मानस चर्चा
" तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥"
सुन्दर काण्ड में माता सीताजी ने हनुमानजी से कहा -- " तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥"
यहाँ विचारणीय है कि सक्रसुत कौन है और उसकी कौनसी कथा सुनानी है बान प्रताप क्या है जिसे प्रभु को समझाना है आइए उस कथा को मानस के आधार पर सुनते और समझते हैं ----
यह कथा अरण्य काण्ड के प्रारम्भ की है जहाँ सीता हरण और रावण मरण का बीज भी अंकुरित हो गया है, शक्र सुत प्रकरण में ही स्पष्ट हो गया कि सीता के प्रति छोटे से छोटे अपराध करने वाले को भयानक दण्ड तो हरण करने वाले को मरण वरण तो करना ही होगा। इस बात के लिये सुर, नर, मुनि सबको जयन्त प्रकरण द्वारा निश्चिंत किया गया है आईये हम भगवान शंकर के विचार श्रीराम के बारे में सुनते है फिर मूढ़ शक्रसुत की करनी और भरनी भी ।
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥
भरत चरित के बाद पावन और सुर,नर,मुनि मन भावन प्रभु चरित सुरपति सुत जयन्त से प्रारम्भ हो रहा है:
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई।
मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन।
करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥
अब कथा गोस्वामीजी के शब्दों में:
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।
निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर।
बैठे फटिक सिला पर सुंदर॥
सुरपति सुत धरि बायस बेषा।
सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
सुरपति सुत मतलब सक्रसुत जिसका नाम है जयंत:
जिमि पिपीलिका सागर थाहा।
महा मंदमति पावन चाहा॥
सुरपति सुत जयन्त ने ऐसा क्यों किया इसके पीछे एक पुरानी कथा है : भगवान श्रीराम का बालकपन में पतंग उड़ाना ,जयन्त पत्नी द्वारा पतंग पकड़ना फिर उसकी पतंग के स्वामी को देखने की लालसा, जिसकी पूर्ति के वचन हनुमानजी द्वारा भिजवाना कि चित्रकूट में लालसा पूर्ति होगी ,अब जब वह अपनी उस लालसा पूर्ति के लिए पूनम की रात्रि में चित्रकूट आकर राम रुप पर मोहित हो जाती है तब सठ जयन्त सीताजी को अपने चरन-चोंच से रघुपति बल परखने को मूढता में घायल कर देता है।
सुरपति सुत से एक बात और मन में आती है कि हो सकता है उसके मन में आया हो कि देवों का कष्ट दूर करने को तो यह राम कोई प्रयास ही नहीं कर रहा है पता नहीं क्या बात है, यह सुरों अर्थात् देवों का कष्ट दूर कर भी पायेगा या नहीं चलो क्यों न अपनी कायापलट विद्या से इनका परीक्षण ही कर लिया जाय। उसने अपनी आशंकाओं को दूर करने के लिए कर लिया परीक्षण: सीता चरन चोंच हति भागा।
मूढ़ मंदमति कारन कागा॥
हो गया परीक्षण, परीक्षण का परिणाम तो मिलना ही है इसका प्रभाव तो पड़ना ही है :
चला रुधिर रघुनायक जाना।
सींक धनुष सायक संधाना॥
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह।।
यहाँ रघुनायक द्वारा राजा रघु की कृपालुता-दीन बंधुता पर भी प्रकाश डाला गया है , विश्वजीत यज्ञ के बाद सर्वस्व दान कर चुके राजा के पास जब वरतन्तु(विश्वामित्र) शिष्य कौत्स चौदह सहस्र स्वर्ण मुद्रा के लिये आये और राजा की दीन-हीन स्थिति को देख बिना याचना किए ही जाने लगे तब उनके मनोरथ की पूर्ति हेतु राजा ने कुबेर पर चढ़ाई की तैयारी कर दिया जिसे जानते ही कुबेर ने अनन्त स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा कर दी। जब रघु ऐसे तो उनका नायक जिसे रघुनायक कहते हैं वो कैसा होगा जान लेते हैं-
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा।
चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं।
राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥
भा निरास उपजी मन त्रासा।
जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका।
फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका।।
रामविमुख का हाल क्या ? तीनों लोकों में उसका कोई नहीं। कैसे? ठीक वैसे जैसे दुर्बासा का भी कोई नहीं रहा। जब ऋषि दुर्बासा ने भगवान भक्त अम्बरीष पर तप बल प्रयोग किया तब उनका क्या हुवा यह कथा जगत जानता हैं। वह कथा सुरपति अर्थात् जयंत के पिताश्री को देवगुरु बृहस्पति तो पहले ही सुना चुके हैं-
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
वही हाल राम विमुख सुरपति सुत की भी हो रही है गोस्वामीजी कह रहे हैं सुनते हैं-
काहूँ बैठन कहा न ओही।
राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
अब रामद्रोही का हाल क्या होता है अर्थात् रामविमुख का हाल क्या होता है?सुनते हैं:
मातु मृत्यु पितु समन समाना।
सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥
मित्र करइ सत रिपु कै करनी।
ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता।
जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता।।ये होता है राम द्रोहियों के साथ इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है।पर यहां एक बात सबके दिमाग में आनी भी स्वाभाविक ही है कि राम विमुख की हाल तो हम जान गए पर राम की कृपा प्राप्त राम भक्त का क्या होता है,
यदि राम सम्मुख हो अर्थात राम कृपा प्राप्त हो तब क्या होता है देखें- राम के सम्मुख होने पर क्या होता है:
गरल सुधा रिपु करइ मिताई।गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
गरुण सुमेरु रेनु सम ताही।राम कृपा करि चितवा जाही।।
और भी देख ही लेते है:
करौ सदा तिन्ह कै रखवारी।जिमि बालकहि राखि महतारी।।
जो जिसका अपराध करता है उसका अपराध वही क्षमा करता है इसके लिये सत्पुरुष का मार्ग दर्शन भी मिलता है-
नारद देखा बिकल जयंता।
लगि दया कोमल चित संता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही।
कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥
आतुर सभय गहेसि पद जाई।
त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई।
मैं मतिमंद जानि नहीं पाई॥
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी।
एकनयन करि तजा भवानी॥
कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥
यही वह कथा है जिसे माताजी ने हनुमानजी से प्रभु श्री राम को सुनाने और उनके वाण के प्रताप को समझाने को कहा-- ।।जय श्री राम जय हनुमान।।
।।धन्यवाद।।