आज इक्कीस अक्टूबर,2015 अश्विन शुक्ल अष्टमी नवरात्रि के पावन पर्व पर वास्तव में उम्र के उस पड़ाव से अपनी आत्मकथा शुरु करने पर जहाँ से बालक सब कुछ भला-बुरा समझने की स्थिति में होता है और जिसे वास्तव में आत्मकथा विद्वत बन्धु कह सकते हैं,मुझे माँ दुर्गा की कृपा से इसकी सत्यता से सम्पूर्ण होने पर मेरा भरोसा दृढ़ है और सभी स्नेही जनों से सतत स्नेह-सुधा की प्रबल उम्मीद है।Infact "life is not bed of roses and a cup of tea."is always true on me and my family.अब मैं teenage में पहुँच गया।परिवार की आर्थिक स्थिति push start vehicles की तरह,जिसे सारे रीति-रिवाज,रस्म और दहेज-दानव के सुरसा-मुख मध्य बहन राजकुमारी की शादी करने की चुनौती पूर्ण करनी रही।योग्य घर-वर की तलाश परिवार-रिश्तेदार के अनवरत प्रयास एवं प्रभु-कृपा से शीघ्र ही पूर्ण हो गयी।योग्य-अयोग्य का निर्णय हम करें या परात्पर पर ब्रह्म या यो कहे"तुलसी जसि भवतव्यता तैसी मिलइ सहाइ।आपु नु आवइ ताहि पहि ताहि तहा लै जाय।।"उस समय हमारे परिवार की औकात से बाहर ही वह शादी रही पर तय हो गयी येन केन प्रकारेण समस्त सामाजिक,धार्मिक और लौकिक रीति-रिवाजों के मध्य तिलकोत्सव आदि सम्पन्न हो गये।मेरे बहनोई राजस्थान रोडवेज के बूँदी डिपो में उस समय ही परिचालक रहे।नौकरीसुदा वर एक बड़ी उपलब्धि जिससे पूरे जोश से शादी में परिवार के प्रत्येक सदस्य ने अपना पूरा योगदान दिया।बारात के दिन घराती-बाराती के खाने-पिलाने की सारी व्यवस्था करनी रही,तिलकोत्सव आदि के बाद ही आर्थिक तंगी आ गयी थी पर मेरे मझले भाई गजब आत्मविश्वास के धनी परम जीवट से सम्पन्न कभी हार न मानने की प्रवृत्ति से ओतप्रोत ठाकुरजी की कृपा पर अटूट विश्वास रख इस उम्मीद से कि बारात के दिन तक उनका स्वयं का तीन माह का रुका वेतन,छोटे भाई साहब से भरपूर सहयोग मिल ही जायेगा जिससे सब कुछ सहज-सरल सम्पन्न हो जायेगा विवाह उत्सव की तैयारी करते रहे और किसी के चेहरे पर सिकन नहीं आने दिये लेकिन बारात के दिन सुबह दस बजे तक कही से कोई उपलब्धि नही हुइ तब परेशानी की रेखा स्पष्ट उनके चेहरे पर दिखने लगी चूँकि मैं ही हर जगह भाग-दौड़ करने वाला पायक रहा इस लिए मुझे उनकी परेशानी समझते देर न लगी,मैंने उनसे सब कुछ जाना तो ज्ञात हुवा कि शादी में लगभग एक हजार लोगों का भोजन है सारी सामग्री पूर्व में आ चुकी है पर अत्यावश्यक एवं उसी दिन लाने वाली सामग्री नहीं आयी है कारण बड़े भाई साहब का गोरखपुर सेआर्थिक मदद या योगदान के साथ तबतक नहीँ पहुँचना छोटे भाई साहब का कोइ अता-पता नहीं खुद का वेतन जमा न होना।यह सच है "circumstances are touch stone of bravemind"यह एक बहुत बड़ी कसौटी रही क्योकि आज की तरह मोबाइल उस समय सर्व सुलभ नही रहे जिससे किसी की कही की खबर ली जा सके वास्तव में मोबाइल का यदि सही उपयोग किया जाय तो यह वरदान ही है,आज मेरी संचय प्रवृत्ति काम आयी मैंने जो कुछ भी सत्य नारायण कथा वाचन से संचय किया था वह सब लाकर भाई साहब को दे दिया,वे मुझे आश्चर्य से देखने लगे गदगद हो गये तात्कालिक समस्या हल हो गयी उस राशि से सब्जी आदि अत्यावश्यक सामग्री लेकर बाजार से हम घर आये कि ठाकुरजी की कृपा बरसने लगी,भाई साहब के स्कूल के बाबूजी ने आकर सूचना दिया कि वेतन जमा हो गया तबतक छोटे भाई साहब ट्रक सहित बड़े भाई साहब को लेकर आ गये।आनन्दमय वातावरण में सभी कार्यक्रम सम्पन्न होने लगे।मेरे समझदार होने पर यह परिवार में पहला बड़ा उत्सव रहा जिस समय मुझे परिस्थितियों को ठीक-ठाकसमझने,परखने,देखने,विचारने,सवारने,बिगड़ी या बिगड़ी को बनाने,बचाने आदि को सन्निकट से देखने-समझने का प्रथम जीवन्त अनुभव प्राप्त हुआ।सच कहू यह शादी मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना और अनुभव है।इस शादी में मित्र-अमित्र,सहयोगी-असहयोगी, दोस्त-रिश्तेदार, अपना-पराया आदि का अभूतपूर्व अनुभव प्राप्त हुआ।वर पक्ष के लोगों के बारे में उनकी सोच,मानसिकता आदि का भान हुआ।पट्टीदारी की पट्टीदारी और इनके आपसी घृणा-प्रेम का भी ज्ञान हुआ।एक भ्रम,एक क्रोध,एक घमण्ड,एक मै किस प्रकार एक ही झटके में सब कुछ बिगाड़-बना सकता है;यह सब कुछ मुझे यहाँ बिन मांगे,बिन सोचे, बिन मतलब और बिन कहे मिला।इस विवाह को मैं व्यथा-कथा कहूँ या एक भयंकर भूल या भावी।शादी समस्त लौकिक,वैदिक,सामाजिक,पारिवारिक रीति-रिवाज से सम्पन्न हो गयी।पारिवारिक और सभी स्नेही जनों ने भीगे-नयनों से बहन की बिदाई किया।
गोस्वामी तुलसी दास ने अपने महाकाव्य में कहा है"नहि दरिद्र सम दुःख जग माही।संत मिलन सम सुख जग नाही।।"इन पक्तियों की यथार्थता जग जाहिर है पर मेरे परिवार पर तो चरितार्थ ही है।परिवर्तन प्रकृति का नियम है।परिवर्तन हो रहा था पर नियति गति से हमारी अपेक्षाओं के अनुसार नहीं।बन्द नहीं होते कभी नियति नटी के कार्य यहाँ।हम दुःख सुख दोनों को साथ या बारी बारी से झेलते ही हैं।हमारे परिवार पर उक्त दोनों पक्तियो की बातें यतार्थ ही रही।दरिद्रता साथ छोड़ने का नाम नहीं ले रही लेकिन माता-पिता जैसे संत के होते सुख हमारे साथ स्थायी रुप से रहा।उन पाद पद्मो में जो सुख रहा वह अवर्णनीय एवं सतत स्मरणीय है।पिताजी परिवार के भरण-पोषण के लिए अपनी क्षमता-योग्यता के अनुसार खेती आदि कार्य करते और माताजी घर के कार्यो में अनवरत रत रहती।यद्यपि कि आवश्यकता अनुसार पूरा परिवार खेती कार्य में अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार सहयोग देता ही रहता पर पिताजी का कार्य एवं लगातार कार्य की समाप्ति तक कार्य में लगे रहना हमे आज भी प्रेरणा देता रहता है।माताजी के कार्यो में अंदर सभी भाभियाँ उनका पूर्ण सहयोग करती और बाहर के कार्यो के लिये मैं और मास्टर साहब मुस्तैद ही रहते थे।हम समाज के हर वर्गो के सहयोग के लिए हमेशा तत्पर रहते इसलिए समाज का हर वर्ग हमारे सहयोग हेतु प्रतिपल तैयार।ठाकुरजी की कृपा हमारे पर हर पल है वे हमारे सहायक हैं उनकी स्नेह सरिता सदा अपने प्रेमाम्बु से दुःख दावानल धोती रहेगी हमारा विश्वास है कि प्रभु,मेरे ईष्टदेव व माताश्री सहित सभी देवो की कृपा हमारे पर हमेशा-हमेशा रहेगी।हम दिन-रात परिश्रम कर सतकर्मो से स्थिति सुधारने में लगे रहे।सत्यमेव जयते के साथ ही साथ हम हमेशा श्रमेव जयते में विश्वास करते।सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जगना,कक्षा के पाठ कंठस्थ करना,पशु सेवा फिर पूर्ण क्षमता से खेत में श्रम करना दिनचर्या रही।हम हमेशा यही सोचते कि हमारी फसल सबसे अच्छी ही होनी चाहिए और फसल अच्छी होती भी रही।इस हेतु हम सुबह से लगभग नौ बजे तक खेत में पुरजोर परिश्रम करते फिर तैयार होकर स्कूल जाते।मैं भाई साहब के स्कूल में ही दसवीं तक पढ़ा। हम दोनों घर-परिवार,खेत-खलिहान में एक साथ काम करते।विद्यालय में गुरु-शिष्य।दसवीं बोर्ड परीक्षा सम्पन्न हो गयी। परीक्षा परिणाम का इंतजार।उन दिनों आज जैसी इंटरनेट,कम्प्यूटर,मोबाइलआदि की इतनी सुगम-सरल व्यवस्था नहीं रही।अख़बार ही एकलौता साधन।वह भी गाँव-गाँव,घर-घर नहीं पहुँचता।बड़े,छोटे-मोटे शहरों,कस्बों तक सीमित।परीक्षा परिणाम बताकर पैसे कमाने की लालसा से भी गिने चुने लोग यदा-कदा किसी गाँव स्कूल तक पहुँच जाते।अख़बार भी आज-कल की तरह सरल ढंग से परीक्षा-परिणाम नहीं बताते।इकट्ठे छापते।परिणाम जल्द से जल्द जानना जंग।मैं एक सहपाठी रामानुज दुबे के साथ साईकिल से बरहज बाजार गया।हमने परिणाम देखा।दिखाने वाले को एक-एक रुपये देकर हम घर न आकर अपने स्कूल गुरूजनों को प्रणाम करने की नियति से चले गये।हम तो खुश थे पर वहाँ विद्यालय भवन के सामने पीपल के नीचे कुर्सी में शिर निचे कर उदास,परेशान एवं क्रोधित बैठे थे मेरे भाईसाहब।उनके पास और कोई नही था हम सबसे पहले उनसे ही मिले हमने उनका पैर छूकर आशीर्वाद लिया।उन्होंने पूछा क्या हाल है मैंने बताया कि दुबे द्वितीय श्रेणी में और मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ हूँ।उन्होंने कहा अरे यहाँ तो तुम्हे थर्ड डिवीजन बता रहे हैं,तपाक प्रश्न तुम्हारा रोल नम्बर क्या है?मैंने बताया :-चार लाख तिरासी हजार पाँच सौ नौ। भाईसाहब को अचानक गुस्सा आ गया और बोले अरे तुम्हें सही सही याद तो है न मैंने कहा अरे यह भी कोइ भूलने वाली बात है क्या? तब भाई साहब बोले अरे यहाँ पता नही कैसे देखे हैं कि तुम्हें और अन्य प्रथम श्रेणी आने वाले बच्चों को थर्ड और सेकेण्ड बता रहे है और जो पास ही नही हो सकते उन्हें प्रथम श्रेणी बता रहे हैं।मैंने देखा,महसूस किया एक भाई का अपने भाई पर विश्वास,एक गुरु का अपने शिष्यों के प्रति अनूठा और गजब का विश्वास,विद्यार्थियो की पहचान।ज़ोर से नाम लेकर अपने पूरे स्टाफ को भाईसाहब ने बुला लिया।प्रिंसिपल साहब किसी काम से चले गए थे।भाईसाहब ने सभी को डपटते हुवे गुस्से से बोला देखा आप लोगों ने,सब हत्प्रद ।रोल नम्बर की छान-बिन हुइ।संस्था के रिकार्ड से अनुक्रमांक मिलाकर अब अख़बार वापस देखना शुरु किया गया तब पता चला कि हमारे पूर्व के देखने वाले गुरुजनों ने चार लाख चौरासी हजार से प्रारम्भ होने वाले अनुक्रमांक को देख लिया था।अब तक संस्था प्रधान श्री ओंकार दुबे भी आ गये और सभी बात को समझने के बाद उन्होंने कहा कि तिवारीजी वास्तव आप सही थे हमारा स्टाफ गलत था और आपको अपने विद्यार्थियों की योग्यता पर जो विश्वास है वह भी सराहनीय है और आप काबिले तारीफ है।इसे भाईसाहब का प्रेम,स्नेह एवं उनका तजुर्बा भी कह सकते हैं।यह एक घटना हमे हमेशा भविष्य में प्रेरणा देती रहेगी।आत्म ज्ञान,आत्म विश्वास,आत्म प्रेम और आत्म संयम आत्म अनुशासन जब हमे जिज्ञासु बनाकर सतपथ पर चलाते है तब स्वमेव ही हमारी सोच सही हो जाती है और हम विकास पथ पर अग्रसर होते रहते हैं।स्वामी रामतीर्थ परमहंस ने सही ही कहा है"हमारे छोटे-छोटे अनुभवों में मानवता का सारा इतिहास छिपा रहता है।"यह अनुभव ही तो मेरी स्वानुभूति का प्रारम्भ बिंदु है।इस प्रकार बाबा इन्द्र मणि जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मेरी पढ़ाई पूर्ण हुइ।यह संस्था भी उस समय दसवीं तक ही रही अतः अध्ययन जारी रखने के क्रम में अन्यत्र प्रवेश लेना ही था।अगली संस्था श्री कृष्ण इण्टर कालेज बरहज बाजार।ग्यारहवीं में यहाँ प्रवेश लिया,गृह कार्य में पूर्ण सहयोग के साथ अनवरत अध्ययन जारी रखा।यह संस्था हमारे क्षेत्र की जानी-मानी संस्था।यहाँ आते -आते मैं भी कुछ परिपक्व हो रहा था सिखने की लालसा सिखाती जा रही थी।समय पालन-अनुशासन को निकट से देखने समझने का सुअवसर यही मिला।प्रधानाचार्य श्री विष्णु देव तिवारी का रौद्र और स्नेहिल रुप समरसता के लिए अपने आप सब कुछ कर जाता था।समय की पाबन्दी इतने बड़े स्कूल जहाँ लगभग तीन हजार विद्यार्थी और अस्सी अध्यापक रहे सब पर समान लागू थी।संस्था प्रधान कब आते मैंने देखा ही नहीं क्योकि मैं उन्हेँ जब भी देखा संस्था में ही देखा।उनकी एक बात कि जो विद्यार्थी अपने विद्यार्थी जीवन में समय पालन नही करता वह भावी जीवन में कभी नही कर सकता उनकी यह बात मुझे आजीवन समय पालन हेतु प्रेरित करती रहती है।वैसे मैं पारिवारिक और व्यक्तिगत रुप से भी पूर्व से ही इस सत्य तथ्य का पालन कर रहा था।स्व अनुभव इस संस्था का मेरा है कि यही इस संस्था विकास का राज भी रहा।यहाँ दोनों पारियों में हाजिरी तो होती ही थी अलग से हर विषयाध्यापक भी अपनी अपनी कक्षा में उपस्थिति लेता था। मेरी शिक्षण शुल्क इस संस्था में माफ़ रही पर अन्य शुल्क दो रुपये पच्चास पैसे हर महिने लगते थे जिसे मैं प्रथम निर्धारित तिथि हर माह की पंद्रह तारीख को हर हाल में दे देता था,यदि कोई इस तिथि पर शुल्क जमा नही करवाता तो उसे तीन पैसे रोज फ़ाईन भरनी पड़ती इसके साथ ही एक मीटिंग अनुपस्थिति की भी फाइन तीन पैसे रही।वैसे मैं इन फाइनो से परे था पर एक दिन बरसात में प्रथम पारी में कुछ ही विद्यार्थी आये थे,कक्षाध्यापक श्री सुग्रीव पाण्डेय ने हाजिरी भरने के बाद यह कह दिया कि आज आप की संख्या कम है और मौसम भी ख़राब है तो आप घर जा सकते हो,मैं घर आ गया,इस बीच मौसम ठीक हो गया और लोकल स्टूडेंट्स आ धमके,जब श्रीमान प्रधानाचार्य महोदय ने हाजिरी लिया तो मुझे ऐब्सेंट लगा दिया।शुल्क जमा करते समय जब फाइन की बात आयी तब श्री पाण्डेय ने आश्चर्य से कहा तिवारी तुम्हारी फाइन कैसे?मुझे भी आश्चर्य!रजिस्टर देखने के बाद सारा माजरा हमे समझ में आया। इस संस्था से बारहवीं उत्तीर्ण कर अन्यत्र जाना ही था।यद्यपि उच्च शिक्षा हेतु बरहज में संसथान उपलब्ध है पर मैं एक अच्छे संस्थान से अब शिक्षा प्राप्त करना चाहता था इसलिए पारिवारिक औकात के अनुसार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रथम प्रयास किया।उस समय गोरखपुर को छोड़कर शेष जगह प्रवेश पूर्व परीक्षा शुरु हुई थी।इलाहाबाद सबसे नजदीक का प्रख्यात विश्वविद्यालय है।अतः उसके अन्य कॉलेजों में भी आवेदन किया।बनारस हिंदू विश्वविद्यालय BHU में भी आवेदन किया।गोरखपुर में अंक के आधार पर प्रवेश हो रहा था लिस्ट निकली मेरा चयन हो गया,अब दूसरे जगह का था इन्तजार पर यहाँ अंतिम तिथि निकली जा रही थी अतः मन मसोजकर प्रवेश ले लिया।रहने की व्यवस्था फ़िलहाल बड़े भाईसाहब के साथ जो अपने बुढ़ापे में वापस पढ़ाई शुरु कर स्नातक, शिक्षा स्नातक के पश्चात संस्कृत से परास्नातक कर रहे थे जिनकी वापस पढ़ाई शुरु करवाने का एकमात्र श्रेय दूसरे भाईसाहब का रहा क्योकि इनकी पान की दुकान बंद हो गयी थीऔर परिवार को उम्मीद रही की पढ़ लेंगे तो कही न कही नौकरी प्राप्त ही कर लेगे,मेरे छोटे भाई वहाँ ट्रक चलाते थे जो कभी-कभी इनके क्वार्टर पर रुका करते थे वही इनके रहने खाने पढ़ने आदि का खर्च वहन करते रहे,प्रायः मेरे समस्त खर्च भी यही उठाते जो कि नही के बराबर था क्योकि मैं स्वभावतःमितव्ययी बचपन से ही रहा।इस प्रकार उच्च शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय में 1986 में प्रारम्भ हो गयी।
क्रमशः
शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015
स्वानुभूति गतांक से आगे||4||
गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015
स्वानुभूति गतांक से आगे||3||
तिलौली का यह नोनिया टोला बाबा टोला से तिवारी टोला बन गया।मेरा जन्म तिलौली गाँव के सामूहिक पैतृक घर पर हुवा पर बचपन और बालकपन का आनंद एवम कष्ट यही प्राप्त किया।हमारे उन दिनों टोला एक विशिष्ठ स्थान रखता क्योकि यहाँ जन्मांत तक के सर्वाधिक संस्कारों के उपाधान तथा इस हेतु आवश्यक हर कार्य क्षेत्र के व्यक्ति उपलब्ध।घर तो यहाँ मात्र गिने-चुने जगत बाबा;जद्दू,सूरदेव,सामदेव,शम्भू नोनिया;सीताराम कोहार;शंकर, राम आशीष,रामबिलास लोहार के कुल नौ ही नवग्रह की तरह नव नव क्षेत्रों व कलाओं के महारथी तथा ज्ञाता एवम् जीवन के सभी कर्म क्षेत्रों हेतु सहज-सरल उपलब्ध।यहाँ का सभी परिवार लाजबाब अपने कर्म और परिश्रम हेतु मशहूर।ये काम से नहीं भागते इन्हें देख काम भाग जाता।मेरी माताजी सभी परिवारों की मतवा सबको सही राय देती ईमानदारी और परिश्रम का पाठ पढ़ाती।मातृ पक्ष के परिवार से प्राप्त संस्कारों के कारन माताजी पूजित रही। काफी कष्टप्रद जीवन के बाद परिवार का जीवन जीने योग्य चल रहा था।मेरा घर आम रास्ते पर जहाँ विशाल महुवा का पेड़ उसके नीचे हैण्ड पम्प जिसके समीप गुड़ की डली डलिया में माताजी हमेशा राहगीरों हेतु रखी रहती।राहगीर तृप्त हो जाते।मैं इन सभी परिस्थितियों को समझते बूझते बचपन से निकलते पाँचवीं बोर्ड पड़ौसी गाँव भैदवा से पढ़ परीक्षा केंद्र मरकडा से परीक्षा दे 1979 मेंउत्तीर्ण किया।सच यही है कि उस समय आस-पास पाँचवी के बाद अध्ययन के लिये सरकारी या पब्लिक स्कूल ही नही थे।आज भी मेरे गाँव में प्राथमिक तक ही सरकारी स्कूल है।साक्षरता कम रहने के एक कारणों में उस समय आज की तरह हर जगह स्कूलों का न होना भी रहा।संयोग से पड़ोसी गाँव टीकर में "बाबा इन्द्र मणि जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय"दसवीं तक एक पब्लिक स्कूल खूल गया था जो बाद में राज्य सरकार से सहायता प्राप्त अनुदानित सरकारी स्कूल बन गया।कक्षा छठी से दसवीं तक का अध्ययन यहीं से पूरा किया।उस समय बड़े भाई साहब गोरखपुर में आधुनिक परिवार सहित रहते घर से नाम मात्र सम्बन्ध रखते,दूसरे भाई साहब नौकरी की तलाश में कभी कोलकाता कभी मथुरा वृन्दावन और तीसरे भाई साहब डागा कॉटन मिल हुगली कोलकाता में काम कर रहे थे।घर पर मैं माता-पिता और शेष परिवार के साथ रहता था।मैं अपनी बहन राजकुमारी के साथ पढ़ता।बहन उम्र में दो साल बड़ी पर मेरे साथ ही पढ़ना शुरु किया और दसवीं तक मेरे साथ ही पढ़ती रही।दसवीं के बाद शादी पश्चाद् उसकी पढ़ाई रुक गयी।भाई-बहन को ही घर परिवार का सर्वाधिक कार्य भीतर बाहर करना पड़ता रहा।माता-पिता के सामाजिक-पारिवारिक कार्यो में हमे ही यथा समय यथा शक्ति सहयोग करना होता।खेती के लियेऔकात के अनुसार ही दो बूढे बैल थे,हलवाहे को हमारे यहाँ जुताई आदि कार्य करने के बदले जमीन दी गयी थी।पिताजी ने शौक से एक भैस भी रखा था।उन सभी पशुओ की जिम्मेदारी भी हमारी ही रही।अतःप्रभु कृपा से स्वमेव ही पशु सेवा बाद में गो सेवा का लाभ एवं प्रातः काल सुबह जल्दी जगने की आदत पड़ गयी और परिश्रमी स्वभाव भी हो गया।छठी से ही मैं परिवार की आर्थिक आदि परेशानियों को धीरे-धीरे समझने लगा था और उसको दूर करने हेतु प्रयास रत रहने लगा था।जब से मैं थोड़ा-बहुत चीजों को समझने लायक हुवा तब से मैं बिना किसी के कहे आवश्यकतानुसार घर-परिवार का काम सम्भालना शुरु कर दिया।पशुओं को खिलाना- चराना,उनकी देख-भाल करना,बैलों को खेत तक पहुचाना आदि पढ़ाई के साथ मेरा मुख्य काम था।इनके अतिरिक्त अनेक पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को भी मुझे पूरा करना ही पड़ता था।परिवार की लचर स्थिति को दूर करने में पिताजी की जजमानी का भी सहयोग रहा।जजमानी खूब रही जो मजबूरी में ही रही।जजमानी में मुख्य काम था सत्य नारायण की संस्कृत में कथा कहना।पिताजी के दबाव और समय की मजबूरी में मैंने यह काम स्वमेव ही पुस्तकों की सहायता से सिखा और सत्य नारायण की कथा बाँचना यत्र-तत्र-सर्वत्र जहाँ मिले वही शुरु कर दिया।इससे संस्कृत-संस्कार एवं संस्कृति के प्रति स्वमेव रुझान बढ़ने लगा।
मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ घर के समस्त कार्यो को निश्चित समय पर करता रहा।बीच के दोनों भाइयों द्वारा समय-समय पर आर्थिक सहायता मिल जाया करती थी फिर भी तंगी बरकरार थी।मुझे सत्य नारायण कथा कहने से हल्का लाभ मेरी समझ में उस समय मुझे मिला होगा पर दूसरों को जरुर मिला क्योंकि स्कूल के पास जो बाबाजी का चौरा यानि मंदिर इन्द्रमणि ब्रह्म का है वहाँ रोज दो चार कथा के करवाने वाले आते जिनके पास कथा वाचक नहीं होते उनके लिए मैं सुलभ था। कथा में बीस आने पक्के थे जजमान अच्छा तो पांच से दस रुपये तक हो जाते और भोजन में दही-चिउरा भी हो जाता।प्रभु कृपा मैं एक भी पैसे का दुरुपयोग कभी नहीं करता अत्यावश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो बच जाता उसे गोलक के हवाले कर देता।मेरी बहन मेरे साथ मेरी ही कक्षा में पढ़ती,मेरे स्कूल और कक्षा में मुझे और मेरे कार्य को सब जानते,कथा से जो प्रसाद मैं लेकर आता और अपने थैले में रखता उसे कभी-कभी मेरे साथी तो कभी-कभी बहन की सहेलियां चुपके से निकाल कर खा जाते मजे लेते हँसते आनन्द करते।मैं भी उनके साथ हँसता खेलता मस्त रहता आखिर उनका साथी ही तो था।संयोग अचानक भैस के बिक जाने के कारण पिताजी एक गाय लाये जिससे एक बछड़ा हुवा,इसी बीच एक बूढ़ा बैल मर गया,खेती में परेशानी आ गयी पर हमारे टोले पर ही एक परिवार के पास एक ही बैल था अतःउनके साथ काम चलाया गया।अगले साल दूसरा बैल भी चल बसा।पिताजी ने एक बछड़ा कही से लाया और अपने घर वाले बछड़े के साथ एक अच्छी जोड़ी तैयार कर दिया जिससे बैलों की समस्या लगभग हल हो गयी।पिताजी का गाय के प्रति प्रेम बड़ गया।तबसे आज भी एक न एक गाय हमारे यहाँ हमेशा रखी जाती भले ही इनकी संख्या अधिक हो सकती है पर कम नहीं।समय ने करवट लिया।जब मैं आठवीं में आया उसी समय पता नहीं किन ज्ञाताज्ञात कारणों से मेरे छोटे भाई अपनी नौकरी छोड़कर घर आ गये। मेरे दूसरे भाई भी छुट्टी पर मथुरा वृन्दावन से गाँव आये हुवे थे।इसी बीच मेरे स्कूल के मैनेजर ने मेरे पिताजी को बुलवाया और मेरे दूसरे भाई साहब की नौकरी उसी स्कूल में लग गयी पर निःशुल्क सेवा जब सरकार अनुदान देगी तबसे तनख्वाह मिलने की बात तय हुई।छोटे भाई साहब गोरखपुर जा कर ट्रक चलाना सिखने लगे।वह एक कुशल ड्राइवर बन गये।दूसरे भाई साहब को स्कूल से तनख्वाह नहीं मिलती अतः उन्होंने जजमानी जोर शोर से सम्भाला,मैं उस काम से फ्री पर खेती आदि कामो में उनके साथ रहता,भाई साहब को अनेक स्थानों से श्रीमद्भागवत कथा कहने का प्रस्ताव आता गया और भाई साहब व्यास होते जिनमे लगभग हर जगह मैं उनका सहयोगी होता।मथुरा वृन्दावन के प्रवास पर भाई साहब बाके बिहारी से बहुत प्रभावित रहे और वहाँ के प्रवास के कारण ही अच्छे व्यास बन गये ।उनके द्वारा ही सही मुझे भी श्रीमद्भागवत कथा का आनन्द लेने के अवसर प्राप्त होते रहे।भाई साहब का स्कूल सरकारी हो गया।वेतन मिलना शुरु हो गया।भाई साहब के गाँव से दूर होने पर अभी भी मैं यदा-कदा पिताजी के मिलने वालों या यो कहे जजमानों के यहाँ कथा कहने मन-बेमन से जाता ही था,एक दिन श्री रामचरितमानस पढ़ते समय मेरा मन "पौरोहित्य कर्म अति मंदा।बेद पुरान स्मृति कर निंदा।।"पर मंथन करना शुरु कर दिया और मैंने मन ही मन निर्णय कर लिया कि किसी भी हाल में मैं अब यह कार्य नहीं करुँगा पर इस मेरे निर्णय के एक दो दिन बाद ही ऐसी स्थिति आ गयी कि मुझे पिताजी के दबाव में पड़ोसी गाँव धौला पंडित श्री शारदा प्रसाद पाण्डेय के घर कथा कहने जाना पड़ा पर वहाँ तो हद हो गयी,कथा अच्छा प्रशंसा के स्थान पर श्री पाण्डेय ने मुझे और पिताजी को बहुत ही विनम्रता से बहुत ही चुभने वाले कड़वे वचन कह दिये।मुझे उनकी सभी बातें हितप्रद ही लगी उन्होंने मुझे पढ़ने और आगे बढ़ने की प्रेरणा ही दिया।वास्तव में श्री पाण्डेयजी परमहितकारी वचन कठोरता से कहा जिसके बारे में कहा भी गया है"सुलभा पुरुषा राजन सततं प्रियवादीनः।अप्रिय स पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभम्।।"गोस्वामी तुलसी दास ने भी लिखा है:-प्रिय बानी जे कहहि जे सुनही।ऐसे नर निकाय जग अहही।बचन परमहित सुनत कठोरे।सुनहि जे कहहि जे नर प्रभु थोरे।मैं उनकी बात को दिल पर बैठा लिया।पर पिताश्री ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया यह मुझे हमेशा याद रहेगा पर उनकी हर बात मेरे जेहन में समा गयी और मैंने दृढ़ निश्चय किया कि अब मैं किसी भी हाल में इस काम को नहीं करुँगा।दृढ़ निश्चय पर परीक्षा शेष।परीक्षा का दिन आ गया।भाई साहब की अनुपस्थिति में पिताजी ने पड़ोस की लड़की की शादी में पंडिताई करने का दबाव बनाने लगे पर मैंने पहली बार जीवन में पहली बार अपने जीवनदाता का विरोध कर डाला तो कर ही डाला इस पर उन्हें गुस्सा आना स्वाभाविक,गुस्से में उन्होंने चाटा जड़ दिया और मैं घर छोड़ दिया,मैं बामुश्किल पैदल आदि से गोरखपुर अपने बड़े भाई साहब के पास पहुँच गया।उन्हें सारी बात बतया।पर वे मुझे अपना क्वार्टर और दुकान कार्य समझाकर मुझे या खुद घर जाने ले जाने के बजाय अपनी ससुराल निकल गये जहाँ उनका पूरा परिवार पहले से गया था।मैं वहाँ कुछ दिन रहा बहुत कुछ सीखा और तो और चाय को छोड़ने का प्रण भी मैंने वही किया,हुवा यो कि भाई साहब के दुकान के पास ही एक चाय की दुकान थी जहाँ मैं रोज चाय पिया करता था अचानक उसको गाँव जाना पड़ गया मेरे चाय के लाले पड़ गए अचानक चाय के समय सरदर्द शुरु ऐसा दो एक दिन हुवा कि मैंने सोचा हो न हो कि चाय के कारण ही ऐसा हो रहा हो जो सही भी था मैंने वही जून1982 में निर्णय किया कि चाय कभी नहीं पीऊँगा और निर्णय पर कायम हूँ।यहाँ मास्टर साहब और पूरा परिवार मेरी खोज में परेशान रहा वह हर रिश्तेदारो के यहाँ आस-पास अन्य वांछित स्थानों पर मुझे खोजता रहा भाई साहब मेरी खोज में मामाजी के यहाँ गये जहाँ से खाली हाथ आते समय दस शीशम के पौधे लाये और मेरे भगने की याद में उनका रोपण किये जहाँ बाद में हमने एक खूबसूरत बाग लगा दिये।बड़े भाई साहब ने किसी प्रकार मेरे गोरखपुर होने की खबर घर दे दिया था जिससे घर वालो की परेशानी कम हो गयी थी।मेरे इस कृत्य से परिवार को पूरा परिवार मिल गया,बड़े भाई साहब ससुराल से अपने पूरे परिवार को लाकर गाँव छोड़ गए और अपने अपनी दुकान सम्भालने लगे।मेरे छोटे भाई साहब की शादी भी हो गयी।सामान्य स्थिति में परिवार चलने लगा।बड़े व छोटे दोनों भाइयों ने अपने परिवार सहित गोरखपुर रहते और घर भी आते जाते।मैं ग्रामीण वातावरण में ही अपनी सभी परिस्थितियों को समझते हुवे पूरे लगन से अपनी पढाई जारी रखा और अपनी क्षमतानुसार समस्त गृहकार्यो में हाथ पूरे मनोयोग व परिश्रम से हाथ बटाता तथा खेती, बागवानी,पशु सेवा आदि कार्यो को करता परिवार की गाड़ी डगरने लगी थी।
क्रमशः