथा सुनते हैं।सहस्रार्जुन कृतवीर्यका पुत्र और माहिष्मतीका राजा था। भगवान् दत्तात्रेयके आशीर्वादसे इसे, जब यहचाहता, हजार भुजाएँ हो जाती थीं। एक बार जब यह नर्मदामें अपनी स्त्रियोंके साथ जलविहार कर रहाथा, संयोगसे उसी समय रावण भी उसी स्थानके निकट जो यहाँसे दो कोसपर था, वहां आया और नर्मदामेंस्नान करके शिवजीका पूजन करने लगा। उधर सहस्रबाहुने अपनी भुजाओंसे नदीका बहाव रोक दिया,जिससे नदीमें बाढ़ आ गयी और जल उलटा बहने लगा। शिवपूजनके लिये जो पुष्पोंका ढेर रावणकेअनुचरोंने तटपर लगा रखा, वह तथा सब पूजनसामग्री बह गयी। बाढ़ के कारणका पता लगाकर औरपूजनसामग्रीके बह जानेसे क्रुद्ध होकर रावण सहस्रार्जुनसे युद्ध करनेको गया । उसने कार्तवीर्यकी सारी सेनाकानाश किया। समाचार पाकर राजा सहस्रार्जुनने आकर राक्षसोंका संहार करना प्रारम्भ किया । प्रहस्तके गिरतेही निशाचर सेना भगी तब रावणसे गदायुद्ध होने लगा। यह युद्ध बड़ा ही रोमहर्षण अर्थात् रोंगटे खड़ाकर देनेवाला भयंकर युद्ध हुआ । अन्तमें सहस्रार्जुनने ऐसी जोरसे गदा चलायी कि उसके प्रहारसे वह धनुषभर पीछे हट गया और चोटसे अत्यन्त पीड़ित हो वह अपने चार हाथोंके सहारे बैठ गया  रावण की यह दशा देख इसीबीच मेंसहस्रार्जुन  ने उसे अपनी भुजाओंसे इस तरह पकड़ लिया जैसे गरुड़ सर्पको पकड़ लेता है और फिर उसे इस तरह बाँध लिया जैसे भगवान्ने बलिको बाँधा था। रावणके बँध जानेपर प्रहस्त आदि उसे छुड़ानेके लियेलड़े, पर कुछ कर न सके, भागते ही बना । तब सहस्रार्जुन रावणको पकड़े हुए अपने नगरमें आया । अन्तमेंश्रीपुलस्त्यमुनिने जाकर उसे छुड़ाया और मित्रता करा दी ।  ' एक बहोरि सहसभुज देखा।धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा।  इस कथाके अनुसार यह भी व्यंगसे जनाते हैं कि तू वही तो है जिस, सहस्रबाहुके कारागारमें बँधे पड़े हुएकोतेरे पितामह पुलस्त्यजी दीन होकर भिक्षा माँग लाये थे । जय श्री राम जय हनुमान

रविवार, 22 सितंबर 2024

✓रावण की रक्षा (अशोकवाटिका में)

लाखों वर्ष पहले रावण ने अद्भुत विस्मयकारी रक्षा व्यवस्था कर रखा था। सिंहिका और लंकिनी तो रडार थे।  स्टार वाली रक्षा प्रणाली  तो अशोक वाटिका में दिखती है। जब श्री हनुमानजी अशोक वाटिका में फल खाने जाते हैं तो देखते हैं कि भट अर्थात दो स्टार वाले रखवाले वहां बहुत हैं 
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
तो इनके लिए हनुमानजी को गरजने की भी जरूरत नही थी बिना गरजे ,बिना वृक्ष लिए ही उनकी हालत पतली 
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥ कुछ मारे गए और कुछ रावण से पुकार करने जाते हैं 
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥ यह सुनते ही रावण ने 
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
नाना भट को भेजा , अब श्री हनुमानजी गर्जे और सबका ही संहार कर दिया ,कुछ अधमरे  ही रावण तक पुकार  करने  जा पाते हैं  तब रावण
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। 
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। 
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥
अब तीसरी बार हनुमानजी वृक्ष लेकर तरजते है और इन तीन स्टार वालों  को मारकर महाधुनि करते हुवे गरजते हैं फिर
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। 
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। 
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥
अब बारी है पांच स्टार और चार स्टार वालों का, पांच स्टार वाला मेघनाद सरदार है चार स्टार वालों का, देखें 
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। 
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। 
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। 
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा। 
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
पांच स्टार वाले दारूनभट के लिए श्री हनुमानजी कटकटा कर गरजते हैं और एक विशाल पेड़ के वार से उसे विरथ कर जमीन पर ला देते हैं और चार स्टार वालों को
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। 
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। 
ताहि एक छन मुरुछा आई॥
एकल  पांच स्टार वाला दारूनभट ही है जो भीड़ सका लेकिन वह भी मात्र एक ही मुष्टिका में मुरुक्षित हो गया। इस प्रकार श्री हनुमान जी ने रावण की इन सभी रक्षा प्रणाली  को नष्ट कर दिया। आगे की कथा क्रमशः 
।।जय श्री राम जय हनुमान।।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

✓रघबीर पंचवीर

जौंरघुबीरअनुग्रह कीन्हा।तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥  यहां 'रघुबीर' शब्द पाँच प्रकारकी वीरताके सम्बन्धमें प्रयुक्त है, यथा - ' त्यागवीरो दयावीरो विद्यावीरो
विचक्षणः। पराक्रममहावीरो धर्मवीरः सदा स्वतः ॥ पंचवीराः समाख्याता राम एव च पंचधा । रघुवीर इति ख्यातः सर्ववीरोपलक्षणः ॥' इन पाँचोंके उदाहरण क्रमसे लिखते हैं-
(१) त्यागवीर
'पितु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदय कछु पहिरे बलकल चीर ।' 
(२) दयावीर
'चरनकमलरज चाहति कृपा करहु रघुबीर ॥ '
(३) विद्यावीर
'श्रीरघुबीरप्रताप तें सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जो राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ।' 
( जलपर पत्थर तैरना - तैराना एक विद्या है ) 
(४) पराक्रमवीर
'सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीर ।
हृदय न हरष बिषाद कछु बोले श्रीरघुबीर ॥' 
(५) धर्मवीर
'श्रवन सुजस सुनि आयउँ प्रभु भंजन भवभीर ।
त्राहि त्राहि आरतिहरन सरन सुखद रघुबीर ॥'
ये पाँचों वीरताएँ श्रीरामजीहीमें हैं औरमें नहीं । इस प्रसंग में विभीषणजी एवं हनुमानजी दोनोंने कृपा करनेसे (अर्थात् उनकी दया - वीरतागुणको स्मरण करके) 'रघुबीर' कहा, यथा- 'जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा' और
'मोहू पर रघुबीर कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन।' दयावीर हैं, इसीसे हमारे-से अधमपर कृपा की। 'दरसु हठि दीन्हा, यथा- 'एहि सन हठि करिहौं पहिचानी ।' ये हनुमान्जीके ही वचन हैं । [ 'दरसु हठि दीन्हा, इस पदसे श्रीभगवत्के
अनुग्रहपूर्वक अपने भाग्यकी प्रबलता दरसाते हुए परम भागवत श्रीहनुमान्जीका अनुग्रह दरसाया गया और श्री राम के रघुवीर रुप में पाँच प्रकारकी वीरता को धारण करने वाला बताकर उनकी प्रभुता प्रगट की गई है।
।। जय श्री राम जय हनुमान।।

गुरुवार, 19 सितंबर 2024

✓"पतिव्रत धर्म"

  "पतिव्रत धर्म"
बूंदी नरेश महाराज यशवन्त सिंह जी शाही दरबार में
रहते थे एक दिन बादशाह ने अपनी सभा में प्रश्न किया कि
आज कल वह जमाना गर्त  हो रहा है कि स्त्री भी दुराचारिणी हो गई हैं । पतिव्रत धर्म को ग्रहण करने वाली स्त्री पृथ्वी पर नहीं हैं और न होंगी क्योंकि समय बड़ा बलवान है । यह सुन कर सारे सभासद चुप हो गये परन्तु वीर क्षत्री बूंदी नरेश को नहीं रहा गया और क्रोध पूर्वक सभा में खड़े हो कर बोले कि हे बादशाह आगे की तो मैं कह नहीं सकता हूं लेकिन  इस वक्त तो मेरी स्त्री पूर्ण पतिव्रत धर्म को ग्रहण करने वाली है ।
यह सुन कर बादशाह चुप हो गये परन्तु एक शेरखां नामी
मुसलमान बोला कि आपकी स्त्री पतिव्रता नहीं है । बाद में 
तर्क वितर्क से यह निश्चय हुआ कि एक माह की मुहलत में मैं आपको जसवन्तसिंह की पत्नी का पतिव्रत धर्म दिखला दूँगा । इस पर बादशाह ने कहा कि दोनों में से जो झूट
निकलेगा उसी को फांसी लगवा दी जावेगी और दूसरे को
इनाम मिलेगा । शेरखां यह सुन कर बहुत खुश हुआ । और अपने महल में  दो दूती बुलाया और दोनों से पूछा कि तुम क्या क्या काम कर सकती हो। तब एक ने कहा कि मैं बादल फाड़ सकती हूं और दसरी ने कहा कि मैं बादल फाड़ कर सीं सकती हूं। यह सुन कर शेरखां ने दूसरी को पसन्द किया । और उससे कहा कि बूंदी नरेश की पत्नी पतिव्रता है इस कारण तू, उसके पतिव्रत धर्म को छल से डिगादे तो राजा तुझे पाँच गांव इनाम में देगें।इस बात को सुन कर वह प्रसन्न हो गई। उसे पालकी से बूंदी पहुंची।
जब वह बूंदी नरेश के यहां पहुंची तो उस बूंदी नरेश की पतिव्रता नारी ने उसका आदर सत्कार किया ।
क्योंकि वह बूंदी नरेश की बुआ बनकर गई थी
और रानी ने बुआ को कभी देखा नहीं था इसलिये 
रानी ने उसे महाराज  की बुआ ही समझा ।
दो दिन पश्चात  दूती ने रानी से  कहा  कि चलो स्नान
कर ले।
रानी ने कहा बुआ जी मैं पीछे स्नान करूंगी।
आप स्नान कर लीजिए ।
दूती यह सुनकर कोधित हुई और बनावटी भय
दिखलाने लगी कि मैं जसवन्तसिंह से तेरी शिकायत करूंगी।रानी बेचारी को डर  गई क्योंकि रानी उसको ठीक से जानती नहीं थीं। इस कारण विश्वास करके उसके सामने स्नान करने लगी , तो उस दूती ने उनके अंग को देखा तो रानी की जंघा पर लहसन दिखाई दिया, स्नान करने के पश्चान दूती ने भोजन किया । अन्त में दूसरे दिन दूती ने कहा कि अब तो मैं जाती हैं और वहां पर एक रखी हुई कटार को देख कर उसे मांगने लगी ।
रानी ने हाथ जोड़े कर कहा कि हे बुआजी यह तो
कटार मेरे पतिव्रत धर्म की है। महाराज जी ने मुझको दे रखी है । दूती ने कटार को बार बार मांगा परन्तु रानी ने कटार नहीं  दिया ।
अन्त में दती ने क्रोधित हो कर कहा कि मैं तुझे जस-
वन्तसिंह से कह कर निकलवा दूंगी। तब तू अपने धर्म की
किस प्रकार रक्षा करेगी । तू ने मेरा इस छोटी सी कटार पर
इस तरह अनादर किया। रानी ने उसके कोध से भयभीत हो कर कटार को दे दिया । दूतो प्रसन्न होकर वहां से चल दी और शेरखां को कटार दे दिया और  जंघा ले  निशान को बता  दिया । अब शेर खां  शेर बन गया और वह इनाम
जो कि पांच गांव राजा ने रखे थे उनके लेने के लिए वह 
शाही दरबार में गया और कटार  बादशाह के आगे रख कर  कहा कि  बादशाह  मैं इस कटार को लेकर और रानी के जंघा पर  लहसन का निशान देख कर अभी चला आ रहा हूँ । जसवन्तसिंह इस बात को सुनकर हतप्रद । अब तो  जसवन्त सिंह को फाँसी का हुक्म हो ही  गया और शेरखां को इनाम  भी मिल गया। लेकिन जसवंतसिह को एक बार अपनी पत्नी से मिलने  बूंदी भेजा गया और फांसी की तारीख मुकर्रर हो गई।दूसरे दिन जसवन्तसिंह घोड़े पर सवार होकर बूंदी पहुंचे रानी महाराज का आगमन सुनकर दरवाजे पर गंगाजल लेकर आई परन्तु जसवन्तसिंह रानीको  देख कर लौट गए । रानी ने अपने पति को क्रोधित जान कर शोक किया कि हे दैव मैंने एसा क्या दुष्कर्म किया जिससे महाराज मुझसे कुछ भी न कहकर लौट गए । अन्त में इस पतिव्रत नारी को सारा वृतान्त मालूम हुआ तब वह क्रोधित होकर अपनी पांच सहेलियों के साथ दिल्ली को गई और नाचना
प्रारम्भ किया ।  बादशाह को नाच दिखाकर गाना इस तरह सुनाया कि बादशाह सुनकर प्रसन्न होगया । ईश्वर की प्रार्थना जो कि रानी ने गाई थी बादशाह अपने
ऊपर घटित करके बहुत प्रसन्न हुआ और कहा कि तुम्हारी
जो कुछ इच्छा हो  सो मांगो । रानी ने तीन वचन भरवा कर कहा कि हे बादशाह ! शेरखां पर मेरा पांच लाख का  कर्जा है सो आप उनको दिलवा दीजिए ।
बादशाह ने शेरखां को रुपयों की बाबत पूछा तो वह
रानी के मुंह को ताक कर बोला कि मैं खुदा की कसम खाता हूँ कि मैंने तो इसका कभी मुह तक भी नहीं देखा है मुझ पर इसका कर्जा क्योंकर है। रानी ने यह सुनकर वादशाह से कहा कि यदि मेरा मुख भी नहीं देखा था तो यह वह कटार  कैसे लाया और लहसन का निशान तृने किस तरह बतला दिया । यह सुनकर
शेरखां के होश उड़ गए और उसको अपनी सारी कहानी बादशाह  को बतानी पड़ी ।अब जसवन्तसिंह के बजाय शेरखां को फांसी का दण्ड मिला क्योंकि रानी ने बादशाह से दूती का सत्र हाल बयान कर दिया था ।
भावार्थ-
इससे यह शिक्षा मिली कि पतिव्रत धर्म के प्रताप से
सारे कठिन से कठिन काम तुच्छ दिखाई देते हैं ।
बिन्दा पतिव्रत धर्म के ही कारण तुलसी बनकर
भगवान की प्राणप्यारी बनी क्योंकि इसके बिना भगवान छप्पन भोगों को भी नहीं मानते । सीता जी ने भी राम से कहा है कि-
जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी।तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।।सारांश यह कि स्त्री के लिए पति ही सर्वस्व है और यदि वह पतिव्रता है तो उसके पति और उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।ईश्वर की कृपा सदा उन पर बनी ही रहती है।
जय श्री राम जय हनुमान

शनिवार, 14 सितंबर 2024

✓कह मुनीस हिमवंत सुनु

कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥

जो कुछ विधाता ने भाग्य में लिख दिया है वह होकर
ही रहता है, चाहे कोई कितना ही परिश्रम करे परन्तु जैसा
प्रारब्ध में लिखा है वैसा ही रहेगा, प्रारख्ध न बढ़ती है और न घटती है ।
एक पुरुष अपनी स्त्रो सहित कहीं जा रहा था और
साथ उसका  पुत्र भी था। मार्ग में उसे भगवान शंकर और
पार्वतीजी  मिले | पार्वती जी को उनकी दशा देख कर दया
आ गई और उन्होंने महादेव जी से कहा कि हे नाथ इन पर दया करनी चाहिए । महादेव जी ने कहा कि, ये तोनों कम नसीव  के हैं। मेरी दया से इनको लाभ नहीं होगा । पार्वती जी ने बार बार आग्रह पूर्वक कहा तव महादेव जी ने उनसे कहा कि तुम तीनों एक २ चीज मुझसे माँग लो वह तुरन्त मिल जायगी । तव औरत  ने सुन्दर स्वरूप मांगा वह तुरन्त रूपवती हो गई । एक राजा उसे देख कर हाथी पर चढ़ा ले चला । जब उसके पति ने देखा कि मेरी स्त्री तो हाथ से गई तो वह  महादेवजी से कहा कि इस औरत का रूप सूअर के समान हो जायं सो उसी क्षण होगई । अव जो राजा हाथो पर चढ़ा  उसे ले जा रहा था।उसके रूप से घृणा करके छोड़ दिया । अब पुत्र ने अपनी माता
को बदसूरत जान कर यह मांगा कि मेरी माता पहिले जैसी  थी वैसी ही हो जाय वह तुरन्त वैसी ही हो गई । मतलब यह है कि तीनों को कुछ न मिला । तब महादेवजी ने पार्वती से कहा कि विधाता ने जो प्रारब्ध में लिखा है वही मिलता है । तभी तो देवर्षि नारद जी ने यह बात कहा है।
कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥